एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य : एक मच्छर की आत्म कथा

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अभी हाल में एक मच्छर की आत्म कथा हमारे हाथ लगी है। हम इस सोच में थे कि इसका क्या करें ? कूड़ेदान में डालें अथवा फाड़कर फेक दें। आखिर एक मच्छर...

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अभी हाल में एक मच्छर की आत्म कथा हमारे हाथ लगी है। हम इस सोच में थे कि इसका क्या करें ? कूड़ेदान में डालें अथवा फाड़कर फेक दें। आखिर एक मच्छर की आत्मकथा का क्या मोल ? परंतु किसी की रचना की ऐसी की तैसी करना हर रचनाकार को थोड़े शोभा देता है। इसलिए अंततः बिचार आया कि इसे कहीं प्रकाशित कराना चाहिए। मच्छर नहीं करा सका तो क्या हुआ ? यहाँ तो बड़े-बड़ों की रचनाओं को कोई पूछता तक नहीं तो एक मच्छर की रचना और वो भी आत्मकथा को कौन पूछता ? आत्मकथा निम्नवत है-

एक मच्छर की आत्म कथा देखकर लोग हँसेंगे। हँसें भले ही लेकिन कम से कम देख तो लें। हमें इतने में ही संतुष्टि मिल जायेगी। हमारी आत्म कथा में व्यथा कम नहीं है। और दूसरे की व्यथा पर तो लोग हँसते ही हैं। अतः लोगों के हँसने पर हमें कोई अफ़सोस नहीं होगा। हम ठोकर खा-खाकर बड़े नहीं हुए हैं। वैसे ठोकर तो बहुत खाएं हैं। इसके अलावा खाने को क्या था हमारे पास ? भला हो उनका जिनके सहारे हम जितना जिए उतना जी सके।

बहुत से लोग ऐसे ही यानी ठोकर खाकर ही बड़े होते हैं और जो ऐसे बड़े नहीं होते वे भी अपनी आत्म-कथा में ठोकरों का जिक्र करना नहीं भूलते। बहुत से लोग सिर्फ ठोकर ही खाते रहते हैं। कभी बड़े नहीं होते। हम भी वैसे ही हैं।

अगर बड़े होते तो क्या रोना था ? तब हमें अपने बारे में लिखने की ज्यादा जरूरत नहीं होती। लोग खुद लिखते। हम छोटे थे और अब भी छोटे हैं। लोग तो बड़े-बड़े लोगों की आत्म कथाएँ पढ़ते हैं। हमारी आत्म कथा कोई पढ़ेगा भी कि नहीं। पता नहीं। पढ़ने से क्या मिलेगा ? आजकल हर पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले यही सोचते हैं।

मन में आता है कि हम भी बड़े होते तो यदि हमें छींक भी आती तो यह चर्चा का बिषय बनता। टॉयलेट जाते तो भी लोग चित्र लेते। लेकिन यह अपने नसीब में कहाँ नसीब है ?

छींक की तो बात ही अलग है। हमें बेरहमी से मसल दिया जाता हैं और लोग इसका जिक्र तक नहीं करते। लोग हमसे टकराते हैं। लोगों के वाहनों से भी टक्कर हो जाती है। लेकिन एक्सीडेंट हो जाने पर एक्सीडेंट करने वाला मुड़कर भी नहीं देखता कि मरा की जिया। देखने वाले भी चुप कोई मदद के लिए भी नहीं आता। कहते हैं कि अरे कोई मच्छर है।

कितने ही मच्छर आत्म हत्या करते हैं। कभी सुना आपने कहीं। न यह अखबार की सुर्खियों में आता है और न ही चर्चा का विषय बनता है।

और तो और कहीं कोई इज्जत नहीं। आज लोग बात-बात में कहते हैं कि अभी मच्छर की तरह मसल दूँगा। और मसल भी रहे हैं। घर से बाहर जाकर वापस आ जाओ तो बड़ी बात है। सच पूछों तो घर में भी लोग सुरक्षित नहीं हैं।

हमें कोई देखना नहीं चाहता। अपने घर नहीं आने देना चाहता। खिड़कियों तक में सिर्फ मेरे लिए जाली लगाये रहते हैं। अरे भाई जो डर तुमको मुझसे है। ऐसे लोग तो तुम्हारे पास ही रहते हैं। घर-बाहर ऐसे लोगों की कमी नहीं है। फिर हम से इतनी नफरत क्यों करते हो ?

आप कहीं जाएँ और आप के लिए कोई दरवाजा बंद कर ले तो आपको कैसा लगेगा ? फिर भी हम किसी तरह घर में प्रवेश कर जाते हैं। अंदर गए तो हमारे लिए जाल लगाये मिलते हैं। भला हो जाल का जो हमें छोड़कर जाल लगाने वाले को ही अंदर कर लेता है। लेकिन हम भी सोचते हैं कि आ गए हैं तो बिना मिले नहीं जाएंगे।

सोचो, तुम्हारे अपने तुमसे नहीं मिलना चाहते। कई तो देखकर रास्ता बदल लेते हैं। लेकिन जिससे तुम नफरत करते हो। उसे तुमसे मिलने की कितनी आतुरता होती है। रात भर जगकर गीत सुनाता है। अवसर मिलते ही मिलता है। लेकिन बदले में क्या मिलता है ? जहाँ तक तुम्हारा वश चलता है, क्या देते हो- मौत ?

लोग खुद स्मोकिंग करते हैं तथा दूसरों को भी आदी बना डालते हैं। जबकि कहते हैं कि इससे पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों को खतरा है। धीरे-धीरे हमें भी ले बीते। लत पड़ गई । पहले हमारी कौम में स्मोकिंग नहीं थी। हमारे बच्चे भी इससे नहीं बचे। हमें दूर करने के लिए लोग तरह-तरह के क्वायल सुलगाते हैं। हमने सोचा चलो ठीक है। अभी तक तुम पीते थे। अब हम भी पिएंगे। लेकिन तुमसे दूर नहीं जाएंगे। अब हम इतना आदी हो चुके हैं कि हमारे छोटे मुन्ने जलता क्वायल घर उठा लाते हैं। कहते हैं कि मन नहीं भरता।

लोगों कि भावनाएं तो मर चुकी हैं फिर भी अगर हम अपनी व्यथा ही लिखते रहेंगे तो लोगों की सोई भावनाएं जग सकती हैं। और इसे एक दुखद आत्म कथा कहकर किनारे कर देंगे। अतः संक्षेप में हम अन्य बातें भी कह डालते हैं।

हमारी जन्मतिथि और जन्मभूमि के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है। वैसे तो सबकी कोई न कोई जन्मतिथि और जन्मभूमि होती ही है। लेकिन हम उनमें से हैं जिनकी जन्मतिथि नहीं होती। जो लोग खुद अपनी जन्मतिथि नहीं जानते। उनकी जन्मतिथि कौन जानेगा ? हम कब और कहाँ पैदा हुए ? इस विषय पर विद्वानों में मतभेद हो सकता है। और हमें इस पर गर्व होगा। लेकिन इस पचड़े में विद्वान क्यों पड़ेंगे ?

हम जन्मदिन नहीं मनाते। न केक काटते हैं। न मोमबत्ती जलाते हैं। हम तो अँधेरे के आदी हैं। हमारे यहाँ लाखों की पार्टी भी नहीं होती। जन्मतिथि मालूम भी होती तो क्या जन्मदिन मना पाते ? शायद यह जानकर दुख होता कि जन्मदिन के दिन भी भूखे सोना पड़ा।

कई लोगों के बीच हमारे नाम और काम में भी मतभेद दिखता है। वैसे हम लोगों में न ही नाम का झगड़ा है और न ही काम का। हम सबके सब मच्छर नाम से जाने जाते हैं और सब एक ही काम करते हैं। जो नाम और काम हमारे पूर्वजों का था। वही नाम और काम हम में से हर एक का है। कुछ लोग हमारी इस एकता को सहन नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए हम लोगों को अलग-अलग जाति और नाम के आधार पर बाँटना चाह रहे हैं। हमें अलग-अलग बता रहे हैं और अलग-अलग नाम भी दे रहे हैं। हम भले ही अलग-अलग जाति के हों और हो सकता है कि हमारा नाम भी अलग-अलग हो। फिर भी हमारा मानना है कि हम लोगों की दृष्टि में कुछ भी हों, पर हैं तो मच्छर ही। अतः हम किसी के बहकावे में आने वाले नहीं हैं।

हम लोग आपस में बातचीत करते रहते हैं और मिलजुल कर रहते हैं। पड़ोसी से बातचीत करना तो दूर लोग अपने घर में भी मौन रहते हैं। पति और पत्नी, पिता और पुत्र, सास और बहू, भाई और बहन आदि के बीच भी बोलचाल बंद देखकर हमें हँसी आती है। लोग एक दूसरे का हिस्सा हड़प जाते हैं। चाहते हैं कि हम अघाये रहें बाकी चाहे भूखों मर जायें। लेकिन हम लोगों से यह नहीं होता। हम मिल बाँटकर खाते हैं। कहीं कोई शिकार दिखे तो एक दूसरे को मैसेज करके हम सब जुट जाते हैं। यह सब लोगों को रास नहीं आता।

लोग कुछ भी कहें, सोचें अथवा समझें पर हमें यह बताते हुए, इस राज का खुलासा करते हुए, बहुत हर्ष होता है कि हम मूलतः भारतीय है। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन अब हमारे और भारतीयों के बीच ज्यादा समानता नहीं रह गई है। समय के गाल में बड़े और छोटे सभी समा जाते हैं तो समानताएं विलुप्त हो जाएँ तो क्या आश्चर्य है।

वैसे भारत में विलुप्तीकरण की प्रक्रिया कुछ ज्यादा ही तेजी से चल रही है। आचार-विचार, शिष्टाचार और सदाचार गए। घर गए बड़े-बड़े मकान आए। राजा गए नेता आए। कहाँ तक गिनाएं ? जब गीध भी चले गए तो क्या कहें ? लेकिन सुना है कि यहाँ बिना पंख वाले गिद्ध बढ़ते जा रहे हैं। सेर और सवा सेर तो गए ही थे अब शेर भी जा रहे है। हाथी और हिरन भी जा रहे हैं। बढ़े हैं तो मच्छर बढ़े हैं। इसके लिए हम शुक्रगुजार हैं।

हमारे नाम और काम से सभी परिचित हैं ही। वैसे तो मेरा काम हर जगह व्याप्त है। लेकिन इसमें भारत के लोग सबसे आगे हैं। भारतीयों में मेरे काम की प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ी है। स्पष्ट कहें तो हम भी खून चूसते हैं। और भारत में भी एक दूसरे का खून चूसने वालों की कमी नहीं है। फिर भी हमारे और लोगों के खून चूसने में थोड़ा अंतर है। कोई मच्छर किसी मच्छर का खून नहीं चूसता। पर हम देखते हैं कि एक आदमी दूसरे आदमी का खून चूसता है। अपने भी अपनों को नहीं छोड़ते।

यहाँ नाम और दाम वाले आम लोगों का खून चूसते हैं। हम लोग भी दूसरे का खून चूसकर बहुत मोटे बन जाते हैं। ठीक ऐसे ही यहाँ कितने ही लोग बहुत मोटे हो गए हैं। और दिन-दिन मोटे होते जा रहे हैं। फिर भी खून चूसना बंद नहीं करते। जो आम में भी आम हैं, उनकी दशा गुठली निकले हुए पके आम की तरह हो गई है।

हमारी जाति का यह नियम है कि अगर हम खून भी चूसते हैं तो बता कर चूसते हैं। लोगों के कान तक जाकर हम अपनी बात कह देते हैं। कोई समझे या न समझे। सबकी अपनी भाषा होती हैं। लेकिन इस मामले में हम भारतीयों से थोड़ा भिन्न हैं। हमारे पूर्वज कहते थे कि हमारी भाषा एक है। इसमें न कभी कोई झगड़ा था, न है और न ही रहेगा। यहाँ तो हर व्यक्ति की अपनी भाषा है। एक भाषा यानी राष्ट्र भाषा को कई लोग अपनी भाषा कहने में भी शर्म महसूस करते हैं।

यहाँ लोग खून चूसते रहते हैं, मगर अपने मुँह से कभी नहीं कहते कि हम तुम्हारा खून चूस रहे हैं। अरे भाई वह काम ही क्यों करते हो जिसको बताने तक की हिम्मत नहीं रखते अथवा बता नहीं सकते। कम से कम हमारी कौम से कुछ और प्रेरणा लो। नेताओं को ही देख लीजिए, जब वोट माँगने आते हैं तो सब कुछ करने को कहेंगे। लेकिन वे जो करते हैं अथवा जो चुनाव जीतने के बाद करेंगे। उसका जिक्र तक नहीं करते।

कई लोग हमें गाली देते हैं। कहते हैं कि एक मच्छर साला आदमी को हिजड़ा बना देता है। हमें कोई दूसरा काम नहीं है क्या ? वास्तविकता स्वीकारो। किसी पर आरोप लगाकर अपनी कमजोरी मत छिपाओ।

लोगों ने शोध के नाम पर हम पर अपने मनोभाव आरोपित कर दिए। कुछ ने कहा कि हमें महिलाएं ज्यादा भाती हैं। पुरूषों को मच्छर कम चाहते हैं। एक महिला और एक पुरुष साथ हों तो महिला को मच्छर ज्यादा काटते हैं। इन्हें कौन समझाये कि मच्छरों की मानसिकता तुम्हारे जैसी नहीं है। कुछ कहते हैं कि नर मच्छर कामचोर और मादा मच्छर ज्यादा कामकाजी होती हैं। अपना काम लगन से करती हैं। फिर अपनी करनी दूसरों पर थोपने वाली बात आ गई। कम से कम हम लोगों ने महिलाओं को इतनी स्वतंत्रता तो दे रखी है। लोगों ने महिलाओं को कभी कुछ करने नहीं दिया। अब जब उन्हें मौका मिला है तो लगन से काम करेंगी ही। पुरुष सदा से काम करके थक चुके हैं। उन्हें विश्राम चाहिए और कई लोग करने भी लगे हैं।

कुछ लोगों ने यह भी कहा कि हम रोग फैलाते हैं। रोग तो लोगों के पास होता है। अस्पताल की भीड़ देखते ही बनती है। कभी किसी ने किसी मच्छर को बीमार देखा क्या ? इलाज के लिए अस्पताल का चक्कर लगाते देखा क्या ? नहीं। फिर काहे बदनाम करते हो। हमें अस्पताल में लोग बहुतायत में देखते होंगे। यह बात सही है। लेकिन वहाँ हम इलाज करवाने नहीं बल्कि करने जाते हैं। चौबीसों घंटे मुस्तैद रहते हैं। वो भी फ्री सेवा। न फीस और न ही बख्शीश। इंजेक्शन के अभाव में मरीज मर भी सकते हैं। अतः डॉक्टर न ही सही मगर इंजेक्शन लगाने वाला कोई न कोई तो चाहिए ही।

इन शोधों से हमें दुख भी होता है। साथ ही खुशी भी। खुशी इसलिए कि इसी बहाने पेपर में अपना भी नाम आ जाता है। फोटो छप जाती है। लेकिन मीडिया वाले भी कमाल के होते हैं। बिना बात के बात और बात का बतंगड़ बना देते हैं। ऐसी फोटो बना देते हैं कि हमें देखकर डंसा भी शर्मा जाय।

कमी देखने की सबकी आदत हो गई है। कुछ कमी भी हो तो इस तरह भरे बाजार में नंगा नहीं करना चाहिए। अच्छाइयों को तो किनारे कर देते हैं और बुराई के पीछे पड़ जाते हैं। न कभी किसी शोधकर्ता ने कहा और न ही मीडिया वालों ने ध्यान दिया कि हम बहुत बड़े इंजेक्शन विशेषज्ञ हैं। हमें इंजेक्शन लगाने की कला का जन्मदाता माना जाना चाहिए। लेकिन ऐसा न हुआ है और न ही होगा। क्योंकि काम और का और नाम किसी और का चलन जो चल रहा है। झोला छापों की तो बात मत करिये बड़े-बड़े डिग्री धारक हमारी इस विशेषज्ञता को नहीं पा सकते।

किसी के इंजेक्शन लगाना हो तो कई डॉक्टर जल्दी नस ही नहीं पाते। खून निकालना हो तो पूरा शरीर छेद डालते हैं। मिनटों लगा देते हैं। लेकिन हम उस्ताद हैं इस मामले में। मिनटों का काम सेकेंडों में करते हैं। हमें प्रकाश और अंधकार से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। अंधकार में हम यह काम और कुशलता से करते हैं। कोई डॉक्टर अंधकार में इंजेक्शन लगाकर दिखा दे तो हम अपनी विशेषज्ञता का दावा वापस ले लें। हम यह काम पूरे वैज्ञानिक तरीके से करते हैं। शरीर पर हम एक द्रव छोड़ते हैं। जिससे हमारा इंजेक्शन आसानी से प्रवेश कर जाता है। लेकिन यह सब इतना जल्दी होता है कि लोग जान नहीं पाते। डॉक्टर लोग मिनटों रुई में दवा लगाकर मलते हैं। लोगों ने यह हमसे ही सीखा है। लेकिन कहेंगे नहीं क्योंकि शर्म आती है। क्योंकि हम बहुत छोटे जो हैं।

हम अपनी बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाना चाहते हैं। लेकिन लोग ऐसा नहीं करने देते। क्योंकि हमसे ही इन्हें अपनी वीरता दिखानी होती है। इसलिए लोग गंदगी फैलाते हैं। घर का पानी निकालने के लिए उचित व्यवस्था नहीं करते। जहाँ-तहाँ पानी इकट्ठा होता रहता है। नाली बनेगी तो उसकी समुचित देखभाल और सफाई नहीं होगी। फलस्वरूप पानी रूकेगा। फैलेगा। गंदगी बढ़ेगी। इधर-उधर कूड़े का ढेर लगाते हैं। यदि लोग हमारे लिए ऐसा करते हैं तो कृपया ऐसा न करें। क्योंकि यह कहना गलत है कि मच्छर गंदगी में ही रहते हैं। क्या तुम्हारा घर गंदा होता है ? यदि हाँ तो क्यों नहीं सफाई करते ? क्योंकि हम वहाँ यानी तुम्हारे घर में भी रहते हैं। और तो और तुम्हारे बहुत पास रहते हैं।

आजकल लोगों की जिंदगी बहुत सस्ती हो गई है। बाकी चीजें मँहगी होती जा रही हैं। अभी तक केवल मच्छर की जिंदगी सबसे सस्ती थी। जो कुछ भी नहीं कर सकते वे भी मच्छर मारते हैं। कुछ लोग तो बकायदा रिकॉर्ड रखते हैं कि अबतक इतने मच्छर मार चुके हैं। कई तो गिनीज बुक में नाम लिखाने को भी सोच रहे हैं। ऐसे विरले होंगे जिन्होंने अपने जीवन में कभी किसी मच्छर की हत्या न की हो।

कुल मिलाकर हमारा जीवन दयनीय है। गंदगी में वास, उपहास, भूख-प्यास, दूसरे पर निर्भरता और जीवन की अनिश्चितता। यही हमारी जिंदगी है। कब कौन मसल दे, क्या ठिकाना ?

यह आत्मकथा बुद्धिजीवियों के बीच में अवश्य चर्चा का विषय बनती। और इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित की जाती। लेकिन मच्छर को उड़ता देख लोग पंख नोचने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। पंख नोच देगें अन्यथा मसल देंगे। ऐसी ओछी मानसिकता वाले कब चाहेंगे कि एक मच्छर की आत्मकथा प्रचारित और प्रसारित हो। जो मच्छर मारते रहे हैं। वे इस आत्मकथा को कभी और किसी भी कीमत पर हजम नहीं कर पाएँगे। और मच्छर की जिंदगी जितना ही इसे भी सस्ती समझकर जी जान से आलोचना करेंगे।

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डॉ. एस. के. पाण्डेय,

समशापुर (उ.प्र.)।

URL1: http://sites.google.com/site/skpvinyavali/

ब्लॉग: http://www.sriramprabhukripa.blogspot.com/

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(चित्र - अमरेन्द्र aryanartist@gmail.com , फतुहा पटना की कलाकृति)

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. एक मच्छर की आत्म कथा के माध्यम से मनुष्य की मानसिकता पर बहुत ही रोचक व्यंग|वाह क्या कहने !!
    चरण सिहँ गुप्ता
    e:csgupta1946@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बेनामी12:12 am

      Sachhi kabile taarif hai ek aisa jeev jo hamare bich me ho lekin usee kaise maare ye sochne ke alwa lekhak us se kitnni uppar ki baat soch kar likha hai

      हटाएं
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रचनाकार: एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य : एक मच्छर की आत्म कथा
एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य : एक मच्छर की आत्म कथा
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