दिनेश पाठक 'शशि' का व्यंग्य - जाही विधि राखे राम...

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‘‘जाही विधि राखे राम, ताही विधि रहिए’’ वाक्य को तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में जिस सन्दर्भ में कहा है उसमें प्राणी मात्र की एक निरीहता ही ...

‘‘जाही विधि राखे राम, ताही विधि रहिए’’ वाक्य को तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में जिस सन्दर्भ में कहा है उसमें प्राणी मात्र की एक निरीहता ही प्रकट होती है किन्तु यदि इसकी गहराई में उतरा जाए तो सभी प्राणी हजार झंझटों से सहज ही बच सकते हैं।

जाही विधि राखे राम,राम यानि आपका संरक्षक, आपका रोजगार दाता, आपका पड़ोसी या फिर आपका एक्स वाई जेड...

ये एक ऐसी पंक्ति है जो आपको कदम-कदम पर संरक्षा प्रदान करेगी,आपके अशाान्त मन को शीतलता प्रदान करेगी और आपको अनेक झंझटों से मुक्ति दिला देगी। इस बात के एक नहीं अनेक उदाहरण आपके आस-पास ही नहीं चहुँ ओर बिखरे पड़े हैं।

अब देखिए, आपने अपने घर के बाहर दीवार के सहारे बार-बार उग आने वाली घास एवं गंदगी से निजात पाने के लिए अपने घर के सामने पक्का फर्स बनवा दिया। ‘‘वाह क्या बात है, बहुत सुन्दर लग रहा है अब तो घर के सामने’’, देखने वालों ने प्रशंसा की तो आपकी आत्मा भी बाग-बाग हो उठी। कुछ दिन बाद आपने अपने घर के सामने पक्के बनवाए फर्स पर अपनी मोटर साईकिल खड़ी करने का आनंद भी उठाना शुरु कर दिया। मगर आपकी आत्मा में एक चीत्कार तब उठने लगी जब आपके पड़ोसी श्री लट्ठछाप चौधरी साहब ने अपना कीच में सना बदबूदार ट्रैक्टर आपके सामने के फर्स पर खड़ा करना शुरु कर दिया। ट्रैक्टर खड़ा होने पर इतनी जगह भी नहीं बची कि आपकी मोटर साईकिल भी खड़ी हो सके। साथ ही घर के आगे गंदगी का साम्राज्य स्थापित हुआ सो अलग से।

अब आप क्या करेंगे यदि पड़ोसी समझदार हुए तो आपकी बात रखने के लिए आगे से ट्रैक्टर वहाँ नहीं खड़ा करेंगे और यदि पड़ोसी को पंचायत का फैसला सिर माथे पै पर ‘‘पनारों वही गिरैगौ’’ वाली कहावत पसंद हो तो....तो फिर आप अपना संतुलन खोना शुरु कर देंगे। अपने मुखारबिन्द से यदि गालियाँ उच्चारित करेंगे तो पड़ोसी धर्म की और अधिक हानि होगी और फिर पड़ोसी को छींक आने या जुकाम होने पर भी आपका ही हाथ नजर आएगा। यदि आप पड़ोसी की तुलना में धन-बल में 19 हुए तो पड़ोसी आपको अनेक बहानों से सताने में कोई कसर बाकी नहीं रखेगा। फिर आपका रक्तचाप उच्च हो जाएगा। आप समय कुसमय डाक्टर, वैद्यों के चक्कर लगाना शुरु कर देंगे और फिर किसी दिन अचानक ही ऊपर वारे को प्यारे हो जाऐंगे। तो भई, ऐसे में सारी विषमताओं से बचने का एक ही सीधा सा सरल सा उपाय है- मन में तसल्ली कि‘‘ जाही विधि राखे पड़ोसी, ताहि विधि रहिए’’ , इस वाक्य के सोचते ही देखिए दिल को कैसी शीतलता एवं शान्ति प्राप्त होती है। और यदि ना भी हो तो आप पड़ोसी का कौन सा ट्रैक्टर उखाड़ लेंगे।

पड़ोसी धर्म पर बात चली तो बताता चलूँ कि इस पृथ्वी लोक पर पड़ोसियों की जितनी वैरायटी प्रभु ने पैदा करके भेजी हैं उतनी तो शायद ही किसी की हों। भाँति-भाँति के पड़ोसी भाँति-भाँति की सोच।

अब देखिए अपने शर्मा जी को ही देखिए। बेचारे इतने भोले और इतने भले हैं कि बस पूछो ही मत....हर समय अपने अड़ोसी-पड़ोसी कुठारसिंह और फावड़ासिंह का ख्याल रखते हैं और इसलिए अपने किचिन-गार्डन में उगी साग-सब्जियाँ तोड़-तोड़ कर पड़ोसियों को बांटते रहते हैं । कभी लौकी, कभी तोरई तो कभी पालक और मैथी। लेकिन कुठारसिंह और फावड़ासिंह की मेहरबानी देखिए कि कुछ दिन तक शर्मा जी ने इनके यहाँ ये सब चीजें नहीं पहुँचाईं तो उनकी पत्नियों ने एक दिन शर्मा जी के किचिन गार्डन में घुसकर लौकी-तोरई आदि की सारी बेल ही उखाड़ फैंकी कहते हुए कि ‘‘इनपें जब फल ही नाँय आय रहे तो काहे कूँ जगह घेर रखी है बेकार।’’

शाम को शर्मा जी ने अपने बच्चों की चिल्ल पौं और किचिन गार्डन की सफाई देखी तो उफन पड़े पर पड़ोसी कुठार सिंह व फावड़ा सिंह के कुठार और फावड़े के स्मरण ने उन्हें सद्बुद्धि प्रदान की और वे ये सोचकर तसल्ली कर गए कि चलो देर सबेर किचिन गार्डन की सफाई तो करनी ही थी। पड़ोसियों ने ही हाथ बंटा दिया। कितने अच्छे पड़ोसी है और फिर मनुष्य की क्या चलती है। जाही विधि राखे....

सेठ मुलायम के पड़ोसी कठोरसिंह ने अपने घर के सामने, घर निर्माण के दौरान बचे अध्दा-रोड़ा और कूड़े- कचरे को इकट्ठा करके सेठ मुलायम के घर के सामने डलवा दिया। देखकर सेठ मुलायम व उनके बीवी बच्चे पहले तो खूब तिलमिलाए पर कठोर सिंह के बन्दूकछाप व्यवहार को स्मरण कर उनकी झुरझुरी छूटने लगी तो उन्होंने अपने मन और बच्चों को समझा दिया- ‘‘अरे, क्यों शोर करते हो, देखो घर के आगे अब इतना ऊँचा हो गया है कि अपनी गाड़ी जिसे घर ऊँचा होने के कारण बाहर असुरक्षित तरीके से रखना पड़ता था अब घर के अन्दर पोर्च में खड़ी हो जाया करेगी।’’

खुद गिट्टी मिट्टी डलवाते तो बेकार में ही पैसा खर्च करना पड़ता। वाह! ऊपर वारे तेरी बड़ी मेहरबानी। जाही विधि राखे.... सोचते ही मुलायम सेठ के सीने में पिपरमेंट जैसी ठण्डक पड़ गई।

एक और किस्सा आपको सुनाता हूँ, कुछ विभागों में जितने चतुर-चालाक होते हैं अधिकारी, उनसे भी अधिक चंट- चालाक हो जाते हैं उनके मातहत। रामलखनवा जब दूर-दराज के अपने इलाके से इस विभाग में नौकरी करने आया तो बेचारा बहुत ही सीधा-सादा प्राणी था। किसी के भी छल को समझता ही नहीं था। उसके सरल व्यवहार को देखकर उसके बॉस मल्होत्रा जी ने उसे अपने घर पर काम करने के लिए रख लिया। अजी वेतन पर थोड़े ही, वैसे ही, वैसे ही याने वैसे ही, विभागीय साहब का विभागीय घरेलू कर्मचारी।

अब रामलखनवा सुबह ही पाँच बजे साहब के बंगला पर बाँग देने लगा और सिंक में पड़े रातभर के उनके जूठे बर्तनों को धो-पौंछ कर रखने के बाद पूरे बंगले में झाड़ू-पौछा भी लगाने लगा। फिर मेमसाब द्वारा बनाऐ खाने को टिफिन में सजा कर साहब के साथ साइट पर पहुँच जाता। कभी-कभार दोपहर में साब के बीबी- बच्चों के कपड़े भी धोने लगा। साब इसके एवज में उसको खूब यात्रा-भत्ता आदि दिलवाते।

मल्होत्रा साहब ही नहीं उनकी बीबी व बच्चे भी रामलखनवा की सेवा से आनंदित थे। ये बात रामलखनवा को भी महसूस हो गई थी सो वह भी खूब दबा कर भत्ता भरता। साब का दौरा जहाँ-जहाँ भी होता, रामलखनवा जाए या ना जाए उसका भी भत्ता जरूर भरा जाता और इस तरह रामलखनवा और साब दोनों ने मिलकर विभाग की खूब ही सेवा की। इतना ही नहीं साइट पर दिन-रात रगड़े जा रहे कर्मचारियों के प्रशंसनीय कार्य को देखने व समझने के लिए तो साब को अन्य मातहतों, बाबू आदि की आँखों का च़श्मा पहनना पड़ता, पर रामलखनवा के प्रशंसात्मक कार्य के लिए उन्होंने विभाग से अनेक बार पुरस्कार दिलवाए।

धीरे-धीरे रामलखनवा साब और मेमसाब की संगति में और भी बहुत सी चतुराइयाँ सीख गया था। सो उसने होली पर अपने गांव घर जाने की योजना बनाई लेकिन रामलखनवा इतना भी जान गया था कि साब, मेमसाब और बच्चे, उसकी बैसाखियों पर इतने निर्भर हो गए हैं कि वे उसे दो दिन की छुट्टी भी मु़श्किल से देंगे।

फिर क्या किया जाए

रामलखनवा का दिमाग अब लोटपोट के चाचा चौधरी की तरह चलने लगा था। सो उसने एक तरीका खोज ही लिया उसने दो दिन के लिए काम करने हेतु अपने सहकर्मी रामखिलावनवा को पटाया और मेमसाब के पास ले गया। रोनी सी सूरत बनाई और मेमसाब से दो दिन की छुट्टी लेने की बात कही।

‘‘क्यों, क्यों लखनवा, दो दिन की छुट्टी का क्या करोगे’- मेमसाब को जैसे 440 वोल्ट का झटका लगा हो। उनकी आँखो के सामने घर के वे तमाम काम जिन्हें रामलखनवा करता है, की सोचते ही अंधेरा छाने लगा। मेमसाब के मन की द़शा अन्दर ही अन्दर समझते हुए रामलखनवा ने अपनी मजबूरी बताई-

‘‘बात जि है न मेमसाब् कें घरवारी बीमार चलि रही है। अब आप जानौ हो मेमसाब के गांमुन में वैद्य, डाक्टर तो होवे नांय या तें मैं आपतें छुट्टी लें के जि गयौ और घरवारी कूं लैं के जि आयौ। हियां देखभाल हूँ ठीक है जावेगी घरवारी की। और ठीक है कें मेमसाब आपके औरु कामनु में हूँ हाथ बटाय दौ करैगी।

‘‘अरे वाह! तू तो बहुत ही चतुर हो गया है रे रामलखनवा’’

मेमसाब के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर रामलखनवा मन ही मन प्रमुदित हुआ।

पर मेमसाब को अचानक बिच्छू ने डंक मारा हो, वो चीख पड़ी-‘‘वो तो सब ठीक है, पर इन दो दिनों में घर का सारा काम काज कौन करेगा’

रामलखनवा इसके लिए पहले से ही तैयार होकर गया था सो उसने साथ लेकर आए रामखिलावन की ओर इशारा कर दिया-

मेमसाब हम आपकी परेशानी जानै है याहीं तें जा रामखिलावन कूं अपने संग लात रहे। द्वै दिन जि आपके सब काम करेगौ।’’

अंधे को क्या चाहिए, दो आँखे, मेमसाब ने रामलखनवा की छुट्टी की स्वीकृति पर अपनी मोहर लगा दी पर साथ में हिदायत भी दे दी कि साब को जरूर बता देना।

वैसे तो होम मिनिस्टर के अप्रूवल के बाद अच्छे-अच्छे अफसरों की हिम्मत नहीं होती कि वे उसे नकार दें ये बात रामलखनवा इतने दिन में खूब जान गया था। फिर भी उसने साब से भी दो दिन की छुट्टी की बात बता दी। साब ने छुट्टी अप्रूव्ड करने से पूर्व रामलखनवा को एक बार फिर से चेताया कि उसने मेमसाब से पूछ तो लिया है नहीं तो घर में महाभारत करा दे कहीं।

साब के अन्दर ही अन्दर डर रहे दिल की कल्पना कर रामलखनवा मुस्कराया-

‘‘जी साब, आप कौनू चिन्ता ना करी। हम मेमसाब तें पैले ही पूछि कें आवत रहे।’’

छुट्टी स्वीकृत होते ही मन में मुदित होता रामलखनवा अपने गांव चला गया। इधर रामखिलावनवा ने साब और मेमसाब की नाक में दम कर दिया। कभी साहब लोगों के घर पर उसने काम किया तो था नहीं सो घर व दफ्तर का कोई भी काम वह ठीक से नहीं कर पाया। दो दिन में ही साब और मेमसाब ने तौबा कर ली। मेमसाब होममिनिस्टर की हैसियत से साब पर बिगड़ी, साब ने भी छुट्टी पर उनके अप्रूवल की उन्हें याद दिलाई।

खैर किसी तरह दो दिन बीत गए और तीसरा दिन आते ही साब और मेमसाब ने रामलखनवा के आने का इन्तजार करना शुरू कर दिया और इसी तरह तीसरा दिन भी बीत गया पर रामलखनवा नहीं लौटा तो नहीं लौटा। अब तो साब और मेमसाब दोनों को झुंझलाहट शुरु हुई ,पर कर भी क्या सकते थे। चौथे दिन भी रामलखनवा के आने के इन्तजार में बीत गया पाँचवा भी और ऐसे करते-करते पूरे 30 दिन तक रामलखनवा नहीं लौटा। न कोई सूचना ही दी। न ही छुट्टी ही भर कर भेजी।

अब तो मेमसाब को घर के काम करने में दौरे पड़ने लगे। साब का रक्तचाप भी बढ़ गया और उन्होने रामलखनवा के आते ही उसे नौकरी से निकाल बाहर करने का ऐलान कर दिया।

इकत्तींसवे दिन रामलखनवा अपने गांव से अकेला ही लौटा और सीधा अपनी कुटिया में गया। तसल्ली से सारा सामान कुटिया में रखा और बेफिक्र हो सो रहा। दूसरे दिन दैनिक क्रियाओं से निवृत हो रामलखनवा सीधा मच्छी फाटक पहुँच गया। वहाँ से उसने तीस अंडे रखने के लिए एक सुन्दर सी टोकरी खरीदी और फिर उसमें द़ेसी मुर्गी के तीस अण्डे लगवा लिए और बस जैसे ही साब घर से दफ्तर को निकले रामलखनवा टोकरी को हाथ में लटकाए सीधा पहुँचा मेमसाब के पास।

मेमसाब के सामने पहॅुचकर एक अच्छा सा सलूट मारा फिर अण्डों की टोकरी को सामने डायनिंग टेबल पर जाकर रख दिया।

पहले तो मेमसाब को बहुत गुस्सा आया पर टोकरी की ओर देखकर उन्होंने रामलखनवा की ओर देखा। रामलखनवा उनकी आँखों के भाव को पढ़ते हुए बोल पड़ा-‘‘मेमसाब इसमें देसी मुर्गी के 30 अण्डे रहे।’’

अण्डे की टोकरी डायनिंग टेबल पर सजा कर रामलखनवा अपनी कुटिया में जाकर बेफिक्री से फिर से सो गया।

शाम को साब दफ्तर से लौटे तो डायनिंग टेबल पर बड़ी सी टोकरी में अण्डे देखकर आ़श्चर्य चकित रह गए-

‘‘अरे, आप तो शापिंग भी कर आई आज। बड़ी जल्दी।’’

‘‘मैं नहीं ये अण्डे रामलखनवा लाया है’’-मेमसाब ने रहस्य पर से पर्दा हटाया तो साब एकसाथ आ़चर्य से उछल पड़े- अच्छा! रामलखन आ गया और साब ने पिछले तीस दिनों में होम मिनिस्टर की जलालत भरी बातों का स्मरण व उसका अन्त हुआ जान राहत की सांस ली। उन्होंने रामलखनवा को उसके घर से बुलवाया।

रामलखनवा भी इसी इन्तजार में था सो दौड़ा-दौड़ा साब के सामने प़ेा हुआ।

आमना-सामना होते ही साब ने रामलखनवा को इतने दिन तक गोल हो जाने के लिए लताड़ना शुरु किया तो चतुर रामलखनवा ने बताया कि साब बात जि भई कि बूं अपना भाई है न, उसका गांव में मुर्गी फार्मवा है। हमने सोची कें अब आए हैं तो साब कूं कम से कम देसी मुर्गी के 30 अण्डे तौ लैत ही चले। अब आप ही बताओ साब, द़ेाी मुर्गी एक दिना में दैवे हू तो एक ही अण्डा है न, याही तैं हमकूं देर है गई साब।

देसी मुर्गी के अण्डों ने रामलखनवा की सारी गल्तियां माफ करा दीं। और साब ने बाबू से कहकर रामलखनवा की पिछले 30 दिन की हाजिरी सही करने का आदेश कर दिया। रामलखनवा भी अब पिछले 30 दिन में साब के दौरा नोट करने में जुट गया ताकि अपना भत्ता भर सकै।

जाही विधि राखै बॉस.......

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डॉ. दिनेश पाठक शशि

28,सारंग विहार,

मथुरा-281006

वेब साइट - www.drdineshpathakshashi.blogspot.com

drdinesh57@gmail.com

dr_dinesh_pathak@yahoo.com

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. वाह डाक्टर साहब, आपने बहुत ही उत्तम उपचार बताया तमाम प्रकार के सामाजिक रोगों से बचने का, "जाही विधि राखें पड़ोसी,ताही विधि रहिये" व्यंग पढ़ कर मजा आ गया, मै भी तुलसीदास जी की इस चौपाई पर अमल करने की सोंचने लगा हूँ.......

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  2. रचना पसंद करने के लिए धन्यवाद अवस्थी जी,

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: दिनेश पाठक 'शशि' का व्यंग्य - जाही विधि राखे राम...
दिनेश पाठक 'शशि' का व्यंग्य - जाही विधि राखे राम...
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