(पिछले अंक से जारी...) दृश्य : सोलह (सिकंदर मिर्ज़ा के मकान के एक कमरे में फ़र्श पर रतन की मां की लाश रखी है। कमरे में सिकंदर मिर्ज...
दृश्य : सोलह
(सिकंदर मिर्ज़ा के मकान के एक कमरे में फ़र्श पर रतन की मां की लाश रखी है। कमरे में सिकंदर मिर्ज़ा, मौलाना, नासिर काज़मी, हिदायत हुसैन, कब्बन, तक़ी, जावेद तथा एक-दो और लोग बैठे हैं।)
सिकंदर मिर्ज़ा : मौलाना सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि मरहूमा को जलाया कहां जाए क्योंंकि क़दीमी शमशान तो अब रहा नहीं।
हिदायत : और जनाब इन लोगों की दूसरी रस्में क्या होती हैं ये हमें क्य मालूम?
मौलाना : देखिए शमशान अगर नहीं रहा तो रावी का किनारा तो है। हम मरहूमा की लाश को रावी के किनारे किसी ग़ैर आबाद और सुनसान जगह लेकर सुपुर्दे आतिश कर सकते हैं।
कब्बन : क्या ये उनके मज़हब के मुताबिक़ होगा?
मौलाना : बेशक। हिन्दू अपने मुर्दों को नदी के किनारे जलाते हैं और फिर ख़ाक दरिया में बहा देते हैं।
तक़ी : लेकिन और भी तो सैकड़ों रस्में होती होंगी... मिसाल के तौर पर कफ़न कैसे लिया जाता है।
नासिर : भई आप लोग शायद न जानते हों, अम्बाला में मेरे बहुत से दोस्त हिन्दू थे, उनके यहां कफ़न काटा या सिया नहीं जाता बल्कि एक बड़े टुकड़े में मुर्दे को लपेटा जाता है।
हिदायत : उसके बाद?
तक़ी : भई उसके बाद तो ठठरी पर रखकर घाट ले जाते होंगे।
कब्बन : ठठरी कैसे बनती है?
मौलाना : ठठरी समझो ये एक क़िस्म की सीढ़ी होती है जिसमें तीन डंडे लगे होते हैं।
कब्बन : तो ठठरी बनाने का काम तो किया ही जा सकता है... आप हज़रात कहें तो मैं बांस वग़ैरा लोकर ठठरी बनाऊं।
सिकंदर मिर्ज़ा : हां-हां ज़रूर।
(कब्बन बाहर निकल जाते हैं।)
तक़ी : लकड़ियों को रावी के किनारे पहुंचाने की ज़िम्मेदारी मैं ले सकता हूं।
मौलाना : बिस्मिल्लाह तो आप रावी के किनारे लकड़ियां पहुंचवाइए।
(तक़ी भी बाहर चले जाते हैं।)
सिकंदर मिर्ज़ा : मौलाना मुझे याद आता है कि हिन्दू मुर्दे के साथ कुछ और चीज़ें भी जलाते हैं... शायद आम की पत्तियां...
मौलाना : आम ही नहीं, बल्कि पत्तियां भी जलाई हैं।
सिकंदर मिर्ज़ा : (जावेद से) जावेद बेटा, तुम ये पत्तियां ले आओ।
हिदायत : क्या उनके यहां मूर्दे को नहलाया भी जाता है।
मौलाना : ये मुझे इलम नहीं?
नासिर : जी हां नहलाया जाता है।
हिदायत : कैसे?
नासिर : ये तो मुझे नहीं मालूम।
मौलाना : भई नहलाने से मुराद यही कि मुर्दा पाक हो जाये और उसके साथ कोई ग़लाज़त न रहे।
सिकंदर मिर्ज़ा : जी हां और क्या...
मौलाना : तो मिर्ज़ा साहब ये काम तो घर ही में हो सकता है।
सिकंदर मिर्ज़ा : जी हां बेशक... देखिए मैं बेगम से कहता हूं।
(सिकंदर मिर्ज़ा अन्दर जाते हैं।)
मौलाना : नासिर साहब पत्तियों के अलावा और किन-किन चीज़ों का इस्तेमाल होता है।
नासिर : हां याद आया जनाब... असली घी डालकर मुर्दा जलाया जाता है और बड़ा लड़का आग लगाता है।
मौलाना : मरहूमा का कोई लड़का तो यहां है नहीं।
नासिर : सिकंदर मिर्ज़ा साहब को वो लड़के के बराबर मानती थीं। ये काम इन्हीं को करना चाहिए।
साहब 1 : मौलाना हिन्दू मुर्दे के साथ हवन की चीज़ें भी जलाते हैं।
मौलाना : हवन की चीज़ों में क्या-क्या होता है?
साहब 1 : जनाब ये तो मुझ नहीं मालूम।
(सिकंदर मिर्ज़ा आते हैं।)
मौलाना : मिर्ज़ा साहब हवन में क्या-क्या चीज़ें होती हैं, आपको मालूम है।
साहब 1 : नहीं ये तो नहीं मालूम।
मौलाना : देखिए अब अगर कोई रस्म रह भी जाती है तो उससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
(कब्बन ठठरी लेकर आते हैं। उसे सब देखते हैं।)
मौलाना : अन्दर भिजवा दीजिए।
(कब्बन ठठरी सिकंदर मिर्ज़ा को दे देते हैं।)
मौालाना : हवन की जो चीज़ें बाक़ी रह गई हैं उनहें मिर्ज़ा साहब आप हासिल कर लीजिए। दस बजे तक इंशाअल्लाह जनाज़ा ले चलेंगे।
कब्बन : मौलाना, जनाज़े के साथ राम नाम सत है, यही तुम्हारी गत है। कहते हुए जाना पड़ेगा।
मौलाना : हां भाई ये तो होता ही है... अच्छा तो मैं एक घण्टे बाद आता हूं।
(उठते हैं।)
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दृश्य : सत्रह
(रतन की मां का जनाज़ा उठाए और राम राम सत है, यही तुम्हारी गत है। जुलूस मंच पर एक तरफ़ से आता है और दूसरी तरफ़ से निकल जाता है। जुलूस के निकल जाने के बाद पहलवान अपने चेलों के साथ आता है।)
अनवार : क्या किया जाये उस्ताद।
पहलवान : इसका मज़ा तो चखाऊंगा ही।
सिराज : सालों को शरम नहीं आती।
पहलवान : काफ़िर हैं...
रज़ा : उस्ताद कह दे तो मैं एक-एक को ठीक कर दूं।
पहलवान : चल ठीक है, बहादुरी दिखाने का टाइम आयेगा।
(तीनों आगे बढ़ जाते हैं।)
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दृश्य : अठारह
(रात का वक़्त है। मौलवी साहब कुरान शरीफ़ पढ़ रहे हैं। कुरान ख़त्म करके वे कुरान शरीफ़ चूमते हैं और बन्द करते हैं। पीछे से चार ढाटे बांधे हुए लोग आते हैं। वे धीरे-धीरे चलते हुए मौलाना के पास आ जाते हैं। मौलाना जैसे ही मुड़ते हैं उनकी नज़र इन चार लोगों पर पड़ती है।)
मौलाना : मस्जिद, ख़ान-ए-खुदा हैं बच्चें यहां ढांटे बांधकर आने की क्या ज़रूरत है?
(वे चारों कुछ बोलते नहीं बढ़ते चले जाते हैं।)
मौलाना : मैं तुम्हारी शक्लें नहीं देख सकता लेकिन खुदा तो देख रहा है... अगर मुसलमान हो तो उससे डरो और वापस लौट जाओ।
(वे चारों अचानक चाकू़ निकाल लेते हैं और मौलाना की तरफ़ झपटते हैं।)
मौलाना : (चीख़ते हैं) बचाओ...
(एक आदमी उनका मुंह दाब लेता है। एक उनके हाथों को कमर के पीछे पकड़ लेता है और बाक़ी दो मौलाना के सीने और पेट पर चाक़ू चलाने लगते हैं। मौलाना छुड़ाने की कोशिश करते हैं- तड़पते हैं लेकिन पांच-छह चाकू़ लगने के बाद ठंडे हो जाते हैं। वो लोग उन्हें छोड़-कर मौलाना के कपड़ों से चाकू़ साफ़ करते हैं और निकल जाते हैं।)
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(समाप्त)
बहोत खूब। शुक्रिया
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