कहानी संग्रह - इक्कीसवीं सदी की चुनिंदा दहेज कथाएँ - (2) बबली तुम कहाँ हो?

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अनुक्रमणिका 1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल 2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक 3 -वैधव्‍य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित 4 - बरखा...

dahej kahaniyan

अनुक्रमणिका


1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल
2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक
3 -वैधव्‍य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित
4 - बरखा की विदाई -- डॉ0 कमल कपूर
5- सांसों का तार -- डॉ0 उषा यादव
6- अंतहीन घाटियों से दूर -- डॉ0 सतीश दुबे
7 -आप ऐसे नहीं हो -- श्रीमती मालती बसंत
8 -बिना दुल्‍हन लौटी बारात -- श्री सन्‍तोष कुमार सिंह
9 -शुभकामनाओं का महल -- डॉ0 उर्मिकृष्‍ण
10- भैयाजी का आदर्श -- श्री महेश सक्‍सेना
11- निरर्थक -- श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्‍ठ
12- अभिमन्‍यु की हत्‍या -- श्री कालीचरण प्रेमी
13- संकल्‍प -- श्रीमती मीरा शलभ
14- दूसरा पहलू -- श्रीमती पुष्‍पा रघु
15- वो जल रही थी -- श्री अनिल सक्‍सेना चौधरी
16- बेटे की खुशी -- डॉ0 राजेन्‍द्र परदेशी
17 - प्रश्‍न से परे -- श्री विलास विहारी

 

(2) बबली तुम कहाँ हो ?

डॉ0 अलका पाठक

आज बस में बबली की सास मुझे मिली थीं। मिली नहीं मेरे पीछे बैठी थीं। बबली की सास और एक न जाने कौन महिला। हो सकता है बबली की सास की बहन अथवा ननद हो। सास उन्‍हें कह रही थीं ‘जिज्‍जी'। सो, दोनों में से कुछ भी होना सम्‍भव है। तो बबली की सास और जिज्‍जी। अब दिल्‍ली शहर में इतनी बसें और इन इतनी बसों में इत्त्ो-इत्त्ो आदमी क्‍या पता चलता है कि कहाँ का है कौन, कहाँ से आया, जाएगा कहाँ। पर एक बात पक्‍की है कि दोनों मेरठ की नहीं थीं क्‍योंकि बबली की सास कह रहीं थीं कि मेरठ की लड़कियाँ बड़े-बड़ों के कान काटती हैं। पता नहीं कि बबली की सास कहाँ रहती है, कहाँ जाती हैं, आती हैं? कहाँ जा रही थीं पर इत्ती बात समझ में आई कि बबली के पति के लिए रिश्‍ता आया है, लड़की देखने जा रही थीं।

बबली मरी नहीं है, तलाक भी नहीं हुआ है, पर पीहर में है। बबली की सास का कहना है कि -‘‘जिसे गरज होगी लेते रहेंगे तलाक, फिरें कचहरी मारे-मारे, हम तो लड़के वाले हैं। हमारी क्‍या बेइज्‍जती और सोनू कौन-सा सरकारी मुलाजिम है कि दूसरी करने से नौकरी छूट जाएगी। घर का काम है। दूसरी भी अगर बबली जैसी कंगलों की बेटी आ गई तो उसकी छुटटी करते कौन देर लगेगी?''

जिज्‍जी ने पूछा-‘‘सोनू तो मना नहीं करेगा?''

बबली की सास हँसीं, बोलीं-‘‘मरद की जात कै दिन सोक मनावै।

दूसरी का मुँह देखा और भूल गया कि कोई थी भी कभी कि नां!'' जिज्‍जी ने मान लिया। बात ठीक। मरद की जात होती ही ऐसी है। रोवेगी तो बबली टुसुर-टुसुर। कंगलों के घर जन्‍मी तो रोयेगी ही। बताओ ऐसा भी कभी हुआ है कि लड़की छाती पर बैठी हो और माँ ने कत्तर तलक नहीं जोड़ कर रखी। बेटियों की माँएं तो छोछक की धोती भी उठाकर धर देती हैं कि बेटी के दहेज में जायेगी। गरीब-से-गरीब की बेटियाँ कशीदा सीख-सीख कर दहेज जोड़ती हैं। और नहीं तो क्रोशिया से थालपोश, मेजपोश बुन-बना लेती हैं। गुड़िया, बटुआ, पंखा, बनाती ही रहती हैं। न कुछ हुआ तो मोमजामे की पुरानी थैलियों के कंगरों पे बटन टाँक-टाँक ही ऐसे बटुए बनते हैं कि महाराज देखते ही रह जाओ। बेटी जात। मारी भली कि सम्‍हारी भली। पर बबली की महतारी को देखो लौंडिया से कुछ दहेज का सामान नहीं बनवाकर रखा। ठूँठ एम.ए.। स्‍कूल में मास्‍टरनी। बस, बबली का तो दिमाग आसमान पर। सरकारी नौकरी। परमानेंट। सोनू का काम नया है, जमते-जमते जमेगा। दे-देता ससुर दो-ढाई लाख। काम जमने में क्‍या देर थी? देर तो पैसे की है। पैसा हाथ हो तो सुरग हथेली पर बना ले। बाप ने नंगी-बूची विदा कर दी, फिर मरद का सुख भी चाहिए! मैंने तो फटकने न दी। ताक-झाँक तो बहुत की। पढ़ी-लिखी पकी उमर की। सोनू को बचाकर रखना मुश्‍किल हो गया पर तुम डाल-डाल हम पात-पात! दो दफे रह गई। पर मजाल है.......अब पड़ी रह बाप के घर। दे नहीं सकता था तो अब खिलाए! अब बताओ कुल इक्‍कीस हजार नकद! इक्‍कीस हजार में क्‍या होवे है? छह तोले तो सोना चढ़ाया था। धोती-साड़ी थी पाँच। हो गया पूरा।

‘‘गहने बबली ले गई?''

‘‘ठेंगा, हमने तो पहले ही अंडर कर लिया था। सोना-कपड़ा।''

‘‘अपने पीहर का?''

‘‘पीहर का क्‍या था? गले का, चार चूड़ी और चटर-मटर.......।''

‘‘वो ले गई?''

‘‘कैसे ले जाती? धरवा लिया पहले ही दिन। लच्‍छन न देखे थे? कैसे सिर उघाड़े बैठी थी?''

‘‘ब्‍याह के आई बबली। मैं बार-बार सिर ढाँपूं और आँचल सिर पे टिके ही नहीं झट सरक जाए। पता नहीं सरक जावै था कि मरी जान बूझ कर सरका लेवे ही। बस, उसके यों ही चलित्तर देखकर माथा ठनक गया कि यों नहीं है घर-गृहस्‍थी वाली। नौकरी करती है तो क्‍या जेठ-ससुर के सामने सिर उघाड़े डोलेगी? फिर सोनू के पापा भी कहने लगे कि हमने तो बेटे की ससुराल का सूट पहन कर नहीं जाना। कंगलों ने कमीज-पैंट में किस्‍सा काट दिया।''

‘‘बस, भेज दी पीहर। अब बसानी है लौडिया तो बात कर आदमियों जैसी। न तो घर लगे ब्‍याह का-सा। जो आवै सो ही पूछे कि सोनू का ब्‍याह हुआ, कैसा हुआ? घर तो ब्‍याह का-सा लगा नहीं। एक कोने में तो सोफा-सा पड़ा है, अलमारी दी है पर च�दर देखो कितनी पतली ढम-ढम वाजै। क्रीम-पौडर पोतने की मेज तक न दी। वकसिम-सी पकड़ा दी। न टी.वी., न फ्रिज, वी.सी.आर., बर्तनों के नाम पर देखो पर एक डिनर सैट। परात, कुल ग्‍याहर थाल, तास, कलसा और टोकनी। लो, हो गए बर्तन।''

बबली की सास के दुःख से जिज्‍जी द्रवित थीं। लत्ता-कपड़ा पूछा! कुल ग्‍यारह साड़ियाँ बबली की, और एक-एक नाम से सास-नन्‍दों की। चोले की और भात की। बस। गुडडो बक्‍स खुलाई की धोती लेने लगी तो मैंने कहा रहन दे गुडडो। नंगी क्‍या नहायेगी, क्‍या निचोड़ेगी? पर शाबाश है, महतारी को। ऐसी सिखा-पढ़ाकर भेजी कि ऐसी बनकर बोली लौंडिया कि सब आपकी है। जो और जितनी चाहिए ले लीजिए! बता कुल ग्‍यारह तो धोती लेकर आई है उसमें से कितनी दे देगी और कितनी पहन लेगी।

हमारे नन्‍दोई तो दहेज देखते ही बोले कि लौटा दो लौंडिया को दहेज के संग ही। आज ही पटेल नगर वालों का रिश्‍ता ले लेते हैं। हमारी भी कुछ इज्‍जत है कि नहीं। क्‍या दो-चार जने देखेंगे, क्‍या थू-थू करेंगे। कहाँ लड़के को भेज दिया। बस जी, ‘‘हमने कहा जै राम जी की।''

‘‘बबली के भइया-भतीजे आए लेने। पूछने लगे कि कब विदा कराने आओगे। टाल दिया। पंडित से महूरत निकलवा कर खबर करते हैं। अब करती है खबर हमारी जूती। काट चक्‍कर। काटे। कहने लगा कि लिवा लाओ बबली को। तब खुलकर बात हुई पैसों की। बोला-पहले बताते। न होता तो मैं रिश्‍ता न करता। यह तो हम भी जानते हैं। हमने कहा कि इतनी जमीन-जायदाद है, कर दे सोनू के नाम। और कर जा बबली को। लेने तो हम जाते नहीं। वो भी एक ही काइयाँ निकला। बोला-बबली के नाम कर दूँगा। बस, हमने कर दी राम-राम, श्‍याम-श्‍याम! तुम्‍हारा रास्‍ता अलग-हमारा रास्‍ता अलग। जो बता दी उससे एक सूत इधर नहीं, उधर नहीं। हम डटे रहे। बेटी का बाप है। जायेगा कहाँ? झख मार कर आएगा हमारी देहरी पर।''

‘‘आया फिर?''

‘‘आया? अजी बबली भेज दी। सोनू की दुकान पर। फोन किया सोनू ने।

मैं गई। मैंने पकड़ी चुटिया और निकाल बाहर करी कि जवानी इतनी जोर मार रही है तो बैठ जा बाजार में। बहू-बेटियाँ दान-दहेज के संग बसै करैं हैं ः समझी? बड़ी मास्‍टरनी बनै थी। टुसुर-टुसुर रोकर भागती ही नजर आई। मैं पढ़ी ना हूँ, गुनी तो हूँ-ऐसी एम.ए., बी. ऐओं को तो यों ही चरा दूँ!''

‘‘अब ये रिश्‍ता?''

‘‘पहले ठहर कर ली। नकद एक लाख। स्‍कूटर, टी.वी., फ्रिज, वी.सी. आर और इक्‍कीस तोले सोना दे रहे हैं। और सामान की लिस्‍ट दे दी। बिल्‍कुल चूँ-चपड़ न की।''

‘‘पहली की ना पूछी?''

‘‘पूछ करके क्‍या करता? बता दी कि लौंडिया कहीं और लगी हुई थी। ऐसी को रखता कौन? बबली के नाम सतीश से चार चिटठी लिखवा रखी है। जरुरत पड़ेगी तो दिखा देंगे।''

‘‘सतीश?''

‘‘सोनू का दोस्‍त नहीं है, दालमिल वालों का? वही।''

मुझे नहीं पता बबली कि तुम कौन हो, कहाँ हो। तुम्‍हारी सास से पता पूछती तो वह मुझे बताती तो नहीं, पर इसे पढ़ो तो जान लेना कि तुम्‍हारा अपराध यह था कि ब्‍याह पर तुम्‍हारे सिर पर पल्‍ला ठहरता नहीं था। सरक-सरक जाता था। तुमने खाना खाकर अपने जूठे बर्तन नहीं माँजे थे,़ महरी तो बहुओं की जूठन उठाती नहीं। उसको कौन-सी साड़ी आई थी? सोनू की नाड़ी मनुष्‍य की और तुम्‍हारी मृग। तुम्‍हारी सास को पंडितजी ने कहा है कि नाड़ी-दोष है और उससे बड़ा दोष है कि तुमने एक तो औरत का जन्‍म लिया, दूसरा यह कि गरीब बाप के यहाँ लिया। समझ गई हो न। सोनू का रिश्‍ता हो गया होगा। सुबह तुम्‍हारी सास बात पक्‍की करने ही जा रही थीं। मैंने तुम्‍हारी सास से तुम्‍हारा पता पूछने को मुँह खोला था पर निकला यह कि - ‘‘तुम्‍हारी बेटी नहीं है क्‍या?'' न तो तुम्‍हारी सास की समझ में आया, न मेरी, पर बबली क्‍या तुम जानती हो कि इस सवाल को पूछने में मेरी आँख से जो गिरा वह आँसू तुम्‍हारा तो नहीं था?

तुम कहाँ हो बबली?

'''

2-सी, सूर्या अपार्टमेण्‍ट, सेक्‍टर-13, रोहिणी, दिल्‍ली-85

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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रचनाकार: कहानी संग्रह - इक्कीसवीं सदी की चुनिंदा दहेज कथाएँ - (2) बबली तुम कहाँ हो?
कहानी संग्रह - इक्कीसवीं सदी की चुनिंदा दहेज कथाएँ - (2) बबली तुम कहाँ हो?
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