कहानी संग्रह आदमखोर (दहेज विषयक कहानियाँ) संपादक डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’ संस्करण : 2011 मूल्य : 150 प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन विवेक व...
कहानी संग्रह
आदमखोर
(दहेज विषयक कहानियाँ)
संपादक
डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’
संस्करण : 2011
मूल्य : 150
प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन
विवेक विहार,
शाहदरा दिल्ली-32
शब्द संयोजन : सागर कम्प्यूटर्स, मथुरा
----
दहेज
श्रीमती राज चतुर्वेदी
रविवार की अलसाई-सुबह वह देर से सोकर उठी। वैसे भी कामकाजी महिलाओं का शनिवार से ही यह प्लान बनने लगता है - चलो भई कल तो इतवार है, देर से सोकर उठेंगे.........पूर्व में ही एक राहत का अहसास होने लगता है। रविवार के कार्यक्रम में सवेरे देर से सोकर उठने का अहसास सदैव शीर्ष स्थान पर रहता है। कारण रोजमर्रा, की भागती दौड़ती जिन्दगी में रविवार की सुबह की सुखद शैया जितनी ङ्क्तसन्नता का अहसास दिलाती है उसकी तुलना केवल देवता के ङ्क्तसाद से ही की जा सकती है। इसी सुखद अहसास के वशीभूत मैं भी देर से सोकर उठ पाई। एक प्याली चाय बनाकर आराम से बालकनी में जा बैठी। तभी देखा, मेरी बाई दौड़ती-भागती, जल्दी-जल्दी कदम उठाते हुए चली आ रही है। उसे इतनी जल्दी-जल्दी घर की तरफ आते हुए देखकर स्वभावतः मुझे आश्चर्य-मिश्रित ङ्क्तसन्नता हुई क्योंकि छुट्टी के दिन या तो वो काम पर आती ही नहीं है और अगर आती भी है तो दोपहर की दहलीज पर ठीक ग्यारह, साढ़े ग्यारह बजे। जानती हैं मैडम जी को तो घर पर ही रहना है। परन्तु आज उसने बरसों का रिकार्ड तोड़ दिया-उसने अल्सुबह आने की जहमत कैसे उठाली? पर उसे देखकर मैंने एक राहत की साँस ली। मैंने सोचा चलो अच्छा हुआ-सप्ताह की शुरुआत अच्छी हुई। असल में कुछ इस तरह की धारणा मेरे मन में बहुत पहले से समा गई है कि यदि सप्ताह का ङ्क्तारम्भ अच्छा गुजरता है तो पूरा सप्ताह ही अच्छा बीतता है......चलो मन को सुकून मिला। मैंने उसके घन्टी बजाने से पूर्व ही उसके स्वागत में दरवाजा खोल दिया। उसने आते ही बगैर कुछ भूमिका बांधे हॉफते हुए, भर्राये गले से कहना आरम्भ किया-मैडम जी, गजब हो गया, गौतम साहब के बेटे की बहू कल रात खाना बनाते हुए जल गई और रात को ही अस्पताल पहुँचने के दो घन्टे बाद ही खत्म हो गई।’’
मैं एकदम अवाक् रह गई......अन्दर तक हिल गई, कुछ वाक्य समझ ही नहीं आया, और जब सामान्य हुई तो विश्वास ही नहीं आया। आता भी कैसे अभी एक माह पूर्व ही मैं उनके बेटे निखिल के रिसेप्शन में गई थी.........दुल्हन बहुत सुन्दर, मासूम लग रही थी। मै तो उसे देखती की देखती रह गई, .......इतना सारा सौंदर्य.........लगा विधाता ने स्वयं उसे बैठकर रचपच कर गढ़ा है। मैंने तो श्री गौतम जी व श्रीमती गौतम जी से कह भी दिया था-अरे आप इतनी सुन्दर बहू कहाँ से ढूँढकर लाये? पर उनके चेहरे पर कोई ङ्क्तसन्नता के भाव नहीं आये। गौतम साहब की बहिन अवश्य बोल उठी, मानो वह इसी अवसर की तलाश में थी जरातुनक भरे अन्दाज में वे बोली - ‘‘बस गोरी चमड़ी ही चमड़ी है, बाकी तो सब खाली ही खाली है।’’
उनकी वृद्धावस्था को देखते हुए मैंने उनकी बात को नजर-अन्दाज कर दिया। पर उनकी बातों का अर्थ मेरी समझ में आ रहा है.......ये कहीं दहेज का मामला तो नहीं है। फिर बाई के वाक्य भी तो इसी आशंका की ओर इंगित कर रहे थे......बाई फिर बोली’’ मैडम जी वहाँ लोग अजीब-अजीब सी बातें कर रहे थे, बेचारी बहू को इन लोगों ने ही मिलकर जला दिया। ‘‘बाई ने ही बताया कि उसने उसके घर के सामने पुलिस भी खड़ी देखी थी।
गौतम जी के परिवार से हमारी दूर की रिश्तेदारी थी........हम लोग वैसे भी एक ही कॉलोनी में रहते थे। उनके सुख-दुख शोक में सहभागी बनने का दस्तूर तो निभाना ही था।
मेरे पति इन दिनों टूर पर गए हुए थे, सो मैंने अकेली ही उनके घर जाने का मानस बना लिया। वहाँ पहुँचकर जिस दारुण करुणदृश्य की मैने परिकल्पना की थी उससे भी अधिक हृदयद्रावक दृश्य था। बहू की माँ चीख-चीखकर विलाप कर रही थी - मेरी इकलौती बेटी मुझे वापिस कर दो.........वह जीना चाहती थी......तुम लोगों ने उस निर्दोष को मार डाला। उधर उसके भाई और पिता भी बहुत परेशान थे। वे पुलिस वालों से बार-बार कह रहे थे.......तुमने हमारी बेटी को शमशान क्यों ले जाने दिया...........हम देख तो लेते अपनी बिटिया को आखिरी बार .......हे भगवान कैसे हमारी फूल सी बच्ची ने जलन की पीड़ा सही होगी........उनका बहुत ही मार्मिक क्रन्दन था। पर गौतम जी व उनका परिवार उन दुखियों पर बुरी तरह बरस बरस पड़ रहा था। अब तक वो अपना शालीनता का नकाब उतार चुके थे और जोर-जोर से दहाड़ रहे थे - ‘‘क्या हम हत्यारे हैं.......... हमारा बेटा तो बराबर आपकी बेटी के पूरे नाज नखरे उठा रहा था.........हनीमून मनाने के लिए उसे गोवा ले गया था......’’
जब बहू के पिता ने भर्राये गले, डबडबाई आँखों से कहा- ‘‘जानता हूँ सब जानता हूँ, उसने इसके लिए भी मुझसे 20000/- रुपये मांगे थे और मैने अपनी बेटी की खुशी की खातिर उसकी मजबूरी ध्यान में रखकर उसे
दे दिये थे फिर ही हतभाग्य को आप लोगों ने जीने नहीं दिया दुनिया से विदा कर दिया....।
मैं आगे कुछ न सुन सकी और सुनने-जानने को बचा भी क्या था- सारा वाकया बेनकाब जो हो चुका था। ये सब सुनकर मुझे उल्टी, चक्कर सा आने लगा था। सांत्वना के दो शब्द कहे बगैर ही, मैं वहाँ से नीची गर्दन किए चुपचाप लौट आई। मेरी कुर्सी अभी भी बाल्कनी में मेरी ङ्क्ततीक्षा कर रही थी, बड़े भारी मन से मैं कुर्सी पे धम्म से धँस गई, कुछ भी सोचने समझने की मेरी शक्ति समाप्त हो चुकी थी।
तभी बाई आ गई, मुझे इस हाल में देखते हुए बोली-‘‘मैडम जी आपको एक कप गरम अदरख वाली चाय बना लाऊँ? मैं मना नहीं कर सकी, बस सर हिला भर दी पर विचारों की आँधी मेरे मन मस्तिष्क को बुरी तरह झकझोर रही थी........आखिर ऐसा क्यों हुआ? उनकी बहू ङ्क्ततिभा पढ़ी-लिखी लड़की थी। काफी सारी डिग्रियां थीं उसके पास......क्यों इतनी पीड़ा सहती रही.........विद्रोह भी कर सकती थी वो। क्यों वह वापिस पिता के घर नहीं जा सकती थी? वो समय अब बीत गया जब, बेटी को केवल उस अगरबत्ती के मानद बताते थे, जिसकी सुगन्ध केवल पति के घर अर्थात् ससुराल के लिए ही होती थी.....अपने पैरों पर वह खड़ी हो सकती थी, आखिर वह सुशिक्षित युवती थी। आधुनिक युग की नारी होते हुए भी क्यों उसने दूसरों को अपने ऊपर हावी होने दिया?......
.....ङ्क्तश्न दर ङ्क्तश्न मेरे मस्तिष्क को बराबर कौंध रहे थे। क्या उत्तर है इन सारे ङ्क्तश्नों, शंकाओं के? बहुत खोजने और माथा-पच्ची करने पर एक ही उत्तर मिला-हमारे समाज की गलत मान्यताएँ, परम्पराएँ आज भी नहीं बदली हैं, नारी आज भी उन झूठी मर्यादाओं, लक्ष्मण-रेखाओं से आबद्ध है।......पर इन जकड़न से उसे कौन निकालेगा? उसे, स्वयं को ही, इन झूठी बेड़ियों को काटना होगा.........स्वयं सिद्धा बनकर..........बाहर से उसे सहारा देने कोई नहीं आयेगा। अपने अन्दर के स्वाभिमान को जागृत करना होगा.......साहस का सम्बल ले कुण्ठाओं से बाहर निकलना होगा अन्यथा फिर वही त्रसदी का भयावह परिदृष्य.........कभी अनचाहे भोग्या बनकर और कभी अपमानित होकर-अकाल अग्नि-समाधि लेकर.......। ’’’
---
23, चन्द्रपथ, सूरजनगर पश्चिम,
जयपुर - 6
--------------------.
COMMENTS