नये पुराने - मार्च 2011 - 10 : बुद्धिनाथ मिश्र - संचयन 1

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  जाल फेंक रे मछेरे! एक बार और जाल फेंक रे मछेरे! जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो! सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है हर दर्पण में उभरा...


 

जाल फेंक रे मछेरे!

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो!

सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है

हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है।

रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे

इस अंधेर में कैसे नेह का निबाह हो!

उनका मन आज हो गया पुरइन पात है

भिंगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है। ......

 

नये पुराने

(अनियतकालीन, अव्‍यवसायिक, काव्‍य संचयन)

मार्च, 2011

बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता

पर आधारित अंक

कार्यकारी संपादक

अवनीश सिंह चौहान

संपादक

दिनेश सिंह

संपादकीय संपर्क

ग्राम व पोस्‍ट- चन्‍दपुरा (निहाल सिंह)

जनपद- इटावा (उ.प्र.)- 206127

ई-मेल ः abnishsinghchauhan@gmail.com

सहयोग

ब्रह्मदत्त मिश्र, कौशलेन्‍द्र,

आनन्‍द कुमार ‘गौरव', योगेन्‍द्र वर्मा ‘व्‍योम'

---

संचयन

जाल फेंक रे मछेरे!

बुद्धिनाथ मिश्र

जाल फेंक रे मछेरे!

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो!

सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है

हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है।

रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे

इस अंधेर में कैसे नेह का निबाह हो!

उनका मन आज हो गया पुरइन पात है

भिंगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है।

चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे

ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो!

गूँजती गुफाओं में पिछली सौगंध है

हर चारे में कोई चुम्बकीय गंध है।

कैसे दे हंस झील के अनन्त फेरे

पग-पग पर लहरें जब बाँध रही छाँह हों।

कुंकुम-सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है

बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है।

यों ही न तोड़ अभी बीन रे संपेरे!

जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!

 

मुमकिन है

लिख गयी पूरी सदी

पागल हवा के नाम

राख में चिनगी

दफन हो जाय

मुमकिन है।

एक पहिया घूम

आया त्रासदी के पास

इस खुशी में बेतरह

रौंदे गये मधुमास।

जंग खाये स्तोत्र

फिर गूँजे सुबह से शाम

सिर बँधी पगड़ी

कफन हो जाय

मुमकिन है।

सख्त हैं सच की तरह

होते नहीं दोहरे

आइनों से हैं बहुत नाराज

कुछ चेहरे।

भीड़ की जागीर है

जंगल उठाओ जाम

आग बस्ती में

सपन हो जाय

मुमकिन है।

हर कलम की पीठ पर

उभरी हुई साटें

पूछती-हयमेध का

यह दिन कहाँ काटें।

मंत्र-जो जयघोष में पिछड़े

हुए गुमनाम

यह हँसी चिढ़कर

घुटन हो जाय

मुमकिन है।

 

जिजीविषा

नदी रुकती नहीं है

लाख चाहे सेतु की कड़ियाँ पिन्हा दो

ओढ़ कर शैवाल वह चलती रहेगी।

धूप की हल्की छुअन भी

तोड़ देने को बहुत है

लहरियों का हिमाच्छादित मौन

सोन की बालू नहीं

यह शुद्ध जल है

तलहथी पर

रोकने वाला इसे है कौन?

हवा मरती नहीं है

लाख चाहे तुम उसे तोड़ो-मरोड़ो

खुशबुओं के साथ वह बहती रहेगी।

आँधियों का आचरण

या घना कोहरा जलजला का

काटता कब हरेपन का शीश?

खेत, बेहड़ या कि आँगन

जहाँ होगी उगी तुलसी

सिर्फ देगी मुक्तकर आशीष।

शिखा मिटती नहीं है

लाख अंधे पंख से इसको बुझाओ

आँचलों की ओट वह जलती रहेगी।

 

इन्द्रधनु कँपने लगा

एक प्रतिमा के क्षणिक संसर्ग से

आज मेरा मन स्वयं देवल बना।

मैं अचानक रंक से राजा हुआ

छत्र-चामर जब कोई आँचल बना।

मैं अजानी प्यास मरुथल की लिये

हाँफता पहुँचा नदी के द्वार पर

रक्तचंदन की छुअन अंकित हुई

तलहथी की छाप-सी दीवार पर।

तुम बनी मेरे अधर की बाँसुरी

मैं तुम्हारे नैन का काजल बना।

यह तुम्हारा रूप-जिसकी आब से

घाटियों में फूल बिजली के खिले

इन्द्रधनु कँपने लगा कन्दील-सा

जब कभी ये होठ सावन के हिले।

खिलखिलाहट-सी लिपट एकान्त में

चाँदनी देती मुझे पागल बना।

तुम मिले जबसे, नशीले दिन हुए

नीड़ में खग-से सपन रहने लगे

मैं तुम्हें देखा किया अपलक-नयन

देवता मुझको सभी कहने लगे।

जब कभी मैं धूप में जलने लगा

कोई साया प्यार का, बादल बना।

मैं अचानक रंक से राजा हुआ

छत्र-चामर जब कोई आँचल बना।

 

मारिशस

वे हमारे ही पिता तो थे।

जो गये थे सात सागर पार

सभ्यता की ईख बोने

आचरण की भीख देने

औ बहाने एक सुरसरि-धार

वे हमारे ही पिता तो थे।

परकटे थे वे

अहेरी के छलावे में-

बिक गये थे, चंद सपनों के

भुलावे में

बन गये थे बाज के आहार

वे हमारे ही पिता तो थे।

तोड़कर जब से गये थे

वे सुनहरी पाँख

फिर कभी बोली न

माँ की डबडबायी आँख

लख न पाया जिन्हें नन्हा प्यार

वे हमारे ही पिता तो थे।

लाख वे रौंदे गये

फिर भी जले प्रतिपल

तन बिका था

किन्तु मन था शुद्ध गंगाजल

रच दिखाया इक नया संसार

वे हमारे ही पिता तो थे।

 

यह तपन हमने सही सौ बार!

चिलचिलाहट धूप की

पछवा हवा की मार

यह तपन हमने सही सौ बार।

सूर्य खुद अन्याय पर

होता उतारू जब

चाँद तक से आग की लपटें

निकल पड़तीं।

चिनगियों का डर

समूचे गाँव को डँसता

खौलते जल में

बिचारी मछलियाँ मरतीं।

हर तरफ है साँप-बिच्छू के

जहर का ज्वार

यह जलन हमने सही सौ बार।

मुंह धरे अंडे खड़ी हैं

चीटियाँ गुमसुम

एक टुकड़ा मेघ का

दिखता किसी कोने!

आज जबसे हुई

दुबरायी नदी की मौत

क्यों अचानक फूटकर

धरती लगी रोने?

दागती जलती तवे-सी

पीठ को दीवार

यह छुअन हमने सही सौ बार।

तलहटी के गर्भ में है

वरुण का जीवाश्म

इन्द्र की आत्मा स्वयं

बन गयी दावानल

गुहाचित्रों-सा नगर का

रंग धुँधला है

गंध मेंहदी की पसारे

नींद का अँाचल।

चौधरी का हुआ

बरगद-छाँह पर अधिकार

यह घुटन हमने सही सौ बार।

 

बबूल वन

रोपें हम क्यों बबूल वन

आंगन में।

काँटों की क्यों सहें चुभन?

आँगन में।

इच्छा अपनी असीम है

छोटे, पर, हाथ-पाँव हैं

एक खुशगवार जिन्दगी

जीने को कहाँ ठाँव है?

क्यों चेहरे पर उगे शिकन?

आँगन में।

बारहसींघे की सींगें

उलझा-उलझा कर मारें

पीछा उस पार तक करें

मन की अनसुनी पुकारें।

कौन पिये उम्र भर घुटन?

आंगन में।

नीम गाछ उतरा सारस

राग-विद्ध पंख समेटे

संन्यासी रवि सिवान पर

संध्या को चीवर भेंटे।

बाँधेंगे क्यों भरे नयन?

आँगन में।

रोपें हम क्यों बबूल वन

आँगन में।

 

विजय के फूल

हम विजय के फूल हैं

चुपचाप धरती को

समर्पित हो लिया करते।

हम कभी उत्सव न

तोरणद्वार बनते हैं

तोड़ सन्नाटा

महज कुछ

मंत्र गुनते हैं।

हम नदी के कूल हैं

रहकर अबोले

घाव अन्तर के

लहर से धो लिया करते।

धूप-वर्षा जो हमें

आकाश देता है

सह उसे चुपचाप

वन सिर झुका लेता है

हम सड़क की धूल हैं

रहकर अजाने

सूर्य के रथचक्र को

बस, ढो लिया करते।

हम विजय के फूल हैं

चुपचाप धरती को

समर्पित हो लिया करते।

 

एक किरन भोर की

एक किरन भोर की

उतरायी आँगने

रखना इसको संभालकर

लाया हूँ माँग इसे

सूरज के गाँव से

अँधियारे का खयाल कर।

अंगीठी ताप-ताप

रात की मनौती की

दिन पूजे धूप सेंक-सेंक

लिपटाकर बचपन को

खांसते बुढ़ापे में

रख ली है पुरखों की टेक।

जलपाखी आस का

बहुराया ताल में

खुश है लहरें उछालकर

सोना बरसेगा

जब धूप बन खिलेगा मन

गेंदे की हरी डाल पर।

सरसों के खेतों में

तितलियाँ उड़ाते-से

डहडहे पहर चले गए

दुख है बस इतना

हर मौसम के हाथों

हम बार-बार क्यों छले गये!

गुनगनी उसाँस को

देहरी से बाँधूँ या

बाँट दूँ इसे निकालकर?

भला नहीं लगता

यह सर्द-सर्द सम्बोधन

सेज के नये पुआल पर।

 

आर्द्रा

घर की मकड़ी कोने दुबकी

वर्षा होगी क्या?

बायीं आँख दिशा की फड़की

वर्षा होगी क्या?

सुन्नर बाभिन बंजर जोते

इन्नर राजा हो!

आँगन-आँगन छौना लोटे

इन्नर राजा हो!

कितनी बार भगत गुहराये

देवी का चौरा?

भरी जवानी जरई सूखे

इन्नर राजा हो!

आगे नहीं खिसकता सूरज के

रथ का पहिया

भुइँलोटन पुरवैया सिहकी

वर्षा होगी क्या?

छाती फटी कुआँ-पोखर की

धरती पड़ी दरार

एक पपीहा तीतरपाखी घन को

रहा पुकार

चील उड़े डैने फैलाये

जलते अम्बर में

सहमे-सहमे बाग-बगीचे

सहमे-से घर द्वार।

लाज तुम्हीें रखना पियरी की

हे गंगा मइया!

रेत नहा गौरैया चहकी

वर्षा होगी क्या?

 

बागमती

अबकी फिर बागमती

घर-आँगन धो गयी।

बेजुबान झोपड़ियाँ

बौराये नाले

बरगद के तलवों में

और पड़े छाले।

अँखुआये कुठलों में

मडुआ के दाने

कमला को भेंट हुए

ताल के मखाने।

बालो पंडितजी की मड़ई

डुबो गयी

अबकी फिर बागमती

घर-आँगन धो गयी।

छप्पर पर रेंग चुके

कछुओं के बेटे

बीच धार बही खाट

सुजनी समेटे।

पाेँक में सनी गैया

ऊँघती ओसारे

चूल्हे में बैठ

नाग केंचुली उतारे।

दुखनी की आँखों की कोर

फिर भिगो गयी

अबकी फिर बागमती

घर-आँगन धो गयी।

 

पारदर्शी रूप

अनजाने ही तेरी छवि

प्राणों में है इस तरह समायी

जब-जब चित्र बनाऊं अपना

तेरा रूप उभर आता है।

सीख रहा मैं फिर चिर-विस्मृत

पाषाणी गह्वर की भाषा

विफल हुए संकेत पुरातन

सुलगी नव मुद्रा की आशा।

पीड़ाहीन मुक्ति क्या होगी?

ममतामय बंधन की प्यासें

मुझसे कहतीं-आ बन्दी,

प्रस्तर में नव भावना तराशें।

बहते जब वन में बिन रोके

सहसा परिवर्तन के झोंके

कोई फूल बिखर जाता है

कोई फूल सँवर जाता है।

मिटीं लकींरे विष-अमरित की

लिपटा जिस दिन चंदन-तरु से

ढेरों फूल खिले सपनों के

ढेरों शंख दूब पर हरसे।

गीत हुए बोझिल भावों से

भींगी तुहिन-कणों से पांखें

इस जीवन-यात्रा का सम्बल

तेरी ये खंजन-सी आँखें।

तू मेरे हारिल की लकड़ी,

तू मेरी हर साँस उमर की

तेरी छाँह सुनहरी पाकर

मेरा रंग निखर जाता है।

 

सांध्यदीप

मैं दीप जलाऊँ प्राण! तुम्हारी राहों में

तुम मावस की इस रात

सुबह बनकर आना।

तुम जब-जब जाते दूर

तुम्हारी यादों में

खोयी देहरी बरसों

गुमुसुम बैठी रहती।

तुम अँजुरी में भर जिन्हें

प्यार करते थे, उन

गाालों पर काजल की

जमुना बहती रहती।

तुम किसी सुहागिन के

माथे की बिंदिया हो

यह बात तुम्हें सौगन्ध

कभी ना बिसराना।

तुम बिन सूना-सूना लगता

सारा जीवन

रीता-रीता लगता है

मन का ताजमहल।

मछली तड़पे जैसे

कछार की रेती पर

मैं तड़पूँ सूनी सेज पिया!

करवटें बदल।

ये गलियाँ, ये चौबारे तुमको

याद करें

तुम नरम धूप बनकर

इनको सहला जाना।

तुम आओ, तो

गजरे-सी गले लिपट जाऊँ

बंदनवारों-सी खड़ी रहूँ

अगवानी में।

रात का चाँद क्या जाने

कुम्हलाती कैसे

नलिनी दिन में

जब आग लगी हो पानी में।

पत्थर की एक अहल्या को

जीवन देने

भूले-भटके हे राम!

कभी तुम आ जाना।

 

तुम्हारी याद

नदिया के पार जब दिया टिमटिमाए

अपनी कसम,

मुझे तुम्हारी याद आए।

जब कोई चाँद, कोई फूल मुस्कुराए

अपनी कसम

मुझे तुम्हारी याद आए।

प्यासा हिरन मेरा मन आज तरसे

पानी को पानी न पाय

माटी भी सोना बने जिसके परसे

ऐसी जवानी न पाय

तुममें घुला ऐसे मैं जैसे आँसू

मुस्कान में घुल जाय

बारी उमरिया की धानी चुनरिया-सी

निंदिया मेरी उड़ जाय।

जब कोई अँचरा से दियना बुझाए

अपनी कसम

मुझे तुम्हारी याद आए।

चंदन की वीणा-सी देह यह तुम्हारी

अंग-अंग बजती सौगंध

किसने गढ़ी है ये सोने की मूरत

किसने रचा यह प्रबन्ध

ओ मेरी अँधियारी रातों के सपने!

आओ बंधें एक छन्द

होठों से जोड़ें हम पिछले जनम के

टूटे हुए अनुबंध।

जब मेरी विनती मूरत ठुकराए

अपनी कसम,

मुझे तुम्हारी याद आए।

छूटा है संग जो पान-लता का

मुरझा गझिन कचनार

आँखें बचाके बहुत मन रोया

जब भी पड़ा त्योहार

बीती हुई मोरपंखों की शामें

तुमको रही हैं पुकार

रह-रहके मेरा दहिन अंग फड़के

रह-रह उमड़ आए प्यार।

जब सभी अपने हैं लगते पराये

अपनी कसम

मुझे तुम्हारी याद आए।

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. कृपया एक एक कर रचना दें तो अच्छा रहेगा या फिर पूरे संग्रह को एक फाइल के रूप में..

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नये पुराने - मार्च 2011 - 10 : बुद्धिनाथ मिश्र - संचयन 1
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