(पिछले अंक से जारी...) दृश्य : चार (चाय की दुकान। अलीमउद्दीन चायवाला, जावेद मिर्जा, पहलवान अनवर, सिराज, रज़ा, नासिर काज़मी बैठे हैं। अलीम...
दृश्य : चार
(चाय की दुकान। अलीमउद्दीन चायवाला, जावेद मिर्जा, पहलवान अनवर, सिराज, रज़ा, नासिर काज़मी बैठे हैं। अलीमुउद्दीन चाय बना रहा है। पहलवान अनवर, सिराज और रज़ा चाय पी रहे हैं।)
पहलवान : ओव अलीम, इधर कितने मकान एलाट हो गए।
अलीम : इधर तोर समझो गली की गली ही पलाट हो गई।
पहलवान : मोहिन्दर खन्ना वाला मकान किसे एलाट हाुआ है।
अलीम : अब मैं क्या जादूं पहलवान... ये जो उधर से आए हैं अपनी तो समझ में आए नहीं... छटांक-छटांक भर के आदमी...लस्सी का एक गिलास नहीं पिया जाता उनसे...
पहलवान : अबे ये सब छोड़... मैं पूछ रहा था मोहिन्दर खन्ना वाले मकान में कौन आया है।
अलीम : कोई सायर है... नासिर काज़मी।
पहलवान : तो गया मोहिन्दर खन्ना का भी मकान... और रजन जौहरी की हवेली।
अलीम : उसमें तो परसों ही कोई आया है... तांगे पर सामान-वामान लाद कर... उसका लड़का कल ही इधर से दूध ले गया है... उधर कुछ मुसीबत हो गयी है पहलवान। कुछ समझ में नहीं आ रिया।
पहलवान : क्या बात है।
अलीम : अरे रतन जौरी की मां... तो हवेली में रह रही है।
पहलवान : (उछलकर) नहीं।
अलीम : हां हां पहलवान... वही लड़का बता रहा था... बेचारा बड़ा परेशान था। कह रहा था... छ : महीने बाद मकान भी एलाट हुआ तो ऐसा जहां कोई रह रहा है।
पहलवान : तुझे कैसे मालूम कि वो रतन जौहरी की मां है।
अलीम : लड़का बता रहा था उस्ताद...
पहलवान : (धीरे से) वह बच कैसे गयी... इसका मतलब है अभी और बहुत कुछ दाब रखा है उसने...
अनवर : बाइस कमरों की तो हवेली है उस्ताद कहीं छुपक गयी होगी।
सिराज : एक-एक कमरा छान मारा था हमने तो।
पहलवान : रज़ा, तू चला जा और उसे लड़के को बुला ला...
अलीम : किसे?
पहलवान : अरे उसी को जिसे रतन जौहरी की हिवेली एलाट हुई है।
अलीम : पहलवान... उसके बाप को एलाट हुई है।
पहलवान : अरे तू लड़के को ही बुला ला...
रज़ा : ठीक है पहलवान।
(रज़ा निकल जाता है।)
पहलवान : अभी दही और मथा जाएगा... अभी घी और निकलेगा।
अनवार : लगता तो यही है उस्ताद।
पहलवान : अबे लगता क्या पक्की बात है।
(नासिर काज़मी आते हैं पहलवान उनकी तरफ़ शक्की नज़रों से देखता है)
अलीम : सलाम अलैकुम काज़मी साहब।
नासिर : वालकुम सलाम... कहो भाई चाय-बाय मिलेगी?
अलीम : हां-हां बैठिए काज़मी साहब... बस भट्टी सुलग ही रही है।
(नासिर बेंच पर बैठ जाते हैं)
पहलवान : आपकी तारीफ़।
नासिर : वक्त के साथ हम भी ऐ नासिर
ख़ार-ओ-ख़स की तरह बहाये गए।
अलीम : वाह-वाह क्या शेर है... ताज़ा ग़ज़ल लगती है नासिर साहब... पूरी इर्शाद हो जाए।
नासिर : चलो चाय के इंतिज़ार में ग़ज़ल ही सही... (ग़ज़ल सुनाते हैं।)
शहर दर शहर घर जलाए गए
यूं भी जश्ने तरब मनाए गए
एक तरफ़ झूम कर बाहर आई
एक तरफ़ आशयां जलाए गए
क्या कहूं किस तरह सरे बाज़ार
अस्मतों के दिए बुझाए गए
आह तो खिलवतों के सरमाए
मजम-ए-आम में लुटाए गए
वक़्त के साथ हम भी ऐ नासिर
खाऱ-ओ-ख़स की तरह बहाए गए।
(नासिर चुप हो जाते हैं)
अलीम : आजकल के हालात की तस्वीर उतार दी आपने।
पहलवान : ला चाय ला।
(अलीम चाय का कप पहलवान और नासिर के सामने रख देता है)
नासिर : (चाय की चुस्की लेकर पहलवान से) आपकी तारीफ़?
पहलवान : (फ़ख़्र से) क़ौम का ख़ादिम हूं।
नासिर : तब तो आपसे डरना चाहिए।
पहलवान : क्यों?
नासिर : ख़ादिमों से मुझे डर लगता है।
पहलवान : कया मतलब।
नासिर : भई दरअलस बात ये है कि दिल ही नहीं बदले हैं लफ़्ज़ों के मतलब भी बदल गए हैं... ख़ादिम का मतलब हो गया है हाकिम... और हाकिम से कौन नहीं डरता?
अलीम : (ज़ोर से हंसता है) चुभती हुई बात कहना तो कोई आपसे सीखे नासिर साहब!
नासिर : भई बक़ौल ‘मीर'-
हमको शायर न कहो ‘मीर' के हमने साहब
रंजोग़म कितने जमा किए कि दीवान किया।
तो भई जब तार पर चोट पड़ती है तो नग़्मा आप फूटता है।
(रज़ा और अलीम जावेद के साथ आते हैं)
पहलवान : सलाम अलैकुम...
जावेद : वालेकुमस्स्लाम।
पहलवान : आप लोगों को रतन जौहरी की हवेली एलाट हुई है।
जावेद : जी हां।
पहलवान : सुना उसमें बड़ा झगड़ा है।
जावेद : आपकी तारीफ़?
(पहलवान ठहाका लगाता है)
अलीम : पहलवान को इधर बच्चा-बच्चा जानता है... पूरे मुहल्ले के हमदर्द हैं... जो काम किसी से नहीं होता पहलवान बना देते हैं।
सिराज : परिशाह के अखाड़े के उस्ताद हैं पहलवान।
अनवर : हम सब पहलवान के चेली चापड़ हैं।
पहलवान : हां तो क्या झगड़ा है?
जावेद‘ रतन जौहरी की मां हवेली में रह रही है।
पहलवान : ये कैसे हो सकता है।
जावेद : है... हमने उसे देखा है, उससे बात की है...
पहलवान : तब... क्या सोचा है?
जावेद : अजीब बुढ़िया है... कहती है मैं कहीं नहीं जाऊंगी हवेली में ही रहूंगी।
पहलवान : ज़रूर तगड़ा मालपानी गाड़ रखा होगा। तो तुमने क्या किया।
जावेद : अब्बा कस्टोडियन के दफ़्तर गए थे। दफ़्तर वाले कहते हैं, हवेली खानी कर दो। तुम्हें दूसरी दे देंगे।
पहलवान : वाह ये अच्छी रही... बुढिऋया से नहीं खाली करायेंगे... तुमसे करायेंगे... फिर?
जावेद : फिर क्या, हम लोग तो बड़े परेशन हैं।
पहलवान : अरे इसमें परेशानी की तो कोई बात नहीं है।
जावेद : तो क्या करें?
पहलवान : तुम कुछ न कर सकोगे... करेगा वही जो कर सकता है।
(नासिर उठकर चले जाते हैं)
जावेद : क्या मतलब?
पहलवान : साफ़-साफ़ सुनो... जब तक बुढ़िया ज़िन्दा है हवेली पर तुम्हारा क़ब्ज़ा नहीं हो सकता... और बुढ़िया से तुम निपट नहीं सकते... हम ही लोग उसे ठिकाने लगा सकते हैं... लेकिन वो भी आसान नहीं है... पहले जो काम मुफ़्त हो जाया करता था अब उसके पैसे पड़ने लगे हैं... समझे।
जावेद : हां, समझ गया।
पहलवान : अपने अब्बा से कहो... दो-चार हज़ार रुपए की लालच में कहीं लाखों की हवेली हाथ स न निकल जाए।
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दृश्य : पांच
(हमीदा बेगम बैठी सब्ज़ी काट रही हैं। तन्नो आती है।)
तन्नो : अम्मां, बेगम हिदायत हुसैन कह रही हैं कि उनका नौकर टाल पर कोयले लेने गया था, वहां कोयले ही नहीं हैं। कह रही हैं हमें एक टोकरी कोयले उधार दे दो... कल वापस कर देंगे।
हमीदा बेगम : ऐ बीवी होशों मेें रहो... हमें क्या हक़ है दूसरों की चीज़ उधार देने का... कोयले तो रतन की अम्मां के हैं।
तन्नो : अम्मां, हिदायत साहब ने कुछ लोगों का खाने पर बुलाया है। भाभी जान बेचारी बेहद परेशान हैं। घर में न लकड़ी है ना कोयले... खाना पक्के तो काहे पर पक्के।
हमीदा : ए तो मैं क्या बताऊं... रतन की अम्मां से पूछ लो... कहे तो एक टोकरी क्या चार टोकरी दे दो।
(तन्नो सीढ़ियों की तरफ़ जाती है और आवाज़ देती है।)
तन्नो : दादी... दादी मां... सुनिए... दादी मां...
(ऊपर से आवाज़)
रतन की मां : आई बेटी आई... तू जुग जुग जिये (आते हुए) मैं जादवी तेरी आवाज सनदी आं... मनूं लगदा हय कि मैं जिन्दा हां...
(रतन की मां सीढ़ियों पर से उतर कर दरवाज़े में आती है और ताला खोलने लगती है।)
रतन की मां : तेरी मां दी तबीअत कैजी है।
तन्नो : अच्छी है।
रतन की मां : कल रत किस दे कन विच दर्द हो रिआ सी।
तन्नो : हां, अम्मां के ही कान में था।
रतन की मां : अरे ते तेरे मां दवा लै लैदी... ए छोटे-मोटे इलाज ते मैं खुद कर लेंदी हूं।
(रतन की मां चलती हुई हमीदा बेगम के पास आ जाती है।)
हमीदा बेगम : आदाब बुआ।
रतन की मां : बेटी... तू मेरी बेटे दे बराबर है... मां जी बुलाया कर मैंनूं।
हमीदा बेगम : बैठिए मांजी।
(रतन की मां बैठ जाती है।)
रतन की मां : मैं कय रही सी कि छोटी-मोटी बीमारियां दी दवाइयां मैं अपने कोल रखदी हां। रात-बिरात कदी ज़रूरत पै जाये ते संकोच नई करना।
तन्नो : दादी, पड़ोस के मकान में हिदायत हुसैन साहब हैं न।
रतन की मां : कौन से मकान विच, गजाधर वाले मकान विच?
तन्नो : जी हां... उनकी बेगम को एक टोकरी कोयलों की ज़रूरत है। कल पावस कर देंगी... आप कहें तो...
रतन की मां : (बात काट कर) लो भला ये भी कोई पूछन दी गल है। एक टोकरी नहीं दो टोकरी दे दो।
हमीदा बेगम : ये बताइए मां जी यहां लाहौर चचीड़े नहीं मिलते? हमारे यहां लखनऊ में तो यही मौसम है चचीड़ों का... कड़वे तेल और अचार के मसाले में बड़े लज़ीज़ पकते हैं।
रतन की मां : चचीड़े... कैसे होते हैं बेटी, मुझे समझाओ... हमारे पंजाबी में क्या कहते हैं उन्हें।
हमीदा बेगम : मांजी ककड़ी से थोड़ा ज़्यादा लम्बे-लम्बे। हरे और सफ़ेद होते हैं... चिकने होते हैं।
रतन की मां : अरे लो... हमारे यहां होते क्यों नहीं... खूब होते हैं... उन्हें यहां खिराटा कहते हैं... अपने बेटे से कहना सब्ज़ी बाज़ार में रहीम की दुकान पूछ ले... वहां मिल जायेंगे।
हमीदा बेगम : ऐ ये शहर तो हमारी समझ में आया नहीं... यहां निगोडमारी समनक नहीं मिलती।
रतन की मां : बेटी लाहौर तो बड्डा दूरा शहर तो साड्डे हिंदुस्तान च है ही नहीं... मसल मशहूर है कि जिस लाहौर नई देख्या ओ जन्मया ही नई।
हमीदा बेगम : ऐ लेकिन लखनऊ का क्या मुक़ाबला।
रतन की मां : मैं तां कदी लखनऊ गयी नहीं... हां चालीस साल पहले दिल्ली ज़रूर गई सी... बड़ा उजड़या-उजड़या जा शहर सी।
हमीदा बेगम : मां जी यहां रुई कहां मिलती है।
रतन की मां : रुई... अरे रुई तो बहुत बड़ा बाज़ार है... देखो जावेद से कहो यहां से निकले रेज़ीडेंसी रोड से गली हारीओम वाली में मुड़ जाये, वहां से छत्ता अकबर खां पहुंचेगा... वहां दो गलियां दाहिने बायें जाती दिखाई देंगी... एक है गली रुई वाली... सैंकड़ों रुई की दुकानें हैं।
(सिकंदर मिर्ज़ा अन्दर आते हैं। रतन की मां को देख कर बुरा-सा मुंह बनाते हैं।)
रतन की मां : जीते रहो पुत्तर... कैसे हो।
सिकंदर मिर्ज़ा : दुआ है आपकी... शुक्र है अल्लाह का।
रतन की मां : (उठते हुए) बेटी लाहौर विच सब कुछ मिलदा है... जद कोई दिक्कत होय तां मनुं पूछ लेणा... चप्पे-चप्पे तो वाकिफ हां लाहौर दी... अच्छ दीजी रह... मैं चलां।
(चली जाती है।)
सिकंदर मिर्ज़ा : (बिगड़कर) ये क्या मज़ाक़ है... हम इनसे पीछा छुड़ाने के चक्कर में हैं और आप इन्हें गले का हार बनाये हुए हैं।
हमीदा बेगम : ए नौज, मैं क्यों उन्हें बनाने लगी गले का हार। हिदायत हुसैन साहब की ज़रूरत न होती तो मैं बुढ़िया से दो बातें भी करती।
सिकंदर मिर्ज़ा : हिदायत हुसैन की ज़रूरत?
हमीदा बेगम : जी हां... घर में कोयले हैं न लकड़ी... दोस्तों को दावत दे बैठे हैं... बेगम बेचारी परेशान थी। लकड़ी की टाल पर भी कोयले नहीं थे। हमसे मांग रही थ जब ही बुढ़िया को बुलाया था। कोयले तो उसी के हैं न।
सिकंदर मिर्ज़ा : देखिए उसका इस घर में कुछ नहीं है... एक सुई भी उसकी नहीं है। सब कुछ हमारा है।
हमीदा बेगम : ये कैसी बातें कर रहे हैं आप।
सिकंदर मिर्ज़ा : बेगम हम इसी तरह दबते रहे तो ये हवेली हाथ से निकल जायेगी...
(तन्नो की तरफ़ देखकर, जो सब्ज़ी काट रही है।)
तन्नो तुम यहां से ज़रा हट जाओ बेटी... तुम्हारी अम्मां से मुझे कुछ ज़रूरी बात करना है।
(तन्नो हट जाती है।)
सिकंदर मिर्ज़ा : (राज़दारी से) जावेद ने बात कर ली है... इस बुढ़िया से पीछा छुड़ा लेना ही बेहतर है... कल को इसका कोई रिश्तेदार आ पहुंचेा तो लेने के देने पड़ जायेंगे।
हमीदा बेगम : लेकिन कैसे पीछा छुड़ाओगे।
सिकंदर मिर्ज़ा : जावेद ने बात कर ली है।
हमीदा बेगम : अरे किससे बात कर ली है... क्या बात कर ली है।
सिकंदर मिर्ज़ा : वो लोग ऐ हज़ार रुपए मांग रहे हैं।
हमीदा बेगम : क्यों... एक हज़ार तो बड़ी रक़म है।
सिकंदर मिर्ज़ा : बुढ़िया जहन्नुम वासिल हो जायेगी।
हमीदा बेगम : (चौंकरकर, घबरा, डर कर) नहीं।
सिकंदर मिर्ज़ा : और कोई रास्ता नहीं है।
हमीदा बेगम : नहीं... नहीं खुदा के लिए नहीं... मेरे जवान जहान बच्चे हैं, मैं इतना बड़ा अज़ाब अपने सिर नहीं ले सकती।
सिकंदर मिर्ज़ा : क्या बकवास करती हो।
हमीदा बेगम : नहीं... कहीं हमारे बच्चों को कुछ हो गया तो...
सिकंदर मिर्ज़ा : ये वहेम है तुम्हारे दिल में।
हमीदा बेगम : नहीं... नहीं बापको मेरी क़सम... ये न कीजिए। उसने हमारा बिगाड़ा ही क्या है।
सिकंदर मिर्ज़ा : बेगम एक कांटा है जो निकल गया तो ज़िंदगी भर के लिए आराम ही आराम है।
हमीदा बेगम : हाय मेरे अल्लाह, इतना बड़ा गुनाह... जब हम किसी को ज़िंदगी दे नहीं सकते तो हमें छीनने का क्या हक़ है?
सिकंदर मिर्ज़ा : वो काफ़िरा है बेगम।
हमीदा बेगम : इसका ये तो मतलब नहीं कि उसे क़ल्त कर दिया जाये। मैं तो हरगिज़-हरगिज़ इसके लिए तैयार नहीं हूं।
सिकंदर मिर्ज़ा : अब तुम समझ लो।
हमीदा बेगम : नहीं... नहीं... तुम्हें बच्चों की क़सम ये मत करवाना।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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