कहानी संग्रह 21 वीं सदी की चुनिन्दा दहेज कथाएँ संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि' अनुक्रमणिका 1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल 2 ...
कहानी संग्रह
21 वीं सदी की चुनिन्दा दहेज कथाएँ
संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि'
अनुक्रमणिका
1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल
2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक
3 -वैधव्य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित
4 - बरखा की विदाई -- डॉ0 कमल कपूर
5- सांसों का तार -- डॉ0 उषा यादव
6- अंतहीन घाटियों से दूर -- डॉ0 सतीश दुबे
7 -आप ऐसे नहीं हो -- श्रीमती मालती बसंत
8 -बिना दुल्हन लौटी बारात -- श्री सन्तोष कुमार सिंह
9 -शुभकामनाओं का महल -- डॉ0 उर्मिकृष्ण
10- भैयाजी का आदर्श -- श्री महेश सक्सेना
11- निरर्थक -- श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ
12- अभिमन्यु की हत्या -- श्री कालीचरण प्रेमी
13- संकल्प -- श्रीमती मीरा शलभ
14- दूसरा पहलू -- श्रीमती पुष्पा रघु
15- वो जल रही थी -- श्री अनिल सक्सेना चौधरी
16- बेटे की खुशी -- डॉ0 राजेन्द्र परदेशी
17 - प्रश्न से परे -- श्री विलास विहारी
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(12) अभिमन्यु की हत्या
कालीचरण प्रेमी
रुक-रुक कर लेबर रूम से रीना के रोने-गिड़गिड़ाने की दर्द भरी आवाज आ रही थी। इस मर्म-भेदी कातर स्वर ने हम लोगों को अनजाने भय से ग्रस्त कर दिया था। उस नर्सिंग होम के रिसेप्शन हाल में मैं, पिताजी और माँ बैठे थे। लगता था तीनों ही किसी अपराध-बोध से सीधे रुबरु हो रहे थे। पिताजी अकडू बने बैठे थे। उनकी आँखों में गहन उदासी थी। माँ की आँखों से टप-टप आँसू गिर रहे थे। माँ बींच में कई बार बड़बड़ायी-‘‘क्या यही दिन देखने को रह गए थे। इससे पहले मैं मर क्यों नहीं गई। भगवान ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया।''
अन्दर से फिर जोर से गिड़गिड़ाने की आवाज आयी - ‘‘मुझे जाने दो डॉक्टर! मैं इसे पाल लूंगी। मैं अपने बच्चे को मारना नहीं चाहती........प्लीज डॉक्टर! ...किन्तु वहाँ उसकी आवाज कोई सुनने वाला नहीं था। सब जैसे पत्थर बन गए थे। मैंने और पिताजी ने कल शाम ही डॉ. मिसेज मेहरा से सारी बातें कन्फर्म कर ली थीं।
‘‘देखिए डॉक्टर साहब, ज्यादा दिन नहीं हुए शादी को। सब बुरे दिनों का फेर है। ऐसे दुष्टों से पाला पड़ गया है कि सब कुछ बरबाद हो गया।'' मैं बात शुरु करते हुए बोला था, ‘‘शादी में पांच लाख रुपया लगा दिया फिर भी लड़की घर बैठ गई। वह प्रेग्नेंट भी है।''
‘‘अब मुझसे क्या चाहते हैं आप?''
‘‘हम जानना चाहते हैं कि इस स्थिति में अबार्शन हो सकता है? मैंने समस्या रखते हुए बोला।
‘‘कितने माह का गर्भ है?''
‘‘लगभग छः माह हुए होंगे।''
‘‘तब तो पूरी तरह कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि टाइम काफी हो गया है।'' डॉ. मिसेज मेहरा ने चिन्ता जतायी। ‘‘लड़की को ले आइये। चैकअप करने के बाद स्थिति कन्फर्म हो जायेगी। रिस्क लें या न लें।''
‘‘डॉ, साहब, अब शादी टूट चुकी है।'' पिताजी अपनी बात रखते हुए बोले - ‘‘मान लो कल को लड़की बाल-बच्चेदार हो गई तो दूसरी शादी करने में मुश्किलें आ जायेंगी। लड़की का भविष्य भी हमें देखना है।''
‘‘और यदि लड़का पैदा होता है तो लड़के वाले बच्चे पर अपना दावा कर सकते हैं।'' मैंने अपनी चिंता रखी - ‘‘उस स्थिति में बेवजह हम लोग मुकद्दमेबाजी में फंस सकते हैं। हमें रीना का भविष्य देखना है। इसके लिए रिस्क लेना ही पड़ेगा।''
‘‘डॉ. साहब, हमें आपका सहयोग चाहिए।'' पिताजी हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने की मुद्रा में आ गए थे।
डॉ. मिसेज मेहरा कुछ सोच में पड़ गईं। थोड़ी देर बाद वे एक सुझाव देते हुए बोली -‘‘आपको अपनी लड़की भारी लग रही हो तो इसे मेरे घर छोड़ दें। मैं इसे अपनी बेटी की तरह पाल लूंगी। नार्मल डिलीवरी होने पर इसके बच्चे को किसी निःसंतान दम्पत्ति को गोद दे दूंगी। किसी और का भला हो जायेगा। किसी की सूनी कोख भर जायेगी।''
‘‘नहीं, नहीं, डाक्टर साहब!'' मैं समझाते हुए बोला -‘‘हमें लड़के वालों के खिलाफ थाने में एफ.आई.आर.दर्ज करवानी है। जिसमें यह दर्शाना है कि लड़की के पति ने सीढ़ियों से धक्का देकर गिरा दिया, जिसके कारण लड़की को चोट लगी और रक्तस्त्राव हुआ। बाद में इसी कारण मिस कैरेज हो गया। इस घटना से मामला संगीन बन जायेगा। लड़के वालों को जेल हो जायेगी।''
‘‘लेकिन एक रिस्क इसमें भी है,'' डॉ. मिसेज मेहरा आशंका जाहिर करते हुए बोली - ‘यदि लड़के वालों को यह बात पता चल गयी कि आपने अबार्शन कराया है तो बच्चे की हत्या के जुर्म में आपके खिलाफ भी मुकदमा बन सकता है।''
‘‘यही तो मैं आपसे कह रहा हूँ।'' पिताजी चिन्तित होते हुए बोले - ‘‘आप किसी को कानों-कान यह खबर न होने दें। अपने स्टाफ को भी समझा दें। लड़के वाले चालाक हैं। वे यहाँ छानबीन करने आ सकते हैं। हम लड़की को कल सुबह ले आते हैं। आते ही यह काम कर दें और शाम तक डिस्चार्ज कर दें। किसी को पता नहीं चल पायेगा कि क्या हुआ।''
अंततः लम्बे परामर्श के बाद डॉ. मिसेज मेहरा ने अपनी सहमति दे दी थी।
घर आने पर माँ और पिताजी में खूब झगड़ा हुआ। माँ की शिकायत थी कि इस घर में महिलाओं की कोई राय नहीं लेता। उनसे कोई नहीं पूछता कि उनकी इच्छा क्या है या उनका फैसला क्या है? जो मर्द कर दें वही सही-सही या गलत। एक बार लड़की से भी पूछना चाहिए था कि उसकी क्या मर्जी है। पर कोई जरुरी नहीं समझता। मैं और पिताजी यह कहकर कि हम लड़की के दुश्मन नहीं हैं, बात खत्म कर देते हैं।
मुझे याद है रीना को उच्च शिक्षा-दीक्षा दिलवाने के बाद पिताजी उसके रिश्ते के लिए भागदौड़ कर रहे थे। उन्हें इंजीनियर और डॉक्टर की तलाश थी। पर दो-तीन साल चप्पलें घिसने के बाद उन्हें पता चल गया कि यह दुनिया इतनी सरल नहीं है, जैसी दिखती है। लड़की की उच्च-शिक्षा और उसका रंग-रूप यहाँ कोई मायने नहीं रखता। यहाँ सब कुछ पैसे से तोला जाता है। निराश होकर पिताजी ने यही निर्णय लिया कि चाहे जैसा लड़का मिल जाए। बस, सरकारी नौकरी होनी चाहिए, क्लर्क और चपरासी। यह भी आसान नहीं था। एक बैंक में चपरासी बन गए लड़के ने जब उनसे कार की मांग रखी तो उनके होश उड़ गए। दो-एक लड़के मैंने भी उन्हें बताये थे; किन्तु दहेज या अन्य कारणों से बात नहीं बनी। बहन तो मेरी भी थी पर फिर भी मैं इतना चिन्ताग्रस्त नहीं था, पिताजी हरदम तनावग्रस्त रहते थे। इसके बाद तीन बेटियां थीं। जब एक के लिए ही इतने पापड़ बेलने पड़ रहे हैं तो आगे क्या होगा। पिताजी का दिमाग काम नहीं करता था। पिताजी सहमे-सहमे से रहते थे। उनका स्वभाव भी चिड़चिड़ा हो गया था। कोई उनसे बोलता, वे झल्ला पड़ते थे। मैं पिताजी की पीड़ा को बखूबी समझता था।
पर मैं कुछ करने की स्थिति में नहीं था। एक तो मेरी डाक विभाग की मामूली क्लर्क की नौकरी, ऊपर से पिताजी ने मेरी शादी जल्दी कर दी थी। अब दो बच्चों का बाप था मैं। मेरे अपने खर्चों ने कमर तोड़ रखी थी। पहले पिताजी ने मुझे पढ़ाया उसके बाद चारों लड़कियों को पढ़ाने में उनके अंजर-पंजर ढीले हो गए थे। अब रिटायरमेंट भी नजदीक आ रहा था।
कहते हैं वैवाहिक बंधन संयोग से होते हैं। पिताजी का भी यही मानना था। जब कहीं रिश्ते की बातचीत असफल हो जाती, वे मानते अभी संयोग नहीं बना है। उस दिन असहज-सा घटनाक्रम हो गया। कुछ लोग पड़ोस मेें भगवान सिंह की लड़की देखने आए थे। भगवान सिंह की लड़की सांवली थी और हाईस्कूल तक पढ़ी हुई थी। इसलिए बात नहीं बनी। उसके पश्चात् वे लोग रामप्रसाद की लड़की देखने आ पहुँचे। और सब बातें तो ठीक थीं पर रामप्रसाद की लड़की की बत्तीसी जरा ऊंची थी, इससे उन्होंने मना कर दिया। पिताजी को जब इस बात की भनक लगी तो वे उन लोगों को अपने घर ले आये। शायद रीना उन्हें पसन्द आ जाए।
इन्सान का बहुत अधिक सरल और सीधा होना भी स्वंय के लिए कभी-कभी आत्मघात सिद्ध हो जाता है। वही हुआ भी। वे तीन लोग थे। एक स्थूलकाय काफी बेडौल औरत थी, जो अपने देवर के लिए बहू तलाश कर रही थी। उसके साथ उसका एक बेटा और उनका एक पड़ौसी युवक था। रीना इन दिनों एम.ए. कर रही थी। रीना के रंग रूप और उच्च शिक्षा-दीक्षा को देखकर तीनों ने स्वीकृति दे दी।
हाँ, होते ही लड़के वालों की ओर से यह अनुरोध हुआ कि आज ही हम लोग लड़का भी देख आयें। पिताजी शाम को मुझे लेकर लड़के वालों के यहाँ पहुँचे। चलते-चलते उन्होंने पांच हजार रुपये भी जेब में डाल लिए थे। लड़का साधारण शक्ल-सूरत का था। उसका नाम जतिन था। मैंने उसकी शिक्षा और नौकरी आदि के बारे में पूछा। वह इंटर पास कर हाईडिल में क्लर्क लगा हुआ था। शायद ऊपर की आमदनी भी थी। पिताजी ने उसकी पारिवारिक स्थिति का जायजा लिया। लड़के का बड़ा भाई पिछली साल गुजर चुका था। उसे होली के दिन गत वर्ष किसी ने जहरीले पकौड़े खिला दिए थे। वह सोता ही रह गया था। लड़के के पिता बहुत पहले ही स्वर्गवासी हो चुके थे। इस तरह घर में कोई वरिष्ठ पुरुष नहीं था। सब कुछ लड़के की विधवा भाभी थीं - घर की मुखिया और मालकिन भी। लड़के की माँ गाँव में रहती थीं। पता चला वह मानसिक रुप से विक्षिप्त हैं। मेरा माथा ठनका। मैंने पिताजी को अलग ले जाकर कहा - ‘‘मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है। इस घर में तो कोई बड़ा-बूढ़ा ही नहीं है। पूरे घर की हैड यह औरत है। शादी के बाद कोई ऊँच-नीच हो गई तो किससे कहोगे?'' इस सवाल पर पिताजी मेरी ओर ऐसे देखने लगे जैसे मैंने कोई बहुत गलत बात कह दी हो। वे बोले -‘तू बेअकली की बात मत कर। ये औरत बिचारी बड़ी दुखी हैं देखा नहीं किस तरह अकेली इतने बड़े परिवार को पाल रही है। बड़ी हिम्मत की बात है। रीना इस घर में आ जायेगी तो छोटी बहन की तरह रखेगी।''
मैं फिर और विरोध न कर सका। मैं समझ गया पिताजी की सरलता पर वे लोग हावी हो चुके हैं। चलते-चलते पिताजी ने पांच हजार रुपये अपनी जेब से निकाले और एक थाल में रखकर लड़के को दे दिए। बस, रिश्ता पक्का हो गया शेष औपचारिकता पूरी करने के बाद मैंने लड़के से कहा - ‘जतिन जी, मैं चाहता हूँ आप भी एक बार रीना को देख लें। यह जीवन भर का फैसला है। दोनों एक-दूसरे के विचारों को जान लें तो अच्छा रहेगा। मेरी बात सुनकर एक बार अपनी भाभी की ओर देखा और फिर सादगी से जवाब देते हुए बोला - ‘भाई साहब, अपनी भाभी को भाभी नहीं माँ मानता हूँ। अगर उन्होंने लड़की देख ली तो समझो मैंने ही देख ली। मैं अपनी भाभी माँ की बात कभी नहीं गिरा सकता।'
‘‘वह तो ठीक है, फिर भी एक बार.........'' मैंने फिर आग्रह किया।
‘‘बस भाई साहब! भाभी माँ ने जो कर दिया, वह फाईनल।'' कहकर जतिन ने बात खत्म कर दी।
पिताजी जतिन के इस व्यवहार से बड़े गद्गद् हो गए। वहाँ से लौटने पर बोले - ‘‘देखा लड़का कितना सीधा है। आजकल के लड़कों में ऐसे उच्च-विचार कहाँ मिलते हैं।''
पिताजी का आंकलन हो सकता है, सही हो पर मेरी आशंका मन में बराबर थी। इंटर पास लड़के के साथ एम.ए. पढ़ रही लड़की का विवाह करना युक्ति संगत नहीं लग रहा था। दूसरी बात लड़के का लड़की को देखने से इंकार करने पर भी मुझे संदेह था। आधुनिक युग में इस तरह का आचरण मेरे गले नहीं उतर पा रहा था। पर पिताजी के आगे मेरी सारी आशंकाएं बेकार साबित हुई।
ताकि इस बींच में लड़के के बारे में और तफतीश की जा सके किन्तु पिताजी को डर था कि देर करने से कोई हमारा विरोधी गलतफहमी पैदा कर रिश्ते को तुड़वा सकता है, भांजी बाजी मार सकता है। बड़ी मुश्किल से यह लड़का मिला है।
अगले माह आठ फरवरी को धूमधाम से विवाह सम्पन्न हो गया। पिताजी ने कुछ पैसा फंड से निकाला और कुछ बाहर से कर्ज लिया। मैंने भी यथा संभव सहयोग किया। पिताजी ने अपनी सामर्थ्य से अधिक दहेज की व्यवस्था की।
चौथे दिन मैं और पिताजी रीना को लेने उसकी ससुराल पहली बार पहुँचे वहाँ अजीब-सा सन्नाटा देखकर हम दोनों का मन आशंकित-सा हो उठा।
चाय-पानी की औपचारिकता के उपरांत जब पिताजी ने जतिन से पूछा - ‘बेटे ठीक तो हो?'' इस पर जतिन ने आँसू निकाल लिए। उसकी भाभी, हाथ नचाते हुए बोली - ‘‘अजी हमारी तो किस्मत फूट गई। इसे तो कुछ आता ही नहीं। रीना को तो गोबर खाने की तमीज भी नहीं। हम इस मिट्टी की मूरत का क्या करें?''
पिताजी और मैं जैसे सकते में आ गए। वातावरण बड़ा असहज हो गया।
लड़के वालों से ऐसे व्यवहार की आशा हमें नहीं थी। इससे पहले कि हम कुछ कह पाते घर का प्रत्येक सदस्य हमलावरों की तरह हम लोगों पर बुरा-भला कहने लगा। हमारी बात सुनने को कोई तैयार नहीं था।
खैर, किसी तरह हम रीना को विदा कराकर घर ले आए। घर में आकर रीना फूट-फूट कर रो पड़ी। माँ मीना, वीमा, और सोनी उससे लिपट कर रोने लगी। रीना ने सिसक-सिसक कर माँ से जो कुछ बताया, उसे सुनकर हमारे रौंगटे खड़े हो गए। जतिन और उसकी भाभी ने उसे डंडों से बुरी तरह पीटा था।
उसके शरीर पर जगह-जगह मार के नीले-नीले निशान पड़े थे। उसका पति और जेठानी उससे चार लाख रुपये नगद की मांग कर रहे थे। उसका कहना था कि जब दुबारा ससुराल आए, चार लाख लेकर आए। इसी दौरान रीना को यह भी पता लगा कि उसकी जेठानी ने ही उसके जेठ की जहर देकर हत्या की थी।
जिसका बाद में यह प्रचार किया गया कि किसी ने पकौड़े में जहर खिला दिया था। अतः रीना के साथ वे कुछ भी कर सकते थे। रीना वापस उस घर में जाने से मना करने लगी। घर में रंज का वातावरण बन गया। खुशी मानों हमारे घर से पलायन कर चुकी थी।
एक माह हो गया। उधर से रीना को लेने नहीं आया। हम सब को चिंता होने लगी। पिताजी ने रीना की ससुराल फोन किया, किन्तु वहाँ से कोई उत्तर नहीं मिला, उल्टे खरी-खोटी सुननी पड़ी। पिताजी ने पड़ौस के नारायण सिंह व वेदपाल को साथ लिया और रीना की ससुराल पहुँचे। काफी नोंक-झोंक के बाद लड़के वाले रीना को ले जाने पर राजी हो गए। उसने यह भी माना कि वे रीना को कुछ नहीं कहेंगे। इसी आश्वासन पर हमने रीना को ससुराल भेज दिया।
अभी राहत की सांस भी न ली थी। एक सप्ताह बाद ही रीना के साथ मार-पीट कर उसे घर से भगा दिया।
अब पिताजी ने मन बना लिया कि वे पंचायत के बिना रीना को नहीं भेजेंगे। इसी उहापोह में कई माह निकल गए। इसी बीच पिताजी रिटायर हो गए। उन्हें फंड और ग्रेच्युटी का पैसा भी मिला।
एक बार फिर रीना को वापस ससुराल भेजने का प्रयास होने लगा।
किन्तु रीना ने दोबारा उस नरक में जाने से मना कर दिया। पिताजी फिर से आदमी लेकर जतिन के घर पहुँचे। समझाना-बुझाना हुआ। मैंने कहा - ‘‘जतिन जी, तुम रीना को अपने साथ ले आओ, वह प्रग्नेंट है। ऐसी दशा में उसकी देखभाल ठीक से करना। तुम्हें देर-सवेर कोई फाइनेन्स हेल्प की जरुरत पड़े तो निःसंकोच बताना। इस पर जतिन ने अपनी गलती मान ली और भविष्य में अच्छा व्यवहार करने की कसम खायी।
हमें लगा जतिन सुधर गया है। यही मानकर हमने रीना को उसके साथ भेज दिया।
लेकिन यही शायद हमारी सबसे बड़ी भूल थी। ससुराल में एकाध दिन तो ठीक-ठाक रही, परन्तु फिर उसके साथ पशुवत व्यवहार होने लगा।
उस रात अचानक सोते-सोते रीना की आँख खुल गई। पास में जेठानी के कमरे से खुसर-पुसर की विचित्र-सी आवाजें आ रही थीं। जतिन भी उसके पास से जाने कब उठकर चला गया था। वह धीमे से बिना आहट किए उठी।
जेठानी वाले कमरे में नाइट बल्ब जल रहा था। उसने खिड़की की झिरी से झांककर देखा। जतिन और जेठानी को आपत्तिजनक स्थिति में देखकर वह सन्न रह गई। उसे लगा जैसे उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो।
वह वापस निढाल-सी बिस्तर पर गई। उसकी आँखों से नींद जा चुकी थी। बार-बार वही दृश्य उसकी आँखों में तैर रहा था।
सुबह हाथ-मुँह धोकर रीना ने माँ को फोन किया और रात की घटना के बारे में बताने लगी। तभी जतिन ने सुन लिया। अपना भांडा फूटता देख जतिन की आँखों में खून उतर आया। वह लात-घूंसों से रीना की पिटाई करने लगा।
वह चीखती चिल्लाती रही। जब जतिन को इतने से भी संतोष न हुआ तो उसने दोनों हाथों से रीना का गला दबाकर काम-तमाम करने की कोशिश की।
रीना भरसक अपना गला छुड़ाने का प्रयास करने लगी। जब कोई और चारा न बना तो उसने जतिन की बांह में जोर से काट डाला। जतिन की पकड़ ढीली पड़ते ही उसने उसके हाथ झटके और तेजी से दौड़कर बाहर सड़क पर आ गयी।
वह बेतहाशा भागने लगी। बस स्टैण्ड पर आकर उसने एक रिक्शा पकड़ा और मायके पहुँच गई।
हमारे घर में जैसे कोहराम-सा मच गया। माँ-बहनें सबका रो-रोकर बुरा हाल था।
पिताजी ने फोन कर मुझे उसी समय आफिस से घर बुलवाया। आस-पड़ौस की औरतें इकट्ठी होने लगी थीं। तय यह हुआ कि तुरंत थाने में एफ.आई.आर. दर्ज करायी जाए। हम कई लोग रीना को थाने लेकर पहुँचे। थाना प्रभारी ने हमारा दुखड़ा सुनकर समझौता करने की नसीहत दे डाली। कहा कि क्योंकि लड़की गर्भ से है। इसे फिलहाल अपने पास रखें। बच्चा होने पर स्थिति सामान्य हो जायेगी। अपना खून सबको प्यारा होता है।
हमें थाने से खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। मैने अपने मित्र गुप्ता जी से कहा - ‘‘गुप्ता जी, आप ही कोई रास्ता बतायें हम तो पूरी तरह से बार्बाद हो चुके हैं। इन हालात में क्या करना चाहिए?''
गुप्ता जी पहले कुछ देर सोचते रहे, फिर कुछ सोचकर बोले - ‘‘चिंता मत करो, मेरे परिचय में एक बहुत बड़ा वकील है। उनसे मिलकर सलाह लेते हैं।''
मैं और पिताजी वकील साहब के पास पहुँचे। वकील साहब ने सारा मामला सुनकर सुझाव दिया - ‘‘आप लोग सबसे पहले डॉ. मिसेज मेहरा से मिलें।
क्या लड़की के अबार्शन की सम्भावना हो सकती है। यदि ऐसा हो जाता है तो मिस कैरेज का मामला बना देंगे। दिखा देंगे कि लड़की की हत्या की साजिश के तहत उसे उसके पति ने सीढ़ियों से धक्का दे दिया। अत्यधिक रक्तस्त्राव के कारण ही यह सब घटित हुआ।''
‘‘इसके बाद आगे क्या करोगे?'' मैंने उत्सुकतावश पूछा।
‘‘इससे दहेज का केस बहुत स्ट्रांग हो जायेगा। जज साहब पहली सुनवायी में ही सबकी गिरफ्तारी के आदेश दे देंगे। लड़की की ससुराल के सब लोग जेल चले जायेंगे।''
मैंने और पिताजी ने आपस में विमर्श किया और हाँ में सिर हिला दिया - ‘‘हम भी यही चाहते हैं राक्षस जेल जरुर जायें। हमारा तो सब कुछ लुट चुका है। इज्जत भी और पैसा भी।''
‘‘हाँ जी डाक्टर आपको अन्दर बुला रही हैं'' नर्स की आवाज ने जैसे मुझे अतीत के बवंडर से बाहर निकाला। मैं और पिताजी डाक्टर मिसेज मेहरा के चैम्बर में दाखिल हुए।
‘‘अबार्शन हो गया है। बच्चा स्वस्थ और जीवित है और वह लड़का है। बहुत सुन्दर है। अगर पालना चाहते हो तो ले जाओ।'', डॉ. मिसेज मेहरा एक ही सांस में सारी बातें कह गईं।
मैंने पिताजी के चेहरे की ओर देखा। उनके चेहरे पर न जाने कहाँ से इतनी कठोरता आ गई, बोले - ‘‘मैं उस दुष्ट के पाप को देखना भी नहीं चाहता।'' मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। निर्णय लेने की स्थिति में मैं नहीं था। मैं बस सामने, की दीवार पर लगे चित्र को घूर रहा था, जिसमें अभिमन्यु को चक्रव्यूह में दुश्मनों से जूझते हुए दिखाया गया था और जयद्रथ पीछे से उसका सिर धड़ से अलग करने के लिए प्रहार करने ही वाला था। कोई प्राथमिक प्रीकोशन न मिल पाने के कारण नवजात शिशु ने पन्द्रह मिनट बाद दम तोड़ दिया। नर्स ने शिशु को अखबार में लपेटा फिर एक कपड़े में लपेटकर मुझे थमा दिया।
मैं और पिताजी तुरंत नर्सिंग होम से बाहर निकले। सतर्क नजरों से चारों ओर देखा। उसके बाद एक रिक्शा पकड़ा और मृत शिशु को हिंडन नदी में बहाने के लिए निकल पड़े।
हिंडन से लौटने के पश्चात् हम लोगों ने शाम तक का समय बड़ी उहापोह में गुजारा। पता नहीं हमारे भीतर एक तरह के अपराधबोध का भय था। वहीं कुछ गलत घट जाने की चेतना बार-बार मन को झकझोर रही थी कि कहीं लड़के वालों की ओर से कोई अचानक न आ धमके। नयी मुसीबत खड़े होते देर नहीं लगेगी।
शाम के पांच बजते ही एक टैक्सी तय कर ले आया। डॉ मिसेज मेहरा ने अब तक डिस्चार्ज के कागज बना दिए थे। फिर तो मैने तसल्ली करते हुए पूछा ..........? ‘‘डॉ, मिसेज मेहरा के स्वीकृति में सिर हिलाने पर मैंने एक बार डॉक्टर को लगभग चेतावनी के अन्दाज में कहा - ‘‘देखिए डॉ, साहब कोई इस बारे में पूछताछ करने आए तो आप वही कहें जो कागजों में लिखा है वही बतलायें। यह मामला अब कोर्ट में चलेगा।''
माँ और पिताजी ने सहारा देकर रीना को टैक्सी की पिछली सीट पर बिठाया। मैं डा्रइवर के साथ अगली सीट पर बैठ गया। रीना के चेहरे पर मुर्दनी-सी छायी हुई थी। वह आँखें बंद किए माँ के कंधे पर अपना चेहरा टिकाए थी। उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे उसका सब कुछ लुट गया हो। वह स्वयं एक जिंदा लाश हो।
टैक्सी घर की ओर दौड़ रही थीं। लग रहा था जैसे हम किसी उठावनी से वापस लौट रहे हों। मैं सोच रहा था, समाज की यह बड़ी विडम्बना है कि स्त्री हर हाल में पराधीन ही रहती है चाहे वह अपने माँ के घर में हो अथवा ससुराल में। आधुनिक समय कहे जाने वाले समाज में शिक्षा और आधुनिकता के नाम पर हम भले ही कितने आजाद ख्याल के हो गये हों लेकिन नारी के हाथ में अपने फैसले करने का अधिकार नहीं है। उसे अपने जीवन में पल प्रतिपल अपने पिता, पुत्र और पति के फैसलों पर चलना पड़ता है। यही उसकी नियति है और यही विवशता भी।
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ए - 106, बाग कॉलोनी,,
शास्त्री नगर, गाजियाबाद - 201032
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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