स्मृतियाँ..... उन प्यार करने वालों के नाम जिन्हें अपनी बीती ग़ज़ल हर रोज याद आती है, और दिल भूलना चाहता है उस परी को... पर आँखें भी.. क्...
स्मृतियाँ.....
उन प्यार करने वालों के नाम जिन्हें अपनी बीती ग़ज़ल हर रोज याद आती है,
और दिल भूलना चाहता है उस परी को...
पर आँखें भी.. क्यूँ हर दिन अज़ीब से मंज़र दिखाती है ,
कि उसकी यादों की ओढ़नी रोज़ कुछ घटनाओं के सहारे उडी चली आती है,,
उन्हीं छोटी - छोटी प्यार भरी घटनाओं को समेटती एक कविता स्मृतियाँ.....
हर आस मिटा दी जाती है, हर सांस सुला दी जाती है...
फिर भी यादों के पन्नों से कुछ स्म्रतियाँ चली आती है...
उन यादों में खो जाता हूँ, बस तू ही दिखाई देती है,
ठीक उसी पल दरवाजे पर एक आहट सी सुनाई देती है,
हम बिस्तर से दरवाजे तक दौड़े - दौड़े फिरते हैं ,
पर वो तो हवा के झोकें थे जो मजाक बनाया करते हैं ,
दिल घर की छत के एक किनारे बैठा आहें भरता है,
दो हंसों का जोड़ा नदिया के पानी में क्रंदन करता है,
जब हंसों के करुण विनय से नदिया तक भर जाती है,
तब यादों के पन्नों से कुछ स्मृतियाँ चली आती है.
उन भूली - भटकी यादों को कैसे मैंने बिसराया है,
तेरे हर ख़त को मैंने उस उपवन में दफनाया है,
उन ख़त के रूठे शब्दों से पुष्प नहीं खिल पाते हैं,
शायद तेरे भेजे गुलाब मुझे नहीं मिल पाते हैं,
जन्मदिवस की संध्या पर जब जश्न मनाया जाता है,
सारा घर भर जाता है हर कक्ष सजाया जाता है
जब वो भुला चुकी है मुझको तो हिचकी क्यूँ आ जाती है ?
तब यादों के पन्नों से कुछ स्मृतियाँ चली आती है.
अर्धरात्रि के सपनों में वो सहसा ही आ जाती है,
मेरे सुन्दर समतल जीवन में तरल मेघ सी छा जाती है,
प्रथम बिंदु से मध्य बिंदु तक मुझे रिझाया करती है,
मध्य बिंदु से अंत तक वो शरमाया करती है,
मैं अक्सर खिल जाता हूँ जब वो अधरों को कसती है,
बिलकुल बच्ची सी लगती है जब वो हौले से हँसती है,
जब रोज़ सवेरे उसकी बिंदिया टुकड़ों में बँट जाती है,
तब यादों के पन्नों से कुछ स्मृतियाँ चली आती है.
शायद रूठ गयी है मुझसे या फिर कोई रुसवाई है,
तेरे पाँव की पायल मैंने अपने आँगन में पाई है,
आज अचानक खनकी पायल मुझको यूँ समझती है,
अब और खनक ना पाऊँगी यह कहकर मुझे रुलाती है.
और गली के नुक्कड़ पर जब कुछ बच्चे खेलने आ जाते है,
घंटों हुई बहस में एक - दूजे का सर खा जाते है,
जब वो छोटी लड़की उन सबको भाषण सा दे जाती है,
तब यादों के पन्नों से कुछ स्मृतियाँ चली आती है.
कैसे मैंने उस नीले फाटक वाले घर का पता भुलाया है?
क्यूँ नहीं पहले ख़त को उसने तकिये के नीचे सुलाया है?
मैंने हर शाम उन उपहारों की होली जलती देखी है,
उन उपहारों के साथ रखी वो कलियाँ ढलती देखी है,
हम बंद अँधेरे कमरे में कविता तक लिख लेते है,
पर कलम कागज के मध्य शब्द तेरे ही सुनाई देते है,
जब प्रणय गीत लिखते - लिखते कलम अचानक रुक जाती है,
तब यादों के पन्नों से कुछ स्मृतियाँ चली आती है.
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“ कविता को बुनने का आधार कैसे दूं ? ”
दिल की संवेदनाओं को मैं मार कैसे दूं ?
और कविता को बुनने का आधार कैसे दूं ?
पथ भ्रष्ट हो गया, पथिक भ्रष्ट हो गया,
गाँधी और सुभाष का ये राष्ट्र भ्रष्ट हो गया,
चंद रुपयों को भाई भाई भ्रष्ट हो गया,
जगदगुरु- सा मेरा देश भ्रष्ट हो गया..
राम राज्य लाने वाली सरकार कैसे दूं?
और कविता को बुनने का आधार कैसे दूं ?
भ्रष्टाचार की खातिर शत्रु सीमा से सट जाते हैं ,
बुनियादी आरोपों से अब संसद तक पट जाते हैं ,
मानचित्र में हर साल राज्य बंट जाते हैं,
भारत माता के कोमल अंग कट जाते हैं..
इस अखंड राष्ट्र को आकर कैसे दूं ?
और कविता को बुनने का आधार कैसे दूं ?
आरक्षण विधान कर नेता यूँ सो जाते हैं,
मेहनतकश बच्चे खून के आंसू रो जाते हैं,
कर्म करते -करते कई युग हो जाते हैं,
कलयुग के कर्मयोगी पन्नो में खो जाते हैं,
कृष्ण ने जो दे दिया वो सार कैसे दूं ?
और कविता को बुनने का आधार कैसे दूं ?
माँ अपने बच्चे को ममता से सींच देती है,
मंहगाई की मार गर्दनें खींच देती है,
रोटी के अभाव में माँ बच्चा फेंक देती है,
फिर भी पेट ना भरा तो जिस्म बेच देती है,
इस पापी पेट को आहार कैसे दूं ?
और कविता को बुनने का आधार कैसे दूं ?
एक लाठी वाला पूरी दुनिया पे छा गया,
दूजा सत्ताधारी तो चारा तक खा गया,
चम्बल के डाकुओं को संसद भी भा गया,
शायद जीत जायेगा लो चुनाव आ गया,
ऐसे भ्रष्ट नेता को विजय हार कैसे दूं ?
और कविता को बुनने का आधार कैसे दूं ?
तिब्बत चला गया अब कश्मीर चला जायेगा ,
यदुवंशी रजवाड़ों में जब बाबर घुस आएगा ,
देश का सिंघासन चंद सिक्कों में बँट जायेगा ,
तब बोलो भारतवालो तुम पर क्या रह जायेगा ?
आती हुई गुलामी का समाचार कैसे दूं ?
और कविता को बुनने का आधार कैसे दूं ?
सीमा के खतों में हिंसा तांडव करती है,
सूनी राखी देख कर बहिन रोज़ डरती है,
नयी दुल्हन सेज पर रोज़ मरती है,
और बूढी माँ की आँखें रोज़ जल भरती है,
माँ को बेटे की लाश का उपहार कैसे दूं ?
और कविता को बुनने का आधार कैसे दूं ?
आज के भी दशरथ चार पुत्रों को पढ़ाते है,
फिर भी चार पुत्रों पर वो बोझ बन जाते है,
कलयुग में राम कैसे मर्यादा निभाते है ?
राम घर मौज ले और दशरथ वन जाते है,
ऐसे राम को दीपों की कतार कैसे दूं ?
और कविता को बुनने का आधार कैसे दूं ?
मानव अंगों का व्यापार यहाँ खिलता है,
शहीदों के ताबूतों में कमीशन भी मिलता है,
बेरोज़गारों का झुण्ड चौराहों पे दिखता है,
"फील गुड" कहने से सत्य नहीं छिपता है,
देश की प्रगति को रफ़्तार कैसे दूं ?
और कविता को बुनने का आधार कैसे दूं ?
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ANANT BHARDWAJ
33, SURYA NAGAR BODHASHRAM
FIROZABAD (U.P.) INDIA
283203
blog: http://kavianantbhardwaj.blogspot.com/
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बहुत बहुत धन्यवाद मेरी रचनाओं को प्रकाशित करने के लिए..
जवाब देंहटाएंमुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई इस पत्रिका को पढ़कर और आपके इस कार्य के लिए मैं टीम को बधाई देता हूँ |
बहुत हर्ष का अनुभव होता है, जब हिंदी का मान बढ़ता है |
आगे भी जुड़ा रहूँगा.. साधुवाद..
जय हिंद.. जय भारत..
बहुत सुन्दर भावनाएँ हैं...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर है.....
जवाब देंहटाएंawesom
जवाब देंहटाएंgood going.......
हटाएंachhe ja arahe ho....... hamari oar se koti koti badhayiaann!!!!!!!
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद दोस्तों..
जवाब देंहटाएंआप सभी के प्रेम और स्नेह को मेरा सलाम
मुझसे जुड़ने की एक गली और....
मेरा फेसबुक पेज, “लाइक” कीजिये, “शेयर” कीजिये..
और नितन्तर जुड़ें रहिए , आपके प्रेम को अभिनन्दन..
https://www.facebook.com/anantbhardwajbit
lajawab
जवाब देंहटाएंji aap sabhi ka bahut bahut dhanyawad.....
हटाएंki aapne samay nikal kar humein padha.....
aur bhi kavitaon ke liye sidhe blog par chale aaiye..
http://kavianantbhardwaj.blogspot.com/