1877 की पृष्ठभूमि पर आधारित नाटक फिरंगी लौट आये पात्र लच्छू मिर्जा तरहदार जयपाल नामदार हुसैन सूरजपाल कुछ नट जोधासिंह एक नटी पृथ्...
1877 की पृष्ठभूमि पर आधारित नाटक
फिरंगी लौट आये
पात्र
लच्छू मिर्जा तरहदार
जयपाल नामदार हुसैन
सूरजपाल कुछ नट
जोधासिंह एक नटी
पृथ्वी सिंह मुन्नी बाई
अज्जू मियां ढिंढोरची
मुल्ला अमानत कुछ ग्रामीण
मुहम्मद ख़ां हाजरा बेगम
अकबर अली तथा अन्य
दृश्य : एक
गांव की चौपाल। कुछ किसान बैठे हुक्का पी रहे हैं। एक-आध तम्बाकू मल रहे हैं। एक-दो ऐसे ही बैठे हुए हैं। सामने अलाव जल रहा है। उसका धुआं बार- बार तेज़ होता है और लोेग इधर-उधर हो जाते हैं।
लच्छू : (व्यंग्य करते हुए) मतलब यह पृथ्वी भाई कि अगले चैत में पूरा गांव अफ़ीम की फ़सल काटेगा। हर घर से अफ़ीम की सुगंध आई...
(पृथ्वी सिंह उसकी ओर घृणा से देखता है।)
कम्पनी बहादुर के हुकुम के आगे किसकी चलेगी? हुकुम है कि अफ़ीम की खेती करो... न करोगे तो पलटन आयेगी...
(पृथ्वी सिंह फिर घृणा से लच्छू की ओर देखता है।)
सूरजपाल : अनर्थ न बोल लच्छू। अफ़ीम की खेती न कभी देखी न सुनी... हम तो यही जानते हैं बेटा कि धरती माता के समान है... अफ़ीम बोवे का पाप ने लेवे अपने सिर।
जयपाल : अफ़ीम की खेती से अच्छा है ससुर परती पड़े रहें खेत।
लच्छू : अरे जुलाहन की हालत देख रहे हो... यही हालत किसानों की होने वाली है... लगान देखो ऐसे बढ़ रहा है जैसे अमरबेल...
सूरजपाल : कम्पनी के राज में तो बच्चा ऐसी-ऐसी बातें देखने को मिलीं जो कभी ने देखी थीं... गांव से सामान बाहर ले जाओ तो महसूल देव... सामान लाओ तो महसूल देव... ने देव तो चालान...।
जोधासिंह : अरे ये तो पुरानी बात है बच्चा... नयी ख़बर सुनो... अब भाप की गाड़ी दौड़ेगी खेतों में...
सूरजपाल : भाप की गाड़ी... कसत?
लच्छू : भाप के इंजन की गाड़ी... लोहे की सड़क बनाई जाएगी... बड़ा भारी इंजन समझ लेव चार हाथी ऊंचा, लोहे की सड़क के ऊपर घोड़े की रफ़्तार से दौडे़गा...
जयपाल : बाप रे बाप... हमारे गांव के पास से भी निकलेगा...
लच्छू : बाज़ार में लोग कहते थे गांव-गांव से होता जाएगा... जिधर से निकल जाएगा... मुर्गी अंडा देना बंद कर देगी...पेट से औरतें होंगी न... उनका बच्चा गिर जाएगा... धरती बंजर हो जाएगी...
जयपाल : ये सब प्रलय के लक्षन हैं बच्चाा।
लच्छू : ऐसी ज़ोर की आवाज़ मारेगा कि बीस-बीस कोस सुनाई देगी...
सूरजपाल : राम... राम...
जयपाल : पर भाप से इंजन कसत चली...
लच्छू : हमका का मालूम... फिरंगी जाने...
(मंच पर दाहिनी ओर से एक जुलाहे अज्जू का प्रवेश : वह पीठ पर बुने कपड़ों का गट्ठर लादे है। वह धीरे-धीरे चलता मंच के बीच पहुंचता है। सब उसकी तरफ़ देखते हैं। वह गट्ठर ज़मीन पर रख देता है।)
लच्छू : सलाम अज्जू भइया...
अज्जू : सलाम लच्छू भाई...
(अज्जू बैठ जाता है।)
लच्छू : बजार में कपड़ा बेच के आ रहे हो...
(अज्जू कुछ नहीं बोलता।)
सूरजपाल : का समाचार है बच्चू...
(अज्जू कुछ नहीं बोलता।)
पृथ्वी सिंह : अज्जू भई का बात है...
(अज्जू कुछ नहीं बोलता।)
पृथ्वी सिंह : कपड़ा नहीं बिका का?
अज्जू : (धीरे धीरे दुखी सवर में कहता है) हमसे भले आप ही लोग हो पृथ्वी भाई... अनाज उगाते हो अनाज खाते हो... हम कपड़ा तो खा नहीं सकते... क्या करें... (सिर झुका लेता है)
सूरजपाल : अज्जू मियां... आओ चलो हम दो-चार पसेरी बेर्रा...
अज्जू : चाचा, ऐसे काम कब तक चली... मांग मूंगकर खाना भी पड़े... काम भी करना पड़े... कहां चले जाएं.... क्या करें....
(थोड़ी देर सब चुप रहते हैं।)
सूरजपाल : जुलाहों पर तो बड़ी मुसीबत टूटी है कम्पनी के राज में... कैसे टोले के टोले उजड़ गए...
जयपाल : हम पंचों की हालत क्या अच्छी है चाचा... बंधा बंधाया लगान देना पड़ता है... खेत में कुछ होय न होय... ठनाठन पैसा गिन देव... एक के चार...
सूरजपाल : सही बात है बच्चा, पर किया क्या जाए..... भगवान की जो इच्छा है वही होयगा।
(घोडे़ की टापों की आवाज़ सुनाई देती है।)
पृथ्वी सिंहः रात के समय... को है?
सूरजपाल : देख, आगे बढ़ के देख...
(पृथ्वी सिंह उठता है, घोड़े की टापों पास आ जाती हैं और रूक जाती हैं। मंच के कोने से पृथ्वी सिंह की आवाज़ आती है।)
पृथ्वी सिंह : मुल्ला जी आये हैं चाचा।
(मुल्ला अमानत आते हैं। सब लोग खड़े हो जाते हैं।)
मुल्ला अमानतः राम-राम चाचा...
सूरजपाल : सलाम मुल्लाजी... इतनी रात में देर से... आओ बैठो।
(मुल्ला अमानत अलाव के पास बैठ जाते हैं।)
मुल्ला अमानतः (अलाव पर हाथ फैलाकर) बड़ी सर्दी पड़ रही है। सूरज चाचा।
सूरजपाल : क्यों न पड़ेगी मुल्लजी... महीना भी तो पूस का है... रात गए किधर से आ रहे हो मुल्लाजी।
मुल्ला अमानतः परसों बिठूर से चला था... नवाब साहब के पास जा रहा हूं।
सूरजपाल : अरे अब यहीं आराम करो... सूरज निकलने से पहले निकल जाना... छः कोस का रास्ता है...।
मुल्ला अमानतःमैं तो यहां रूकता भी न सूरज चाचा... पर घोड़ा गया... सोचा थाड़ा आराम कर लें, तब आगे बढ़े... गांव का क्या हाल है सूरज चाचा।
सूरजपाल : हाल का पूछत हो मूल्लाजी... अब तो बस यही भगवान से मनाते हैं कि मौत ही आ जाए... देखा नहीं जाता।
मुल्ला अमानतः सूरज चाचा, एक गांव की नहीं ये हालत सभी गांवों की है... मैं दिल्ली से मुर्शिदाबाद तक यही सब देख चुका हूं... फिरंगी, हमें गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं। उन्होंने लगान बढ़ा बढ़ा कर हमारी कमर पहले ही तोड़ दी थी, अब हमारा धरम ईमान चौपट करने पर कमर बांध चुके हैं... सिपाहियों को अब ऐसे कारतूस दिए जा रहे हैं जो सूअर और गाए की चरबी से बनाये जाते हैं, वो पूरे हिंदुस्तान को पाकिस्तान बना देना चाहते हैं। तौबा-तौबा मुआज़ अल्लह, इन मुल्क में अब न कोई हिन्दू रहेगा न मुसलमान।
पृथ्वी सिंह : पर मुल्ल जी करों क्या? ये तो आप बताओ...
(मुल्ल अमानत अपनी जेब में हाथ डाल कर लाल कमल का फूल निकालता है। उसे देखकर सब डर जाते हैं)
मुल्ला अमानत : यही रास्ता है पृथ्वी सिंह... इस रास्ते का नाम मौत है... इस पर न चलने का नाम कुत्त्ो की मौत है... क्या पसंद करोगे... गाय और सुअर की चर्बी खाकर कुत्त्ो जैसी ज़िंदगी गुज़ारते रहो या इन कमबख़्त फ़िरंगियों को क़त्ल करके खुद भी शहीद हो जाओ... बताओ...
(लाग चुप रहते हैं।)
सूरज चाचा, मैं भी किसान को बेटा हूं... मैं जानता हूं किसान बुज़दिल नहीं होते... वो चूड़ियां पहनकर घरों में नहीं बैठ सकते। वो अपनी नाक कटने का तमाशा नहीं देख सकते... वो अपने धरम-ईमान को बिगड़ता नहीं देख सकते... उनकी रगों में खून होता है... उनके हाथों में ताक़त होती है... वो इन चंद फ़िरंगियों के गु़लाम नहीं बन सकते... शहरों में, गांवों में, फ़ौज में, अवाम में एक आग सुलग रही है... जो भड़केगी और फ़िरंगी उसमें जल भुनकर ख़ाक हो जायेंगे... बताओ सूरज चाचा ये भुखमरी, अकाल का तमाशा कब तक देखते रहोगे? दस गुना लगान कब तक भरते रहोगे? धरम-ईमान का मिटना कब तक देखते रहोगे?
अज्जू : आप ठीक कहते हैं मुल्ला जी... हम...
सूरजपाल : हम आपके साथ मैं मुल्ला जी... अब सहा नहीं जाता...
मुल्ला अमानतः (राज़दारी से) इस मुल्क के लोग हमारे साथ हैं... फ़िरंगियों की फ़ौज हमारे साथ है... फिर हम ये जुल्म क्यों सहें... फ़िरंगी हैं कितने, उन्हें क्या हक़ है हमारे ऊपर हुकूमत करने का... सात समन्दर पार से यहां चले क्यों आये...
(धीरे-धीरे प्रकाश धीमा पउ़ता जाता है। मुल्ल अमानत के अंतिम संवाद अंधेरे में सुनाई देते हैं।)
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दृश्य : दो
(मंच पर कालीन का फ़र्श लगा हुआ है। बीच में एक बड़े से गाव तकिये के सहारे नवाब मुहम्मद ख़ां बैठे हैं। दूर फ़र्शी हुक्का रखा हें नवाब कीमती कपड़े पहने हैैं साज सज्जा भी बहुत क़ीमती है। उनकी दाहिनी तरफ़ नामदार हुसैन और बायीं तरफ़ अकबर अली बैठे हैं। बायीं तरफ़ ही मिर्ज़ा तहरदार बैठे हैं। नवाब के चेहरे पर कुछ फ़िक्र और परेशानी है।)
मुहम्मद खां : (चिंता से) सबसे बड़ी मुसीबत ये है अकबर अली कि लगान वसूल करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। दूसरी तरफ़ कम्पनी बहादुर का पेट ही नहीं भरता। दस साल पहले जिससे एक रूपया लेते थे, उससे अब बीस वूसल किये जा रहे हैं... भई खेतों में अनाज ही होता है सोने चांदी के फल तो नहीं लगते।
अकबर अली : बेशक हुजूर...
मुहम्मद ख़ां : हम भी क्या करें... हमें जितनी मालगुज़ारी देनी पड़ती है उसी हिसाब से लगान वसूल करते हैं...
मिर्ज़ा तहरदार : (जनाने ढंग से) ऐ हुजू़र सदके जाऊं, कुर्बान जाऊं... इसमें आपका क्या कूसूर? कम्पनी बहादुर के हुक्म के बमूजिब ही लगान वसूल किया जाता है।
मुहम्मद ख़ां : लेकिन इस बदहाली का अंजाम क्या होगा? एक वक़्त ऐसा आयेगा जब गांव के गांव वीरान हो जाऐंगे... बांस ही न रहेगा तो बांसुरी क्या बजेगी?
नामदार हुसैन : बेशक हुजूर....
मुहम्मद ख़ां : नये अंगेे्रज़ कल्क्टर जनाब शेर साहब कह रहे थे, वेल नवाब साब ये हुक्म ऊपर से आया है... ऊपर से मतलब विलायत से... बिलायत से बैठे लोगों को क्या मालूम कि हिंदुस्तान अब सोने की चिड़िया नहीं रह गया है... खैर हमें क्या... (अफ़सोस में) क़िस्मत ने तो हमें कम्पनी बहादुर की अमलदारी का हुक्म होगा उस पर अमल किया जायेगा।
(कुछ क्षण सब चुप रहते हैं।)
अकबर बली : हुजूर, एक नयी बात सुनने में आयी है।
मुहम्मद ख़ां : क्या, भापगाड़ी...?
अकबर अली : जी नहीं सरकार, पादरी साहब हर इतवार को जेल जाते हैं और क़ैदियों को ईसाई मज़हब....
मुहम्मद ख़ां : (बिगड़कर) हर कद दी है इन फ़िरंगियों ने... हमारे मदरसे और मस्जिदें वीरान हुई जा रही हैं... दूसरी तरफ़...।
(जुमला अधूरा छोड़ देता है। एक नौकर आता है।)
नौकर : सरकार मुल्ला अमानत आये हैं।
मुहम्मद ख़ां : उनसे कहो यहां तश्रीफ़ लायें...।
(नौकर चला जाता हे।)
नामदार हुसैन : हुजूर, इस ज़िले में जब से जज के ओहदे पर मिस्टर टकर आये हैं ईसाइयत का ज़ोर कुछ बढ़ ही गया है।
अकबर अली : हुजूर, ये वही हज़रत हैं जिन्होंने आबूनगर के पास सड़क के किनारे पत्थरों पर ईसाई मज़हब की तालीमात खुदवा दी है... ताकि हर आने जाने वाले की नज़र उन पर पड़े।
(मुल्ला अमानत आते हैं।)
मुल्ला अमानत : आदाब बजा लाता हूं नवाब साहब।
मुहम्मद ख़ां : आदाब अर्ज़ है मुल्ल अमानत... तशरीफ़ लाइय... बैठिये।
(मुल्ल अमानत बैठ जाते हैं।)
मुहम्मद ख़ां : कैसे मिज़ाज हैं?
मुल्ला अमानत : शुक्र है खुदा का।
मुहम्मद ख़ां : कहां से तशरीफ़ ला रहे हैं।
मुल्ल अमानत : बिठूर गया था बंदापरवर... नाना साहब पेशवा की ख़िदमत में...।
मुहम्मद ख़ां : कैसे मिज़ाज हैं महाराजा नानर साहब पेशवा के?
मुल्ला अमानत : हुजूर गुस्ताख़ी माफ़ हो, नाना साहब पेशवा से कम्पनी बहादूर ने महाराजा का ख़िताब छीन लिया है।
मुहम्मद ख़ां : (कुछ बिगड़कर) ये क्यों?
मुल्ला अमानत : गुज़ारे की रक़म तो पहले ही आधे से ज़्यादा कम कर दी गई थी, अब खिताब भी छीन लिया। कम्पनी उन्हें एक मामूली आदमी बना देने पर तुली हुई है...।
मुहम्मद ख़ां : वजह समझ में नहीं आती...।
मुल्ल अमानत : सरकार, कम्पनी से वफ़ा करो ये बेवफ़ाई अंजाम एक ही होता है। अब देखिये ना, नवाब तंजौर और नवाब कर्नाटक कम्पनी बहादुर से कितने वफ़ादार थे, लेकिन गद्दियों से उतार दिये गए। नवाब वाजिद अली शाह ने कम्पनी की कौन-कौन सी शतेंर् मंजूर नहीं कीं, लेकिन अंजाम सामने है हुजूर...।
(थोड़ी देर ख़ामोशी रहती है।)
मुल्ल अमानत : सरकार, कम्पनी हमारी जान, माल, इज़्ज़त और मज़हब की दुश्मन है... याद है हुजूर अब कम्पनी ने लखनऊ पर क़ब्ज़ा किया था तो क़दम रसूल को गोदाम बना दिया था... (व्यंग्य से) छतर मंज़िल में अब गोरा कमिश्नर रहता है... दूसरी तरफ़ हालात ये हैं कि अपने-अपने फ़न में कमाल हासिल किये लोगों को रोटियों के लाले पड़े हुए हैं... दस्तकार उजड़ रहे हैं... काश्तकार भूखों मर रहे हैंं।
मुहम्मद ख़ां : (ठंडी सांस लेकर) ठीक कहते हैं आप... लेकिन...।
मुल्ल अमानत : हुजूर कुछ अर्ज़ करना चाहता हूं....।
(मुहम्मद खां बाक़ी लोगों को आंख से इशारा करता है वो बाहर निकल जाते हैं। मुहम्मद ख़ां गावतकिये से टिककर सीधा होकर बैठ जाता है। मुल्ला अमानत पास खिसक आता है।)
मुहम्मद ख़ां : कहिए।
मुल्ल अमानत : कुछ कहने से पहले...
(अपने थैले में से लाल कमल का फूल निकालकर नवाब की तरफ़ बढ़ाता है। नवाब चौंक कर कभी उसे और कभी फूल को देखता है।)
... ये आपकी ख़िदमत में पेश करना चाहता हूं...।
मुहम्मद ख़ां : तो आप भी बाग़ियों के साथ हैं मुल्ल अमानत।
मुल्ला अमानत : नहीं सरकार, वतन परस्तों के साथ.... इसे (फूल की तरफ़ आंखों से इशारा करके) ले लीजिये हुजूर।
मुहम्मद ख़ां : मुल्ल अमानत, ये सिर्फ़ फूल नहीं है.... इसे उस तरह हाथ में नहीं लिया जा सकता जैसे किसी भी फूल को..।
मुल्ला अमानत : बजा फ़रमाते हैं सरकार... ये इन्क़लाब का निशान है.... हमारी अपनी हुकूमत होगी नवाब साहब। फ़िरंगियों का हम उसी समन्दर में ग़र्क कर देंगे जहां से ये आये हैं।
मुहम्मद ख़ां : हक़ीक़त ये है मुल्ला अमानत कि मेरे दिल में फ़िरंगियों के ख़िलाफ़ सख़्ततरीन नफ़रत का जज़्बा है।
मुल्ला अमानत : और यही उसके इज़्हार का सही वक़्त है।
मुहम्मद ख़ां : (कुछ सोचकर) लेकिन मेरी समझ में ये बात नहीं आती है कि फ़िरंगियों की एक बड़ी फ़ौज से हमारे मुकाबले का अंजाम क्या होगा?
मुल्ला अमानत : तारीख़ गवाह है नवाब साहब- हमने फ़िरंगियों को लड़ाई के मैदान में कई बार शिकस्त दी है।
मुहम्मद ख़ां : वो ज़माना दूसरा था मुल्ला अमानत- आज पूरा मुल्क उनके क़ब्ज़े में है। बड़ी से बड़ी रियासत उन्हें ख़िराज देती है- उनके जहाज़ समंदर में इस मतेज़ी से हरकत करते हैं जैसे आसमान में बाज़।
मुल्ल अमानत : फ़िरंगियों की पूरी फ़ौज हमारे साथ है...।
मुहम्मद ख़ां : (हंसकर) और फ़िरंगी इससे बेख़बर हैं?
मुल्ला अमानत : हुजूर, मुझे महाराजा नाना साहब पेशवा ने आपके पास भेजा है- सारी तैयारियों पूरी हो चुकी हैं। हिन्दोस्तान में फ़िरंगियों के गिनती के दिन रह गये हैं- नाना साहब ने आपसे वायदा किया है कि नये इंतिज़ाम में आपको चकलेदार मुक़र्रर किया जाएगा और आपको वो एक सौ बयासी गांव भी दे दिए जाएंगे जो कम्पनी बहादुर ने आपसे छीन लिए थे।
मुहम्मद ख़ां : (ठंडी सांस लेकर) एक सौ बयासी गांव... वो तो ऐ ऐसा दाग़ है हमारे सीने पर जो मिटाए नहीं मिटजा... इन कंबख़्त फ़िरंगियों ने हम पर ये इल्ज़ाम लगा कर वो इलाक़ा हड़प कर लिया कि हमने उसे नाजायज़ तरीक़े से हासिल किया था- कैसा तल्ख़ मज़ाक़ है, जिन लोगों ने नाजायज़ तरीक़े से पूरा मुल्क पड़प कर लिया, वो इंसाफ़ की डुगडुगी बजा रहे हैं...।
मुल्ला अमानत : (बेचैनी से) तो मैं नाना साहब को क्या जवाब दूं नवाब साहब...।
मुहम्मद ख़ां : (ठहर कर) कुछ सोचने का मौक़ा दिजिए हमें।
मुल्ला अमानत : (और अधिक बेचैनी से) ये सोचने का वक़्त नहीं नवाब साहब...।
(मुहम्मद ख़ां चुप रहता है।)
मुल्ला अमानत : बोलिए नवाब साहब खुदा के लिए कुछ बोलिए।
(मुहम्मद ख़ां चुप रहता है)
मुल्ला अमानत : हुजूर, कुछ फ़रमाइए...।
(मुहम्मद ख़ां चुप रहता है।)
(धीरे-धीरे प्रकाश समाप्त हो जाता है)
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दृश्य : तीन
(दाहिनी तरफ़ मस्जिद का दरवाज़ा है। सुबह के चार बजे हैं। बहुत हल्की सी रोशनी है। धीरे-धीरे रोशनी तेज़ा होती है। अंदर से अज़ान की आवाज़ सुनायी देने लगती है। बायीं तरफ़ से दो आदमी निकल कर आते हैं जो एक काले अक्षरों में लिखा पोस्टर मस्जिद के दरवाज़े पर लगाते हैं। पोस्टर लगाकर चले जाते हैं।)
नट 1: लगा हुआ है बाज़ार/ बिक रहा है हर माल/ देखती है क्या नटी/ तू भी दिखा कमाल।
(नटी नाचती है।)
नटी : (नाचते-नाचते रूककर) ऐ मेरे नटखट नट/“कहां गया खटपट/ इधर आ झटपट/ क़िस्सा सुनाओ ऐसा/ढेर लग जाए यहां पैसा।
नट 1: (लगता है) ढेर पैसे का लगा सकता हूं/“राज तुझको मैं करा सकता हूं/ ताज तुझको मैं पिन्हा सकता हूं/ क्या करूं लेकिन कि क़िस्मत अपनी खोटी है/ कंपनी के राज में हर आदमी की तिक्की बोटी है/ शराफ़त में हमें दो वक़्त की रोटी नहीं मिलती/ इधर चुंगी, उधर चुंगी, जहां जाओ वहां चुंगी/ अगर घर से निकलता हूं तो पैसे मुझसे लेते हैं/ जब अपने घर में जाता हूं तो मैं महसूल देता हूं/ मुनाफ़ाख़ोर छुट्टे घूमते फिरते हैं सांडों से/ कमीने आदमी की हर जगह पर मांग होती है/ सिपाही चाहिए ऐसा जो अपनों पर करे हमला/ ग़रज़ ये ज़िंदगी दुश्वार ही दुश्वार होती है।
(एक नट जो अपने चेहरे पर खड़ियां लगाए है पीछे से आता है और हंटर फटकारता हुआ कहता है।)
गोरा नट : नाम मेरा कंपनी है। काम है ज़ुल्मो सितम (नट 1 से )
तुम यहां पर क्यों खड़े हो/ क्यों खड़े हो तुम यहां पर/ लाओ मुझको टैक्स दो।
नट बैठ जाता है।
बैठने की फ़ीस पड़ती यहां लेटने के दाम लगते हैं/ यहां आंख से देखो तो मुझको टैक्स दो।
गोरा नट हंटर फटकारता हुआ पीछे चला जाता है।
नट 1 : (करूण आवाज़ में) और अब ज़ालिम कहानी को शुरू करता हूं मैं/ आंख के आंसू को रोको और जिगर को थाम के बैठो कि मैं तुमको सुनाता हूं, तिजारत की पुरानी दास्तां/ तिजारत के लिए आए हमारे मुल्क में ये लाल मुंह बंदर उन्हों ने धीरे-धीरे इल्म को तह्ज़ीब को इश्को-मुहब्बत को तिजारत के शिकंजे में कसा ऐसा कि हम महसूल देते मर गए और वो नहीं टूटा/ तिजारत के सिकंदर ने, ज़लालत की भी हर कर दी/ हमें उल्लू बनाया, भाई से भाई को लड़वाया कभी आगे बढ़े, पीछे हटे, घूमें कहीं, पलटे कहीं, माफ़ी कभी मांगी, कभी पीेछे से हमला कर दिया, हज़ारों वायदे झुठला दिये इंसाफ़ का रेता गला, और इसी तिकड़म से उनकी, उनका आज डंका बजता है अवध, बंगाल हो दिल्ली का सूबा हो कि दक्खिन हो उन्हीं का रौब है और दबदबा है हुक्म चलता है हमारे पास है क्या, कुछ नहीं हम लूट गए यारो।
(गोरा नट हंटर लिए आता है। हंटर फटकारता हुआ।)
गोरा नट : रहता हूं छतर मंज़िल में जहां कल अवध का शाह रहता था/ रहता हूं लाल क़िले में अब मैं, ‘ज़फ़र' जहां पर रहता था/ मैं हाकिम हूं हुक्म सुनो, अब मुजरिम हाज़िर करो यहांं
(नाट-2 एक फटे हाल आदमी को जो ज़ंजीरों से जकड़ा हुआ है सामने लाता है। वह सि झुकाए खड़ा रहता है। गोरा नट उस आदमी की ओर संकेत करके।)
गोरा नट : जानते हो कौन है ज़ंजीरो में जकड़ा हुआ?
ये अवध का शह है और नाम है वाजिद अली
अगर चाहूं तो इसको दे दूं फांसी
अगर चाहूं तो इसको हंटरों से पीट डालूं मैं
अगर चाहूं तो इस पर छोड़ दूं मैं पालतू कुत्त्ो
(दर्शकों की उत्त्ोजना और बढ़ जाती है। अचानक गोरा नट बढ़कर नटी का हाथ पकड़ लेता है और घसीटता हुआ।)
गोरा नट : इधर आ, अब तेरी इज़्ज़त सरे बाज़ार लूटूंगा।
मज़े तेरी जवानी के सरे बाज़ार लूटूंगा
तेरी हर चीज़ पर हक़ है मेरा ये मान ले तू भी
नहीं मानेगी गर तो मैं तुझे हंटर से पीटूंगा
(हंटर मारता है।)
इधर आ दो घड़ी को अपना दिल बहलाऊंगा तुझसे
(हंटर मारता है।)
ज़रा कपड़े उतार अपने ज़रा जल्वा दिखा अपना।
(गोरा नट नटी को घसीट लेता है और उसके कपड़े उतारने का प्रयास करता है। उर्शक जो गांव के वही पात्र हैं जो पहले दृश्य में थे उत्त्ोजित होकर गोरे नट को मारने के लिए आगे बढ़ते हैं। उसे मारने लगते हैं।)
गोरा नट : अरे अरे ये तो तमाशा था भाइयो तमाशा....
(पीछे से निकलकर मुल्ला अमानत आते हैं।)
मुल्ला अमानत : तमाशा क्यों कहते हो इसे... यही तो हक़ीक़त है...
(धीरे-धीरे प्रकाशा चला जाता है।)
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दृश्य : चार
(रात का वक़्त, मुहम्मद ख़ां का किला। पुराने दृश्य वाली साज-सज्जा, सामने शतरंज बिछी हुई है, मिर्ज़ा तरहदार और अकबर अली बैठे हैं। मुंशी नामदार हुसैन नहीं हैं।)
मिर्ज़ा तरहदार : (जनाने लहने में) ऐ हुजूर सदक़े जाऊं कुर्बान जाऊं आपके दुश्मनों को प्यादा मरता है।
(चाल चलता है। मुहम्मद खां का सिपाही उठा लेता है।)
मुहम्मद ख़ां : (हंसकर) और मिर्ज़ा तरहदार ये गया आपका वज़ीर।
मिर्ज़ा तरहदार : हैं हैं हुजूर, ये क्या ग़ज़ब कया आपने...
मुहम्मद ख़ां : वज़ीर के जाने का इतना सोग न मनाइए... बाक़ी बाज़ी सम्हालिए।
मिर्ज़ा तरहदार : ऐ हुजूर, ये निगोड़मारी अब क्या उठेगी...
(मुहम्मद ख़ां हंसता है। नामदार हुसैन अंदर आता है।)
नामदार हुसैन : हुजूर ख़बर मिली है कि दिल्ली पर मेरठ के फ़ौजियों ने क़ब्ज़ा कर लिया है।
मुहम्मद ख़ां : (घबरा कर और चौंक कर) क्या कह रहे हो नामदार हुसैन?
नामदार हुसैन : जी हां सरकार, दिल्ली पर मेरठ के फ़ौजियों ने क़ब्ज़ा कर लिया है। उन्होंने अपने फ़िरंगी अफ़सरों का क़त्ल कर डाला है।
मुहम्मद ख़ां : (बेयक़ीन से) ये ख़बर तुम लाए कहां से?
नामदार हुसैन : कानपुर से डाक के हरकारे आए हैं सरकार... ख़बर सौ फ़ीसदी सच है... मेरठ और दिल्ली में फ़िरंगियों का क़त्लेआम हो गया हुजूर।
मुहम्मद ख़ां : इसका मतलब है दिल्ली, हिन्दोस्तान का दिल फ़िरंगियों के हाथ से निकल चुकी है।
मिर्ज़ा तरहदार : हाय नामदार भाई ये क्या वहशतनाक ख़बर सुनाई आपने, देख्िाए तो मेरा दिल कैसा धौंकनी की तरह चल रहा है।
मुहम्मद खां : अपने दिल को सम्हालिए मिर्ज़ा साहब... सौ साल के बाद अब मौक़ा आया है।
नामदार हुसैन : हुजूर लोग कह रहे हैं कि कंपनी बहादुर की पूरी फ़ौज ही उनसे फिर गयी है...
मुहम्मद ख़ां : (कुछ सोचते हुए) मुल्ला अमानत कहां है अकबर अली?
अकबर अली : वो तो अर्से से दिखाई नहीं दिए हुजूर।
मुहम्मद ख़ां : (बेचैनी से) किसी भी तरह उनका पता लगवाइए... किसी भी सूरत में उनको यहां ले आइए... जाइए जल्दी कीजिए...
(अकबर अली उठकर चले जाते हैं।)
मुहम्मद ख़ां : मिर्ज़ा बाज़ी समेटिए क्योंकि अब ज़िंदगी की शतरंग बिछ चुकी है।
मिर्ज़ा तरहदार : (बाज़ी समेटते हुए) तो हुजूर क्या बड़ा खून-ख़राबा हो गया?
मुहम्मद ख़ां : हां मिर्ज़ा तरहदार, जंग होगी... फ़िरंगियों के ख़िलाफ़... (हंसकर) आप किसका साथ देंगे?
मिर्ज़ा तरहदार : ऐ हुजू़र, ये मुए फ़िरंगी नहीं थे तो बंदा आपके साथ था...
झाड़ू फिरे आ गऐ, तब भी बंदा आपके साथ रहा.... अब कलमुंहे नहीं रहेंगे तब भी बंदा आपके साथ रहेगा... हुजूर का जहां पसीना बहेगा ख़ादिम ख़ून की नदियां बहा देगा...
(एक नौकर ख़ासदान लेकर आता है। खोलकर सामने रख देता है। पहले मुहम्मद ख़ां पान लेते हैं फिर मिर्ज़ा तरहदार लेते हैं। खासदान सामने खुला पड़ा रहता है। पान लेने से पहले मिर्ज़ा तरहदार मुहम्मद ख़ां को कई बार हाथ से आदाब करते हैं।)
मिर्ज़ा तरहदार : इजाज़त चाहता हूं हुजूर...
मुहम्मद ख़ां : अकेले घरतक जाने में आपको डर तो न लगेगा।
मिर्ज़ा तरहदार : लगेगा तो ज़रूर हुजू़र... आज बड़ी हैबतनाक बातें सुनी हैं... लेकिन दिल पर दोनों हाथ रख लूंगा और आंखें बंद कर लूंगा...
(मुहम्मद ख़ां हंसता है। नामदार हुसैन भी उठ आते हैं। दोनों आदाब करके बाहर निकल जाते हैं। मुहम्मद ख़ां शमादान की तरफ़ देखकर कुछ सोचने लगता है। अचानक चौंक जाता है।)
मुहम्मद ख़ां : कोई है, (नौकर आता है)
मुहम्मद ख़ां : मुन्नी बाई से कहो हम मुन्तज़िर हैं।
(नौकर चला जाता है।
मुहम्मद ख़ां गावतकिये से टेक लगाए बैठा है। मुन्नी बाई आती है। मुहम्मद ख़ां को झुककर सलाम करती है।)
मुहम्मद ख़ां : कैसी हो मुन्नी बाई?
मुन्नी बाई : बस ज़िंदा हूं हुजू़र।
मुहम्मद ख़ां : कोई तकलीफ़?
मुन्नी बाई : हुजू़र, फ़न के क़द्रदां ही न रहेंगें तो फ़नकारों की ज़िंदगी क्यों न मोहाल हो। खुदा ग़ारत करे इन फ़िरंगियों को, न तो कमबख़्तों को मौसीक़ी से लगाव है और न रक़्स से दिलचस्पी। पैसे के यार हैं। अब तो महफ़िलें कहां कि दाद अलग मिले और पैसा अलग।
मुहम्मद ख़ां : (मुस्कुराकर) ठीक कहती हो मुन्नी बाई। करें भी तो क्या... कुछ सुनाओ मुन्नी बाई।
मुन्नी बाई : गाती है।
हुजू़र शाह में, अहले सुखन की आज़माइश है
चमन में, खुदा नवायाने चमन की आज़माइश है
रगो मै में जब उतरे ज़हरे ग़म तब देखिए क्या हो
अभी तो तल्ख़िये कामोदहन की आज़माइश है
वो आयेंगे मेरे घर, वादा कैसा, देखना ग़ालिब
नये फ़ितनों में अब चर्खे कोहन की आज़माइश है।
मुहम्मद ख़ां : वाह वाह, गाना नहीं गाती हो, जादू करती हो मुन्नी बाई। हुस्न और आवाज़ के साथ अक़्ल का ऐसा नायाब संगम मेरी नज़र से तो नहीं गुज़रा।
(मुन्नी बाई कई बार मुहम्मद ख़ां को सलाम करती है।)
मुन्नी बाई : (नवाब के पास जाते हुए) हुज़ूर की ख़िदमत में एक तोह्फ़ा पेश कर सकती हूं।
(अपने दुपट्टे से लाल कमल का फूल निकालकर नवाब के सामने रख देती है। मुहम्मद ख़ां हैरत से कभी कमल के फूल और कभी मुन्नी बाई को देखता है-)
मुहम्मद : तो तुम भी...
मुन्नी बाई : यह आग हर दिल में भड़क रही है हुज़ूर। (धीरे से कहती है) बिठूर से आयी हूं सरकार।
मुहम्मद ख़ां : हां मुल्ला अमानत से हमने कहा था कि वक़्त चाहिए, इस दौरान मसले पर हमने काफ़ी संदीजगी से ग़ौर किया है और तय किया है कि हम नाना साहब का साथ देंगे।
मुन्नी बाई : शुक्र है परवरदिगार, तेरा हज़ार-हज़ार शुक्र है। (ठहरकर) हुजूर आप अपना फ़ैसला लिख दें ताकि मैं महाराज को इतमिनान दिला सकूं।
(मुहम्मद ख़ां क़लम और काग़ज़ उठाकर दो-चार लाइनें लिखता है और फिर मुन्नी बाई से।)
मुहम्मद ख़ां : लिखा है- जनाबे आली मर्तबा, बंदानवाज़ हुजूर महाराज नाना साहब पेशवा बहादुर की ख़िदमत में आदाबो- तस्लीमात के बाद अर्ज़ है कि हमने फ़िरंगियों के ख़िलाफ़ आपका साथ देने का फैसला कर लिया है। हम आपका साथ देने की क़सम खाते हैं। इंशाअलह फ़तेह हमारी होगी।
मुन्नी बाई : आमीन।
मुहम्मद ख़ां : अब तो महाराज को यक़ीन आ जाएगी?
मुन्नी बाई : बेशक, बेशक।
मुहम्म्द ख़ां : मुल्ल अमानत से मिलने के बाद हम ग़ाफ़िल नहीं रहे। मैंने हिकमतउल्ला से बात की है। हिकमतउल्ला के दिल में फ़िरंगियों के ख़िलाफ़ बड़ी नफ़रत है। हमने राजा अरगल और राजा असोवर के पास अपने खास आदमी रवाना किये हैं। खागा से ऐसे लोगों का एक हल्क़ा बन गया है जो पूरे तौर पर हमारा साथ देंगे। कोड़े में मेरे ख़ास लोग अपना काम कर चुके हैं। शहर के रईसों में से ज़्यादातर हमारे साथ हैं।
(धीरे-धीरे प्रकाश चला जाता है।)
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दृश्य : पांच
(मुहम्मद ख़ां के क़िले का वही कक्ष जहां पिछले दृश्य हुए हैं। मुहम्मद ख़ां के सामने मिर्ज़ा तरहदार और नामदार हुसैन बैठे हैं। मुहम्मद ख़ां के चहेरे पर चिंता की गहरी लकीरें हैं।)
मुहम्मद ख़ां : खुदा जाने मुल्ल अमानत अब तक यहां क्यों नहीं आए... अकबर अली ने उन्हें हर जगह तलाश कराया लेकिन कुछ पता ही नहीं चला।
नामदार हुसैन : हुजूर सुना है वो तो मौलाना लियाक़त अली के साथ इलाहाबाद में हैं।
मुहम्मद ख़ाःं देखो किसी हरकारे को फ़ौरन वहां रवारा कर दो... और हमारी तरफ़ से एक ख़त मौलाना लियाक़त अली को तहरीर करो जिसमें उन्हें इलाहाबाद से फ़िरंगियों को निकाल भगाने पर मुबारकबाद दो... हरकारे को ये भी ताकीद करो कि मुल्ला अमानत को किसी भी तरह हमारा पैग़ाम दे दे।
नामदार हुसैन : जी हुजूर।
(उठकर बाहर निकल जाता है। अकबर अली का प्रवेश।)
अकबर अली : हुजूर आदाब बजा लाता हूं।
(मुहम्मद ख़ां सिर हिलाकर उसे जवाब देता है। हुक़्क़े का एक लंबा कश लेकर।)
मुहम्मद ख़ां : क्या ख़बरेें हैं अकबर अली?
अकबर अली : हुजूर इलाहबाद का किला अब तक फ़िरंगियों ही के क़ब्ज़े में है, लेकिन पूरा शहर मौलाना लियाक़त के हाथ में है। क़िले का मुहासिरा कर लिया गया है लेकिन क़िले की बड़ी तोपें फ़ौज को नज़दीक नहीं आने दे रही हैं।
मुहम्मद ख़ां : ख़ैर, गोला बारूद कितने अर्से चलगा... कानपुर की क्या ख़बरें...
अकबर अली : फ़िरंगियों के क़त्लेआम के बाद शहर नाना साहब पेशवा के हाथ में आ गया है। तात्यां टोपे साहब फ़ौज के जरनैल बनाये गए हैं। बड़े पैमाने पर फ़ौजी तैयारियां हो रही हैं... नन्हें नवाब शहर के दरोग़ा बनाये गए हैं...
मुहम्मद ख़ां : हूं, और लखनऊ में...
अकबर अली : नवाब बिरजीस क़द्र को तख़्तनशीन किया जा चुका है... अतराफ़ से क़रीब एक लाश की फ़ौज लखनऊ में इकट्ठी हो गयी है... बेलीगादर पर ज़बरदस्त गोलाबारी जारी है।
मुहम्मद ख़ां : अपने ज़िले के फ़िरंगी अफ़सरों की क्या ख़बरें हैं?
अकबर अली : सख़्त घबराये हुए हैं हुजूर... आज ही कुछ सिपाहियों के हथियार रख्वा लिए गए और उन्हें छुट्टी दे दी गयी।
मुहम्मद ख़ां : (ठहाका लगाकर) उससे क्या होगा... अब न कहीं से कुमुक आ सकती है और न वो कहीं भाग सकते हैं... पिंजड़े में पंछी...
अकबर अली : सुना है नवाब बंदा फ़िरंगियों को साथ दे रहे हैं।
मुहम्मद ख़ां : नहीं, ये ग़लत है... वो हमारे साथ हैं. हमें सबसे बड़ी फ़िक्र मुल्ल अमानत की है...
अकबर अली : हुजूर, वो आज सुबह ही इलाहाबाद से तशरीफ़ ले आए हैं (राज़दारी से) उनके साथ कुछ सिपाही भी आए हैं, सरकार जो शहर के बाहर वाले गांवों में ठहर गए हैं। मुल्ला अमानत हुजूर से मिलने आने वाले ही होंगे।
मुहम्मद ख़ां : अच्छी ख़बर सुनाई तुमने... लोहा पूरी तरह गरम है... इस वक़्त भी उस पर चोट न की गयी तो सारी मेहनत बेकार चली जाएगी।
अकबर अली : हर गांव में हथियार तेज़ किये जा रहे हैं सरकार... सुना है बड़ी तादाद में लोग फ़िरंगियों की कोठियों को घेर लेंगे और जंग शुरू हो जाएगी।
मुहम्मद ख़ां : जंग क्या शुरू होगी... गिनती के पांव फ़िरंगी हैं शहर में... उनमें इतनी हिम्मत कहां कि जंग करें... ज़रूर भाग निकलने की कोशिश करेंगे... हमें हैरत ये है कि वो अब तक यहां ठहरे हुए हैं... क्या कानपुर का वाक़या उनकी आंखें खोल देने के लिए काफ़ी नहीं है?
(मुल्ला अमानत अंदर आते हैं।)
मुहम्मद ख़ां : (उत्साहित) आइए-आइए मुल्ला अमानत तशरीफ़ लाइए... (मुहम्मद ख़ां उठकर खड़ा हो जाता है और मुल्ल अमानत के गले मिलता है)- मुबारक हो भाई मुबारक हो... पूरा मुल्क फ़िरंगियों के पंजे से आज़ाद हो चुका है।
(मुल्ला अमानत बहुत थका और और जागा हुआ लग रहा है लेकिन उसके चहरे पर उत्साह है।)
मुल्ला अमानत : जी हां, खुदा के फ़ज़ल से पूरा मुल्क हमारे क़ब्ज़े में है... लेकिन नवाब साहब ये शहर कब तक फ़िरंगियों के क़ब्ज़े में रहेगा?
मुहम्मद ख़ां : वल्लाह हमें तो आप ही का इंतज़ार था वरना अब तक यहां भी...
मुल्ला अमानत : मुझे नाना पेशवा ने इसी काम के लिए यहां भेजा है, अब जल्दी से जल्दी कचहरी, जेल, फ़िरंगी की कोठियों पर हमारा क़ब्ज़ा हो जाना चाहिए।
मुहम्मद ख़ां : हम पूरी तरह तैयार हैं... पूरे इलाक़े में हमारे आदमी फैले हुए हैं...
मिर्ज़ा तरहदार : हुजूर के एक इशारे पर जांनिसार हाज़िर हो जायेंगे।
मुहम्मद ख़ां : आप बिल्कुल फ़िक्र न करें... सब कुछ हमारे ऊपर छोड़ दीजिए... इंशाअल्लाह सब हो जाएगा... और हां, महाराजा नाना साहब पेशवा को हमने अपना फैसला कि हम उनके साथ हैं लिखकर भेज दिया था।
मुल्ल अमानत : लेकिन आपकी कोई तहरीर वहां नहीं पहुंची।
मुहम्मद ख़ां : नहीं, ये कैसे हो सकता है मुल्ला अमानत... हमने खुद मुन्नी बाई के हाथ में ख़त दिया था।
मुल्ला अमानत : (चौंककर) मुन्नी बाई के... क्यों?
मुहम्मद ख़ां : उसने ज़ाहिर किया था कि उसे नाना साहब पेशवा ने हमारे पास भेजा है।
मुल्ला अमानत : ग़ज़ब हो गया है नवाब साहब मुन्नी बाई ने आपको धोखा दिया है वह तो फ़िरंगियों को ख़बरें पहुंचाने का काम करती है...
मुहम्मद ख़ां : (चिंतित होकर) लेकिन...
मुल्ला अमानत : मेरी बात का यक़ीन कीजिए नवाब साहब, मुन्नी बाई फ़िरंगियों की मुिख़्बर है। आपका वो ख़त अब तक फ़िरंगियों के हाथों में पहुंच चुका होगा।
मुहम्मद ख़ां : खै़र अब उससे फ़र्क़ भी क्या पड़ता है... अफ़सोस सिर्फ़ इसका है कि महाराजा नाना साहब पेशवा को अब तक ये पता नहीं है कि हम उनके साथ हैं।
मुल्ला अमानत : आप इसकी फ़िक्र न करें हुजूर, मैं जल्दी से जल्दी ये ख़बर उन तक पहुंचा दूंगा...
मुहम्मद ख़ां : (आहिस्ता से) हां ये ज़रूरी है। (कुछ ठहरकर) हमारी तरफ़ से तैयारी में कोई कसर नहीं है। पूरे इलाक़े की पंचायत को हमारा फैसला सुना दिया गया है कि इन कम्बख़्त फ़िरंगियों को जहन्नुम वासिल कर दिया जाए। हमारे कारिंदों के सामने इलाक़े के लोगों ने गंगाजल की क़सम खाई है कि मरते दम तक हमारा साथ दें। पंचायतों के सरपंचों को हमने अपने पास भी बुलाया था। उन्होंने हमारे सामने गंगाजल उठाया है। वह कुछ ही घंटे में शहर को अपने क़ब्ज़े में ले लेंगे। न तो यहां फ़िरंगी फ़ौजी है और न उनके पास असलहा है। हमें तो पक्का यक़ीन है कि एक-दो दिन में फ़िरंगी किसी न किसी सूरत से निकल भागने की कोशिश करेंगे... वो भी अब उनके लिए आसान नहीं है। घाटों पर हमने आदमी तैनात कर दिए हैं। जिधर भी वो नापाक लाल बंदर जायेंगे उनका सफ़ाया कर दिया जाएगा और इंशाअल्लाह शहर हमारे क़ब्ज़े में होगा।
मुल्ला अमानत : आमीन।
सब लोग : आमीन।
(प्रकाश धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है।)
दृश्य : छह
(मंच पर सूत्रधार डुग्गी पीट-पीटकर ऐलान कर रहा है। पीछे से लोगों के दौड़ने, घोड़ों की टापों और शोर की आवाज़ें आ रही हैं।)
ढिंढोरची : सुनो, शहंशाहे हिंद बहादुरशाह ‘ज़फ़र' का ऐलान (डुग्गी) हिन्दुस्तान के हिंदुओं और मुसलमानों उठो। (डुग्गी) भाइयो उठो। खुदा ने जितनी बरकतें इंसान को अता की हैं, उनमें सबसे क़ीमती बरकत आज़ादी है। (डुग्गी) क्या वह ज़ालिम जिसने धोखा देकर यह बरकत हमसे छीन ली है, हमेशा के लिए हमें उससे महरूम रख सकेगा? (डुग्गी) क्या खुदा की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ इस तरह का काम हमेशा जारी रह सकता है? नहीं, नहीं। (डुग्गी) हमारी इस फ़ौज में छोटे और बड़े की तमीज़ भुला दी जाएगी और सबके साथ बराबरी का बर्ताव किया जाएगा। हमारी फ़ौज में सब भाई-भाई हैं उनमें छोटे-बड़े का कोई फ़र्क नहीं है। (डुग्गी) इसलिए मैं फिर अपने तमाम भाइयों से कहता हूं, उठो और खुदा के बताए हुए फ़र्ज़ को पूरा करने के लिए मैदाने जंग में कूद पड़ो। (डुग्गी)
दृश्य : सात
(मुहम्मद ख़ां के क़िले का वही कक्ष, जिसमें पिछले दृश्य हुए हैं, मुहम्मद ख़ां ठीक उसी तरह गावतकिए का सहारा लिए बैठा हुक्का पी रहा है। मिर्ज़ा तरहदार, नामदार हुसैन और अकबर अली अपनी-अपनी जगहों पर बैठे हुए हैं। सामने बीस-पच्चीस किसान हाथ बांधे और सिर झुकाये खड़े हैं। पूरी ख़ामोशी है। सिर्फ़ हुक़्क़े की गुड़गुड़ाहट सुनाई दे रही है। मुहम्मद ख़ां एक लम्बा-सा कश लेकर धुआं छोड़ता है और ठहर-ठहर कर प्रभावशाली और नाटकीय ढंग से बोलता है।)
मुहम्मद ख़ां : हमारा और तुम लोगों का साथ कोई दो-चार साल का साथ नहीं है। हमने तुम्हारे दुख दर्द में साथ दिया है। हमने लगान माफ़ियां की हैं, हमने अच्छे-बुरे में तुम लोगों का साथ दिया है। तुम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि हमने तुम लोगों को अपने बच्चों की तरह पाला है।
एक ग्रामीण : हां सरकार, माई-बाप ठीक कहते हैं।
मुहम्मद ख़ां : हमें मालूम है कि कम्पनी के राज में तुम लोगों की ज़िंदगी कितनी दुश्वार हो गयी है... और अफ़सोस ये कि तुम लोगों को हम ही मजबूर करते रहे कि नयी दरों पर लगान दो... क्योंकि हम भी मजबूर थे... फ़िरंगी अगर हमारे ऊपर दबाव नहीं डालते तो काम उसी पुराने डर्रे पर चलता रहता लेकिन इन कम्बख़्तों ने हमारी और तुम्हारी ज़िंदगी दुश्वार बना दी।
ग्रामीण-2 : लगान दिए-दिए कमर टूट गयी मालिक।
मुहम्मद ख़ां : (अनसुनी करता हुआ) गाय और सुअर की चर्बियों वाले कारतूस क्यों दिए जा रहे हैं? इसी लिए कि धर्म ईमान सब ख़त्म हो जाए... ये पादरी रात के अंधेरे में गांव के कुओं में गाय और सुअर की हडि्डयां डाल देते हैं और इनकी शिकायत पर पलटन भी भेज दी जाती है।
ग्रामीण-3 : आधा गांव उजड़ गया सरकार... अकाल तो हर साल पड़ने लगा है।
मुहम्मद ख़ां : देखो अगर अपना धरम, इज़्जत और जान प्यारी हो तो अब लड़ाई के मैदान में कूद पड़ो। हम तुम्हारे साथ हैं।
ग्रीमीण-4 : मालिक आप साथ हैं तो हम पंचन को डर काहे का?
मुहम्मद ख़ां : ये फ़िरंगी हैं किस खेत की मूली? इन्हें इस मुल्क पर हुकूमत करने का क्या हक़ है। ये मुल्क हमारा है। यहां की सरज़मीन में हमारे पुरखों की हडि्डयां दफ़न हैं। हमने यहां की धरती को अपने खून से सींचा है लेकिन आज हमारी क्या हालत हो गयी है?
ग्रीमीण-4 : (करूण आवाज़ में) सरकार, ढोर डांगर की तरह हम पंचन को तो अपने लड़के-लड़की बेचने पड़े हैं माई-बाप... सरकार पीठ की मार सह लेते पर पेट की मार नहीं सही जाती।
मुहम्मद ख़ां : हम अच्छी तरह समझते हैं और इसीलिए इस वक़्त ख़ड़े हो गए हैं। आज अगर हमारी उंगली कटती है तो तुम्हारी गर्दन कट जाएगी... ये तमाशा देखने का वक़्त नहीं है।
ग्रामीण-5 : आप जो कहें वही किया जाय मालिक।
मुहम्मद ख़ां : चारों तरफ़ फ़िरंगियों की हुकूमत ख़त्म हो गयी है। लेकिन अफ़सोस की बात है कि इस ज़िले में पांच गोरे अब भी दनदनाते फिरते हैं... क्या हम चूड़ियां पहन कर घरों में घुस कर बैठ गए हैं? क्या हमारा खून सफ़ेद हो गया है... पूरे इलाक़े की पंचायत बुलाओ... सबको हमारा फ़ैसला सुना दो... हमारे आदमी जब भी तुमसे कहें, चाारों तरफ़ से आगे बढ़ो और सबसे पहले ख़ज़ाने और तहसील पर क़ब्ज़ा कर लो... फ़िरंगी कोठियों को घेर लो... अगर वो भागने की कोशिश करें तो उन्हें पकड़ कर हमारे सामने हाज़िर करो... हर उस आदमी को बड़ा इनाम दिया जाएगा जो बहादुरी दिखायेगा...
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दृश्य : आठ
(मुहम्मद ख़ां के क़िले का वही कक्ष। उसमें वह उसी तरह बैठा है। सामने शतरंज बिछी हुई है। पीेछे से घोड़ों के दौड़ने, लोगों के चलने, गोलियां चलने और शोर की आवाज़ें आ रही हैं। सामने मिर्ज़ा तरहदार बैठे हैं। मुंशी नामदार हुसैन अपनी जगह पर बैठे हैं।)
मुहम्मद ख़ां : एक शतरंज यहां खेली जा रही है और दूसरी बाहर-दोनों बाज़ियां हम ही जीतेंगे मिर्ज़ा तरहदार।
(कह कर चाल चलता है।)
मिर्ज़ा तरहदार : बेशक हुज़ूर!
(एक ग्रामीण-जोधासिंह अंदर आता है। वह मुहम्मद ख़ां को सलाम करता है।)
मुहम्मद ख़ां : क्या ख़बरद है जोधा सिंह?
जोधा सिंह : सरकार, जेल के सिपाही भी हमारे साथ हो गए हैं। जेल के फाटक तोड़ दिये हैं। सब क़ैदी निकाल दिये हैं- वो भी हम पांचों के साथ आ गये हैं।
मुहम्मद ख़ां : अब कचहरी और ख़ज़ाने की तरफ़ अपने आदमी ले जाओ और उससे पहले फ़िरंगी कोठियों पर नज़र रखो- जाओ जल्दी करो।
(जोधा सिंह चला जाता है।)
मुहम्मद ख़ां : (शतरंज की चाल चलता हुआ) आपने जंग में हिस्सा नहीं लिया मिर्ज़ा तरहदार।
मिर्ज़ा तरहदार : हुजूर, वैसे तो बंदा ख़ानदानी सिपाही है। बंदे के परदादा जान आलमगीर की फ़ौज में रिसालेदार थे, लेकिन नाचीज़ को लड़ाई-झगड़े से अजीब-सी दहशत होती है...
मुहम्मद ख़ां : (हंस कर) चलिए चाल चलिए।
(मिर्ज़ा तरहदार चाल चलते हैं।)
मिर्ज़ा तरहदार : हुजूर सुना है, जंग और शतरंज में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है।
मुहम्मद ख़ां : फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है, शतरंज में एक मोहरे के पिट जाने पर आपको मलाल होता है और जंग में एक मोहरे के पिट जाने से गर्दन कट जाती है।
(मिर्ज़ा तरहदार अपनी गर्दन टटोलते हैं। बाहर से लोगों के भागने, घोड़ों के दौड़ने, चीख़ने, एक-आध गोलियां चलने की आवाज़ें, हथियारों की झंकारें लगातार आती रहती हैं।)
मुहम्मद ख़ां : लेकिन आपकी गर्दन सलामत रहेगी। दुश्मन का पहले ही सफ़ाया हो चुका है...
(जोधा सिंह फिर आता है।)
मुहम्मद ख़ां : कहो क्या हुआ?
जोधा सिंह : मालिक कचहरी के ऊपर जो जने गए थे, अंदर घुस गए, वहां से काग़ज़-पत्तर निकाल कर जला दिए। गोरे साहब लोग भा गए हैं...
मुहम्मद ख़ां : (तेबरी चढ़ा कर) ये कैसे, कब?
जोधा सिंह : कल रात में हुजू़र... बस एक गोरे साहब नहीं भागे।
मुहम्मद ख़ां : अच्छा! ये तो बड़ी मज़ेदार बात है। कौन नहीं भागा?
जोधा सिंह : वो जो जज साहेब हैं सरकार!
मुहम्मद ख़ां : अच्छा, मिस्टर टकर।
(जयपाल अंदर आता है।)
जयपाल : (हांफते हुए) सरकार, जज साहिब अपनी कोठी की छत मा चढ़ गए हैं... वहां से दनादन गोली चला रहे हैं... अकेले हैं सरकार...
मुहम्मद ख़ां : और दूसरी कोठियां?
जयपाल : उधर तो लूट मच गयी सरकार... सब सामान लूट लिहिन।
मुहम्मद ख़ां : टकर साहब की कोठी में आग लगा दो- बददिमाग़ गोरा वहीं जहन्नुम वासिल हो जाएगा। जाओ जल्दी करो।
(जोधा सिंह और जयपाल बाहर निकल जाते हैं।)
मिर्ज़ा तरहदारः सरकार मिस्टर टकर...
मुहम्मद ख़ां : ज़िद्दी और बददिमाग़ आदमी का यही हश्र होता है- हालात की नज़ाकत को न समझने का इनाम कभी-कभी मौत की शक्ल में भी मिलती है...
(बाहर से आने वाला शोर बढ़ जाता है, मिर्ज़ा तरहदार चाल चलते हैं।)
मुहम्मद ख़ां : ये देखिए, अपनी चाल की गिरफ़्त में आप खुद ही आ गए। ये गया आपका वज़ीर...
मिर्ज़ा तरहदार : कलेजा टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता है सरकार।
मुहम्मद ख़ां : चाल चलिए।
(मिर्ज़ा तरहदार चाल चलते हैं।)
मुहम्मद ख़ां : और ये गया आपका बादशाह।
(बाहर दूर से घोड़े की टापों की आवाज़ें पास आती हैं। मुंशी नामदार हुसैन अंदर आकर कहते हैं।)
नामदार हुसैन : हुजूर मुल्ला अमानत तशरीफ़ लाए हैं।
मुहम्मद ख़ां : (मिर्ज़ा तरहदार से) शतरंज समेटिये... (नामदार हुसैन से) उन्हें यहां ले आओ...
(नामदार हुसैन जाते हैं मिर्ज़ा तरहदार शतरंज समेटने लगते हैं। मुल्ला अमानत अंदर आते हैं।)
मुल्ला अमानत : आदाब बजा लाता हूं नवाब साहब।
मुहम्मद ख़ां : (उठकर गले मिलते हैं) मुबारक हो मुल्ला अमानत... अब हम आज़ाद हैं।
मुल्ला अमानत : अल्हम्दोलिल्लाह... जी हां नवाब साहब अब हम आज़ाद हैं... (ठहरकर) टकर का आख़िरी अंजाम मैंने आंखों से देखा... कुत्त्ो की मौत मर गया कम्बख़्त...
(दोनों ज़ोर से हंसते हैं। मुल्ला अमानत थाका हुआ लग रहा है।)
मुल्ला अमानत : अब मुझे इजाज़त दीजिए नवाब साहब... मेरा इलाहाबाद पहुंचना बहुत ज़रूरी है- पता नहीं क़िला हम लोगों के क़ब्ज़े में आया या नहीं- अब ये ज़िला आपके हवाले है- ज़िंदगी रही तो फिर मुलाक़ात होगी।
मुहम्मद ख़ां : इंशा अल्लाह!
(प्रकाश धीरे-धीरे चला जाता है।)
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दृश्य : नौ
(फ़िरंगियों की हुकूमत ख़त्म हो जाने के बाद इलाक़े के लोग स्वयं अदालत चलाते हैं। फ़िरंगियों की अदालत में सूरजपाल मुक़दमेे का फैसला सुनाने आता है। अदालत की सारी औपचारिकताएं समाप्त हो जाती हैं। पंचायती ढंग से अदालत चलती है। लेकिन अदालत की साज-सज्जा अंगे्रज़ी ढग की है। सूरजपाल अपने रोज़मर्रा के कपड़े पहने अन्दर आता है। अदालत का अर्दली जो अपनी वर्दी पहने हैं, उसे झुककर सलाम करता है। सूरजपाल जज की मेज़ के सामने बड़ी सीढ़ियों पर बैठ जाता है।)
अर्दली : हुजूर ऊपर बैठें ऊपर। सरकार जज की वही कुर्सी है।
सूरजपाल : अरे कुरसी में बैठने से दिमाग़ बढ़ जाई का?
(बाहर से आवाज़ सुनाई देती है- ‘हज़ारा बेगम बनाम चुन्नी हाज़िर हों।'
बायीं ओर से क़रीब 70 साल बूढ़ी हाजरा बेगम आती है। कमर झुक गयी है। सारे बाल पके हैं और अन्दर आकर जज को देखती है। उसके पीछे-पीछे लोग और बच्चे आकर इधर-उधर बैठ जाते हैं।)
सूरजपाल : (खड़ा होकर) चाची सलाम।
हाजरा बेगम : अरे लाला का बताऊं, यह तो सब को मालूम है लाला कि हमार ज़ेवर चुन्नी लाल चुराइस ही। पर बेटा पुलिस वालन की बुद्धि का... (वकील आता है)
वकील : (जज से) हुजूर से दरख़्वास्त है कि मुद्दई हाजरा बेगम अपना बयान दे चुकी है। ओ अदालत के काग़ज़ों में दर्ज है। इसलिए अब...
सूरजपाल : (वकील से) वकील साहेब तुम अपन काम करो। चाची से हमार भेंट हौने तीन महीना बाद भई है। तनी बतिया ले देव। तनी तमाखू निकाल चाची।
(हाजरा बेगम उसे अपना बटुवा खोलकर सुपारी खिलाती है वकील हैरत से सब कुछ देखता जाता है।)
हाजरा बेगम : तुमको तो मालूम है लल्ला कि तुमरे चचा मरते समय छह सौ रूपया छोड़िन रहे। यह बात पूरा गांव जानता है। सबका मालूम है कि वह समे हमरे पास एक-दो गुलूबंद और करधनी रहे। हम चूल्हे के नीचे गाड़ दिया रहे। चिन्तान रहे, सोचा को लै जाई, केका मालूम है। पर लल्ला हुवा ऐसा कि एक दिन चुन्नी लाल से हम कहा कि पूत एक डब्बा मिट्टी ला देव, चूल्ह, ठीक करेका है। चुन्नी लाल मिट्टी ले आवा। कहिस चाची रसोई मा डाल देई। हम कहा नहीं बच्चा आंगन मा डालो। पर लाला व कहिस के आंगन में डाले से अच्छा है रसोई मा रखा लेव। पर हमें चुन्नी लाल का रसोई न जाए दिया। वही दिन से वह समझ गवा और पता नहीं का सोचिस कि घर में घुस के ससुर सब निकाल लिहिस।
वकील : (हाजरा बेगम से) क़ानून इन बातों की कोई अहमियत नहीं है जो आप हुजूर जज साहब को बता रही हैं। पहली बात ये कि आप अपना बयान दे चुकी हैं। दूसरी बात ये कि क़ानून गवाह मांगता है। आप कोई ऐसा गवाह नहीं दे सकी हैं जो ये कहे कि उसने चुन्नी लाल को आपका चूल्हा खोदकर ज़ेवर निकालते देखा है।
हाजरा बेगम : तो अब तुम ही बताओ वकील साहब अगर कोनो चुन्नी लाल को निकालत देख लेत हो तो रूपया ज़ेवर छोड़ के भाग न खड़ा होत।
वकील : अगर ऐसा है तो इसका साफ़ मतलब ये है कि चुन्ी लाल ने चोरी नहीं की है।
हाजरा बेगम : फिर को किहिन?
वकील : मुझे नहीं मालूम।
हाजरा बेगम : तुम कहित दियो हमका नहीं मालूम। गोरा जज कहिस ओका नहीं मालूम। पुलिस कहिस ओका नहीं मालूम। सब बात ठीक पर जब हम कहा कि हमका मालूम है कि चोरी को किहिस है तो तुम कहत हो वो नहीं किहिस।
वकील : इस जहालत का मेरे पास क्या जवाब है? (जज से) हुजूर मुक़दमे की कार्रवाई शुरू की जाए।
सूरजपाल : तुम्हीं हो शुरू करो वकील साहेब हमका का मालूम।
वकील : हूजूर पुलिस में लिखवाई गयी मुद्दई मुसम्मात हाजरा बेगम की रिपोट। के मुताबिक़ पन्द्रह फ़रवरी की रात साढ़े तीन बजे किसी ने उनके ज़ेवर चुरा लिए। मुसम्मतात हाजरा बेगम एक भी गवाह ऐसा पेश नहीं कर सकी हैं कि जिसके बयान से चोरी की वारदात पर रोशनी पड़ कसे। इन्होंने अपना शक चुन्नी लाल पर ज़ाहिर किया है लेकिन शक की बिना पर अदालत किसी को मुजरित तो नहीं क़रार दे सकती। इसलिए चुन्नी लाल को बाइज़्ज़त रिहा कर दिया जाना चाहिए।
सूरजपाल : वकील साहेब तुम ठीक कहते हो पर चुन्नी लाल को छोड़ें से असली चोर न मिल जाई और हमार काम व समय तब तक पूरा न होई जब तक असली चोर न मिल जाए।
वकील : हुज़ूर, अदालत का ये काम नहीं है कि वो असली चोर की तलाश करे। ये काम पुलिस का है और...
सूरजपाल : चुन्नी लाल का बुलाव।
(चुन्नी लाल दर्शकों की भीड़ में बैठा है, खड़ा हो जाता है।)
सूरजपाल : (चुन्नी लाल से) कस हो चुन्नी लाल, तुम चोरी नहीं किया तो तुमरे पास रूपया कहां से फटा पड़त है।
चुन्नी लाल : धरम इमान की क़सम लै लेव चच्चा हम नहीं चोरी किया।
सूरजपाल : कौनो बीस दिन हुए हम तुमका बाज़ार में देखा रहमत अली की दुकान से रेसम का कुर्ता ख़रीद रहे हो। कहां से मिला छप्पर फाड़ के पैसा?
चुन्नी लाल : क़सम से चच्चा, हम नहीं लिया रेसम का कुर्ता।
सूरजपाल : बुलाय के पूछी रहमत अली से?
वकील : हुजूर, चुन्नी लाल का बयान और जिरह हो चुकी है जो आपके सामने रखे काग़ज़ों में दर्ज है।
सूरजपाल : काग़ज़ ठीक बताई कि आदमी। तुम तनी चुपे रहो वकील साहिब।
चुन्नी लाल : चच्चा जौन रात चोरी भई व दिन तो हम यहां न रहत।
सूरजपाल : कहां गए थे?
चुन्नी लाल : मिटौरा गए रहन।
सूरजपाल : मिटौरा से तो आजेन का मुरारी लाल सराफ आया है।
(मुक़दमे की कार्यवाही सुनते एक लड़के से।)
जा बेटा बाज़ार से मुरारी लाल सराफ़ को बुला ला।
वकील : लेकिन मुरारी सर्राफ़ा का नाम तो गवाहों में नहीं है हुजूर।
सूरजपाल : नाम होय न होय से का होता है वकील साहब। बात तो मालूम हुई जाई।
(मुरारी लाल सर्रा आता है।)
सर्राफ : राम राम काका।
सूरजपाल : राम राम मुरारी लाला। ये बताओ कि चुन्नी लाल दुई-चार महीने में मिटौरा गया रहे का।
मुरारी लाल : नहीं, ये ससुर इटौरा-मिटौरा नहीं गवा।
(सर्राफ़ अदालत के एक कोने में बैठकर बीड़ी सुलगा लेता है।)
सूरजपाल : कहो चुन्नी लाल?
वकील : ये तो क़ानून ग़लत है।
सूरजपाल : तुम थोड़ा धीरज रखो वकील साहेब। (छोटे लड़के से) जाव बेटा चुन्नी लाल के मोहल्ले से छिद्दू, खै़राती, बफ़ाती, रामलाल, दात दीन, लंगडू और मुन्ना अहीर को बुला लाव। इन सबेन के घर चुन्नी के घर के पास हैं। जाओ बेटा, कह दियो कि हम बुलाइन हैं। ज़रूरी काम है चले चलो। कह दियो कि बस ये समझ लेव कि छप्पर उठावे का है। (लड़का सरपट भाग जाता है) अब बेटा दाई से पेट छिपाओ।
चुन्नी लाल : काका रहम करो हमारे ऊपर।
सूरजपाल : अभी रहम हुई जाई। तनी ग़म खाओ।
वकील : (सूरजपाल से) योर आनर, मैं आपकी इस कार्रवाई पर सख़्त एतराज़ करता हूं।
सूरजपाल : (वकील से) तनी ग़म खाओ साहेब। सही बात न पता चल जाए तो तुम हमका तोप से उड़ा दियो।
(छिद्दू, ख़ैराती, बफाती, रामलाल, दातादीन लंगडू और मन्ना अहीर आते हैं। सब सूरजपाल से राम-राम कुछ सलाम करते हैं।)
छिद्दू : (चुन्नी लाल से) कहो बच्चा आज फंस गयो न, हम न कहा रहे कि एक दिन पाप का घड़ा फूटी।
दातादीन : मज़ा भी तो खूब उठाइस, रेसम का कुर्ता, नयी धोती, रोज़ बढ़िया पका गोस्त और दारू; हम्हिन का मिले तो जेल का सुसुर नरक चले जाई।
खराती : (सूरजपाल से) कहो काका कौन-सा छप्पर उठाये का है?
सूरजपाल : अरे ये बुढ़िया हाजरा बेगम का मामलात है बच्चा। सब जने मिल के फैसला करा देव। बुढ़िया का अब न कौनो आगे है न पीछे।
बफाती : चुन्नी लाल से कहो जो रूपया बच गया होय दै दे। मामला करो रफा-दफा। रोज़-रोज़ की तू-तू मैं-मैं से छुट्टी।
रामलाल : इतनी बात तो हमसे सुन लेव कि चुन्नी लाल पिछले दुई-तीन महीना से जबहीं दुमाने समान लेने आवत है तो चांदी का रूपया निकालत है। अब पूछो यही से।
वकील : (बिगड़कर) इस तरह तो आप लोग मिलकर किसी भी आदमी को चोर साबित कर सकते हैं।
हाजरा बेगम : अरे वाह वकील साब, पढ़े-लिखे आदमी हुई के चोर का बचाव की कोशिश करत हो। अब जब सब सामने आ रहा है तो बड़े बिचकत हो।
(सब हंसते हैं)
सूरजपाल : वकील साहेब थोड़ी तो सरम किया चाही। रूपया-पईसा के लिए धमर-ईमान न बेचो।
वकील : अजीब इन्साफ़ है। ऐसा तो कहीं देखा न सुना।
सूरजपाल : इंसाफ़ है भइया। हम पंचे नहीं जानत। (चुन्नी लाल से) अब बोल बच्चा। रूपया कितना उड़ा दीहिस, कितना बचा है?
चुन्नी लाल : चच्चा क़सम लै लेव।
सूरजपाल : क़सम-असम छोड़। ये बता दे कि लातन से मानी कि बातन से। बातन से मान ले लल्ला नहीं तो लात मारे वाले भी यहां कम नहीं।
चुन्नी लाल : चच्चा क़सम लै लेव।
(सूरजपाल अचानक उठकर चुन्नीलाल के कसके थप्पड़ मारता है। वह गिर पउ़ता है। बैठे लोग उठ खड़े होते हैं। कुछ कहते हैं- ‘और मारो साले को जब ही कुबूलेगा।' कुछ कहते हैं- ‘तोड़ देव हड्डी साले की।')
वकील : ये बेइन्साफ़ी है, जज को क़ानून ये हक़ नहीं देता कि मुजरिम के साथ मार-पीट करे।
सूरजपाल : वाह तुम्हार तो सबै हक़ है। हमार कोनों हक नाहीं?
(सूरजपाल चुन्नीलाल को दो-चार हाथ और मारता है तो वह क़बूलता है।)
चुन्नी लाल : चच्चा न मारो।- चोरी हमहीं किया है...
सूरजपाल : आओ वकील साहेब सुनो।
(वकील धीरे-धीरे पीछे खिसकता है। सूरजपाल उसकी ओर आगे बढ़ता है। वकील और पीछे हटता है।)
सूरजपाल : (वकील से) झूठे आदमी का बचावे आय रहो।
(वकील भागता है। सूरजपाल उसके पीछे-पीछे दौड़ता है। लोग भी भागते हैं। ऐसा लगता है जैसे सूरजपाल उसे पकड़ लेगा।)
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दृश्य : दस
(रात का वक़्त है। मुहम्मद ख़ां के क़िले का वही कक्ष जिसमें पिछले दृश्य हुए हैं। मुहम्मद ख़ां बहुत चिंतित और परेशान बैठा है। सामने अपनी-अपनी जगहों पर मुन्शी नामदार, हुसैन अकबर अली और मिर्ज़ा तरहदार बैठे हैं। बड़ी तनावपूर्ण ख़ामोशी है। सब सिर झुकाये हुए हैं।)
मुहम्मद ख़ां : (अकबर अली से) मुझे तफ़सील से बताओ, इलाहाबाद में क्या हुआ।
अकबर अली : हुजूर जरनैल वैवलाक की फ़ौज के सामने मौलाना लियाक़त अली की फ़ौज कुछ देर भी न ठहर सकी.. दो घण्टे में ही फैसला हो गया। मौलाना की फ़ौज इधर-उधर बिखर गई तो जरनैल हैवलाक ने शहर का रूख़ किया... शहर करीब-क़रीब पूरा ही ख़ाली हो गया था लेकिन फिर भी फ़ौज को जो कुछ नज़र आया उसे तबाह और बर्बाद कर दिया... उन्होंने बूढों, बच्चों और औरतों तक को नहीं छोड़ा... जिन लोगों को पकड़ पाये उन्हें फ़ौरन सूली पर चढ़ा दिया... सैकड़ों मकानों में आग लगा दी। खुसरोबाग़ पर अब पूरी तरह गोरों का क़ब्ज़ा है।
मुहम्मद ख़ां : मौलाना लियाक़त कहां गये...?
अकबर अली : हुजू़र, किसी को पता नहीं। कुछ लोग कहते हैं लखनऊ चले गये हैं। कुछ कहते हैं इस तरफ़ आ रहे हैं और महाराजा नाना साहब पेशवा से कुमुक लेकर फिर फिरंगी फ़ौज का सामना करेंगे...।
मुहम्मद ख़ां : मुल्ला अमानत कहां है?
अकबर अली : सरकार, वो भी मौलाना लियाक़त अली के साथ हैं।
मुहम्मद ख़ां : जरनैल वैवलाक के पास कितनी फ़ौज है।
अकबर अली : हुजूर, सही-सही तो पता नहीं चल सका लेकिन तीन-चार हज़ार लोग ज़रूर हैं। तोपखाना भी साथ है। बताते हैं अच्छी मार करने वाली तोपें हैं और...
मुहम्मद ख़ां : महाराजा नाना साहब पेशवा के मौलाना लियाक़त अली की शिकस्त की ख़बर भेज दी गयी?
अकबर अली : जी हां, हरकारे रवाना कर दिये हैं।
मुहम्मद खां : एक ख़त और रवाना करो जिसमें तहरीर करो कि फ़िरंगी फ़ौज से सामना करने के लिए वो खुद आगे बढ़कर आयें- मुझे पूरी उम्मीद है कि हैवलाक इलनाहाबाद से सीधा यहां आयेगा और उसकी मंज़िल कानपूर होते हुए लखनऊ होगी- अगर हैवलाक ने इस शहर को ले लिया तो कानपुर तक का रास्ता उसके लिए खुल जायेगा।
अकबर अली : हुजूर, कहें तो नवाब बिरजीस क़द्र से भी मदद मांगी जाये।
मुहम्मद ख़ां : हां हरकारे रवाना कर दो- महाराजा नाना साहब पेशवा किसी भी क़ीमत पर इस शहर को बचाने की कोशिश करेंगे- हमारे ख़्याल से हेवलाक को यहां तक पहुंचने में चार-पांच दिन तो लग ही जायेंगे- अभी दो-एक दिन तो उसकी फ़ौज आसपास के गांवों मं लूटमार करके रसद वग़ैरा का बंदोबस्त करेगी और तब कहीं जाकर आगे बढ़ पायेंगे- इतना वक़्त कानपुर से फ़ौज आने के लिए काफ़ी होगा...।
मिर्ज़ा तरहदार : (डरकर) अब क्या होगा हुजूर?
मुहम्मद ख़ां : मुझे ये उम्मीद बिल्कुल नहीं थी कि मौलाना लियाक़त अली की फ़ौज हैवलाक को एक दो दिन न रोक सकेगी... अब उसके लिए यहां तक पहुचने का रास्ता साफ़ है... लेकिन हैवलाक की फ़ौज दरिया में एक छोटे-से जज़ीरे की तरह है- चारों तरफ़ से रास्ते बन्द हैं- न तो रसद मिल सकती है और न कुमुक- अगर एक हफ़्ते के लिए भी उसे रोका जा सके तो फ़तेह यक़ीनी है- नाना साहब पेशवा यही करेंगे- वो हैवलाक को इलाहाबाद से निकलते ही जा घेरेंगे- महाराज के पास फिरंगियों की तरबियत-याफ़्ता फ़ौज है।...।
(घोड़े की टापों की आवाज़ क्रमश : पास आती जाती है। मुल्ला अमानत अन्दर आते हैं। उन्हीं के पीछे नामदार हुसैन भी अन्दर आ जाते हैं। मुल्ला अमानत बहुत थके हुए और ज़ख़्मी है। मुहम्मद खां उन्हें देख कर खड़ा होता है।)
मुलला अमानत : आदाब बजा लाता हूं नवाब साहब।
मुहम्मद ख़ां : आदाब अर्ज़ है- आइए बैठिए।
(अपने पास बिठाता है)
मुहम्मद ख़ां : आप तो ज़ख़्मी हैं मुल्ला...।
मुल्ला अमानत : (बात काट कर) जी हां- लेकिन घाव गहरा नहीं है- गहरा घाव तो सीने में लगा है नवाब साहब- फ़िरंगियों ने मासूम बच्चों तक को नहीं छोड़ा इलाहाबाद में- मौत का बाज़ार गर्म कर दिया- लाशों के ढेर लगा दिये- जिसे पाया उसे क़त्ल कर दिया- जैसे जुनून सवार हो गया हो- शहर ही नहीं आसपास के गांवों तक में ऐसी तबाही और बर्बादी मचाई कि मुआज़ अल्लाह- बेगुनाह, मासूम लोगों के सिरों की मीनारें चुनवा दीं, जिन्हें किसी से कुछ लेना देना न था- (आवाज़ बदल जाती है) इलाहाबाद में हमारी शिकस्त हो गई नवाब साहब लेकिन उससे दिल छोटा करने की ज़रूरत नहीं है। अब फ़िरंगियों की तलवार ही उनके सिर पर पड़े़गी- महाराजा नाना साहब के पास फ़िरंगियों की ही फ़ौज है- उनके पास जंग का पूरा साज़ो-सामान है- तोपें हैं- बंदूकें़ हैं- अस्लहा है- मैं अभी इसी वक़्त कानपुर जा रहा हूं- मुझे भी यक़ीन है कि नाना साहब ने अब तक फ़ौज रवाना कर दी होगी और मुझे रास्ते ही में मिल जायेगी।
मुहम्मद ख़ां : मौलाना लियाक़त अली ठाी इधर ही आ रहे हैं?
मुल्ला अमानत : नहीं वो प्रतापगढ़ होते हुए लखनऊ निकल गये हैं- अच्छा अब मुझे इजाज़त दी जाए नवाब साहब...।
मुहम्मद ख़ां : इसी वक़्त आप...।
मुल्ला अमानत : जी हां... ख़ुदा हाफ़िज़।
मुहम्मद ख़ां : ख़ुदा हाफ़िज़।
(मुल्ला अमानत बाहर निकल जाते हैं।)
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दृश्य : ग्यारह
(मुहम्मद ख़ां के क़िले का वही कक्ष जिसमें, पिछले दृश्य हुए हैं। मुहम्मद ख़ां गावतकिये से टेक लगाये बैठा है। सामने मिर्ज़ा तरहदार और मुंशी नामदार हुसैन बैठे हैं। सबके चेहरों पर गहरी चिंता है।)
नामदार हुसैन :महाराजा नाना साहब पेशवा की फ़ौज बड़ी तेज़ी से इलाहाबाद की तरफ़ गयी है हुजू़र- लगता है कहीं बीच में ही मुक़ाबला हो जायेगा।
मुहम्मद ख़ां : हमें भी यही उम्मीद है क्योंकि हैवलाक के अब तक इलाहाद छोड़ दिया होगा और वे भी जितना तेज़ मुमकिन होगा इस तरफ़ बढ़ता चला आ रहाा होगा- लेकिन नाना साहब पेशवा ने ये ठीक नहीं किया कि ज्वाला प्रसाद के हाथ में कमान सौंप दी है- उन्हें चाहिए था कि ऐसे मौक़े पर वो खुद आगे बढ़ते या तात्यां टोपे को भेजते- ज्वाला प्रसाद पर मुझे- ख़ैर अब क्या किया जा सकता है...
मिर्ज़ा तरहदार : हुजूर, मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम है। सुबह से मुंह में एक खील का दाना तक डालने की ख़्वाहिश नहीं हुई...
मुहम्मद ख़ां : जो फ़ौज हैवलाक के मुक़ाबले पर गयी है वो हथियारों से लैस और तरबियत याफ़्ता फ़ौज है- वो किसानों की तरह लाठियों और फ़रसों से लड़ाई जीतने नहीं गये हैं। मुझे यक़ीन है कि फ़तेह हमारी होगी। हैवलॉक की फ़ौज बुरी तरह थकी हुई होगी- हमारी फ़ौज ताज़ादम है...
(धीरे-धीरे प्रकाश केवल मुहम्मद ख़ां पर ही केन्द्रित हो जाता है। मंच के दूसरे हिस्से और लोग अंधेरे में चले जाते हैं। मुहम्मद ख़ां अपने आप से संवाद बोलता है।)
मुहम्मद ख़ां : लेकिन अगर फ़र्ज़ करें कि ज्वाला प्रसाद हार जाता है- तो क्या होगा? इतना भयानक सवाल है कि उसके ऊपर ग़ौर ही नहीं किया जा सकता। फ़िरंगी फ़ौज लूटमार, क़त्ल का बाज़ार ही गर्म नहीं करेगी सबसे पहले हमें तोप से बांध कर उड़ा दिया जायेगा- हमारे पूरे ख़ानदान को सूली पर चढ़ा दिया जायेगा- हमारी दौलत, इज़्ज़त सब ख़ाक में मिल जायेगी- हमारे ख़ानदान का नाम हमेशा के लिए मिट जायेगा।
(पूरे मंच पर प्रकाश वापस आ जाता है।)
मुहम्मद ख़ां : फ़तेह इंशाअल्लाह हमारी होगी।
मिर्ज़ा तरहदार : इंशाअल्लाह। आमीन।
मुहम्मद ख़ां : अकबर अली को अब तक कोई-न-कोई ख़बर लेकर आ जातना चाहिए था। हमने उसे सख़्ती से हिदायत कर दी थी, हमें बाख़बर रखे।
मिर्ज़ा तरहदार : जी हुजूर, तीसरा पहर ढलने को आया। अब तक तो कोई-न-कोई ख़बर आनी चाहिए थी...
(दूर से आती घोड़े की टापों सुनाई देती हैं।)
मुहम्मद ख़ां : (बेचैनी से) देखो, कोई आया है। जल्दी करो...।
(जल्दी से नामदार हुसैन उठकर बाहार जाते हैं। घोड़े की टापों पास आकर रूक जाती हैं। अकबर अली का प्रवेश। वह बहुत घबराया हुआ है और चेहरे पर पसीनाा है।)
अकबर अली : हुजूर, ग़ज़ब हो गया। हमारी फ़ौज हार गयी सरकार...।
मुहम्मद ख़ां : (चीख़कर नाराज़गी से) क्या अकवास कर रहे हो। पांच हज़ार की फ़ौज हार गई। ज्वाला प्रसाद ने क्या किया? मुल्ला अमानत कहां हैं?
अकबर अली : हुजूर, वो इधर आ रहे हैं। फ़ौज टुकड़े-टुकड़े हो गयी, चार ही घंटे में फै़सला हो गया। हैवलाक के पास बड़ी तोपों हैं हुजूर...।
मुहम्मद ख़ां : (बिगड़रकर) सब बकवास है... नाना साहब पेशवा ने मुझे धोखा दिया है। हैवलाक अब एक घड़ी को भी नहीं ठहरेगा... वह सीधा इस शहर को क़ब्ज़े में लेकर दगठग लेगा...।
अकबर अली : सरकार शहर से तीन-चार मील पहले ज्वाला प्रसाद नया मोर्चा लगा रहे हैं।
मुहम्मद ख़ां : मोर्चा नहीं लगा रहे हैं काग़ज़ की दीवार खड़ी कर रहे हैं... (ठकर कर) इम बाज़ी हार चुके हैं...।
(प्रकाश धीरे-धीरे मुहम्मद ख़ां पर केन्द्रित हो जाता है। वह अपने आप से बोलता है।)
मुहम्मद ख़ां : लेकिन... आज तक हम कोई बाज़ी नहीं हारे- कभी नहीं हारे- हार से हमेंं नफ़रत है- हमारे...।
(प्रकाश धीरे-धीरे पूरे पंच पर आ जाता है।)
मुहम्मद ख़ां : (अकबर अली से) चार हाथियों पर नमदे कसवा दीजिए... कहारों से कहिए पालकियां लेकर किले के पिछले दरवाज़े पर तैयार रहें- सफ़र का सारा ज़रूरी सामान तैयार कीजिए- जनाने में हुक्म दीजिए कि ज़रूरी क़ीमती सामान के साथ सब तैयार हो जायें- जिोरियों को छकड़ों पर लदवा दीजिए- हमारे साथ सिपाही भी जायेंगे- उन्हें तैयार होने का हुक्म दे दीजिए- हम सूरज डूबते-डूबते किला छोड़ देंगे...!
अकबरः (हैरत से) जी!
मुहम्मद ख़ां: जी हां- जो कहा जा रहा है उस पर अमल कीजिए जल्दी... (अकबर अली बाहर निकल जाता है। प्रकाश धीरे-धीरे मुहम्मद ख़ां पर केन्द्रित हो जाता है।)
मुहम्मद ख़ां: (अपने आप से) हमारे पुरखे शहंशाह औरंगज़ेब के ज़माने में मनसबदार थे- लेकिन मुग़लिया सल्तनत के डूबते हुए सूरज के साथ वो नहीं डूबे- अवध आकर नवाब शुजाउद्दोला के बहद में चकलेदारी पायी और ख़िताब से नवाज़े गये- फिर- नवाब वज़ीर जब बक्सर की लड़ाई हार गये तो हमारे बुज़ुर्ग कंपनी बहादुर के जागीदारी बन गये- आज नाना साहब पेशवा के डूबते हुए सूरज के साथ हम क्यों डूब जायें...
(प्रकाश पूरे मंच पर आ जाता है।)
मुहम्मद ख़ां: (नामदार हुसैन से) एक छोटा-सा खत तहरीर करो।
(नामदार हुसैन क़लम काग़ज़ संभाल कर बैठ जाते हैं।)
मुहम्मद ख़ां: बख़िदमत जनाबे मोहतरम हुजूर आलीजनाब क़िब्ल-ओ- काबा जरनैल हैवलाक साहब...
(हैवलाक का नामसुनकर नामदार हुसैन का मुंह हैरत से खुल जाता है। वह आंखें फाड़ कर मुहम्मद ख़ां की तरफ़ देखने लगता है। मुहम्मद ख़ां उसे नहीं देखता और बोलता रहता है।)
मुहम्मद ख़ां: बाद आदबो-तसलीमात से अर्ज़ है कि इस अम्र पर नादिम और शमिंर्दा है कि आपका इस्तिक़बाल करने के लिए...
(अचानक मुहम्मद ख़ां नामदार हुसैन की तरफ़ देखता है जो लिख नहीं रहा है और मुंह खोले हैरत से देख रहा है।)
मुहम्मद ख़ां: (नामदार हुसैन से डांटकर) तुम क्या मुंह खोले सुन रहे हो- लिखो...
(नामदार जल्दी से लिखने लगता है और मुहम्मद ख़ां बोलने लगता है।)
लिखो-करने के लिए हम यहां हाज़िर नहीं हैं- शहर कंपनी बहादुर की हुकूमत के ख़त्म होने के बाद हालात इतने ख़राब हो गये हैं कि शहर में हमारे लिए ठहर पाना नामुमकिन है क्योंकि चंद लफंगों ने शहर का इंतिज़ाम अपने हाथ में ले लिया है- हम कंपनी बहादुर और आली जनाब से पूरी तरह वफ़ादार हैं।
(मुहम्मद ख़ां अपनी धुन में बोलता चला जाता है।)
जिसका सुबूत वह ख़त है जो हमने मुन्नी बाई को दिया था...
(अचानक चौंकता है और नामदार हुसैन से पूछता है।)
मुहम्मद ख़ां: क्या लिखा, पढ़ो।
नामदार हुसैनः (पढ़ता है) हम कंपनी बहादुर और आली जाब के पूरी तरह वफ़ादर हैं जिसका सूबूत वो ख़त है तो हमने मुन्नी बाई को दिया था।
मुहम्मद ख़ां: (बिगड़कर) हम बोल कुछ रहे हैं और तुम लिख कुछ और रहे हो- काट कर लिखो- जिसका सुबूत ये ख़त है जो हम आपकी ख़िदमत में भेज रहे हैं...।
(प्रकाश मुहम्मद ख़ां पर केन्द्रित हो जाता है।)
मुहम्मद ख़ां: फ़िरंगी इतने मासूम नहीं हैं कि हमारे दोनों ख़तों पर यक़ीन कर लहें- हमारी क़िस्मत की फै़सला तो वही ख़त करेगी जो हमने मुन्नी बाई को दिया था- हमने भी गिरहेंं इस तरह उलझाई हैं कि उन्हें सुलझाया नामुमकिन लगता है...।
(पूरे मंच पर प्रकाश आ जाता है और उसी समय मुल्ला अमानत अन्दर आता है।)
मुल्लाम अमानतः (घबराकर और जल्दी में) इस वक़्त हमें आपकी मदद की सख़्त ज़रूरत है नवाब साहब...
मुहम्मद ख़ां: हम आपकी हर ख़िदमत के लिए तैयार हैं मुल्ला अमानत...
(प्रकाश मुहम्मद ख़ां पर केन्द्रित हो जाता है।)
मुल्ला अमानतः हम फ़ौज फिर से जमा कर रहे हैं नवाब साहब- हमें रुपया चाहिए- अनाज चाहिए- हमारी मदद कीजिए नवाब साहब- ये बड़ा नाज़ुक मौक़ा है।
मुहम्मद ख़ां: सब खुद आपकी ख़िदमत में हाज़िर है।
मुल्लाम अमानतः जज़ाकल्लाह- खुदा आपको इसका अज्र देगा...
मुहम्मद ख़ां: जाइए, जाकर फ़ौज को जमा कीजिए, हम यहां पूरा इंतिज़ाम करते हैं- फ़िरंगियों पर इंशाअल्लाह हमारी फ़तेह होगी...
मुल्ला अमानतः आमीन।
(मुहम्मद ख़ां उठता है। हाथ आगे बढ़ाकर मुल्ला अमानत से गले मिलने के लिये आगे बढ़ता है। मुल्ला अमानत जैसे ही हाथ फैला कर झुकते हैं वैसे ही मुहम्मद ख़ां अपने कमर में लगी कटार निकाल कर बिजली की-सी तेज़ी सेउसके पेट मेें घुसेड़ देता है। मुल्ला अमानत के मुंह से भयानक चीख़ निकलती है। वह लड़खड़ाकर फ़र्श पर गिर जाता है। यह सब देखकर मिर्ज़ा तरहदार कांपने लगते हैं और नामदार हुसैन दोनों हाथों से चेहरा ढक लेता है। कुछ क्षण मुहम्मद ख़ां मुल्ला अमानत को मरते हुए देखता है। फिर अपनी जगह बैठ जाता है।)
मुहम्मद ख़ां: (नामदार हुसैन से) पढ़ो कहां तक लिखी?
नामदार हुसैनः (कांपती आवाज़ में) हम कंपनी बहादुर और आली जनाब के पूरी तरह वफ़ादार हैं जिसका सूबूत ये ख़त है।
मुहम्मद ख़ां: नहीं काट कर लिखो- जिसका सूबूत मशहूर बाग़ी मुल्ला अमानत का सिर है जो हम इस ख़त के साथ आपकी ख़िदमत में भेज रहे हैं-।
(प्रकाश धीरे-धीरे चला जाता है।)
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दृश्य : बारह
(मंच पर बहुत कम प्रकाश है। फांसी के बहुत से फंदों से लोग लटके हैं। मंच पर केवल लटके हुए लोग दिखाई देते हैं। पृष्ठभूमि से एक व्यक्ति निकलकर सामने आता है। बहुत कम प्रकाश में उसकी शक्ल साफ़ दिखाई नहीं देती, वह करुण आवाज़ में गाता है-)
गयी यक-ब-यक जो हवा पलट, नहीं दिल को मेरे क़रार है।
करूं इस सितम का मैं क्या बयां मेरा ग़म से सीना फ़िगार है।
ये रिआया हिन्द हुई तबाह, कहूं क्या क्या इसपे जफ़ा हुई।
जिसे देखा हाकिमे वक़्त ने, कहा ये भी क़ाबिलेदर है।
(दूर से डुगडुगी बजने की आवाज़ आती है। गायक घबराकर भाग जाता है। डुग्गी बजने की आवाज़ क्रमशः तेज़ होती जाती है। डुग्गी बजाने वाला मंच पर आ जाता है। फांसी के फंदों से झूलती हुई लाशों के बीच से निकलता मंच के आगे खड़ा होकर वह कहता है।)
डुगडुगी वालाः (डुगडुगी बजाकर) हर ख़ासोआम अमीरो ग़रीब को सुनाया जाता है मजारानी विक्टोरिया का फ़रमान। (डुगडुगी बजाता है) अब मुल्क के चारों तरफ़ अमन हो गया है। (डुगडुगी बजाता है) अवाम की ख़ुशहाली हमारा सबसे बड़ा मक़सद है। (डुगडुगी बजाता है) हर तरह के काम-धंधों को तरक़्क़ी दे जायेगी (डुगडुगी बजाता है) महारानी विक्टोरिया का फ़रमान...।
¡¡
(समाप्त)
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