सात अरबवें बच्चे का जन्म खुशी का अवसर नहीं, बल्कि चिंता का सबब है. जनसंख्या विस्फोट अंतराष्ट्रीय संतुलन की लय बिगाड़ने पर आमादा है। इ...
सात अरबवें बच्चे का जन्म खुशी का अवसर नहीं, बल्कि चिंता का सबब है.
जनसंख्या विस्फोट अंतराष्ट्रीय संतुलन की लय बिगाड़ने पर आमादा है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र सात अरबवें बच्चे के जन्म को खुशी का अवसर न मानकर चिंता का सबब मान रहा है। यह विद्रूप विडंबना का ही पर्याय है कि मानव को संसाधन के रूप में देखने की संपूर्ण अवधारणा विकसित होने के बावजूद बढ़ती आबादी को बोझ, विस्फोट और संकट जैसे उलाहना भरे शब्दों से नवाजा जा रहा है। जबकि बढ़ी आबादी का संकट संसाधनों के असमान बंटवारे से उपजा है। एक मोटे अनुमान के अनुसार दुनिया में महज एक करोड़ ऐसे अमीर हैं जो दस लाख डॉलर (450 लाख रूपए) के मालिक हैं। दूसरी तरफ दुनिया में लगभग आधी आबादी मसलन 3.50 अरब लोग ऐसे हैं जो प्रतिदिन दो डॉलर (90 रूपए) से भी कम में गुजारा करने को मजबूर हैं। कुछ ऐसी ही विषंगतियों के चलते जिस 30 अक्टूबर 2011 को सात अरबवें बच्चे का जन्म हुआ, उसी दिन कुपोषित बच्चों की संख्या एक अरब को पार कर गई। बढ़ती आबादी को लेकर खाद्यान्न संकट की भयावहता दिखाई जा रही है, लेकिन हैरानी यह है कि वर्तमान में ही खाद्यान्न का जो उत्पादन हो रहा है, वह 11.5 अरब लोगों की भूख मिटाने के लिए पर्याप्त है। एक व्यक्ति को 2400 कैलोरी खाद्यान्न चाहिए, जबकि प्रति व्यक्ति उपलब्ध कैलोरी 4600 है। समस्या खाद्यान्न की नहीं उससे ईंधन बनाए जाने, उससे मांस तैयार करने उसके सड़ जाने और उसके असमान वितरण की है। यदि इन बद्तर हालातों को काबू कर लिया जाए तो विस्फोटक आबादी के उचित प्रबंधन की भी जरूरत 2070 के आस-पास तक है, इसके बाद तो आबादी विशेषज्ञों के संकेत जनसंख्या तेजी से घटने के और बूढ़ों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ने के हैं। हो सकता है तब आबादी के विमर्श का समीकरण ही उलट जाए और आबादी बढ़ाने के उपायों का विमर्श शुरू हो जाए।
आबादी के ज्ञात इतिहास में यह पहला अवसर है, जब 13 साल के बेहद छोटे कालखण्ड में दुनिया की आबादी एक अरब बढ़ गई। जबकि ईसवी सन् एक में आबादी का कुल आंकड़ा लगभग तीस कारोड़ आंका गाया था। इसके बाद अठारहवीं सदी के अंत तक विश्व की आबादी एक अरब की संख्या को भी नहीं छू पाई थी। 1804 में यह एक अरब हुई। 2 अरब होने में इसे 123 साल लगे, 3 अरब होने में 33 साल, 4 अरब होने में 14 साल, 5 अरब होने में 13 साल, 6 अरब होने में लगे महज 12 साल। इसके बाद आबादी के अनुपात में घटने का क्रम शुरू हुआ और आबादी को 6 अरब से 7 अरब होने में 13 साल लगे। भविष्य वक्ताओं का अनुमान है कि आबादी को 8 अरब होने में अब 15 साल लगेंगे और करीब 60 साल का लंबा फासला तय करके यह आबादी 9 अरब के चरम शिखर पर पहुंचेगी। संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार इस सदी के मध्य तक प्रतिवर्ष आबादी की बढ़ोत्तरी दर सात करोड़ अस्सी लाख रहेगी। इसी दर के चलते यह आबादी 2050-60 में लगभग 9 अरब 20 करोड़ हो जाएगी। वाशिंगटन भू-नीति संस्थान का दावा है कि इतनी आबादी को पेट भर खाद्यान्न मुहैया करने के लिए 16 सौ हजार वर्ग किलोमीटर अतिरिक्त कृषि रकबे की दरकार होगी। लेकिन इस दावे को वे खाद्यान्न विशेषज्ञ झुटला रहे हैं, जिनका मानना है कि वर्तमान में जितना खाद्यान्न उत्पादित हो रहा है उतना 11 अरब आबादी के लिए पर्याप्त है।
इसके बाद आबादी के घटने का सिलसिला शुरू हो जाएगा और इक्सीवीं एवं बईसवीं सदी की संधि बेला के करीब आबादी घटकर लगभग साढ़े तीन अरब रह जाएगी। लिहाजा अगले 60-70 सालों के लिए आबादी को एक ऐसे कुशल प्रबंधन की जरूरत है जिसके चलते खाद्यान्न व पेयजल की समुचित उपलब्धता तो हो ही स्वास्थ्य व अन्य बुनियादी सुविधाओं में भी वितरण की समानता परिलक्षित हो। बढ़ती आबादी के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर पर्याप्त दबाव का अनुभव ज्यादा किया जा रहा है, लेकिन यह दबाव बढ़ती आबादी के वनिस्बत एक सीमित आबादी द्वारा संसाधानों के बेहिसाब उपभोग एवं उसके दुरूपयोग के कारण भी बढ़ा है। इसे नजरअंदाज नहीं रेखांकित करने की जरूरत है।
जब जीवन भगवान भरोसे था, जन्म दर बहुत ज्यादा होने के बावजूद आबादी की रफ्तार धीमी थी। दरअसल जितनी जल्दी बच्चे पैदा होते थे, उपचार की सुविधाएं नहीं होने के कारण उतनी ही तत्परता वे मौत की गोद में समा जाते थे। बीमारी-महामारी, युद्ध और प्राकृतिक आपदाएं भी बढ़ती आबादी में बड़ी बाधाएं थीं। चौदहवीं शताब्दी में ब्यूवोनिक प्लेग जैसी महामारी ने यूरोप और चीन की एक तिहाई आबादी को चंद दिनों में निगल लिया था।
आबादी बढ़ने की निश्चिंत व व्यवस्थित शुरूआत खेतों में फसल पैदा करने के चलन से हुई। इसके बाद पूरी दुनिया में हल संस्कृति के साथ मनुष्य की मांसाहर पर निर्भरता भी कम होती चली गई। मनुष्य पशुओं से अलग होने लगा। कृषि की शुरूआत के साथ जंगलों को काटकर खेत बनाए जाने लगे और मनुष्य घर व बस्ती बनाकर बड़े समूहों में रहने लगा। खानाबदोष जिन्दगी से मुक्ति के इन उपायों ने मनुष्य के लिए खतरा भी बढ़ा दिया, लिहाजा उसने सुरक्षा के लिए आबादी बढ़ाने पर जोर दिया। इसके बावजूद आबादी में वृद्धि नियंत्रित रही। फलस्वरूप अठारहवीं सदी के अंत तक दुनिया की जनसंख्या लगभग एक अरब ही हो पाई थी।
उन्नीसवीं सदी की शुरूआत तमाम चमत्कारिक वैज्ञानिक आविष्कारों के साथ हुई। जानलेवा बीमारियों की पहचान और उनके इलाज की दवाएं खोज ली गईं। 1950 तक आते-आते चिकित्सा विज्ञान ने इतनी उपलब्धियां हासिल कर लीं कि मृत्यु दर को ही काबू में ले लिया। औसत आयु 46 से बढ़कर 70 की उम्र को पार कर गई। जन्म दर के समय होने वाली मौतों पर भी काबू पा लिया गया। दूसरी तरफ आधुनिक दौर में औद्योगिक क्रांति ने भी आबादी बढ़ाने में योगदान दिया। अनेक देशों में परस्पर व्यापार के आयात-निर्यात का सिलसिला शुरू हुआ। मुद्रा विनियम का चलन भी शुरू हो गया। इसी दौर में संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक, रेडक्रॉस और यूनिसेफ जैसी अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संस्थाएं वजूद में आईं। इन संस्थाओं ने अकाल, प्राकृतिक विपदाओं, युद्ध से प्रभावित जन समुदाओं और महामारियों की चपेट मेंं आ जाने वाले लोगों को आहार एवं स्वास्थ्यजन्य पर्याप्त सुविधाएं मुहैया कराईं। इन विपरीत हालातों पर काबू पा लेने से भी मृत्यु दर घटती चली गई। परिणामस्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी के पहले तीन दशकों में ही आबादी एक अरब से दो अरब के आंकड़े पर पहुंच गई।
यहां गौरतलब यह भी है कि आबादी की वृद्धि उन्हीं देशों में तीव्र गति से हो रही थी, जिन देशों में औद्योगीकरण और शहरीकरण तो विस्तार पा ही रहा था, स्वास्थ्य लाभ की सुविधाएं भी बेहतर थीं। तय है ये यूरोपीय और अमेरिकी देश थे। अठारहवीं शताब्दी में योरप की आबादी दो गुनी रफ्तार से बढ़ी। उत्तरी अमेरिका में तो आबादी की वृद्धि का दबाव बारह गुना बढ़ गया। इन देशों की तुलना में एशिया और अफ्रीकी देशों की आबादी योरूपीय देशों के समानांतर नहीं बढ़ी। क्योंकि वहां अभी भी न स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर थीं और न ही जीवन स्तर सुधर पाया था। लिहाजा इस समय तक आबादी विस्फोट की चिंता नहीं की गई, क्योंकि यह आबादी खासतौर से पश्चिमी देशों में बढ़ रही थी। यह चिंता तब की गई जब एशिया और अफ्रीका में आबादी का घनत्व बढ़ने लगा। इस आबादी को बढ़ते देखने का अहसास होने के बाद ही पॉल एलरिक की चर्चित किताब ‘पॉपुलेशन बम' आई। यह चिंता नस्लीय सोच की उपज थी। क्योंकि योरोपीय देश दूरदर्शी थे। लिहाजा वे जान गए कि आबादी कही भी बढ़े, उसके दबाव का असर पूरी दुनिया को झेलना होगा। इसलिए उनके दिमाग में भविष्य की चिंता थी। मौजूदा दौर में उनकी यह चिंता वाजिब जान पड़ती है। फिलहाल दुनिया के दस सर्वाधिक आबादी वाले देशों में केवल तीन विकसित देश अमेरिका, रूस और जापान शामिल हैं। दुनिया को यदि विकसित और विकासशील देशों में विभाजित करके देखें तो विकसित देशों में कुल आबादी की सिर्फ 32 फीसदी आबादी ही रहती है, जबकि विकासशील देशों में 68 फीसदी। यह औसत लगातार घट रहा है। यहां यदि संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की माने तो साल 2050 में जहां विकासशील देशों में 91 फीसदी आबादी रह रही होगी, इसके विपरीत विकसित देशों में महज 9 फीसदी। तय है आबादी में वृद्धि का 91 प्रतिशत योगदान विकासशील देशों का रहेगा। यह चुनौती खाद्यान्न, पेयजल, पेट्रोलियम पदार्थों की उपलब्धता का संकट तो बढ़ायेगी ही, बेरोजगारी, आर्थिक मंदी और पर्यावरण संरक्षण जैसे संदर्भों में भी इसका आकलन करना होगा।
हालांकि परिवार नियोजन से जुड़े सरल व सहज सुलभ उपायों ने समाज में बढ़ती मानवीय जागरूकता और सुख चैन व भोग की जिन्दगी जीने की लालसा के चलते आबादी पर काबू पाया है। नतीजतन आज विश्व की जनसंख्या महज एक प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, जबकि 1960 के दशक के अंत तक यही दर दो प्रतिशत थी। 1970 में विश्व फलक पर प्रति महिला प्रजनन दर 4.45 थी, जो दर वर्तमान में घटकर 2.45 रह गई है। ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि आगामी पांच-छह दशक के भीतर ही प्रति महिला प्रजनन दर 2.1 का लक्ष्य हासिल कर लेगी। तब आबादी के स्थिरीकरण का सिलसिला शुरू होगा और मनुष्य जीवन अपेक्षाकृत बेहतर, सुखद व वैभवपूर्ण हो जाएगा।
विडंबना यह है कि सुख और वैभव की यही स्थिति उपभोग को जन्म देती है। यह ठीक है कि आबादी कम या ज्यादा होने से प्राकृतिक संपदाओं जैसे धरा, पानी, हवा और वन पर अनुकूल अथवा प्रतिकूल असर पड़ता है। इसमें भी जनसंख्या का बड़ा समूह गौण हो जाता है और ताकतवर जनसंख्या का छोटा समूह बड़े समूह के हिस्से की प्राकृतिक संपदा पर अधिकार जमाने लगता है। बतौर उदाहरण अमेरीका में जनसंख्या का धनत्व कम है, किंतु आर्थिक उदारवादी नीतियों के चलते वह दुनिया के बड़े हिस्से का माल हड़प रहा है। उपभोग की इसी शैली के चलते अनाज से ईंधन, मांस व शराब बनाए जाने का सबसे ज्यादा चलन अमेरिका में हैं। जानकारों की माने तो 100 कैलोरी के बराबर गो-मांस तैयार करने के लिए 700 कैलोरी के बराबर अनाज खर्च होता है। इसी तरह बकरें या मुर्गियों के पालन में जितना अनाज खर्च होता है, उतना अगर सीधे खाया जाए तो वह ज्यादा भूखों की भूख मिटा सकता है। ब्रिटिश प्राणीविद जेम्स बेंजामिन का अध्ययन बताता है कि एक मुर्गा जब तक आधा किलो मांस देने लायक होता है, तब तक वह 15 किलो ग्राम अनाज खा चुका होता है यह अनाज का दुरूपयोग है। उपभोग की ऐसी ही संस्कृतियों को अमीरों द्वारा प्रोत्साहित किए जाने के कारण दुनिया में भूखे व कुपोषित लोगों की संख्या एक अरब से ज्यादा हो गई। दुनिया की एक चौथाई मसलन पौने दो अरब लोग बेघर हैं। या ऐसी दरिद्र बस्तियों में रहने को अभिशप्त हैं, जो मानव जीवन के विपरीत हैं।
उपभोग की शैली को बढ़ावा मिलते जाने तथा औद्योगीकरण व शहरीकरण के विस्तार होने जैसी वजहों से करीब 70 लाख हेक्टेयर वन प्रति वर्ष समाप्त हो रहे हैं। नतीजतन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इन गैसों को बढ़ाने में अमेरिका का योगदान अव्वल है। हालांकि अमेरिका इसका अभिशाप भी भोगने को विवश है। वहां हर साल 50 हजार लोग केवल वायु प्रदूषण के चलते मौत के आगोश में समा रहे हैं। इधर ऊर्जा संकट भी चरम पर है। ऊर्जा की 40 फीसदी जरूरतें पेट्रोलियम पदार्थों से पूरी होती हैं, जिसकी आपूर्ति लगातार घट रही है। इस कारण दुनिया अंधेरे की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। अमेरिका ने तो तेल पर कब्जे के लिए ही इराक पर हमला बोला। लीबिया में नाटों देशों का दखल इसी लक्ष्य का पर्याय था। ऊर्जा के लिए राष्ट्रों के अस्तित्व से खेलने की बजाए कारों और वातानुकूलन में जो ऊर्जा खपाई जा रही है, उस पर अंकुश लगाए जाने की कोशिशें तेज हों तो रसोई और रोशनी के लिए ऊर्जा संकट से स्थाई निजात की उम्मीद की जा सकती है।
बहरहाल अमीरी और गरीबी की लगातार बढ़ती खाई से जो सामाजिक असमानताएं उपजी हैं, उन्हें पाटने की जरूरत है। जिससे जो धरती 11 अरब लोगों की भूख के बराबर खाद्यान्न उपजा रही है, उसके असमान वितरण व दुरूपयोग का खात्मा हो। यहां छत्तीसगढ़ में बैगा आदिवासी समूह में प्रचलित उस लोक कथा का उल्लेख करना जरूरी है, जिसमें दुनिया की समूची आबादी की चिंता परिलक्षित है। बैगा आदिवासी जब पैदा हुआ तो उसे ईश्वर ने 9 गज का कपड़ा उपयोग के लिए दिया। बैगा ने ईश्वर से कहा, मुझे 6 गज कपड़ा ही पर्याप्त है। बांकी किसी अन्य जरूरतमंद को दीजिए। और उसने तीन गज कपड़ा फाड़कर ईश्वर को लौटा दिया। लिहाजा बढ़ती आबादी को संसाधनों के समान बंटवारे के प्रबंध कौशल से जोड़ने की जरूरत है, न कि उस पर बेवजह की चिंता करने की ?
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.) 473-551
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं।
बहुत अच्छा लिखा है आपने, आशा है सरकारें भी इस बारे में कुछ करेंगी
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