एक शख्सियत….....डॉ. नसीम निकहत : विजेंद्र शर्मा का आलेख

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डॉ . नसीम निकहत मेरे लिए ये शर्त , मुझे सावित्री बनकर जीना है और तुझे इसकी आज़ादी , जिस पर चाहे डोरे डाल एक शख्सियत ...

डॉ. नसीम निकहत

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मेरे लिए ये शर्त ,मुझे सावित्री बनकर जीना है

और तुझे इसकी आज़ादी,जिस पर चाहे डोरे डाल

एक शख्सियत.....डॉ. नसीम निकहत

तारीख़ गवाह है कि रिवायत की आड़ में समाज ने औरत की शख्सियत को परदे से कभी बाहर नहीं निकलने दिया और जहाँ तक मर्दों का बस चला अपनी मरदाना फ़ितरत की चिलमन से उन्होंने औरत के हुनर को अन्दर ही छिपाए रखा मगर जैसे - जैसे वक़्त बदलता गया औरत मर्दों की बनाई इस क़फ़स से बाहर निकल अपने हौसले से परवाज़ करने लगी।

पाकिस्तान की मशहूर शाइरा परवीन शाकिर जब पहली मरतबा हिन्दुस्तान आई और दिल्ली के एक मुशायरे में ग़ज़ल पढ़ रहीं थी तो उसी मरदाना फ़ितरत के नामवर शाइर मरहूम फ़िराक़ गोरखपुरी ने परवीन साहिबा की ग़ज़ल पे तन्ज़ करते हुए कहा था कि " वाह वाह क्या मरदाना ग़ज़ल पढ़ी है ,जी चाहता है कि चूड़ियाँ पहन लें "।

इस पे परवीन शाकिर ने जवाब दिया लीजिये हुज़ूर अब औरत की ग़ज़ल सुनिए :---

हुस्न के समझने को उम्र चाहिये जानाँ

दो घड़ी की चाहत में लड़कियां नहीं खुलतीं

ठीक ऐसा ही जवाब हमारे अहद की एक शाइरा ने इस पुरुष प्रधान समाज को अपनी शाइरी से दिया है उनका ये शे'र सुनके तो समाज अपने निज़ाम पर ख़ुद शर्मिन्दा हो जाता है :--

मेरे लिए ये शर्त ,मुझे सावित्री बनकर जीना है

और तुझे इसकी आज़ादी,जिस पर चाहे डोरे डाल

अपनी शाइरी से आईना दिखाने वाली और अपने औरत होने पे फ़ख्र करने वाली इस शाइरा का नाम है डॉ. नसीम निकहत। तक़रीबन तीस साल से शाइरी की दुनिया में डॉ. नसीम निकहत औरतों की नुमाइंदगी हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान से बाहर जहाँ - जहाँ उर्दू बोली - समझी जाती है कर रहीं है।

नसीम निकहत का जन्म ख़ुमार बाराबंकवी के क़स्बे बाराबंकी में 10 जून 1959 को हुआ और जब नसीम साहिबा सिर्फ़ डेढ़ बरस की थी तो अपनी फूफी के यहाँ लखनऊ में गोद चली गई यानी इनकी पूरी परवरिश तहज़ीब के शहर लखनऊ में हुई। इनकी फूफी शमीम आरा आपी रिवायत के बुर्के में रहने वाली ज़हीन और पर्देदार ख़ातून थी। उन्हें फ़ारसी के हज़ारों शे'र याद थे , घर में नशिस्तें होती रहती थी और औरतें चिलमन के पीछे से बैतबाजी (शाइरी की अन्ताक्षरी ) में हिस्सा लेती थी यही सिलसिला नसीम साहिबा के ज़हनो- दिल पर तारी हो गया मगर फूफी के सख्त मिज़ाज के चलते नसीम साहिबा के अन्दर की शाइरा उस वक़्त बाहर नहीं आ पाई। पंद्रह बरस की कम उम्र में नसीम साहिबा का निकाह एक शाइरी पसंद ख़ानदान में हो गया जो कि उनके लिए वरदान साबित हुआ।

एक ख़ातून के लिए ससुराल यूँ तो क़फ़स (क़ैदखाना ) का दूसरा नाम होता है पर नसीम साहिबा के लिए ससुराल किसी आज़ाद फ़जां से कम न थी इनके ससुर डॉ. गौहर लखनवी, लखनऊ के जाने -माने शाइर थे सो फिर से नसीम साहिबा को शाइरी का माहौल मिल गया और साथ - साथ आगे पढ़ने की इजाज़त भी।

मुहर्रम के दिनों में लखनऊ में ढाई महीने तक नौहे पढ़ने का चलन था और वहीं से नसीम साहिबा को तरन्नुम में पढ़ते सुन माहिर लखनवी साहब ने कहा कि आप इतना अच्छा कहती है और माशाअल्ला तरन्नुम भी ग़ज़ब का है तो आप मुशायरे क्यूँ नहीं पढ़ती ?यहीं से मुशायरों का सिलसिला शुरू हुआ। जिस देवां के शाह वारिस अली शाह के मुशायरे तक पहुँचते - पहुँचते शाइरों को बरस लग जाते है नसीम निकहत ने अपने मुशायरे पढ़ने का आग़ाज़ वहीं से किया और 80 के दशक के पहले साल से इन्होंने बा-कायदा मुशायरों में शिरक़त करना शुरू कर दिया। नसीम साहिबा ने अपनी स्कूल से लेकर एम्. ऐ तक की पूरी तालीम लखनऊ से की और फिर वाक़याते- कर्बला मौज़ू पे शोध कर पी.एच डी. की उपाधि भी लखनऊ विश्वविद्यालय से हासिल की ।

डॉ. नसीम निकहत की शाइरी एक औरत की ज़िन्दगी का वो फ़लसफ़ा है जिसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। उनकी एक ग़ज़ल है जिसमे हिन्दुस्तानी औरत के जीवन का तवील ( लम्बा ) सफ़र सिर्फ़ एक मतले और तीन शे'रों में बयान होता है ये ग़ज़ल नसीम निकहत की शनाख्त भी है :--

फिर अजनबी फ़ज़ाओं से जोड़ा गया मुझे

मैं फूल थी सो शाख़ से तोड़ा गया मुझे

मिट्टी के बर्तनों की तरह सारी ज़िन्दगी

तोड़ा गया मुझे कभी जोड़ा गया मुझे

हाथों में सौंप कर काग़ज़ की एक नाव

दरिया के तेज़ धारे पे छोड़ा गया मुझे

मैं ऐसी शाख़ थी जो लचकती थी कभी

फूलों का बोझ डाल के मोड़ा गया मुझे

नसीम निकहत साहिबा ने औरत के उस एहसास को शाइरी बनाया है जिसे लोग कहते हुए भी कई मरतबा सोचते हैं की ये कहें या न कहें , बात तीखी ज़रूर है मगर है सच्ची :-

शाख़ को झुकना ही पड़ता है ,समर जैसा भी हो

अहमियत है सिर्फ़ साये की शजर जैसा भी हो

तुम बहुत अच्छे हो, दुनिया ख़ूबसूरत है तो क्या

लौटकर वापिस वहीं जाना है ,घर जैसा भी हो

साथ चलना मसलहत भी और मजबूरी भी है

रास्ता तो काटना है ,हमसफ़र जैसा भी हो

उनके अन्दर की औरत बस इतना कह लेने भर से ख़ामोश नहीं होती वो अपनी पीड़ा को काग़ज़ पे यूँ भी उकेरती है :--

दिन ख़्वाबों को पलकों पे सजाने में गुज़र जाय

रात आये तो नींदों को मनाने में गुज़र जाय

जिस घर में मेरे नाम की तख्ती भी नहीं है

एक उम्र उसी घर को सजाने में गुज़र जाय

****

इस सलीके से निभाई मैंने ज़िम्मेदारियाँ

फूल को खुशबू तो शाख़ों को समर मैंने किया

ये मेरे अन्दर की औरत तो घरेलू ही रही

ये तेरे दीवारों दर थे इनको घर मैंने किया

संवेदना के बिना शाइरी अधूरी है और डॉ. नसीम निकहत हस्सास (संवेदना ) का पर्याय है । एक बार जयपुर में घटित किसी भ्रूण -ह्त्या के वाकये को जब उन्होंने टी.वी पे देखा तो नसीम साहिबा की आँखें नम हो गई और उन्ही आंसुओं की सियाही से उन मासूम बच्चियों की जानिब से एक मतला उन्होंने कहा जिन्हें गर्भ में ही क़त्ल कर दिया जाता है :-

हमारे क़ातिल से कोई पूछे ,भला हमारा कुसूर क्या है

जो रहमे-मादर में मारते हो ख़ता हमारी हुजूर क्या है

(रहमे-मादर - गर्भ)

ग़ज़ल कहते वक़्त डॉ. नसीम निकहत शाइरी की रिवायत के साथ पूरा इन्साफ करती है वे अपने ख़ूबसूरत लफ़्ज़ों से ग़ज़ल के नाप का ऐसा लिबास तैयार करती है कि जिसे पहन कर ग़ज़ल अदब के दयार से जब गुज़रती है तो बड़े- बड़े नक्काद भी अपनी निगाह इज़्ज़त के साथ उठाते है। डॉ. नसीम निकहत की शाइरी में एक तरफ़ अगर औरत का दर्द है तो दूसरी तरफ़ उनके अशआर रूमानियत की खुश्बू भी फैलाते है :---

लोग कहते है के ये इश्क़ का सौदा क्या है

मेरी आँखों ने तेरी ज़ात में देखा क्या है

अब किसी और से दिल मिलता नहीं क्यूँ आख़िर

कोई बतलाये के उस शख्स में ऐसा क्या है

कैसा ये शोर है क्या छन्न से हुआ है आख़िर

दिल नहीं,शीशा नहीं फिर यहाँ टूटा क्या है

शाइरी की दुनिया की एक सच्चाई ये भी है कि किसी शाइरा को मोतबर होने में बड़ा वक़्त लगता है जबकि कोई शाइर कम वक़्त में मोतबर हो जाता है आज डॉ. नसीम निकहत का नाम अदब में बड़े एहतराम के साथ लिया जाता है मगर नसीम साहिबा भी उस दौर से गुज़री है जहाँ उन्हें क़दम - क़दम पे अपने आपको साबित करना पड़ा , इस कसक को उन्होंने अपनी एक मक़बूल ग़ज़ल का हिस्सा यूँ बनाया :--

शख्सीयत का जब फ़र्क़ था लफ़्ज़ भी मेरे बौने हुए

मैं जो बोली वो बेकार था, वो जो बोला अदब हो गया

और फिर इसी ग़ज़ल के एक और शे'र में घर की चार दीवारी में क़ैद सिर्फ़ घर की ही होकर रहने वाली ख़ातून का मर्म किस सलीक़े से बयान किया---

मैं उसे ज़िन्दगी सौंप कर उसके आँगन की बांदी रही

मुझको दो रोटियाँ देके वो ये समझता है रब हो गया

डॉ. नसीम निकहत की एक पहचान अगर मुशायरे है तो काग़ज़ पर उतरे उनके क़लाम की पजीराई भी हर तरफ़ हुई है इनकी सबसे पहली किताब "धुंआ -धुंआ" 1984 में मंज़रे- आम पे आई ,फिर 1991 में "भीगी पलकें" ,1995 में "फूलों का बोझ" , 2005 में "ख़्वाब देखे ज़माना हुआ " और 2010 में "मेरा इंतज़ार करना" पाठकों के लिए एक सौगात बन के आई ।

डॉ. नसीम निकहत को मिलने वाले एज़ाज़ की फेहरिस्त ज़रा लम्बी है फिर भी कुछ का ज़िक्र किये देता हूँ :-

नवाए मीर अवार्ड ( लखनऊ) , याद ए फ़िराक अवार्ड ,शहर ए अदब सम्मान ( गाज़ियाबाद) , साहित्य जवाहर अवार्ड (लखनऊ) ,परवीन शाकीर अवार्ड (दिल्ली) और एतराफ ए कमाल (कराची )। काफी लम्बे अरसे तक डॉ. नसीम निकहत राष्ट्रीय सहारा (उर्दू) में सब-एडिटर रही मगर फिलहाल अपनी सेहत की नाराज़गी के चलते वे घर से ही लिखने-पढ़ने का काम कर रही है।

हरदिल अज़ीज़ शाइर मुनव्वर राना कहते है कि डॉ. नसीम निकहत उन दो-चार शाइरात में से एक अहम् नाम है जो सही मायने में शाइरा कहलवाने की हक़दार है जिस तरह पाकिस्तान में परवीन शाकीर शाइरात का हवाला है उसी तरह डॉ .नसीम निकहत हमारे मुल्क की परवीन शाकीर है।

डॉ. नसीम निकहत का बात कहने का सलीक़ा ,उनका मुख्तलिफ़ लहजा उन्हें ऐसे मुकाम पे काबिज़ किये हुए है जहाँ फिलहाल तो कोई और उनके आस-पास भी नज़र नहीं आता। परम्पराओं की चिलमन में से न जाने कितनी नशिस्तें उन्होंने सुनी होंगी अपने आप से कितना मशक किया होगा तब जाके कहीं ये हुनर आया होगा कि किसी जवाब में से फिर से सवाल निकालकर उसे ग़ज़ल बना दिया जाय।

नफरत से नफरत बढ़ती है प्यार से प्यार पनपता है

आग लगाने वालों को ये बात मगर समझाए कौन

और उनके इस शे'र को तो बस महसूस किया जा सकता है

अम्मा थक कर आँखें मूंदे मिट्टी ओढ़े सोती है

घर आने में देर अगर हो, उसकी तरह घबराए कौन

डॉ. नसीम निकहत के पास अगर शे'र कहने के लिए बेहतरीन ख़याल है तो उसके साथ -साथ उनका लफ़्ज़ों का इन्तिख़ाब भी लाजवाब है। अपने एहसास को लफ़्ज़ से मिलाने में वे ऐसी मीनाकारी करती है कि शे'र फिर अपना रस्ता ख़ुद बनाता चला जाता है उसे फिर न तो कोई अदाकारी की सवारी चाहिए और न ही उसे तरन्नुम की उंगली पकड़ने की ज़रूरत महसूस होती है। उनके कुछ अशआर तो ऐसा ही कुछ कहते है :---

ज़रा सी शौहरत पे है ये आलम,चराग़ सूरज पे हँस रहे हैं

जो खानदानी हैं जानते हैं तमीज़ क्या है शऊर क्या है

*****

हद से बढ़ने लगे कमज़र्फ तो चुप क्या रहना

बुज़दिली लगने लगे ऐसी शराफ़त भी हो

*****

सब फ़र्ज़ हमारे हैं, सब क़र्ज़ हमारे हैं

मौजों से लड़ेंगे हम ,तुम पार उतर जाना

मासूम परिंदों को आता ही नहीं "निकहत"

आग़ाज़ से से घबराना ,अंजाम से डर जाना

पिछले दिनों दो बार अजमेर और जयपुर में डॉ. नसीम निकहत साहिबा को रु-ब-रु सुनने का मौक़ा मिला अब उनकी शाइरी की तस्वीर में एक सूफियाना रंग भी दिखाई देने लगा है। वे ख़ुद भी कहती है की मेरा मिज़ाज अब साधु का सा हो गया है और जब कोई क़लमकार अपना मिज़ाज ही सूफियाना कर ले तो उसे महबूब की चौखट भी ख़ुदा का दर नज़र आती है। ज़िन्दगी की हक़ीक़त से जब सही मायने में त-आर्रुफ़ हो जाए तो शे'र अपनी शक्ल इस तरह अख्तियार करते है :---

डोर से रिश्तों की वो ऐसा बँधा रह जाएगा

मैं बिछड़ जाउंगी और वो देखता रह जाएगा

हम चले जायेंगे रौनक़ कम नहीं होगी मगर

ज़िन्दगी का हर तरफ़ मेला लगा रह जाएगा

इन चराग़ों की तरह आँखें मेरी बुझ जाएगी

शब् गुज़र जाएगी दरवाज़ा खुला रह जाएगा

डॉ. नसीम निकहत के अभी तक के अदबी सफ़र पे रौशनी डालना महज़ रौशनी को रौशनी दिखाना है। डॉ. नसीम निकहत शाइरी की वो मुकमल किताब है जिसे पढ़कर कारी (पाठक) ग़ज़ल के हर तेवर से मुख़ातिब हो सकता है। इसमें उस बच्ची को भी पढ़ा जा सकता है जिसे इस दुनिया में आने से पहले ही क़त्ल कर दिया गया ,इसमें इश्क़ में खोई महबूबा का जुनून है , घर नाम की क़फ़स में क़ैद कर दी गई औरत के अन्दर की टीस भी इसके पन्नों में गड़ी है और इसके साथ- साथ इस किताब में वो नसीहतें भी है जिन पर अमल करके ज़िन्दगी को ज़िन्दगी की तरह जिया जा सकता है। जहाँ तक हिन्दुस्तान की शाइरात का सवाल है अगर नसीम निकहत को उसमें से घटा के देखें तो फिर पीछे कुछ नज़र नहीं आता । अदब के लिए ये कोई अच्छे संकेत हरगिज़ नहीं है हमारे मुल्क की शाइरात को थोड़ा संजीदा होना पड़ेगा तभी शाइरी का वक़ार भी सलामत रहेगा और शाइरात का भी ।

ख़ैर हिन्दुस्तानी अदब को ये फ़ख्र तो नसीब है कि हमारे पास नसीम निकहत है। आख़िर में डॉ. नसीम निकहत की इसी दुआ के साथ ... ख़ुदा हाफीज़

ग़ालिब का रंग मीर का लहजा मुझे भी दे

लफ़्ज़ों से खेलने का सलीक़ा मुझे भी दे

सजदों को मेरे फिर तेरी चौखट नसीब हो

मंज़िल तलक पहुँचने का रस्ता मुझे भी दे

--

विजेंद्र शर्मा

vijendra.vijen@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 7
  1. सुन्दर सब्दो को संजो कर बनाया है भाई आपने बहुत खूब

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  2. सुन्दर सब्दो को संजो कर बनाया है भाई आपने बहुत खूब

    जवाब देंहटाएं
  3. Bahut Khoob likha HAi aapne
    Mubarakbaad Bhai

    जवाब देंहटाएं
  4. Bahut Khoob Lafzon Ka istemaal Kar Mazmoon ko FALAk par Pahuncha Diya Aapne- Mubarakbaad Qubul kijiye JANAB

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  5. डॉ नसीम निकहत पर शायरी और हर औरत को नाज़ है। उनसे रु-ब-रु करवाने के लिए शुक्रिया और इस बेहतरीन आलेख के लिए बधाई !

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  6. बेहतरीन आलेख....पढ़कर ख़ुशी हुई.....

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  7. बेहद उमदा! बेहद खुबसूरती से डॉ.नसीम निकहत से रुबरु करवाया।

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रचनाकार: एक शख्सियत….....डॉ. नसीम निकहत : विजेंद्र शर्मा का आलेख
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