कहानी संग्रह 21 वीं सदी की चुनिन्दा दहेज कथाएँ संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि' अनुक्रमणिका 1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल 2 ...
कहानी संग्रह
21 वीं सदी की चुनिन्दा दहेज कथाएँ
संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि'
अनुक्रमणिका
1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल
2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक
3 -वैधव्य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित
4 - बरखा की विदाई -- डॉ0 कमल कपूर
5- सांसों का तार -- डॉ0 उषा यादव
6- अंतहीन घाटियों से दूर -- डॉ0 सतीश दुबे
7 -आप ऐसे नहीं हो -- श्रीमती मालती बसंत
8 -बिना दुल्हन लौटी बारात -- श्री सन्तोष कुमार सिंह
9 -शुभकामनाओं का महल -- डॉ0 उर्मिकृष्ण
10- भैयाजी का आदर्श -- श्री महेश सक्सेना
11- निरर्थक -- श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ
12- अभिमन्यु की हत्या -- श्री कालीचरण प्रेमी
13- संकल्प -- श्रीमती मीरा शलभ
14- दूसरा पहलू -- श्रीमती पुष्पा रघु
15- वो जल रही थी -- श्री अनिल सक्सेना चौधरी
16- बेटे की खुशी -- डॉ0 राजेन्द्र परदेशी
17 - प्रश्न से परे -- श्री विलास विहारी
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(14) दूसरा पहलू
पुष्पा रघु
उस दिन भी रोज की तरह दोपहर के भोजन के बाद एक पत्रिका लेकर बैठी ही थी कि द्वार की घंटी टनटना उठी। द्वार खोला तो पडोसन ममता थी वह एक कार्ड पकड़ाते हुए बोली-‘‘माफ करना बहनजी आपको डिस्टर्व कर दिया। क्या करुँ सुबह की निकली हूँ कार्ड बाँटने, दोपहर हो गई। अकेली हूँ ना। परसों आपकी बिटिया अनुपमा की शादी है। आपको सपरिवार आना है।''
‘‘यह तो बहुत खुशी की बात है। बहुत-बहुत बधाई हो!'' सचमुच ही यह समाचार सुनकर मन प्रसन्न हो गया था। साथ ही यह जानकर उत्सुकता भी उपजी कि कौन होगा जो एक विकलांग लड़की को अपनाने का पुण्यकार्य कर रहा है? वह भी विकलांग ही होगा। फिर भी बहुत बड़ी बात है कि एक विधवा अपनी ऐसी पुत्री का विवाह करने में सफल हो गई वरना आजकल तो....! ईश्वर इसका वैवाहिक जीवन सुखी और सफल बनाना! मैनें दुआ मांगी।
ममता बड़ी जीवट वाली महिला है। छोटी-छोटी तीन लड़कियों के विवाह का भार छोड़ उसके पति एक दुर्घटना का शिकार हो गए। ममता ग्रेजुएट थी अतः पति के आफिस में नौकरी मिल गई परन्तु पिता के साथ बैठी अनुपमा अपनी एक टांग खो बैठी। वह एक अस्पताल में रिशेप्सनिष्ट थी बहुत ही सुन्दर, सौम्य मृदुल लड़की थी वह।
विवाह समारोह घर के निकट एक छोटे से वैंकेट हॉल में था। सादा और सुरुचिपूर्ण सजावट थी। कम ही लोग आमन्त्रित थे। तभी बारात आ गई, बीस-पच्चीस व्यक्ति होंगे। हम लोग स्वागत के लिए द्वार पर पहुँचे।
‘‘ये दूल्हे की मम्मी है।'' कह कर ममता ने एक दुबली-पतली वृद्धा को हाथ जोड़े एवं पुष्पगुच्छ भेंट किया। मैंने भी हाथ जोड़कर नमस्कार किया। वह महिला कुछ पल मुझे देखती रही फिर मेरे हाथ पकड़ कर बोली......... ‘‘तुम.......तुम वंदना हो न!'' वह मुझ से लिपट गई। उसकी आवाज मेरे स्मृति-पट खटखटा रही थी पर मैं उसे पहचान न पाई। मेरी मनः स्थिति को भांप वह बोल उठी-'' अरी! मैं रमा हूँ तेरी दिल्ली वाली सहेली।''
ममता औरों के स्वागत सत्कार तथा अन्य लोकाचारों में व्यस्त हो गई तथा मैं और रमा एक दूसरे में। मैं रमा को देख कर व्यथित-विस्मित थी। मेरा हृदय यह मानने को प्रस्तुत ही नहीं हो रहा था' - यह वृद्धा, मूर्तिमन्द वेदना मेरी वही रमा है जिसे छः साल पूर्व दिल्ली में छोड़ा था। गोरी-चिट्टी, गोलमटोल खुशमिजाज रमा मेरी पड़ोसन ही नहीं अभिन्न मित्र भी थी। पति-पत्नी दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में कार्यरत थे। अच्छा वेतन, सुविधा सम्पन्न घर, तीन-तीन आज्ञाकारी बुद्धिमान बेटे, बड़ा बेटा सौरभ एम्स में डाक्टर था, उसकी पत्नी भी डॉक्टर थीं पर माँ-बाप के साथ ही वे बड़े प्यार से रहते थे। दूसरा सौरव कम्प्यूटर में डिग्री लेकर सपरिवार अमेरिका चला गया था। तीसरा वैभव उस समय एम. बी.बी.एस. कर रहा था। ऐसा क्या घटा जो रमा को यूं उजाड़ गया। मैं अधिक देर रोक न सकी स्वयं को। रमा के पति कब छोड़ गए? यह भी जानना चाहा। मेरे प्रश्नों को सुन उसकी आँखें बरसने लगीं। फिर जो सुनाया, दिल दहल गया उसे सुनकर।
‘‘तुम जब दिल्ली छोड़कर आईं थीं तब तक सब ठीक-ठाक था। वैभव का डॉक्टरी पढ़ाई का तीसरा साल था। उसका अस्पताल में डायटिशियन से प्रेम का चक्कर चल गया। सुरंजना फ्रॉडकिस्म की लड़की थी। सीधे-सादे वैभव को गर्भवती हो जाने का झांसा देकर विवाह के लिये बाध्य किया। हमने बेटे की खुशी की खातिर बिना एक धेला लिये, बड़ी बहुओं की तरह गहने-कपड़े देकर उसे अपना लिया परन्तु उसकी साजिश और इरादे सिर्फ शादी तक ही सीमित नहीं थे।
उसने हमारी हँसती-खेलती गृहस्थी में कांटे वो दिये। वैभव को जली-कटी सुनाती, जेठ-जेठानी, सास-ससुर को नौकरों की तरह बरतती। अक्सर सुनाती रहती - ‘‘मेरा तो इस घर में दम घुटता है। भाभी तुम डॉक्टर हो कर यहाँ क्यों पड़ी हो?'' तीसरे दिन माँ के घर चल देती। वैभव साथ न जाता तो क्लेश करती।
सारे जेवर भी माँ के घर रख छोड़े थे। रोज-रोज की चख-चख से तंग होकर हमने वैभव को अलग मकान में रहने के लिए भेज दिया। वह दुःखी मन से चला तो गया पर सुरंजना फिर भी संतुष्ट नहीं हुई क्योंकि वैभव ने उसके कहे अनुसार हमसे सम्बन्ध नहीं तोड़ा और घर आना-जाना नहीं छोड़ा। इसी खींचातान में चार महीने बीत गए। उस दिन हमारे पोते मयंक का जन्म दिन था। बहुत आग्रह करने पर भी सुरंजना नहीं आई तो वैभव अकेला ही आया था। खाना परोसा जा रहा था कि वैभव का मोबाइल बज उठा वह बद्हवास सा खाना छोड़ कर चल दिया। बहुत पूछने पर चलते-चलते बोला-‘सुरंजना जल गई है।'
पहले तो पुलिस को वैभव और हमारे खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला पर बाद में सुरंजना के माता-पिता ने खूब पैसा खिलाया और न जाने कहाँ से सुरंजना के लिखे कई पत्र जिनमें सास-ससुर, जेठ-जेठानी की दहेज प्रताड़ना तथा पति को भड़काने की शिकायत वाले मिल गए। एक पत्र में तो यह भी लिखा बताया कि ‘यदि मेरी अस्वाभाविक मृत्यु हो जाये तो उसका जिम्मेदार मेरे पति व उसके परिवार को माना जाए। सो मुझे वैभव और उसके पापा को पकड़ कर जेल में डाल दिया।
सौरभ और उसकी पत्नी ने भी काफी दिन भूमिगत रह कर जान बचाई। यह सब किया था सुरंजना के माँ-बाप की पाप की कमाई ने। बाप आपूर्ति विभाग में कार्यरत था। अनाप-शनाप रिश्वत लेकर बड़ी सी कोठी बनाई थी। चार-चार बेटियाँ थीं।
हराम की कमाई से भ्रष्ट हुई माँ की भूख ने बेटियों को गलत धन्धे में लगा दिया। सुरंजना से बड़ी ने एक अधेड़ रईस से ब्याह रचाया उसको स्वर्ग भेज, माल-भत्ता समेट अब ठाठ से पुराना धन्धा चला रही थी। सुरंजना एक गरीब डॉक्टर पर मर मिटी अतः माँ-बहन उससे नाराज थीं।
सारी बातें तो वैभव को मकान मालकिन ने बताईं थीं क्योंकि उसी के फोन पर सुरंजना की माँ से वार्ता होती थी। सुरंजना के आत्महत्या करने से कोई एक घन्टे पूर्व भी सुरंजना की माँ का फोन आया था। वह बार-बार माँ से कह रही थी - ‘‘नहीं-नहीं मैं वैभव को नहीं छोड़ सकती वह बहुत अच्छा है। कभी न कभी तो मेरे कहने में चलेगा ही - छोडेगा ही अपने घरवालों को। नहीं! अब मुझे नहीं करना तुम्हारा धन्धा। नहीं चाहिए तुम्हारा पैसा! सम्बन्ध तोड़ दोगे? तोड़ दो........ये बातें मकान मालकिन ने पुलिस को भी बताइर्ं थीं पर किसी ने हमारी और उसकी नहीं सुनी। तीन साल तक मुकदमा चला और हम नर्क में सड़ते रहे। वैभव की पढ़ाई बींच में छूट गई! कैरियर के तीन अमूल्य वर्ष मिट्टी में मिल गये। उसके पापा उस अपमान और यंत्रणा को सह न सके। एक साल में ही मुक्त हो गए। जो अपराध हमने किया ही नहीं उसके दंड ने यह दशा तो करनी ही थी। वो तो गौरव अमेरिका में था उसके भेजे रुपयों से हम मुकदमा जीत कर बाहर आ गए। भगवान का शुक्र है कि वैभव फिर जीवन की खुशियों से नाता जोड़ रहा है। उसकी नियुक्ति पिछले साल यहीं के अस्पताल में हो गई और हम दिल्ली को उसकी कड़वी यादों के साथ अलविदा कह आए।
अविश्वसनीय - अकल्पनीय सी रमा की आपबीती सुन बहुत देर तक एक भी शब्द मेरे मुँह से न फूटा। मैं समझ ही नहीं पा रही थी क्या कह कर उस भद्र महिला को सान्त्वना दूँ जिसके सपनों को नहीं, यथार्थ को एक कुचाली, कुसंस्कारी परिवार ने अकारण ही तहस-नहस कर डाला। अपनी ही पुत्री को धन लिप्सा की भेंट चढ़ा निर्दोष लोगों के मान-सम्मान और सुख शान्ति को बारुद के हवाले कर दिया।
अनुपमा भीगी पलकें लिए विदा होने लगी। रमा ने आग्रह पूर्वक मुझे अपने साथ गाड़ी में बिठा लिया। वह प्रसन्न एवं संतुष्ट दिखाई दे रही थी। एक प्रश्न जो अनुपमा के विवाह का कार्ड देखते ही मन में कुलबुला रहा था, होठों पर आ ही गया - ‘‘रमा! एक बात है जो मेरी समझ में नहीं आई। अनुपमा का चयन वैभव जैसे सुंदर हृष्ट-पुष्ट सफल युवक के लिये! क्या कोई विवशता थी?''
‘‘तुम शायद अनुपमा की विकलांगता की बात कर रही हो। ऐसा हादसा किसी के भी साथ कभी भी हो सकता है। वंदना! विकलांगता से कहीं अधिक खतरनाक मानसिक विकलांगता की भयावहता को भोग चुकी हूँ मैं जिससे सुरंजना और उसका परिवार ग्रस्त था।
अनुपमा तो हीरा है। पांच-छः महीने पहले मैं बीमार हुई तो इसने मेरी सेवा करने में अस्पताल की नर्सों को भी पीछे छोड़ दिया। इसकी निस्वार्थ सेवा, मृदुल व्यवहार, मधुर मुस्कान ने मेरा मन जीत लिया। मानवीयता, सज्जनता एवं सदाशयता पर फिर से मेरा विश्वास कायम हो गया। सच पूछो तो अनुपमा वह आस्था बन कर हमारे जीवन में आई कि फिर से जीने की ललक जाग उठी। मैंने ममता से इस हीरे को मांग लिया। वैभव को भी मेरा चयन पसंद है वह तो वीतरागी ही हो गया था!''
यह बताते हुए रमा के अधरों पर मुस्कान खेल रही थी। मैंने भी राहत की सांस ली कि चलो कम से कम करुण कहानी का अन्त तो सुखद हुआ।
घर जाकर जब यह कहानी मैंने अपनी बहू को सुनाई तो वह चकित रह गई और बोल उठी - ‘‘अक्सर समाचार पत्रों में दहेज-प्रताड़ना के किस्से छपते रहते हैं जिनमें पति तथा उसके परिवार को दोषी मान दंड दिये जाने की बात पढ़कर हम न्याय पर संतोष करते हैं। कौन जाने उन कहानियों के पीछे क्या सच्चाई होती है?''
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‘पुष्पांजलि' 27-ए. से. 1,
चिरंजीव विहार, गाजियाबाद 201002
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