प्रधानजी आए थे․ मुस्कराते हुए छप्पर के नीचे खटिया पर बैठ गये थे․ दोपहर का समय था․ सुरसती अभी-अभी गाय को पानी पिलाकर लौटी थी․ बाहर लू...
प्रधानजी आए थे․ मुस्कराते हुए छप्पर के नीचे खटिया पर बैठ गये थे․ दोपहर का समय था․ सुरसती अभी-अभी गाय को पानी पिलाकर लौटी थी․ बाहर लू के थपेड़े झुलसाए दे रहे थे․ हवा में धूप की लहरें सी प्रवाहित हो रही थीं․ आंखें कहीं टिकती न थीं․ नज़र झिलमिलाने लगती थी․
सुरसती भी छप्पर के नीचे ज़मीन पर गहरी सांस लेकर बैठ गयी․
ग्राम प्रधान अमर सिंह मुस्कराकर बोले, ‘‘क्या बात है, आज मन मारे बैठी हो? किसी ने कुछ कहा है क्या?''
‘‘और कौन कहेगा?'' उसने सामने की तरफ देखते हुए कहा․ उसके दरवाजे के आगे थोड़ी खुली जगह थी․ उसके बाद पक्की ईटों की दो समानान्तर दीवारों के ऊपर एक तिकोना छप्पर रखा था, जिसके नीचे दो भैंसें और एक जोड़ी बैल बंधे थे․ इस के बगल में ही थोड़ी खुली जगह और थी, जहां ईधन की लकडि़यां, कंडे और उपलों के ढेर के ढेर जमा थे․
‘‘यह सामने की ज़मीन मेरी आंखों में खटक रही है,'' सुरसती ने आह् भरकर कहा, ‘‘इसके लिए क्या-क्या न किया? दीन से भी गई, ईमान से भी․․․ रुपया-पैसा गंवाया, उसका कोई हिसाब नहीं․''
‘‘कुछ पाने के लिए, कुछ खोना भी पड़ता है․'' अमर सिंह ने उसे पुचकार कर बहलाने की कोशिश की․
‘‘तुम तो कहोगे ही? तुम्हारा क्या गया? गंवाया तो मैंने सब कुछ․․․ क्या मिला मुझे? ऊपर से रोज लड़ाई झगड़ा होता है․ सारे घर की सुख शान्ति छिन गई․ तुम तो मुझे लूटते ही हो, पुलिस वाले भी जब देखो मुंह उठाये चले आते हैं․ चाय-पानी करते हैं और मेरा शरीर भी नोचते हैं․ बैठे-बिठाये कितनी बड़ी मुसीबत मोल ले ली․ अब बरदाश्त नहीं होता․'' वह लगभग रुंआई हो गई․
‘‘घर में कोई नहीं है?'' अमर सिंह ने बात बदलते हुए कहा․
‘‘नहीं․․․''
‘‘तो अन्दर चलो․ वहीं बात करते हैं․'' वह मन ही मन खुश होते हुए बोले․
‘‘नहीं, अब अच्छा नहीं लगता․'' उसने मना कर दिया, ‘‘आज तो सारी बातें साफ कर दो․․․ जब तक यह ज़मीन मेरे कब्जे में नहीं आती, मैं तुमको अपने ऊपर हाथ नहीं धरने दूंगी․ सब लोगों ने झूठी दिलासा दिला-दिलाकर मुझे चूस लिया․ अब क्या रंडी बनाकर कोठे पर बिठाना चाहते हो․''
अमर सिंह ढीले पड़ गये, ‘‘क्या बोलती हो? मैंने कितने सारे जतन तो किए․ पुलिस में झूठी रपटें लिखवाईं, पुलिस के साथ-साथ खुद रामबरन को डराया-धमकाया․ रात-रात भर थाने में बन्द करवाया․ चूतड़ पर डंडे लगवाए․ फिर भी नहीं माना․ बड़ा ढीठ है․ इससे ज्यादा क्या कर सकता हूं?''
‘‘हाथ-पैर तुड़वा देते तो ज़मीन छोड़कर भाग जाता․''
‘‘ऐसा करना खतरनाक होता, आखिर उसने कोई अपराध तो किया नहीं․ पैसे के बल पर पुलिस उसको कितना डराती-धमकाती․ कोई मामला हो जाता तो पुलिस को लेने-के देने पड़ जाते․''
‘‘क्या मेरा घर बिक जाएगा, तभी ये जमीन मुझे मिलेगी? कितना सारा पैसा तो खर्च कर चुकी हूं․''
‘‘अन्दर चलो, कुछ उपाय सोचते हैं․'' अमर सिंह ने उसको फुसलाने की कोशिश की․
‘‘तुमको तो बस उसी की पड़ी रहती है, जब भी आते हो, पहले अपनी आग ठंडी करते हो․ मेरे काम की तरफ ध्यान नहीं देते हो․'' वह अनिच्छा से उठी और अन्दर घुस गई․ पीछे-पीछे प्रधान भी․․․ दरवाजा अन्दर से बन्द हो गया․ उनका अनैतिक कार्य बन्द दरवाजों के पीछे शुरू हो गया․ गांव वाले जानते थे, परन्तु उस समय वहां कोई देखने वाला नहीं था․ उसकी जवान बेटी भी बगल के घर में चली गई थी․ रोज वहीं चली जाती थी, क्योंकि दोपहर का समय प्रधान के आने का होता था․ पहले सुरसती अपनी बेटी शोभा को बहाने बनाकर पड़ोसन के घर में भेजती थी․ बाद में बेटी स्वयं समझ गई․ प्रधान के आने के पहले ही चली जाती थी․ एक बेटा था, वह सारा दिन आवारागर्दी करता था․ घर में क्या हो रहा है, इसको जानने की उसके पास फुरसत नहीं थी, न वह जानना चाहता था․ दोपहर में कहीं बैठकर ताश का पत्ते खेल रहा होगा․
सुरसती का मरद पंजाब में ईंट-भट्टे में काम करता था․ रात-दिन खून-पसीना एक करता था, तब कहीं शाम के लिए दाल-रोटी का जुगाड़ होता था․ अपने खर्चे में कटौती करके घर पैसा भेजता था, ताकि बीवी बच्चों को तकलीफ़ न हो․ उधर वह रोजी-रोटी के लिए खट रहा था और इधर बीवी घर के सामने की ज़मीन के एक टुकड़े के लिए दूसरों की बाहों में डोल रही थी․ रामबरन की यह ज़मीन वह किसी भी कीमत पर अपने कब्जे में करना चाहती थी․
थोड़ा सा लालच आदमी को किस तरह गड्ढे में गिरा देता है, सुरसती की कहानी इसकी बहुत बड़ी मिसाल थी․ छोटी-छोटी बातें बड़ी बन जाती हैं․ ऐसी बातें मनुष्य के जीवन में मुसीबतों के पहाड़ खड़ा कर देती हैं․ ये पहाड़ हमें जीवन भर कष्ट देते रहते हैं․
सुरसती के ससुर जगतार का घर गांव के बीचों-बीच था․ जगतार के दो बेटे थे- अवधपाल और रामपाल․ सुरसती अवधपाल की बीवी थी․ रामपाल छोटा था․ छोटे भाई की शादी तक सभी लोग एक ही परिवार में मिल जुलकर रहते थे․
कहावत है कि दस आदमी इकट्ठे रह सकते हैं, परन्तु परिवार की दो औरतें कभी मिलकर साथ नहीं रह सकती हैं․ दोनों भाइयों की शादी हो जाने के बाद देवरानी-जिठानी में अक्सर छोटी-छोटी बातों को लेकर खटपट होने लगी․ काम कम करतीं, लड़ती ज्यादा․ जब देखो, दोनों के मुंह फूले ही रहते․ घर के लोग परेशान होने लगे तो जगतार ने दोनों भाइयों को अलग कर दिया, लेकिन घर का बंटवारा नहीं किया․ मां-बाप ने पुश्तैनी घर अपने लिए रख लिया था और वे उसमें छोटे बेटे के साथ रहने लगे․ समस्या उत्पन्न हुई कि अवधपाल कहां रहेगा․ तब तक उसकी बेटी शोभा का जन्म हो चुका था․
गांव के बाहर पूरब दिशा में ग्राम सभा की परती ज़मीन थी․ उसका उपयोग गांव के लोग ग्राम प्रधान की सहमति से खलिहान के रूप में या सर्दियों में कंडा व उपले पाथने के काम में लाते थे․ लोगों ने अपने-अपने निशान बना रखे थे और कोई दूसरा किसी की जमीन का अनधिकृत रूप से उपयोग नहीं करता था․ दसियों साल से उस ज़मीन का उपयोग करते रहने से बिना किसी लिखित आदेश के गांव वाले उसे अपनी ज़मीन समझने लगे थे․ कई तो वहा छप्पर डालकर जानवर भी बांधने लगे थे․ कई एक ने वहां दीवारें भी उठा दी थीं और उनके अंदर घर का टूटा-फूटा सामान भी रखने लगे थे․
जगतार के कब्जे में भी ज़मीन का एक ऐसा ही टुकड़ा था․ उसने बड़े बेटे को वहीं पर घर बनाने की अनुमति दे दी․
गांव समाज की ज़मीन पर अवधपाल ने घर बनवा लिया, परन्तु घर बहुत छोटा निकला․ एक कोठरी, छोटा सा आंगन और बस बाहर का दरवाजा․ आगे की दीवार पर छप्पर रखवा कर बैठक के लिए चबूतरेनुमां जगह बना ली गई थी․ आगे सहन बहुत कम था․ सहन के आगे रामबरन का कब्जा था, जिस पर उसने दीवार उठाकर छप्पर डाल लिया था और बगल की खाली जमीन पर गोबर, करकट डालता था․ वही पर उसकी बीवी कंडे-उपले पाथती थी․ अवधपाल के घरवालों को मुख्य रास्ते तक आने के लिए रामबरन की जमीन के बगल से होकर गुजरना पड़ता था․ बड़ा संकरा रास्ता था और उसका घर रामबरन के छप्पर के पीछे दब सा गया था․
रामबरन की ज़मीन मुख्य मार्ग से जुड़ी हुई थी․ उस रास्ते पर अब खडंजा भी बिछ गया था․ आना-जाना आसान हो गया था, परंतु अवधपाल और उसके परिवार के लिए आगे निकलने का रास्ता छोटा था․ उसके घर के दरवाजे के सामने रामबरन का छप्पर एक पहाड़ के समान खड़ा था और वह रात दिन सबकी आंखों में खटकता रहता था․ अवधपाल को ज्यादा परेशानी नहीं थी, क्योंकि वह दब्बू किस्म का आदमी था․ दूसरे वह ज्यादातर पंजाब में रहता था, इसलिए गांव की परेशानियों से उसका साबका कम ही पड़ता था․
सुरसती चंचल, मुंहफट और बिगड़ैल किस्म की औरत थी․ गांव के निठल्ले लोगों का उसके यहां जमावड़ा लगा रहता था․ वह खुद सबसे हंसकर बोलती, हंसी-मज़ाक करती․ लोग खुले आम उसके साथ छेड़छाड़ करते, तो भी वह बुरा न मानती․ एक प्रकार से सबको शह देती․ दूसरे उसकी लड़की शोभा भी जवानी की तरफ सहमे-सहमे कदम बढ़ा रही थी․ गांव के भंवरे ताजा खिली कली के ऊपर मंडराने के लिए बेकरार हो चुके थे․ सुबह हो या शाम, रात या दिन, किसी न किसी बहाने उसके घर में लोगों का आना-जाना लगा रहता था․
सुरसती ने अपने चाहने वालों के सामने रामबरन की जमीन के बारे में बात की․ उनकी हैसियत ऐसी नहीं थी कि लड़कर या समझाकर वह ज़मीन रामबरन से छीनकर सुरसती तो दिलवा देते, सो सबने उसे वर्तमान ग्राम प्रधान अमर सिंह से जाकर मिलने के लिए कहा․ चूंकि जमीन गांव समाज की थी, इसलिए ग्राम प्रधान ही उसके बारे में कोई निर्णय ले सकते थे․ उसकी कोई लिखा-पढ़ी थी नहीं․ रामबरन से छीनकर उसे दे सकते थे․ रामबरन की क्या औकात कि वह प्रधान की बात टाल देता․
ग्राम प्रधान अमर सिंह बगल के गांव में रहते थे और प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे․ सुरसती उनसे स्कूल में ही जाकर मिली․ उसके हाव-भाव और चितवन से अमर सिंह ने परख लिया कि चिडि़या बहुत तेज उड़ने वाली है․ ज़मीन पर कितना फुदक रही है․ यह न तो किसी पिंजरे में कैद रहने वाली चिडि़या है, न एक डाल पर बैठकर गीत गानेवाली․․․ उसकी आंखों में प्यास थी, तो बदन थिरकता रहता था․ ग्रामप्रधान ने ध्यान से उसकी बातें सुनी और अपना निर्णय दिया․ ‘‘तुम फिकर न करो․ चुटकी बजाते ये काम कर दूंगा, लेकिन कुछ मेरा भी भला होगा कि नहीं․․․तुम्हारा इतना बड़ा काम करवाना है․''
सुरसती ने शरमाने का नाटक करते हुए कहा, ‘‘कैसे जी, मैं गरीब औरत․․․ आपका क्या भला कर सकती हूं․''
‘‘औरत कभी गरीब नहीं होती, सुरसती․'' उन्होंने चारा फेंकते हुए कहा, ‘‘तुम लोगों के पास रूप का ऐसा खजाना होता है, जिसे जितना ज्यादा लुटाओ, उतना ज्यादा बढ़ता जाता है․''
‘‘अच्छा जी․․․ तो आप भी लुटेरे हो․'' वह अपने होंठों को चबाकर बोली, ‘‘तो फिर शाम को घर पर आ जाना, लेकिन वह ज़मीन हमारी होनी चाहिए․'' अमर सिंह को विश्वास नहीं हुआ कि सुरसती इतनी आसानी से उनकी बात मान जाएगी․ उन्होंने उत्साह से कहा-
‘‘समझ लो, तुम्हारी हो गई․ जाकर उस पर अपने खूंटे गाड़ दो․''
उस रात सुरसती ने अपने रूप-सौन्दर्य का पान प्रधान को करवाया, तो वह गलगल हो गए․ दूसरी सुबह रामबरन को अपने दरबार में बुलवा भेजा․ वह डरा-सहमा पहुंचा․ बेचारा साठ साल का बूढ़ा अनपढ़ किसान था․ वर्तमान प्रधान से उसका कोई लेना देना नहीं था․ पुराने प्रधान के गुट का था और उन्हीं को वोट दिया था․ समझ नहीं पाया कि नए प्रधान ने उसे क्यों बुलाया था, क्या उनको पता चल गया था कि उसने उनको वोट नहीं दिया था या और कोई बात थी․ जाना तो था ही․ प्रधान के आदेश की अवहेलना नहीं कर सकता था․ पता नहीं कौन सी बात हो?
‘‘क्यों जी रामबरन! ग्राम सभा की ज़मीन पर कब्जा किए बैठे हो और हमें पता भी नहीं!'' अमर सिंह ने घुड़की देते हुए कहा․
रामबरन चौंक गया, ‘‘कैसी जमीन परधानजी?''
‘‘वहीं․․․ जिस पर छप्पर डाल रखा है और वहां जानवर बांधते हो․''
‘‘वह तो परधानजी मेरी पैदाइश के पहले से हमारे कब्जे में है․ मुझे तो याद भी नहीं, कब उसे हमारे बाप के नाम किया गया था․'' रामबरन सीधे स्वभाव बोला․
‘‘तुम्हारे बाप दादों के नाम कैसे हो गई․ वह तो ग्राम सभा की जमीन है․ अब मैं प्रधान हूं․ उस पर से अपना छप्पर और सामान हटा लो․'' अमर सिंह ने डराने वाले अन्दाज में धमकी देते हुए कहा,
‘‘क्यों, परधानजी!''
‘‘देखो, वह ज़मीन अवधपाल के घर के सामने पड़ती है․ उसका सहन मारा जाता है․ उसे मैं अवधपाल को दे रहा हूं․ सीधे-सीधे अपन कब्जा हटा लो, वरना जबरदस्ती करनी पड़ेगी․'' अमर सिंह जिस प्रकार से उसको धमका रहे थे, उससे उनके तेवर अच्छे नहीं लग रहे थे․
‘‘परन्तु․․․'' रामबरन ने कुछ कहना चाहा․
‘‘परन्तु-वरन्तु कुछ नहीं․ अपनी खैरियत चाहते हो, तो कब्जा हटा लेना․ वरना हम जबरदस्ती तुम्हारा छानी-छप्पर तोड़ देंगे․ फिर न कहना कि नुकसान हो गया․'' इसके बाद अमर सिंह ने कुछ नहीं कहा, न रामबरन की विनती सुनी․ वह मोटर साइकिल स्टार्ट कर स्कूल की तरफ रवाना हो गये․ रामबरन मन मसोसकर चला आया․
बड़ी अन्धेर थी․ रामबरन गरीब बूढ़ा था, तो क्या उसकी कहीं सुनवाई नहीं थी․ कायदा-कानून सब खतम हो गया था? किसके पास जाता? किससे अपनी फरियाद करता? जिसके पास वह अपनी फरियाद लेकर जा सकता था, वहीं उसको धमकी दे रहा था, उसी की ज़मीन से उसे बेदखल कर रहा था․ अब इसके बाद तो थाना-कचहरी ही बचती थी․ वहां तक जाने की उसकी हैसियत न थी․ खेती से केवल दाल-रोटी चलती थी․ लड़का अपनी बीवी के साथ दिल्ली में मस्त था․ कभी एक पैसा न भेजता कि गरीब मां-बाप के जीवन में खुशी का कोई एक हल्का रंग भर जाए․
रामबरन निराश था, परन्तु हताश नहीं․ गरीब से गरीब आदमी का भी कोई न कोई मददगार होता है․
वह पूरा का पूरा गांव गरीब मजदूरों और छोटे किसानों का था․ बड़ी जाति के संपन्न लोग बगल के गांव में रहते थे, जिसकी ग्राम सभा के अन्तर्गत रामबरन और अवधपाल का छोटा सा गांव आता था․ इस छोटे गांव के सभी लोग छोटी जाति के मज़लूम और दबे-कुचले लोग थे․ आपस में जमकर लड़ते थे, परन्तु बड़ी जाति के लोगों के सामने सदा हाथ जोड़े खड़े रहते थे․ पुलिस कभी किसी कारणवश अगर गांव आ जाती, तो मरद पूंछ दबाकर खेतों में छिप जाते थे․ फिर पुलिस का जलजला घर की औरतों पर टूटता था․ वह बेचारी पुलिस की गाली-गलौज सुनती और यथासंभव पुलिस वालों की सेवा करके उन्हें मनाकर वापस भेजतीं कि मरद को थाने में भेज देंगी․
घूम-फिरकर रामबरन के दिमाग में भूतपूर्व ग्राम प्रधान जयकरण का ध्यान आया, जो सहृदय भी थे और वक्त जरूरत पर गरीबों की हर तरह से मदद भी करते थे․ रामबरन ने जब अमर सिंह के हिटलरी फरमान के बारे में उन्हें बताया, तो वह तैश में आकर बोले, ‘‘बाप का राज है क्या? प्रधान बनने का मतलब ये नहीं कि एक गरीब को सताकर दूसरे का भला करो․ अवधपाल को जमीन देनी है तो दूसरी जगह दे दें․ ग्राम सभा की और भी ज़मीन खाली पड़ी है․''
‘‘आपका ही सहारा है․ आप क्या कहते हैं?'' जयकरण की बात से रामबरन को सहारा मिला․
‘‘तुम क्यों अपनी ज़मीन से कब्जा छोड़ोगे? बाप-दादे के जमाने से वह ज़मीन तुम्हारी है․ वहां तुम ढोर-डंगर बांधते हो․ अपना सामान रखते हो․ तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है․ देखें, अमर सिंह क्या करता है? गुण्डई करेगा, तो हम कम हैं क्या? हमारे आदमियों को वह जान-बूझकर तंग रहा है․ देख लेंगे․''
जयकरण ने रामबरन को समझा बुझाकर और हिम्मत बंधा कर घर भेज दिया․ दूसरे दिन रामबरन ने जब अपना कब्जा जमीन से नहीं हटाया और अपने नियमित कार्यों में बीवी के साथ लगा रहा, जैसे जानवरों को चारा-पानी देना, कण्डे पाथना आदि․․․ तो सुरसती ने सुबह-सुबह गाली-पुराण का पोथा खोलकर उच्च स्वर में प्रवचन देना शुरू कर दिया․ गांव वालों के लिए यह कोई नयी बात नहीं थी․ गांव में ऐसे कांड रोजाना किसी न किसी के घर में होते रहते थे․ लोग-बाग आते, कुछ देर खड़े होकर गालियां सुनते और अपने काम पर चले जाते․ आज नई बात केवल इतनी थी कि सुरसती और रामबरन के बीच यह लड़ाई नई थी․ चूंकि यह लड़ाई जमीन की लड़ाई थी, इसलिए लोग समझ गये कि यह बहुत दिनों तक चलनेवाली थी․
सुरसती सरस्वती की बिगड़ा हुआ नाम है․ परन्तु यह सुरसती नाम से ही नहीं, सचमुच की बिगड़ैल थी․ उसके मुंह से धारा प्रवाह गालियों की बौछार सुनकर लोग हैरान रह गये․ उसने रामबरन की सात पुश्तों को तो कोसा ही, आगे आनेवाली सात पुश्तों को भी समय से पहले यमराज के घर पहुंचा दिया․ रामबरन और उसकी बीवी ने भी जवाबी वाक्युद्ध किया, परन्तु वह सुरसती की निर्लज्जता और मुंहजोरी के सामने कहीं ठहर नहीं पा रहे थे․ उन्होंने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी․ रामबरन अपनी बीवी को समझाता हुआ घर आ गया․ सुरसती को अभी तक चैन नहीं पड़ा था, अतः वह सभी को गालियां देती हुई प्रधान के घर पहुंच गयी․ प्रधान को बताया तो वह भी गुस्से से आग-बबूला हो गये․
‘‘साले की इतनी हिम्मत․․․ शाम तक साले की अर्थी न उठवाई, तो मेरा नाम अमर सिंह नहीं․'' वह गुस्से में रामबरन को अंट-शंट बकने लगे, उसे बेशुमार गालियां दीं․ परन्तु यह सब एक दिखावा था․ वह सुरसती को दिखाना चाहते थे कि वह उसके बहुत बड़े खैरख्वाह थे और अन्तर्मन से उसका भला चाहते थे․
परन्तु अमर सिंह बहुत घुटे हुये आदमी थे․ ग्राम प्रधान के साथ-साथ वह सरकारी स्कूल के अध्यापक भी थे․ कोई गलत काम करने से उनकी नौकरी खतरे में पड़ सकती थी․ गुण्डई और बदमाशी से वह तियां-पांचा करते रहते थे, परन्तु कोई बात लिखा-पढ़ी तक न पहुंचे, वही तक वह बदमाशी करते थे․ गरीब आदमियों पर धौंस जमाना तो बड़े आदमियों का शगल होता है․ इस शौक में उनका कोई नुकसान नहीं होता․
‘‘अभी मेरे साथ चलो और उसका टीन-टम्बर उखाड़ कर फिंकवा दो․'' सुरसती जैसे प्रधान को आदेश दे रही थी․ उसके सुर और लहजे पर अमर सिंह को गुस्सा आ गया, परन्तु दबा गये․ सुरसती ऐसी गाय थी, जिसे वह हमेशा दुहते रहना चाहते थे․ दुधारू गाय की दो लातें सही जाती है․ समझदार लोगों का यही कहना है․ अमर सिंह बदमाश भी थे और समझदार भी․․․
सुरसती को समझाते हुए बोले, ‘‘लगता है, रामबरन को कोई सिखा-पढ़ा रहा है, तभी उसने मेरी बात को हल्के में लिया है, परन्तु वह इसके भयंकर परिणाम से वाकिफ़ नहीं है․ चींटी पांव के नीचे आकर भी बलबला रही है․ तुम एक काम करो, अभी थाने चली जाओ․ मैं एक एपलीकेशन लिख देता हूं, थानेदार मेरी जान-पहचान का है, उसको बोल देना कि मैंने भेजा है․ औरत होने के नाते भी पुलिस तुम्हारी बात मानेगी․ बस शाम को दो सिपाही आकर रामबरन के चूतड़ में दो डण्डे लगायेंगे, अपने आप सियार की तरह भाग जाएगा․''
‘‘मैं अकेली औरत जात․․․ थाने कैसे जाऊंगी?'' सुरसती सहमती हुई बोली․
‘‘कौन ज्यादा दूर है, पैदल चली जाओ․ बिना हिम्मत के काम कैसे बनेगा․ थाने पहुंचकर तुम बस रोने-धोने का नाटक करना, जैसे रामबरन ने तुम पर बहुत अत्याचार किया है․ जोर-जोर से बोलना कि वह हमेशा तुमको जान से मारने की धमकी देता है, गाली-गलौज करता है, तुम्हारी ज़मीन पर जबरदस्ती कब्जा कर रखा है․ अब खाली नहीं कर रहा है․ प्रधान की भी नहीं सुनता․․․ आदि-आदि․'' अमर सिंह ने उसे समझाते हुए कहा․
‘‘पर वे मेरी बात मान जाएंगे?'' सुरसती को खटका हो रहा था․
‘‘मानेंगे क्यों नहीं, हां, थानेदार के हाथ में पहले ही पांच सौ रुपये रख देना, चुपके से․․․''
सुरसती राजी हो गई, परन्तु उसके पास पैसे नहीं थे․ प्रधान ने उसे पांच सौ रुपये इस शर्त पर दिए कि वह उनके खेतों में काम करके कर्जा चुका देगी․
रामबरन के ऊपर पुलिस ने मामला दर्ज नहीं किया, लेकिन शाम को दो पुलिस वाले आए, दुर्भाग्य से रामबरन घर पर ही मिल गया․ घर में केवल बु्ड्ढे-बुढ़िया थे․ अन्धेरा होने के बाद कहीं निकलते नहीं थे․ दिखता कम था और शरीर से भी अशक्त हो चले थे․
पुलिस ने रामबरन को पकड़कर पहले तो उसे दो थप्पड़ रसीद किए․ फिर उसे विवादित जगह पर लाकर धमकी देने लगे कि अपना सामान वहां से हटा ले․ रामबरन ने गुहार लगाई कि यह जगह उसकी है․ गांव में किसी से भी पूछ लें․ परन्तु पुलिस वालों ने पैसा खाया था, वह अपना फर्ज पूरा कर रही थी․ रामबरन के छप्पर को अपने हाथों से एक तरफ से खींच लिया, वह आधा लटक गया․ जानवरों को खूंटे से खोल दिया, वह डरकर खेतों की तरफ भाग गये․ खाली जगह पर सुरसती के खूंटे गड़वा दिए, सुरसती ने भी आनन-फानन में वहां अपनी गाय बांध दी․
लगभग पूरा गांव वहां इकट्ठा हो गया था, परन्तु किसी के मुंह से कोई आवाज़ नहीं निकली․ सभी पुलिस वालों से डरते थे․ पुलिस अपनी ज्यादती करती रही․ रामबरन बेबस सब कुछ होते देखता रहा․
जब पुलिस चली गई, तो सबकी जुबान खुली․ एक बूढ़े ने कहा, ‘‘सुरसती, यह तुम अच्छा नहीं कर रही हो․ पुलिस को पैसा खिलाकर रामबरन की ज़मीन हड़पना चाहती हो․ बुढ़ापे में उसको मार खिलवाई․ उसकी हाय तुमको लगेगी․''
परन्तु सुरसती दूसरी मिट्टी की बनी थी․ उल्टे रामबरन को गाली देकर चिल्लाई, ‘‘बूढ़े के तो कीड़े पडेंगे कीड़े․․․ घर बीच गांव में है और मेरे घर के सामने कब्जा करके बैठा है․ नाग की तरह फन उठाये है․ समझता है, सारा गांव उसी का है․ फन कुचलकर रख दूंगी․ समझता क्या है अपने को․․․''
‘‘सही बात है, तुम जो चाहो सो कर सकती हो․ औरत हो न, बिटिया भी जवान हो चली है․ पुलिसवाला हो या कोई और․․․ सब तुम्हारी ही बात सुनेंगे․'' भीड़ में से किसी ने फब्ती कसी․ अन्धेरा था, इसलिए चेहरा नहीं दिखा, परन्तु सारे लोग ठठाकर हंस पड़े․
‘‘हंस लो, हंस लो, एक दिन तुम सबको भी बंधवाऊंगी․'' सुरसती मुंहजोरी करने लगी․ वह ग्राम प्रधान के बल पर भौंक रही थी․ गांव में भंड़वे किस्म के उसके कई यार थे․ वह किस दिन काम आएंगे․ चरित्रहीन औरतों को अपने यारों की ताकत के ऊपर बहुत ज्यादा भरोसा रहता है․ इसी प्रकार वह अपने संबंध पास-पड़ोस के लोगों से खराब कर लेती हैं और अपने लोगों के बीच हंसी का पात्र बनती हैं․ ग्राम प्रधान उसके दीवाने थे, अतः समझ बैठी थी कि सारी दुनिया उसकी मुट्ठी में है․
भीड़ में से किसी को गुस्सा आ गया, ‘‘․․․छिनार! साली रंड़ी, हमको धमकी देती है, तेरी इतनी हिम्मत कि गांव वालों को धमकी देने लगे․ पता नहीं किसके भरोसे फूल रही है? घर में आग लगा दूंगा, पटपटाती रहेगी․''
‘‘कल इसके घर प्रधान आया था, उसी के भरोसे चिटक रही होगी․'' किसी और ने खुलासा किया․
भीड़ में कई लोग सुरसती के पक्षधर भी थे․ उन्होंने मामला शांत करवाते हुए कहा, ‘‘बस करो भाई, औरत जात के मुंह क्यों लगते हो․ यह तो मूर्ख है, मूर्ख न होती तो अनर्गल काम क्यों करती?''
‘‘चलो भाई देखो, रामबरन के जानवर कहां गये․ पकड़कर लाओ, नहीं तो दूर निकल जाएंगे․'' किसी बुजुर्ग ने कहा, तो कुछ उत्साही लड़कों ने भाग-दौड़कर जानवरों को पकड़ा और लाकर फिर उसी जगह पर बांध दिया․ छप्पर को खिसकाकर ठीक किया․ गांव वालों की मदद से सब कुछ ठीक हो गया․
परन्तु रामबरन के लिए सब कुछ ठीक नहीं था․ वह बेचारा अपमान की पीड़ा से दो-चार हो रहा था․ बिना किसी अपराध के पुलिसवालों ने उसे मारा था․ उसका नुकसान किया था․ गांव के लोग मदद न करते तो रात के अन्धेरे में वह अपने जानवर भी न ढूंढ पाता․ बहुत नुकसान हो जाता․ डंडे की मार से ज्यादा वह अपमान की पीड़ा से व्याकुल और दुःखी था․ खटिया पर लेटा तड़फड़ा रहा था․ इस बुढ़ापे में ये बदा था․ सीधे आदमी को सभी डराते-धमकाते हैं․ उसने कौन सा किसी के ऊपर अन्याय किया था, जो पुलिसवालों ने उसके साथ इतना बड़ा अन्याय किया․ उसकी ज़मीन दूसरे को दिलवाने पर तुले हुये हैं․ प्रधान भी सुरसती का पक्ष ले रहा है․ पता नहीं सुरसती को किसने भड़का दिया है कि वह उसकी ज़मीन पर नज़र गड़ा बैठी․
जब पूरे गांव में सोता पड़ गया तो वह चुपके से उठा और सुरसती की गाय को खूंटे से खोलकर खेतों की तरफ दूर ले-जाकर छोड़ दिया․ फिर उसका खूंटा भी उखाड़ दिया और एक बबूल की डाल काटकर उसके आने-जाने वाले रास्ते पर अंड़ा दिया․
वह अपमान की आग में जल रहा था․ इस आग में वह सभी को जला देना चाहता था․
अगले दिन फिर हंगामा․․․ पुलिस में रिपोर्ट․․․ गाली-गलौज और मार-पीट․․․ फिर यह एक क्रम बन गया․ आए दिन ऐसा होने लगा․ जब देखो, पुलिसवाले गांव में खड़े रहते․ रामबरन को धमकाते, सुरसती के जानवर उसकी जमीन में बांध देते․ कभी-कभी रामबरन को पकड़कर थाने भी उठा ले जाते․
प्रधान के उकसाने पर सुरसती पन्द्रह-बीस दिन में एक बार पुलिस के पास जरूर जाती․ पुलिस रिपोर्ट न लिखती, तब भी पैसे लेकर गांव में रामबरन को धमकाने जरूर चली आती․ पुलिस वाले धीरे-धीरे समझने लगे थे कि इस समस्या का कोई समाधान नहीं था․ जमीन पचासों साल से रामबरन के कब्जे में थी․ उस पर उसका छप्पर था, जानवर बंधते थे और ईंधन का सामान रखा रहता था․ सारे गांववाले इस बात के गवाह थे․ इसमें पुलिस भी कुछ नहीं कर सकती थी․ परन्तु बिना किसी लिखा-पढ़ी के, बिना कोई मामला दर्ज किए उन्हें पैसे मिलते रहते थे, इसलिए घूमते-फिरते गांव चले आते और रामबरन को धमकाकर चले जाते․ गरीब आदमी को धमकाने में पुलिसवालों को भी मजा आता था․ वह उनकी कहीं शिकायत नहीं कर सकता था․
पुराने प्रधान जयकरण वैसे तो थाने जाकर थानेदार को सारी बातें समझा आए थे․ जयकरण एक सुलझे हुए और रसूखदार व्यक्ति थे․ उनके बताने पर थानेदार ने इस तरफ ध्यान देना बन्द कर दिया था, परन्तु थाने के दो चार सिपाही पैसे के लालच में भागे चले आते थे․ सुरसती के घर आकर भोजन करते और अब तो बात यहां तक आ गई थी कि सुरसती अपना काम बनाने के लिए उन्हें अपने शरीर का भी भोग लगवाने लगी थी․ लालच में वह इतनी अन्धी हो चुकी थी कि मान मर्यादा, इज्जत, मान-सम्मान सब भूल चुकी थी․ दूसरी तरफ प्रधानजी भी मौका पाकर हाथ साफ कर लेते थे․
वह दोनों तरफ से लुट रही थी, धन से भी और शरीर से भी․․․ पर ज़मीन उसके हाथ में नहीं आ रही थी․ रामबरन बूढ़ा होने के बावजूद हठी था․ अपमान, गाली-गलौज और धमकियां सुनने के बावजूद भी अपनी जमीन पर से कब्जा नहीं छोड़ रहा था․ गांव वालों का मूक समर्थन उसके साथ था․ जयकरण भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से उसको सहयोग देते रहते थे․ स्वयं थाने जाकर उसकी सिफारिश कर आये थे․ कभी-कभी सिपाही रामबरन को बेवजह पकड़ ले जाते, तब जयकरण ही उसे छुड़ाकर लाते थे․ रुपये-पैसे से भी यदा-कदा उसकी मदद करते रहते थे․
दूसरी तरफ अमर सिंह सुरसती को उकसाते रहते थे․ इसमें उनका स्वार्थ था, जब तक ज़मीन का लालच था, सुरसती उनके काबू में थी․ एक बार ज़मीन उसकी हो गई, तो क्या पता उनको भाव न दे․ प्रधान की मंशा गलत थी․ सुरसती के लालच को भड़का कर वह अपनी हवश की भूख मिटा रहे थे, तो दूसरी तरफ पुलिस को खिलाने के बहाने वह उससे रुपये भी ऐंठ रहे थे․ लालच और हवश का यह एक अनोखा खेल था, जिसमें अमर सिंह और पुलिस वाले तो मौज उड़ा रहे थे, सुरसती धन और तन, दोनों से लुट रही थी․ वह इसकी गंभीरता और दूरगामी परिणामों को नहीं समझ पा रही थी․ रामबरन की किस्मत खराब थी िक वह बेवजह एक ऐसे चक्र में फंस गया था, जो उसे मानसिक और शारीरिक रूप से परेशान-दर-परेशान किए जा रहा था․
इस लड़ाई का कोई अन्त नहीं था, क्योंकि लालच-पिशाच का कोई अन्त नहीं होता․ मनुष्य के हृदय में यह हमेशा जीवित रहता है․ यह पिशाच मनुष्य की सोचने समझने की शक्ति को कमजोर कर देता है․ वह बेकार के कामों में उलझा रहता है․ इस प्रकार अपने समय और पैसे का दुरुपयोग करता रहता है․ अन्ततः उसके हाथ में कुछ भी नहीं आता․
सुरसती अनपढ़ गंवार महिला थी․ वह लालची और झगड़ालू होने के साथ-साथ कमबुद्धि भी थी․ पंजाब से उसका पति जो भी कमाकर भेजता, वह अमर सिंह और पुलिसवालों के ऊपर खर्च कर देती․ बच्चे एक-एक चीज को तरसते रहते थे, परन्तु उनके बारे में सोचने का उसके पास समय नहीं था․ हर समय वह इसी उलझन में पड़ी रहती कि सामने की ज़मीन कब उसके कब्जे में आए, उसका सहन लम्बा हो जाए और खंड़जे तक उसका घर फैल जाए․ इसके लिए हर अच्छे-बुरे काम करने के लिए वह तैयार थी․ नासमझ लोग ही अपने पैर में कुल्हाड़ी मारने जैसा दुःसाहसी काम करते हैं․
उसे पता नहीं था कि रामबरन की ज़मीन की कीमत से ज्यादा पैसा वह अब तक पुलिस को खिलाने-पिलाने और भाग-दौड़ में खर्च कर चुकी थी․ इतना गणित उसे नहीं आता था․ कोई उसे समझाता, तब भी नहीं समझ सकती थी․ उसकी आंखों में तो रामबरन की ज़मीन खटक रही थी․ उसकी आंखें खुली थी, दिमाग सुन्न था․
उस गर्मी की दोपहर जब सुरसती और अमर सिंह एक दूसरे की बांहों से अलग हुए तो अमर सिंह खटिया पर लेटे-लेटे ही बोले, ‘‘मेरे दिमाग में एक आइडिया आया है․''
‘‘क्या?'' सुरसती ने साड़ी बांधते हुए कहा․
‘‘तुम अभी भागती हुई थाने चली जाओ और थानेदार के सामने चीख-चिल्लाकर, रोकर कहो कि रामबरन ने तुम्हारे साथ बलात्कार किया है․ यही कपड़े पहने रहो․ इसमें वीर्य लगा हुआ है․ यहीं तुम्हारे पक्ष में गवाही देगा․''
सुरसती चौंक गईं, परन्तु बात उसकी समझ में आ गई․ इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा․ पूछा, ‘‘इतनी धूप में कैसे जाऊं?''
‘‘धूप देखोगी तो काम कैसे बनेगा? इतने दिन हो गए․ अब आर-पार की लड़ाई लड़ो․ सीधी उंगली कभी घी नहीं निकलता․'' वह खटिया से उतरकर खड़े हो गये, ‘‘तुम अपने साथ पुलिस को लेकर आना․ मैं दोपहर के बाद तुम्हारे यहां आता हूं․ पुलिसवालों को समझा दूंगा․'' वह चलने के लिए तत्पर हुए․
सुरसती को प्रधान की तरफ देखने की फुरसत नहीं थी․ उसने आगा-पीछा सोचे बिना थाने की तरफ दौड़ लगा ली․ उसके पहले बेटी को बुलाकर घर पर छोडा․ उसे अच्छी तरह से समझा़ दिया कि उसके आने तक घर पर ही रहे, कहीं और न जाए․ लेकिन उसे नहीं बताया कि कहां जा रही थी․ इसी बीच अमरसिंह अपने घर खिसक गये थे․
चार बजे के लगभग सुरसती पुलिस के साथ जीप में बैठकर गांव वापस आई․ थानेदार स्वयं आया था․ वह नया थानेदार था और कुछ दिन पहले ही तबादले पर इस थाने में आया था․ बलात्कार का मामला था, इसलिए वह स्वयं आया था कि सही-सही जानकारी हासिल कर जांच की कार्रवाई आगे बढ़ाई जाए․
धड़धड़ाती हुई जीप जब सुरसती के दरवाजे रुकी तो तीन सिपाही सबसे पहले उतरे और दौड़ते हुए रामबरन के घर पहुंच गये․ घर में उसकी बीवी झाडू लगा रही थी․ पुलिसवालों को देख कर घबरा गयी․ माथे पर घूंघट डालकर उन्हें देखने लगी․ पर वे बिना पूछे उसके घर के अन्दर घुस गये․ बुढि़या, ‘‘आयं-आयं․․․'' करती रह गयी․ पुलिसवालों ने उसके घर का कोना-कोना छान मारा; परन्तु घर के अन्दर आदमी तो क्या चुहिया का बच्चा तक नहीं था․
तब एक सिपाही ने कड़ककर पूछा, ‘‘कहां गया बुड्ढ़ा․․․․?''
रामबरन की बीवी हैरान-परेशान हक्का-बक्का खड़ी थी․ वह जैसी गूंगी हो गई थी․ एक तो पुलिस का खौफ, ऊपर से उनकी हरकतें․․․ जबरन घर के अन्दर घुस जाना, घर का कोना-कोना छान मारना और चीजों को उलट-पुलट कर देखना․․․ वह समझ नहीं पा रही थी कि पुलिसवाले उसके घर के अन्दर क्या ढूंढ रहे थे․ जब सिपाही ने पूछा, तब उसकी समझ में आया․ परन्तु यही बात पुलिस वाले पहले भी पूछ सकते थे․
बुढि़या की जान में जान आई․ गहरी सांस लेकर बोली, ‘‘वह तो गांव गए हैं?''
‘‘कौन से गांव․․․ कब?''
‘‘कल गए थे, बेटे की ससुराल․․․ सुमेरपुर․''
‘‘कल गए थे?'' बुढि़या ने सहज भाव से बताया․ उसके मन में कोई घबराहट नहीं थी․ सिपाही चौंका, उसे लगा, कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है․ हड़बड़ाकर पूछा, ‘‘तो क्या आज यहां गांव में नहीं था․'' उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा․ सुरसती का कहना था कि आज दोपहर में रामबरन ने उसके घर में घुसकर जबरन उसके साथ बलात्कार किया था, परन्तु वह तो गांव में ही नहीं था․ फिर क्या सुरसती झूठ बोल रही थी? क्या वह रामबरन को झूठे मुकदमे में फंसाना चाहती थी․ वह तीनों सिपाही थाने में पुराने थे और रामबरन तथा सुरसती के ज़मीन वाले झगड़े से वाकिफ थे․
‘‘नहीं तो साहब․․․ वो तो कल से बाहर हैं․ आज शाम तक लौटकर आएंगे․ परन्तु बात क्या है
साहब?'' उसने उत्सुकता से पूछा․
तीनों सिपाहियों ने एक दूसरे की आंखों में देखा- उनकी आंखों में आश्चर्य के साथ-साथ मन में क्षोभ के भाव उभर आए थे․ हताश-निराश भारी कदमों से वह बाहर निकलने लगे․ दरवाजे के बाहर लोगों की भीड़ जमा थी․ वह लोग भी आश्चर्य से रामबरन के घर के अन्दर पुलिसवालों की कार्रवाई देख रहे थे․ किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था․ उत्सुकता सबके मन में थी․ परन्तु किसी से पूछ नहीं सकते कि क्या हो रहा था․ पुलिसवाले तो वैसे भी घुड़की देते थे․ उनसे बात करने की हिम्मत किसी में नहीं थी․
तीनों सिपाही बाहर निकलकर आए और भीड़ से पूछा- ‘‘क्यों रे, तुममे से किसी ने रामबरन को कहीं देखा है?''
‘‘नहीं साहब, आज तो नहीं देखा․'' कई स्वर एक साथ उभरे․
‘‘कब देखा था?''
‘‘साहब कल देखा था, वह साइकिल से कहीं जा रहा था․'' एक व्यक्ति ने बताया․
‘‘कहां जा रहा था?''
‘‘ये तो नहीं मालूम․ परन्तु नए कपड़े पहन रखे थे, उससे लग रहा था, किसी रिश्तेदारी में जा रहा था․ मैंने पूछा नहीं, क्योंकि मैं थोड़ा दूर था․''
अब शक की कोई गुंजाइश नहीं थी․ बुढि़या की बात सच थी․ पुलिस वालों की सारी हेकड़ी निकल गई थी․ साइकिल के पहिए की तरह उनका जोश पंचर हो गया था․ मुंह लटकाए हुए थानेदार के पास पहुंचे, जो सुरसती के दरवाजे चारपाई पर बैठे ठंडई का मजा ले रहे थे․ अब तक अमर सिंह अपने घर से नहा-धोकर और कपड़े बदलकर वापस आ गये थे․ लक-दक सफेद कपड़ों में अमर सिंह किसी नेता के दलाल लग रहे थे․
थानेदार नया था, इसलिए उसे इस गांव की राजनीति के बारे में कुछ पता नहीं था․ अमर सिंह उसको पट्टी पढ़ा रहे थे, ‘‘देखिये न् साहब, कैसी अन्धेर और दहशत मचा रखी है इस रामबरन ने․․․ एक तो उसकी ज़मीन पर कब्जा कर रखा है, ऊपर से इतना बड़ा अत्याचार․ बेचारी गरीब औरत की कहीं सुनवाई नहीं․․․ उसका मरद बाहर रहता है․ घर में टक्कर लेने वाला कोई दूसरा मरद नहीं है․ पूरा परिवार रामबरन के अत्याचारों से पीडि़त है․ मैं ग्राम प्रधान हूं, लेकिन मेरी भी नहीं सुनता․․․ कहता है, जो करना हो, कर लो, मैं तो कब्जा नहीं छोडूंगा․''
थानेदार सिर हिला-हिलाकर प्रधान की बातें सुनता जा रहा था․ अन्दर ही तिलमिला भी रहा था, कौन है यह रामबरन, जिसके कलेजे में बाल उग आए हैं कि प्रधान की नहीं सुनता, पुलिस की भी नहीं सुनता․ उसकी आंखों में खून उतरता जा रहा था कि तभी तीनों सिपाही पिटे हुए मुंह लेकर उसके सामने जा खड़े हुए․
थानेदार गुर्राया, ‘‘कहां है, साला बदमाश․''
‘‘साहब, घर में नहीं है․''
‘‘भाग गया?'' वह और जोर से दहाड़े․
‘‘नहीं, वह तो कल से ही गांव में नहीं है․ किसी रिश्तेदारी में गया है?'' सिपाही ने बताया․
‘‘ऐं,'' थानेदार भी सकपका गया, ‘‘तो क्या उसका भूत बलात्कार करके भागा है?'' उसने अमर सिंह की तरफ देखा․ अमर सिंह और सुरसती को पता नहीं था कि रामबरन कल से गांव में नहीं था․ अमर सिंह की तो हवा ही खिसक गई․ थानेदार उन्हें घूर-घूर कर देख रहा था․ लगा कि वह उन्हें कच्चा चबा जाएगा․ पुलिस की नौकरी ने उसे सच और झूठ में फर्क करना सिखा दिया था․
सुरसती एक किनारे बैठी झूठ-मूठ रोने का नाटक कर रही थी, जैसे बहुत गहरी पीड़ा के दौर से गुजर रही थी․ अभी तक उसे असलियत का पता नहीं था․ थानेदार ने समझदारी से काम लिया․ गांव के लोगों के बीच में जाकर कुछ बुजुर्ग लोगों से बात की․ रामबरन और सुरसती के बीच की अन्दरूनी कहानी उसकी समझ में आ गई․ पूछताछ से यह भी पता चल गया कि रामबरन बुजुर्ग व्यक्ति था और गांव में उसकी सिधाई और सच्चाई की कोई मिसाल नहीं थी․ वह ऐसा गलत काम हरगिज नहीं कर सकता था․
कुछ और खोदकर पूछताछ करने पर सुरसती और अमर सिंह के संबंधों का भी पता चल गया․ अब थानेदार का रूप देखने वाला था․ वह डण्डा लहराता हुआ सुरसती के पास पहुंचा․ थानेदार को करीब पाकर वह और जोर से कराहने लगी․
थानेदार पहले तो उसके बदन की मचलती हरकतों को देखता रहा, फिर भड़ककर पूछा, ‘‘तो तुम्हारे साथ बलात्कार हुआ है?''
‘‘जी साहब!'' वह धाड़ मारकर रोने लगी․
‘‘चल, उठ खड़ी हो!'' वह दहाड़ा
सुरसती चमककर खड़ी हो गयी․ थानेदार ने चार बेंत कसकर उसके चूतड़ में लगाये, ‘‘चल दिखा, कहां तेरे साथ बलात्कार हुआ?''
‘‘जी!'' वह समझ नहीं पाई․
तभी अमर सिंह ने बीच में आकर कहा, ‘‘साहब! इतने सारे लोगों के बीच․․․ मैं बताता हूं․''
अमर सिंह की बात पूरी भी नहीं हुई कि थानेदार ने एक तमाचा अमर सिंह के गाल पर जड़ दिया, ‘‘तुम साले ․․․ चुप! सब तुम्हारा किया धरा है․ मुझे सारी कहानी पता चल गयी है․ कुछ करने के पहले पता तो कर लिया होता कि रामबरन गांव में है भी कि नहीं․ अब साले तुम बलात्कार के मामले में फंसोगे․''
‘‘क्या?'' हैरत से अमर सिंह की आंखें फैल गईं․
‘‘हां, प्रधानजी, तुमने और सुरसती ने मिलकर योजना तो बहुत सटीक बनाई थी․ रामबरन को जेल भिजवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी․ बस, एक चूक हो गई तुमसे․․․ समय और दिन का ख्याल नहीं रखा․ रामबरन तो किस्मत से बच गया, पर तुम्हारी किस्मत खराब निकली․ चलो,'' उन्होंने सिपाहियों को इशारा किया, ‘‘दोनों को पकड़कर जीप में डालो․ सीधे अस्पताल ले चलो․ इनका मेडिकल करवाना पड़ेगा․ तभी पता चल जाएगा कि किसने किसके साथ बलात्कार किया है․''
अमर सिंह जैसा दबंग आदमी, जो गांव के गरीब, बेसहारा लोगों को हमेशा डराता-धमकाता था, आज उन्हीं लोगों के सामने दरोगा के आगे हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रहा था, ‘‘साहब, मेरी बात सुनिए․ एक किनारे आइए, मैं आपको पूरी बात बताता हूं․''
‘‘यह तुम थाने चलकर बताना․'' कहकर वह जीप में आगे जाकर बैठ गया․ सिपाहियों ने अमर सिंह और सुरसती को ठेलकर पीछे बिठा दिया था․ जीप आगे बढ़ गई․ लोगों को लगा कि अब न्याय होगा और रामबरन के कष्ट दूर हो जाएंगे․ सुरसती जैसी सुरसाओं की वज़ह से गरीब लोगों को दुर्दिनों से गुजरना पड़ता है․
प्रधान की दयनीयता देखकर गांव वाले बहुत खुश हो रहे थे․ वह पढ़े-लिखे नहीं थे, फिर भी एक सत्य उनकी समझ में आ रहा था कि आदमी रुपये-पैसे और धन-सम्पत्ति से चाहे जितना बड़ा बन जाए, परन्तु समय के आगे उसकी एक नहीं चलती और वह कभी न कभी किसी न किसी के सामने खुद गरीब, बेसहारा, लाचार और दयनीय बन जाता है․ तब उसकी कोई नहीं सुनता․
परन्तु दूसरे दिन सुबह लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने सुरसती को मजे से अपने घर में काम करते देखा․ अगल-बगल की औरतें उसके घर में जमा हो गईं․ खोद-खोद कर पूछा कि क्या हुआ, तो सुरसती ने सरस्वती वाणी की-
‘‘का बताएं बहना, मेरी तो दुर्गति हो गई थी․ थानेदार ने इतनी गालियां सुनाई, जितनी कि मैंने पूरे जीवन में नहीं सुनी थीं․ बहुत खूंखार थानेदार है․ हमारे ही खिलाफ केस बनाने पर तुला हुआ था․ वह तो भला हो परधान का कि हाथ-पैर जोड़ कर थानेदार को मना लिया․ पैसे में बड़ी ताकत होती है․․․'' सुरसती सांस लेने के लिए रुकी․ वह ये बातें इस तरह बता रही थी, जैसे कोई महान कार्य करके थाने से लौटी हो․ ऐसी औरतों को अपनी दुर्गति के बारे में बात करने में भी बड़प्पन का एहसास होता है․
‘‘अच्छा, कितना पैसा भरा?'' एक औरत ने व्यंग्य से पूछा․ यह तो सभी समझ रही थीं कि पैसा खिलाकर ही पुलिस के चंगुल से छूटे हैं․
‘‘मैंने देखा तो नहीं, पर बातों-बातों में पता चला कि पूरे पचास हजार भरे हैं․ परधान का भाई पैसे लेकर आया था․ जब तक पैसा नहीं ले लिया, थानेदार ने किसी को बाहर नहीं निकलने दिया․ परधान को भी ज़मीन पर बिठाकर रखा․ पुराना पर्चा भी खारिज कर दिया, वरना झूठा मुकदमा लिखवाने के जुर्म में हम दोनों जेल चले जाते․''
औरतों की सांस अटक गयी थी․ पचास हजार रुपये, बाप रे बाप․․․ तो लालच-पिशाच थानेदार को भी निगल गया था․
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(राकेश भ्रमर)
12, राजुल ड्यूप्लेक्स,
निकट वैभव सिनेमा,
नेपियर टाउन, जबलपुर-482002
होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंjai baba banaras...