विजेंद्र शर्मा का आलेख - एक शख्सियत… अखिलेश तिवारी

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अखिलेश तिवारी नाज़ तैराकी पे अपनी कम न था हमको मगर नरगिसी आँखों की उन गहराइयों का क्या करें एक शख्सियत … अखिलेश...

अखिलेश तिवारी

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नाज़ तैराकी पे अपनी कम था हमको मगर

नरगिसी आँखों की उन गहराइयों का क्या करें

एक शख्सियत अखिलेश तिवारी

आज की ग़ज़ल की तस्वीर देख कर ये तो माना जा सकता है कि नई नस्ल के नुमाइंदे ग़ज़ल के साथ इन्साफ तो कर रहे है मगर भीड़ से अलग नज़र आने की फ़िक्र में कुछ शाइर कई बार ग़ज़ल के सर से दुपट्टा भी उतार लेते है और फिर अदब की सतह पर जब ग़ज़ल उतरती है तो उस शाइर को कम और ग़ज़ल को ज़ियादा शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। सुर्ख़ियों में रहने की चाह ,शुहरत की भूख , मुशायरे के मंच की जादूगरी ये सब ला-इलाज़ बीमारियाँ नस्ले - नौ को भी अपनी गिरफ़्त में लेती जा रही हैं। इन सब के बावजूद भी नई पीढ़ी में ग़ज़ल से सच्ची मुहब्बत करने वाले कुछ लोग हैं जो इमानदारी से अपना काम कर रहे हैं मगर विडंबना ये है की ऐसे लोगों की तादाद हमारे मुल्क को ओलम्पिक में मिलने वाले तमगों से ज़ियादा नहीं है। नई नस्ल के एक ऐसे ही ग़ज़ल- गो है अखिलेश तिवारी जिनसे पिछले दिनों भाई आदिल रज़ा "आदिल" और फ़ारूक़ इंजीनियर साहेब के तुफ़ैल से जयपुर में मिलने का मौका मिला ,मुख़्तसर सी ये मुलाक़ात दोस्ती में कब तब्दील हो गई पता ही नहीं चला। उनके कुछ अशआर जब सुने तो लगा कि बाद-मुद्दत कानों के साथ - साथ रूह को भी सुकून मिला है । "अखिलेश तिवारी" से मिलवाकर आदिल भाई और फ़ारूक़ साहब ने वो कर्ज़ा मेरे सर चढ़ा दिया जिसे शायद इस जन्म में उतारना तो मेरे लिए मुमकिन नहीं है। अखिलेश तिवारी से मिलने और उनके क़लाम से रु-ब-रु होने की तमन्ना तब से दिल में मचल रही थी जब कमलेश्वर जी द्वारा संपादित "हिन्दुस्तानी गज़लें " पढ़ते हुए मेरे ज़हन -ओ- दिल एक मतले और शे'र पर आ कर ठहर गए थे :-

ज़माने भर से मुझे होशियार करता था

अगरचे ख़ुद वही मेरा शिकार करता था

उसे रोक सकी कश्तियों की मजबूरी

वो हौसलों से ही दरिया को पार करता था

अखिलेश तिवारी मूलतः तो शाइरों के गढ़ कैफ़ी आज़मी के शहर आज़म गढ़ (यू.पी ) के रहने वाले हैं पर इनके वालिद श्री गिरीश दत तिवारी रेलवे में स्टेशन मास्टर थे सो उन्हें मुलाज़मत के चलते अलग -अलग जगह रहना पड़ा। अखिलेश तिवारी का जन्म बीना (मध्य प्रदेश ) में 27 मई 1966 को हुआ। इन्सान की ज़िन्दगी का सबसे ख़ूबसूरत वक़्त उसके बचपन के दिन होते हैं अखिलेश भाई का ये मस्ती का दौर बीना में ही गुज़रा उनकी तमाम तालीम यहीं हुई। अपनी स्नातक तक की पढ़ाई उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से की। महज़ 22 साल की उम्र में रेलवे में बतौर सहायक विद्युत ड्राइवर की नौकरी अखिलेश भाई ने अपने लिए चुन ली और एक साल तक कोटा रतलाम खंड पे न जाने कितने मुसाफ़िरों को उनकी मंज़िल तक पहुंचाते रहे ,रेल की नौकरी रास नहीं आई तो 1989 में भारतीय रिजर्व बैंक का दामन थाम लिया और आज तक पूरी वफ़ा के साथ मुलाज़मत का सफ़र जारी है। फिलहाल अखिलेश तिवारी सहायक प्रबंधक के पद पर जयपुर में पदस्थापित हैं।

अखिलेश तिवारी का पत्र -पत्रिकाओं के लिए लिखना तो कॉलेज के ज़माने से था पर बैंक की नौकरी में जब नागपुर आये तो ग़ज़ल से लगाव हो गया।

ग़ालिब और मीर को पढ़कर ग़ज़ल से मुहब्बत बढ़ती चली गई 1990 के शुरू का ये वो दौर था जब अखिलेश साहब को नक्ता और मख्ता में भी फ़र्क़ मालूम न था । कुछ तो शलभ "नाज़" जैसे अदीब की सोहबत का असर हुआ, कुछ ग़ज़ल का शौक़ भी जुनून में तब्दील होने लगा और इस तरह अखिलेश तिवारी के अन्दर का शाइर खुल कर बाहर आने लगा। दो साल बाद इनका तबादला कानपुर हो गया जहाँ सही मायने में अखिलेश तिवारी की शाइरी की परवरिश हुई। यहाँ के ख़ुशगवार माहौल में अखिलेश शे'र कहने लगे और मरहूम नक्श इलाहाबादी साहब से कभी - कभी इस्ला भी लेने लगे। अपनी शाइरी के इब्तिदाई सफ़र में ही अखिलेश तिवारी एक मंझे हुए कूज़ागर (कुम्हार) की तरह अपने ख़याल की मिट्टी में लफ़्ज़ों के पानी को मिलाकर ख़ूबसूरत ग़ज़ल की सुराहियाँ बनाने लगे इनके शुरूआती दौर के कुछ अशआर मेरी इस बात पे सच्चाई की मुहर लगाते हैं :--

यही हर दौर का दस्तूर देखा

कि सूली पर चढ़ा मंसूर देखा

जो सूरज बनके उभरा था फ़लक पर

उसे भी ढलने पे मजबूर देखा

रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें

भीड़ में उगती हुई तन्हाइयों का क्या करें

हुक्मरानी हर तरफ़ बौनों की ,उनका ही हुजूम

हम ये अपने क़द की इन ऊँचाइयों का क्या करें

कानपुर की शाइराना फ़िज़ां में अखिलेश तिवारी के अन्दर का शाइर बहुत जल्द जवान हो गया। अपने मुतआले (अध्ययन ) को ही इन्होने अपना उस्ताद बना लिया और वक़्त के साथ - साथ अखिलेश ग़ज़ल की कठिन और उबड़ -खाबड़ पगडण्डी पे बड़ी आसानी से चलना तो क्या दौड़ना सीख गये । शाइरी का अपना एक रहस्य होता है ये वो समय था जब अखिलेश उस रहस्य को जान चुके थे और अखिलेश तिवारी इस तरह के शे'र कहने लगे कि कानपुर के कई तनक़ीद वाले ये सोचने लगते कि ये नीली - नीली आँखों वाला मासूम सा नौजवान क्या ऐसे शे'र कह सकता है ?" ऐसे" वाले अशआर मुलाहिज़ा फरमाएं :--

ख़्वाबों की बात हो ख़यालों की बात हो

मुफ़लिस की भूख उसके निवालों की बात हो

अब ख़त्म भी हो गुज़रे ज़माने का तज़्किरा

इस तीरगी में कुछ तो उजालों की बात हो

***

बस इसी जुर्म छिनी गई मेरी नींदें

क्यूँ अँधेरों में मेरे ख़्वाब चमकदार रहे

है तेरी याद की पुरवाई मयस्सर मुझको

और होंगे जो बहारों के तलबगार रहे

अखिलेश तिवारी ने शाइरी में रिवायत का जो सबक ग़ालिब और मीर के दीवान से सीखा उसे अपने अन्दर इस तरह तहलील कर लिया है अगर वे ख़ुद भी चाहें तो रिवायत का साथ नहीं छोड़ सकते आज के दौर में रवायत का दामन थामे रखना भी आसान थोड़ी है उन्होंने ख़ुद अपने एक शे'र में कहा है :--

बजा है यूँ तो रवायत की फ़िक्र भी लेकिन

बिखर जाए कहीं ज़िन्दगी क़रीने में

ग़ज़ल कहना किसी मीनाकारी से कम नहीं है ये तो मुआमला शीशागीरी का है। एक ही बात को मुख्तलिफ़ -मुख्तलिफ़ शाइर अलग - अलग ज़ाविए (कोण ) से कहते हैं। इशारों और अलामतों के ज़रिये अपनी बात कहने के फ़न में अखिलेश महारथ रखते हैं। परिंदे और पिंजरे को प्रतीक बनाकर एक ऐसी ग़ज़ल अखिलेश तिवारी की क़लम से निकली जो आज उनकी शनाख्त बन गई है :-

मुलाहिज़ा हो मेरी भी उड़ान ,पिंजरे में

अता हुए है मुझे दो जहान पिंजरे में

यहीं हलाक़ हुआ है परिंदा ख़्वाहिश का

तभी तो है ये लहू के निशान ,पिंजरे में

फ़लक पे जब भी परिंदों कि सफ़ नज़र आई

हुई है कितनी ही यादें जवान ,पिंजरे में

तरह तरह के सबक इसलिए रटाए गए

मैं भूल जाऊँ खुला आसमान ,पिंजरे में

अखिलेश तिवारी का ये शे'र तो न जाने कितनों का दर्द अपने आप में समेटे हुए है

जाने क्यूँ पिंजरे की छत को आसमाँ कहने लगा

वो परिंदा जिसका सारा आसमाँ होने को था

वैसे तो हर इन्सान में एक परिंदा होता है और एक शिकारी भी पर अखिलेश तिवारी को इतना पढ़ लेने के बाद ये तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इनमें सिर्फ़ एक मासूम सा परिंदा है जो पिंजरे की छत को ही अपना आसमाँ समझता है अगर उसके पर निकलने लगते है तो ये परिंदा अपने परों को ख़ुद ही नोच लेता है क्यूंकि अखिलेश तिवारी उसकी क़फ़स है और इस क़फ़स से उसे मुहब्बत हो गई है।

भीड़ में रहने की क़ीमत ये चुकाई अक्सर

हमने तन्हाई ही बस ओढ़ी -बिछाई अक्सर

ख़्वाहिशें क़ैद रहीं दिल के क़फ़स में बरसों

इन परिंदों को मिल पाई रिहाई अक्सर

दो मरतबा मुशायरे में भी अखिलेश भाई को सुनने का अवसर मिला ,मुशायरे के मंच की विद्या बड़ी अजीब होती है। अखिलेश तिवारी आते हैं बिना किसी तमहीद और अदाकारी के तहत में अपना क़लाम पढ़कर चले जाते हैं। वे न तो सामईन से दाद की गुज़ारिश करते है न किसी से ये कहते हैं कि आपकी तवज्जो चाहता हूँ। उनका सधा हुआ क़लाम अपनी दाद ख़ुद बटोरता है और तवज्जो तो स्वयं ही मजबूर हो जाती है अखिलेश को सुनने के लिए। उनके इन मिसरों से आप अन्दाज़ा लगा सकते हैं :--

हम समझे थे रब का है

वो तो बस मज़हब का है

शे' तेरे सब अदबी है

दौर मगर करतब का है

****

ख़ुद से ही संवाद है शायद

क्या है तेरी याद है शायद

सीने पे पत्थर रखा है

रिश्तों की बुनियाद है शायद

ग़ज़ल की राह पर तक़रीबन बीस साल से अखिलेश अपना शाइरी का सफ़र मुसलसल जारी रखे हुए है वो भी बिना किसी अदबी माफिया के सहारे के, हाँ अगर उन्होंने कोई सहारा लिया है तो वो है रवायत का , ग़ज़ल का जो परम्परागत स्वरुप है उसको उन्होंने कभी नहीं छोड़ा है अगर मैं ये कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अखिलेश शाइरी के मैदान के संजय मांजरेकर हैं जो कि अपना हर स्ट्रोक शास्त्रीयता के साथ खेलते थे। मैं ये बात एक हबीब की हैसियत से नहीं कह रहा उनके अशआर मजबूर करते हैं ये कहने के लिए :--

एक दिन आख़िर महल को तो खंडर होना ही था

ख़्वाहिशें थी ख्वाहिशों को दरबदर होना ही था

***

तमाम उम्र जो बैसाखियाँ छोड़ सका

वही करे है नसीहत मुझे संभलने की

***

तजरिबे थे जुदा-जुदा अपने

तुमको दाना दिखा था,जाल मुझे

मैं ज़मीन भूलता नहीं हरगिज़

तू बड़े शौक़ से उछाल मुझे

अखिलेश तिवारी ने जो दो दशक से शाइरी की इबादत की थी वो किताब की शक्ल में अभी - अभी मंज़रे आम पे आई है।लोकायत प्रकाशन , जयपुर ने इसे बड़ी ख़ूबसूरती और दिल से छापा है। इसका नाम उनके एक शे'र के मिसरे में से लिया गया है जो अपने आप में मुकमल मिसरा है " आसमाँ होने को था " अखिलेश तिवारी को 2005 में लखनऊ महोत्सव में अदब की ख़िदमत के लिए नवाज़ा गया ,राजस्थान पत्रिका ने भी अखिलेश भाई को सम्मानित किया और जयपुर का प्रतिष्ठित पुरस्कार "कमलाकर कमल " से भी अखिलेश तिवारी नवाज़े गये हैं।

यूँ तो शाइरी में एहसास के आगे लफ़्ज़ फीके पड़ जाते हैं पर अखिलेश तिवारी लफ़्ज़ों को बरतने के फ़न से ख़ूब वाकिफ़ है उनका लफ़्ज़ों का इन्तिख़ाब कमाल का होता है उनके कुछ शे'रों में तो ऐसे लगता है कि एहसास पे लफ़्ज़ भारी पड़ रहे हैं :--

धूल उड़ती है दिल की राहों पर

तेरी यादों का कोई लश्कर है

झूठ ने कितने पैरहन बदले

सच मगर आज तक दिगंबर है

याद को लश्कर लफ्ज़ के साथ बाँधना और दिगंबर शब्द का अदभुत प्रयोग इस बात की तस्दीक करता है कि अखिलेश लफ़्ज़ों की माला पिरोने में सिद्धहस्त हो गये हैं।

झूठ ने चाहें कितने भी पैरहन बदल लिए हो मगर अखिलेश तिवारी कि शाइरी पैरहन नहीं बदलती है। वो अपनी ग़ज़ल की रेल को तहज़ीब और रवायत की पटरी से उतरने ही नहीं देते उनके ये अशआर तो इस बात की पुरज़ोर वक़ालत करते हैं :--

मुड़ा तुड़ा ये तसव्वुर ,जली बुझी हसरत

हमारे पास है उसकी निशानियाँ क्या क्या

कभी लतीफा, कभी क़हक़हा ,कभी महफ़िल

बस एक ग़म के लिए सावधानियाँ क्या क्या

***

ज़िन्दगी को हम पहेली की तरह करते थे हल

एक बच्चे ने उसे मुस्कान जैसा कर दिया

वो जो अपने दौर में गुलशन था, उसको वक़्त ने

मुख़्तसर इतना किया गुलदान जैसा कर दिया

अखिलेश तिवारी की ग़ज़ल में वो सब बातें नज़र आती है जो एक ग़ज़ल के मदरसे में सिखाई जाती है उनकी ग़ज़ल में अगर रुमान का शे'र है तो उसमें सूफियाना झलक भी मिलती है

किसे जाना कहाँ है मुनहसिर होता है इस पर भी

भटकता है कोई बाहर तो कोई घर के भीतर भी

फ़लसफ़ों की किताब खोलकर ज़िन्दगी को ज़िन्दगी की तरह नहीं जिया जा सकता मगर अखिलेश तिवारी की शाइरी अपने आप में फ़लसफ़ों की एक मुकमल किताब है उनके कुछ शे'रों में तो एक- एक मिसरा ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा है

क़द और बढ़ता है सर को ज़रा सा ख़म करके

न हो तो देख कभी अपने "मैं" को हम करके

उस एक सच से मुसीबत में जान थी कितनी

मज़े में कट भी गई ज़िन्दगी भरम करके

देख आवारगी से क्या हुआ हासिल मुझको

अपने कांधों प लिए फिरती है मंज़िल मुझको

ग़ज़ल किसी मूर्तिकार की बनाई हुई मूरत की तरह होती है संगतराश पत्थर को तराश कर उसे एक ख़ूबसूरत शक्ल में तब्दील कर देता है फिर लगता है कि मूरत अभी बोल पड़ेगी ठीक इसी तरह शाइर अपने कहन के शिल्प से बेजान से लफ़्ज़ों में जान फूँक देता है। अखिलेश की शाइरी का सबसे ताक़तवर पहलू है उनका शिल्प मिसाल के तौर पे उनके ये अशआर :--

सहरा ,सराब,धूप ,नदी, आइना ,दरख्त

इक चेहरा कितने चेहरों में तब्दील हो गया

टूटा खिलौना और वो बच्चे की चश्मे-नम

एक क़तरा ज्यों दरियाओं की तफ़सील हो गया

**

हरेक शय में दलीलों की यूँ शुमारी की

जो उसने की भी मुहब्बत तो इश्तिहारी की

बरस बरस के चुकाना है उसको अश्कों से

कभी ज़मीन से बादल ने जो उधारी की

वो क़लमकार बहुत खुशनसीब होता है जिसकी क़लम ऐसा कुछ लिख जाती है कि वो तहरीर फिर किसी दौर की मोहताज़ नहीं रहती वो क़लाम चाहें किसी भी दौर में पढ़ा जाय बस यूँ ही लगता है कि ये तो आज का ही है। ऐसे बहुत से शे'र अखिलेश तिवारी के खाते में है जिन्हें तीन सौ साल पहले का कहा जा सकता है , आज का भी और तीन सौ साल बाद का भी बतौर मिसाल उनके ये शे'र :--

सदियों से इसके बाब है वहशत ,जुनूनो -दार

बदला कहाँ है इश्क़ ने अपने निसाब को

(बाब =अध्याय) (निसाब =पाठयक्रम )

***

हर हाल में ख़ुशबू के तरफदार रहे हम

बस इसलिए ख़ारों में गिरफ़्तार रहे हम

अपनी मुलाज़मत के सिलसिले में अखिलेश भाई को तीन साल लखनऊ रहने का मौक़ा मिला लखनऊ से तो गुज़रने भर से ही तहज़ीब लिपट जाती है फिर ऐसा कैसे हो सकता था कि उनके कहन में लखनऊ की ख़ुशबू न आये :--

दिल कि बस्ती की तरफ़ भी कभी हो लेते तुम

तुमने तो छोड़ ही रखा है उधर जाना भी

***

पानी में जो आया है तो गहरे भी उतर जा

दरिया को खंगाले बिना गौहर मिलेगा

दर-दर यूँ भटकता है अबस जिसके लिए तू

घर में ही उसे ढूंढ वो बाहर मिलेगा

(अबस=व्यर्थ)

जिस तरह अखिलेश तिवारी नई उम्र के पुराने शाइर है उसी तरह उनकी शाइरी नई बोतल में पुरानी शराब की मानिंद है। जैसे तवील उम्र तक बंजर ज़मीन पर तमन्ना के दरख्त को हरा -भरा रखना एक करिश्माई काम है वैसे ही अपने एहसासात से बिना बगावत किये हुए अपने लफ़्ज़ों को मआनी देना भी एक दुश्वारतरीन काम है और ये काम अखिलेश बड़ी आसानी से कर रहे हैं। शाइरी के अथाह महासागर में अखिलेश लहरें गिन-गिन कर शनावर(तैराक ) नहीं हुए हैं। इसके लिए वो समन्दर की तह तक डूब कर गये है। अपनी शाइरी को मोतबर करने के लिए उन्होंने अपने लफ़्ज़ों को उन्हीं की आंच में दहका कर अलाव किया है, तभी तो लम्हों की दहलीज़ पे आकर सदियाँ उनकी तख़लीक को सलाम करती है। अदब को ये एतबार तो अखिलेश तिवारी पे हो गया है कि अपनी तलाश में चाहें वो ख़ुद खो जाएगा मगर ग़ज़ल को ग़ज़ल के पैकर में हिफ़ाज़त से रखेगा। आख़िर में इसी दुआ के साथ कि अखिलेश तिवारी के लहजे से ख़ाकसारी यूँ ही टपकती रहे ,उनका मिज़ाज परिंदा सिफत बना रहे और ग़ज़ल अपने बेहतरीन हाल ,ख़ूबसूरत मुस्तक़बिल के लिए मुतमईन रहे इस गुमान के साथ कि मुझे अखिलेश तिवारी जैसे शाइर कह रहे हैं।

हम उन सवालों को लेकर उदास कितने थे

जवाब जिनके यहीं आसपास कितने थे

हँसी, मज़ाक ,अदब महफ़िलें सुख़नगोई

उदासियों के बदन पर लिबास कितने थे

हमें ही फ़िक्र थी अपनी शिनाख्त की "अखिलेश"

नहीं तो चेहरे ज़माने के पास कितने थे

विजेंद्र शर्मा

vijendra.vijen@gmail.com

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: विजेंद्र शर्मा का आलेख - एक शख्सियत… अखिलेश तिवारी
विजेंद्र शर्मा का आलेख - एक शख्सियत… अखिलेश तिवारी
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