रविकान्त का आलेख - हिन्दी फ़िल्म अध्ययन: माधुरी का राष्ट्रीय राजमार्ग

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  रविकान्त, एसोसिएट फ़ेलो, सीएसडीएस बहुतेरे लोगों को याद होगा कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह की फ़िल्म पत्रिका माधुरी हिन्दी में निकलने वाली अ...

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रविकान्त, एसोसिएट फ़ेलो, सीएसडीएस

बहुतेरे लोगों को याद होगा कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह की फ़िल्म पत्रिका माधुरी हिन्दी में निकलने वाली अपने क़िस्म की अनूठी लोकप्रिय पत्रिका थी, जिसने इतना लंबा और स्वस्थ जीवन जिया। पिछली सदी के सातवें दशक के मध्य में अरविंद कुमार के संपादन में सुचित्रा नाम से बंबई से शुरू हुई इस पत्रिका के कई नामकरण हुए, वक़्त के साथ संपादक भी बदले, तेवर-कलेवर, रूप-रंग, साज-सज्जा, मियाद व सामग्री बदली तो लेखक-पाठक भी बदले, और जब नवें दशक में इसका छपना बंद हुआ तो एक पूरा युग बदल चुका था।[1] इसका मुकम्मल सफ़रनामा लिखने के लिए तो एक भरी-पूरी किताब की दरकार होगी, लिहाजा इस लेख में मैं सिर्फ़ अरविंद कुमार जी के संपादन में निकली माधुरी तक महदूद रहकर चंद मोटी-मोटी बातें ही कह पाऊँगा। यूँ भी उसके अपने इतिहास में यही दौर सबसे रचनात्मक और संपन्न साबित होता है।

माधुरी से तीसेक साल पहले से ही हिन्दी में कई फ़िल्मी पत्रिकाएँ निकल कर बंद हो चुकी थीं, कुछ की आधी-अधूरी फ़ाइलें अब भी पुस्तकालयों में मिल जाती हैं, जैसे, रंगभूमि, चित्रपट, मनोरंजन आदि। ये जानना भी दिलचस्प है कि हिन्दी की साहित्यिक मुख्यधारा की पत्रिकाओं - मसलन, सुधा, सरस्वती, चाँद, माधुरी - में भी जब-तब सिनेमा पर गंभीर बहस-मुबाहिसे, या, चूँकि चीज़ नई थी, बोलती फ़िल्मों के आने के बाद व्यापक स्तर पर लोकप्रिय हुआ ही चाहती थी, तो सिनेकला के विभिन्न आयामों से ता'रुफ़ कराने वाले लेख भी छपा करते थे। फ़िल्म माध्यम की अपनी नैतिकता से लेकर इसमें महिलाओं और साहित्यकारों के काम करने के औचित्य, उसकी ज़रूरत, भाषा व विषय-वस्तु, नाटक/पारसी रंगकर्म/साहित्य से इसके संबंध से लेकर विश्व-सिनेमा से भारतीय सिनेमा की तुलना, सेंसरशिप, पौराणिकता, श्लीलता-अश्लीलता, सार्थकता/अनर्थकता/सोद्देश्यता आदि नानाविध विषयों पर जानकार लेखकों ने क़लम चलाई।[2] इनमें से कुछ शुद्ध साहित्यकार थे, पर ज़्यादातर फ़िल्मी दुनिया से किसी न किसी रूप से जुड़े लेखक ही थे। इन लेखों से हमें पता चलता है कि पहले भले हिंदू घरों की औरतों का फ़िल्मी नायिका बनना ठीक नहीं समझा जाता था, वैसे ही जैसे कि उनका नाटक करना या रेडियो पर गाना अपवादस्वरूप ही हो पाता था। पौराणिक-ऐतिहासिक भूमिकाएँ करने वाली मिस सुलोचना, मिस माधुरी आदि वस्तुत: ईसाई महिलाएँ थीं, जिन्होंने बड़े दर्शकवर्ग से तादात्म्य बिठाने के लिए अपने नाम बदल लिए थे। पारसी थिएटर का सूरज डूबने लगा था, ऐसी स्थिति में रेडियो या सिनेमा के लिए गानेवालियाँ 'बाई' या 'जान' के प्रत्यय लगाने वाली ही हुआ करती थीं। पुराने ग्रामोफोन रिकॉर्डों पर भी आपको वही नाम ज़्यादातर मिलेंगे। अगर आपने अमृतलाल नागर की बेहतरीन शोधपुस्तक ये कोठेवालियाँ[3] पढ़ी है, तो आपको अंदाज़ा होगा कि मैं क्या अर्ज़ करने की कोशिश कर रहा हूँ। हिन्दी लेखकों ने ज़्यादा अनुभवी नारायण प्रसाद 'बेताब' या राधेश्याम कथावाचक या फिर बलभद्र नारायण 'पढ़ीस' की इल्तिजा पर ग़ौर न करते हुए[4] प्रेमचंद जैसे लेखकों के मुख़्तसर तजुर्बे पर ज़्यादा ध्यान दिया, जो कि हक़ीक़तन कड़वा था। उन्होंने आम तौर पर फ़िल्मी दुनिया को भ्रष्ट पूंजीपतियों की अनैतिक अय्याशी का अड्डा माना, माध्यम को संस्कार बिगाड़ने वाला 'कुवासना गृह' समझा, उसे छापे की दुनिया में होने वाले घाटे की भरपाई करके वापस वहीं लौट आने के लिए थोड़े समय के लिए जाने वाली जगह समझा। पर पूरी तरह चैन भी नहीं कि उर्दू वालों ने एक पूरा इलाक़ा क़ब्ज़िया रखा है। हिन्दी और उर्दू के साहित्यिक जनपद के बुनियादी फ़िल्मी रवैये में अगर फ़र्क़ देखना चाहते हैं तो मंटो को पढ़ें, फिर उपेन्द्रनाथ अश्क और भगवतीचरण वर्मा के सिनेमाई संस्मरण, रेखाचित्र या उपन्यास पढ़ें।[5] भाषा के सवाल पर गांधी जी से भी दो-दो हाथ कर लेने वाले हिन्दी के पैरोकार, अपवादों को छोड़ दें तो, अपने सिनेमा-प्रेम के मामले में काफ़ी समय तक गांधीवादी ही रहे।

बेशक स्थिति धीरे-धीरे बदल रही थी, पर 1964 में जब माधुरी निकली तब तक इसके संस्थापक संपादक के अपने अल्फ़ाज़ में "सिनेमा देखना हमारे यहाँ क़ुफ़्र समझा जाता था।" उन्होंने इस क़ुफ़्र सांस्कृतिक कर्म को हिन्दी जनपद में पारिवारिक-समाजिक स्वीकृति दिलाने में अहम ऐतिहासिक भूमिका अदा की। माधुरी ने कई बड़े-छोटे पुल बनाए, जिसने सिनेमा जगत और जनता को तो आपस में जोड़ा ही, सिनेमा को साहित्य और राजनीतिक गलियारों से, विश्व-सिनेमा को भारतीय सिनेमा से, हिन्दी सिनेमा को अहिन्दी सिनेमा से, और सिनेमा जगत के अंदर के विभिन्न अवयवों को भी आपस में जोड़ा। पत्रिका की टीम छोटी-सी थी, और इतनी बड़ी तादाद में बन रही फ़िल्मों की समीक्षा, उनके बनने की कहानियों, फ़िल्म समाचारों, गीत-संगीत की स्थिति, इन सबको अपनी ज़द में समेट लेना सिर्फ़ माधुरी की अपनी टीम के ज़रिए संभव नहीं था। अपनी लगातार बढ़ती पाठक संख्या का रुझान भाँपते हुए, उसके सुझावों से बराबर इशारे लेते हुए माधुरी ने उनसे सक्रिय योगदान की अपेक्षा की और उसके पाठकों ने उसे निराश नहीं किया। प्रकाशन के तीसरे साल में प्रवेश करने पर छपा यह संपादकीय इस संवाद के बारे में बहुत कुछ कहता है:

हिन्दी में सिनेपत्रकारिता सभ्य, संभ्रांत और सुशिक्षित परिवारों द्वारा उपेक्षित रही है। सिनेमा को ही अभी तक हमारे परिवारों ने पूरी तरह स्वीकार नहीं किया है। फ़िल्में देखना बड़े-बूढ़े उच्छृंखलता की निशानी मानते हैं। कुछ फ़िल्मकारों ने अपनी फ़िल्मों के सस्तेपन से इस धारणा की पुष्टि की है। ऐसी हालत में फ़िल्म पत्रिका का परिवारों में स्वागत होना कठिन ही था।

सिनेमा आधुनिक युग का सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक मनोरंजन बन गया है। अत: इससे दूर भागकर समाज का कोई भला नहीं किया जा सकता। आवश्यकता इस बात की है कि हम इसमें गहरी रुचि लेकर इसे सुधारें, अपने विकासशील राष्ट्र के लायक़ बनाएँ। नवयुवक वर्ग में सिनेमा की एक नयी समझ उन्हें स्वस्थ मनोरंजन का स्वागत करने की स्थिति में ला सकती है। इसके लिए जिम्मेदार फ़िल्मी पत्र-पत्रिकाओं की आवश्यकता स्पष्ट है। मैं कोशिश कर रही हूँ फ़िल्मों के बारे में सही तरह की जानकारी देकर मैं यह काम कर सकूँ। परिवारों में मेरा जो स्वागत हुआ है उसको देख कर मैं आश्वस्त हूँ कि मैं सही रास्ते पर हूँ। आत्मनिवेदन: (11 फ़रवरी, 1966).

इस आत्मनिवेदन को हम पारंपरिक उच्च-भ्रू संदर्भ की आलोचना के साथ-साथ पत्रिका के घोषणा-पत्र और इसकी अपनी आकांक्षाओं के दस्तावेज़ के रूप में पढ़ सकते हैं। पत्रिका गुज़रे ज़माने के पूर्वग्रहों से जूझती हुई नयी पीढ़ी से मुख़ातिब है, सिनेमा जैसा है, उसे वैसा ही क़ुबूल करने के पक्ष में नहीं, उसे 'विकासशील राष्ट्र के लायक़' बनाने में अपनी सचेत जिम्मेदारी मानते हुए पारिवारिक तौर पर लोकप्रिय होना चाहती है। कहना होगा कि पत्रिका ने घोर आत्मसंयम का परिचय देते हुए पारिवारिकता का धर्म बख़ूबी निभाया, लेकिन साथ ही 'करणीय-अकरणीय' की पारिभाषिक हदों को भी आहिस्ता-आहिस्ता सरकाने की चतुर कोशिशें भी करती रही। भले ही इस मामले में यह अपने भगिनी प्रकाशन 'फ़िल्मफ़ेयर'-जैसी 'उच्छृंखल' कम से कम समीक्षा-काल में तो नहीं ही बन पाई। बक़ौल अरविंद कुमार, जब पत्रिका की तैयारी चल रही थी, तो सुचित्रा की पहली प्रतियाँ सिनेजगत के कई बुज़ुर्गों को दिखाई गईं। उनमें से वी शांताराम की टिप्पणी थी कि इस पर फ़िल्मफ़ेयर का बहुत असर है। यह बात अरविंद जी को लग गई गई, और उन्हें ढाढ़स भी मिला। लिहाज़ा, माधुरी ने अपना अलग हिन्दीमय रास्ता अख़्तियार किया, और मालिकों ने भी इसे पर्याप्त आज़ादी दी। अनेक मनभावन सफ़ेद स्याह, और कुछ रंगीन चित्रों और लोकार्षक स्तंभों से सज्जित माधुरी जल्द ही संख्या में विस्तार पाते बड़े-छोटे शहरों के हिन्दी-भाषी मध्यवर्ग की अनिवार्य पत्रिका बन गई, जिसमें इसके शाफ़-शफ़्फ़ाफ़ और मेहनतपसंद संपादन - मसलन, प्रूफ़ की बहुत कम ग़लतियाँ होना - का भी हाथ रहा ही होगा। यहाँ 'मध्यवर्ग की पत्रिका' का लेबल चस्पाँ करते हुए हमें उन चाय और नाई की दुकानों को नहीं भूलना चाहिए, जहाँ पत्रिका को व्यापकतर जन समुदाय द्वारा पढ़ा-देखा-पलटा-सुना जाता होगा। अभाव से प्रेरित ही सही, लेकिन हमारे यहाँ ग्रामोफोन से लेकर सिनेमा-रेडियो-टीवी, पब्लिक फोन, और इंटरनेट(सायबर कैफ़े, ई-चौपाल) तक के आम अड्डों में सामूहिक श्रवण-वाचन-दर्शन-विचरण का तगड़ा रिवाज रहा है। संगीत रसास्वादन वॉकमैन और मोबाइल युग में आकर ही निजी होने लगा है। तो इस वृहत्तर पाठक-वर्ग तक फ़िल्म जैसे माध्यम को संप्रेषित करने के लिए माक़ूल शब्दावली जुटाने में मौजूदा शब्दों में नये अर्थ भरने से लेकर नये शब्दों की ईजाद तक की चुनौती संपादकों और लेखकों ने उठाई लेकिन अपरिचित को जाने-पहचाने शब्दों और साहित्यिक चाशनी में लपेट कर कुछ यूँ परोसा कि पाठकों ने कभी भाषायी बदहज़मी की शिकायत नहीं की। शब्दों से खेलने की इस शग़ल को गंभीरता से लेते हुए अरविंद जी ने अगर आगे चलकर शब्दकोश-निर्माण में अपना जीवन झोंक दिया तो किमाश्चर्यम, कि यह काम भी क्या ख़ूब किया![6]

सिने-जनमत सर्वेक्षण

बहरहाल, पूछने लायक़ बात है कि माधुरी के लिए सिनेमा के मायने क्या थे। ऊपर के इशारे में ही जवाब था - विशद-विस्तृत। पत्रिका ने न केवल दुनिया-भर में बन रहे महत्वपूर्ण चित्रों या चित्रनिर्माण की कलात्मक-व्यावसायिक प्रवृत्तियों पर अपनी नज़र रखी, बल्कि कैसे बनते थे/बन रहे हैं, इनका भी गाहे-बगाहे आकलन पेश किया, ताकि फ़िल्मी दुनिया में आने की ख़्वाहिश रखने वाले - लेखक, निर्देशक, अभिनेता, गायक - ज़रूरी हथियारों से लैस आएँ, या जो नहीं भी आएँ, वे जादुई रुपहले पर्दे के पीछे के रहस्य को थोड़ा बेहतर समझ पाएँ। इस लिहाज से ये ग़ौरतलब है कि माधुरी ने अपने पन्नों में सिर्फ़ अभिनेता-अभिनेताओं को जगह नहीं दी, बल्कि तकनीकी कलाकारों - छायाकारों, ध्वनि-मुद्रकों और 'एक्स्ट्राज़' को भी, ठीक वैसे ही जैसे कि महमूद जैसे 'हास्य'-अभिनेताओं को आवरण पर डालकर, या फ़िल्म और टेलीविज़न इंस्टीट्यूट, पुणे से उत्तीर्ण नावागंतुकों की उपलब्धियों को समारोहपूर्वक छापकर अपनी जनवादप्रियता का पता दिया। उनकी कार्य-पद्धति समझाकर, उनकी मुश्किलों, मिहनत को रेखांकित करते हुए उनकी मानवीयता की स्थापना कर सिनेमा उद्योग के इर्द-गिर्द जो नैतिक ग्रहण ज़माने से लगा हुआ था, उसको काटने में मदद की।

इस सिलससिले में घुमंतू परिचर्चाओं की दो शृंखलाएँ मार्के की हैं: पहली, जब माधुरी ने मुंबई महानगरी से निकलकर अपना रुख़ राज्यों की राजधानियों और उनसे भी छोटे शहरों की ओर किया ये टटोलने के लिए कि वहाँ के बाशिंदे बन रही फ़िल्मों से कितने मुतमइन हैं, उन्हें उनमें और क्या चाहिए, क्या नहीं चाहिए, आदि-आदि। जवाब में मध्यवर्गीय समाज के वाक्पटु नुमाइंदों ने अक्सरहाँ फ़िल्मों की यथास्थिति से असंतोष जताया, अश्लीलता और फ़ॉर्मूलेबाज़ी की भर्त्सना की, सिनेमा के साहित्योन्मुख होने की वकालत की। इन सर्वेक्षणों के आयोजन में ज़ाहिर है कि माधुरी का अपना सुधारवादी एजेंडा था, लेकिन इनसे हमें उस समय के फ़िल्म-प्रेमियों की अपेक्षाओं का भी पता मिलता है। हमारे पास उनकी आलोचनाओं को सिरे से ख़ारिज करने के लिए फ़िलहाल ज़रूरी सुबूत नहीं हैं, लेकिन ये सोचने का मन करता है कि इन पिटी-पिटाई, और एक हद तक अतिरेकी प्रतिक्रियाओं में उस ढोंगी, उपदेशात्मक सार्वजनिक मुखौटे की भी झलक मिलती है, जो अक्सरहाँ जनता के सामने आते ही लोग ओढ़ लिया करते हैं, भले ही सिनेमा द्वारा परोसे गए मनोरंजन का उन्होंने भरपूर रस लिया हो। मामला जो भी हो, माधुरी ने अपने पाठकों को भी यदा-कदा टोकना ज़रूरी समझा : मसलन, फ़िल्मों में अश्लीलता को लेकर हरीश तिवारी ने जनमत से बाक़ायदा जिरह की और उसे उचित ठहराया।[7] उस अंक में तो नहीं, लेकिन गोया एक सामान्य संतुलन बनाते हुए लतीफ़ घोंघी ने हिन्दी सिनेमा के तथाकथित फ़ोहश दृश्यों की एक पूरी परंपरा को दृष्टांत दे-देकर बताना ज़रूरी समझा। लेकिन फिल्मेश्वर ने चुंबनांकन को लेकर जो मख़ौलिया खिलवाड़ किस न करने वाली भारतीय संस्कृति के साथ किया, वह तो अद्भुत था।[8] थोड़े मुख़्तलिफ़ तरह का एक दूसरा सर्वेक्षण भौगोलिक था। याद कीजिए कि उस ज़माने में कश्मीर फ़िल्मकारों का स्वर्ग जैसा बन गया था। एक के बाद एक कई फ़िल्में बनी थीं, जिनका लोकेशन वही था, और पूरा कथानक नहीं तो कम-से-कम एक-दो गाने तो वहाँ शूट कर ही लिए जाते थे।[9] जान पड़ता है कि लोगों को कश्मीर के प्रति निर्माताओं की यह आसक्ति थोड़ी-थोड़ी ऊब देने लगी थी। माधुरी ने एक पूरी शृंखला ही समूचे हिन्दुस्तान की उन अनजान आकर्षक जगहों पर कर डाली जहाँ फ़िल्मों को शूट किया जा सकता है, बाक़ायदा सचित्र और स्थानीय इतिहास और सुविधाओं की जानकारियों मुहैया कराते हुए। इस तरह 'भावनात्मक एकता' का जो नारा मुल्क के नेताओं और बुद्धिजीवियों ने उस ज़माने में बुलंद किया था, उसकी किंचित वृहत्तर परिभाषा कर कश्मीरेतर दूर-दराज़ की जगहों को फ़िल्मों के भौतिक साँचे में ढालने की ठोस वकालत माधुरी ने बेशक की।

सिने-माहौल और नागर चेतना

चलिए, आगे बढ़ें। सिनेमाघरों की दशा पर केन्द्रित माधुरी का तीसरा सर्वेक्षण अपेक्षाकृत ज़्यादा दिलचस्प था। इसकी प्रेरणा पाठकों से मिले शिकायती ख़तों से ही आई मालूम पड़ती है: जब पत्रों में अपने शहर के सिनेमा हॉल के हालात को लेकर करुण-क्रंदन थमा नहीं तो माधुरी ने उसे एक वृहत्तर अनुष्ठान और मुहिम का रूप दे दिया। इस मुहिम की अहमियत समझने के लिए आजकल की मल्टीप्लेक्स-सुविधा-भोगी हमारी पीढ़ी[10] को मनसा उस ज़माने में और उन छोटे शहरों में लौटना होगा, जब सिनेमा देखने को ही समाज में सम्मानजनक नहीं माना जाता था तो देखनेवालों को सिने-मालिक लुच्चा-लफ़ंगा मान लें तो उनका क्या क़ुसूर। जैसे दारू के ठेकों पर सिर-फुटव्वल आम बात थी, या है, वैसे ही पहले दिन/पहले शो में हॉल के बाहर टिकट खिड़की पर लाठियाँ चल जाना भी कोई अजीब बात नहीं होती थी। आप ख़ुद देखिए, लोगों ने फ़िल्म देखने के लिए कितने त्याग किए हैं, पूंजीवादी समाज की कैसी बेरुख़ी झेली है, एक-दूसरे को कितना प्रताड़ित किया है। माधुरी का शुक्रिया कि इसने सिनेमा हॉल को साफ़-सभ्य-सुसंस्कृत-पारिवारिक जगह बनाने की दिशा में पहल तो की।[11] नीचे पेश है एक बानगी उज्जैन, झाँसी, कानपुर, जमशेदपुर जैसे शहरों से दर्ज शिकायतनामों की। चक्रधर पुर, बिहार, से किसी ने लिखा कि हॉल में पीक के धब्बों और मूँगफली के छिलकों की सजावट आम बात है। सीटों पर नंबर नहीं और, लोग तो जैसे 'धूम्रपान निषेध' की चेतावनी देखते ही नहीं। फ़िल्म प्रभाग के वृत्तचित्र हमेशा अंग्रेज़ी में ही होते हैं, और जनता राष्ट्रगान के समय भी चहलक़दमी करती रहती है।( 8 सितंबर,1967). इसी अंक में होशंगाबाद से ख़बर है कि किसी ने गोदाम को सिनेमा हॉल बना दिया है, पीने को पानी नहीं है, हाँ, खाने की चीज़ ख़रीदने पर ज़रूर 'मुफ़्त' मिल जाता है। फ़रियादी की दरख़्वास्त है कि महीने में कम-से-कम एक बार तो कीटनाशक छिड़का जाए, मूतरियों को साफ़ रखा जाए, और टिकट ख़रीदने के बाद के इंतज़ार को आरामदेह बनाया जाए। झाँसी से एक जनाब फ़रमाते हैं कि वहाँ दो-ढाई लाख की आबादी में कहने को तो सात सिनेमाघर हैं, लेकिन एक को छोड़कर सब ख़स्ताहाल। फटी सीटें, पीला पर्दा, गोया किसी फोटॉग्रफर का स्टूडियो हो; लोग बहुत शोर मचाते हैं, जैसे ही बिजली जाती है या रील टूटती है, 'कौन है बे' की आवाज़ के साथ सीटियों का सरगम शुरू हो जाता है; गेटकीपर ख़ुद ब्लैक करता है और मना करने पर रौब झाड़ता है; पार्किंग में भी टिकट मिलता है, लेकिन साइकिल वहीं लगाने पर; अंग्रेज़ी-हिन्दी दोनों ही फ़िल्में काफ़ी देर से लगाई जाती हैं। 'महारानी लक्ष्मीबाई ने नगर' के इस शिकायती ने क्रांतिकारी धमकी के साथ अपनी बात ख़त्म की : अगर संबंधित अधिकारी कुछ नहीं करते तो झाँसी की जनता को फ़िल्म देखना छोड़ देना पड़ेगा। वाह! इसी तरह तीन सिनेमाघरों वाले बीकानेर से एक जागरूक सज्जन ने लिखा: एक हॉल तो कॉलेज से बिल्कुल सटा हुआ है, टिकटार्थियों की क़तार सड़क तक फैल जाती है, ब्लैक वालों के शोर-ओ-गुल से कक्षाएँ बाधित होती हैं; फ़र्स्ट क्लास की सीटें भी जैसे कष्ट देने के लिए ही बनाई गई हैं, एयरकंडीशनिंग ऐसी कि उससे बेहतर धूप में रहें, कभी सफ़ाई नहीं होती, कचरे के ढेर लगे होते हैं; तीसरे सिनेमा हॉल में तो बालकनी की हालत फ़र्स्ट क्लास से भी बदतर है। फ़र्स्ट क्लास का दर्शक जब 'सिनेमा देखने में मग्न हो तब अचानक ऐसा लगता है कि किसी सर्प ने काट खाया हो या इंजेक्शन लगा दिया गया हो। बरबस दर्शक उछल पड़ता है। पीछे देखता है तो मूषकदेव कुर्सियों पर विराजमान हैं। हॉल में कई चूहों के बिल देखने को मिल सकते हैं। सरदार शहर के एक सिनेमची ने शिकायत की कि वहाँ हॉल के अति सँकरे दरवाज़े से घुसने के बाद दर्शक और बदरंग पर्दे के बीच में दो-एक खंभे खड़े होकर फ़िल्म देखते हैं, ध्वनि-यंत्र ख़राब है, उससे ज़्यादा शोर तो छत से लटके पंखे कर देते हैं; बारिश में छत चूती है, कुर्सियों के कहीं हाथ तो कहीं पैर नहीं, कहीं पीठ ही ग़ायब है; आदमी ज़्यादातर ख़ुद को सँभालता रहता है: कोई नया हॉल बनाना भी चाहे तो लाइसेन्स नहीं मिलता। दरभंगा से रपट आई कि चार में से तीन सिनेमाहॉल तो 'उच्च वर्गों' के लिए हैं ही नहीं; नैशनल टॉकीज़ पूरा कबूतरख़ाना है; लोग हॉल में आकर अपनी सीट से ही टिकट ख़रीदते हैं, सीट संख्या नहीं होने पर काफ़ी कोहराम मचा होता है; मेरा साया शुरू हुआ तो पंखे की छड़ ऐन पर्दे पर नमूदार हो गई, और जिस तरह की फ़िल्म थी, हमें लगा ज़रूर कुछ रहस्य है इस साये में! लेकिन बात हँसने वाली नहीं। कौन इनका हल करेगा - सरकार या व्यवस्थापक? कोई नहीं, क्योंकि उनकी झोलियाँ तो भर ही रही हैं। सिनेमा का बहिष्कार ही एकमात्र रास्ता बचता है। एप्रील फ़ूल देखकर आए गुरदासपुर के एक सचेत नागरिक ने हॉल वालों को तो आड़े हाथों लिया ही कि वहाँ निर्माण कार्य कभी बंद ही नहीं होता और पुराने प्रॉजेक्टर का शोर असह्य है, साथ ही दर्शकों के व्यवहार से भी घोर असंतोष ज़ाहिर किया: 'कामुक दृश्यों पर भद्दी आवाज़ों का शोर तमाम नैतिक मापदंडों की हत्या करके भी शांत नहीं होता। शायद यही कारण है कि कोई भी भलामानुस माँ-बहनों के साथ फ़िल्म देखने का साहस नहीं जुटा पाता...राष्ट्रगान के समय दरवाज़ा खुला छोड़ दिया जाता है, लोग बाहर निकल जाते हैं, जो अंदर भी रहते हैं, वे या तो बदन खुजाते या जम्हाइयाँ लेते दिखाई देते हैं।...अच्छी और सफल फ़िल्में जो पंजाब के बड़े शहरों में वर्ष के आरंभ में प्रदर्शित होती हैं, यहाँ अंत तक पहुँचती हैं, नतीजा ये होता है कि गणतंत्र दिवस की न्यूज़ रीलें हम स्वतंत्रता दिवस पर देखते हैं: हमें अभी तक अनुपमा और आए दिन बहार के का इंतज़ार है!

आरा से आकर एक सज्जन बड़े नाराज़ थे:

छुट्टियाँ बिताने आरा गया हुआ था। यहाँ के सिनेमा-हॉल और व्यवस्थापकों की लापरवाही देखकर दुख हुआ। सिनेमा हॉल के बाहर कुछ लोग लाइन में खड़े रहते हैं जबकि टिकट पास के पान की दुकान पर मिल जाता है। नोस्मोकिंग आते ही लोग बीड़ी जला लेते हैं। अगर कोई रोमाण्टिक सीन आ जाए तो उन्हें चिल्लाकर ही संतोष होता है, जिन्होंने अभी सीटी बजाना नहीं सीखा है। सिनेमा शुरू होने का कोई निश्चित समय नहीं है। अगर किसी अधिकारी की फ़ेमिली आने वाली है तो सिनेमा उनके आने के बाद ही शुरू होगा। हॉल में घुसते ही कुछ नवयुवक इतनी हड़बड़ी में आते हैं कि जल्दबाज़ी में फ़ेमिली स्वीट्स में घुस जाते हैं। (29 दिसंबर 1967).

डेविड धवन की हालिया फ़िल्म राजा बाबू की बरबस याद आ जाती है, जिसमें तामझाम से सजे लाल बुलेट पर घूमने वाला गोविंदा का किरदार सिनेमा हॉल में जाकर अपने मनपसंद दृश्य को 'रिवाइन्ड' करवाके बार-बार देखता है। साठ के दशक में छोटे शहरों के असली बाबू भी राजा बाबू से कोई कम थे! लेकिन ये शिकायती स्वर इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि सिनेदर्शक अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सचेत हो रहा था, और सिने-प्रदर्शन में हो रही अँधेरगर्दी की पोल खोलने पर आमादा था। लेकिन इस तरह की परेशानियाँ सिर्फ़ छोटे शहरों तक सीमित नहीं थीं। एक आख़िरी उद्धरण देखिए, राजकुमार साहब के हवाले से:

दिल्ली के कुछ सिनेमा हॉल जो कि पुरानी दिल्ली में हैं बहुत ख़राब दशा में हैं। महिलाओं को केवल एक सुविधा प्राप्त है, और वो है टिकट मिल जाना। और इसके अलावा कोई सुविधा नहीं। अन्दर जाकर सीट पर बैठे तो क्या देखेंगे कि पीछे के दर्शक महोदय बड़े आराम से सीट पर पैर रख कर बैठे हुए हैं। ऐसा करना वे अपना अधिकार समझते हैं। आसपास के लोग बड़े प्रेम से घर की या बाहर की बातें करते नज़र आएँगे जबकि फ़िल्म चल रही होगी। मना किया जाय तो वे लड़ने लगेंगे और आप (जो कि माँ या बहन के साथ बैठे होंगे) लोगों की नज़रों के केन्द्र बन जाएँगे। यदि कोई प्रेम या उत्तेजक सीन होगा तो देखिए कितनी आवाज़ें कसी जाती हैं, गालियाँ दी जाती हैं, और सीटियाँ तो फ़िल्म के संगीत का पहलू नज़र आती हैं। यदि पास बैठी महिला के साथ छेड़छाड़ करने का अवसर मिल जाए तो वे हाथ से जाने नहीं देते। ये सब बातें सिर्फ़ इसलिए होती हैं कि सिनेमा हॉल में आगे बैठे लोग सिर्फ़ दो-तरफ़ा मनोरंजन चाहते हैं। इस तरह सिनेमा देखना तो कोई सहनशील व्यक्ति भी गवारा नहीं करेगा। (29 दिसंबर 1967, पत्र).

क़िस्सा कोताह ये कि दर्शकों की इन दूर-दराज़ की - सिनेव्यापार की भाषा में 'बी' 'सी' श्रेणी के शहरों-क़स्बों से आती - आवाज़ों को राष्ट्रीय गलियारों तक पहुँचाने का काम करते हुए माधुरी ने निहायत कार्यकर्तानुमा मुस्तैदी और प्रतिबद्धता दिखाई। इसका कितना असर हुआ या नहीं, कह नहीं सकते, लेकिन सिनेमा देखने वाले लोग भी नागरिक समाज की बुनियादी सहूलियतों और दैनंदिन सदाचरण के हक़दार हैं, अंक-दर-अंक यह चीख़ने के पीछे कम-से-कम माधुरी का तो वही भरोसा रहा, जो फ़ैज़ का था: 'कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जाएँगे'।[12] और नहीं तो कम-से-कम शेष पाठकों तक तो नाले गए ही होंगे क्योंकि चंद संजीदा क़िस्म की शिकायतें तो आम जनता, ख़ासकर पुरुषों, को ही संबोधित हैं! एक और दिलचस्प बात आपने नोट की होगी इन ख़तों में कि हिन्दी-भाषी पुरुष उस ज़माने में सिर्फ़ 'माँ-बहनों' के साथ फ़िल्म देखने जाता था!

मधुर संगीतप्रियता

अच्छा साहब, बहुत हो लीं रोने-धोने की बातें। आइए अब कुछ गाने की भी की जाएँ। माधुरी ने यह बहुत जल्द पहचान लिया था कि रेडियो और ग्रामोफोन के ज़रिए लोग सिनेमा को सिर्फ़ देखते नहीं हैं, उसे सुनते भी हैं, वैसे लोग भी जो नहीं देखते, गुनगुनाते ज़रूर हैं, और इसके लिए वे बोलती फ़िल्मों के शुरुआती दिनों से ही सस्ते काग़ज़ पर छपे चौपतिया मार्का 'कथा-सार व गीत' या बाद में नारायण ऐण्ड को., सालिमपुर अहरा, पटना जैसे प्रकाशकों द्वारा मुद्रित 'सचित्र-गीत-डायलॉग' के बेहद शौक़ीन थे, बल्कि उन पर मुनहसर थे। क्योंकि इससे बार-बार सिनेमा जाकर या रेडियो पर सुन-सुनकर कॉपी पे उतारने की उनकी अपनी मेहनत बचती थी। सिनेमा के गीतों ने एक अरसे से रोज़ाना की अंत्याक्षरी से लेकर औपचारिक, शास्त्रीय हर तरह की महफ़िलों में अपना रंग जमा रखा था, तो जो लोग राग-आधारित गाने गाना चाहते थे, उनके लिए गीत के बोल के साथ-साथ स्वराक्षरी देने का काम संपादक ने संगीत-मर्मज्ञ श्रीधर केंकड़े से काफ़ी लंबे अरसे तक करवाया। उन पृष्ठों पर संगीतकार-गीतकार-गायक-गायिका का नाम बड़े सम्मान से छापा जाता था। लेकिन जल्द ही 'रिकार्ड तोड़ फ़ीचर' और पैरोडियाँ भी स्तंभवत छपने लगीं, जो जनता के हाथों पुराने-नए मशहूर गानों के अल्फ़ाज़ की रीमिक्सिंग (= पुनर्मिश्रण, पुनर्रचना) के लोकाचार का ही एक तरह से साहित्यिक विस्तार था। इसलिए स्वाभाविक ही था कि हुल्लड़ मुरादाबादी और काका हाथरसी जैसे मशहूर कवियों के अलावा बेनाम तुक्कड़ों ने अच्छी तुकबंदियाँ पेश कीं। इस तरह की हास्य-व्यंग्य से लबरेज़ नक़्क़ाली के विषय अक्सर सामाजिक होते थे, कई बार फ़िल्मी, पर बाज़ मर्तबा राजनीतिक भी, जैसे कि सदाबहार मौज़ू 'महँगाई' को लेकर सीधे-सीधे भारत की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री से पूछा गया सवाल, जो कि बतर्ज़ 'बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं' गुनगुनाये जाने पर सामान्य से किंचित अतिरिक्त फैलती मुस्कान की वजह बनता होगा:

इतना महँगा गेहूँ, औ इतना महँगा चावल

बोल इन्द्रा बोल सस्ता होगा कि नहीं

कितने घंटे बीत गए हैं मुझको राशन लाने में

साहब से फटकार पड़ेगी देर से दफ़्तर आने मे

इन झगड़ों का अन्त कहीं पर होगा कि नहीं॥ बोल इन्द्रा बोल...

दो पाटों के बीच अगर गेहूँ आटा बन जाता है

क्यों न जहाँ पर इतने कर हों, दम सबका घुट जाता है

कभी करों का यह बोझा कम होगा कि नहीं।। बोल इन्द्रा बोल...

हम जीने को तड़प रहे ज्यों बकरा बूचड़ख़ाने में

एक नया कर और लगा दो साँस के आने-जाने में

आधी जनता मरे चैन तब होगा कि नहीं? बोल इन्द्रा बोल...(22 सितंबर 1967).

अब आप ही बताइए साहब कि ये नक़ल, असल से कविताई में कहीं से उन्नीस है? इसी तरह काका ने एक पैरोडी बनाई थी संत ज्ञानेश्वर के मशहूर गीत 'ज्योति से ज्योति जलाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो' पर, 'नोट से नोट कमाते चलो, काले धन को पचाते चलो, जिसका थीम इतना शाश्वत है कि कभी पुराना नहीं होगा। पता नहीं हम ऐसे ख़ज़ाने का जमकर इस्तेमाल क्यों नहीं करते। पुनर्चक्रण पर्यावरण-प्रिय युग की माँग है। माधुरी ने तो अपनी पुनर्चक्रण-प्रियता का सबूत इस हद तक दिया कि एक पूरा फ़िल्मी पुराण और एक संपूर्ण फ़िल्मी चालीसा ही छाप दिया, जिसमें फ़िल्मी इतिहास के बहुत सारे अहम नाम सिमट आए हैं। कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, आप ख़ुद पाठ करें, तर्ज़ वही है गोस्वामी तुलसीदासकृत हनुमान चालीसा वाली:

दोहा: सहगल चरण स्पर्श कर, नित्य करूँ मधुपान

सुमिरौं प्रतिपल बिमल दा निर्देशन के प्राण

स्वयं को काबिल मानि कै, सुमिरौ शांताराम

ख्याति प्राप्त अतुलित करूँ, देहु फिलम में काम

चौपाई: जय जय श्री रामानंद सागर, सत्यजीत संसार उजागर

दारासिंग अतुलित बलधामा, रंधावा जेहि भ्राता नामा

दिलीप 'संघर्ष' में बन बजरंगी, प्यार करै वैजयंती संगी

मृदुल कंठ के धनी मुकेशा, विजय आनंद के कुंचित केशा।

विद्यावान गुनी अति जौहर, 'बांगला देश' दिखाए जौहर

हेलन सुंदर नृत्य दिखावा, लता कर्णप्रिय गीत सुनावा

हृषीकेश 'आनंद' मनावें, फिल्मफेयर अवार्ड ले जाएं

राजेश पावैं बहुत बड़ाई, बच्चन की वैल्यू बढ़ जाई

बेदी 'दस्तक' फिलम बनावें, पबलिक से ताली पिटवावें

पृथ्वीराज नाटक चलवाना, राज कपूर को सब जग जाना

शम्मी तुम कपिदल के राजा, तिरछे रोल सकल तुम साजा

हार्कनेस रोड शशि बिराजें, वाम अंग जैनीफर छाजें

अमरोही बनायें 'पाकीजा', लाभ करोड़ों का है कीजा

मनोज कुमार 'उपकार' बनाई, नोट बटोर ख्याति अति पाई

प्राण जो तेज दिखावहिं आपैं, दर्शक सभी हांक ते कांपै

नासैं दुख हरैं सब पीड़ा, परदे पर महमूद जस बीरा

आगा जी फुलझड़ी छुड़ावैं, मुकरी, ओम कहकहे लगावैं

जुवतियों में परताप तुम्हारा, देव आनंद जगत उजियारा

तुमहिं अशोक कला रखवारे, किशोर कुमार संगित दुलारे

राहुल बर्मन नाम कमावें, 'दम मारो दम' मस्त बनावें

नौशादहिं मन को अति भावें, शास्त्रीय संगीत सुनावें

रफी कंठ मृदु तुम्हरे पासा, सादर तुम संगित के दासा

भूत पिशाच निकट पर्दे पर आवें, आदर्शहिं जब फिल्म बनावें

जीवन नारद रोल सुहाएं, दुर्गा, अचला मा बन जाएं

संकट हटे मिटे सब पीड़ा, काम देहु बलदेव चोपड़ा

जय जय जय संजीव गुसाईं, हम बन जाएं आपकी नाईं

हीरो बनना चाहे जोई, 'फिल्म चालीसा' पढ़िबो सोई

एक फिलम जब जुबली करहीं, मानव जनम सफल तब करहीं

बंगला कार, चेरि अरु चेरा, 'फैन मेल' काला धन ढेरा

अच्छे-अच्छे भोजन जीमैं, नित प्रति बढ़िया दारू पीवैं

बंबई बसहिं फिल्म भक्त कहाई, अंत काल हालीवुड जाई

मर्लिन मनरो हत्या करईं, तेहि समाधि जा माला धरईं

दोहा: बहु बिधि साज सिंगार कर, पहिन वस्त्र रंगीन

राखी, हेमा, साधना, हृदय बसहु तुम तीन. (वीरेन्द्र सिंह गोधरा, 15 सितंबर 1972.)

मज़ेदार रचना है न, बाक़ायदा दोहा-चौपाई से लैस, भाषा व शिल्प में पुरातन, सामग्री में यकलख़्त ऐतिहासिक और अद्यतन, फ़िल्म भक्ति के सहस्रनाम-गुण-बखान में निहायत समावेशी, नामित आराध्य की भक्ति में सराबोर लेकिन साथ ही अमूर्त देवी-देवताओं के 'काले कार्य-व्यापार' से आधुनिक आलोचनात्मक दूरी बनाती हुई भी, जो आख़िरी चौपाई में मुखर हो उठती है। हमारे ज़माने में 'चोली के पीछे क्या है', के कई काँवड़िया संस्करण बन चुके हैं - अगले सावन में 'मुन्नी बदनाम हुई' के भी बन जाएँगे - अब अगर प्रामाणिक धर्म-धुरंधरों को इस तथाकथित अश्लील आयटम गीत की तर्ज़ पर शिवभक्ति अलापने में परहेज़ नहीं है तो उस ज़माने में माधुरी को इसकी उलट पैरोडी पेश करने में भला क्यों होता। फ़िल्म का एहतराम करना तो उसका घोषित धर्म ही ठहरा, और पाठक अगर धार्मिक पैकेजिंग में ही सिनेमा को घर ले जाना चाहते हैं तो वही सही। उन्हीं दिनों की बात है न जब जय संतोषी माँ आई थी तो लोग श्रद्धावश पर्दे पर पैसे फेंककर अपनी भक्ति का इज़हार कर रहे थे, जैसे कि किसी आयटम गाने पर ख़ुश होकर वे हॉल में सिक्के फेंकते पाए जाते थे, गोया किसी तवायफ़ की महफ़िल में बैठे हों। कैसा मणिकांचन घालमेल, कैसी अजस्र निरंतरता पायी जाती है हमारे लोक के धर्म-कर्म, नाच-गाने, और रुपहली दुनिया में कि शुद्धतावादियों का दम घुट जाए। वैसे माधुरी ने चंद बहसें धार्मिक फ़िल्मों के इतिहास व वर्तमान, उसके निर्माण के औचित्य-अनौचित्य पर भी चलाईं, एक ऐसे विशेषांक में अपना जवाब ख़ुद देता सवालिया प्रस्थान-बिंदु याद आता है: क्या धार्मिक फ़िल्मों के रथ को व्यावसायिकता का छकड़ा ढो रहा है?[13] ये तय है कि धर्म को लेकर माधुरी न तो भावुक थी न ही संवेदनशील; अगर किसी एक धर्म में इसकी अदम्य आस्था देखी जा सकती है, तो उसका नाम हमें राष्ट्रधर्म देना होगा। इसपर कुछ बातें, थोड़ी देर में।

'रिकार्ड तोड़ फीचर' स्तंभ में गानों की पंक्तियों से अटपटे सवाल पूछे जाते थे, या कटुक्तियाँ चिपकाई जाती थीं, कुछ इस बेसाख़्तगी से कि बोल के अपने अर्थ-संदर्भ गुम हो जाते थे, उनमें असली जीवन की छायाएँ कौंध जाती थीं। कुछ मिसालें मुलाहिज़ा फ़रमाएँ:

क) ओ, पंख होते तो उड़ जाती रे.....

....चिड़िया नहीं तो फ़िल्मी हीरोइन तो हो, हवाई जहाज़ में क्यों नहीं उड़ आतीं?

ख) तख़्त क्या चीज़ है और लालो-जवाहर क्या है,

इश्क़ वाले तो ख़ुदाई भी लुटा देते हैं....

.....हाँ जी, दूसरे का माल लुटाने में क्या लगता है!

ग) जज़्बा-ए-दिल जो सलामत है तो इंशाअल्लाह

कच्चे धागे में चले आएँगे सरकार बँधे।

.....जनाब, वो नज़ाकत-नफ़ासत के ज़माने लद गए, अब तो लोहे की हथकड़ियों में बांधकर घसीटना पड़ेगा सरकार को।

घ) और हम खड़े-खड़े गुबार देखते रहे

कारवाँ गुज़र गया, बहार देखते रहे...

....निकम्मों की यही पहचान होती है पुत्तर! (24 सितंबर, 1965).

क्या प्यारा हश्र हुआ है नीरज के पश्चाताप के आँसू रोते इस मशहूर भावुक गीत का! मूलत: हल्के-फुल्के हास्यरस का यह फ़ीचर बहुत लंबा नहीं चल पाया, लेकिन समझने लायक़ बात ये है कि यह उस परम-यथार्थवादी युग की दास्तान भी कहता है, जो तथाकथित फ़ॉर्मूला फ़िल्मों की हवा-हवाई बातों में आने से इन्कार कर रहा था, लिहाज़ा 'ये बात कुछ हज़म नहीं हुई' वाले अंदाज़ में प्रतिप्रश्न कर रहा था। जिसे आगे जाकर 'समांतर' सिनेमा कहा गया, उसका शबाब भी तो अँगड़ाइयाँ ले रहा था इस दौर में, जिसकी घनघोर प्रशंसिका बनकर ख़ुद माधुरी उभरती है। संक्षेप में, सत्यजीत राय, आदि के नक़्शे-क़दम चलकर लोकप्रिय मुख्यधारा की फ़ंतासियों के बरक्स ठोस दलीलें और वैकल्पिक फ़िल्में देने का वक़्त आ गया था, इन फुलझड़ियों से भला क्या होना था! उसके लिए तो उन साहित्यिक कृतियों के नाम गिनाए जाने थे, जो पता नहीं कब से फ़िल्म-रूप में ढल जाने को तैयार होकर बैठी थीं, और निर्माता कहते फिरते थे कि अच्छी कहानियाँ नहीं हैं।[14] दरमियानी धारा की फ़िल्में भी कई बनीं इस समय और साहित्यिक कृतियों पर भी, पर शुद्ध कलात्मक फ़िल्में माधुरी के परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन के बाद भी बहुत नहीं चल पाईं। अपवादों को छोड़ दें तो उनमें से ज़्यादातर के नसीब में सरकारी वित्तपोषण, फ़िल्मोत्सवी रिलीज़ और 'आलोचनात्मक प्रशंसा' ही आई।

साहित्यप्रियता

जितने अभियान माधुरी ने चलाए, जितने पुल इसने सिरजे, उनमें एक पुल और एक अभियान का ज़िक्र ज़रूरी है। साहित्य और सिनेमा के बीच सेतु बनाने में माधुरी ने कोई कसर नहीं उठाई, हिन्दी को हरेक अर्थ में प्रतिष्ठित करने की भी हर कोशिश इसने की। इसने इसरार करके हिन्दी के दिग्गजों से लेख लिखवाए, हरिवंश राय बच्चन से गीतों पर, पंत से फ़िल्मों की उपादेयता, उनके गुण-दोषों पर और 'दिनकर' को तो बाक़ायदा एक फ़िल्म दिखवाकर उसी पर उनकी समीक्षात्मक टिप्पणी भी छापी।[15] एक तरफ़ कवि, गीतकार, लेखक और विविध भारती के पहले निदेशक बनकर आए नरेन्द्र शर्मा से फ़िल्मी गीतों की महत्ता'[16] पर लिखवाया तो दूसरी ओर गुलशन नंदा से यादवेन्द्र शर्मा चंद्र की आत्मीय बातचीत छापी।[17] ये याद दिलाना बेज़ा न होगा कि विविध भारती (ये शर्मा जी का रचनात्मक अनुवाद था अंग्रेज़ी के 'मिस्लेनियस प्रोग्राम' का) की स्थापना एक तरह से केसकर साहब के नेतृत्व वाले सूचना व प्रसारण मंत्रालय की बड़ी हार थी, लोकरंजक फ़िल्मी गीतों की ज़बर्दस्त लोकप्रियता के आगे। क्योंकि 1952 में भारतीय जनता को अपने मिज़ाज के माफ़िक बनाने के चक्कर में उन्होंने आकाशवाणी से फ़िल्मी गीतों के प्रसारण पर अनौपचारिक रोक लगा दी थी। जनता ने रेडियो सीलोन, और रेडियो गोआ की ओर अपने रेडियो की सूई का रुख़ कर दिया। अमीन सायानी इसी दौर में (बिनाका/सिबाका) गीतमाला के ज़रिए जो आवाज़ की दुनिया के महानायक बने तो आज तक हैं। घाटा भारतीय सरकारी ख़ज़ाने का हुआ जो पूरे पाँच साल तक चला, आख़िरकार केसकर साहब ने घुटने टेके, 'विविध भारती' चलायी, जिसे बाद में व्यावसायिक सेवा में तब्दील कर दिया गया।[18] बाक़ी तो देखा-भाला इतिहास होगा आपमें से कइयों के लिए। तो जब नरेन्द्र शर्मा ने माधुरी के लिए लिखा कि 'फ़िल्म संगीत इंद्र का घोड़ा है: आकाशवाणी उसका सम्मान करती है' तो वे भी सरकार की तरफ़ से उसको नकेल कसने की कोशिश की नाकामियों का इज़हार ही कर रहे थे, और क्या ठोस वकालत की उन्होंने फ़िल्मी गानों की। गुलशन नंदा ने, जिनका नाम आज तक हिन्दी साहित्यिक जगत में हिकारत से लिया जाता है, पर जिनके उपन्यासों पर कई सफल और मनोरंजक फ़िल्में बनीं, उस बातचीत में बग़ैर किसी शिकवा-शिकायत के, मुतमइन भाव से, अपनी बात रखी। तो माधुरी जहाँ एक ओर शुद्ध साहित्यिकों से बातचीत कर रही थी, वहीं दूसरी ओर फ़िल्मी लेखकों-शायरों - मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी, गुलज़ार, राही मासूम रज़ा, मीना कुमारी, सलीम-जावेद आदि से मुसलसल संवादरत थी।[19] नायक-नायिकाओं के साथ-साथ गायक-गायिकाओं को काफ़ी तवज्जो दी गई तो कल्याणजी-आनंदजी की चुटकुलाप्रियता की स्थानीय शोहरत को राष्ट्रीय में तब्दील करने में उनके माधुरी के स्तंभ का बेशक योगदान रहा होगा। नए-पुराने लिखने वाले निर्माता-निर्देशकों से भी साग्रह लिखवाया गया: किशोर साहू, बिमल राय, के.एन सिंह आदि की जीवनी/आत्मकथा धारावाहिक छपी तो राधू करमारकर जैसे छायाकार की कहानी को भी प्रमुखता मिली। शैलेन्द्र तो अरविन्द जी के प्रिय गीतकार और मित्र थे ही, तीसरी क़सम के बनने, असफल होने और शैलेन्द्र के उस सदमे से असमय गुज़र जाने की जितनी हृदयछू कहानियाँ माधुरी ने सुनाईं, शायद किसी के वश की बात नहीं थी। इनमें शोकसंतप्त रेणु की आत्मग्लानि से लेकर राजकपूर के अकाल-सखा-अभाव को वाणी देतीं भावभीनी श्रद्धांजलियाँ शुमार की जा सकती हैं।

लेकिन साहित्य को सिनेमा से जोड़ने के सिलसिले में सबसे रचनात्मक नुस्ख़े जो माधुरी ने कामयाबी के साथ आज़माए उनमें एक-दो ख़ास तौर पर उल्लेखनीय हैं। हालाँकि नायक-नायिकाओं के चित्रों के साथ काव्यात्मक शीर्षक देने की रिवायत पुरानी थी - उर्दू की मशहूर फ़िल्मी पत्रिका शमा में पचास के दशक में इसकी मिसालें मिल जाएँगी। वैसे ही जैसे कि तीस-चालीस के दशक की साहित्यिक पत्रिकाओं में 'रंगीन' तस्वीरों के साथ दोहा या शे'र डालने का रिवाज था। माधुरी में भी उर्दू के शे'र मिलते थे लेकिन कभी-कभार ही, उनकी जगह यहाँ हिन्दी कवियों को प्रतिष्ठित किया गया। दो-चार उदाहरणों से बात साफ़ हो जानी चाहिए। पूरे पृष्ठ पर 'पत्थरों में प्राण भरने वाले शिल्पी अभिनेता जीतेन्द्र' की सुंदर-सुडौल सफ़ेद-स्याह आवक्ष चित्ताकर्षक तस्वीर छपी है, लेकिन उसमें अतिरिक्त गरिमा डालने के लिए दिनकर की उर्वशी से पुरुरवा का दैहिक वर्णन डाल दिया गया है:

सिंधु सा उद्दाम, अपरंपार मेरा बल कहाँ है?

गूँजता जिस शक्ति का सर्वत्र जय-जयकार

उस अटल संकल्प का संबल कहाँ है?

यह शिला सा वक्ष, ये चट्टान सी मेरी भुजाएँ,

सूर्य के आलोक से दीपित समुन्नत भाल,

मेरे प्यार का सागर अगम, उत्ताल, उच्छल है।[20]

जिसे हिन्दी साहित्य पढ़ने-पढ़ानेवालियों ने अवश्य सराहा होगा। उसी तरह सायरा बानो की दिलकश रंगीन तस्वीर के साथ टुकड़ा लगाया 'कनक छरी-सी कामिनी' और जानने वालों ने अपनी तरफ़ से दोहे की दूसरी अर्धाली अनायास जोड़ी होगी, 'काहे को कटि क्षीण'![21] उससे भी ज़्यादा जाननेवालों ने इस दोहे के साथ औरंगज़ेबकालीन कृष्णभक्त कवि आलम को भी याद किया होगा और उस रंगरेज़न को भी, जिसने कहते हैं, इस दोहे की दूसरी पंक्ति - 'कटि को कंचन काटि विधि, कुचन मध्य धरि दीन' - पूरी कर दी, और उसके बाद तो आलम उसके इश्क़ में गिरफ़्तार ही हो गए। माधुरी को सायरा बानो की आवरण-कथा का सिर्फ़ एक शीर्षक देना था, इसलिए उसका काम पहली अर्धाली से ही हो गया था, लेकिन दूसरी अर्धाली और पंक्ति न देकर शायद इसने अपने 'पारिवारिक' आत्मसंयम का भी परिचय दिया, कि चतुर-सुजान ख़ुद कल्पना कर लें! वरना 'यह शिला सा वक्ष, ये चट्टान सी मेरी भुजाएँ' और 'कुचन मध्य धरि दीन' में यही तो फ़र्क़ है कि पहले में पुरुष-देह-सौंदर्य बखाना गया है, और दूसरे में स्त्री-सौंदर्य की ओर इशारा है! वैसे, आगे चलकर जब रंगीन पृष्ठ बढ़ते हैं, तो कई स्थापित या संघर्षशील तारिकाओं की अपेक्षाकृत कम या छोटे कपड़ोंवाली तस्वीरें भी माधुरी छापती है, और पाठकों के पत्रों में सेन्सरशिप की गुहार नहीं मचती दिखती है, तो ये मान लेना चाहिए कि वक़्त के साथ इसके पाठक भी 'वयस्क' हो रहे थे। वैसे फ़िल्म सेन्सरशिप के तंत्र की आलोचना - 'अंधी कैंची, पैनी धार' - बासु भट्टाचार्य जैसे दिग्दर्शक माधुरी के पृष्ठों में कर ही रहे थे, सो पाठकों तक पत्रिका का उदारमना संदेश तो जा ही रहा होगा।[22] मौखिक और लिखित तथा छप-साहित्य की जानी-मानी लोकप्रिय विधा - समस्यापूर्ति - का भी ख़ूब इस्तेमाल किया माधुरी ने। पाठकों से अक्सर किसी (सिर्फ़ बड़े नहीं) सिनेसितारे की दिलचस्प छवि के जवाब में मौलिक कविता माँगी जाती थी, और तीन-चार अच्छी प्रविष्टियों पर नक़द ईनाम भी दिए जाते थे। एक और आवरण कथा थी माला सिन्हा पर, बग़ीचे में लताओं व पेड़ों के बीच इठलाती उनकी तीन रंगीन तस्वीरों के साथ, साथ में छपा था विद्यापति कृत ये काव्यांश;

कालिन्दी पुलिन-कुंज बन शोभन।

नव नव प्रेम विभोर।

नवल रसाल-मुकुल-मधु मातल।

नव-कोकिल कवि गाय,

नव युवति गन चित उमता भई।

नव रस कानन धाय।

जिसे उद्धृत करने के पीछे मेरा ध्येय सिर्फ़ माधुरी के काव्य-चयन का विस्तृत दायरा दिखाना है। कुछ मिसालें उर्दू शायरी से भी। शर्मीला टैगोर का चित्र है, शीर्षक में मजरूह का शे'र:

यह आग और नहीं, दिल की आग है नादाँ,

शमअ हो के न हो, जल मरेंगे परवाने।

एक और जगह रंगीन, जुड़वाँ पृष्ठों पर शर्मीला और मनोज कुमार आमने सामने हैं, एक ही ग़ज़ल के दो अश'आर से जुड़े हुए:

शर्मीला: किस नजर से आज वह देखा किया।

दिल मेरा डूबा किया उछला किया।।

मनोज: उनके जाते ही ये हैरत छा गई।

जिस तरफ़ देखा किया, देखा किया।।(10 सितंबर, 1965)

वाह! वाह!!

हिन्दीप्रियता

इन उद्धरणों से यह साफ़ हो गया होगा कि हिन्दुस्तानी सिनेमा और उर्दू के बीच जो पारंपरिक दोस्ताना रिश्ता[23] था, उसके बीच माधुरी हिन्दी के लिए भी जगह तलाशने की कोशिश कर रही थी। इस तरह की कोशिशें हिन्दी की तरफ़ से कई पीढ़ियाँ कम-से-कम सौ साल से करती आ रही थीं : चाहे वह छापे की दुनिया के भारतेन्दु और उनके बाद के दिग्गज रहे हों, जो कविता में हिन्दी को ब्रजभाषा-अवधी वग़ैरह के बरक्स 'खड़ी' करने में, या पारसी नाटक-लेखन के क्षेत्र में पं. राधेश्याम कथावाचक के सचेत प्रयास हों, या फिर रेडियो की दुनिया में पं. बलभद्र नारायण दीक्षित 'पढ़ीस' के परामर्श हों या पं. रविशंकर शुक्ल की आक्रामक राजनीतिक मुहिम हो, इन सबका एक सामान्य सरोकार उन इलाक़ों में हिन्दी की पैठ बनाना रहा जो उसके लिए नए थे।[24] ये इलाक़े हिन्दीवादियों को भाषायी नुक्ता-ए-नज़र से ख़ाली बर्तन की तरह नज़र आते थे, जिन्हें हिन्दी की सामग्री से भरना इन्हें परम राष्ट्रीय कर्तव्य लगता था। अगर ग़लती से किसी और ज़बान, और ख़ुदा न करे उर्दू का वहाँ पहले से क़ब्ज़ा हो, तब तो मामला और संगीन हो उठता था, युद्ध-जैसी स्थिति हो उठती थी, कि हमें इस 'विदेशी' ज़बान को अपदस्थ करना है, अपनी ज़मीन पर निज भाषा का अख़्तियार क़ायम करना है। बेशक आज़ादी के बाद स्थिति तेज़ी से बदली, हिन्दी का अधिकार-क्षेत्र बढ़ा, उर्दू विभाजन और मुसलमानों की भाषा बनकर हिन्दुस्तान में बदनाम और बेदख़ल कर दी गई, लेकिन, जैसा कि हम नीचे देखेंगे, तल्ख़ियाँ अभी बाक़ी हैं, घाव अभी तक ताज़ा हैं। माधुरी 'हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान' के लिए चले इस लंबे संघर्ष में हिन्दूवादी बनकर तो शायद नहीं, लेकिन कम-से-कम फ़िल्मक्षेत्रे हिन्दी राष्ट्रवादी हितों का हामी बनकर ज़रूर उभरती है।[25]

अपनी बात की पुष्टि के लिए चलिए एक बार फिर एक संपादकीय, 'हमारी बात' से ही यात्रा शुरू की जाए, जिसका शीर्षक था 'हिन्दी की फिल्में और हिन्दी':

कुछ पुरानी और कुछ आनेवाली फिल्मों के नाम इस प्रकार हैं: 'फ्लाइट टू बैंकाक', 'गर्ल फ्राम चाइना', हण्डरेड एण्ड एट [डेज़] इन कश्मीर', 'पेनिक इन पाकिस्तान', 'द सोल्जर', द कश्मीर रेडर्स', 'अराउण्ड द वर्ल्ड', 'लव इन टोकियो', 'ईवनिंग इन पेरिस', 'जौहर एण्ड जौहर इन चाइना', 'लव इन शिमला', मदर इंडिया', सन आफ इंडिया', मिस्टर एण्ड मिसेज फिफ्टी फाइव', मिस्टर एक्स इन बाम्बे, लव मैरिज', होलीडे इन बाम्बे'....। इन नामों को पढ़कर क्या आपको भ्रम नहीं होता कि भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी है और कुछ सिरफिरे लोग बिना मतलब 'हिन्दी-हिन्दी' की रट लगाए रहते हैं? यह छोड़िये। सिनेमाघर में जब आप फिल्म देखते हैं तो आपको इतना तो अवश्य ही लगता होगा कि यदि भारत की भाषा हिन्दी, उर्दू, हिन्दुस्तानी या इससे मिलती जुलती कोई और भाषा हो भी तो उसकी लिपि नागरी अरबी नहीं, रोमन है। इस सन्देह की पुष्टि तब और मिलती है, जब सड़कों, मुहल्लों के रोमन लिपि में लिखे नामपटोंपर कोलतार पोतने वाली राजनीतिक पार्टियाँ फिल्मोंकी रोमन नामावली पर चुप्पी साध लेती हैं। इन पार्टियों के सदस्य फिल्में नहीं देखते होंगे - इस पर तो विश्वास नहीं होता।

आपने अकसर यह दावा सुना होगा : हिन्दी के प्रचार में सबसे बड़ा योगदान फिल्मों का है। फिल्मकार इस आत्मछलपूर्ण दावेसे अपनेको हिन्दी सेवकोमें सबसे अगला स्थान देना चाहें तो आश्चर्य नहीं। आश्चर्य तब होता है जब आम लोग हिन्दी फिल्मों की लोकप्रियता देखकर इस दावे को सत्य मान लेते हैं। यह ऐसा ही है कि पूर्व में सूर्योदय और पश्चिम में सूर्यास्त देख कर लोग समझते रहे कि सूर्य धरतीकी परिक्रमा करता है।[26]

इस तरह की कोपरनिकसीय भाषावैज्ञानिक क्रांति को स्थापित करने के बाद हिन्दी फिल्मकारों के 'हिन्दी-प्रेम' की पोल ये कहकर खोली जाती है कि फ़िल्म कला का एक तरह का थोक व्यवसाय है, जिसे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाकर ही लाभ कमाया जा सकता है, लिहाज़ा, इसकी ज़बान औसत अवाम की ज़बान रखी जाती है। लेकिन अफ़सोस कि नामावली और प्रचार-प्रसारमें एक प्रतिशत अंग्रेज़ी-भाषी जनता की लिपि को प्रश्रय दिया जाता है, जबकि 35 प्रतिशत पढ़े-लिखे लोग टूटी-फूटी हिन्दी और देवनागरी जानते हैं। "ऐसा करके निर्माता वस्तुत: अपने पाँव में आप कुल्हाड़ी मार रहे होते हैं। बेहतर प्रचार होता अगर वे कुछ और पैसे ख़र्च करके भारत की दीगर लिपियों में भी फिल्म का नाम दें: हाल ही में निर्माता-निर्देशक ताराचंद बड़जात्या ने अपनी फिल्म 'दोस्ती' के प्रचारमें इस नीतिको अपनाकर उचित लाभ उठाया था। बंगला फिल्मोंके अधिकांश निर्माता नामावलीमें बंगला लिपि ही काम में लाते हैं। लेकिन हिन्दीमें हाल यह है कि भोजपुरी फिल्मों में भी रोमन नामावली होती है (जबकि ये फिल्में हिन्दी क्षेत्रके बाहर कहीं नहीं देखी जाती)। यहाँ तक कि उन मारकाट वाली स्टण्ट फिल्मोंमें भी, जिन्हें अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग नहीं देखते। कई बार यह देखकर निर्माताओं की व्यावसायिक बुद्धिहीनता पर हंसी ही आती है।"

इस संपादकीय से आरंभ करके माधुरी ने जैसे रोमन नामावली के ख़िलाफ़ बाक़ायदा जिहाद ही छेड़ दिया, जिसका कई पाठकों ने भी खुले दिल से समर्थन किया। मसलन जब वे पत्र लिखते तो ये शिकायती स्वर में बताना नहीं भूलते कि फ़लाँ-फ़लाँ फिल्म में नामावली रोमन में दी गई है। लेकिन इस मुहिम की सबसे सनातन रट तो फ़िल्म समीक्षा के स्तंभ 'परख' में सुनाई पड़ती है। चाहे समीक्षक की राय में पूरी फ़िल्म अच्छी ही क्यों न हो, अगर नामावली नागरी में नहीं है तो उस पर एक टेढ़ी टिप्पणी तो चिपका ही दी जाती थी। माधुरी के अंदरूनी पृष्ठों पर सिने-समाचार नामक एक अख़बार भी होता था, अख़बारी काग़ज़ पर अख़बारी साज-सज्जा लिए, जिसमें 'जानने योग्य हर फिल्मी खबर' छपती थी। उसका 15 दिसंबर, 1967 का अंक मज़ेदार है क्योंकि इसके मुख्य पृष्ठ पर सुर्ख़ी ये लगाई गई थी: 'फिल्म उद्योग में हिन्दी नामों की जोरदार लहर: हिन्दी के विरुद्ध दलीलें देने वालों को चुनौती'। उपशीर्षक भी हमारे काम का है: 'उपकार, संघर्ष, अभिलाषा, विश्वास, समर्पण, जीवन मृत्यु, परिवार, धरती, वासना, भावना आदि फिल्मों के कुछ ऐसे शीर्षक हैं जो इस मत का खण्डन करते हैं कि केवल उर्दू या अंग्रेजी के नाम ही सुंदर होते हैं'। जैसा कि ऊपर उद्धृत संपादकीय से भी ज़ाहिर है, भाषा की माधुरी की अपनी आधिकारिक समझ वैसे तो आम तौर पर व्यापक है, पर कुछ और मिसालें लेने पर हमें उस आबोहवा का अंदाज़ा लग जाएगा, जिसमें हस्तक्षेप करने की चेष्टा वो कर रही थी। संपादकीय इस पंक्ति के साथ ख़त्म होता है: "अहिन्दी भाषी क्षेत्रोंके लिए फिल्म का नाम व अन्य मुख्य नाम हिन्दी के साथ दो-तीन अन्य प्रमुख भारतीय लिपियों(जैसे बंगला व तमिल)में भी दिए जा सकते हैं।" पूछना चाहिए कि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में नाम नागरी में क्यों दिए जाएँ, केवल स्थानीय भाषा में ही क्यों नहीं। लेकिन ऐसा मानना हिन्दी-हित के साथ समझौता करना होता, चूँकि इस भाषा की पहचान इसकी लिपि से नत्थम-गुत्था है, आख़िरकार लिपि की लड़ाई लड़कर ही तो भाषा अपनी स्वतंत्र इयत्ता बना पाई थी। ठीक है हिन्दी-विरोध की हवा है, ख़ासकर दक्षिण में तो इतना मान लिया जाता है कि उनकी लिपि भी चलेगी: 'भी'; 'ही' - कत्तई नहीं। इस सिलसिले में दिलचस्प है कि माधुरी ने किसी प्रोफ़ेसर मनहर सिंह रावत से दक्षिण का दौरा करवाके एक लेख लिखवाया जिसका मानीख़ेज़ शीर्षक था - 'दक्षिण का नारा: हमें फिल्मों में हिन्दी चाहिए'। लब्बेलुवाब ये था कि भारत की ज़्यादातर भाषाएँ संस्कृत के नज़दीक हैं, दक्षिण की भी। इसलिए वहाँ के लोगों के लिए संस्कृत के तत्सम-तद्भव शब्द सहज ग्राह्य हैं। साथ ही संस्कार का सनातन सवाल भी है:

एक सामान्य भारतीय के लिए गुरू-उस्ताद, रानी-बेगम, विद्यालय-मदरसा, कला-फन, ज्ञान-इल्म,, धर्म-मजहब, कवि-सम्मेलन-मुशायरा, हाथ-दस्त, पाठ-सबक, आदि शब्द युग्मोंमें बिम्ब ग्रहण या संस्कार शीलताकी दृष्टि से बहुत बड़ा अंतर आ जाता है जो कि अनुभूत सत्य है।

पर इसके साथ ही हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जन-साधारणकी भाषामें जो शब्द सदियों से घुलमिलकर उनके जीवन संस्कार के अंग बन चुके हैं, उन्हें जबरदस्ती हटाकर एक नयी बनावटी भाषाका निर्माण करना भी बहुत हानिकारक होगा। फिर वे प्रचलित शब्द या प्रयोग कहीं से क्यों न आये हों। मातृभाषा के प्रति अनावश्यक पूर्वाग्रह, ममत्व... द्वेषनात्मक दृष्टिकोण का ही सूचक है। सरल भाषाकी तो केवल एक ही कसौटी होनी चाहिये कि किसी शब्द प्रयोग या मुहावरेसे सामान्य जनता कितनी परिचित या आसानिसे भविष्य में परिचित हो सकती है। उदाहरणके लिये यदि हम कहें - “यह बात मुझे मालूम है।" तो साधारण हिन्दीसे परिचित श्रोताओंको भी समझनेमें कोई कठिनाई नहीं होती। पर इसी बातको अगर हम अनावश्यक रूप से अल्प परिचित संस्कृतनिष्ठ भाषामें कहें कि - "प्रस्तुत वार्ता मुझे विदित है।" तो यह भाषाका मज़ाक उड़ाने-जैसा हो जाता है।

इसके साथ-साथ कुछ सुन्दर सरल, उपयुक्त तथा अर्थ व्यंजक शब्द हमें जहां कहीं भी प्रादेशिक भाषाओं से मिलें, विशेषत: एसे शब्द जिनके समानार्थी या पर्यायवाची शब्द हिन्दीमें उतने निश्चित प्रभावोत्पादक एवं व्यापक अर्थोंको देनेवाले नहीं होते तो उन्हें नि:संकोच स्वीकार कर लेना चाहिये। (30 जुलाई, 1965)

रावत साहब से पूछने लायक़ बात यह है कि ये सामान्य भारतीय कौन है, और क्या पूरे दक्षिण की भाषाओं-उपभाषाओं की संस्कृतमयता यकसाँ है? अगर हाँ तो इतनी सदियों तक वे संस्कृत से अलग अपनी इयत्ता बनाकर क्यों रख पाईं? अगर हाँ तो ये सभी भाषाएँ संस्कृत ही क्यों नहीं कही जातीं। क्या तमिल भाषा के अंदर कई तरह की अंतर्विरोधी धाराएँ नहीं बह रही थीं, एक पारंपरिक ब्राह्मणवादी किंचित संस्कृतनिष्ठ तमिल के साथ-साथ दूसरी, दलित तमिल, भी तो उन्हीं दिनों अपने को राजनीतिक, साहित्यिक और फ़िल्मी गलियारों में स्थापित करने की कोशिश कर रहा था। तो दार्शनिक धरातल पर जहाँ रावत साहब उदारमना हैं, वहीं 'संस्कार' का सनातन सवाल उन्हें भाषाओं की उचित व्यावहारिक स्थिति का आकलन करने से रोक-रोक देता है। सवाल अंतत: शुद्धता का है, जैसा कि पटना की कुमुदिनी सिन्हा के इस ख़त से ज़ाहिर हो जाएगा:

माधुरी' एक एसी जनप्रिय पत्रिका है, जिसने हम जैसे हजारों पाठकों का दिल जीत लिया है। 10 सितंबर के अंक में 'आपकी बात' स्तंभ में प्रकाशित मधुकर राजस्थानी के विचार पढ़े.... वास्तव में आज अच्छे से अच्छे कलाकार, लेखक, कवियों का फिल्म जगत में प्रवेश आवश्यक है। फिल्म ही आज एक ऐसा माध्यम है, जो जन-जन तक पहुँचता है।

इसी स्तंभ में कलकत्ता के भाई निर्मल कुमार दसानी का पत्र पढ़ा, उन्हें भी धन्यवाद देती हूँ। इस लोकतंत्र राष्ट्र में हिन्दी के नाम पर खिचड़ी अधिक चल नहीं सकती। उसका एक अपना अलग रूप होना ही चाहिए और इसमें फिल्मों का सहयोग आवश्यक है। फिल्म के हरेक कलाकार, गीतकार को चाहिए कि फारसी-उर्दू मिश्रित भाषा त्यागकर यथाशक्ति संशोधित, परिमार्जित और मधुर हिन्दी व्यवहृत कर उसे फैलाने में अपना सहयोग दें

अंत में पुन: माधुरी की लोकप्रियता और सफलता की कामना करती हूँ।[27](ज़ोर हमारा)

एक तरफ़ जहाँ दशकों पुरानी गुहार – कि हिन्दी साहित्यकार सिनेमा की ओर मुड़ें - को बदस्तूर दुहराया गया है, वहीं लोकतंत्र की अद्भुत परिभाषा भी की गई है कि यहाँ फ़ारसी-उर्दू मिश्रित खिचड़ी भाषा नहीं चलेगी। एक तरफ़ लोकप्रियता की अभिलाषा, दूसरी तरफ़ परिमार्जित, संशोधित और परिनिष्ठित हिन्दी की वकालत - ज़ाहिर है कि लेखिका को इन दोनों चाहतों में कोई विरोधाभास नहीं दिखाई देता। लेकिन भाषायी ज़मीन पर क़ब्ज़े की युयुत्सा तब ख़ासी सक्रिय हो उठती है जब मुक़ाबले में हिन्दी की पुरानी जानी दुश्मन उर्दू खड़ी हो जाए, और कुछ नहीं बस अपना खोया हुआ नाम ही माँग ले तो यूँ लगता था गोया क़यामत बरपा हो गई।[28] मिसाल के तौर पर एक विवाद का ज़िक्र करना उतना ही ज़रूरी है जितना कि उसकी तफ़सील में जाना। सिने-समाचार में छपी इस ख़बर को देखें:

साहिर द्वारा हिन्दी के विरुद्ध विष वमन: फिल्म उद्योग में आक्रोश

(माधुरी के विशेष प्रतिनिधि द्वारा : तथाकथित प्रगतिशील शायर साहिर लुधियानवीकी उर्दू-हिन्दी का विवाद उठाकर साम्प्रदायिक तनाव पैदा करनेकी कोशिशशों की फिल्म उद्योग में सर्वत्र निंदा की जा रही है।)

हाल ही में एक मुशायरे में साहिरने कहा कि भारतमें 97 प्रतिशत फिल्में उर्दू में बनती हैं, इसलिए इन फिल्मोंकी नामावली उर्दू में होनी चाहिए। उन्होंने घोषणा की कि 'हिन्दी साम्राज्यवाद' नहीं चलने दिया जायेगा।

सारी दुनियाके शोषित वर्ग का रहनुमा बननेवाले इस शायर की साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने की यह कोई पहली हरकत नहीं है। कुछ ही मास पूर्व बिहारके बाढ़ पीड़ितोंकी सहायताके लिए चन्दा एकत्रित करने के उद्देश्यसे साहिर, ख्वाजा अहमद अब्बास, सरदार जाफरी आदि ने बिहार, उत्तर प्रदेश राजस्थान, पंजाब आदि प्रदेशों का दौरा किया था। लेकिन बिहारके अकाल का सिर्फ एक बहाना बन रह गया। हर मुशायरेमें सम्बन्धित प्रदेश की द्वितीय राजभाषा बनायी जानेका प्रचार किया गया।

आम चुनाव से पूर्व बम्बईके कुछ उर्दू पत्रकारों को इन्हीं शायर महोदय ने सलाह दी थी कि उत्तर प्रदेश के साथ महाराष्ट्र में भी द्वितीय राजभाषा का स्थान उर्दू को देने के लिए आंदोलन शुरू किया जाना चाहिए। उनका तर्क था कि महाराष्ट्र में सम्मिलित मराठवाड़ा क्षेत्र के निजामके आधीन था और वहाँ के वासी उर्दू बोलते हैं। इस आंदोलन में तन-मन-धनसे सहायता देनेका आश्वासन भी उन्होंने दिया था।

साहिर द्वारा साम्प्रदायिक आग भड़कानेकी इन कोशिशों से फिल्म उद्योगमें आक्रोश फैल गया है। फिल्म लेखक संघ के अध्यक्ष ब्रजेन्द्र गौड़ने साहिर की निन्दा करते हुए कहा कि फिल्म उद्योग में साम्प्रदायिकता फैलाने की यह कोशिश सफल नहीं हो सकेगी।

सुप्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक-अभिनेता मनोजकुमार, निर्माता शक्ति सामंत, गीतकार भरत व्यास, मजरूह सुल्तानपुरी, पं. गिरीश, संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी आदि ने भी 'माधुरी' प्रतिनिधि से हुई भेंट में साहिर की इन हरकतों की निन्दा की। (16 दिसंबर, 1967)

देखा जा सकता है कि माधुरी का हिन्दी राष्ट्रवाद जागकर गोलबंदी शुरू कर चुका है। साहिर ने अक्षम्य अपराध जो किया है, उर्दू की अपनी ज़मीन को अपना कहने का, इसके आगे उनके सारे प्रगतिशील पुण्य ख़ाक हो जाते हैं, अब तक के सारे भजन-कीर्तन बेकार, सारी लोकप्रियता ताक पर। आज का पाठक यह पूछ सकता है कि अगर हिन्दी के लिए आंदोलन चलाना साम्प्रदायिक नहीं था तो उर्दू में ऐसी क्या ख़ास बात थी जिसके स्पर्श मात्र से आपकी तरक़्क़ीपसंदगी मशकूक हो जाती थी? यह उसी 'शूच्याग्रे न दत्तव्यं' वाले युयुत्सु उत्साहातिरेक का लक्षण था जो हिन्दी के हिमायतियों में पचास और साठ के दशक में ज़बर्दस्त तौर पर तारी था, जो कुछ राज्यों में उर्दू को दूसरी भाषा का दर्जा देने के नाम पर ही अलगाववाद सूँघने लगता था। पाठकों ने एक बार फिर माधुरी के मुहिम की ताईद करते हुए कई ख़त लिखे, सिर्फ़ एक लेते हैं:

'साहिर का असली चेहरा' शीर्षक-पत्र में कहा गया: "साहिरकी लोकप्रियता प्रगतिशील विचारोंके कारण ही बढ़ी है। एक प्रगतिशील साहित्यजीवी अगर संकीर्णता और अलगाववादी लिजलिजी विचारधाराको प्रोत्साहन देता है तो ऐसी प्रगतिशिलता को 'फ्राड' ही कहा जाएगा। साहिर निश्चय ही उर्दू का पक्षपोषण कर सकते हैं, लेकिन राष्ट्रभाषा का अपमान करके या अपमान की भाषा बोलकर नहीं। साहिर साहब को यह बतानेकी आवश्यकता नहीं है कि राष्ट्र और राष्ट्रभाषा की क्या अहमियत होती है। उर्दू को हथियार बनाकर हिन्दीपर वार करना कौन देशभक्त हिन्दुस्तानी पसंद करेगा?...फिरकापरस्तों की यह कमजोरी होती है कि वे वतन की मिट्टी के साथ, उसकी पाकीजा तहजीब के साथ, उसकी भावनात्मक एकता के साथ गद्दारी ही नहीं बलात्कार तक करने की कोशिश करते हैं।...अच्छा हो साहिर साहब अपने रुख में परिवर्तन कर लें अन्यथा प्रगतिशीलता का जो नकाब उन्होंने चढ़ा रखा है, वह हमेशा के लिए उतार फेंके ताकि असली चेहरे का रंग-रोगन तो नजर आए।"

इस धौंस-भरे विमर्श में राष्ट्रभाषा हिन्दी तो सदा-सर्वदा लोकाभिमुख रही है, वह तो जनवाद के ऊँचे नैतिक सिंहासन से जनता से बोलती हुई जनता की अपनी भाषा है, उसको साम्राज्यवादी भला कहा कैसे जा सकता है! ऐसा पूर्वी बंगाल में बांग्ला के साथ पाकिस्तान भले कर सकता है, जबकि भारत की पूरी तवारीख़ में आक्रामकता के उदाहरण नहीं मिलते। दिलचस्प यह भी है कि इस विवाद के दौरान साहिर को कभी अपनी स्थिति साफ़ करने का मौक़ा नहीं दिया, हाँ चौतरफ़ा उनपर हल्ला अवश्य बोला गया। इस विवाद की अनुगूँज अंग्रेजी फ़िल्मफ़ेयर में भी उठी, पर वहाँ कम-से-कम कुछ ऐसी चिट्ठियों को भी छापा गया जो उर्दू व हिन्दुस्तानी यानि साहिर का पक्ष लेती दिखीं, जबकि एक भी ऐसी चिट्ठी माधुरी की उपलब्ध फ़ाइलों में नहीं दिखी।[29]

माधुरी से ही एक आख़िरी ख़त – चूँकि यह इस मुद्दे पर सबसे उत्कृष्ट बयान है - देकर इस विवाद और लेख की पुर्णाहुति की जाए। फिल्मेश्वर[30] ने अपने अनियत स्तंभ 'चले पवन की चाल' में 'हिन्दी-उर्दू के नाम पर नफरत के शोले भड़काने वाले साहिर के नाम एक खुला पत्र' लिखा, जिसमें सिद्ध किया गया कि हिन्दी-उर्दू दो अलहदा भाषाएँ नहीं हैं, गोकि उनकी लिपियाँ एक नहीं हैं: ग़ालिब ने अपने को हिन्दी का कवि कहा, और ख़ुद साहिर की नागरी में छपी किताबें उर्दू संस्करणों से ज़्यादा बिकी हैं, वो भी बग़ैर अनुवाद के, तो हिन्दी साम्राज्यवादी कैसे हो गई? और फिल्मों की भाषा अगर 97 प्रतिशत उर्दू है, तो वो हिन्दी हुई न? पिर झगड़ा कैसा! इस ख़त में साहिर के पूर्व-जन्म के पुण्य को बेकार नहीं मानकर उनके 'अलगाववादी' उर्दू-प्रेम पर एक छद्म अविश्वास, एक मिथ्या आहत भाव का मुजाहिरा किया गया है, कि 'साहिर, आप तो ऐसे न थे' या 'आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी'। छद्म और मिथ्या विशेषणो का सहारा मैंने इसलिए लिया है क्यूँकि शीर्षक में ही निर्णय साफ़ है, बाक़ी पत्र तो एक ख़ास अंदाज़े-बयाँ है, कोसने का एक शालीन तरीक़ा, बस। बहरहाल, पत्र-लेखक बेहद हैरत में है:

आख़िर बात क्या है? हिन्दी और उर्दू की? या हिन्दी और उर्दू के नाम पर सम्प्रदाय की? इस धर्मनिरपेक्ष राज्यमें आजादी के बीस सालोंमें इतना करिश्मा तो किया ही है कि हमारे अन्दर जो संकुचित भावनाओं की आग घुट रही है, हमने उसे उसके सही नाम से पुकारना बंद कर दिया है, और उसे हिन्दी-उर्दूका नाम दे कर हम उसे छिपाने की कोशिश करते [रहते] हैं।

आप अपनी भावुक शायरी में कितनी ही लफ्फाजी करते रहते हों, यह सही है कि आपके दिल में एक दिन इनसान के प्रति प्रेम भरा था। आप सब दुनियाके लोगों को एकसाथ कंधे से कंधा मिलाकर खुशहाली की मंजिल की तरफ बढ़ते हुए देखना चाहते थे। लेकिन दोस्त, आज ये क्या हो गया? इनसान को इनसान के करीब लाने के बजाए, आप हिन्दी-उर्दूकी आड़ में किस नफरत के शोलेसे खेलने लगे? सच कहूँ तो आपकी आवाज से आज जमाते-इस्लामी की घिनौनी बू आती है। आपने पिछले दिनों वह शानदार गीत लिखा था:

नीले गगन के तले,

धरती का प्यार पले

यह पत्र लिखते समय मुझे उस गीत की याद हो आयी, इसलिए आपको देशद्रोही कहनेको मन नहीं होता। पर मुशायरे में आपकी तकरीरको पढ़कर आपको क्या कहूँ यह समझ में नहीं आता। पूरे हिन्दुस्तानकी एक पीढ़ी, जिसमें पाकिस्तान की भी एक पीढ़ी शामिल की जा सकती है, आपकी कलम पर नाज करती थी, आपके खयालोंसे(खयालों उर्दू का नहीं हिन्दी का शब्द है, उर्दू में इसे खयालात कहते हैं, हुजूरेवाला) प्रभावित थी। आपने उस पीढ़ी की तमाम भावनाओं को अपनी साम्प्रदायिकता की एक झलक दिखा कर तोड़ दिया।...आपने एक बार लिखा था:

तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा

इनसान की औलाद है इनसान बनेगा

लेकिन आपकी आजकलकी गतिविधि देखते हुए तो ऐसा लगता है कि ये आपकी भावनाएँ नहीं थीं, आप सिर्फ फिल्म के एक पात्रकी भावनाएँ लिख रहे थे...सारे हिन्दुस्तान में फिल्म उद्योग एक ऐसी जगह थी जहां जाति, प्रदेश और धर्म का भेदभाव काम के रास्ते में नहीं आता था। और आप इन्सानियत के हामी थे। पर आपने इस वातावरण में साम्प्रदायिकता का जहर घोल दिया। लगता है इनसान की औलाद का भविष्य आपकी नजर में सिर्फ एक है:

तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा

शैतान की औलाद है शैतान बनेगा

मैं आख़िरमें इतनी ही दुआ करना चाहता हूँ: खुदा उर्दूको आप जैसे हिमायतियों से बचाये! (15 दिसंबर 1967).

एक झटके में साहिर लुधियानवी जैसा लोकप्रिय शायर 'फ़्राड', 'फिरकापरस्त', 'साम्प्रदायिक' और अमूमन 'देशद्रोही' क़रार दिया जाता है। इसमें इतिहास के विद्यार्थी को कोई हैरत नहीं होती क्योंकि फिल्मेश्वर की आलोचना चिरपरिचित ढर्रे पर चलती है, और इसको अपने मंत्रमुग्ध पाठक-समूह पर पूरा भरोसा है। कई दशकों से साल-दर-साल चलते आ रहे मुख्यधारा के राष्ट्रवादी विमर्श ने एक ख़ास तरह की परंपरा का सृजन किया था, और उसमें जो कुछ पावन, महान और उदात्त था, उसे अपनी झोली में डाल लिया था, और जो अल्पसंख्यक एक ख़ास तरह के सांस्कृतिक वर्चस्व को मानने से इन्कार करते थे, वे अलगाववादी कह कर अलग-थलग कर दिए गए थे। ये दोनों धाराएँ परस्पर प्रतिद्वंद्वी मानी गईं जबकि दोनों एक ही राष्ट्रवादी नदी के दो किनारे-भर थे। हिन्दी राष्ट्रवाद इस प्रवृत्ति का एक अतिरेकी विस्तार-मात्र था, वैसे ही जैसे कि उर्दू राष्ट्रवाद। जब इन दो किनारों को मिलाने वाली फ़िल्मी दुनिया की बिचौलिया पुलिया ज़बान को उर्दू के शायर ने उर्दू नाम दिया तो इस हिमाकत पर उन्हें वैसे ही संगसार होना ही था, जैसे एक-डेढ़ पीढ़ी पहले गांधी को उनकी हिन्दुस्तानी की हिमायत के लिए।[31]

बतौर निष्कर्ष यह कहा जा सकता है कि माधुरी ने सिनेमा को हिन्दी जनपद में सम्मानजनक, लोकप्रिय और चिंतन-योग्य वस्तु बनाने में अभूतपूर्व, संयमित, रचनात्मक योग दिया। लेकिन जिस तरह फ़िल्म-निर्माताओं की व्यावसायिक चिंताओं को समझे बग़ैर मुख्यधारा का सिनेमा नहीं समझा जा सकता, उसी तरह माधुरी की हिन्दी-प्रियता का आकलन किए बग़ैर इसके सिनेमा-प्रेम और सिने-अध्ययन की इसकी विशिष्ट प्रविधि का जायज़ा नहीं लिया जा सकता।

इस विशिष्ट पद्धति की एक आख़िरी मिसाल। हम मुख्यधारा के फ़िल्म अध्ययन में कथानक को संक्षेप में कहते हैं, और जल्द ही काम के दृश्य के विश्लेषण पर बढ़ जाते हैं। लेकिन अरविंद कुमार ने बक़लम ख़ुद फ़िल्म को क़िस्सागोई के अंदाज़ में पेश किया। फ़िल्मों को शॉट-दर-शॉट, बआवाज़, शब्दों में पेश करने की पहल करके उन्होंने एक नई विधा को ही जन्म दे दिया, जो आप कह सकते हैं कि किसी हिन्दुस्तानी सिनेमची के हाथों ही संभव था। क्योंकि यहीं पर आपको ऐसे लोग बड़ी तादाद में मिल सकते हैं जो कि फ़िल्म देखकर आपसे तफ़सील से उसकी कहानी बयान करने को कहेंगे। ख़ास तौर पर उस ज़माने में, जब आप ये नहीं कह सकते थे कि देख लेना, टीवी पर आ जाएगा, या देता हूँ, है मेरे पास। इस क़दर विस्तार से सुनने के लिए, और कहने के लिए वक्ता-श्रोता के पास फ़ुर्सत का वक़्त होना भी ज़रूरी है। ये बात भी याद रखने की है कि आठवें दशक के उस दौर में एक मौखिक लोकाचार को अपनी पसंद की पुरानी फ़िल्मों को कहन शैली में ढालकर उन्होंने अपने चिर-सहयोगी और नए संपादक विनोद तिवारी का हाथ भी मज़बूत किया, कि संपादकी का संक्रमण-काल सहज गुज़र जाए, पत्रिका वैसी ही लुभावनी व ग्राह्य बनी रहे। धारावाहिक रूप में छपने वाली इस शृंखला में आदमी, प्यासा, महल, बाज़ी, देवदास, जैसी शास्त्रीय बन चुकी कई लोकप्रिय फ़िल्मों का पुनरावलोकन किया, और यह लेखमाला 'शिलालेख' के नाम से जानी गई।[32]

और भी बहुत कुछ ऐतिहासिक और दिलकश था माधुरी में, पर बाक़ी पिक्चर फिर कभी।

(इस लेख को सीएसडीएस व बाहर के कई गुरुओं-दोस्तों-सहयोगियों ने सुना-पढ़ा है। उनकी हौसलाअफ़ज़ाई का शुक्रिया - ख़ास तौर पर शाहिद अमीन, रवि वासुदेवन, आदित्य निगम, अभय दुबे, प्रभात, संजीव, विभास, भगवती, विनीत व सौम्या का. राष्ट्रीय फ़िल्म अभिलेखागार, पुणे की मददगार श्रीमती रचना जोशी व दीगर स्टाफ़ का भी बहुत-बहुत शुक्रिया. पंकज जी-वंदना राग तथा राजेश-संगीता व करुणाकर का विशेष शुक्रिया जिन्होंने मेरे पुणे-प्रवास को हर बार लज़ीज़ बनाया। मित्र पीयूष दईया को भी अनेकश: धन्यवाद कि मुझसे लिखवा लिया।)


[1] इधर फिर से फ़िल्मफ़ेयर और सिनेब्लिट्ज़ जैसी अंग्रेज़ी पत्रिकाओं के हिन्दी संस्करण आने लगे हैं, लेकिन नाम सहित पूरी सामग्री अनुवाद ही होती है। याद करें कि बंद होने के पहले कुछ समय तक माधुरी का नाम भी फ़िल्मफ़ेयर ही रहा था.

[2] हिन्दी फ़िल्म पत्रकारिता पर देखें ललित मोहन जोशी का सुचिंतित आलेख, ' सिनेमा ऐण्ड हिन्दी पीरियॉडिकल्स इन कॉलोनियल इंडिया: 1920-1947' जो मंजू जैन(सं.) नैरेटिव्स ऑफ़ इंडियन सिनेमा, प्राइमस बुक्स, दिल्ली, 2009 में संकलित है।

[3] अमृतलाल नागर, ये कोठेवालियाँ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2010.

[4] देखें इनकी आत्मकथाएँ: नारायण प्रसाद 'बेताब', बेताब चरित, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, 2002(मूलत: 1937 में प्रकाशित); कविरत्न पं. राधेश्याम कथावाचक, मेरा नाटक-काल: थिएटर के एक आदि व्यक्ति की आत्मकथा, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, 2004. तुलना के लिए आग़ा हश्र कश्मीरी के व्यक्तित्व व कृतित्व को देखा जा सकता है: अनीस आज़मी: आग़ा हश्र कश्मीरी के चुनिंदा ड्रामे, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, 2004, ख़ास तौर पर 'हयात और कारनामे', खंड 1. पारसी थिएटर में भाषा के मसले को लेकर देखें कैथरीन हैन्सन का अहम लेख, 'लैंग्वेजेज आन स्टेज: लिंग्विस्टिक प्लुरलिज़म ऐण्ड कम्युनिटी फ़ॉर्मेशन इन लेट नाइन्टीन्थ सेन्चुरी पारसी थिएटर', मॉडर्न एशियन स्टडीज़, वॉल्यूम 27, नंबर 2, (मई 2003), पृ. 381-405. हमारे अपने समय के बहुमाध्यमी लेखक स्वर्गीय मनोहर श्याम जोशी ने प्यार के इज़हार के लिए कसप में उर्दू शायरी और सिनेगीतों पर हमारी निर्भरता पर रचनात्मक टिप्पणियाँ की हैं। देखें इस विषय पर मेरा आलेख, 'कसपावतार में मनोहर श्याम की भाषा लीला', संवेद, फ़रवरी, 2007, पृ. 81-92.

[5] स'आदत हसन मंटो, दस्तावेज़ मंटो, (सं. बलराज मेनरा, शरद दत्त), खंड 5, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995; उपेन्द्रनाथ अश्क, फिल्मी दुनिया की झलकियाँ, दो भाग, नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद, 1979; भगवतीचरण वर्मा, रचनावली, खंड 7 और 13, राजकमल प्रकाशन, 2008. दिलचस्प है कि इन तीनों अदीबों का त'आल्लुक रेडियो और सिनेमा से भी रहा, मंटो का बेशक सबसे ज़्यादा और गहरा।

[6] अरविंद जी हमारे समय के अथक और बेमिसाल कोशकार हैं - उनके वेसाइट http://arvindlexicon.com/3340/arvind-kumar-and-his-works/ पर तमाम तफ़सीलात और शब्दार्थ-खोज के विकल्प मौजूद हैं। उनकी जीवनी के लिए देखें, अनुराग की दो प्रस्तुतियाँ, http://lekhakmanch.com/2011/01/16/रुकना-मेरा-काम-नहीं और http://lekhakmanch.com/2011/01/17 लगन-से-किए-सपने-सच.

[7] हरीश तिवारी, 'फिल्मी गीतों में अश्लीलता सहनी ही पड़ेगी', सरगम का सफ़र, 2 मार्च, 1973.

[8] फ़िल्ल्लमेश्वर, 'किस्स्स्स्सा किस्स का', 22 सितंबर, 1967.

[9] अभी हाल में मशहूर सिने-चिंतक जयप्रकाश चौकसे ने शम्मी कपूर को गोया श्रद्धांजलि देते हुए कश्मीर में बनी फ़िल्मों को याद किया। देखें, उनके स्तंभ, 'पर्दे के पीछे', में छपा लेख, 'डल झील के आईने में यादें',दैनिक भास्कर, 8 सितंबर 2011.

[10] हमारे दौर में सिने-मनोरंजन टीवी-वीडियो और नक़ल करने की सहूलियतों के निहायत सस्ता और सहज-सर्वोपलब्ध हुआ है। मिसाल के तौर पर देखें मल्टीप्लेक्स के बरक्स 'खोमचाप्लेक्स' पर रवीश की यह रिपोर्ट:

http://naisadak.blogspot.com/2010/10/blog-post_13.html

[11] 30 जून, 1967 का अंक अच्छे सिनेमाघर के लिए चलाए गए आंदोलन का औपचारिक प्रस्थान-बिन्दु था‌।

[12] वैसे कुछ ठोस नतीजे भी निकले थे, ख़ासकर महानगरों में। मिसाल के तौर पर 'फिल्मक्षेत्रे' नामक स्तंभ में यह ख़बर छपी कि माधुरी में छपी शिकायत के बाद बंबई के पुलिस कमिश्नर ने नॉवेल्टी सिनेमाघर का एक दिन का लाइसेन्स रद्द कर दिया, 3 अगस्त, 1973.

[13] देखें धार्मिक फिल्म विशेषांक, 20 अक्तूबर, 1967

[14] ये लहर वैसे 70 के दशक में ज़ोर पकड़ती है, तभी माधुरी कहानियाँ लेकर भी आती है, मसलन, गोविंद मूनिस की हिमायत, रांगेय राघव की कहानी 'काका' के लिए, 6 जुलाई, 1973, और जयशंकर प्रसाद की कहानी 'गुण्डा' के लिए, 7 दिसंबर, 1973.

[15] 'सिनेमा और साहित्यकार' स्तंभ में सुमित्रानंदन पंत, 'जनरुचि का प्रश्न', 24 फ़रवरी, 1967. दुष्यंत कुमार, 'जब रामधारी सिंह दिनकर ने चेतना देखी', विजय बहादुर सिंह(सं), दुष्यंत कुमार रचनावली, खंड 4, किताब घर प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ.128-32.

[16] 'बलूचिस्तान से दिल्ली, दिल्ली से बंबई: लोकप्रिय लेखक गुलशन नंदा की लंबी कहानी', 21 अप्रैल 1967. माधुरी की यह साहित्यिक यात्रा दोतरफ़ा थी: शास्त्रीय से लोकप्रिय की और, तो उलट भी: मिसाल के तौर पर देखें 22 मई 1964 के अंक में छपा शशि बंधुभ का आलेख, 'फिल्मी गीतों में छायावाद'। यहाँ व्यंजना रंचमात्र भी नहीं, उल्टे प्रसाद व महादेवी के बरक्स शकील बदायूँनी के गीतों के मौजूँ उद्धरण हैं। हालाँकि माधुरी ने फ़िल्मी प्रतिमानों का साहित्यिक मख़ौल भी जब-तब उड़ाया। इस तरह वह अपने साहित्य में पगे दुचित्ता पाठकों को फ़िल्मों को लेकर निंदा-रसपान से पूरी तरह महरूम भी नहीं रख रही थी। मज़ेदार है कि उसी साल आगरा विश्वविद्यालय से ओंकारप्रसाद माहेश्वरी ने 'हिन्दी चित्रपट और गीति-साहित्य' पर अपनी पीएचडी हासिल की, जो 14 साल बाद, 1978 में जाकर इसी नाम से विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा से छपी। किताब के लिए मिले अनुदान की संस्तुति के लिए लेखक ने डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ओर डॉ. रामविलास शर्मा को शुक्रिया कहा है। देखें, प्राक्कथन, पृ. 4. इस अनूठी किताब की ओर ध्यान खींचने के लिए मैं तलत गीत कोश के संकलक, कानपुर निवासी श्री राकेश प्रताप सिंह का आभार मानता हूँ।

[17] 17 जून 1966.

[18] देखें एरिक बार्नोव व कृष्णास्वामी, इंडियन फ़िल्म्स, कोलंबिया युनिवर्सिटी प्रेस, न्यू यॉर्क व लंदन, 1963, पृ. 55-68. पी सी चैटर्जी, ब्रॉडकास्टिंग इन इंडिया, सेज पब्लिकेशन्स, 1987.

[19] एक ईमेलाचार में अरविंद जी ने बताया कि "राही मासूम रज़ा का छद्मनाम से एक स्थायी स्तंभ था माधुरी में। उस का काम था फ़िल्मजगत की अंदरूनी बातों पर मज़ेदार भाषा में लिखना। वह भाषा राही ही लिख सकते थे। उन्हीं की एक लेखमाला इसी स्तंभ में थी - 'हेमा मालिनी पर मुक़दमा'...यह इंदिरा गांधी पर चल रहे मुक़दमे की पैरोडी होती थी।"

[20] 30 जुलाई, 1965.

[21] महेनद्र सरल, 'कनक छरी-सी कामिनी', 12 जून 1966.

[22] 'अंधी कैंची, पैनी धार: भारतीय सेंसर पर एक चिंतनशील निर्देशक के विचार', 24 सितंबर, 1965.

[23] देखें मुकुल केशवन, 'उर्दू, अवध ऐण्ड द तवायफ़: दि इस्लामिकेट रूट्स आफ़ इंडियन सिनेमा', जो ज़ोया हसन(सं), फ़ोर्जिंग आइडेन्टिटीज़: जेन्डर, कम्युनिटीज़ ऐण्ड स्टेट, काली फ़ॉर विमेन, 1994, दिल्ली में संकलित है. अली हुसैन मीर व रज़ा मीर, ऐन्थेम्स आफ़ रेसिस्टेन्स: अ सेलेब्रेशन ऑफ़ प्रोग्रेसिव उर्दू पोएट्री, रोली बुक्स, नई दिल्ली, 2006, ख़ास तौर पर अध्याय 7: 'वो यार जो है ख़ुशबू की तरह, है जिसकी ज़बाँ उर्दू की तरह'।

[24] रविशंकर शुक्ल, हिन्दी वालो, सावधान!, प्रचार पुस्तकमाला, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 1947.

[25] हिन्दी, अंग्रेज़ी व उर्दू में इस मसले के ऐतिहासिक विवेचन पर काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है। मिसाल के तौर पर देखें, आलोक राय हिन्दी नैशनलिज़म, ओरिएण्ट लॉन्गमैन, दिल्ली, 2000. फ़्रन्चेस्का ओरसीनी, द हिन्दी पब्लिक स्फियर, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 2003. दिलचस्प ये भी है कि अपनी हालिया किताब प्रिन्ट ऐण्ड प्लेज़र: पॉपुलर लिटरेचर ऐण्ड एन्टरटेनिंग फ़िक्शन्स इन कॉलोनियल नॉर्थ इंडिया (ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 2009) में फ़्रन्चेस्का ने बताया है कि लोकप्रिय साहित्य व संस्कृति में भाषा-व्यवहार की वह हदबंदी नहीं दिखाई देती जो पढ़े-लिखों की दुनिया में थी। पारसी थिएटर और सिनेमा की ज़बान उसी दरियादिल जनपद से तो आ रही थी।

[26] 5 नवंबर, 1965.

[27] 22 अक्तूबर, 1965.

[28] मैं ये चर्चा आधुनिक हिन्दी के संदर्भ में कर रहा हूँ, जहाँ आकर भाषाएँ अलग-अलग रास्ते बनाने लगती हैं, और नाम को लेकर भी लफ़ड़ा शुरू हो जाता है, वरना इतिहासकारों में अब तो ये आम सहमति है कि जो भी वो ज़बान रही हो, उसका सबसे पुराना, मध्यकालीन नाम तो हिन्दी ही था। देखें, शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, अर्ली उर्दू लिटररी कल्चर ऐण्ड हिस्ट्री, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 2001. तारिक़ रहमान, फ़्रॉम हिन्दी टू उर्दू: ए सोशल ऐण्ड पॉलिटिकल हिस्ट्री, क्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, कराची, 2011.

[29] फ़िल्मफ़ेयर, 16 फ़रवरी, 1968.

[30] यह 'फ़िल्मेश्वर' कोई और नहीं, ख़ुद अरविंद जी थे, ये ईमेल में बताते हुए उन्होंने यह भी जोड़ा कि एक बार कमलेश्वर ने उनसे कहा, कोई और नाम क्यों नहीं ले लेते, लोग समझते हैं कि फ़िल्मेश्वर मैं ही हूँ।

[31] इस लिहाज से 25 सितंबर, 1964 यानि शुरुआती दौर का संपादकीय 'राष्ट्रभाषा हिन्दी' काफ़ी संतुलित है, और हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी साहित्य व सिनेमा के संबंध को लेकर आशान्वित भी, लेकिन तब साहिर ने ये बात नहीं कही थी। एक और अहम बात यह कि अरविंद जी का मानना था कि उर्दू को लोग अब समझते नहीं हैं। इसके लिए उन्होंने 'बर्क सी लहराई तो...गाने को लेकर एक सर्वेक्षण करवाया, बर्क का मतलब फ़िल्म उद्योग के लोगों से पुछवाया, अधिकतर को इसका मतलब पता नहीं था। उन्होंने साबित कर दिया भाषा वह चलेगी जो आसान हो, फिर वह चाहे उर्दू हो या हिन्दी, लेकिन बर्क जैसा शब्द नहीं चलेगा।' देखें, उनकी जीवनी वाला वेबपृष्ठ.

[32] मिसाल के लिए देखें 1 जुलाई 1977 का अंक, पृ. 15 : जिसका बैनर था - वी. शांताराम निर्देशित प्रभात चित्र, आदमी; हिन्दी फ़िल्म इतिहास के शिलालेख * अरविंद कुमार द्वारा पुनरावलोकन.

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(लोकमत समाचार, दीपवली विशेषांक 2011 में पूर्व-प्रकाशित)

COMMENTS

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  1. बड़ा विस्तृत और महत्वपूर्ण शोध प्रबंध है | बधाई |

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  2. ईमेल से प्राप्त अरविंद जी की टीप -
    रविशंकर जी,

    धन्यवाद. आप ने यह लेख उद्धृत कर दिया. मैँ अपनी वैबसाइट पर भी डालने वाला था. रविकांत जी मुझ से मिलते रहे हैँ. जहाँ तक साहर की बात हआ, उस पर मैँ ने रविकांत को खुलासा किया था. बात यह थी कि साहिर ने एक कविता लिखी थी. यह कविता उन के और मेरे कामन मित्र मुग़नी अब्बासी ने मुझे पढ़ने को दी. उस मेँ कहा गय् था कि मुसलमान के बच्चोँ को कान पकड़ कर हिंदी पढ़ाई जा रही है ज़बतदस्ती. उर्दू को मारने की मुहिम सरकार चला रही है. वह कविता सांप्रदायित वैमनस्य से भरी थी. एक ज़माने मेँ जोश मलीहाबादी तक पाकिस्तान चले गए थे, और पंडित नेहरू आहेँ भरते रह गए थे. साहिर की तत्कलीन मानसिकता मेँ कहीँ पाकिस्तान न जा पाने का मलाल सा आभासित होता था. मैँ स्वयं साहिर का भक्त रहा हूँ. शायरी मेँ वह अव्वल थे. (लोकिन शायर ही थे, फ़िल्म गीतकार कभी नहीँ. उन की कविताएँ फ़िल्मोँ मेँ ख़ूब चलीँ, लेकिन अच्छी फ़िल्म गीत नहीँ कही जा सकतीँ. यह बड़ी बहस का विषय है, ठीक वैसे ही जैसे मेरे मित्र गुलज़ार अच्छे कवि हैँ, फ़िल्मोँ में बहुत सफल भी हैं, पर मेरी नज़र मेँ अच्छे फ़िल्म गीतकार नहीँ. ख़ैर, यह छोड़िए. केवल माधुरी मेँ छपने वाली बात तक अपने को सीमित रखता हूँ.) तो साहिर पर जो कुछ भी उन दिनोँ माधुरी मेँ छपा, वह उस कविता की प्रतिक्रिया मात्र ही था.
    प्रसंगवश --
    प्यासा के एक गीत का असर था कि मेँ कई साल तक दिशाहीन रहा- यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है. यह बात मैँ ने दिसंबर 1964 को राज कपूर से अपनी पहली मुलाक़ात तक मेँ कही थी. मुझे उन से मिलाने ले गए थे शैलेंद्र. हमॆ मिला कर शैलेंद्र न जान कहाँ चले गए. हम दोनोँ को अकेला छोड़ गए एक दूसरे को समझने देने का अवसर देने के लिए. राज कपूर नुझे समझना चाहते थे, उन का भ्कत मैँ उन्हें. अपने आडोटोरियम में बैठा कर राज कपूर ने मुझ से कहा मेरी किसी भी फ़िल्म के अपनी पसंद के किसी भी गीत का नाम लो, मैँ तुम्हेँ वह दिखवाउँगा. मैँ ने आवार का वह गीत देखना चाहा जो कुछ भोजपुरी टाइप के लोग प़थ्वीराज कपूर द्वारा लीला चिटनीस को निर्वासित करने पर किसी दूकान के थड़े पर बैठे गा रहे हैँ, गर्भवती लीला चिटनीस बारिश मेँ भीगती गिरती पड़ती जा रही है. यह सुनते ही राज कपूर चहक गए. अब तक किसी ने वह गीत नहीँ सुनना चाहा था. मुझे वह गीत दिखवा कर उन्होँ ने पूछा, कि मैँ ने वह गीत क्यों देखा. मैँ ने कहा कि आवारा ने और इस गीत ने मेरी मानसिकता को गढ़ा है. मेरी प्रसिद्ध और बदनाम कविता राम का अंतर्द्वंद्व के पीछे यह गीत ही था. तभी मैँ कह बैठा कि एक और फ़िल्म गीत था जिस ने मुझे तबाह कर दिया. चेक कर राज ने पूछा और मैँ ने बताया वह गीत था - यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है? सारा कृतत्व, सब कुछ बेमानी है, केवल निराशा ही सत्य है. मेरे सारे विश्वासोँ का अंत उस गीत ने कर दिया. जब मैँ माधुरी का संपादन करने नवंबर के अंत मेँ बंबई पहुँचा तो एक ध्वस्त जीव था. माधुरी के ज़रिए मैँ अपनी नई तलाश मेँ निकल पड़ा...

    चाहेँ तो आप यह रचनाकार पर प्रकाशित भी कर सकते हैँ.

    शुभ कामनाओँ सहित आप का

    अरविंद कुमार
    प्रधान संपादक, अरविंद लैक्सिकन - इंटरनैट पर हिंदी इंग्लिश महाथिसारस

    सी-18 चंद्र नगर
    गाज़ियाबाद 201 011


    E-mail:
    samantarkosh@gmail.com

    Website:
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रचनाकार: रविकान्त का आलेख - हिन्दी फ़िल्म अध्ययन: माधुरी का राष्ट्रीय राजमार्ग
रविकान्त का आलेख - हिन्दी फ़िल्म अध्ययन: माधुरी का राष्ट्रीय राजमार्ग
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