अपनी जमीन से उखड़ना कितना कष्टप्रद होता है अपनी जमीन से उखड़कर कहीं दूर गिर जाना। जिस मिट्टी में उसने अपना जीवन बिताया जिसकी सोंधी-सोंधी ख...
अपनी जमीन से उखड़ना
कितना कष्टप्रद होता है
अपनी जमीन से उखड़कर
कहीं दूर गिर जाना।
जिस मिट्टी में
उसने अपना जीवन बिताया
जिसकी सोंधी-सोंधी
खुशबू में,
वह-
आकाश के सामने तनकर
इठलाया,
कितना कष्टप्रद होता है
अपनी उस मिट्टी से उखड़कर
कहीं दूर गिर जाना।
जो माहौल, जो हवा,
जो पास-पडोस, जो मित्र,
जो साथी, जो शुभचिंतक,
शामिल रहे तुम्हारी खिलखिलाहटों में,
कितना कष्टप्रद होता है
उनको अपने दुख में शामिल न कर पाना।
ये उठती अँगुलियाँ,
ये लेनदारों के तकाजे,
ये गुपचुप हमें देखकर करती आवाजें,
ये सहानुभूति से भरे भाव।
कितना कष्टप्रद होता है
इन सबको झेलकर
जीवित रह पाना।
कितना कष्टप्रद होता है,
अपनी जमीन से उखड़कर
कहीं दूर गिर जाना।
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मेरा कष्ट
व्यक्ति के कष्टों का अंत
शायद,
उसके अंत के साथ होता हो?
किसी भटकती आत्मा से
मिलने पर उससे पूछूंगा-
अच्छे तो हो?
या दाल-आटे का भाव
वहां पर भी पता लग रहा है।
कष्टों का अटूट क्रम-
पैदा होते ही विरासत में प्राप्त होता है।
पैदा हुए तो जीने का कष्ट,
जीवन चला तो मरने का कष्ट,
शादी हुई तो तालमेल का कष्ट,
बच्चे हुए तो बड़ा करने का कष्ट,
पुत्र हुआ तो जेनरेशन गैप का कष्ट,
पुत्री हुई तो दहेज का कष्ट।
जवानी भर गधे की तरह ढोये गये,
बुढ़ापा आया तो शरीर का कष्ट।
बहू समझदार निकली तो ठीक
वरना तिरस्कार का कष्ट।
यादों की जुगाली करते हुए-
सुख के विरल क्षणों को
महसूसने का कष्ट।
अंतिम समय में-
‘बहुत कष्ट देकर मरा बुड्ढा’
यह सुनने का कष्ट।
जब खुद भटकूंगा तो
किसी भटकती आत्मा से
पूछूंगा जरूर-
कहो भाई-अच्छे तो हो?
शायद कभी, किसी के मुख से
‘अच्छा हूं’
सुनने को मिल जाये।
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वसीयत की नसीहत
प्रसिद्धि की चाहत किसे नहीं है।
लोग जीवित रहते-रहते,
मरने के बाद की
प्रसिद्धि का इंतजाम कर जाते हैं।
वरन यूं कहें-
कि
लोग प्रसिद्धि के लिए मर भी जाते हैं।
यह प्रसिद्धि है क्या बला?
क्या तुलसीदास ने प्रसिद्धि के लिए
मानस की रचना की?
क्या सम्राट अशोक नक प्रसिद्धि के लिए
कलिंग विजय के बाद प्रायश्चित किया?
या,
मोहनदास करमचंद गांधी ने
प्रसिद्धि के लिए
छाती पर गोली खाई?
क्या युवराज सिद्धार्थ
प्रसिद्धि के लिए बुद्ध हुए?
ये उद्घाटन के पत्थर,
ये शिलालेख,
ये भूमिपूजन के कार्यक्रम
क्या किसी को बुद्ध-अशोक या तुलसी बना सके हैं?
यह सच है कि
प्रसिद्धि की चाहत में लोग
अनिच्छा से सही, मगर
कुछ जनहित के काम कर जाते हैं।
पर सयता की धारा क्या इससे
प्रभावित होती है?
लोग आते हैं-जाते हैं,
सदियां गुजर जाती हैं
मगर बचता वही है
जिसके पीछे प्रसिद्धि की चाहत नहीं
वरन,
जनहित की भावना होती है।
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सबेरे जब निकलता हूं,
रोकती है,
टोकती है मुझे भीड़-
‘सुन ऐ कृष्ण!’
हमें विरासत में मिला तुम्हारा चक्र
अब जर्जर हुआ जाता है।
कुछ ही दशादियां
गाड़ी खींचने के बाद
(क्योंकि अब धर्मयुद्धों की संभावना नहीं)
उसके कील-कांटे हो गए हैं ढीले
स्वर्णिम आभा अब नहीं
वरन,
निकलती है उसमें से
चूं...चर्र....मर्र....की आवाज।
गति उसकी मंद हुई,
भंग हुई।
अब मैं द्विविधाओं से घिरा
किस-किस को स्पष्ट करूं;
मेरा सुदर्शन चक्र-
‘गाड़ी खींचने का पहिया नहीं’
मान्यताओं,
आस्थाओं की दृढ़ धुरी पर टिका
द्रुत वेग से घूमने वाला,
शाश्वत,
जीवन की गति है।
इससे न लो गाड़ी खींचने का काम।
फिर देखो स्वर्णिम आभा।
उसकी नहीं,
गति तुम्हारी मंद है।
चल नहीं सके तुम उसके साथ।
यह गति है युग की।
दौड़ो!
साथ होने की करो कोशिश।
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इंतजार
कोई
इंतजार नहीं करता,
तारीखों के
ठहर जाने का।
हम चलते चले जाते हैं,
दूर की यात्राओं में।
तेज हवाओं,
तीखी बारिश,
गहन कालिमा के बीच
क्षत-विक्षत
अपनी नौका-पतवार
और
अविजित इच्छा शक्ति
के साथ।
हम प्रयास करते जाते हैं
आगे बढ़ने की।
प्रतीक्षा है,
बसंत की।
एक साफ -सुथरी सुबह की।
जब थम जायेगी-
यह बारिश।
गुजर जायेगा यह तूफान।
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गजलें
जुर्म आपका बेहद संगीन है हुजूर,
इसीलिए आप चैन से सोये हैं हुजूर।
इक कंकाल मरा है रियासत में आपकी,
फिर भी आपकी रात रंगीन है हुजूर।
वायदों की फ सल लहलहा रही है देश में,
आपके चेहरे पर भी हरियाली छाई है हुजूर।
इक चोर को सब साहूकार लूट ले गये,
सब कुछ ठीक आपकी रहनुमाई में है हुजूर।
सिले हैं सब जुबान आंखें भी बंद हैं,
बहुत वफादार आपकी फौज है हुजूर।
इस अभागी जनता से जुड़े हुए हैं आप,
आपकी जर्रानवाजी का गजब नमूना है हुजूर।
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कैसे नए-नए अर्थ ये बनाने लगे हैं,
कि नीम को मीठा बताने लगे हैँ।
जिंदगी की बातों को नारों में दबा,
गड़े मुर्दों को फिर से जिलाने लगे हैं।
अधर में महल बात धरती की कर,
ये लोगों को फ र फुसलाने लगे हैं।
जबानी जमा खर्च से काम कैसे चले,
बिना समझे ये नाटक दिखाने लगे हैं।
ग्यारह घोड़ों पे फिर भी कहें एक हैं,
बेढब गणित ये सबको सिखाने लगे हैं।
कैसे लोगों को ये सब स्वीकार हो,
लाश सिद्धांतों की जब ये जलाने लगे हैं।
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नेवले भी सर्प का करने लगे गुणगान है,
आज के युगधर्म की बस सही पहचान है।
मरूथलों में हरियाली का वे दावा करें,
अपनी हालत क्यों गुलामों की कटी जुबान है।
हर तरफ सुख-शांति का झण्डा गड़ा रखे हैं वे,
और हालत ये कि वे खुद एक कब्रिस्तान हैं।
खुद बने हैं आप आका मुफलियों के,
हर तरफ बिखरे हुए बस अखबारी बयान हैं।
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जब से जिंदगी के सूरजमुखी उसूल हो गए,
हमको जीने के सभी रास्ते कुबूल हो गए।
स्वार्थ के तराजू में तौला जबसे जीवन,
हुक्काम तो क्या अर्दली भी जी-हुजूर हो गए।
परजीवी बनकर फैलाए जब स्वार्थ-पाश,
तिरस्कृत सब शिखंडी बेहद करीब हो गए।
कौवे की जाति से नाता जब जोड़ लिया,
कोयल की भाषा से बहुत दूर हो गए।
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मनोज अग्रवाल
मुंगेली,जिला-बिलासपुर
छत्तीसगढ़
अपने ज़मीं से कटना और कष्ट वाली कवितायें पढी अच्छी लगी , मनोज भाई को मुबारकबाद।
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