आदमखोर (कहानी संकलन) संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि' - दिनेश पाठक 'शशि' की कहानी : एक और अभिमन्यु

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कहानी संग्रह आदमखोर (दहेज विषयक कहानियाँ) संपादक डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’ संस्करण : 2011 मूल्य : 150 प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन विवेक व...

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कहानी संग्रह

आदमखोर

(दहेज विषयक कहानियाँ)

संपादक

डॉ0 दिनेश पाठक ‘शशि’

संस्करण : 2011

मूल्य : 150

प्रकाशन : जाह्नवी प्रकाशन

विवेक विहार,

शाहदरा दिल्ली-32

शब्द संयोजन : सागर कम्प्यूटर्स, मथुरा

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एक और अभिमन्यु

डॉ. दिनेश पाठक ‘शशि’

उसे लगा कि थोड़ी देर में उसके सारे शरीर का खून खुद-ब-खुद निचुड़ जायेगा और वह हड्डियों का कंकाल मात्र रह जायेगा। कैसे दिखाएगा वह समाज में अब मुँह, और क्या बताएगा लोगों को। सब थू-थू नहीं करेंगे क्या? यही सोच-सोचकर उसके चेहरे का रंग पतझड़ के पत्तों-सा पीला पड़ता जा रहा है। वह सोच-सोचकर हैरान है कि समय कितना बदल गया है।

पुत्री ने जैसे ही सोलह वसन्त पार किए, उनके लिए सुयोग्य वर की तलाश शुरु कर दी थी उसने। सुराही-सी गर्दन, तोते-सी पतली नाक और चंचल हिरनी-सी आँखों वाली गोरी-चिट्टी अपनी पुत्री की ओर एक नजर उठाकर जब वह देखता तो उसे लगता-भला इतनी सुन्दर पुत्री के विवाह में क्या अड़चन आयेगी। जिसे भी चुनकर एक बार लायेगा, वही उसकी पुत्री को देख खुश हो जायेगा। और बस, पुत्री का विवाह कर वह दायित्व से मुक्त हो जायेगा।

नारी-उत्थान एवं दहेज-विरोधी संस्था का सचिव होने के कारण, वह अब तक जाने कितने सामाजिक उत्थान के कार्य करा चुका था और कितनी ही गरीब, बेसहारा युवतियों के विवाह भी बिना किसी दान-दहेज के करा चुका था। अतः उसे गर्व था कि वह अब तक इतना नाम कमा चुका है कि कोई उसकी बात नहीं टाल सकेगा।

दहेज प्रथा के विरोध में जाने कितने भाषण वह अब तक दे चुका था तो नारी-उत्थान के कितने ही कार्यक्रमों का संचालन भी कर चुका था। जहाँ भी जाता, लोग जिन्दाबाद के नारे लगाना शुरु कर देते। ऐसे में उसे लगता कि वह बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति है। वह प्रसन्न हो उठता और मन में फूला न समाता।

पर उसकी यह प्रसन्नता अधिक दिन न टिक सकी, हवा-भरे गुब्बारे में पिन चुभो दी हो जैसे। पुत्री के सोलह वसन्त पूरे होते-होते उसने सुयोग्य वर की तलाश शुरु की थी। बहुत सारे परिचित हैं, उन्हीं में किसी के योग्य पुत्र को चुन वह हाथ पीले कर देगा। सोचकर सबसे पहले वह गंगाप्रसाद जी के घर पहुँचा। गंगाप्रसाद जी उसके घनिष्ठ मित्र और सहकर्मियों में से थे तथा समाज-सुधारक कार्यक्रमों में अग्रणी रहा करते थे।

गंगाप्रसाद जी उसके घर बहुत बार आ चुके थे। उनसे घर का कोई राज छिपा न था। जब उसने अपनी पुत्री सीमा से उनके पुत्र राहुल के सम्बन्ध में बात की तो गंगा प्रसाद जी एकदम से पैंतरा बदल गये-‘‘वह तो सब ठीक है, रामनाथ। सीमा बिटिया को मैंने अच्छी तरह देखा है और कोई कमी नजर नहीं आई उसमें मुझे। पर..........।

‘‘पर की गुंजाइश फिर कहाँ पैदा होती है, गंगाप्रसाद जी?’’

‘‘दसअसल, आप गलत समझ गए, रामनाथ जी। मेरा आशय था कि मैं आपसे ‘हाँ’ कहूँ, उससे पहले राहुल की राय भी जान ली जाए तो क्या हानि है?’’

‘‘ओहो, मैं तो डर ही गया था, जाने क्या सोचकर ‘पर’ कहा है आपने। लेकिन इसमें क्या बुराई है? पूछकर देखो राहुल से। कहते हैं न कि जब पिता के जूते में पुत्र का पैर आने लगे तो पुत्र के साथ मित्रवत् व्यवहार करना चाहिए। और फिर हम लोग ठहरे समाज-सेवक। बच्चों पर भी अपनी बात थोपना उचित नहीं समझते। क्यों गंगाप्रसाद जी?’’

‘‘हाँ, यही तो मैं भी कह रहा था।’’ मुस्कराते हुए उन्होंने राहुल को आवाज दी।

‘‘पिताजी, राहुल भैया घर पर नहीं हैं। कॉलेज से नहीं आए अभी।’’ नन्हीं अंकिता ने अंदर से ही आवाज दी।

‘‘कोई बात नहीं, आप विचार कर लीजिएगा। मैं फिर आकर पूछ लूंगा।’’ उठते हुए उसने कहा तो गंगाप्रसाद जी उसे दरवाजे तक आकर विदा कर गए।

तीसरे दिन ही उनका उत्तर आ गया था-‘‘राहुल ने कहा है कि वह तो सीमा को शुरु से ही बहन मानता है, अतः वहाँ शादी नहीं कर सकता।’’

उसके बाद वह दूसरे मित्र सहदेव के यहाँ गया था। वहाँ भी कुछ-कुछ उसी तरह का मिलता-जुलता-सा उत्तर मिला था तो उसे आश्चर्य सा हुआ। उसके बाद तो दहेज-विरोधी एवं नारी-उत्थान संस्था से जुड़े लगभग सभी मित्रों-परिचितों से उसे लगभग एक-जैसा ही उत्तर मिलता; जैसे हर जगह एक ही आवाज का कैसेट पहुँंचा दिया हो किसी ने। याकि पुराने रिकार्ड प्लेयर की सुई, रिकार्ड के एक ही स्थान पर अटक-अटककर एक ही वाक्य दुहरा रही हो बार-बार।

कुंठित मन लिये उसने सभी परिचितों, मित्रों और संस्था से जुड़े लोगों को भाड़ में झोंक, अन्य ही जगहों पर तलाश शुरु की। पर ये क्या! जो लोग सीमा को देखने आते वे देखकर पसन्द भी कर लेते, पर उसे कुछ दिन बाद ही अपने यहाँ से किसी-न-किसी माध्यम से मना करवा देते तो उसे लगता ये सारा ब्रह्माण्ड तेजी के साथ घूमने लगा है जिसके घूर्णन से उसका सिर चकरा रहा है।

ऐसी सुन्दर बेटी, जिसके रूप-गुणों पर उसे नाज था, आज बाईस बसन्त पार कर चुकी है। यानी पूरे छह वर्ष के अथक प्रयास और भाग-दौड़ के बाबजूद वह जहाँ से चला था वहीं लौटकर आ गया है आज। यानी उसके द्वारा किया गया कार्य शून्य हुआ। शून्य।

इतना बड़ा समाज-सेवक, जिसके नाम की चारों ओर तूती बोलती थी, जिसने जाने कितने ही असहाय, गरीबों के लड़के-लड़कियों के विवाह बिना दहेज के कराए थे; आज वही व्यक्ति गत छह वर्षों से जूते चटकाते-चटकाते हताश हो चला है, पर इकलौती पुत्री के लिए योग्य वर न खोज सका।

उसे लगने लगा कि इसमें कुछ राज है। शायद उसके परिचित ही मिलकर उसके साथ षड्यन्त्र रच रहे हैं। उसे कदम-कदम पर अब कुछ-न-कुछ राज छिपा लगता। क्यों, आखिर क्यों नहीं हो पा रही उसकी बेटी की शादी?

उसे लगा कि बेटी की शादी न हो पाने और उसके दहेज-विरोधी संस्था का सचिव होने के बीच कुछ सामंजस्य है शायद। जहाँ-जहाँ भी वह गया, लोगों ने बड़े आदर-भाव के साथ उसे बिठाया। उसका स्वागत किया। हाल-चाल पूछे। संस्था की प्रगति के बारे में जानकारी हासिल की। पर जब वह अपनी पुत्री के विवाह की बात करता तो लोग कन्नी-सी काटने लगे।

‘‘मुझे आपकी पुत्री पसन्द है। मैं उससे शादी करने को तैयार हूँ।’’ आगन्तुक युवक के मुँह से यह वाक्य सुन उसे लगा कि तेज लू की दोपहरी में किसी ने मीठे शर्बत का गिलास थमा दिया हो उसे और नीम की शीतल छाया में बैठाकर कह रहा हो कि इसे पी लो।

वह अपनी प्रसन्नता को संभाल भी न पाया था कि आगन्तुक के अगले वाक्य ने आसमान में उछालने के बाद क्षणभर में उसे जमीन पर ला पटका-

‘‘आपका एस्टीमेट क्या रहेगा? यानी आप कितना दहेज देंगे?’’

सुनकर उसका खून खौल उठा और क्रोध से उसकी आँखें लाल हो उठीं। इसकी यह मजाल कि एक समाज-सेवक से ऐसी बातें करे, जिनका वह पूरी उम्र विरोध करता रहा है! अपनी पुत्री के लिए अब तक की आदर्शवादिता को ढोंग सिद्ध कर दे! यानि कि ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की कहावत को चरितार्थ करे।

लाल-लाल आँखों से उसने आगन्तुक युवक को घूरा तो वह सहमा नहीं, डरा भी नहीं; बल्कि उसकी लाल-लाल आँखों में, उसी दृढ़ता से घूरते हुए उसने जो कहा उसे सुनकर लगा कि कड़वा सच बोलने वाले आगन्तुक युवक के आगे वह अभी दूध-पीता नादान बच्चा है और वह युवक बहुत बड़ा बुजुर्ग।

‘‘ठीक है, मत बताइए, पर इतना याद रखिए-अभी तो बाईस वर्ष ही बीते हैं सीमा के। ऐसा न हो कि आपके आदर्शों की बलि उसकी सारी उम्र ही चढ़ जाए।’’ वापस जाने के लिए मुड़ते हुए उसने पूछा-

‘‘इतने वर्षों में आज तक आप जहाँ-जहाँ गए, क्या सभी लड़के सीमा को बहन ही मानते थे? या कुछ कमी थी सीमा में, जो अभी तक शादी नहीं हो पाई? जानते हैं क्यों, क्योंकि लोग आपके समाज-सेवक के चोले से डरते हैं। वे जानते हैं कि आप उनके लड़कों को मुफ्त में छीन लेंगे। खुलकर आपसे मांग सकें, इतनी हिम्मत जुटाकर समाज में बदनाम क्यों होने लगे वे।’’

आँखों में आँखें डालकर युवक ने एक-बार फिर से उसे घूरा और फिर पीछे मुड़कर जाने लगा।

उसे लगा कि अभी-अभी किसी ने सीसा गर्म करके उसके कानों में उड़ेल दिया हो। सच है, सत्य कितना कड़वा होता है।

परत-दर-परत, एक-एक बात उसकी समझ में आने लगी छह वर्ष की भाग-दौड़ के बावजूद सीमा की शादी न हो पाने का कारण भी, लोगों द्वारा दिया जाने वाला आदर और उसके बाद कन्नी काट जाने का कारण भी।

चक्रव्यूह में घुस जाना तो माँ के पेट से ही सीख गया था अभिमन्यु। पर उससे निकल पाना?

उसे लगा कि आज फिर से एक अभिमन्यु चक्रव्यूह में फँस गया है, जहाँ से निकल पाना आज भी उसके लिए उतना ही असम्भव लग रहा है, जितना उस समय लगा था। ’’’

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28, सारंग विहार,

पोस्ट-रिफायनरी नगर, मथुरा-201006

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COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. s.k. goyal4:06 pm

    samaj ki sacchi vastvikta hai yeh. Bahoot achaa likha.

    जवाब देंहटाएं
  2. पाठक जी आप बिलकुल सही लिखते है ..समाज में ऐसा ही होता है ..हर कोई बात तो ऊँची करता है लेकिन मानता कोई नहीं जो मानता है वो इस कहानी के पिता की तरह च्क्रविहू में फंस जाता है

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: आदमखोर (कहानी संकलन) संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि' - दिनेश पाठक 'शशि' की कहानी : एक और अभिमन्यु
आदमखोर (कहानी संकलन) संपादक - डॉ. दिनेश पाठक 'शशि' - दिनेश पाठक 'शशि' की कहानी : एक और अभिमन्यु
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