उमेश कुमार गुप्ता का आलेख - भारत का संविधान और सामाजिक न्याय

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  सा माजिक न्याय का आशय आम तौर पर समाज में लोगों के मध्य समता, एकता, मानव अधिकार, की स्थापना करना है तथा व्यक्ति की गरिमा को विशेष महत्व प्र...

 

सामाजिक न्याय का आशय आम तौर पर समाज में लोगों के मध्य समता, एकता, मानव अधिकार, की स्थापना करना है तथा व्यक्ति की गरिमा को विशेष महत्व प्रदान करना है। यह मानव अधिकार और समानता की अवधारणाओं पर आधारित है और प्रगतिशील कराधान, आय, सम्पत्ति के पुनर्वितरण, के माध्यम से आर्थिक समतावाद लाना सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य हैं। भारतीय समाज में सदियों से सामाजिक न्याय की लडाई आम जनता और शासक तथा प्रशासक वर्ग के मध्य होती आई है। यही कारण है कि इसे हम कबीर की वाणी बुद्ध की शिक्षा, महावीर की दीक्षा, गांधी की अहिंसा, सांई की सीख, ईसा की रोशनी, नानक के संदेश में पाते हैं।

सदियों से मानव सामाजिक न्याय को प्राप्त करने भटकता रहा है और इसी कारण दुनिया में कई युद्ध, क्रांति, बगावत, विद्रोह, हुये हैं जिसके कारण कई सत्ता परिवर्तन हुए हैं। जिन राज्यों और प्रशासकों ने सामाजिक न्याय के विरूद्ध कार्य किया उनकी सत्ता हमेशा क्रांतिकारियों के निशानों में रही है। इसलिए प्रत्येक शासक ने अपनी नीतियों में सामाजिक न्याय को मान्यता प्रदान की है। इसे हम चाणक्य की राजनीति, अकबर की नीतियों, शेरशाह सूरी के सुधारों, में देखते हैं।

हमारा भारतीय समाज पहले वर्ण व्यवस्था पर आधारित था जो धीरे धीरे बदलकर जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गया, उसके बाद असमानता, अलगाववाद, क्षेत्रवाद, रूढिवादिता, समाज में उत्पन्न हुई जिसका लाभ विदेशियों के द्वारा उठाया गया और ‘‘फूट डालो और राज्य करों’’ की नीति अपनाकर भारत को एक लम्बी अवधि तक पराधीन रखा।

लेकिन लोगों की एकता अखण्डता और भाईचारे की भावना से आजादी की लडाई लड़ने पर भारत 15 अगस्त सन् 1947 को आजाद हुआ और उसके बाद भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना, व्यक्ति का शासन, सोच की स्वतंत्रता, भाषण प्रेस की आजादी, संघ बनाने की स्वतंत्रता हो, इसके लिए सर्वोच्च कानून बनाये जाने की आवश्यकता समझी गई और डॉ.राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन किया गया जिसमें डॉ. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जैसे महान् व्यक्तित्व को मसौदा समिति का अध्यक्ष मनोनीत किया गया।

संविधान सभा की कई बैठकों के बाद भारत के संविधान की रचना की गई, जो विश्व का सबसे बडा, लिखित, अनूठा, संविधान है जिसमें सामाजिक न्याय को सर्वोच्चता प्रदान की गई है। यह दुनिया का सामाजिक न्याय को दर्शित करने वाला एक प्रमाणिक अभिलेख है।

हमारे संविधान में सामाजिक और आर्थिक न्याय की गारंटी समस्त नागरिकों को तथा जीवन जीने की गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को दी गई है। सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित के बीच सामान्जस्य स्थापित करना है। इसलिए कल्याणकारी राज्य की कल्पना संविधान निर्माताओं ने की है। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय को ध्यान में रखते हुये समाजवादी व्यवस्था स्थापित की गई है।

भारतीय समाजवाद अन्य राष्ठ्रों के समाजवाद से अलग है। यहां पर सत्ता समाज में निहित रहती है, परन्तु उसका उपयोग समाज के हित के लिए हो इसलिए सरकार नियंत्रण रखती है। सामाजिक न्याय के लिए संविधान में जो प्रावधान दिये गये हैं उनका मुख्य उद्देश्य वितरण की असमानता को दूर करना तथा असमानों में संव्यवहारों में असमानता को दूर करना व कानून का प्रयोग वितरण योग साधन के रूप में समाज में धन का उचित बटवारां करने में किया जाये। इसका विशेष ध्यान रखा गया है।

हमारे संविधान की उद्देशीयका संविधान का आधारभूत ढांचा है। जिसमें सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने की गारंटी प्रदान की गई है। इसके लिए भारतीय संविधान के भाग-3 में मौलिक अधिकार दिये गये हैं। भाग-4 में राज्यों को नीतिनिदेशक तत्व बताये गये हैं, जो राज्य की नीति का आधारस्तम्भ बताये गये हैं।

लेकिन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान किये जाने संबंधी उपरोक्त संवैधानिक उपबंध केवल संविधान के ‘‘आइना’’ में छबि बनकर रह गये हैं। लोगों का जीवन स्तर निम्न है, गरीबी, बेकारी, भुखमरी, अशिक्षा, अज्ञानता व्याप्त है। आर्थिक सामनता, सामाजिक न्याय आम जनता से कोसो दूर है।

आज हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्राप्त करना आम जनता के लिए परीलोक की कहानी है। सामाजिक न्याय चुनावी मरूस्थल में मृगतृष्णा के रूप में जनता को दिखाया जाता है।सभी राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने के नारे से भरे रहते हैं, लेकिन कोई भी दलगत जातिगत, व्यक्तिगत राजनीति से उठकर देशहित में न्याय प्रदान नहीं कर पाता है।

देश की अधिकांश जनता, गांव में रहती है। गांव में आज भी आजादी के 65 साल बाद भी बिजली, पानी, सड़क, की सुविधाओं का अभाव हैं। देश की आधी आबादी लगभग अशिक्षित अल्पशिक्षित, अर्द्धशिक्षित है। 30 प्रतिशत लोग गरीबी का जीवन जी रहे हैं। एक समय का भोजन भी उनके लिए नसीब नहीं है। आज भी गांव की अधिकांश आबादी दिशा मैदान को जाती है।

गांव में स्वास्थ्य, शिक्षा, जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। देश के गावों में लोगों का जीवन स्तर निम्न है मनोरंजन साधनों का अभाव है, अधिकांश लोग गांव में आज भी जुआ, शराब, को मनोरंजन का साधन समझते हैं। गांव में पानी लाने आज भी मीलों जाना पड़ता है। घरों में फ्लेश लेट्र्नि नहीं है लोग खुले आम जानवरों की तरह निस्तार करने मजबूर है।

देश के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का अभाव है। लोगों को पढ़ने के लिए कोसों मील दूर जाना पड़ता है। बीमार पड़ने पर घंटों बाद शहरों में स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती है तब तक अनेक लोग रास्ते में दम तोड़ चुके होते हैं। देश में अधिकांश गांव को जोड़ने वाली पक्की सड़क नहीं है शहर में सड़क की यह स्थिति है कि मर्द को भी प्रसूति दर्द का एहसास करा देती है। बिजली नाम के लिए आती है केवल मोहनी के रूप में दर्शन देकर चली जाती है जिसके कारण लाखों हेक्टेयर खेती असिंचित रह जाती है। किसानों को समय पर बिजली, खाद, बीज, पानी नहीं मिलता है उसके उपर से प्राकृतिक आपदा भी सहन करनी पड़ती है। जिसके कारण कई किसान कर्ज न चुका पाने के कारण आत्म हत्या करते है।

देश में आर्थिक न्याय का यह हाल है कि गरीब और गरीब अमीर और अमीर होता जा रहा है। शेयर बाजार, देश के व्यापार, व्यवसाय पर बडे व्यापारी उद्योगपति औद्योगिक घरानों का राज्य है। सरकार का अतिआवश्यक वस्तुओं दाल, शक्कर, आटा के बाजार भाव नियंत्रण नहीं है। महगाई आसमान छू रही है। पेट्रोल, डीजल, जैसे अति आवश्यक वस्तुओं के दाम सरकार के नियंत्रण के बाहर है।

शेयर बाजार में कम दाम पर कम्पनी के आई.पी.ओ. निकाले जाते हैं बाद में उनकी कीमतें बढ़ा दी जाती हैं। जब उन शेयरों की कीमत बढ़ जाती है तो वहीं कम्पनियां दूसरों से खरीदवाकर उन्हें बाद में बेचकर अधिक पूंजी जुटाकर कर शेयरों की कीमत कम कर देती है। जिससे लोगों की मेहनत मजदूरी की पूंजी डूब जाती है जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है।

देश में पूंजी वितरण में असमानता प्रति व्यक्ति उत्पादक क्षमता कम होने के कारण और प्राकृतिक संसाधनों का उचित दोहन न होने के कारण अमीरों और गरीबों के मध्य खाई बढ़ती जा रही है। आय, वेतन, आर्थिक संसाधनों का असमान वितरण है। प्रति व्यक्ति आय कम है। देश में भ्रष्टाचार के कारण शासकीय नीतियों का लाभ आम जनता प्राप्त नहीं कर पाती है। भ्रष्टाचार का यह हाल है कि आजादी के बाद देश की सडकों के लिए जितना धन दिया गया है उससे सोने की सड़कें बन सकती थी तथा बांध और तालाबों पर इतना पैसा व्यय किया गया है कि उनकी दीवारें चांदी के बन सकती थी।यदि सौ रूपये सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने बजट में प्रदत्त किए जाते हैं तो मात्र दस रूपये इस काम में आते हैं और नब्बे रूपये भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं। यही कारण है कि आज इससे लड़ने एक नहीं हजारों हजार लोग देश को चाहिए।

आज जहां देखो वहां चिट फंड कम्पनियां कार्य कर रही है। वे अधिक ब्याज का लोभ लालच देकर लोगों के पसीने की कमाई जमा करवा देती है और बाद में उन्हें हड़प कर गायब हो जाती है। देश में जमा के नाम पर नाममात्र का ब्याज सरकारी बैंक देती है जब कि वही बैंक लोगों को बढी हुई ब्याज दर पर ऋण देती है। इसलिए उसी ब्याज दर पर बैंक को भी लोगों को जमा पर ब्याज दिया जाना चाहिए। जिससे लोगों का रूझान सरकारी बैंको की तरफ बढेगा।

देश में सामाजिक न्याय का प्रश्न हो तो साक्षरता की कमी है। लोग आज भी सदियों पुरानी रूढ़ि अंधविश्वास, परम्परा से जुड़े हुए हैं। आजादी के पूर्व के अधिकांश लोग जो अशिक्षित है वह अंगूठा छाप हैं। लेकिन स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक भी सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर करोडों रूपये खर्च किये जाने के बाद साक्षरता के नाम पर केवल हस्ताक्षर करना जानते हैं उन्हें अपने अच्छा बुरा समझने की शिक्षा अथवा ज्ञान नहीं दिया जाता है यही कारण है कि आज वे शोषण का शिकार हो रहे हैं।

अशिक्षा के कारण लोगों को काम धन्धा प्राप्त नहीं हो पाता है ओर व्यापार, व्यवसाय की कमी के कारण वे अपराध की ओर आकर्षित होकर आतंकवाद, नक्सलवाद को बढावा देते हैं।देश में असामान्य वितरण के कारण गरीबी व्याप्त है जिसके कारण अपराध हिंसा बढ़ रही है। सरकारी नीतियों के विरोध में नक्सलवाद, आतंकवाद, पनप रहा है। देश में हजारों बेगुनाह प्रति वर्ष आतंकवाद का शिकार होकर मौत की भेंट चढ़ जाते हैं।

जहां तक देश में स्त्रियों की दशा का प्रश्न है तो वह दयनीय है, स्त्रियों सबधी अपराध लगातार दिन प्रतिदिन बढ़ रहे हैं। आज भी स्त्री का जन्म होना बुरा माना जाता है जिसके कारण भ्रूण हत्या जैसे अपराध से देश जूझ रहा है जिसके कारण देश के कई राज्यों में स्त्री-पुरूष अनुपात में कमी आई है।

स्त्रियों को आज भी अपनी इच्छा के अनुसार व्यवसाय, व्यापार विवाह करने की छूट नही है। उन पर आज भी सदियों पुरानी रूढियों और प्रथाओं के अनुसार कोई न कोई बंधन लगाये जाते हैं। आज भी अधिकांश देश में असंख्य बाल विवाह होते है। एक अकेली स्त्री का समाज में रहकर जीवन यापन करना मुश्किल है उस पर अनेक प्रकार के लांछन लाद दिये जाते हैं।

देश में न्याय व्यवस्था का यह हाल है कि न्यायिक प्रक्रिया काफी लम्बी, महंगी है। पिता दावा लाता है पु़त्र निर्णय प्राप्त करता है नाती निर्णय का निष्पादन करवाता है। सुलभ, सरल, शीघ्र, सस्ता न्याय केवल किताब की बात है। न्यायालय में मुकदमे के बोझ से दबे जा रहे हैं। रोज नये नये कानून अध्यादेश बन रहे हैं और अदालतों में काम का बोझ बढ़ रहा है। जिसके कारण न्याय समय पर प्राप्त नहीं हो पा रहा है। जब कि आज जनता का विश्वास केवल न्याय पालिका पर है इसके लिए जरूरी है कि नई न्यायिक प्रणाली विकासित की जाये। जांच विचारण अन्वेषण में नयी वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग किया जाये। अधिकांश मामले न्यायालय के बाहर सुलह, समझौते के आधार पर निपटाये जाये। तभी सस्ता सुलभ, शीघ्र न्याय लोगों को प्राप्त हो पायेगा।

जहां तक राजनैतिक न्याय की बात है तो वह वोट और नोट के बीच बट गया है दागी छबि वाले लोग चुनाव में खड़े हो रहे हैं। धन बल बाहुबल के आधार पर चुनाव जीता जाता है। राजनीति में व्याप्त गंदगी में कोई शरीफ व्यक्ति शामिल नहीं होना चाहता है। भूले भटके कोई ऐसा व्यक्ति राजनीति में प्रवेश कर जाता है तो उसे वोट की राजनीति बाहर कर देती है।

गुप्त मतदान का प्रावधान दिया गया है लेकिन लोगों के वोट नोट और बंदूकों के साये में डलवाये जाते हैं।धर्म , जाति, भाषा के नाम पर वोट खरीदे जाते हैं। गांव में लोगों को वोट डालने नहीं दिया जाता है। गांव के गांव बंधक बना लिये जाते हैं। देश में चुनाव युद्ध की तरफ लड़ा जाता है और हर नाजायज तरीके से चुनावी युद्ध लड़े जाते हैं। चुनाव में प्रत्याशी की बौद्धिक योग्यता को देखकर लोग वोट नहीं देते हैं। उसकी ताकत और पार्टी की क्षमता को देखकर वोट दिये जाते है।

चुनाव में खड़े लोगों को देखकर कई लोग वोट देने नहीं जाते हैं। इसके लिए जरूरी है कि घर में बैठकर वोट इंटरनेट के माध्यम से डाले जाने की व्यवस्था की जाये। प्रत्येक व्यक्ति का नाम उसके वयस्क होने के साथ ही मतदाता सूची में अपने आप जोडा जाये। मतदान को अनिवार्य किया जाये। जिस प्रकार वोट डालकर प्रत्याशी को चुना जाता है उसी प्रकार उसी प्रतिशत से चुने गये प्रत्याशी को क्षेत्र मे काम न करने की दशा में वापिस बुलाये जाने का अधिकार भी जनता को प्रदान किया जाये।

यह देखा गया है कि जन प्रतिनिधि चुने जाने के बाद 5 साल बाद अपने क्षेत्र में शक्ल नहीं दिखाते हैं। क्षेत्र के विकास के लिए कोई कार्य नहीं करते हैं तो ऐसे लोगों के लिए लोकतंत्र में जिसमें जनता का राज्य है और जनता के द्वारा चुने प्रतिनिधि जनता में से चुनकर जनता का प्रतिनिधित्व करते है। उन्हें जनता के द्वारा वापिस बुलाये जाने का अधिकार भी संविधान में प्रदान किया जाना चाहिए।

जहां तक राजनीतिक की बात है तो व्यक्तिगत हित के लिए राजनीति की जा रही है। विधायिका के सदन रण भूमि बन जाते हैं वहां पर वाक युद्ध लडा जाता है लोगों के लाखों रूपये खर्च होने के बाद भी देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, रणनीति एंव कानून बनाने वाली संस्थाओं में कोई काम नहीं हो पाता है।

यदि संसद और विधायक का वेतन, सुविधाएं बढाये जाने की बात है तो सभी सांसद विधायक राजनीतिक दुश्मनी भूलकर उसे बहुमत से सर्वसम्मति से पारित कर देते हैं, लेकिन यदि आज आम जनता को राजनैतिक, सामाजिक,आर्थिक न्याय दिलाये जाने कोई बिल पेश किया जाता है तो उस बिल में हजारों अड़ंगे लगाये जाते हैं। वह कभी पास नहीं हो पाता है।

जहां तक देश की कार्य पालिका, न्याय पालिका और विधायिका का प्रश्न है तो तीनों ही अपने-अपने क्षेत्र में सामाजिक, न्याय प्रदान किये जाने असफल है। न्यायपालिका काम के बोझ से दबी है। संसाधनों का अभाव है आधारभूत ढांचा अभी भी अंग्रेजों के जमाने का है। एक तथ्य को कई बार प्रमाणित करना पड़ता है। जिसके कारण लोग न्याय प्रदान करने में हिस्सा नहीं ले पाते हैं।

विधायिका भी धर्म और जाति की राजनीति में उलझ कर ठीक से कार्य नहीं कर पा रही है। व्यक्तिगत हितों और परिवार के लोगों को बढावा दिया जा रहा है। देश की आम समस्या पर विचार विमर्श नहीं किया जाकर संसद और विधान सभा का समय आपसी बुराइयों और लडाईयों पर निकाला जाता है।

कार्यपालिका का प्रश्न है तो वह पैर से सिर तक भ्रष्टाचार से डूबी हुई है वहां पर कोई भी कार्य विधि एवं नियम के अनुसार नहीं होता है। सभी काम व्यक्ति की हैसियत के अनुसार किया जाते हैं।

यही कारण है कि आज हम जनता का लाखों रूपये खर्च करके साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, अलगाववाद, धार्मिक अंधविश्वास, जैसे कच्चे, पथरीले रास्तों पर चल रहे हैं। करोडों रूपये खर्च करके अशिक्षा, बेकारी, गरीबी, भुखमरी, आतंकवाद, नक्सलवाद, से जूझ रहे हैं और अरबों रूपये खर्च करके भ्रष्ट अधिकारी, कर्मचारी, नेता, व्यापारी, उद्योगपतियों, के मध्य जी रहे हैं जिसके कारण सामाजिक न्याय सपने की बात लगती है।

सामाजिक न्याय को जो अधिकार स्वरूप प्राप्त होना था आज भीख के रूप में मांगा जा रहा है। इसलिए यदि संविधान में दिये प्रावधानों का कठोरता से पालन किया जाये देश के नेता अधिकारी, उद्योगपति, व्यापारी, संविधान के अनुसार कार्य करें तो देश के प्रत्येक नागरिक को संविधान की उद्देशिका के अनुसार सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय गारंटी के रूप में प्राप्त हो सकता है

उमेश कुमार गुप्ता रायसेन म0प्र0।

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रचनाकार: उमेश कुमार गुप्ता का आलेख - भारत का संविधान और सामाजिक न्याय
उमेश कुमार गुप्ता का आलेख - भारत का संविधान और सामाजिक न्याय
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