पवन दीक्षित माँ रोज़ जेब देखे है बेरोज़गार की बेटे की जेब में कहीं सलफास तो नहीं एक शख्सियत …...... पवन दीक्षित दिल्ली के इंडिया हैबिट...
पवन दीक्षित
 
माँ रोज़ जेब देखे है बेरोज़गार की
बेटे की जेब में कहीं सलफास तो नहीं
एक शख्सियत…......पवन दीक्षित
दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधो पे परिचर्चा थी ,सितम्बर ,2003 की बात है शायद , प्रख्यात पत्रकार और कालम- नवीस कुलदीप नैयर मुख्य वक्ता थे। मेरी पोस्टिंग भी उन दिनों दिल्ली में थी ,अख़बार में परिचर्चा के बारे में पढ़ा और सोचा कि परिचर्चा का हिस्सा बना जाय। दोनों मुल्कों के संबंधों पे बहस हुई किसी ने कुछ कहा ,किसी ने कुछ आख़िर में कुलदीप नैयर साहब ने अपना भाषण इन दो मिसरों से ख़त्म किया :-------
यार हम दोनों को ही ये दुश्मनी महँगी पड़ी
रोटियों का ख़र्च तक बन्दूक पर होने लगा
सुनते ही मेरे ज़हन में आया कि ये शे'र पक्का बशीर बद्र का होगा क्यूंकि इस मिज़ाज का वही कहते हैं। कुछ दिनों बाद दिल्ली के मशहूर डी.सी.एम् कवि सम्मलेन में जाने का मौक़ा मिला ,अशोक चक्रधर साहब संचालन कर रहे थे उन्होंने कहा कि ग़ज़ल की एक ऐसी आवाज़ को आवाज़ दे रहा हूँ जिसे सुनकर लहजा भी महक उठता है और ग़ज़ल भी। वो आवाज़ थी पवन दीक्षित , आते ही मंच को प्रणाम करके उन्होंने बिना किसी तमहीद (भूमिका ) के एक मतला और दो शे'र पढ़े जो यूँ थे :-----
दिन ब दिन खुशहाल ये जो मेरा घर होने लगा
हो ना हो माँ कि दुआओं का असर होने लगा
यार हम दोनों को ही ये दुश्मनी महँगी पड़ी
रोटियों का ख़र्च तक बन्दूक पर होने लगा
दूसरा शे'र सुनते ही मुझे कुलदीप नैयर साहब द्वारा कोट किया उस दिन वाला शे'र याद आ गया। किसी शाइर का शे'र अगर कहीं भाषण , आलेख या किसी और मंच पे जब कोट होने लग जाए तो मान लेना चाहिए कि वो शे'र आवारा हो गया है और आवारा शे'र फिर अपना सफ़र ख़ुद तय करता है ,किसी शाइर का एक मतला याद आया :-
दुश्मन को भी प्यारा हो जाता है
अच्छा शे'र आवारा हो जाता है
इसके बाद पवन दीक्षित को सुनने और उनके बारे में और जानने की इच्छा ने मेरे ज़हन में जन्म ले लिया। उसी कवि सम्मलेन में उन्होंने एक गीत सुनाया जिसे सुनकर तो बस पूरा पांडाल वाह - वाह कर उठा। उस वक़्त का ताज़ा घटनाक्रम था ,पाकिस्तान से एक बच्ची भारत अपना इलाज़ करवाने आई थी। दोनों मुल्कों के बीच संसद पे हमले के बाद तल्खियां और बढ़ गई थी। बच्ची का नाम था 'नूर फातिमा' बच्ची के दिल में छेद था और उसका इलाज़ बेंगलोर के किसी अस्पताल में हुआ। बच्ची का सफल ओपरेशन हुआ बच्ची पुनः अपने देश लौट गई। बस इसी बात को पवन दीक्षित ने गीत बनाया ,उनका कहना ये था कि अगर नूर फातिमा पाकिस्तान जाते वक़्त मुझे मिलती तो मैं उससे ये कहता, गीत का कुछ हिस्सा यूँ था :-----
जैसा मिला दुलार यहाँ नूर फातिमा।
जाकर उन्हें बताना वहाँ नूर फातिमा। ।
कहना के सारे मुल्क की धड़कन सी रुक गई
लोगों की दुआओं से खुदाई भी झुक गई
अटकी थी सबकी तुझमे ही जाँ नूर फातिमा
जैसा मिला दुलार यहाँ नूर फातिमा।
बतलाना उन्हें कैसे करिश्मा सा कर दिया
दिल का सुराख हमने मुहब्बत से भर दिया
ऐसा मिलेगा प्यार कहाँ नूर फातिमा। ।
पवन दीक्षित के कलाम का वहाँ हर कोई दीवाना हो गया कुछ दिनों बाद अशोक चक्रधर साहब का सब टी वी पे वाह- वाह कार्यक्रम देख रहा था उस दिन शो में पाकिस्तान के अज़ीम शाइर मरहूम अहमद फ़राज़ भी मौजूद थे और पवन दीक्षित भी ,अशोक जी ने पवन भाई से वही "नूर फातिमा "वाला गीत सुनाने का आग्रह किया। गीत के आख़िरी बन्द में पवन दीक्षित साहब ने अहमद फ़राज़ साहब की तरफ़ मुखातिब हो ये बन्द पढ़ा :--
एलाने - दोस्ती का सबब चाहते हैं हम
असला नहीं वहाँ का अदब चाहते हैं हम
साहित्य हो यहाँ का वहाँ नूर फातिमा।
जाकर उन्हें बताना वहाँ नूर फातिमा। ।
गीत के आख़िरी बन्द को सुन अहमद फ़राज़ साहब ने उन्हें गले लगा लिया। फ़राज़ साहब मन ही मन अपने मुल्क की कारस्तानियों पे शर्मिन्दा भी हुए ,ये उनके चेहरे से साफ़ ज़ाहिर हो रहा था ।
ये कथन बिल्कुल सही है कि शाइर बनाया नहीं जा सकता वो तो पैदा ही शाइर होता है। पवन दीक्षित के अन्दर का शाइर भी 30 -35 बरस जगा नहीं और जब जगा तो ऐसे - ऐसे शे'र कहे जिन्हें बड़े - बड़े लोग कोट करते हैं।
पवन दीक्षित का जन्म संगीत के मर्मज्ञ स्व. श्री रामेश्वर प्रसाद दीक्षित के यहाँ 12 दिसंबर, 1962 को द्रोणाचार्य की भूमि दनकौर में हुआ।
इनकी शुरूआती शिक्षा - दीक्षा भी दनकौर क़स्बे में ही हुई। शाइरी की तरफ़ इनका रुझान सिर्फ़ सुनने तक का था शायद उन्हें ख़ुद पता नहीं था कि एक दिन वे शे'र कहने लग जायेंगे मगर जिस इन्सान को अपने बुज़ुर्गों का आशीर्वाद मिला हो वो जिस राह पे चल पड़े कामयाबी तो फिर उसके कदम चूमती ही है।
बतौर शाईर पवन दीक्षित की उम्रतक़रीबन 12 -13 बरस ही है। ग़ज़ल के प्रति इमानदार होने का पहला सबक पवन दीक्षित ने अपने उस्ताद मंगल "नसीम" से सीखा और इसी वजह से अपने उस्ताद के वे सब से पसंदीदा शागिर्द भी है।
पवन दीक्षित का ये शे'र तो उनका हवाला बन गया है :----
माँ रोज़ जेब देखे है बेरोज़गार की
बेटे की जेब में कहीं सलफास तो नहीं
पवन दीक्षित की शाईरी की सबसे बड़ी ख़ासियत उनका 'कहन' है। शे'र में शेरियत का ज़िन्दा होना और आम बोलचाल के लफ़्ज़ों को खूबसूरती से काग़ज़ के कैनवास पे उतारने के हुनर से भी परवरदिगार ने उनको नवाज़ा है। उनके ये अशआर सुनकर आप मेरी बात से इतिफाक़ रखने पे मजबूर हो जायेंगे।
मेरे ऐब को भी बताये हुनर
मेरे यार तू भी ख़तरनाक है
बुरे लोग दुनिया का ख़तरा नहीं
शरीफ़ों की चुप्पी ख़तरनाक है
******************
साफ़ कह दे गिला कोई गर है
फ़ैसला ,फ़ासले से बेहतर है
*******************
काश मेरी जगह जो तू होता
मेरे ग़म के रु - ब - रु होता
मैं तेरी आरज़ू न करता तो
जाने कितनों की आरज़ू होता
पवन दीक्षित पर मीर ,बशीर बद्र , अमीर कज़लबाश और कृष्ण बिहारी 'नूर' की शाइरी का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। उनके कलाम में दर्शन ,अध्यात्म , फ़क़ीरी और मीर की सी ज़ुबान साफ़ देखी जा सकती है। मिसाल के तौर पे पवन भाई के ये शे'र :----
ऐलान उसका देखिये, के वो मज़े में है
या तो कोई फ़क़ीर है, या फिर नशे में है
दौलत बटोर ली मगर अपने तो खो दिये
और वो समझ रहा है, बड़े फ़ायदे में है
**********
दामन के दाग़ देख के हम सोचते रहे
कैसे रखी सम्हाल के “चादर” “कबीर” ने
************
कौन अपना है इस ज़माने में
बेहतरी है, न आज़माने में
*********
रहता है जिस मकान में तेरा नहीं है वो
बदलेगा जाने और भी कितने मकान तू
********
सोना, चाँदी ख़रीद सकते हो
आप कुछ भी ख़रीद सकते हो
बादशाहत का मोल हो शायद
क्या फ़क़ीरी ख़रीद सकते हो
********
दुनिया में क्या दुःख के अलावा होवे है
हंसने का तो सिर्फ़ दिखावा होवे है
ये तय करना मुश्किल है वो किसका है
सब का अपना - अपना दावा होवे है
पवन दीक्षित साहब ने पंजाबी फिल्म 'एक नूर' का मुख्य गीत लिखा , इनके लिखे गीत अभिजीत ने एक एल्बम में गाए है और ग़ज़लों के साथ साथ पवन दीक्षित साहब को मुक्तक और दोहे कहने में भी महारथ हासिल है। एक मुक्तक और एक दोहा मिसाल के तौर पे :---
इस दौर में भी, जज़्बात लिये फिरता हूँ
पागल हूँ मैं, दिल साथ लिये फिरता हूँ
आँखों में मेरी, आँसू हैं मीरा के
और होठों पर सुकरात लिये फिरता हूँ
***************
होली खेले है अली ,ईद मनावे श्याम।
आवे ना विश्वास तो ,अइयो मेरे गाम। ।
मेरे लिए ज़ाती तौर पे पवन दीक्षित वो शख्स है जिसने मेरा त-आर्रुफ़ ग़ज़ल से करवाया। एक शाइर के साथ - साथ पवन भाई ग़ज़ल के पारखी भी है। मैं इस बात को बड़ी इमानदारी से स्वीकार करता हूँ कि अगर पवन भाई की सोहबत मुझे नसीब न होती तो ग़ज़ल मेरे लिए एक पहेली ही बनी रहती।
पवन दीक्षित साहब फिलहाल दनकौर में बिहारीलाल कालेज में कार्यरत है और दनकौर कस्बें (गौतम बुद्ध नगर ) में ही रहते हैं गाँव की ज़िन्दगी उनको रास आती है अपने एक शे'र में भी उन्होंने इसका ज़िक्र किया है :--
शहर मे दर्द अकेले का, गाँव मे सबका
यही है फ़र्क़, शहर वालों, गाँव वालों में
पवन दीक्षित बहुत से अदब पसंदों के लिए हो सकता है कि नया नाम हो पर उनका क़लाम अपना सफ़र ख़ुद तय करता है। शे'र सुनने के बाद सुनने वाला जानने के लिए उत्सुक ज़रूर रहता है कि ये क़लाम किसका है । यही ताक़त है सच्ची और अच्छी शाइरी की। पवन भाई के कुछ और अशआर जो मुख्तलिफ़ - मुख्तलिफ़ जगह लोग इस्तेमाल करते हैं :--
सपने सच करने की धुन में, अपने सब खो जायेंगे
अपनों से, अपनापन रखना, सपने सच हो जायेंगे
तनख़्वाह दूर, खिलौनों की ज़िद, और बहाने बचे नहीं
आज, देर से घर जाना है, बच्चे जब सो जायेंगे
***************
जो मकाँ मुझसे नहीं बन पाया “घर”
माँ का आना था कि मन्दिर हो गया
****************
लाखों बच्चे तरसें, दाने दाने को
भूखे बच्चों की तस्वीरें लाखों की
****************
लाख अंधेर मचा रक्खा हो झूठों ने
लेकिन सच का अपना एक उजाला है
आज उन्ही को बोझ लगे है “वो बूढ़ा”
”जिसने” उनको बोझा ढोकर पाला है
इतने छोटे से अदबी सफ़र में अदब की झोली में इतने ख़ूबसूरत अशआर डालने के लिए पवन दीक्षित मुबारकबाद के हक़दार है और अदब को उनसे और भी उम्मीदें है अल्लाह करे ज़ोर- ए -क़लम और भी ज़ियादा।
आमीन।
आख़िर में पवन दीक्षित साहब के इन्ही मिसरों के साथ ....
यूँ तो वो बे-वफ़ा नहीं लगता
पर किसी का पता नहीं लगता
आईना देख क्या लिया मैंने
अब कोई भी बुरा नहीं लगता
--
 
विजेंद्र शर्मा
vijendra.vijen@gmail.com
							    
							    
							    
							    
COMMENTS