नये पुराने (अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन) मार्च, 2011 बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता पर आधारित अंक कार्यकारी संपादक अवनीश स...
नये पुराने
(अनियतकालीन, अव्यवसायिक, काव्य संचयन)
मार्च, 2011
बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता
पर आधारित अंक
कार्यकारी संपादक
अवनीश सिंह चौहान
संपादक
दिनेश सिंह
संपादकीय संपर्क
ग्राम व पोस्ट- चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जनपद- इटावा (उ.प्र.)- 206127
ई-मेल ः abnishsinghchauhan@gmail.com
सहयोग
ब्रह्मदत्त मिश्र, कौशलेन्द्र,
आनन्द कुमार ‘गौरव', योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
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आलेख
व्यापक सरोकारों के गीतकार हैं बुद्धिनाथ मिश्र
वशिष्ठ अनूप
एक बार और जाल फेंक रे मझेरे!
जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो!
बुद्धिनाथ मिश्रजी के इस प्रसिद्ध गीत को मैंने पहली बार अपने सहपाठी मित्र श्रवण कुमार राय से सुना था। उन दिनों मैं स्नातकोत्तर का विद्यार्थी था। पता नहीं मिश्रजी के ‘मछेरे' के जाल में कोई ‘मछली' फँसी या नहीं, किन्तु इस गीत का प्रभाव ऐसा पड़ा कि मेरे मित्रों के मन की मछलियाँ इसके भाव जाल में फँस गयीं और अक्सर खाली घंटों में इसकी फर्माइश होने लगी थी। यह वह समय था जब कवि सम्मेलनों में और सहृदय पाठक वर्ग में ‘समय की शिला पर मधुर चित्र किसने' (शम्भुनाथ सिंह), ‘एक पेड़ चाँदनी लगाया हैं आँगने' (देवेन्द्र कुमार बंगाली), ‘चन्द्रमा उगा गणेश चौथ का' (उमाकान्त मालवीय), ‘भीलों ने बाँट लिए वन' (श्रीकृष्ण तिवारी), ‘याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे' (माहेश्वर तिवारी) और ‘एक बार और जाल...' की धूम मची हुई थी। इस गीत और मिश्रजी के अन्य गीतों को पढ़ने की साध बहुत दिन बाद पूरी हो सकी।
बुद्धिनाथ मिश्रजी हिन्दी गीत विध के स्तरीय, स्थापित और लोकप्रिय रचनाकार हैं। उन्होंने लम्बे समय तक गीत को एकनिष्ठ भाव से किसी साधक की भाँति साध है। उनके रचनाकार की जड़ें अपनी परम्परा, संस्कृति और इतिहास में बहुत गहरे तक धँसी हुई हैं जहाँ गीतों को अमृत प्राप्त होता है। इसीलिए उनके गीतों की शाखाएँ दूर-दूर तक लहराती हुई विशाल हिन्दी जगत को आच्छादित किए हुए हैं। ‘नवगीत आन्दोलन के प्रमुख हस्ताक्षर मिश्रजी उन विरले कवियों में से हैं जिन्होंने साहित्य और मंच को एक समान प्रतिष्ठा दी है। उनकी कविता में प्रकृति के नानाविध रूप, मनुष्य की सगुण उपस्थिति और जनसामान्य की पीड़ा के स्वर गहरे सरोकारों के साथ उपस्थित हैं। गहरी लय और छंद की निजता ने उनकी कविता को एक नये ताप से सिरजकर उसे सम्प्रेषण के स्तर पर अंतिम श्रोता तक पहुँचाने का दुर्लभ काम किया है। नवगीत के संसार में मौलिकता के अर्जन और प्रकृति के साथ मनुष्य के आत्मीय सम्बन्धों के सृजन के लिए यह कवि पूरे हिन्दी जगत में समादृत है।'
एक सम्वेदनशील और मधुर गीतकार होने के साथ ही मिश्रजी एक जागरूक अधयेता और प्रबुद्ध चिन्तक भी हैं। उन्होंने संस्कृति और साहित्य के विविध पक्षों पर गहन चिन्तन किया है। गीत, उसकी रचना-प्रक्रिया, छंद, लय, भाषा आदि के विषय में उनके विचार बड़े स्पष्ट और सारगर्भित हैं- 'गीत काव्यभिव्यक्ति का चरम उत्कर्ष है। यह शौक से नहीं लिखा जा सकता। नैसर्गिक प्रतिभा, व्यापक अध्ययन, गहन अनुभूति और दीर्घकालिक व्यवधान-रहित साधना से रचनाकार उस अवस्था में पहुँचता है जब शब्द एक विराट चेतना-चक्र से निकल कर अवतरित होते हैं। छंद के साँचे में ढले हुए, परस्पर सम्पृक्त और चिरंतन शक्ति वाले शब्द। गीत इन्हीं शब्दों से बनते हैं। ... प्रत्येक गीत की नाभि में एक सघन भाव होता है जो प्रथम पंक्ति से अंतिम पंक्ति तक कायम रहता है।’
मिश्रजी एक प्रबुद्ध, अध्ययनशील, अनुभवसम्पन्न और जागरुक गीतकार हैं। उन्होंने गाँव-कस्बों से लेकर महानगरों तक के जीवन को बहुत निकट से देखा है। वह हर तरफ हो रहे नकारात्मक परिवर्तनों से क्षुब्ध हैं। वैसे नवगीत के सभी महत्वपूर्ण रचनाकारों ने नई कविता के कवियों की भाँति अपने युग जीवन और समाज में हर तरफ बढ़ रहे पतनशील मूल्यों- कुण्ठा, संत्रास, हताशा, अलगाव, पारिवारिक विघटन, ईर्ष्या-द्वेष, लूट, हत्या, भ्रष्टाचार, संशय, अविश्वास, अनास्था, क्रूरता, हिंसा आदि का खूब चित्रण किया है। इस कवि के गीतों में इन विघटनकारी प्रवृत्तियों का बहुत अच्छा और स्पष्ट चित्रण हुआ है। वर्तमान समाज में हर चीज़ अपने स्थान से खिसकी हुई है। सम्माननीयों का लगातार अपमान हो रहा है। लोग कुछ भी करने के लिए विवश नज़र आ रहे हैं-
ऐसी हवा बही है/ दिल्ली पटना से हरजाई
सरस्वती के मन्दिर में भी/ खोद रहे सब खाई
बदले मूल्य सभी जीवन के/ कड़वी लगे मिठाई
दस्यु-सुन्दरी के समक्ष/ नतमस्तक लक्ष्मीबाई।
इसी कर्मनाशा में/ कहते हैं सबको बहना है।
इस नये समाज में प्रतिभा, ज्ञान, विद्वत्ता, विवेक, परिश्रम, निष्ठा और हर प्रकार की अच्छाई का तिरस्कार और उपेक्षा हो रही है। गुण्डे, बदमाश, चोर, तस्कर और अपराधी महिमामण्डित हो रहे हैं। ईमान-र्धम सब बिकाऊ हो गया है-
तन बिकता औने-पौने और मन कूड़े के भाव
जितना बड़ा नामवर, समझो उतना बड़ा दलाल
जहाँ बिके ईमान-धरम, क्या बेचेंगे हम लोग।
करुणा, दया, परोपकार, परदुखकातरता, प्रेम, सहानुभूति, मानवता, सम्वेदनशीलता आदि सदियों से संचित श्रेष्ठ जीवन-मूल्य निरर्थक होने लगे हैं। किसी को दुःखी देखकर लोगों को मज़ा आने लगा है। किसी की इज्जत उछालकर लोग प्रसन्न होने लगे हैं। क्रूरता और हिंसा अब आनन्ददायी हो गयी है। विज्ञापन और प्रदर्शन के इस बर्बर व असभ्य समय में सम्वेदनाएँ आना-पाई के हिसाब से बिकने लगी हैं। मनुष्य के अन्तर्बाह्य में बहुत अन्तर आ गया है। सेवा दिखावा बन कर रह गयी है और सत्य तथा ज्ञान के वाहक दलाल एवं याचक बनकर रह गये हैं। मिश्रजी ने एक गीत में इन भावों को बहुत खूबसूरत ढंग से दर्शाया है-
शामिल होते शोकसभा में/ फल बाँटें बीमारों में
कोशिश सबकी यही कि कैसे/ नाम छपे अखबारों में।
×× ××
चार टके की करते सेवा/ सौ खरचें विज्ञापन पर
नारद के वंशज संवादी/ जीते उनकी खुरचन पर
बन जाती हैं बिगड़ी बातें/ रातों रात इशारों में।
क्षुद्र राजनीतिज्ञों ने गाँव-गाँव और शहर-शहर में जाति-र्धम, क्षेत्र, भाषा आदि के जो विष वृक्ष लगाये हैं, उनके फल हर तरफ अपना असर दिखाने लगे हैं। राजनीति की चौपड़ पर आज कुलवधुएँ और पांचालियाँ निर्वस्त्र की जा रही हैं। शकुनियों और दुर्योधनों का बोलबाला है। राजनीतिक स्वार्थ ने भारतीय गणतंत्र को छिन्न-भिन्न कर दिया है। हर तरफ अराजकता का वातावरण है। राम और कृष्ण सत्ता से वंचित हैं। पाण्डव उदासीन पड़े हैं। आज के राजनीतिक महाभारत का समर कौरवों से कौरवों का है-
यह महाभारत अजब-सा है/ कौरव से लड़ रहे कौरव
द्रौपदी की खुली वेणी की/ छाँह में छिप सो रहे पांडव।
ब्रज वही है, द्वारका भी है/ किन्तु अब केशव नहीं होंगे।
आज़ादी के बाद देश में प्रेम, सौहार्द, एकता, बन्धुत्व, विश्वास और लोकतंत्र की जड़ें क्रमशः मज़बूत होनी चाहिए थीं, लेकिन हुआ इसके विपरीत। कटुता, अविश्वास और घृणा बढ़ती गयी और लोकतंत्र लूटतंत्र में परिवर्तित हो गया। कुपात्रों का सम्मान और हत्यारों का अभिनन्दन होने लगा। इन हालात में कोई भी जागरूक रचनाकार यही कहेगा- 'जिसमें डाकू हों निर्वाचित/ साधू की लुट जाए जमानत/ ऐसे लोकतंत्र पर लानत।’
आरक्षण एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा है जिस पर बुद्धिजीवी वर्ग, विशेषकर साहित्यकार समुदाय कुछ कहने से बचता रहा है। उसे यह डर सताता रहता है कि मन की बात सच-सच कह देने पर कहीं उससे प्रगतिशील और जनवादी होने का तमगा न छिन जाय। आरक्षण के कारण ऊँची जातियों के प्रतिभाशाली नौजवानों के लिए शिक्षा और रोजगार के सभी रास्ते बन्द होते जा रहे हैं और अयोग्य व्यक्ति आरक्षण की बैसाखी के सहारे महत्वपूर्ण स्थानों पर प्रतिष्ठित हो रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि रोजगार के बाद आरक्षित जातियों को अपने विभागीय वरिष्ठों के सिर पर पैर रखवाकर पदोन्नति भी दी जा रही है। आरक्षण भी आर्थिक नहीं, जातीय। जातियों के आधार पर आरक्षण और दावा यह कि हम जात-पाँत मिटायेंगे। यह दोनों कैसे सम्भव है? लेकिन स्वार्थ में डूबे भँड़वे नेता चुप और मुजरे वाले सारे बुद्धिजीवी तथा साहित्यकार इस विषय पर एक चुप हजार चुप। इस चुप्पी को तोड़ने का साहसिक कार्य किया है इस गीतकार ने। उनके ‘आरक्षण' शीर्षक गीत की कुछ पंक्तियाँ देखें-
वान छाया हुई आरक्षित/ सभी जलस्रोत हो गये आरक्षित
है अरक्षित सिर्फ कोमल प्राण/ कस्तूरी मृगों का।
अपने उद्योग-धन्धों को मंदी से उबारने और विकासशील तथा पिछड़ी दुनिया के देशों में अपने पुराने माल को खपाने के लिए अमरीका तथा उसके पिछलग्गू देशों ने भूमण्डलीकरण, वैश्वीकरण, उदारीकरण, उत्तरआधुनिकता आदि लुभावने नारों के जाल बिछाये हैं जिसमें तीसरी दुनिया के देश फँसते जा रहे हैं। यह सब बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद को बढ़ावा देनेवाले हथकण्डे हैं। मिश्रजी की इन सब पर पैनी नज़र है। बाज़ारवाद के दुष्परिणामों को उनकी इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- 'आये घोष बड़े व्यापारी/ नदी बनेगी दासी/ एक-एक कर बिक जायेगी/ अपनी मथुरा काशी/ बेच रहा इतिहास इन दिनों/ यह बाज़ार अनोखा।’
‘उदारीकरण' नामक गीत में उन्होंने इसकी भयावहता के प्रति सचेत करते हुए कहा है कि एक दिन यह हमसे हमारा सर्वस्व छीन लेगा। इसका प्रवाह सब कुछ बहा ले जाएगा- 'काट लेना पेड़ बरगद का खुशी से/ नाश या निर्माण कर, अधिकार तेरा/ तू चला बेशक कुल्हाड़ी, किन्तु पहले/ पाँखियों को ढूँढने तो दे बसेरा।/ जानता मैं भी कि चैती के दिनों में/ तोड़ देना बाँध को कितना सरल है,/ किन्तु जब बहने लगेंगे बाढ़ में घर/ तब समझना यह नदी कितनी प्रबल है।’
ये समस्याएँ मात्र आर्थिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक स्तर पर भी हैं। विकसित देशों में रोजगार के लिए जाने वाले ज्यादातर प्रवासी भारतीयों के लिए गाँव की पत्नी को छोड़कर वहाँ दूसरी-तीसरी शादी कर लेना आम बात हो गई, जिसके उदाहरण सर्वत्र सुलभ हैं। इस सन्दर्भ में उनका ‘सीमा मासी' शीर्षक गीत देखा जा सकता है, जिसका बेटा विवाहिता पत्नी और माँ को छोड़कर अमरीका में दूसरी शादी करके इन्हें भूल जाता है- 'कहा किसी ने, उस सपूत ने/ दूजा ब्याह रचाया/ घूँघट वाली लाज बहू की/ माँ का त्याग भुलाया।’
मिश्रजी के गीतों में अन्याय-अत्याचार और विद्रूपताओं के प्रति संघर्ष और प्रतिरोध का स्वर बहुत मुखर नहीं है, किन्तु उनकी स्वीकृति और उनके प्रति समर्पण भी नहीं है। उनके कुछ नवगीतों में इस निरंकुश अराजक और बर्बर व्यवस्था के प्रति गहरा असन्तोष और आक्रोश झलकता है। वे मानते हैं कि आज अन्यायी शक्तियाँ प्रबल हैं, किन्तु हमेशा ऐसा नहीं रहेगा। ये स्थितियाँ बदलेंगी और हमारे ही प्रयासों से बदलेंगी। मुश्किलें बहुत हैं, मगर रास्ता भी इन्हीं में से निकलेगा। अर्जुन और राणा प्रताप को सम्बोधित गीत में उन्होंने सुन्दर और सुखमय भविष्य के प्रति आश्वस्त करते हुए लिखा है-
काल लेता है परीक्षा, तू न घबराना
घास की रोटी अभी तेरे लिए राणा!
हिन्दी जगत के काव्य प्रेमियों में मिश्रजी की ख्याति एक मोहक और मधुर प्रेम-गीतकार के रूप में है। उनके तमाम प्रेम-गीत काव्य-रसिकों की आत्मा में रचे- बसे हैं जिन्हें वे अक्सर गुनगुना उठते हैं। दरअसल प्रेम जीवन संगीत का सबसे सहज और स्वाभाविक राग है जो हर सम्वेदनशील हृदय के साज़ पर अनायास बज जाता है। डॉ. मिश्र प्रेम के गीत ही नहीं लिखते, उनके पक्ष में डटकर खड़े भी होते हैं- 'एक अच्छे प्रेमगीत की आवश्यकता जितनी सीमा पर मोर्चा संभाले जवानों को या जेठ की कड़ी धूप में हल जोतते किसानों को होती है, उतनी साहित्य की कक्षाओं में घिसे-पिटे कैसेट की तरह बज रहे प्राध्यापकों को नहीं। इसलिए उन्हें प्रेमगीतों में पलायन नज़र आता है। जबकि प्रेम जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ है।’ उनके गीतों में प्रेम की विविध मनोदशाओं का अत्यन्त प्रभावशाली वर्णन हुआ है। किसी के प्रति सहज आकर्षण, प्रेम का प्रस्फुटन और प्रथम परिचय का बहुत नैसर्गिक वर्णन इस गीत में देखा जा सकता है- 'कल अधूरा ही रहा परिचय हमारा/ आज मन का खोल दो आकाश सारा।’
यह दुर्लभ संयोग है कि मिश्रजी के प्रेम गीत प्रचुर होने के साथ ही स्तरीय भी हैं। उनमें कहीं भय, संकोच, लज्जा और झिझक हैऋ तो कहीं आकर्षण, पूर्वराग, उत्कण्ठा, चिन्ता, उल्लास और मिलन के भाव हैं तो कहीं स्वकीया और परकीया भाव भी हैं। उनके प्रेम-गीतों पर अलग से एक पूरा लेख लिखा जा सकता है। यहाँ पर उनके अलग-अलग गीतों से कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
ये तुम्हारी कोंपलों-सी नर्म बाँहें/ और मेरे गुलमुहर के दिन
आज कुछ अनहोनियाँ करके रहेंगे/ प्यार के ये मनचले पल-छिन।
×× ×× ××
एक प्रतिमा के क्षणिक संसर्ग से/ आज मेरा मन स्वयं देवल बना,
मैं अचानक रंक से राजा हुआ/ छत्र-चामर जब कोई आँचल बना।
×× ×× ××
मैंने जीवन भर बैराग जिया है, सच है
लेकिन तुमसे प्यार किया है, यह भी सच है।
प्रेम में संयोग के दिन जितने मधुर, सुखद और उल्लासपूर्ण होते हैं, वियोग और अलगाव के दिन उतने ही बेधक, त्रासद और बेचैन करने वाले होते हैं। प्रतीक्षा, पछतावा और उलाहना से भरे हुए मिश्रजी के कई गीत बहुत अच्छे बन पड़े हैं। 'साँसों के गजरे कुम्हलाये, आप न आये/ अंग-अंग महुआ गदराए, आप न आये।’ या 'जलता रहता सारी रात एक आस में/ मेरे आँगन का आकाशदीप।’ जैसे गीत इन्हीं भावों को प्रस्तुत करते हैं।
मिश्रजी के कई गीत प्रकृति के रंग में रचे बसे हैं। इनमें विविध ऋतुओं में प्रकृति की परिवर्तित छटा का बड़ा मनोरम और आत्मीयतापूर्ण वर्णन हुआ है- 'फागुन के दिन बौराने लगे, फागुन के/ दबे पाँव आकर सिरहाने/ हवा लगी बाँसुरी बजाने/ दुखता सिर सहलाने लगे।’ उनके गीतों में प्रकृति और संस्कृति के विनाश पर गहरी चिन्ता भी व्यक्त हुई है। ‘एक पाती नर्मदा के नाम' शीर्षक गीत इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। उनके कुछ गीतों में देशभक्ति, र्धम-रक्षा, गाँव-घर और अपनी ज़मीन से जुड़ने की ललक तथा लोक मान्यताओं और संस्कृति की सुरक्षा के भाव भी व्यक्त हुए हैं। उनके गीतों की भाषा ज्यादातर भावानुकूल है। कहीं अत्यधिक तत्सम और संस्कृतनिष्ठ तो कहीं गँवई-गाँव और लोकभाषा का पुट है।
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आलेख
गीत परंपरा के उन्नायक कवि मिश्र
नन्दलाल पाठक
छायावादोत्तर कालीन हिन्दी गीतकारों को पढ़ने का ही नहीं, उन्हें सुनने का भी सौभाग्य मुझे बारम्बार मिल चुका है। उनमें से कई ऐसे थे, जो जितने श्रवणीय थे, उतने ही पठनीय भी। बाद में मैंने जिनको सुना और सराहा वह हैं बुद्धिनाथ मिश्र, गीत परम्परा के उन्नायक कवि।
कबीर, सूर, तुलसी, मीरा भगवान के दरबार के गायक थे। भारतीय संगीत के मंच पर आज भी उन्हीं का राज है। हमारे कवियों को याद रखना चाहिए कि संगीत बिना शब्द के जी सकता है, लेकिन शब्द बिना संगीतात्मकता के चिरस्थायी और जनप्रिय नहीं हो सकता। आज के हिन्दी गीतकारों में से अनेक ने साहित्यिकता और काव्यात्मकता की रक्षा करते हुए हिन्दी कविता को मंच पर लोकप्रिय ही नहीं, आदरणीय स्थान भी दिलाया है। बुद्धिनाथ मिश्र उनमें अपने विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं।
सुगन्ध के अनेक प्रकारों में जो मुझे सबसे प्रिय है, वह है- धरती की, माटी की सुगन्ध। बुद्धिनाथ मिश्र के गीत संग्रह ‘शिखरिणी' में यह चिर परिचित सुगन्ध मुझे फिर मिली है। ‘शिखरिणी' की प्रत्येक रचना उद्धरणीय है। यह संग्रह कवि-अकवि सबके लिए प्रेरणादायक है। हिन्दी ग़ज़ल लिखने वालों के लिए यह गीत-संग्रह पाठ्य पुस्तक बन सकती है। साथ ही ‘शिखरिणी' की भूमिका स्वयं में एक सशक्त रचना है, उसे पढ़े बिना आँखें नहीं खुलतीं। उन्हीं के शब्दों में कहूँ-
यह उल्लास अमृत पर्वों का
वेणु-गुंजरित यह वेतस-वन
कहाँ सुलभ ऐसा ऋतु-संगम
हिम का हास, जलिध का गर्जन।
मलयानिल-सी मंद मंद बह
श्रांति थके पथिकों की हरती।
आशा है हिन्दी को बुद्धिनाथजी से सदैव रचनात्मक प्रसाद मिलता रहेगा।
आलेख
लोक-लुभावन गीतों के रचयिता बुद्धिनाथ मिश्र
मधुकर अष्ठाना
जन्मजात नैसर्गिक प्रतिभा एवं वैश्विक ख्याति के श्रेष्ठ रचनाकार श्री बुद्धिनाथ मिश्र की गणना नवगीत के प्रमुख स्तम्भों में की जाती है, उनके नवगीत निर्वैयक्तिक हैं जो असामान्य भाव अथवा समाधि की मनोदशा में अन्तर्मन से उपजते हैं, जो समष्टि के प्रति उनकी करुणा को प्रकट करते हैं और प्रतिरोधी स्वर प्रमुख होकर पाठक को संवेदित करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस के प्रारम्भ में सर्वथा सटीक एवं सर्वकालिक काव्य को परिभाषित करते हुए लिखा है- 'वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि', जो कि नवगीत के लिए भी सार्थक है। इस सन्दर्भ में श्री मिश्र का मूल्यांकन करने से पूर्व उनके काव्य सृजन की पृष्ठभूमि का दिग्दर्शन भी आवश्यक है, उनकी जीवन-यात्रा में विकास की गति, उतार-चढ़ाव, अवरोध और पारिवारिक परिस्थितियाँ विशेष रूप से उत्तरदायी प्रतीत होती है जो उन्हें तुलसी के निकट ले जाती हैं। उनका प्रारंभिक जीवन नितान्त विसंगतियों एवं विषमताओं में विकसित हुआ, किन्तु प्रतिभा, परिश्रम एवं प्रबल जिजीविषा ने उन्हें संघर्ष की क्षमता प्रदान की।
सौम्य, आकर्षक व्यक्तित्व, मधुर स्वर, बिम्ब प्रधन गीतों ने उन्हें अपनी पीढ़ी में सर्वाधिक लोप्रियता प्रदान की और नूतन कथ्य, नवीनतम प्रतीक-बिम्ब योजना और संवेदनशील शब्द-विधान के फलस्वरूप उनकी गणना देश के श्रेष्ठ नवगीतकारों में होने लगी। उनके गीतों का टटकापन और उत्तम सौन्दर्य-बोध के साथ ही सांस्कृतिक चेतना रागात्मक रही है जिसे समकालीन समय में श्रोताओं एवं पाठकों द्वारा विशेष रूप से पसन्द किया गया, किन्तु वह अनेक माध्यम से केवल प्रस्तुतिकरण तक ही नहीं सीमित रहे और अपने अभिनव सृजन के माध्यम से विश्व के अनेक देशों का भ्रमण किया। उनके सुयश की सुगन्ध भारत तक ही सीमित नहीं रह गयी बल्कि सार्वभौमिक हो गयी, जिसका लाभ भी उन्हें मिला।
मौलिक चिन्तन, प्रबल भावोद्वेग, जन-मानस के मन-मस्तिष्क पर छा जाने वाली जीवन्त एवं प्रभावी सम्वेदनशील शैली, सरल-सहज शब्द-विन्यास में अन्तर्निहित गूढ़ार्थ तथा सम्मोहनपूर्ण बिम्बात्मक शिल्प जहाँ श्री मिश्र को श्रेष्ठ नवगीतकार के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं, वहीं मधुर कण्ठ, प्रवाहपूर्ण भाषा और आकर्षक प्रस्तुति श्रोताओं को भी वशीभूत कर लेती है। सचमुच मिश्रजी मंच और साहित्य दोनों के विश्वासपात्र हैं तथा उन्हें दोनों के मध्य सेतु निर्माता के रूप में समादृत है। इस संदर्भ में ‘दुष्यन्त कुमार अलंकरण' में उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के सम्बन्ध में निम्नांकित भावभीनी सम्मति अंकित की गई है- 'नवगीत आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर श्री बुद्धिनाथ मिश्र उन बिरले कवियों में से हैं जिन्होंने साहित्य और मंच को एक समान प्रतिष्ठा दी है। उनकी कविता में प्रकृति के नानाविध रूप, मनुष्य की सगुण उपस्थिति और जनसामान्य की पीड़ा के स्वर गहरे सरोकारों के साथ उपस्थित हैं। गहरी लय और छन्द की निजता ने उनकी कविता को एक नए ताप से सिरजकर उसे संप्रेषण के स्तर पर अंतिम श्रोता तक पहुँचाने का दुर्लभ काम किया है। नवगीत के संसार में निजता और मौलिकता के अर्जन और प्रकृति के साथ मनुष्य के आत्मीय सम्बन्धों में सृजन के लिए बुद्धिनाथ पूरे हिन्दी जगत में समादृत हैं।’ ‘शिखरिणी' की प्रथम रचना जिसका शीर्षक ‘सरस्वती' है, वन्दना के रूप में संयोजित की गई है किन्तु उसकी नूतनता, प्रतीकात्मक बिम्बात्मकता तथा उसकी ममस्पर्शी कहन नवगीत का नाम सार्थक करती है जिसमें आम आदमी की जनम-जनम की पीड़ा समाहित है-
अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ/ मुझसे लिखवाती है
जो भी मैं लिखता हूँ/ वह कविता हो जाती है
कुशल-क्षेम पूरे टोले का/ कुशल-क्षेम घर का
बाट जोहते मालिक की/ बेबस चर-चाँचर का
इतनी छोटी-सी पुर्जी पर/ कितनी बात लिखूँ
काबिल बेटों के हाथों/ हो रहे अनादर का
अपनी बात जहाँ आयी/ बस चुप हो जाती है
मेरी नासमझी पर यों ही/ झल्ला जाती है।
उपर्युक्त रचना जहाँ सरस्वती के लिए है वहीं भारत माता की भी अर्न्तव्यथा है और साथ ही किसी गाँव की अनपढ़ माँ के लिए भी सटीक बैठती है। उस बूढ़ी माँ के माध्यम से पूरे देश की, समाज की, भारतीय संस्कृति की, जन्मगत संस्कारों की उस पतनशील स्थिति का अंकन किया है जो वर्तमान की विघटनशील जीवन-प(ति की विसंगति है, जिसमें लोग समस्त परम्पराओं से मुख मोड़ चुके हैं। श्री मिश्र का संवेदनशील सहज अन्तर्मन इस विषम व्यवस्था से उत्पन्न पीड़ा से व्यथित होकर आत्माभिव्यक्ति के लिए नवगीत का सहारा लेता है और न्यूनतम शब्दों में वह सब कुछ कह जाता है जो बड़े-बड़े ग्रन्थों में भी अपूर्ण रह जाता है। यही उत्कृष्ट रचना की सफलता है और यही नवगीत की पहचान है जो विगत इक्यावन वर्षों से हिन्दी काव्य-जगत को नवीन दिशा दे रहा है और जिसे श्री मिश्र जैसे प्रतिष्ठित विद्वानों की लेखनी प्राप्त है।
एक ओर प्रकृति का विनाश हो रहा है और देश का जनमानस कहने को विवश है कि इस लोकतंत्र से अच्छी तो अंग्रेजों की गुलामी ही थी। घर-घर में महत्वाकांक्षा की प्रतिस्पर्धा, शिशु-मन पर अपेक्षाओं का दबाव और अबोध कन्धों पर दस किलो का बैग, स्वाभाविक बालसुलभवृत्तियों का अवसर ही नहीं देता। आम आदमी की इन परिस्थितियों को श्री मिश्र ने निम्न शब्दों में प्रतीकात्मक एवं बिम्बात्मक रूप में व्यक्त किया है-
स्तब्ध हैं कोयल कि उनके स्वर/ जन्मना कलरव नहीं होंगे
वक्त अपना या पराया हो/ शब्द ये उत्सव नहीं होंगे।
यह महाभारत अजब-सा है/ कौरवों से लड़ रहे कौरव
द्रौपदी की खुली वेणी की/ छाँह में छिप सो रहे पाण्डव।
ब्रज वही है, द्वारिका भी है/ किंतु अब केशव नहीं होंगे।
उपर्युक्त नवगीत में मिथकों का प्रयोग जहाँ कथ्य को नूतन कहन में अभिनव सौन्दर्य-बोध का सृजन करता है, वहीं कृष्ण के समय की व्यवस्था, शांति, अनुशासन और शासक एवं शासित के सुखद सामंजस्य को भी प्रकट करता है। इसके साथ ही पाठक के नयनों के सम्मुख तत्कालीन चित्र खिंच जाता है और संप्रेषण की सहजता उसे आम जन से जोड़ती है। वास्तव में उनका कथन यथार्थ है कि 'जीत कर हारा हुआ यह देश/ माँगता ले हाथ तंबूरा', रचनाकार ज्यों-ज्यों अगले सोपान पर चढ़ता जाता है, उसकी रचनाधर्मिता साधारण जन की अन्तर्वेदना को स्वर देकर उसका विस्तार करती जाती है। श्री मिश्र बहुआयामी रचनाकार हैं और उनका कैनवस बहुत विशाल है जिस पर वे भिन्न-भिन्न आकार, रंग एवं रूप का चित्रण करते हैं। उस विस्तृत फलक पर भुक्तभोगी जीवन का प्रतिक्षण अंकित है, जिसमें विविधता है, जिससे उसका सम्मोहन कभी भी समाप्त होने का नाम ही नहीं लेता। उन्होंने गीत-नवगीत पर अक्षुण्ण छाप छोड़ी है। अब भी अपने ही बनाये प्रतिमान तोड़ कर नये-नये प्रतिमानों का निर्माण करते हुए वे आगे बढ़ रहे हैं।
मानव मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु संघर्षरत और रचनाओं के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना के पुनर्जागरण का पावन उद्देश्य लेकर तलवार की धर पर चलते हुए मिश्रजी ने सभी को अपना समझा। गुटबन्दी, खेमेबाजी, और स्टंट में उनका विश्वास नहीं है जो उनके क्रमिक विकास का मूलमंत्र है। वे गीत-नवगीत विध में धूमकेतु की तरह नहीं अवतरित हुए बल्कि सीढ़ी पर सीढ़ी चढ़ते हुए, बढ़ते हुए ही शिखर पर पहुँचे हैं इसलिए उनका चिन्तन, उनका लेखन भुक्तभोगी का है, अतः वे अपनी पीड़ा निम्नवत् व्यक्त करते हैं- 'मैं वहीं हूँ जिस जगह पहले कभी था/ लोग कोसों दूर आगे बढ़ गये हैं।’
वर्तमान में जो प्रचार-तंत्र पर हावी हैं और गिरगिट की तरह रंग बदलने में उस्ताद हैं वे बड़ा से बड़ा सम्मान और बड़ा से बड़ा पुरस्कार प्राप्त कर रहे हैं किन्तु जो रचनाकार सिद्धान्तप्रिय, चमचागिरी से दूर, किसी गुट और आंदोलन में कभी सम्मिलित नहीं हुए, उत्कृष्ट सृजन के बावजूद वे आँख की किरकिरी बने रहते हैं। समाजोपयोगी, लोकप्रिय, संवेदनशील और स्तरीय रचनाधर्मिता का मूल्यांकन जब नहीं होता तो स्वाभाविक रूप से अन्तर्मन को आघात पहुँचता है। यह स्थिति का यथार्थ और विडम्बना सभी जगह देखी जा सकती है और तिकड़मी, आचारहीन, लोलुप लोगों को चिन्हित भी किया जा सकता है। विषमतामूलक व्यवस्था में सत्यं-शिवम्-सुन्दरम् का “ास ईमानदार रचनाकार को सदैव पीड़ित करता है। अपनी विवशता पर उसे क्षोभ होता है जिसे निम्नांकित रूप में व्यक्त करता है यह कवि-
घर की बात करें वे जो घरवाले हैं/ हम फुटपाथों पर बैठे क्या बात करें
रोज़-रोज सूरज का गुस्सा झेलें हम/ आँधी-पानी, ठंड-आग से खेलें हम
बिगड़ी हुई हवा हो या दानी बादल/ सबने हमें उजाड़ा साक्षी गंगाजल
मौसम जिनकी मुट्ठी में वे खुश हो लें/ हम मौसम के फिकरों की क्या बात करें।
उक्त नगरीय जीवन की विवशताओं के बावजूद कवि में रागात्मकता शेष रहती है, जो उसकी प्रबल जिजीविषा का परिणाम है। उसका बचपन गाँव में व्यतीत हुआ और बालमन पर गाँव के प्राकृतिक वातावरण एवं उसके नैसर्गिक सौन्दर्य की अमिट छाप है जिसका दर्शन हमें बार-बार उसकी रचनाओं में होता है, जो प्रकृति के अद्भुत सौन्दर्य-चित्र हैं। श्री मिश्र की रचनाधर्मिता प्रकृति के माध्यम से अपने सारे दुःख-सुख व्यक्त करने में दक्ष हैं। प्रकृति के समस्त घटक उनकी रचनाओं में प्रतीक बनकर कथ्य को पैनापन देते हुए व्यापक एवं असरदार बनाते हैं। प्रकृति श्री मिश्र के जीवन में पूरी तरह से रची-बसी है और उनकी अन्तश्चेतना की सहचरी है। उदाहरणस्वरूप प्रकृति के प्रतीकों से सजी नवगीत की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
बँसबिट्टी में कोयल बोले, महुआ डाल महोखा
आया कहाँ बसन्त इधर है? तुम्हें हुआ है धोखा।
किंशुक से मंदार वृक्ष की, अनबन है पुश्तैनी
दोनों लहूलुहान हो रहे, ऐसी पढ़ी रमैनी।
बिना फिटकरी हर्रे के ही, रंग हो गया चोखा।
इस नवगीत में प्रकृति के सौन्दर्यबोधीय घटकों के माध्यम से समाज में व्याप्त विसंगतियों, विघटन और दुर्व्यवस्था के यथार्थ को चित्रित किया गया है जिसमें बसन्त के आगमन को भी शोक में बदलते हुए दिखाया गया है। लोग अपने संकीर्ण विचारों के कारण पुश्त दर पुश्त शत्रुता निकालते रहते हैं। अपने देश में भाषा, प्रान्त, र्धम, जाति तथा अनेक निकृष्ट कारणों से परस्पर दुश्मन बने हुए हैं। गाँवों, झीलों, नदियों, जंगलों का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है, पर्यावरण असंतुलित होता जा रहा है, प्रकृति का दोहन, स्वार्थी एवं लालची तत्व बिना सोचे-समझे इस प्रकार करते जा रहे हैं कि प्राणवायु तक के लाले पड़ते जा रहे हैं- 'आये घोष बड़े व्यापारी/ नदी बनेगी दासी/ एक-एक कर बिक जायेगी/ अपनी मथुरा-काशी/ बेच रहा इतिहास इन दिनों/ यह बाज़ार अनोखा/ नया काबुली वाला आया/ सोनित तक खींचेगा/ पानी में तेज़ाब घोलकर/ पौधों को सींचेगा/ झाड़-फूँक सब ले जायेगा/ आन गाँव का सोखा।’
प्रत्येक वस्तु का बाज़ारीकरण, धर्म भी व्यापार का हिस्सा, ऐतिहासिक एवं पुरातत्त्वीय महत्व की सामग्री का विक्रय, गाँवों में व्याप्त अंधविश्वास एवं पाखण्ड, विदेशी व्यापारियों का प्रवेश आदि समस्त परिस्थितियाँ आम-आदमी के सम्मुख गंभीर समस्याएँ उत्पन्न कर रही हैं जिनसे मानवीय मूल्यों का क्षरण दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है, लेकिन प्रकृति के माध्यम से केवल सामाजिक विकृतियों की चर्चा तक ही श्री मिश्र की प्रकृति-प्रेम नहीं है। जहाँ वे प्रकृति के माध्यम से गाँवों की चिन्ताओं को व्यक्त करते है वहीं प्राप्त सुखों को व्यक्त करने से भी मुख नहीं मोड़ा है। मिथिला की मुख्य फ़सल धन है और इसके प्रतीक से बने बिम्ब मन में सहज ही प्रवेश कर संवेदित करते हैं- 'धन जब भी फूटता है गाँव में/ एक बच्चा दुधमुँहा/ किलकारियाँ भरता हुआ/ आ, लिपट जाता हमारे पाँव में/ नाप आती छागलों से ताल-पोखर/ सुआपाँखी मेड़/ एक बिटिया-सी किरण/ है रोप देती चाँदनी का पेड़/ काटते कीचड़ सने तन का बुढ़ापा/ हम थके-हारे उसी की छाँव में।’ किन्तु सारी खुशफहमियों के उपरान्त श्री मिश्र घूम-फिर कर पीड़ा पर ही केन्द्रित हो जाते हैं। वस्तुतः कविता का जन्म तो पीड़ा से ही होता है। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि का काव्य भी पीड़ा से ही प्रस्फुटित हुआ था। और इसी क्रम में श्री मिश्र का भी मूल स्वर पीड़ा का ही है, वह चाहे व्यक्तिगत हो या समष्टिगत, उनकी व्यक्तिगत पीड़ा भी समाज की, देश की, विश्व की पीड़ा बन कर कालजयी हो जाती है। उपर्युक्त संदर्भित नवगीत का प्रथम एवं मध्य भाग जहाँ अन्तर्मन को अभिनव सौंदर्य में निमग्न कर देता है वहीं अंतिम भाग, एक टीस, एक कसक दे जाता है-
यह गरीबी और जॉगरतोड़ मिहनत/ हाथ दो, सौ छेद जैसे नाव में।
फैल जाती है सिंघाड़े की लतर-सी/ पीर मन की/ छेंकती है द्वार
तोड़ते किस तरह/ मौसम के थपेड़े/ जानती कमला नदी की धर।
लहलहाती नहीं फसलें/ बतकही से/ कह रहे हैं लोग गाँव-गिराँव में।
श्री मिश्र के सृजन संसार में ऐसे नवगीतों की भरमार है जिनमें प्रकृति के अन्यतम बिम्ब दर्शनीय हैं। प्रथम दो उत्सवर्धमी किन्तु अंतिम बंद में आम आदमी की पीड़ा झलकने लगती है। प्रकृति की गोद में बसे गाँवों की गरीबी, बेकारी, भूख, पाखण्ड, अन्धविश्वास, शोषण-उत्पीड़न उन्होंने निकट से देखा है और इस प्रकार भुक्तभोगी भी रहे हैं, इसीलिए एक ओर वह प्रकृतिप्रेमी भी रहे हैं तो दूसरी ओर धरती-पुत्रों के आँसुओं को सहेज कर उन्हें व्यक्त करने की कामना को रोक नहीं पाते हैं।
श्री मिश्र ग्रामीण परिवेश में ही पले-बढ़े और मिथिलांचल का उन्हें प्रत्येक दृष्टि से पूर्ण ज्ञान है। उन्होंने भोजपुरी तथा मैथिली आदि में भी सृजन किया है, जो उनके बहुआयामी सृजन का परिचायक है। नवगीत में भी उन्होंने अपने अनुभव, ज्ञान एवं भाषा सिद्धि का उदाहरण प्रस्तुत किया है। गाँव में सूखा पड़ा है, बादलों ने बेरुख़ी अिख़्तयार कर ली है, आते हैं और बिन बरसे चले जाते हैं। धन की पूरी कृषि व्यवस्था आकाशी-वृष्टि पर ही निर्भर है। ऐसी दशा में बादलों को आकर्षित करने के लिए अनेक टोटके और कर्मकाण्ड परम्परागत रूप से चले आ रहे हैं। 'घर की मकड़ी कोने दुबकी/ वर्षा होगी क्या?/ बायीं आँख/ दिशा की फड़की/ वर्षा होगी क्या?/ सुन्नर बाभिन बंजर जोते/ इन्नर राजा हो/ आँगन-आँगन छौना लौटे/ इन्नर राजा हो/ कितनी बार भगत गुहराये/ देवी का चौरा/ भरी जवानी जरई सूखे/ इन्नर राजा हो/ आगे नहीं खिसकता सूरज के/ रथ का पहिया/ भुइलोटन पुरवैया सिहकी/ वर्षा होगी क्या?'
अनेक आँचलिक बिम्बों, मान्यताओं और लोक प्रचलित अनुष्ठानों को सहेजे यह नवगीत निश्चित ही परिस्थिति विशेष को व्यक्त करने में सफल है। इस प्रकार के अनेक नवगीत उनकी काव्य-कृतियों में दर्शनीय हैं। इन नैसर्गिक दृश्यों को श्री मिश्र अपनी अनुभूतियों में पिरोकर नूतन एवं संवेदनीय कहन के साथ प्रस्तुत करते हैं। मिश्रजी के नवगीतों को जिसने भी एकबार सुना या पढ़ा, वह उनका मुरीद बन गया। वे कथ्य को नितान्त स्वाभाविक, एवं सहज रूप से, आम आदमी के परिवेश से प्रतीक लेकर बिम्बात्मक रूप से प्रस्तुत करते हैं जो उनकी रागात्मक प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप उनके कण्ठ से गुजरकर, पत्थर को भी संवेदित कर देता है।
श्री मिश्र न तो तुलसी हैं जो प्रभु को दण्ड प्रणाम करते रहें, न ही वे सूरदास हैं जो कृष्ण की लीलाओं पर रीझ जायें, वे तो विद्यापति हैं, यदि ईश्वर ‘उगना' बनकर आये तभी वे तृप्त हेांगे, संतुष्ट होंगे। कई दशक पूर्व जिस गीत ने उन्हें मंचों का राजकुमार बना दिया और जिसे उनका सिगनेचर गीत बनने का गौरव प्राप्त हुआ, उसे मैंने अनेक बार सुना है और जब भी सुना मंत्रमुग्ध हो गया हूँ, जो आज भी अपने टटकेपन में कहीं से कमज़ोर नहीं पड़ा है, उस कालजयी गीत की चर्चा न हो तो आलेख अधूरा ही आभासित होगा। उस गीत के प्रतीक, बिम्ब, कथ्य और कहन पूरी रागात्मकता के साथ संवेदित करने में सक्षम हैं और वर्तमान में आज ही के सृजित प्रतीत होते हैं। यथा- 'एक बार और जाल/ फेंक रे मछेरे/ जाने किस मछली में/ बंधन की चाह हो।’ एक समय था जब उन्होंने ऐसे लोक-लुभावन गीतों का सृजन किया किन्तु वर्तमान में उनकी लेखनी से कटुयथार्थ के ही बिम्ब चित्रित होते हैं, जिसमें मानव जीवन से सम्बन्धति सम्पूर्ण अवसादपूर्ण यात्रा की जीवन्त प्रस्तुति है।
लोकभाषा में लोकधुनों पर आधरित गीत हों अथवा छायावादोत्तर काल के खड़ीबोली के मनोरम गीत हों अथवा वर्तमान युगबोध से मण्डित न्यूनतम शब्दों में नये प्रतीक-बिम्ब से उत्पन्न संवेदनशील नवगीत हों, श्री मिश्र के सृजन संसार में सभी कुछ सहज-सरल-प्रवाहपूर्ण-सम्प्रेषणीय भाषा में उपलब्ध हैं, जिसके श्रवण-पाठन की उत्कण्ठा पाठकों के अन्तर्मन में सदैव बनी रहती है। आंचलिक शब्दों का सीमित प्रयोग, देशज कहावतों तथा मुहावरों का संयोजन और मर्मस्पर्शी कहन, उनकी भाषा को नवीनतम रूप देते हैं, जो वर्तमान के अनुकूल है और कथ्य को यथोचित रूप में प्रस्तुत करने में सक्षम है। कुल मिलाकर श्री मिश्र लोक-लुभावन गीतों के अप्रतिम रचयिता हैं।
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आलेख
शुचिता में मुदिता सम्पन्न सौन्दर्य
सूर्यप्रसाद शुक्ल
परिमाण और परिणाम में गीत विध के श्रेष्ठ शिल्पी बुद्धिनाथ मिश्र का सृजन- संसार जिस जीवन-सौन्दर्य से सुपरिचित है, वह सुकोमलतम अनुभूतियों के अनछुए कौमार्य का मानस स्पर्श है। अब से लगभग तीस वर्ष पहले जब काव्य रसिकों का कण्ठहार बन चुका था उनका गीत 'एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!, जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो', तब से निरन्तर अपने सौन्दर्यमय आनन्द-बोध को, भाव दशा के हर पल प्रत्यावर्तित होते गीत शिल्प के हर रूप को उन्होंने सुरुचिपूर्ण शुचिता से सँवारा है।
जीवन सत्य से साक्षात्कार करते बुद्धिनाथ मिश्र आधुनिकता के छप्र जाल में फँसकर शुष्क नीरसता के नव विधान को स्वीकार नहीं करते। उनके नवगीतों में भी जो लालित्य है, जो शब्द संस्कार है उसमें जीवन की दाहक स्थितियों की अनुभूतियों को भी रसोत्कर्ष की शब्दावली मिली है, वह अभिजात्य-सुलभ शालीनता का निर्वाह कवि की क्षमता का द्योतक बना है।
उनके गीत ‘दिवालोक', ‘पुरइन पात', ‘मौसमी गुनाह', ‘चुम्बकीय गंध', ‘भोरहरी लाज', ‘प्रीति का उछाह' छाँह में बन्धन की चाह से नेह का निबाह करने को उत्सुक है। इतना माधुर्य, इस तरह का शिल्प और इतनी भाव-प्रवण काव्यात्मा में ओजस गुणवत्ता की सुरभित अनुभूति जिसे मिली हो वह सहज और असाधारण शब्द-शिल्पी ही हो सकता है। कृत्रिम कलात्मकता के शब्दजाल उसे कभी विमोहित नहीं कर सकते। कदाचित सन् 1970 या 1971 की गीत संध्या का स्वर- श्रृंगार करते ही मिश्रजी कानपुर के गणेश उद्यान में पप्रश्री व्यासजी की अध्यक्षता में यह गीत पढ़ रहे थे, और अपार जनसमूह उनकी प्रसंशा समवेत स्वर से उन्हीं भावात्मक स्वर लहरियों का प्रत्यावर्तन करता रसार्णव ही लग रहा था। आज भी मुझे इस गीत की भाव सुषमा का स्मृति में अंकित सौन्दर्यबोध नया, ताजा और पुरइन पात-सा नेह के नीर में तिरता लग रहा है। वह गीत है- ‘जाल फेंक रे मछेरे!' भाव सौन्दर्य के इस गीत में भावाभास भी है, भावोत्कर्ष भी है और रसावृत्ति के साथ प्रतीक्षातुर-प्राण की सुकोमल शब्दावली में काव्यगुण का प्रकाश भी है। पुरइन पात की सुकोमलता, जल के सतत स्पर्श का सािन्नध्य, और इस पर भी किसी प्रकार की विषयजन्य मलिनता का अभाव, मन-आत्मा की गूँजती गुफाओं में पिछली सौगन्ध की स्मृति और लाज की लालिमा, कुँकुम-सी निखरी भोरहरी की अरुणिमा का कवि मन ने किस प्रकार मानस अवलोकन किया है, वह सौन्दर्य की असीम क्षमता का परिणाम है जो जन्म जन्मान्तरों से प्राप्त संस्कारों का संचित प्राप्तव्य भी हो सकता है। मन मछली और तन की झील में आत्मा रूप हंस की उपस्थिति का गुणत्रयी संयोग भी इन पंक्तियों की काव्यात्मा को भाव सौन्दर्य प्रदान करता हुआ गीत स्वरों का श्रृंगार करता लगता है। वर्तमान की अनेक भाव स्थितियाँ इन प्रतीकात्मक संज्ञाओं में रूपायित हुई हैं।
अपने गीतों में बुद्धिनाथ मिश्र ने अपनी सांस्कृतिक चेतना के विकास से विकसित शब्दावली में अनेक आध्यात्मिक और दार्शनिक अवधारणाओं को अभिव्यंजना के अनेक स्तरों पर युगबोध से अनुप्राणित होकर नये अर्थ दिये हैं। नये प्रयोग किये हैं और मिथकीय शब्दावली में विकसित अर्थ की गंभीरता को गहन-गरिमा से जीवन-दृष्टि का सौन्दर्य प्रदान किया है। निसर्गतः सहज भाव को अभिव्यक्त करने के लिए ग्राम्य संस्कृति में रचे, कृषि योग्य निचली भूमि और जलाशय के लिए ‘चाँचर' शब्द का प्रयोग ‘सरस्वती' शीर्षक गीत में जिस नूतन भावना का रसोद्रेक करता है, वह दर्शनीय ही नहीं, मननीय भी बन गया है। ‘सरस्वती' वह वाग्देवी या वाग्देवता का प्रतीकात्मक भाव-बोध है, जो किसी बुद्धिमान के लिए वरेण्य है। फिर जीवन की कुशल-क्षेम से परिचित कराता- वाग्देवी के समक्ष प्रस्तुत किया जाने वाला प्रतिवेदन कितना निजत्व से पूर्ण है, कितना मौलिक शब्द-विधान है और कितना आत्म-परक लोकाभिमुख सृजन का पर्याय बना है, यह रचना पाठ करते ही समझ में आ जाता है।
काव्य-रस माधुर्य का आकण्ठ पान करने वाले गीत के सुकोमल सौन्दर्य द्रष्टा, बुद्धिनाथ मिश्र को नगरीय कृत्रिमता नहीं लुभा सकी। अपने संस्कारों के प्रति निष्ठावान जीवन प्रभात की वयः सुकुमारता, जिन नैसर्गिक उपादानों से, आनन्दानुभूति का सुयोग पाती थी, आज भी वह जामुन की डाली, बिजलियाँ तिरछी नज़र वाली के साथ अंतःकरण की गहराई में गड़ी है-
लौट आये हैं जमुन जल मेघ
सिन्धु की अन्तर्कथा लेकर।
यों फले हैं टूटकर जामुन
झुक गई आकाश की डाली
झाँकती हैं ओट से रह-रह
बिजलियाँ तिरछी नज़र वाली।
ये उठे कंधे, झुके कुंतल
क्या करें काली घटा लेकर।
यथार्थ बोध और जीवन की दाहक स्थितियों से साक्षात्कार करता कवि-मन जब सामाजिक संरचना में व्यथा की कथा को गीत के स्वर देता है तब उसमें किसी आयातित वैचारिकता का छप्र शब्द संसार रूप नहीं लेता, उसमें तो अपने निकट के ही कील-काँटे प्रतीक बनकर चुभन, टीस और लहू-लुहान आदमी की नियति बनकर गीत का जीवन-छन्द बन कर, करुणा का स्वर संवेदित करते प्रतीत होते हैं। छंद-विधान की स्वरचित पंक्तियों में, लोकमन के समीप से लिए गये अर्थों को एकदम, अपनी ही प्राकृत शब्दावली के स्मृति सन्दर्भों से जोड़कर आम आदमी की कविता बन कर उभरते हैं। इस तरह के गीत में भाव सौन्दर्य की करुण-व्यथा का किस प्रकार अवतरण हुआ है, जरा देखें-
सड़कों पर शीशे की किरचें हैं
औ' नंगे पाँव हमें चलना है।
सरकस के बाघ की तरह हमको
लपटों के बीच से निकलना है।
बुद्धिनाथ मिश्र ने नवगीत को नव रूप दिया है। उनके सौन्दर्य बोध में निरन्तर मिलता वैदुष्य, जीवन की विशदता में प्रतिबिम्बित होता जा रहा है। ‘शिखरिणी' में जिन भाव-बिम्बों पर विशेष दृष्टि निःक्षेप हुआ है, उनमें से कुछ, अपने विशेष काव्य गुणों से अलंकृत होकर नवता का उन्मेष करने में सक्षम है- 'गोरा-गोरा रूप मेरा/ झलके न चाँदनी में/ चाँद, जरा धीरे उगना।’
रूप सौन्दर्य, प्रकृति सौन्दर्य, शब्द सौन्दर्य, अर्थ सौन्दर्य, जीवन की लय, गीत का छंद तथा अपनी अनुभूति को शिल्प के कसीदे में सजाकर पेश करने वाले गीत के शिल्पी बुद्धिनाथ मिश्र का सृजन संसार लोक चेतना में आत्म तत्व संयुक्त मानवी अनुभूति का काव्यगुण सम्पन्न साहित्यिक अवदान है जो शुचिता में मुदिता सम्पन्न सौन्दर्य का प्रमाण है।
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आलेख
बुद्धिनाथ मिश्र ः सोंधी माटी की गंध के कवि
मदन मोहन ‘उपेन्द्र'
गीत को सदैव से भारतीय कविता का अप्रतिम आदिम एवं शाश्वत स्वरूप माना गया है। भारतीय जीवन दर्शन स्थायित्व और विस्तार देने में भी लोक जीवन की सांस्कृतिक पहचान का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस दिशा में निराला, प्रसाद, पंत और महादेवीजी का योगदान भी रहा है। उसी परम्परा में कवि बच्चन, अंचल, नीरज, रंग, सरोज से सोम ठाकुर, कैलाश गौतम, माहेश्वर तिवारी, उमाकान्त मालवीय, वीरेन्द्र मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, नईम आदि तक की गीत नवगीत श्रृंखला में ही एक नाम सदैव चर्चित रहा है, वह है बुद्धिनाथ मिश्र।
बनारस से देहरादून तक की गीत सृजन-यात्रा में श्री मिश्र की गीत शैली अपने लोक जीवन, लोक संस्कृति से सम्पृक्त मन-भावन पंक्तियों के कारण सदैव पाठकों एवं श्रोताओं को झंकृत करती रही हैं। नवगीत में जो शिल्प एवं कथ्य के स्तर पर रागात्मकता की अभिव्यक्ति हुई है वह सामाजिक सरोकारों से व्यक्ति के पलायन से नहीं उपजी है अपितु संयम एवं संस्कारों के बदलाव से उपजी विवशता है।
श्री मिश्र के कई गीतों में शुद्ध सात्विक निजी रागात्मकता की प्रस्तुति हुई है। उदाहरण प्रस्तुत है- 'मैंने युग का एक सारा तमस पिया है/ सच है/ लेकिन तुमसे प्यार किया है/ यह भी सच है।’
किन्तु गीत के नूतन प्रयोगों, भाषा के नये कलेवर में जो लोक रंजन के संस्कार, जीवन शैली और रागरंग का वातावरण गीतों के सृजन में श्री मिश्र ने प्रदान किया है, वह वर्षों-वर्ष तक श्रोताओं-पाठकों का कण्ठहार रहा है। यथा-
धन जब भी फूटता है, गाँव में।
एक बच्चा दूध-मुँहा
किलकारियाँ भरता हुआ
आ लिपट जाता हमारे पाँव में।
फैल जाती है सिंघाड़े की लतर-सी
पीर मन की छेकती है द्वार
तोड़ते किस तरह मौसम के थपेड़े,
जानती कमला नदी की धर।
लहलहाती नहीं फसलें बतकही से,
कह रहे हैं लोग गाँव-गिरांव में।
इतना ही नहीं, लोक जीवन में सगुन विचार और मौसम में बदलाव का आभास किस प्रकार हो जाता है इसकी कितनी माधुर्यपूर्ण अभिव्यक्ति निम्न पंक्तियों में हुई है-
घर की मकड़ी कोने दुबकी
वर्षा होगी क्या?
बांयी आँख दिशा की फड़की
वर्षा होगी क्या?
श्री मिश्र की प्रेरणा से अन्य समकालीन गीतकारों ने भी लोक जीवन की बानगी प्रस्तुत की है। यथा-
सूंघ गई रोटी की महक,
भूख की चिरैया
ओ बाबा रस्सी में
बांधे न गइया।
यह रस्सी भूखे मल्लाह ने बनाई
आँतों की ऐंठ पोर-पोर उतर आई।
अन्ततः यह स्पष्ट है कि ऐसी संवेदनशीलता और भारतीय जीवन की भावालोकमयी लगन एवं निष्ठा श्री मिश्र की सृजन प्रक्रिया रही है। उनका अपनी माटी से लगाव एवं समर्पण स्तुत्य है।
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आलेख
प्रकृति के नवगीत शिल्पी
प्रेमशंकर रघुवंशी
यह अच्छी बात है कि बुद्धिनाथ मिश्र से मेरा परिचय उनकी गीत रचनाओं से ही है, व्यक्ति से नहीं। अन्यथा वह कृतित्व की विवेचना पर हावी होता। यहाँ एक बात और कह दूँ- कि किसी भी रचनाकार के किसी भी पक्ष पर चर्चा करते वक्त उसके मूल स्वर, उसके मूल रचना विधान और उसके मूल वर्ण्य को समझना जरूरी है क्योंकि ये ही वे महाप्राण होते हैं जिनसे वह किसी भी रचना सृष्टि के लिए आलाप भरता है। बुद्धिनाथजी की सम्पूर्ण गीत सर्जना का मूल स्वर प्रकृति से वास्ता रखता है। यानी कि अनुभूत जीवन- सत्य की अनुभूति के वास्ते वे प्रकृति को माध्यम बनाते हैं। यह प्रकृति कभी आलंबन, कभी उद्दीपन और कभी विभावन व्यापार के रूप में प्रकट होती है। काशी विश्वविद्यालय की पी-एच.डी. उपाधि के लिए उनके शोध प्रबंध- ‘यथार्थवाद और नवगीत' भी नवगीत के सन्दर्भ में यथार्थवाद के स्पष्टीकरण में प्रकृति का इस्तेमाल करने से नहीं चूकता। देवीशंकर अवस्थी ने एक जगह लिखा है- 'मनुष्य का स्नायविक संगठन कैसे काम कर रहा है, इसका समग्र आत्मसातीकरण कवि पहले करता है एवं अपनी सृजन प्रक्रिया के दौरान इस स्नायविक प्रतिक्रिया को लय के साँचे में पकड़ने का प्रयास करता है, अथवा यों कहें कि अनुभूति विशेष या विविध अनुभूतियों के लिए एक साँचा, एक पैटर्न खोजता है और एक बार यह साँचा पकड़ में आ जाता है, तब उसे बाहर की ओर भी यदा-कदा संचरण करके भीतर की ओर लौटता है अर्थात् लिखता भीतर से है और उसमें संशोधन और परिष्कार बाहर से करता है।’ इससे यह स्पष्ट होता है कि रचना प्रक्रिया के दौरान बाहरी और भीतरी एकात्मकता सघन रूप से सक्रिय होती है। बुद्धिनाथ मिश्र की गीतात्मक रचना प्रक्रिया में प्रकृति कहीं बाह्य और कहीं आभ्यन्तरीकरण की एकान्तता में अनिवार्यतः सक्रिय रहती है। इसी के माध्यम से वे अपने व्यापक जीवनानुभव एवं प्रखर इन्द्रियबोध को संवेदनात्मक ज्ञान की भूमिका तक ले जाने का सार्थक प्रयास करते हैं। इसके साक्ष्य में उनके तीन महत्वपूर्ण गीतों की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत है-
वह हवा पहाड़ी नागिन-सी/ जिस ओर गयी
फिर दर्द भरे सागर में/ मन को बोर गई।
कच्चे पहाड़-से/ ढहते रिश्तों को माने
भरमाते पगडंडी के/ ये ताने-बाने।
कसमों के हर नाज़ुक रेशे को/ तोड़ गई
झुरमुट में कस्तूरी यादों की छोड़ गई।
×× ×× ××
फूल झरे जोगिन के द्वार/ हरी-हरी अंजुरी में
भर-भर के प्रीति नई/ रात भर चाँद की गुहार।
×× ×× ××
उत्खनन में जब मिले अवशेष/ वर्जना-दंशित समर्पण के
देखकर पथरा गई आँखें।
इन सभी पंक्तियों में प्रकृति इतनी व्याप्त है कि उससे इतर किसी अन्य की उपस्थिति संभव ही नहीं। पहले गीत में- कोई हवा है जो पहाड़ी नागिन जैसी जहाँ जाती है, वहाँ दर्द से भरे सागर में मन को डुबो जाती है। इसी गीत में आगे पहाड़ी की जगह पहाड़ आ जाता है, जो कच्चे पहाड़ जैसा एक प्रतीक के रूप में उपस्थित होकर ढहते सम्बन्धों के ताने-बाने बुनता है। रोमानी भावना हो या कोई अन्य, इन सभी में प्राकृतिक उपादानों को प्रतीक द्वारा अभिव्यंजित किया गया है। इसी तरह दूसरे गीत के अन्तर्गत हरी-हरी अँजुरियों में नई-नई राग भावना भर-भर कर चंद्रमा अपनी जोगन के द्वारे प्रणय-पुष्प बिखेरता रहता है। यहाँ प्राकृतिक उपादानों से पूरा बिम्ब निर्मित किया गया है। और तीसरे गीत में बहुत ही सधे हुए प्राकृतिक वस्तु-साधनों द्वारा एक चित्र निर्मित किया गया है।
अधिक तफसील में न जाकर मैंने संकेत में इन बानगियों के द्वारा यह कहना चाहा है कि मिश्रजी अपने नवगीत लेखन में प्रकृति को तनिक भी गायब नहीं होने देते। वह उनके गीतों में या तो सम्पूर्ण वस्तु बनकर आती है अथवा माध्यम बनकर और दोनों रूपों में उसकी सौन्दर्य सम्पन्नता देखने लायक होती है। और कभी-कभी तो हैरत में भी डाल देती है कि क्या प्रकृति के एक ही माध्यम से एक साथ अलग-अलग अभिव्यंजना व्यापार भी करवाया जा सकता है? जैसे कि पहले गीत में पहाड़ और फिर उसी की सजातीय वस्तु कच्ची पहाड़ी से करवाया गया है इसी तरह के अभिव्यंजना व्यापार उनके कई गीतों में हैं।
यह सच है कि छायावाद के पश्चात प्रकृति को सर्वाधिक आदर नवगीत काव्य ने दिया। इसी तरह यह भी सच है कि नवगीतकारों के मध्य बुद्धिनाथ मिश्र ने प्रकृति को सर्वाधिक समादृत किया। प्रकृति में उनका महाप्राण स्वर समाहित है जिसके आलाप से वे आवश्यकतानुसार तरह-तरह के साँचों, तरह-तरह के छंदों और तरह-तरह के वस्तुशिल्पों के सहारे लयात्मक विविधता के साथ शब्द-ध्वनियों की तरंगें उठाते हुए समुचित बालाघातों द्वारा अपने गीत संसार की सृष्टि करते रहते हैं। यह बुद्धिनाथ मिश्र की गीत सर्जना का मूल है उनका प्रकृति प्रेम उनमें तन्मयता के साथ मौजूद है। वे सही अर्थों में प्रकृति के दुर्लभ चितेरे नवगीत शिल्पी है जहाँ उनकी अपनी भाषा है। उनकी भाषा को नवगीत की प्रकृति संबंधी वर्ण्य-वस्तु की मानक भाषा मानी जा सकती है।
बुद्धिनाथ मिश्र नवगीत के पुरोध हैं या नहींऋ यह तो इतिहास ही तय करेगा क्योंकि उनके लेखन की न तो इति हुई है न वे “ासोन्मुखी हैं। वे तो गीत क्षेत्र के सृजनशील योद्धा हैं और सक्रिय सिपाहियों पर इतिहास इतनी जल्दी कोई निर्णय देता भी नहीं।
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आलेख
लोग कोसों दूर आगे बढ़गए
प्रहलाद अग्रवाल
बंदा, बुद्धिनाथ मिश्र ही नहीं उनके गीतों से भी लगभग अपरिचित था- बीसवीं शताब्दी के अन्त तक। बस- ‘एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!' जैसे एक दो गीत टुकड़ों में अपने कवि मित्रों की ज़ुबानी सुन रखे थे। सो कुछ समय पहले ही उनके नये-पुराने गीतों से मेरा परिचय हुआ। और अपने पुरानेपन के सहज सानंद स्वीकार के उच्छ्वास से अभिषिक्त- ‘मैं वहीं हूँ जिस जगह पहले कभी था/ लोग कोसों दूर आगे बढ़ गए हैं' गुनगुनाहटों में ढल गया।
लोगों के आगे बढ़ जाने से कोई ईर्ष्या नहीं, कोई मलाल नहीं। कदाचित् संतोष ही है। कहीं तृप्ति का आनन्द भी- कि वे जो आगे बढ़ गए हैं उन्होंने एक-एक साँस लुटाकर भी क्या पा लिया! गुस्ताखी मुआफ़ हुजूर, ख़ाकसार उनकी तरह राजधनी से जुड़ने वाली पगडंडियों पर चलने वाली बदहवास दौड़ में बतौर उम्मीदवार शिरकत ही नहीं कर सका- सो संसद के कंगूरे पर न चढ़ पाने का गिला कैसा? और अपने बीज मानिन्द धरती में गड़कर भी सार्थकता के उन्नयन का गुमान क्यों नहीं? नींव के पत्थर की हस्ती आसमानी कंगूरों को पस्त करने की अज़ीम हैसियत की मालिक होती है- हाँ, 'खाइयो मत फ़रेब-ए-हस्ती/ हर चंद कहें, कि है, नहीं है।’
यही तो अफ़सोस है कि जिन हाथों द्वारा पाँकिल खेतों में धन रोपनी होनी चाहिए थी- वे बहती नदी में हाथ धो आगे बढ़ गए। उनकी आसमानी बुलंदियाँ, उनकी ये राजधनियाँ उनको ही मुबारक- 'सिरफिरे दिल के बादशाहों की/ राजधनी हुई, हुई, न हुई!'
अपना पीछे छूट जाना, औरों का आगे निकल जाना- सालता नहीं, उलट अपने प्राप्य की सार्थकता से गमकता है। ऊँचाइयों की निरर्थकता का उद्घोष बनकर। बीज के अपरिमित सौंदर्य को प्रदीप्त कर-
जितना ऊँचे चढ़ते हो
उतना ही तले उतरते हो जी
तुम भी मर जाओगे ‘अनाथ' ही
क्यों इस तरह अकड़ते हो जी!
कोई चाहे तो देख सकता है- सीधी चुनौती है- इक्कीसवीं सदी के सम्मोहक विश्वग्राम की छली परिकल्पना के समक्ष-
घर के मालिक को ठगकर/ जब मौज करें रखवाले
र्धमांतरण करें/ जब गंगाजल का गंदे नाले।
×× ×× ××
नामर्दी के विज्ञापन से
पटी पड़ी दीवारें
होड़ लगी है कौन रूपसी
कितना बदन उघारे।
यही सोच बुद्धिनाथ मिश्र के गीतों में गाँवों को संगीतात्मक-ऊर्जस्विता में ही जागृत नहीं करता- उसकी ‘क़तरे' की मामूली हैसियत को समुद्र के अनन्त विस्तार और महिमामय शक्ति वैभव के दुर्दमनीय आकर्षण से प्रबल बनाता है। यथा-
मन में बौर संजोकर बैठी
गठरी जैसी बहू नवेली
मां की बड़ी बहन-सी गायें
बैलों की सींगें चमकीली।
‘ग्लोबल विलेज' की इजारेदार रोशनियों के आगे गंवईं-गाँव के पिछड़ेपन के प्रति अटूट निष्ठा और सहज मादक आकर्षण खुलकर बयाँ होता है। यहाँ तटस्थता नहीं, स्पष्ट पक्षधरता है- ‘यह कैसा विनिमय?- पगड़ी दे कौपीन लिया!'
‘कौपीन' बहुआयामी अर्थवत्ता का संसार समोये हुए है यहाँ। लेनदेन का विराट निर्मोही संसार उपस्थित कर देने वाला- जिसकी कोई संगति नहीं बैठती उस समाज से जहाँ ‘पेड़ पेड़ रिश्तों के धगे' बँधे हुए हैं। प्रेमासक्ति में डूबी तपश्चर्या के सौंदर्य को नकारकर तथाकथित प्रगति की आधुनिकता मान ली गई छिछोरी नंगई के झंझावात को ओढ़ लेने से सहज विरक्ति। कवि किसी तरह चंदन के वृक्षों की परिणति बबूल के काँटों में होते देखकर आींादित नहीं हो पाता- 'चंदन के गाछ बने/ हाशिए बबूल के/ टूटेंगे क्या रिश्ते/ गंध और फूल के?'
ग्राम्य संस्कृति में बुद्धिनाथ मिश्र की अटूट आस्था है। वे बाज़ारवाद की उत्तेजक चकाचौंध में स्खलित नहीं होते। मौसी का बेटा- जो दूर अमरीका जाकर- रुपये को भूल, डॉलर अपनाकर- अपने घर द्वार- माँ पत्नी को भूल गया है- वह कतई इन गीतों का दुलारा नहीं है। धूल और पसीने से ऊल चूल मशक्कत की मिठास अपमानित नहीं है- ऐश-ओ-आराम की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं के आगे। वह मौसी का लड़का कवि की दृष्टि में स्वार्थ का पुतला- ‘सपरेटा' है। पोथियों के गहन ज्ञानकोश और विदेशी विचारों का वजनदार पांडित्य यहाँ मदद करने में सर्वथा असमर्थ है। महानगरों में दूध के नाम पर सपरेटा इस्तेमाल करने के लिए अभिशप्त शायद ही जानते हों कि यह सपरेटा है क्या? वह सपरेटा जो आधुनिक जीवन का सारतत्व है। विकास का पर्याय है। उपलिब्ध की पराकाष्ठा है। जीवन का श्रेय है।
बुद्धिनाथ मिश्र के गीतों की सबसे बड़ी खासियत यही है कि उनके पास अपनी ज़मीन का मुहावरा है- सार्थक और रससिद्ध। तभी उनका ग्राम्य संस्कृति के प्रति तीव्र अनुराग सहज प्रफुल्लित संवेग में अभिव्यक्त होता है। अपने इस अनुराग को कवि अनेक भावभूमियों पर सहज सम्मान के साथ बेख़ौफ़- बेलौस जाहिर करता है। इसलिए कि ये मुहब्बत का मुआमला है। जो है, सो है। अंधविश्वास नहीं, आस्था। समर्पण। प्रार्थना। अपने ही अंतःकरण में उपस्थित अंतर्यामी के प्रति- 'नाथ छिपे रहते हो वर्ना हममें, तुममें क्या अंतर है?' सो यह चंदन वन की कसक मिटती नहीं है। वह है भी नहीं मिटाने के लिए। उसमें जिंदगी के चरम सौंदर्य की सुवास सिन्नहित है, जिसके आगे हर भौतिक प्राप्ति और विपत्ति असहाय है- 'सिर्फ सोने से सजाई देह मैंने/ आज तक/ आज मुझको फूल पत्तों से सजाने दो इसे।’
बुद्धिनाथ मिश्र की गीत यात्रा कोई तीन दशकों में सौम्य गति से आलोड़ित- आंदोलित और उद्वेलित करते हुए अनुरक्त सौंदर्य की दीपशिखा की तरह प्रज्ज्वलित है। वह जीवन के व्याकरण को नहीं झुठलाता, इसलिए भाषा के भ्रम में तुतलाने की सजा भोगने से बच गया। दर्पण की सत्ता को झुठलाने का दोषी नहीं बनना पड़ा। वह आक्रोशित हुआ- 'कितने अन्तर्विरोध झेलकर, संधपित्र लिखें नदी के कछार!' इसलिए अपनी पहचान खोकर, अपनी निजता को दूसरों के विवेक के हाथों सौंपकर कृतकृत्य नहीं हो सका। इसे प्रत्यावर्तन कहेंगे?- कहिए। लेकिन क्या करें मजबूरी है- 'यह शहर आदी नहीं है गोलियों की नींद का/ आज फिर से लोरियाँ गाकर सुलाने दो इसे।’ दरअसल, यही अनुरागमय आकर्षण उनके गीतों की जीवन्तता है जो नई कविता के चोले में भी अपनी पक्षधरता पर कायम रहती है।
बुद्धिनाथ मिश्र उन समर्थ गीतकारों में हैं जिनकी पहचान संगीतात्मक धवन्यात्मकता से कविता का अविराम सम्बन्ध स्वीकार कर ही की जा सकती है। यह लोक गीत-संगीत की परम्परा है। यह फटे कलेजा गीत गाने की मस्ती है। यह नाम और नामा की ख्वाहिश नहीं है। यह आत्मलीनता की पराकाष्ठा का संधन है।
इसलिए ख़ाक़सार को अंत में यूँ भी लगता है कि पिछले पच्चीस साल के दौरान लिखे गये बुद्धिनाथ मिश्र के गीतों को गुनगुनाते हुए आस्वाद के धरातल पर अभी बहुत कुछ पाया जाना बाकी है जो प्रतीति की हदों में आते-आते छूट-छूट जाता है, सो हमने भी- 'कर लिया मैंने पुलक कर स्मरण तुमको/ पाप है या पुण्य, जाने राम।’ पर यह जरूर है कि इन गीतों को गुनगुनाते हुए- 'बारंम्बार तुममें जिया मैंने'- जिसका आत्मविस्तार कवि भागवत के अभिराम पृष्ठ जैसा आलोकित पाता है। यह सहमति- असहमति से परे समर्पण की आत्मलीनता का आग्रह है।
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आलेख
गीतराग के यशस्वी गायक बुद्धिनाथ मिश्र
करुणाशंकर उपाध्याय
बुद्धिनाथ मिश्रजी हिंदी नवगीत विध के शिखर गीतकारों में से हैं। आप हिंदी की आर्ष परम्परा में निष्ठा रखने वाले गीतराग के यशस्वी गायक हैं। आपने गीत एवं नवगीत को साहित्य और मंच दोनों ही क्षेत्रों में अपेक्षित प्रतिष्ठा दिलाई। आपकी गीत विध के क्षेत्र में लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि वीनस जैसी प्रतिष्ठित कंपनी से ‘काव्यमाला' और ‘जाल फेंक रे मछेरे' का कैसेट आपके खनकते स्वर में जनमन को रोमांचित कर रहा है। आप उन विरल गीतकारों में से हैं जिनको गीतविध का सिद्धांत पक्ष भी भली-भाँति मालूम है। संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी और मैथिली भाषाओं के ज्ञान और संस्कार से आपके गीतकार का सुरीला व्यक्तित्व निर्मित हुआ है। आपका अध्ययन आपके गीतकार व्यक्तित्व को प्रामाणिकता एवं स्वीकार्यता प्रदान करता है। आपने भारत की जातीय कविता के स्वरूप पर विचार करते हुए लिखा है- 'छंद में ढलने के बाद भी कविता को अपनी प्राणवत्ता सिद्ध करने के लिए लंबे अरसे तक वक़्त के तेज़ाब से गुज़रना होता है। कोई जरूरी नहीं कि जिस काव्य के जन्म के समय सारे नगर में बधैया बजे, वह एकाध दशक बाद भी जीवित रहे। इसके विपरीत माँ की कोख से ऐसी भी कविता उत्पन्न होती है, जिसकी क्षीण काया को देखकर चिंतातुर माँ टोटम के तौर पर ‘मरनी' नाम रख देती है और समय का फेर यह कि वह ‘मरनी' कविता ही बाद में काल के वक्ष पर विजय पताका फहरा देती है। वक्त का तेज़ाब दोषयुक्त को लील जाता है और दोषमुक्त को कालजयी बना देता है। इस दृष्टि से आज के काव्य संग्रहों को जब देखता हूँ तो या तो बाज़ार में सोने के भाव बिक रहे स्वर्ण अयस्क दिखाई देते हैं या वनौषधयिों की धूप छेंक रही लैंटाना की झाड़ियाँ। शानदार लेबल और आक्रामक प्रचार कुछ देर तक लोगों को भ्रमित कर सकते हैं, मगर सतोगुण अपनी तेज, अपनी सुगंध से पहचान बनाता है। इसीलिए हजारों वर्षों की हमारी )षि-परम्परा पूषन से सत्य का आवरण हटाने का आग्रह करती है- हिरण्मयेन पात्रोण सत्यस्य पिहिंत मुखम्। तत्त्वं पूषन् अपावृणु। गीत एक वनौषिध है, जिसके हक की सारी धूप नई कविता की झाड़ियाँ ले जा रही हैं। कविता का मूल्यांकन उसके निर्माता के महात्म्य के अनुसार होने लगा है।’ इस तरह बुद्धिनाथ मिश्रजी के मन में हिंदी समीक्षकों के प्रति एक विशिष्ट क्षोभ का भाव भी है, क्योंकि तथाकथित समीक्षकों ने गीत और नवगीत विध के प्रति या तो उपेक्षा बरती है अथवा उसे हाशिये पर धकेलने का कार्य किया है। उसका सम्यक मूल्यांकन नहीं किया है।
‘शिखरिणी' बुद्धिनाथ मिश्रजी का नवीनतम गीत संकलन है जिसमें 102 गीत संकलित हैं। इन गीतों को एक बारगी देखने से लगता है कि मानो आज के तेज, संघर्षमय और भौतिक परिवेश से ऊबे हुए मनुष्य की प्रकृति की सुखद और रमणीय छाया की भाँति आनंद विश्रांति एवं उत्फुल्लता से ओत-प्रोत गोद मिल गई हो जिनके बीच मानव मन धरती के कलह-कोलाहल से दूर जाकर नये सिरे से ताजगी प्राप्त कर सकता है। शिखरिणी के गीत सामवेद की भाषा में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित गीतों के समुच्चय हैं। इन गीतों में सरस्वती की व्यथा-कथा, जमुन जल मेघ का पार्थिव सौन्दर्य, कोयल की स्तब्धता का सार्थक रूपायन देखने में आता है। कवि लोक-जीवन, ग्रामीण-परिवेश और प्रकृति के सर्जनात्मक रूप को लेकर गहराइयों तक प्रभावित है, जिसके चलते वह शहरों के सांस्कृतिक क्षरण और उबाऊ वातावरण से मुक्त होकर गाँव के पंछी, फूटते हुए धन, आकाशदीप, आर्द्रा नक्षत्र की पुरवैया, उत्तरी बिहार की बागमती नदी में आई बाढ़, पहाड़ी हवा और इस धरित्री के सौंदर्य पर मुग्ध होकर उन सब का मनोरम चित्र खींचता है। कवि प्रकृति की इंद्रधनुषी छटा, उसकी विविध भंगिमाओं तथा पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश का पूरी तल्लीनता के साथ चित्र उकेरता है। इस गीतकार का ‘जाल फेंक रे मछेरे' शीर्षक गीत काव्य मंचों से बहुत प्रतिष्ठा पाता रहा है और मिश्रजी का मधुर स्वर, सौम्य और )जु व्यक्तित्व, उसे और भी ज्यादा सम्मोहक बनाकर प्रस्तुत करता रहा है। इसकी कतिपय पंक्तियां दर्शनीय हैं- 'एक बार और जाल फेंक रे मछेरे/ जाने किस मछली में, बंधन की चाह हो।’ गीत मंचों पर इतना लोकप्रिय रहा कि बहुत सारे युवा कवियों ने इसकी पैरोडी भी बना डाली।
मिश्रजी के गीत भारतवर्ष की गतिशील, लोकोन्मुख परंपरा के स्वर संभार हैं, जो इस देश की प्रकृति, नदी एवं संस्कृति को पूरी उत्सवधर्मिता के साथ प्रस्तुत करते हैं। इन गीतों में जहाँ समकालीन जीवन की विसंगतियों, पर्यावरण की समस्याओं, ऐतिहासिक उपलब्धयिों और पौराणिक प्रतीकों पर सार्थक लेखनी चलाई गई है, वहीं उसमें गहन मानवीय सरोकार, एकांतिक प्रणय के आनंदकारी क्षण, प्रेम की टीस एवं सांस्कृतिक अनुराग की बड़ी ही आत्मीय एवं तरल प्रस्तुति भी हुई है। इन गीतों की भाषा सर्वत्र अर्थपूर्ण है, बहुलार्थी भी है। कवि के प्रतीकों का सटीक प्रयोग एवं बिम्बों के सम्यक् नियोजन के द्वारा इन गीतों को जो भव्यता प्रदान की है उसके चलते ये गीत समकालीन नवगीत विध में अमर हो गये हैं। इन गीतों का कलात्मक सौष्ठव तथा आंतरिक सौंदर्य बुद्धिनाथ मिश्र को हिंदी नवगीत में विशिष्ट पहचान दिलाता है।
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