कृष्‍ण गोपाल सिन्‍हा का व्यंग्य - घुटन, घुटना और घोटाला

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  कल घंटाघर से लौटकर घर पर बैठा ही था कि पहले से घिरती आ रही घटाएं और घनघोर होने लगी। अब बरसी कि तब बरसी। बैठा-बैठा याद करने लगा अपना बचपन।...

 

कल घंटाघर से लौटकर घर पर बैठा ही था कि पहले से घिरती आ रही घटाएं और घनघोर होने लगी। अब बरसी कि तब बरसी। बैठा-बैठा याद करने लगा अपना बचपन। याद आया बरसातू काका के छप्‍पर से टपकता पानी और पानी से बचने के लिए इधर से उधर खिसकती उनकी खटिया। बादल को शायद किसी का इंतजार था। इस बीच घनश्‍याम बाबू मेंरे यहां आ टपके। उनका टपकना था और बादलों का जमकर बरसना था।

मेंरे पड़ोस में दो-चार घर छोड़कर घनश्‍याम बाबू का पुश्‍तैनी निवास है। मेंरे लिए तो आज के दौर में भी वे एक बहुत अच्‍छे पड़ोसी है। सुख-दुःख, हाढ़े-गाढ़े, वक्‍त-बेवक्‍त हम दोनों एक-दूसरे के साथ होते हैं तो मुहल्‍लेवालों को बड़ा अटपटा लगता है। मोहल्‍लेवाले कितने अक्‍लमंद हैं जो अच्‍छी तरह समझते हैं कि आज के जमाने में अपना सगा या रिश्‍तेदार भी एक दूसरे का ऐसा साथ नहीं देते।

खैर, हमारी इस साथ की बुनियाद कोई तीस साल पुरानी है। तीस साल का अरसा कम नहीं होता। दूसरी पीढ़ी पल-बढ़ कर, पढ़-लिखकर बेरोजगार नौजवान का रूतबा हासिल कर लेती है और अपनी जन्‍म कुंडली के अनुसार मंगली नहीं हुई और समय से सब कुछ समान्‍य रहा तो आंगन में तीसरी पीढ़ी की किलकारियॉ सुनाई देने की पूरी गारंटी ली जा सकती है।

मेरा और घनश्‍याम बाबू का रिश्‍ता पड़ोसी और दोस्‍ती दोनों का ही है। अपने इसी दोस्‍ती के बूते पर (कीमत पर नहीं) उनका चरित्र-चित्रण करना अपना हक मानता हूँ। आप तो बस इतना समझ लें कि मेरे मित्र बहुत ही समझदार और भले-बुरे की पहचान करने में माहिर हैं। वे वक्‍त की नजाकत को नजरअंदाज होने से पहले ही अपनी आंखों से जकड़ लेने में उस्‍ताद और बिना किसी कागज, कैलकुलेटर और कम्‍प्‍यूटर के ही नफा-नुकसान का बैलेंसशीट तैयार करने में निपुण भी हैं। वैसे और भी कई अच्‍छाईयॉ उनमें हैं, पर मुझे ये जगजाहिर करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं है कि घनश्‍याम बाबू अव्‍वल दर्जे के घाघ किस्‍म के इनसान है। मेरी जानकारी के अनुसार उनके इन गुणों के बारे में मेंरे सिवा कोई नहीं जानता, चाहे वे घर के लोग हो या घरवाली, पड़ोस हों या रिश्‍तेदार, मातहत हों या अफसर।

डरता हूँ कि कहीं आप मेरे कथन को लालू-चालीसा की तरह घनश्‍याम-चालीसा समझने की भूल कर बैठें। चलिए, छोड़िये, बात कर रहा था अपने मित्र की। हम दोनों घनघोर बारिस को घूर रहे थे। अपने घूरने की क्रिया में बिना व्‍यवधान डाले मैंने कहा-‘घनश्‍याम बाबू, मानसून के देर से ही सही आने से कितनी राहत महसूस हो रही है।'

घनश्‍याम बाबू मुसकराये, बोले, ‘समय से अब होता ही क्‍या है। अब तो समय से पहले ही, समय के बाद ही कुछ घटता है। रही राहत की बात तो अब दिल से दिल को राहत कहां मिलती है। अब तो बाढ़ से, सूखे से, भूकंप से राहत मिलती है, किसे मिलती है यह बात और है।'' मैंने सर हिला कर सहमति व्‍यक्‍त करते हुए कहा, ‘मेरा आशय गरमी से, तपन से, घुटन से राहत को लेकर है।'

घनश्‍याम बाबू ने एक लंबी सांस ली, कहने लगे-‘बंधु, गरमी, जाड़ा, बरसात तो कुदरत का खेल है, पर इस कुदरत के खेल पर भी लोग सट्‌टे खेलते हैं। सुना है, नाली चलेगी या नहीं चलेगी, इसपर भी लाखों के वारे-न्‍यारे हो जाते हैं। आप जिस घुटन की बात कर रहे हैं उसकी पूछिए मत। पहले तो घुट-घुट कर उन्‍हें आहें भरनी पड़ती थी जो किसी के प्‍यार-मुहब्‍बत में मुब्‍तिला होकर रूसवाई में जीते-मरते थे, पर आज घुटन ही घुटन है घर में, दफ्‌तर में, सफर में, बिजनेस में, पॉलिटिक्‍स में ।'

मेरे मुंह से पॉलिटिक्‍स में.... ही निकल पाया था कि लगा वे मुझे दबोच लेंगे। कहने लगे- ‘टिकट कटे तो घुटन, हारे तो घुटन, सरकार में हिस्‍सेदार हो तो घुटन, बोले तो घुटन, चुप रहे तो घुटन, गोया इतनी घुटन तो सारी कायनात में भी नहीं होगी। सरकार में रहते किसी घोटाले में नाम आये तो घुटन, न आये तो बीबी-बच्‍चों के तानों की घुटन, ये तो उनसे पूछो जिन पर बीतती है। आप ही बतायें कि जनादेश न मिलने पर भी, सरकार बनाने के लिए समर्थन देने की मजबूरी हो या फिर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में मतदाताओें द्वारा सर-माथे पर बिठाये जाने के बावजूद नंबर गेम में फिसड्‌डी रह जाने की बेचारगी हो, क्‍या कम घुटन होती होगी।'

कैसी विडंबना है कि हार कर भी घुटना टेके और जीत कर भी घुटना टेके। सरकार बनाने की कतई गुंजाइश नहीं, फिर भी हालात ऐसे पैदा कर दिये जाएं कि बनाना ही पड़े और कभी-कभी तो बनने वाली सरकार भी आने से पहले ही प्रस्‍थान की तैयारी कर ले तो इसे क्‍या आप करे-कराये पर पानी फिर जाने से होने वाली घुटन नहीं कहेंगे।

घनश्‍याम बाबू के घुटन भरे स्‍वर ने मुझे खामोश रहने को मजबूर कर दिया। उन्‍होंने मेरी ओर देखा और खामोशी ने उन्‍हें अपनी बात जारी रखने के लिए प्रेरित किया। बोले-‘मित्र, मेरी बातों को गंभीरता से लेने के लिए यदि आप तैयार हैं तो यह समझ लें कि घुटन बढ़ने के भी ठोस कारण हैं। समझने की बात यह है कि घटनाओं-दुर्घटनाओं में प्रतिशत की दर से बढ़ोत्‍तरी नहीं, बल्‍कि यह कई गुना बढ़ी गई है।'

मुझे लगा कि मै किसी घनचक्‍कर से कम नहीं हूँ। घनश्‍याम बाबू की बातें मेंरे सर से दो-चार बालिश्‍त ऊपर निकल रही थी। घबराकर पूछ बैठा- ‘आप कैसी घटनाओं की बात कर रहे है?'

संभवतः बहुत देर से उन्‍हें मेंरे इसी प्रश्‍न की प्रतीक्षा थी। प्रश्‍न के बाद में ठीक तरह से सांस भी नहीं ले पाया था कि घनश्‍याम बाबू फिर शुरू हो गये, ‘‘अरे भाई घटनाओं, दुर्घटनाओं के घटने (कम होने) का सवाल ही नहीं उठता। हमोर बहुजातीय, बहुदलीय, बहुभाषीय समाज में भांति-भांति की सोच और धंधेवाले लोग रहते हैं। भारत एक विकासशील समाज है, देश है, जनसंख्‍या है, बाजार है, सड़कें हैं, रेल है, मोटरगाड़ी हैं, सैकड़ों साल पुराने पुल हैं। कभी-कभार कुछ एक अच्‍छाईयां घट भी जाती है तो बार-बार बुरा ही घटता और जो अच्‍छे या बुरे हैं वे उस घटनास्‍थल पर जाकर अक्‍सर घड़ियाली आंसू बहाने से बाज नहीं आते।'

घनश्‍याम बाबू की साफगोई का तो में पहले से ही कायल रहा हूँ। आज उस पर कुछ और परतों को थोड़ी और मोटी करने की गरज से मैंने कहा, ‘कितने अफसोस की बात है कि जिन लोगों को असलियत का पता होना चाहिए वे आंखे मूंदे पड़े हैं।'

मित्र ने मेरी अज्ञानता दूर करने का प्रयास किया- ‘भाई साहब, आप भी कमाल की बात करते हैं। आंखे बंद करने से कही घपलों और घोटालों की घटनाओं का न घटना क्‍या आपके बस में होगा। आप क्‍या सोचते हैं, हमारे देश में घोटालों पर घोटाला, एक के बाद दूसरा, एक से बड़ा दूसरा, क्‍या किसी ऐसे-गैरे के बस की बात है। खैर, आप को कुछ लगे या न लगे मुझे तो साफ लगने लगा है कि झूठ, फरेब, धोखा, खुदगर्ज़ी हम लोगों की घुट्‌टी में पिला दिया गया है और इसमें भी लगता है कि आई0एस0आई0 वालों का हाथ हो सकता है। वरना, बुरी बातों की कोई तो हद होती। लोग समझते हैं कि बड़े देश में घोटाले भी तो बड़े होने चाहिए। आखिरकार, घोटाले बड़े नहीं होंगे तो घोटाला करने वालों का कद कैसे बड़ा होगा। वैसे इन घोटालों ने चाय की चीनी से लेकर पशुओं का चारा, गाड़ी के इंजन से लेकर देश की सुरक्षा, शेयर से लेकर दूरसंचार, बारहमासी आलू से लेकर मौसमी प्‍याज तक को अपनी गिरफ्‌त में ले रखा है। बचा है तो बस आदमी और उसके नसीब में तो न आम है न आलू।'

आम की बात से आम्रपाली को छोड़कर दशहरी, लंगड़ा, बंबइया, चौसा, फजली, कलमी, देसी आम के स्‍वाद याद आने लगे। वैसे आम आदमी से मुझे मेरा घुटना भी याद आ रहा था। आप भी याद करिए, बच्‍चे पहले घुटने के बल चलते थे, पर अब डायरेक्‍ट वे पइयां-पइयां चलने लगते हैं। इसलिए तो घुटने में अब वह दम नहीं रहा जो पहले होता था।

मेरी ये बातें शायद घनश्‍याम बाबू को अच्‍छी लग रही था मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर वे कहने लगे, ‘भई उन घुटनों के बारे में भी तो सोचो जो लाचारियों और मजबूरियों में केवल टेके जाने के काम आते हैं। रही बात दो-चार बिरले और मजबूत घुटनों की तो वे लाखों कमजोरियों के होते भी टेके जाने को तैयार नहीं होते। मित्र, मैंने आज तक कभी किसी के सामने घुटने नहीं टेके। मेंरे घुटनों में न कोई दर्द है न कोई परेशानी। में चाहता हूँ कि मेंरे घुटनों की तरह देश के सारे घुटने इस काबिल हों कि वे बिना किसी कमज़ोरी से समझौता किये अपनी चाल को और अधिक गति दें।'

इतना कहकर घनश्‍याम बाबू बड़ी फुर्ती से खड़े हो गये- ‘बरसात रूक गयी है, अब मुझे चलने की अनुमति दीजिए वरना अगर बारिश फिर होने लगी तो निकलना मुश्‍किल हो जायेगा।'

मै मित्र को वैसे भी मुश्‍किल में नहीं डालना चाहता था। मेरी सहमति से घनश्‍याम बाबू ने प्रस्‍थान किया और मैं बैठकर घुटन, घुटना और घोटाले के बारे में घनश्‍याम बाबू की बातों पर गहरायी से मनन करने लगा।

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‘‘अवध प्रभा'' 61, मयूर रेजीडेन्‍सी, फरीदी नगर,लखनऊ-226016.

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रचनाकार: कृष्‍ण गोपाल सिन्‍हा का व्यंग्य - घुटन, घुटना और घोटाला
कृष्‍ण गोपाल सिन्‍हा का व्यंग्य - घुटन, घुटना और घोटाला
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