संदर्भ - म.प्र. दुलर्भ प्रणियों की शिकार नीति सरकार खेती-किसानी के लिए मुसीबत बने कुछ दुर्लभ वन्य प्राणियों को शिकार करने की कानूनी इजाज...
संदर्भ - म.प्र. दुलर्भ प्रणियों की शिकार नीति
सरकार खेती-किसानी के लिए मुसीबत बने कुछ दुर्लभ वन्य प्राणियों को शिकार करने की कानूनी इजाजत देने जा रही है। इन प्राणियों में जंगली सूअर और नील गाय (हिरण) शामिल हैं। हालांकि नील गाय के साथ ‘‘गाय'' शब्द जुड़ा होने के कारण इसे मारने की इजाजत, गाय प्रेमी भाजपा सरकार नहीं दे रही है। इस हेतु सरकार ऐसी नीति बनाने का जोखिम उठा रही है, जिसके तहत शिकार का सरलीकरण किया जा सके और शिकार के सांमती शौकीनो को बकायदा लायसेंस देकर शिकार की छूट दे दी जाए। सरकार की इस मंशा की सर्वथा निंदा की जा रही है। क्योंकि सरकार उजड़ते वनों और अवैध शिकारों के रोकथाम में तो अक्षम साबित हो रही है किंतु हैरानी है कि प्राणियों के शिकार के लिए कानूनी सोच बना रही है। सरलीकरण की इस नीति को अमल में लाने पर जोर प्रदेश के वन मंत्री सरताज सिंह डाल रहे हैं।
एक समय था जब मनुष्य वन्य पशुओं के भय से गुफाओं और पेड़ों पर आश्रय ढूंडता फिरता था। लेकिन ज्यों-ज्यों मानव प्रगति करता गया प्राणियों का स्वामी बनने की उसकी चाह बढ़ती गई। इस चाहत के चलते पशु असुरक्षित हो गये। वन्य जीव विशेषज्ञों ने जो ताजा आंकड़े प्राप्त किये हैं उनसे संकेत मिलते हैंं कि इंसान ने अपने निजी हितों की रक्षा के लिये पिछली तीन शताब्दियों में दुनिया से लगभग 200 जीव-जन्तुओं का अस्तित्व ही मिटाकर रख दिया। भारत में वर्तमान में करीब 140 जीव-जन्तु विलोपशील अथवा संकटग्रस्त अवस्था में हैं। ये संकेत वन्य प्राणियों की सुरक्षा की गारंटी देने वाले राष्ट्रीय उद्यान, अभ्यारण्य और चिड़ियाघरों की सम्पूर्ण व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं ? यदि शिकार के तरीके को कानूनी वैधता हासिल हो जाती है तो जंगलों के खुले परिवेश में विचरण कर रहे वन्यजीव भी संकट में आ जाएंगे।
पंचांग (कैलेण्डर) के शुरू होने से 18 वीं सदी तक प्रत्येक 55 वषोंर् में एक वन्य पशु की प्रजाति लुप्त होती रही। 18 वीं से 20 वीं सदी के बीच प्रत्येक 18 माह में एक वन्य प्राणी की प्रजाति नष्ट हो रही है। एक बार जिस प्राणी की नस्ल पृथ्वी पर समाप्त हो गई तो पुनः उस नस्ल को धरती पर पैदा करना मनुष्य के बस की बात नहीं है। हालांकि वैज्ञानिक क्लोन पद्धति से डायनासौर को धरती पर फिर से अवतरित करने की कोशिशों में जुटें हुये हैं, लेकिन अभी इस प्रयोग में कामयाबी नहीं मिली है।
भारत में फिरंगियों द्वारा किये गये निर्दोष प्राणियों के शिकार की फेहरिस्त भले ही लम्बी हो उनके संरक्षण की पैरवी अंग्रेजों ने ही की थी। 1907 में पहली बार सर माइकल कीन ने जंगलों को प्राणी अभ्यारण बनाये जाने पर विचार किया, किन्तु सरजॉन हिबेट ने इसे खारिज कर दिया। ई.आर.स्टेवान्स ने 1916 में कालागढ़ के जंगल को प्राणी अभ्यारण्य बनाने का विचार रखा। किन्तु कमिश्नर विन्डम के जबरजस्त विरोध के कारण मामला फिर ठण्डे बस्ते में बंद हो गया। 1934 में गर्वनर सर माल्कम हैली ने कालागढ़ के जंगल को कानूनी संरक्षण देते हुये राष्ट्रीय प्राणी उद्यान बनाने की बात कही। हैली ने मेजर जिम कार्बेट से परामर्श करते हुये इसकी सीमाएं निर्धारित कीं। सन् 1935 में यूनाईटेड प्राविंस (वर्तमान उत्तर-प्रदेश एवं उत्तरांचल) नेशनल पार्कस एक्ट पारित हो गया। और यह अभ्यारण्य भारत का पहला राष्ट्रीय वन्य प्राणी उ़द्यान बना दिया गया। यह हैली के प्रयत्नों से बना था, इसलिये इसका नाम ''हैली नेशनल पार्क'' रखा गया। बाद में उत्तर-प्रदेश सरकार ने जिम कार्बेट की याद में इसका नाम '' कार्बेट नेशनल पार्क'' रख दिया। इस तरह से भारत में राष्ट्रीय उद्यानों की बुनियाद फिरंगियों ने रखी।
मध्य-प्रदेश एवं छत्तीसगढ़. देश के ऐसे राज्य है जहां सबसे अधिक वन और प्राणी संरक्षण स्थल हैं। प्रदेश के वनों का 11 फीसदी से अधिक क्षेत्र उद्यानों और अभ्यारणों के लिये सुरक्षित है। ये वन विंध्य-कैमूर पर्वत के रूप में दमोह से सागर तक, मुरैना में चंबल और कुवांरी नदियों के बीहड़ों से लेकर कूनो नदी के जंगल तक, शिवपुरी का पठारी क्षेत्र, नर्मदा के दक्षिण में पूर्वी सीमा से लेकर पश्चिमी सीमा बस्तर तक फैले हुये हैं। एक ओर तो ये राज्य देश में सबसे ज्यादा वन और प्राणियों को संरक्षण देने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी ओर वन संरक्षण अधिनियम 1980 का सबसे ज्यादा उल्लंघन भी इन्हीं राज्यों में हो रहा है। शिकार की मंजूरी मिलने पर तो प्राणी भगवान भरोसे ही जीवित रह पाएंगे।
खेती किसानी के लिए भले ही सूअर और नील गाय एक सीमित क्षेत्र में संकट का पर्याय बने हों लेकिन पूरे मध्य-प्रदेश में ऐसा नहीं है। जबकि यदि किसी दुर्लभ वन्य प्राणी के शिकार की इजाजात मिलती है तो उसका शिकार पूरे प्रदेश में किया जाएगा। यहां यह तय करना मुश्किल होगा कि वन्य प्राणी का शिकार खेत में फसल चरते वक्त किया गया अथवा जंगल से ही मारकर खेत में डाल दिया ? इस स्थिति का निराकरण कौन करेगा ? यदि वाकई किसी क्षेत्र विशेष में किसी प्राणी की आबादी इस हद तक बड़ गई है कि वह फसल के लिए हानिकारक साबित हो रहा है तो ऐसे प्राणी के विस्थापन के उपाय किए जाएं तो बेहतर होगा। जिन जंगलों से ये प्राणी खेतों का रूख करते हैं उन जंगलों की सीमा में कंटीले तारों की बागड़ भी लगाई जा सकती है।
प्रत्येक प्राणी पारिस्थितिक तंत्र, खाद्य श्रृंखला एवं जैव विविधता की दृष्टि से विशेष महत्व होता है। जिसे कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। यदि शिकार के सरलीकरण की नीति बनाई तो यह वन्य जीवों के लिए तो हानिकारक सिद्ध होगी ही, कालांतर में इस कानून की आड़ में शिकार इस हद तक बढ़ जाएंगे कि संपूर्ण तंत्र के लिए यह कानून एक समस्या साबित होगा ? लिहाजा इस पर पुनर्विचार करते हुए इसे रद्द किया जाना जरूरी है।
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प्रमोद भार्गव
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बुरा न मानिये, भारतीय लोग शायद ही किसी अच्छे काम के लिए सोचते हैं.
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