खंडहर खंडहर हुआ महल अपने बोझिल अक्स को मूक आँखों से रहा निहार जहाँ थी कभी यौवन भरे उपवन की बहार , आज खोखली दीवारों से झरती रेत की तरह ...
खंडहर
खंडहर हुआ महल अपने
बोझिल अक्स को
मूक आँखों से रहा निहार
जहाँ थी कभी यौवन
भरे उपवन की बहार ,
आज खोखली दीवारों से
झरती रेत की तरह
मनुहार
कीट पतंगों , गले सड़े कीड़ों
का भरा अम्बार
सुगन्धित सीलन भरी मिट्टी
भी देने लगी दुर्गन्ध
ठहरे पानी में जमी काई की
छटपटाहट से तन बीमार ,
पाप - पुण्य , आस्था - अनास्था
की सीमा में उलझ
मंदिर की मूर्तियाँ धूल भरे
जालों में झुलस
देवता भी जहाँ करते
थे कभी वास
वहीँ खंडहर हुई सुन्दरता की
कुरूपता में बुझे स्वास ,
जहाँ तक थी कभी
सड़क चमकदार
वहाँ अब है संकरी पगडण्डी
खतरें अपार
कौन मुसाफिर जाने का
करेगा दुसाहस ?
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1,जीवन धारा
मै इक नदी हूँ ऐसी
जल से भरी फिर भी प्यासी
ना जिसका कोई अंत ना जिसका कोई आदि !
जब हूँ निकलती पर्वतों की ऊँचाइयों से
लाखों कंकर अपने में समाए
गर्भ में अपने रेत के घर बसाए ,
कभी नागिन सा बल खाकर चलना
तो कभी गिरती हूँ बनकर झरना,
जब समुद्र का जल मुझ पर आन बरसे
तब हृदय मेरा मिलने को तरसे ,
बहती हूँ आवेग में तोड़ अपनी ही धारा
मुझे तो भाए उदधि का जल ही खारा ,
जिधर देख उधर हो जाता है जल- थल
झूम कर जब बहती हूँ मै कल- कल ,
मीलों दूर चल कर हो गई हूँ निढाल
मंजिल पाकर अपनी हो जाउंगी निहाल ,
वह मंझर तो कुछ ओर ही होगा
जब मेरा समुद्र में विसर्जन होगा ,
मै चाहती हूँ बस अब थम जाना
समुद्र के आगोश में बस जाना ,
कई नदी नाले मुझमे मिलते रहे
कई जीवन मुझसे बिछड़ते रहे ,
कई पशु, पक्षी, जीव अपनी प्यास बुझाते रहे
कई मुसाफिर अपनी मंजिल को पाते रहे ,
हूँ जल मग्न पर फिर भी हूँ जल रही ....
विरह की आग में हूँ तड़प रही ,
मुझे मत बांधो!
मुझे मत रोको!
मुझे बहने दो !
मेरे रुख को मत मोड़ो ....
मेरे हृदय को मत तोड़ो,
मुझे प्यार से बस जाने दो.....
मुझे मेरे अस्तित्व को पाने दो ,
मै आधी अधूरी ....
मुझे मत रोको .....
मुझे समुद्र में मिल जाने दो!
2,मै तो राधा बन गई
पर तुम बन ना पाए श्याम
मै तो राधा बन गई
पर तुम बन ना पाए श्याम
महफ़िल में होता रहा कौरवों के हाथों चीरहरण
तब किस वृक्ष, किस आश्रय की लेती शरण ?
तुम मूक आँखों से देखते रहे मेरा मरण
मै तो राधा बन गई
पर तुम बन ना पाए श्याम
वक्त के चलते जो जिल्लत सही
जिसकी कहानी कई बार तुमको कही
सुनकर हृदय तुम्हारा भीगता रहा
फिर दिए घाव आज तुमने भी वही
मै तो राधा बन गई
पर तुम बन ना पाए श्याम
मै मीरा बन भटकती रही डगर- डगर
राणा के हाथों पीती रही विष का कहर
नस- नस में लहू दौड़ने लगा बनके जहर
मै तो राधा बन गई
पर तुम बन ना पाए श्याम
तुम रुक्मणी के संसार में रमते रहे
मुझे होनी के हाथों रुसवा करवाते रहे
नीर से भीगा मेरा संदेशा जल कर भस्म हो गया
मै तो राधा बन गई
पर तुम बन ना पाए श्याम
मेरा तकिया रात के तूफानों में भीगता रहा
बादलों का दिल भी मेरे साथ पसीजता रहा
पर तुम गोवर्धन पर्वत लेकर ना आए
मै तो राधा बन गई
पर तुम बन ना पाए श्याम
3,"जल रही एक दीवाली "
जल रही मेरे भीतर भी एक दीवाली
पुरुष के पुरुषत्व की दीवाली
सीता का सतीत्व हो रहा नष्ट
आदमी में पनप रहा रावण भ्रष्ट
जल रही मेरे भीतर भी एक दीवाली
औरत के अहम् की दीवाली
सदियों से बलि परम्पराओं की रस्म
जिस्म की आबरू हो रही भस्म
जल रही मेरे भीतर भी एक दीवाली
इंसान की संवेदनाओं की दीवाली
भाई- भाई का काट रहा हाथ
मूल्यों की इंसानियत हो रही राख
जल रही मेरे भीतर भी एक दीवाली
हाहाकार , चीत्कारों की दीवाली
आतंकवाद के विस्फोट का पटाखा
मानवता को दे रहा है झटका
जल रही मेरे भीतर भी एक दीवाली
गरीब की रोटी की दीवाली
कभी ना मिटने वाली पेट की भूख
भ्रष्टाचार से धरती की कोख रही सूख
जल रही मेरे भीतर भी एक दीवाली
जाति, रंग, धर्म की दीवाली
राजनेता देश को रहा लूट
जनता में डाल भेदभाव की फूट
जल रही मेरे भीतर भी एक दीवाली
धन- दौलत, ऐश्वर्य की दीवाली
रिश्ते- नाते रह गए पैसों की माया
अपनत्व रह गया दिखावे की काया
जल रही मेरे भीतर भी एक दीवाली
मा की ममता की दीवाली
नशे के धूएँ में युवा है ध्वस्त
भविष्य के सपने हो रहे पस्त
जल रही मेरे भीतर भी एक दीवाली
चमकते सौंदर्य की दीवाली
दोस्ती- प्यार भी देखे खूबसूरत तन
कोई ना परखे शुद्द , पाक मन
4," अहिल्या "
कल जब मै तुम्हारे घर की तरफ आई
तो खुले देखे सब दरवाजे और खिड़की
मेरे अंतर्मन में हजारों पुष्प खिल गए
पर देखते-देखते दरवाजे बंद हो गए
यह देख मेरी रूह गहराई तक काँप गई
खुश्क आहों में मैं थर्रथर्राती रही
दर्द से बिलखकर सुबकती रही
गिड़गिडाकर इन्तजार करती रही
बाहर खड़ी दरवाजा खुलने का
पर कोई दरवाजा नहीं खुला
मै बहुत देर तक बाहर सामने की रेलिंग पर बैठी सोचती रही
शायद समय देखकर तुम आओगे
मुझे उठाओगे, अपने सीने से लगाओगे
पर तुम नहीं आए
मै वहीँ नीचे घास पर बैठे- बैठे सोती रही
सारी रात तुम्हारी राह देखती रही
आसमान मेरे आँसुओं का गवाह था
वो भी मेरे साथ पानी बरसा रहा था
धरती का आँचल भी मेरे साथ भीग रहा था
पास में बैंच के नीचे एक कुत्ता भी
बीच- बीच में अपनी नजर उठा लेता था
पेड़- पौधों की हालत भी मेरे जैसी थी
दूर एक गाय शायद प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी
हम सब मिलकर एक दूसरे का दुःख बाँट रहे थे
कई राह चलते मुझ पर बेचारी सी नजर डाल कर आगे बढ़ गए
जैसे ठंडी हवाएँ मेरे तन को छूकर जाती रही
मै हमेशा की तरह बारिश के तूफ़ान में भीगती रही
पर वहाँ कोई नहीं था मेरे आंसू पोंछने वाला
जब भी अँधेरे में कोई आकृति नजर आती
कि शायद तुम आए होंगे मै उठ कर बैठ जाती
फिर अपना वहम समझ कर वहीँ लेट जाती
मुझे पहली बार उस अँधेरी भयानक रात से भी डर नहीं लगा
सुबह होते -होते आसमान भी बरस कर थक गया
पेड़- पौधे का अक्स भी उजली किरण में खिल गया
धरती की प्यास भी बुझ गई
कुत्ते को कहीं से एक हड्डी मिल गई
बछड़ा अपनी माँ का दूध पीने लगा
परन्तु मेरे नैनों का नीर कहाँ सूखने लगा?
फिर मै भी मुक्त हो गई
मेरी रूह आँसुओं के सैलाब में विलीन हो गई
पीछे छोड़ गई एक बेजान पत्थर का बुत
जो अहिल्या की तरह आज तक
किसी राम के आने का इन्तजार कर रहा है
पर कलयुग में कोई राम हो सकता है ?
5,"दिहाड़ीदार मजदूर"
दिहाड़ीदार मजदूर दिन भर काम करता है
रातों को थककर चूर आराम करता है
पेट की खातिर कभी ऊंचे पेड़ पर चढ़ता है
तो कभी पेड़ को अपने काँधे पर चढ़ाता है
बिस्तर नहीं तो धरती के सीने पर सोता है
आसमान तले रातों में तारे गिनता है
हर दिन काम करता तो अगले दिन पेट भरता है
सोते हुए गाड़ियों का शोर कहाँ सुन पाता है
बेफिक्र हो कर नींदों में कल के सपने बुनता है
हर महीने की पहली को घर मनीआर्डर करता है
सरकारें अपने महलों में सबसे बेखबर सोती हैं
क्या पता किसे कल का सूरज नसीब होता है ?
ना जाने कब कोई रईस जादा नशे में धुत्त बेरहमी से
सड़क किनारे सोते गरीब को पैरों तले कुचलता है
मनीआर्डर की जगह घर पर पहली को तार पहुँचता है
आँगन का पौधा क्यों पतझड़ के तूफ़ान में उजड़ता है ?
6,तुम कहते हो.................
मेरी रातें तुम बिन वीरान !
तुम कहते हो तुम सिर्फ मेरे हो..........
फिर क्यों हर सावन मेरे नैनों से बरसता है ?
फिर क्यों तुम्हारा अक्स मेरे होंठों पे थिरकता है ?
मेरी शामें तुम बिन सुनसान !
तुम कहते हो मै तुम्हारी मंजिल हूँ ..........
फिर क्यों नहीं तुम्हारा रास्ता मुझ तक पहुँचता है ?
फिर क्यों नहीं तुम्हारा रूप मेरी बाहों तक पहुँचता है ?
मेरी आहें तुम बिन अनजान !
तुम कहते हो मै तुम्हारी आत्मा हूँ ..........
फिर क्यों मेरा साया परछाई बिन भटकता है ?
फिर क्यों मेरा चेहरा दीवारों के पलस्तर से लिपटता है ?
मेरी साँसें तुम बिन शमशान !
तुम कहते हो हमारा प्यार अमर है ...........
फिर क्यों मेरा ख्याल रेगिस्तान में विचरता है ?
फिर क्यों सपनों में विकृत भयावह बीयाबान टकरता है ?
मेरी आँखें तुम बिन बेजान !
तुम कहते हो हम एक रूह हैं .............
फिर क्यों मेरा मन खंडहर की तरह मचलता है ?
फिर क्यों मेरा बदन सूखे तने की तरह दहलता है ?
7,"औरत होने का दर्द "
औरत होने का दर्द कौन समझता है ?,
हर कोई बस परखता है !
कभी माँ, कभी बीवी बनकर बलि की देवी बनती है
नौ महीने गर्भ के बीज को पल- पल खून से सींचती है
नव कोपल के फूटने के लम्बे इन्तजार को झेलती है
कौन आगे बढकर प्यार से माथे का पसीना पौंछता है ?
नवजीव के खिलने के असहनीय दर्द को कौन समझता है ?,
हर कोई बस परखता है !
माँ बनकर अपने जिगर के टुकड़े को हर दिन बढ़ते देखती है
कभी प्यार से तो, कभी डांट से पुचकारती है
खुद भूखा रहकर भी हर एक का पेट भरती है
कभी रात का बचा भात तो ,कभी दिन की बची रोटी रात में खाती है
इस बलिदान को कौन समझता है ?,
हर कोई बस परखता है !
कभी पति, कभी बच्चों की दूरी को कम करते पिस जाती है
बच्चें लायक हो तो पिता का सीना गर्व से फूलता है
परीक्षा में कम निकले तो हर कोई माता को कोसता है
हम सफ़र के माथे की हर शिकन को तुरंत भांप लेती है
इस ममता को कौन समझता है ?,
हर कोई बस परखता है !
कभी बेटी, कभी बहन बनकर सब सह जाती है
कभी बाप , कभी भाई के गुस्से में भी मुस्कुराती है
मायके में बचपन के आँगन का हर कर्ज चुकाती है
अपने हर गम, हर दुःख में भी सबका गम भुलाती है
इस दुलार को कौन समझता है ?,
हर कोई बस परखता है !
कभी प्रेमिका बनकर, कभी दोस्ती के नाम पर छली जाती है
खुद गुस्सा होकर भी अपने प्रेमी को हर पल मनाती है
प्रेमी के मन की हर बात बिन कहे समझ जाती है
अपना हर आंसू उससे छुपा लेती है
कभी उसकी याद में तो, कभी बेरुखी में तड़पती है
इस जलन को कौन समझता है ? ,
हर कोई बस परखता है !
कभी बहू बनकर दहेज़ के नाम पर ताने सह जाती है
बेटी पैदा करने पर गुनाहगार ठहराई जाती है
कभी प्रसव तो , कभी गर्भ -पात की पीड़ा झेल जाती है
अपने ही अरमानों की अर्थी अपने कांधो पर उठाती है
इस संवेदना को कौन समझता है ? ,
हर कोई बस परखता है !
8,"गरीब की झोंपड़ी "
गरीब की झोंपड़ी में चूल्हा जले हर दिन
यह जरुरी तो नहीं !
चूल्हे में तेल नहीं तो कभी जलने को आग नहीं ,
खाने में अन्न नहीं तो कभी रोटी को साग नहीं !
सब्जी में नमक कम तो कभी चाय में चीनी कम ,
ना तो उच्चताप का दम ,ना ही शूगर का गम !
चुटकी भर नमक के साथ,कभी मुट्ठी भर भात है ,
भूखे पेट भी होता नींद का आघात है !
हर दिन भूख तो है पर भूख का इंतजाम नहीं ,
मोटापा कम करना पड़े ,कसरत का अंजाम नहीं !
पेट की आतें सूख कर हो गई चने का झाड़ ,
चूल्हे की लकड़ी ढोना भी बन गया पहाड़ !
इक दिन आया ऐसा जब सेठ हो गया मेहरबान ,
ख़ुशी से वह बोला देखो, मै क्या हूँ लाया , भाग्यवान !
उस रोज अन्न था भरपेट,जली चूल्हे में आग भी खूब ,
पति- पत्नी इक दूजे में मग्न ,प्यार की नींद में गए ढूब!
रात में चला ऐसा तूफ़ान ,आग की लपटे छूने लगी आसमान ,
नींद में खोया सारा जहान,किसे पता झोंपड़ी बन गई शमशान !!
गरीब की झोंपड़ी में चूल्हा जले हर दिन
यह जरुरी तो नहीं !!!
9,"मनमीत "
आँखें लगी कब से तेरी राहों में ,
कब लोगे अपनी पनाहों मे ,
काजल बिन कजरारे हो गए नैन,
जबसे बसे हो तुम निगाहों में !
सतरंगी बिखर गई फिजाहों में ,
सावन के झूलें तेरी बाहों में ,
गजरे की महक कर रही बेचैन,
प्रेम रस बरसे काली घटाओं में !
भटक रहे थे कब से गुनाहों में,
सजदे खुदा के तेरी बलाओं में ,
रातों को नींद ना दिन को चैन,
मर मिटे हम तेरी वफाओं में !
सतरंगी सुर बज उठे हवाओं में ,
सपने बुन बैठे तेरी अदाओं में ,
तेरी छूअन का ख्याल कर दे बेचैन
मन्नत मांगे मिलन को दुआओं में !
10,"इक रात की दुल्हन "
इक रात की दुल्हन ,राहें हैं मेरी ठहरी- ठहरी
हृदय समुन्द्र सा विशाल,आँखें "झील"सी गहरी,
ना ही मेरा कोई रास्ता, ना ही कोई किनारा
चाहकर बह ना पाऊं बनकर नदी की धारा,
ना ही मेरी कोई मंजिल, ना मुझ तक कोई आए
पुरवई हवाएँ समुन्द्र का पैगाम देकर जाएँ,
मै इक रैन बसेरा, हृदय में किसी के ना डेरे
हुस्न मेरा हर रात को नव छटा बिखेरे ,
हर कोई मेरे रूप सलोने के गुण गाए
चाहत मेरी की गहराई का कोई पार ना पाए
अनेकों सैलानी हर दिन आके मन अपना बहलाए
जल मेरा फिर भी किसी की प्यास बुझा ना पाए,
काली खुश्क रातों में जिस्म वीरानों में भटकता
पलकों से मेरी जलते घावों का लहू टपकता,
मेरे दिल का हर टुकड़ा दर्द की इक दास्ताँ
तूफानों में घिरा है मेरे भू-स्थल का गुलिस्ताँ ,
रूह मेरी क़यामत की उस रात को तरस जाए
जब मन मंदिर के देवता मेरा हर आंसू अपनाए,
सदियों से बैठी हूँ बनकर श्वास- हीन धारा
इक रात की दुल्हन,मन आस्मां सा ठहरा..
11,मरुभूमि
मैं बंझर रेगिस्तान की धरती
गर्भ में मेरे सूरज की गर्मी
भीतर अनगिनत बीज है लहुलुहान
मीलों तक छाई है खामोशी
तपती धूप में छाया को तरसी
मेघ टूट कर ना मुझ पर पर बरसे
नदी, नाले, खेत सब छूटे हैं पीछे
कई मुसाफिर रास्ते से हैं भटके
हृदय पर मेरे बिछे हैं कांटे
कीट पतंगे डेरा लगाए हैं बैठे
मुझे बाँझ ना पुकारो !
कई मौसम मुझसे होकर गुजर गए
ना कोई सावन मन को बहलाए
ना ही तूफानों का डर सताए
चांदनी रातों में ना पल भर को रोई
अँधेरी रातों में भी ना जी भर कर सोई
ओह मेघ
कब आओगे ?
कब मेरी प्यास बुझाओगे?
कब हरियाली बरसाओगे ?
कब से आसमान की ओर
गड़ाए बैठी हूँ नजरें
कब से अखियाँ तरस रही
बिन नमी के ही बरस रही
ओह मेघ
कब प्रेम की नदिया बहाओगे ?
कब स्नेह के फूल खिलाओगे ?
कब मेरी ममता का मौल चुकाओगे ?
मुझ से यूँ मुँह ना मोड़ो
मेरे सूने दिल को यूँ ना तोड़ो
मेरा हृदय कब से विरानो
में भटक रहा है
कब से तुम्हारे स्नेहिल
स्पर्श को तरस रहा है !
सीने में मेरे भी है अमृत की नर्मी
हृदय में है प्यार का बीज स्फूटित
वक्ष में मेरे भी है दूध की चर्भी
आँचल में है ममता की धूप खिली
मै बाँझ नहीं, मै माँ हूँ !
मै बाँझ नहीं, मै माँ हूँ !
12," देव- भूमि"
इस गर्मी की छुट्टी हम चले पहाड़ों की सैर
ऐसा लगा मानो पहाड़ों पर बादल रहे तैर
आने लगे ठंडी- ठंडी हवा के झोंके
ए.सी. , कूलर भी हैं जिसके आगे फींके
हिमाचल जो कहलाए धरती पर " देवभूमि"
मैदानों पर पड़ रही होती जब भीष्म गर्मी
हर मोड़ पर लगा है संकेतक साइन बोर्ड
देकर चलो हार्न ,आगे है तीव्र मोड़
इक तरफ ऊँचे पहाड़ तो इक तरफ गहरी खाई
किसे ना मनमोहक पहाड़ी झरनों की छटा भाई
दूर इक पहाड़ी पर चरवाहा था भेड़ें चराए
हैरान हूँ बिन सीड़ी ,रास्ते कैसे वहाँ चढ़ जाए
घुमावदार सड़कों पर सर खा ना जाए चक्कर
ओवर टेक ना करो तंग सड़क पर हो ना जाए टक्कर
छोटी पहाड़ी पर इक था छोटा सा शिवालय
कोहरे के आलिंगन में था पर्वत हिमालय
बर्फ से ढकी ऊँची चोटियाँ नव दुल्हन की तरह निर्मल
पर्वत मालाएं हैं देवताओं के वास से उज्जवल
कहीं हैं बांस के वृक्ष तो कहीं लम्बे- लम्बे देवदार
इक पल में धूप खिले तो इक पल में बरखा की मनुहार
कानों में रस घोल रही पक्षियों की आवाजें मनमोहक
रैन बसेरों की रोशनी लगे मानों तारें रहे हो चमक
यहीं पर दिखता धरती -गगन के मिलन का अद्दभुत नजारा
जहाँ सूरज की पहली किरण से फ़ैल रहा नव उजयारा
मन चाहे कि बना ले हमेशा का यहीं इक आशियाना
कुदरत ने मानों यहीं बिखेरा अपना सारा खजाना
इस गर्मी की छुट्टी हम चले " देव भूमि"
13," इष्ट देव "
तुम.. मेरे जीवन दाता
...मेरे प्राणों के त्राता
मेरे भूखंड की बगिया के तुम माली
दर से तुम्हारे जाए ना कोई खाली
किरण तुम्हारी पहली वक्ष को मेरे जब सहलाए
ताप से तुम्हारे रात की औंस भी पिघल जाए
स्पर्श से तुम्हारे मेरा रोम- रोम पुलकित हो उठे
सीने में मेरे इन्द्रधनुष के सातों रंग खिल उठे
हृदय से छनकर पैगाम तुम्हारा जब आता है
गर्भ में मेरे कई नवजीवन खिला जाता है
मेघ का आवरण जब चेहरा तुम्हारा छुपा लेता है
दर्द विरह का रक्त रंजित आँखों में मेरी उतर जाता है
ढलती शाम तुम्हे क्षितिज पार मुझ से परे जब ले जाए
सीने की मेरी धधकती ज्वाला भी बुझ जाए
लालिमा तुम्हारी सुबह सवेरे जब मुझे जगाए
वजूद मेरा तुम्हारे वजूद में मिल जाए
जीवन धारा के हम चाहे अलग दो किनारे हैं
तुम्हारे प्रेम के रस में भीगे मेरे अलग नजारें हैं
सर्द रातों में मन मेरा तुम्हारी गर्म साँसों को तरसता
मेरी निर्जन आँखों से घायल हृदय का लहू बरसता
कोहरे भरी रातों में पूर्णिमा की चांदनी ना भाए
चमकते हुए तारों की परछाई भी मुझे डराए
मै धरा, तुम मेरे इष्ट देव
14, यादें
ये यादें भी अजीब हैं बिन बुलाए चली आती हैं ,
पत्थर की लकीर सी खिंची जाती हैं ,
जितना उनकी यादों को दूर रखना चाहते है ,
उतना ही वे करीब चले आते हैं ,
जवानी में बचपन की यादें पास आकर खिलखिलाती हैं ,
चुपके से माँ की लोरी सुना जाती हैं ,
बुढापे में जवानी की अटकलें याद आती हैं ,
सूरज की किरणों सी गर्मी दे जाती हैं ,
प्रेमी को प्रियतमा की याद तडपाती है ,
बहती हवाएँ भी बदन को महका जाती हैं ,
ये यादें भी अजीब हैं , हर समय सीने से लगी रहती हैं ,
सूरज का ढलना , पूनम की रात भी चांदनी को गुनगुनाती है ,
मिट्टी की सौंधी- सौंधी खुशबू , बारिश की बूंदों सी विरह में जलाती हैं ,
तितलियों का यौवन, भँवरे की मस्ती दहकती यादों को सहलाती है ,
ये यादें भी अजीब हैं,बिन बुलाए चली आती हैं ,
पत्थर की लकीर सी खिंची जाती हैं
15, प्यार तो जीवन है
प्यार कोई दिन, कोई मौसम. ना कोई महीना,
प्यार तो जीवन है , हर रोज का जीना
प्यार कोई बिन मौसम की बरसात नहीं
बरसे ना बरसे , तो कभी जम के बरसे
प्यार वो ठंडी हवा का झोंका , जो बिन मौसम बहता जाए
प्यार कोई पूर्णिमा की रात नहीं ,
कभी चाँद दिखे ,तो कभी बादलों में छिपे
प्यार वो चांदनी ,जो अमावस में भी ठंडक बहाए
प्यार कोई बसंत का त्यौहार नहीं ,
कभी फूल ,तो कभी कांटे खिलाए
प्यार वो खुशबू है, जो पतझड़ में भी बहार लाए
प्यार कोई दिन , कोई मौसम , ना कोई महीना
प्यार तो जीवन है, हर रोज का जीना
16, कान्हा के नाम राधा का संदेसा
तेरे प्रेम में ये मन
तेरे रंग में ये तन
कुछ इस कदर रंग गया है
कि ये दिलों जान
तेरी अमानत हो गई है
तेरी याद में खुद को जलाना
जल जल के आहें भरना अच्छा लगता है
मेरा वजूद तो कब का ख़ाक हो गया
तूँ आके देख या ना देख
इस दिल का हाल
तेरे अहसास में खुद को तड़पाना
तड़प तड़प के करवटें बदलना अच्छा लगता है
मेरा मुझ में क्या है
जो जाता है तेरा जाता है
जो खोता है तेरा खोता है
---
नाम : अलका सैनी
- जन्म :
- १८ फरवरी १९७१ को चंडीगढ़ में .
- शिक्षा :
- लोक -प्रशासन में पंजाब यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर उपाधि (१९९३ ),
- भारतीय विद्या भवन से पत्रकारिता में डिप्लोमा।
- बी. एड. (जम्मू महाविद्यालय से )
- अम्बाला कहानी लेखन महाविद्यालय से कहानी लेखन में डिप्लोमा
- सम्मान : भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा सावित्री बाई फूले सम्मान से सम्मानित
- : प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान रायपुर द्वारा सृजन श्री सम्मान से सम्मानित
बहुत सुंदर लिखती हैं आप भावपूर्ण सुंदर शब्दों से सुसजित बेहद खूबसूरत भाव संयोजन है आपकी हर एक रचना मे खासकर मुझे प्रभावित किया जीवन धारा की कविता ने बिलकुल निशब्द करती रचना समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका सवागता है
जवाब देंहटाएं---भई कविता हैं या स्टेटमेन्ट हैं...न पूर्ण रूप से तुकान्त न अतुकान्त कविता, न गीत न अतुकान्त गीत...
जवाब देंहटाएंकुछ भी हो ..हां भाव अच्छे हैं....
बहुत सुंदर रचनाएँ \
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