कहानी संग्रह 21 वीं सदी की चुनिन्दा दहेज कथाएँ संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि' अनुक्रमणिका 1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल ...
कहानी संग्रह
21 वीं सदी की चुनिन्दा दहेज कथाएँ
संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि'
अनुक्रमणिका
1 -एक नई शुरूआत - डॉ0 सरला अग्रवाल
2 -बबली तुम कहाँ हो -- डॉ0 अलका पाठक
3 -वैधव्य नहीं बिकेगा -- पं0 उमाशंकर दीक्षित
4 - बरखा की विदाई -- डॉ0 कमल कपूर
5- सांसों का तार -- डॉ0 उषा यादव
6- अंतहीन घाटियों से दूर -- डॉ0 सतीश दुबे
7 -आप ऐसे नहीं हो -- श्रीमती मालती बसंत
8 -बिना दुल्हन लौटी बारात -- श्री सन्तोष कुमार सिंह
9 -शुभकामनाओं का महल -- डॉ0 उर्मिकृष्ण
10- भैयाजी का आदर्श -- श्री महेश सक्सेना
11- निरर्थक -- श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ
12- अभिमन्यु की हत्या -- श्री कालीचरण प्रेमी
13- संकल्प -- श्रीमती मीरा शलभ
14- दूसरा पहलू -- श्रीमती पुष्पा रघु
15- वो जल रही थी -- श्री अनिल सक्सेना चौधरी
16- बेटे की खुशी -- डॉ0 राजेन्द्र परदेशी
17 - प्रश्न से परे -- श्री विलास विहारी
---
बिना दुल्हिन लौटी बारात
सन्तोष कुमार सिंह
प्रातः काल का समय है। एक बड़ी कोठी के सामने मखमली घास के लान में जगह-जगह पुष्पगुच्छ इठला रहे हैं। लॉन के बीचों-बींच ठा. हरनामसिंह कुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे हैं। सामने की कुर्सियों पर सुन्दरलाल जुनेजा और मंगतराम चाय की चुस्कियाँ ले रहे हैं। हरनामसिंह की चाय ठण्डी हो रही है। ये अखबार पढ़ने में ज्यादा ही तल्लीन हैं। अचानक ही बोल पड़े, ‘लो एक और बहू चढ़ गई दहेज की बलि बेदी पर।'
कौन अभागिन थी वह? कहाँ की है वह? फिर बोले घटना इन्दौर की हो या मेरठ की, गोरखपुर की हो या इलाहाबाद की, बहुओं का क्या दोष है। वे तो निर्दोष ही मारी जाती हैं।
अरे बहुत बुरा जमाना आ गया है हरनाम भइया। हर रोज अखबार में पढ़ने को मिलता है कि-‘ससुराल वालों के कष्टों से तंग आकर बहू ने आत्महत्या की। ‘मिटटी का तेल डाल कर गीता को मार डाला।' स्कूटर न मिलने पर पति ने पत्नी की हत्या कर दी।' सुन्दर लाल ने कहा।
‘‘कसाई होते हैं कसाई। यों ही मार देते हैं, बहुओं को।'' मंगतराम ने कहा।
हरनाम सिंह बोले, ‘ऐसे समाचार पढ़कर पत्थर दिल भी पिघल जाता है, इंसानियत दहल उठती है और आत्मायें चीत्कार कर उठती हैं। जिस प्रकार कोढ़ होने पर शरीर गलने लगता है ठीक उसी प्रकार दहेजरूपी कोढ़ भी अनगिनत निर्दाेष और मासूम कन्याओं को खाये जा रहा है। पता नहीं कल किस पिता की लाड़ली को सफेद चादर उठाई जाएगी, पता नहीं किस माँ की ममता फूट-फूट कर रोएगी और पता नहीं किस भाई की कलाई राखी के धागों के लिए फड़फड़ाएगी।
मंगतराम बोला, ‘तू ठीक कहता है हरनाम। दहेज तो समाज के लिए अभिशाप बन गया है। जहरीले नाग की तरह फन फैलाये हर चौराहे, हर शहर, हर नगर, हर गली-कूचे में खड़ा दिखाई दे रहा है। किन्तु आश्चर्य है, भारतीय समाज मूक दर्शक बनकर देख रहा है। उसके भुजदण्डों में इतना भी दम नहीं कि उठाए लाठी और कुचल दे दहेजरूपी नाग के फन को ताकि मासूम कलियों का जीवन सुरक्षित हो सके। वे महक सकें घररूपी क्यारियों में।
चर्चा चल ही रही थी कि गौरीशंकर भी वहाँ आ पहुँचे। गौरीशंकर हरनामसिंह के ही पड़ोसी हैं। उनका हृदय भी दहेज के दंश से घायल है। दो वर्ष पहले सुन्दर सुशील बी.ए. बीएड बेटी कुसुमलता को ससुरालियों ने सफेद चादर उढ़ा दी थी। तब से वह किसी की विदाई नहीं देखता है। ‘बाबुल की दुआयें लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले........जैसे मर्मस्पर्शी गीत बजते ही वह अपने कान बन्द कर लेता है।
गौरीशंकर को देखकर हरनामसिंह बोले, आ भाई गौरीशंकर आ......इधर बैठ। अरे रामू, एक कप चाय और लाना। हरनाम सिंह ने नौकर को आवाज दी।
‘अभी लाया बाबूजी।' नौकर ने प्रत्युत्तर दिया।
चर्चा पुनः आरम्भ हो गई।
जुनेजा बोला, ‘वैसे तो यह दहेज प्रथा सदियों पुरानी है। बस इसका रूप विकृत हो गया है।''
‘वह कैसे?' मंगतराम ने पूछा।
वह ऐसे, ‘यदि हम पुराने इतिहास को देखें या नाना-नानी और दादा-दादी की कहानियों पर गौर करें तो बात स्पष्ट हो जाती है। उन कहानियों में दहेज का अस्तित्व मिला है। उनमें कहा जाता है कि बीसलपुर के राजा ने अपनी बेटी के विवाह में आधा राज्य दे दिया। उस राजा ने अपनी बेटी के साथ सोने-चाँदी और जवाहरातों से लदे सौ ऊँट और घोड़े भेजे। अमुक राजा ने अनेक सुन्दर दासियों को बेटी के साथ भेजा। वह दहेज नहीं तो और क्या था?
‘बात तो सही है जुनेजा, पर ये कोढ़ समाज के हर तबके में कैसे फैल गया?' हरनामसिंह ने पूछा।
जुनेजा बोला, ‘राजाओं की देखा-देखी मंत्री, सामन्त एवं जागीरदार यही करने लगे। धीरे-धीरे यह प्रचलन धनाढय व सम्पन्न समाज में पहुँचा होगा। फिर यह कुरीति समाज की प्रथा बन कर पल्लवित हो गई होगी। गरीब आदमी पाँच बर्तन देकर बेटी को विदा करने लगा तो कोई अपनी हैसियत के अनुसार सामान देकर बेटी को डोली में बैठाने लगा। पहले इस सामान को देने का उ�देश्य नवदम्पति के नवजीवन प्रारम्भ करने को सरल बनाना और स�भावना रहा होगा, वही अब विकृत होकर स्टेटस सिम्बल बन गया है।
हरनामसिंह बोले ‘तू सही कह रहा है सुन्दरलाल।' वास्तव में इसका रूप विकृत हो गया है। नवदम्पत्ति को दिये जाने वाला सामान उपहार नहीं; वर की कीमत बन गया है। वर का मूल्य उसकी योग्यता से आंका जाने लगा है। चाहे लड़का अष्टावक्र हो, पर दहेज के साथ-साथ बहू उर्वशी का अवतार चाहिए।
घर में भले ही साइकिल न हो पर वह स्कूटर पाए बिना तोरण स्पर्श न करेगा। अब तो दहेज के ठेकेदारों ने रेट लिस्ट भी बना ली है। आई.पी.एस. हो तो बीस लाख से ऊपर, डाक्टर-इंजीनियर है तो दस से कम नहीं। छोटी-मोटी सरकारी नौकरी वाला है तो चार पहिए की गाड़ी, टी.वी., फ्रिज चाहिए।
मंगतराम बोले, तू सही कह रहा है हरनाम। पिछले सप्ताह मेरा बेटा एक लड़की देखने गया था। इंजीनियर था लड़के के पिता से बातें हुइर्ं। पहले तो उसने दहेज की बातें ही नहीं कीं। बोला था कि हमें तो लड़की सुन्दर और योग्य चाहिए। दहेज की अहमियत नहीं हमारे यहाँ। हमारी नातिन तो एम.एस.सी. है, इसलिए बात आगे बढ़ाते रहे। कई बार उनके दरवाजे पर आते रहे। न मना करे और न हाँ करें। हम लोग बड़े परेशान। आखिर एक दिन उसकी पत्नी ने कह ही दिया कि हमें दस लाख रुपए और मारुति एस्टीम गाड़ी चाहिए। इतना सुनते ही मुँह की चाय का घूंट कडुवा लगने लगा। बेटा चुपचाप उठकर चला आया। पर एक सज्जन परिवार मिल गया है। बड़े अच्छे लोग हैं। लड़का विदेशी कम्पनी में पन्द्रह हजार रुपये पा रहा है। पिता सरकारी अधिकारी है। एक अच्छा मकान है और सबसे बढ़िया बात ये है कि उसने दहेज भी नहीं मांगा है। बेटे ने पूछा तो बोले तुम्हारी बेटी सुन्दर है, पढ़ी-लिखी है और क्या चाहिए हमें। बस अपने स्टेटस के अनुसार शादी कर देना।
मैं तो बहुत खुश हूँ। बिटिया भाग्यशाली है। बड़े घर में जा रही है, सुखी रहेगी। शादी की सब तैयारियाँ हो चुकी हैं। 15 नवम्बर में अब देरी ही क्या है? आप सभी आकर व्यवस्था दिखवा लेना।
‘हाँ-हाँ क्यों नहीं।' सभी ने एक स्वर में कहा।
अच्छा अब चलता हूँ, नमस्ते। मंगतराम ने कहा।
नमस्ते-नमस्ते........और फिर एक-एक करके सभी लोग अपने घरों को चले गये।
15 नवम्बर की शुभ घड़ी आ पहुँची। संध्या होते-होते बारात भी आ गई। बारात का ससम्मान स्वागत किया गया। लगभग नौ बजे बारात बैंड बाजों के साथ दरवाजे पर भी पहुँच गई। द्वाराचार भी सकुशल सम्पन्न हो गया। तभी लड़के के पिता शिवानन्द ने बेटी के पिता रामदयाल को जनमासे में बुलवाया। सूचना पाकर रामदयाल तुरन्त वहाँ पहुँचे तो शिवानन्द ने कहा, ‘आप अपनी बेटी की शादी कर रहे हैं या हमारा अपमान?'
‘‘समधी साहब, हम आपका अपमान क्यों करेंगे? आप तो हमारे पूजनीय हैं। हमसे कोई भूल हो गई है क्या?' रामदयाल ने पूछा।
शिवानन्द बोले, पहली भूल तो यह हुई है कि बारात को इस घटिया धर्मशाला में ठहराया है। दूसरी यह कि द्वारचार पर लड़के के लिए चार पहिए की गाड़ी नहीं दी है। रख दिया स्कूटर। मेरा बेटा स्कूटर पर जाएगा? आपने हमारे स्टेटस का भी खयाल नहीं रखा। जब तक आप चार पहिए की गाड़ी नहीं देंगे यह शादी नहीं होगी।'
समधी की बातें सुनकर रामदयाल के हाथों के तोते उड़ गए। आँखों के सामने अंधेरा छा गया। फिर थोड़ा संभलकर बोले, ‘समधी साहब आप यह क्या कह रहे हैं? आपने तो गाड़ी का कभी जिक्र तक नहीं किया। आपने तो सिर्फ इतना कहा था कि अपने स्टेटस के अनुसार शादी कर देना। मैं तो अपने स्टेटस से भी ज्यादा खर्च कर रहा हूँ।'
‘यदि तुम्हारा स्टेटस यही है तो यह शादी नहीं होगी। मैं बारात वापिस ले जाता हूँ।'
शिवानन्द ने फैसला सुना दिया।
‘नहीं-नहीं आप ऐसा मत कीजिए। आप मेरी पगड़ी की इज्जत मत उछालिए। आप पहले ही कह देते कि हमें कार चाहिए तो मैं आपके घर बेटी व्याहने की हिम्मत ही नहीं जुटाता। आप मेरी बेटी का ख्याल करिए। हँसी-खुशी शादी होने दीजिए समधी साहब.........और फिर सिर की पगड़ी शिवानन्द के पैरों में रख दी।
काफी समय बीत गया था। उधर सभी लोग जयमाला का इन्तजार कर रहे थे। दूल्हा भी प्रतीक्षारत था। धीरे-धीरे लोगों में कानाफूसी शुरु हो गई। उधर लड़के के पिता का पत्थर दिल नहीं पिघला। उसने दो रिश्तेदारों को भेजकर दूल्हे को भी बुलवा लिया।
घर में कोहराम मच गया। थोड़ी देर में ही पूरे शहर में बात फैल गई। सभी लोग बेटे वाले को कोस रहे थे। सहेली के द्वारा जब यह बात दुल्हिन के पास भी पहुँची तो वह सन्न रह गई। उमंगों से सराबोर दिल टूट गया। पलभर में उसके सुहाने सपने चूरचूर होने लगे। उसे भारी दुःख हुआ पर अगले ही पल उसने पिता को अपने पास बुलवाया। पिता से कहा, पिताजी आप किसी के तलवे मत चाटिए। अब मैं दहेज लोभी भेड़ियों के घर कदापि नहीं जाऊँगी। उनसे जाकर कह दो कि अपनी बारात वापिस ले जाऐं।'
‘नहीं बेटी ऐसा मत कह। हम उन्हें मना लेंगें।' पिता ने व्याकुल होकर कहा।
‘नहीं पिताजी आप खुशामद मत करिये। मैं नहीं जाऊँगी ऐसे परिवार में जो दहेज लोभी हो। आज कार मांग रहा है कल और किसी की मांग रख देगा, कब तक पूरा करोगे ऐसे लोगों की इच्छाओं को। मैं जानती हूँ आप नहीं कर पाओगे। तब मैं कैदी बन कर जिऊँगी या फिर मार दी जाऊँगी।' सुमन ने पिता को समझाते हुए कहा।
रामदयाल को समझ नहीं हुआ रहा है कि अब वह क्या करे? इसलिए वह फूट-फूट कर रो पड़ा।
हरदयाल और जुनेजा ने उसे सात्वना देते हुए कहा, तू चिन्ता मत कर रामदयाल, सब ठीक हो जाएगा। बातचीत चल रही है, बात बन भी सकती है। थोड़ी देर बाद सब लौट आए। बात नहीं बनीं। लड़के का पिता अपनी जिद पर अड़ा रहा। दूल्हा भी पिता को सहयोग दे रहा था। सभी निराश थे। सोच रहे थे अब क्या करें?
एक ने कहा, ‘कोई ऐसा लड़का तलाश करो जो दहेज का लालची न हो और आज ही शादी करने को तैयार हो जाए।'
पर ऐसा लड़का मिलेगा कहाँ? कौन करेगा ऐसी परिस्थिति में शादी? दूसरे ने कहा।
देखो भाई, रामदयाल कहें; तो मैं कर सकता हूँ ये शादी। इस समय मेरा बेटा छुटटी पर आया हुआ है। नौकरी भले ही छोटी है पर है सरकारी। पूछ लो रामदयाल जी से।' सत्यनारायण ने कहा।
रामदयाल बोले, ‘मैं तैयार हूँ, पर आपका लड़का तो अभी शादी ही नहीं करना चाहता था।'
‘इसकी चिन्ता आप न करें। कहो तो बेटे को तैयार करके लाऊँ?' सत्यनारायण ने स्वीकृति चाही।
रामदयाल ने कहा, ‘मैं तैयार हूँ पर बारात तो अभी यहीं पड़ी है।'
‘अरे बारात को अभी भगाते हैं हम सभी। तुम घर चलो और तैयारी करो। शादी की।' सभी लोगों ने एक स्वर में कहा।
इस निर्णय की भनक बारातियों को भी लग चुकी थी अतः लोगों ने दूल्हे के पिता को समझाया कि तुम पर किस बात की कमी है, खुद ले लेना गाड़ी। लड़की तो शिक्षित और सुन्दर मिल रही है। बिना दुल्हन के बारात लौट कर जाएगी इसमें आपकी ही बेइज्जती होगी। और फिर कार चाहिए थी तो पहले ही स्पष्ट कह देते। अब क्यों उड़ रहे हो? पासा पलटता देख शिवानन्द को भी अपनी गलती का अहसास हुआ। अतः वह शादी के लिए तैयार हो गया। उधर कुछ लोगों ने लड़के को भी समझाया तो वह भी तैयार हो गया।
बारात के दो लोग लड़की के पिता से जाकर मिले। उनसे बोले, ‘शादी यही होगी। आप चिन्ता न करें। जयमाला की तैयारी करें। लड़के को लेकर हम शीघ्र आ रहे हैं।'
इतना सुनते ही रामदयाल फिर दुविधा में पड़ गए। अब मैं क्या करुँ? सत्यनारायण भी अपने बेटे को लेकर आ रहे होंगे। मैं उन्हें क्या जबाब दूंगा? सुमन ने जब यह सुना तो उसने पिता की मुश्किल हल कर दी। पिता को पास बुलाकर कहा, ‘पिताजी आप इनसे कह दीजिए कि अब मैं शिवानन्द के बेटे से शादी नहीं करुँगी, भले ही जीवन भर कुँवारी बैठी रहूँ......। यह मेरा अन्तिम निर्णय है।'
बाराती यह सुनकर चुपचाप लौट गए और फिर पूरी बारात अपमान का घूँट भरकर बिना दुल्हिन के ही वापिस चली गई। चारों ओर इसी बारात की चर्चायें छिड़ी हुई थीं। लोग सुमन के निर्णय की सराहना कर रहे थे। लोग कह रहे थे कि दहेज लोभी भेड़ियों को ऐसा ही सबक मिलना चाहिए। बहुत अच्छा हुआ, बहुत... उधर सत्यनारायण अपने बेटे और पाँच परिवारीजनों को लेकर पहुँच चुके हैं। वरमाला लेकर दुल्हिन भी तैयार हो चुकी है। थोड़ी देर पहले जहाँ गमगीन महौल था वहीं अब पुनः खुशियाँ लौट आइर्ं हैं। हर कोई सत्यनारयण की प्रशंसा कर रहा है। जयमाल हाथ में लेकर सुमन के कदम भी अपने भावी जीवनसाथी का वरण करने चल पड़े हैं...........।
'''
‘चित्रनिकेतन' बी-45,
मोतीकुंज एक्सटेंशन मथुरा।
COMMENTS