(पिछले अंक से जारी... ) दृश्य : सात (मौलवी इकरामउद्दीन मस्जिद में नमाज़ पढ़ रहे हैं। पहलवान और अनवार आते हैं। दोनों अलग बैठ जाते हैं। मौल...
दृश्य : सात
(मौलवी इकरामउद्दीन मस्जिद में नमाज़ पढ़ रहे हैं। पहलवान और अनवार आते हैं। दोनों अलग बैठ जाते हैं। मौलवी नमाज़ पढ़ने के बाद पीछे मुड़ते हैं।)
पहलवान : सलाम अलैकुम मौलवी साहब।
मौलवी : वालकुमस्सलाम... कहो भाई कैसे हो।
पहलवान : जी शुक्र है खुदा का, ठीक हूं।
मौलवी : मोहल्ले पड़ोस में ख़ैरियत है?
पहलवान : जी हां... शुक्र है... सब ठीक है।
(पहलवान ख़ामोश हो जाता है।
मौलवी को लगता है कि वह कुछ पूछना चाहता है लेकिन ख़ामोश है।)
मौलवी : क्या कुछ बात करना चाहते हो।
पहलवान : (सटपटाकर) जी हां... बात है जी और बहुत बड़ी बात है...
मौलवी : क्या बात है?
पहलवान : अपने मोहल्ले में एक हिन्दू औरत रह गयी है।
मौलवी : रह गयी है, मतलब?
पहलवान : भारत नहीं गयी है।
मौलवी : तो?
पहलवान : (घबराकर) त... तो... यहीं छुप गयी है। भारत नहीं गयी है।
मौलवी : तो फिर?
पहलवान : क्या हिन्दू औरत यहां रह सकती है?
मौलवी : (हंसकर) हां... हां... क्यों नहीं।
अनवार : कुछ समझे नहीं मुल्ला जी।
मौलवी : वान्ने अहज़ मनउल मुशरीकन अस्त जादक फार्जिदा... हुक्मे खुदाबन्दी है कि अगर मुशरीकनों में से कोई तुमसे पनाह मांगे तो उसको पनाह दो।
पहलवान : मुल्ला जी वो काफ़िरा भारत चली जायेगी तो उस मकान में हमारा कोई मुसलमान भाई रहेगा।
मौलवी : क्या मुसलमान भाई के लिए अल्लाह का हुक्म क़ाबिले-कुबूल नहीं है।
(दोनों के मुंह लटक जतो हैं।)
पहलवान : हमने अपने मुसलमान भाइयों का क़त्ले-आम देखा है। हमारे दिलों में बदले की आग भड़क रही है। हम किसी काफ़िर को इस मुल्क में नहीं रहने देंगे।
मौलवी : इरशाद है कि तुम ज़मीन वालों पर रहम करो, आसमान वाला तुम पर रहम करेगा... और... जो दूसरों पर रहम नहीं करता, खुदा उसपर रहम नहीं करता।
(पहलवान और अनवार ख़ामोश हो जाते हैं और अपने सिर झुका लेते हैं।)
मौलवी : मैं तुम दोनों को नमाज़ के वक़्त नहीं देखता। पाबन्दी से नमाज़ पढ़ा करो... मुजाहिद वो हैं जो अपने नफ़्स से जिहाद करे... समझे?
पहलवान : जी...
अनवार : अच्छा तो हम... चलें साहब...
मौलाना : जाओ... सलाम आलैकुम।
दोनों : वालेकुम सलाम।
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दृश्य : आठ
(सुबह का वक़्त है। अलीम अपने चायख़ाने में है। भट्टी सुलगा रहा है। उसी वक़्त नासिर काज़मी और उनके पीछे-पीछे एक तांगेवाला हमीद अपने हाथ में चाबुक लिए अन्दर आते हैं।)
नासिर : हमीद मियां बैठो... रोज़ की तरह आज भी अलीम पूरी रात सोता रहा है और भट्टी ठण्डी पड़ी रही।
अलीम : आप बड़ी सुबह-सुबह आ गए नासिर साहब।
नासिर : सुबह कहां हुई?
अलीम : क्यों ये सुबह नहीं है?
नासिर : भाई, जो रात में सोया हो, उसी के लिए तो सुबह होती हे।
(ठहाका लगाकर हंसता है।)
अलीम : क्या पूरी रात सोए नहीं?
नासिर : बस मियां पूरी रात आवारागर्दी और पांच शेर की ग़ज़ल की नज़र हो गई।
हमीद : वैसे भी आप कहां सोते हैं?
नासिर : रातें, किसी छत के नीचे सोकर बर्बाद कर देने के लिए नहीं होतीं।
अलीम : क्यों नासिर साहब?
नासिर : इसलिए कि रात में ही दुनिया के अहम काम होते हैं। मिसाल के तौर पर फूलों में रस पड़ता है रात को, समन्दरों में ज्वार-भाटा आता है रात को, ख़ुशबुएं रात को ही जनम लेती हैं, फरिश्ते राम को ही उतरते हैं, सबसे बड़ी ‘वही' रात को नाज़िल हुई है।
अलीम : आपकी बातें मेरी समझ में तो आती नहीं।
नासिर : इसका ये मतलब तो नहीं कि चाय न पिलाओगे।
अलीम : ज़रूर ज़रूर, बस दो मिनट में तैयार होती है।
(भट्टी सुलगाने लगता है।)
अलीम : नासिर साहब कुछ नौकरी वग़ैरा का सिलसिला लगा?
नासिर : नौकरी? अरे भाई शायरी से बड़ी भी कोई नौकरी है?
अलीम : (हंसकर) शायरी नौकरी कहां होती है नासिर साहब।
नासिर : भई देखो, दूसरे लोग आठ घंटे की नौकरी करते हैं, कुछ लोग दस घंटे काम करते हैं, कुछ बेचारों से तो बारह-बारह घंटे काम लिया जाता है। लेकिन हम शायर तो चाबीस घंटे की नौकरी करते हैं।
(नासिर ज़ोर से हंसते हैं। हमीद उसका साथ देता है।)
हमीद : पूरी रात आप टालते आये... अब तो कुछ शेर सुना दीजिए नासिर साहब।
(पहलवान, अनवार, सिराज और रज़ा अंदर आते हैं।)
पहलवान : ला जल्दी-जल्दी चार चाय पिला।
अलीम : अच्छे मौक़े से आ गये पहलवान।
पहलवान : क्यों? क्या हुआ।
अलीम : नासिर साहब ग़ज़ल सुना रहे हैं।
पहलवान : (बुरा सा मंह बनाकर) सुनाओ जी... सुनाओ ग़ज़ल।
नासिर : (पहलवान से) अब एक ग़ज़ल आपके लिए सुनाता हूं-
तू असीरे बज़्म है हम सुखन तुझे ज़ौकै़ नाल-ए-नै नहीं
तेरा दिल गुदाज़ हो किस तरह ये तेरे मिज़ाज की लै नहीं
तेरा हर कमाल है ज़ाहिरी, तेरा हा ख़्याल है सरसरी
कोई दिल की बात करूं तो क्या, तेरे दिल में आग तो है नहीं
जिसे सुन के रूह महक उठे, जिसे पी के दर्द चहक उठे
तेरे साज़ में वो सदा नहीं, तेरे मैकदे में वो मैं नहीं
यही शेर है मेरी सल्तनत, इसी फ़न में है मुझे आफ़ियत
मेरे कास-ए-शंबो रोज़ में, तेरे काम को कोई शय नहीं
(ग़ज़ल के बीच में हमीद और अलीम दाद देते हैं। पहलवान और उसके साथी ख़ामोश बैठे रहते हैं।)
पहलवान : अजी शायरों का क्या है, जो जी में आता है लिख मारते हैं।
अनवार : और क्या उस्ताद...
सिराज : मैं तो समझता हूं सब झूठ होेता है।
हमीद : तुम उसे इसलिए झूठ कहते हो कि वो इतना बड़ा सच होता है कि तुम्हारे गले से नहीं उतरता।
पहलवान : (सिराज से) छोड़-छोड़ ये बेकार की बातें छोड़। (बड़बड़ाता है) पाकिस्तान में कुफ्र फैल रहा है और ये बैठे शायरी कर रहे हैं।
अलीम : कैसे उस्ताद? क्या हुआ?
पहलवान : अरे वो हिंदू बुढ़िया दनदनाती फिरती है, रोज़ रावी में नहाने आती है, पूजा करती है... हम सबको ठेंगा दिखाती है और हमसे कुछ नहीं होता... ये कुफ्ऱ नहीं फैल रहा तो क्या हो रहा है?
नासिर : अगर इसे आप कुफ्र मानते हैं तो आपकी नज़र में ईमान का मतलब रोज़ रावी में न नहाना, पूजा न करना और किसी को अंगूठा न दिखाना होगा।
पहलवान : (बिगड़कर) क्या मतलब है आपका।
नासिर : आपको समझाना किसके बस का काम है?
पहलवान : अरे साहब वो हिंदू बुढ़िया हम लोगों के घरों में जाती है, हमारी औरतों, लड़कियों से मिलती है, उनसे बातचीत करती है, उन्हें अपने मज़हब की बातें बताती है।
नासिर : तो किसी और मज़हब की बातें सुनना कुफ्र है।
पहलवान : (बुरा मानते हुए) तो क्या ये अच्छी बात है कि हमारी बहू-बेटियां हिंदू मज़हब की बातें सीखें।
नासिर : किसी और मह़हब के बारे में मालूमात हासिल करना कुफ्र नहीं है।
पहलवान : फिर भी बुरा तो है।
नासिर : नहीं, बुरा भी नहीं है... आपको पता ही होगा कुरान में यहूदी और ईसाई मज़हब का ज़िक्र है।
(पहलवान चुप हो जाता है।)
पहलवान : ईसाई और यहूदी मज़हबों की बात और हैं, हिंदू मज़हब की बात और है।
नासिर : क्या फ़र्क है?
पहलवान : ज... ज... जी... फ़र्क है... कुछ न कुछ तो फ़र्क है...
नासिर : तो बताइए ना...
(पहलवान चुप हो जाता है।)
अनवार : अजी वो तो किसी से नहीं डरती।
नासिर : क्यों डरे वो किसी से? क्या उसने चोरी की है या डाका डला है, या किसी का क़त्ल किया है।
सिराज : लेकिन हम ये बर्दाश्त नहीं कर सकते।
नासिर : क्या बर्दाश्त नहीं कर सकते... किसी का न डरना आप बर्दाश्त नहीं कर सकते... यानी सब आपसे डरा करें?
पहलवान : अजी सौ की सीधी बात है, उसे भारत क्यों नहीं भेज दिया जाता।
नासिर : क्या आपने ठेका लिया है लोगों को इधर से उधर भेजने का? ये उसकी मर्ज़ी है वो चाहे यहां रहे या भारत जाये।
पहलवान : (अपने चेलों से) चले आओ चलें...
(पहलवान गुस्से में नासिर को देखता है।)
नासिर : है यही ऐने वफ़ा दिल न किसी का दुखा
अपने भले के लिए सबका भला चाहिए।
(पहलवान उठ जाता है और उसके साथी उसके साथ आहर निकल जाते हैं।)
नासिर : यार अलीम एक बात बता।
अलीम : पूछिए नासिर साहब।
नासिर : तुम मुसलमान हो।
अलीम : हां, हूं नासिर साहब।
नासिर : तुम क्यों मुसलमान हो?
अलीम : (सोचते हुए) ये तो कभी नहीं सोचा नासिर साहब।
नासिर : अरे भाई तो अभी सोच लो।
अलीम : अभी?
नासिर : हां हां अभी... देखो तुम क्याा इसलिए मुसलमान हो कि जब तुम समझदार हुए तो तुम्हारे सामने हर मज़हब की तालीमात रखी गयीं और कहा गया कि इसमें से जो मज़हब तुम्हें पसंद आये, अच्छा लगे, उसे चुन लो?
अलीम : नहीं नासिर साहब... मैं तो दूसरे मज़हबों के बारे में कुछ नहीं जनाता।
नासिर : इसका मतलब है, तुम्हारा जो मज़हब है उसमें तुम्हारा कोई दख़ल नहीं है... तुम्हारे मां-बाप का जो मज़हब था वही तुम्हारा है।
अलीम : हां जी बात तो ठीक है।
नासिर : तो यार जिस बात में तुम्हारा कोई दख़ल नहीं है उसके लिए ख़ून बहाना कहां तक वाजिब है?
हमीद : ख़ून बहाना तो किसी तरह भी जायज़ नहीं है नासिर साहब।
नासिर : अरे तो समझाओ न इन पहलवानों को।... लाओ यार एक प्याली चाय और लाओ... साले ने मूड ख़राब कर दिया।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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