उलझन लगभग आठ साल पहले की बात है। मैं इलाहाबाद में अपने एक मित्र से मिलने जा रहा था। एक बच्चा रास्ते में मिला और बोला आप मेरी कुछ मदद ...
उलझन
लगभग आठ साल पहले की बात है। मैं इलाहाबाद में अपने एक मित्र से मिलने जा रहा था। एक बच्चा रास्ते में मिला और बोला आप मेरी कुछ मदद कर सकते हैं। मैंने कहा अपनी परेशानी तो बताइए। बोला यदि आज भी मेरी फीस जमा नहीं होगी तो मुझे छमाही परीक्षा में बैठने नहीं दिया जायेगा। कल से ही परीक्षा है। पिताजी की मृत्यु हो गई है। घर में केवल माँ जी ही हैं। फीस भरने को पैसे नहीं हैं।
अक्सर ठगी के बारे में सुनता था । आजकल ऐसी घटनाएँ बहुत आम हो गईं है। इसलिए पात्र और अपात्र को पहचान कर ही मदद के लिए कोई कदम उठाना चाहिए। इसी चक्कर में चाह कर भी किसी जरुरतमंद की भी मदद नहीं हो पाती। लेकिन मेरे सामने एक मासूम बच्चा था। जो दस-बारह साल का था। सातवीं कक्षा में पढ़ता था, उसने ही बताया था।
मैं उलझन में पड़ गया। क्या इसे ठग समझकर डांटकर भगा दूँ। अथवा पैसा दे दूँ। लेकिन विचारणीय यह था कि क्या इस उम्र में ही यह ठगी पर उतर आया है ? दूसरे क्या यह इस उम्र में ठगी करेगा ?
वह किसी सार्वजनिक स्थान पर भीख मांगने वाले बच्चों में से नहीं था। देखने में साफ-सुथरा था। उसके पास सायकिल, झोला और किताब तथा स्कूली ड्रेस भी था।
एक छोटा बच्चा जिसके पिता मर चुके हैं। जो सायकिल पर झोला रखे स्कूल जा रहा है। शायद पढ़ना चाहता है। पर किस्मत साथ नहीं दे रही है। सबसे बड़ी उलझन वाली बात थी उसकी फीस की रकम। बीस रूपये ! इतनी कम फीस ! इलाहबाद जैसे शहर के किसी स्कूल की !
मैंने उससे कहा कि मैं आपकी फीस दे दूँगा। लेकिन स्कूल चलकर आपके अध्यापक से भी मिलना चाहता हूँ। वहाँ पहुँचकर फीस जमा कर दूँगा। उसे सायकिल पर बैठाया और खुद उसकी सायकिल चलाने लगा। यूनिवर्सिटी रोड जैसे व्यस्त सड़क पर मैं पहली बार सायकिल चला रहा था। थोड़ी देर बाद वह बोला यहीं मेरा एक दोस्त रहता है। आप यहीं रुकें। मुझे उससे किताब लेनी है। मुझे देर हो रही थी। इसलिए मैंने उसे मना कर दिया और उसके बताए हुए स्कूल पर जा पहुंचा।
उसे सायकिल-स्टैंड में सायकिल खड़ी करने के लिए कहकर मैं उसकी प्रतीक्षा करने लगा। मैंने सोचा कि अलग से कक्षा अध्यापक से मिलना ठीक रहेगा। शायद बच्चों के सामने बात करने से कुछ बच्चे इसका मजाक बनाएँ। किसी के मजबूरी का मखौल उड़ाने में बड़े भी नहीं चूकते। बच्चे तो आखिर बच्चे ही ठहरे। लगभग आधे घंटे तक मैंने उसके लौटने की प्रतीक्षा किया। सायकिल स्टैंड भी गया। कई प्रश्न उठ रहे थे।
क्या आज दस साल के बच्चों का भी जेब खर्च इतना बढ़ गया है जिससे उन्हें ठगी का रास्ता अपनाना पड़ रहा है ?
क्या माता-पिता से इनकी आवश्यक आवश्यकताएं भी नहीं पूरी हो पाती ?
क्या माता-पिता इस कदर बच्चों से दूर होते जा रहे हैं कि बच्चे उन्हें मृतवत ज्यादा तथा जीवित कम पा रहे हैं ?
क्या सभी माता-पिता अपने बच्चों को पहचान पा रहे हैं ?
बाद में एक लड़के से पूछा कि क्या कल से छमाही परीक्षा शुरू हो रही है। उस लड़के ने बताया कि छमाही परीक्षा कब की समाप्त हो चुकी है।
अब मन में यही उलझन थी कि प्रिंसिपल से या किसी अध्यापक से इस घटना के बारे में चर्चा करूँ अथवा चलता बनूँ। शायद वह यहाँ का विद्यार्थी ही न हो। यदि हो भी तो बात फैलने पर शायद शर्म वश कहीं स्कूल आना ही न छोड़ दे।
धीरे-धीरे मैं अपने गंतव्य की ओर बढने लगा। लेकिन मन में अब भी एक प्रश्न उठ रहा था कि आज के जो बच्चे सिर्फ बीस रूपये के लिए अपने पिता को मृत बता सकते हैं। शायद वे बड़े होकर कुछ रुपयों के लिए अपने पिता का खून करने में भी नहीं हिचकिचाएँगे।
--------
एस के पाण्डेय,
समशापुर (उ.प्र.) ।
URL: http://sites.google.com/site/skpvinyavali/
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लगभग आठ साल पहले की बात है। मैं इलाहाबाद में अपने एक मित्र से मिलने जा रहा था। एक बच्चा रास्ते में मिला और बोला आप मेरी कुछ मदद कर सकते हैं। मैंने कहा अपनी परेशानी तो बताइए। बोला यदि आज भी मेरी फीस जमा नहीं होगी तो मुझे छमाही परीक्षा में बैठने नहीं दिया जायेगा। कल से ही परीक्षा है। पिताजी की मृत्यु हो गई है। घर में केवल माँ जी ही हैं। फीस भरने को पैसे नहीं हैं।
अक्सर ठगी के बारे में सुनता था । आजकल ऐसी घटनाएँ बहुत आम हो गईं है। इसलिए पात्र और अपात्र को पहचान कर ही मदद के लिए कोई कदम उठाना चाहिए। इसी चक्कर में चाह कर भी किसी जरुरतमंद की भी मदद नहीं हो पाती। लेकिन मेरे सामने एक मासूम बच्चा था। जो दस-बारह साल का था। सातवीं कक्षा में पढ़ता था, उसने ही बताया था।
मैं उलझन में पड़ गया। क्या इसे ठग समझकर डांटकर भगा दूँ। अथवा पैसा दे दूँ। लेकिन विचारणीय यह था कि क्या इस उम्र में ही यह ठगी पर उतर आया है ? दूसरे क्या यह इस उम्र में ठगी करेगा ?
वह किसी सार्वजनिक स्थान पर भीख मांगने वाले बच्चों में से नहीं था। देखने में साफ-सुथरा था। उसके पास सायकिल, झोला और किताब तथा स्कूली ड्रेस भी था।
एक छोटा बच्चा जिसके पिता मर चुके हैं। जो सायकिल पर झोला रखे स्कूल जा रहा है। शायद पढ़ना चाहता है। पर किस्मत साथ नहीं दे रही है। सबसे बड़ी उलझन वाली बात थी उसकी फीस की रकम। बीस रूपये ! इतनी कम फीस ! इलाहबाद जैसे शहर के किसी स्कूल की !
मैंने उससे कहा कि मैं आपकी फीस दे दूँगा। लेकिन स्कूल चलकर आपके अध्यापक से भी मिलना चाहता हूँ। वहाँ पहुँचकर फीस जमा कर दूँगा। उसे सायकिल पर बैठाया और खुद उसकी सायकिल चलाने लगा। यूनिवर्सिटी रोड जैसे व्यस्त सड़क पर मैं पहली बार सायकिल चला रहा था। थोड़ी देर बाद वह बोला यहीं मेरा एक दोस्त रहता है। आप यहीं रुकें। मुझे उससे किताब लेनी है। मुझे देर हो रही थी। इसलिए मैंने उसे मना कर दिया और उसके बताए हुए स्कूल पर जा पहुंचा।
उसे सायकिल-स्टैंड में सायकिल खड़ी करने के लिए कहकर मैं उसकी प्रतीक्षा करने लगा। मैंने सोचा कि अलग से कक्षा अध्यापक से मिलना ठीक रहेगा। शायद बच्चों के सामने बात करने से कुछ बच्चे इसका मजाक बनाएँ। किसी के मजबूरी का मखौल उड़ाने में बड़े भी नहीं चूकते। बच्चे तो आखिर बच्चे ही ठहरे। लगभग आधे घंटे तक मैंने उसके लौटने की प्रतीक्षा किया। सायकिल स्टैंड भी गया। कई प्रश्न उठ रहे थे।
क्या आज दस साल के बच्चों का भी जेब खर्च इतना बढ़ गया है जिससे उन्हें ठगी का रास्ता अपनाना पड़ रहा है ?
क्या माता-पिता से इनकी आवश्यक आवश्यकताएं भी नहीं पूरी हो पाती ?
क्या माता-पिता इस कदर बच्चों से दूर होते जा रहे हैं कि बच्चे उन्हें मृतवत ज्यादा तथा जीवित कम पा रहे हैं ?
क्या सभी माता-पिता अपने बच्चों को पहचान पा रहे हैं ?
बाद में एक लड़के से पूछा कि क्या कल से छमाही परीक्षा शुरू हो रही है। उस लड़के ने बताया कि छमाही परीक्षा कब की समाप्त हो चुकी है।
अब मन में यही उलझन थी कि प्रिंसिपल से या किसी अध्यापक से इस घटना के बारे में चर्चा करूँ अथवा चलता बनूँ। शायद वह यहाँ का विद्यार्थी ही न हो। यदि हो भी तो बात फैलने पर शायद शर्म वश कहीं स्कूल आना ही न छोड़ दे।
धीरे-धीरे मैं अपने गंतव्य की ओर बढने लगा। लेकिन मन में अब भी एक प्रश्न उठ रहा था कि आज के जो बच्चे सिर्फ बीस रूपये के लिए अपने पिता को मृत बता सकते हैं। शायद वे बड़े होकर कुछ रुपयों के लिए अपने पिता का खून करने में भी नहीं हिचकिचाएँगे।
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एस के पाण्डेय,
समशापुर (उ.प्र.) ।
URL: http://sites.google.com/site/skpvinyavali/
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