मंगल नसीम मुझको था ये ख़याल कि उसने बचा लिया और उसको ये मलाल कि ये कैसे बच गया एक शख्सियत .........मंगल नसीम यूँ तो साहित्य में बहुत सी व...
मंगल नसीम
मुझको था ये ख़याल कि उसने बचा लिया
और उसको ये मलाल कि ये कैसे बच गया
एक शख्सियत .........मंगल नसीम
यूँ तो साहित्य में बहुत सी विधाएं है मगर ग़ज़ल अदब की वो सिन्फ़ (विधा ) है जो अपने अरूज़ के साथ आयी ,छायी और अदब के आसमान पे आज तक छायी हुई है। ग़ज़ल की नाज़ुकी , ग़ज़ल की ख़ूबसूरती और दो मिसरों में सदियों की दास्तान कह देने की ख़ुसूसियत की वजह से साहित्य की दूसरी विधाओं से जुड़े बड़े- बड़े साहित्यकार भी ग़ज़ल के चुम्बकीय आकर्षण से बच नहीं पाये यहाँ तक कि हिन्दी साहित्य के स्तम्भ रहे जयशंकर प्रसाद , सूर्यकांत "निराला" , हरिवंश राय बच्चन और महादेवी वर्मा ने भी अपनी क़लम का रुख़ ग़ज़ल की जानिब किया।
ग़ज़ल के इसी आकर्षण ने आज से तक़रीबन 35 -37 बरस पहले पुरानी दिल्ली के एक कारोबार से त-अल्लुक़ रखने वाले ख़ानदान के चिराग़ को भी अपनी ओर आकर्षित किया और तब से आलम ये है कि आज तक वो चिराग़ इसकी मुहब्बत की गिरफ़्त से फ़रार नहीं हो पाया अगर उसके अन्दर के परिंदे ने ग़ज़ल के क़फ़स से कभी आज़ाद होना भी चाहा तो वो ख़ुद ही अपने परों को नोचने लगा। ग़ज़ल से इतनी मुहब्बत करने वाले और गेसू -ए -ग़ज़ल की असीरी (क़ैद) में बड़े सलीक़े से अपनी ज़िन्दगी बसर करने वाले इस सलीक़ामन्द शाइर का नाम है "मंगलनसीम"।
मंगल नसीम साहब का जन्म पुरानी दिल्ली के खारी बावली में 20 सितम्बर 1955 को हुआ ,इनके वालिद श्री रामेश्वर दास जी का कत्थे का बड़ा कारोबार था सो घर में सिर्फ़ कारोबारी माहौल था, शाइरी के बादल तो इनके घर के क़रीब से भी गुज़रने में परहेज़ करते थे। मंगल नसीम साहब की शुरूआती तालीम दिल्ली में ही हुई इन्होने बी.कॉम . दिल्ली यूनिवर्सिटी से किया। अपने कॉलेज के दिनों में शाइरी की तरफ़ मंगल नसीम साहब का रुझान हुआ। दिल्ली में हुए कुछ अदबी कार्यक्रमों और नशिस्तों में नसीम साहब की मुलाक़ात असद भोपाली ,कैफ़ भोपाली ,महेंद्र प्रताप चाँद और सतनाम सिंह" ख़ुमार " साहब से हुई और यहीं से मंगल नसीम साहब के अन्दर जो शाइरी का बीज था वो पल्लवित होने लगा। इन सब की सोहबतों का असर था कि मंगल नसीम साहब की क़लम हरक़त में आ गई और फिर जब काग़ज़ पे क़लम उतरी तो उसने इस ग़ज़ल से शाइरी की दुनिया में दस्तक दी :----
सीने के ज़ख्म दर्द उभारे चले गये
जैसी भी हम पे गुज़री गुज़ारे चले गये
कश्ती मेरे वजूद की जब डूबने लगी
दो हाथ और दूर किनारे चले गये
1975 से नसीम साहब बाक़ायदा मुशायरों और नशिस्तों में शिरकत करने लगे। अपने अदीब दोस्तों की सलाह पे उन्होंने उस वक़्त कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी में प्राणी विज्ञान के विभागाध्यक्ष जनाब डॉ. सत्य प्रकाश शर्मा "तफ्ता " साहब से ख़ुद को अपना शागिर्द बनाने की गुज़ारिश की जिसे तफ्ता साहब ने तस्लीम कर लिया। तफ्ता साहब ने सबसे पहले ग़ज़ल की रूह तक पहुँचने के लिए नसीम साहब को उर्दू सिखाई और फिर धीरे - धीरे ग़ज़ल के अरूज़ ,ग़ज़ल कहने की सलाहियत ,उसके तमाम एब -ओ -हुनर से नसीम साहब वाक़िफ़ हो गये। अपने उस्ताद के क़दमों में बैठकर नसीम साहब को तर्ज़े- सुख़न के साथ-साथ ये हुनर भी आ गया कि पत्थर को पानी से कैसे काटा जाता है। मश्क की भट्टी में तपने के बाद अगर कोई शे'र कहता है तो फिर निश्चित तौर पे क़लाम इस तरह का मेयारी ही होता है :----
यूँ हुआ , काँधे पे उसके मैंने जब सर रख दिया
उसने चुपके से मेरी गर्दन पे ख़ंजर रख दिया
तुहमते -तर्के -तअल्लुक़ उससे उठती भी कहाँ
उसने अच्छा ही किया ,इल्ज़ाम मुझ पर रख दिया
मंगल साहब को लगा कि कुछ कहने से पहले अच्छा मुताअला (अध्ययन ) होना बहुत ज़रूरी है सो उन्होंने बहुत से विश्वविद्यालयों की ख़ाक छानी और वहाँ की लाइब्रेरी में घंटों - घंटों बैठ अपनी नज़रों से किताबों पे जमी धूल को साफ़ कर मीर से लेकर फ़िराक़ , फ़ैज़ से लेकर बशीर तक जितने शउरा थे सब पढ़ डाले। उन्हें जदीद शाइरों में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ , अहमद फ़राज़ , सैफ़ुद्दीन सैफ़, फ़िराक़ गोरखपुरी , बशीर बद्र और निदा फ़ाज़ली ने बड़ा मुतास्सिर किया। मंगल नसीम साहब ने ग़ज़ल को अपना शौक़ नहीं बनाया उन्होंने ग़ज़ल को इबादत का दर्जा दिया और फिर ग़ज़ल के इस साधक ने अपनी साधना से शे'र कहे तो ऐसे कहे :---
हँस के मिलते हैं ,भले दिल में चुभन रखते हैं
हम से कुछ लोग मोहब्बत का चलन रखते हैं
पाँव थकने का तो मुमकिन है मुदावा लेकिन
लोग पैरों में नहीं मन में थकन रखते हैं
'ठीक हो जाओगे' कहते हुए मुँह फेर लिया
हाय। क्या ख़ूब वो बीमार का मन रखते हैं
हम तो हालात के पथराव को सह लेंगे "नसीम"
बात उनकी है जो शीशे का बदन रखते हैं
आज की नस्ल में ग़ज़ल कहने वाले मुट्ठी भर लोग भी ऐसे नहीं है जो छपने से पहले तपना चाहते हों ,सब्र नाम की शै से तो उनका कोई मेल-मिलाप ही नहीं है। नस्ले-नौ ( नई पीढ़ी ) चाहती है कि आज ग़ज़ल सीखें ,कल कहें और परसों शुहरत मिल जाए और उस से अगले दिन यह सब कमाई का ज़रिया बन जाए। मंगल नसीम साहब एक मिसाल है जिन्होंने ना तो एक दिन में ग़ज़ल सीखी ना ही एक दिन में कही और ना ही ग़ज़ल को कमाई का ज़रिया बनाया। नसीम साहब ने अपने कहे दो मिसरों को तब तक शे'र नहीं माना जब तक उनपे उनके उस्ताद "तफ्ता" साहब की मुहर ना लग जाय।
तसल्ली , मशक्क़त और सलीक़े के धागे से एहसासात के दुपट्टे पे जब मंगल नसीम साहब ने लफ़्ज़ों के बेल-बूटे अपने कहन की कशीदाकारी से टाँके तो ग़ज़ल का ख़ूबसूरत कढ़ा हुआ दुपट्टा यूँ नज़र आया :----
ये ज़िन्दगी जीते हैं हम उनके लिए जिनको
हम अपना समझते हैं, पर अपने नहीं होते
महदूद उडानों में उड़ लेना ,उतर आना
पाले हुए पंछी के पर अपने नहीं होते
घर अपने कई होंगे, कोठों की तरह लेकिन
कोठों के मुक़द्दर में घर अपने नहीं होते
(महदूद =सिमित)
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अगर इंसान की उम्मीद ही दम तोड़ जाती है
तो अक्सरआरज़ू-ए-ज़ीस्त भी दम तोड़ जाती है
जहाँ से दोस्ती में फ़ायदा-नुक्सान हो शामिल
हक़ीकत में वहीं पे दोस्ती दम तोड़ जाती है
शाइरी में उस्ताद -शागिर्द की रिवायत बड़ी अहमियत रखती है। साहित्य की अन्य विधाओं और शाइरी में यह एक बड़ा फ़र्क़ है इस रिवायत में उस्ताद से ली गई इस्लाह शे'र की क़िस्मत बदल के रख देती है। मंगल नसीम साहब कहते हैं कि जब कोई शाइर उस्ताद बनता है तो उसकी शाइरी की उम्र तक़रीबन तीस- पैंतीस बरस से ज़ियादा की हो जाती है और जो शागिर्द होता है उसकी शाइरी की उम्र सीधी तीस- पैंतीस बरस बढ़ जाती है जब तीस बरस बाद वही शागिर्द उस्ताद बनता है तो उसके शागिर्द की शाइरी की उम्र साठ-सत्तर से ज़ियादा बरस की हो जाती है इस तरह उस्ताद-शागिर्द की रिवायत एक नए शाइर को कितना बड़ा तजुर्बा मुहैया करवाती है। मंगल नसीम साहब का तअल्लुक़ भी दाग़ स्कूल से है अगर दाग़ से लेकर उनके उस्ताद तक की शाइरी की उम्र और तजुर्बा देखें तो ये तक़रीबन150 साल से ज़ियादा का है, नसीम साहब की शाइरी में जो इतनी गहराई है इसकी बहुत बड़ी वजह यह रिवायत भी है। मंगल साहब की ग़ज़लियात का एक -एक मिसरा अपने अन्दर के तजुर्बे और कारीगिरी को दर्शाता है :---
तोड़ ले जाते हैं पत्तों को गुज़रने वाले
इतनी नीची मिरे एहसास की डाली क्यूँ है
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नन्ही सी चिड़िया बाज के पंजे में देखकर
सपनों में रात भर उसे बिटिया दिखाई दी
इंसानियत हूँ ,जाती हूँ ढूंढोगे एक दिन
बस इतना कह के फिर न वो बुढ़िया दिखाई दी
ग़ज़ल कहना कोई खेल नहीं है एक तपस्या है,कशीदाकारी है और बहुत बड़ी फ़नकारी है अगर हम मान लें कि यह एक खेल है तो मंगल नसीम साहब इस खेल के एक मंझे हुए खिलाड़ी है। कौन सा लफ़्ज़ कहाँ और कैसे इस्तेमाल करना है नसीम साहब के क़लाम को पढ़कर यह कमाल सीखा जा सकता है। चाहें हिन्दुस्तानी ज़ुबान के आम-बोलचाल के अल्फ़ाज़ हों या फ़ारसी, अरबी के अल्फ़ाज़ इन्हें कब ,कहाँ और कैसे बरतना है नसीम साहब बख़ूबी जानते हैं :---
मेरी आँखों में ये जो पानी है
यार लोगों की मेहरबानी है
ज़िन्दगी हाल-ओ-माज़ी-ओ-फ़र्दा
तीन लफ़्ज़ों की तर्जुमानी है
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अपना जब दुश्मन होता है
कैसा - कैसा मन होता है
मुझसे मेरा मन मत माँगो
मन का भी इक मन होता है
सुन्दरता होती है मन की
तन तो पैराहन होता है
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नहीं, हममें कोई अनबन नहीं है
बस इतना है कि अब वो मन नहीं है
मैं अपने आपको सुलझा रहा हूँ
उन्हें लेकर कोई उलझन नहीं है
मंगल नसीम साहब तीन सौ साल पहले की और आज की ग़ज़ल में कोई ज़ियादा फ़र्क़ नहीं देखते उन्हें लगता है कि पहले ग़ज़ल की शक्लो - सूरत पाज़ेब जैसी थी और ग़ज़ल महज़ महबूब से गुफ़्तगू तक ही महदूद थी जबकि आज की ग़ज़ल ने अपने दौर की मुश्किलात को भी अपने अन्दर समेट लिया है मगर ग़ज़ल का पैकर वही का वही है यही ग़ज़ल की ख़ूबसूरती है जो इसे आज तक सबका महबूब बनाए हुए है। इस बात से भी नसीम साहब इतेफाक़ रखते हैं कि कुछ नए लोग भी नई सोच के साथ पुर-असर ग़ज़लें कह रहे हैं।
मंगल नसीम साहब ने भी अपनी बात कहने के लिए अलग - अलग ज़ाविये तलाश किये है और उन्हें अपने अशआर में ढाला है चाहें फिर मफहूम ‘माँ ‘ के प्रति श्रद्धा का हो , ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा हो या फिर उन्हें ज़माने को कोई नसीहत देनी हो :----
क्या सीरत , क्या सूरत थी
माँ ममता की मूरत थी
पाँव छुए और काम हुए
अम्माँ एक महूरत थी
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रुकता नहीं तमाशा ,रहता है खेल जारी
उस पर कमाल ये है दिखता नहीं मदारी
दुनिया के खेल का है क्या आँकड़ा जमूरे ?
जितना बड़ा तमाशा ,उतना बड़ा मदारी
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परिंदे। हौसला कायम उड़ान में रखना
हर इक निगाह तुझी पर है ,ध्यान में रखना
हर इम्तिहान पे मंज़िल क़रीब आती है
हमेशा ख़ुद को किसी इम्तिहान में रखना
मंगल नसीम साहब का पहला मज़्मुआ ए क़लाम "पर नहीं अपने " (उर्दू और नागरी )1992 में मंज़रे- आम पे आया। इसके ठीक अठारह साल बाद इनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह "तीतरपंखी " (उर्दू और नागरी ) 2010 में ग़ज़ल से मुहब्बत करने वालों को बतौर तोहफ़ा मिला। नसीम साहब को हिन्दी और उर्दू दोनों ज़ुबानों से रब्त रखने वाली बहुत सी अदबी -तंजीमों ने एज़ाज़ात से नवाज़ा। मंगल नसीम साहब का दिल्ली में अपना प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान "अमृत प्रकाशन " के नाम से है जिससे सिर्फ़ साहित्य और सिर्फ़ साहित्य से ही सम्बंधित किताबें छपती हैं।
नई नस्ल के बहुत से शाइर मंगल नसीम साहब के शागिर्द है। इनके शागिर्द बताते हैं कि ऐसा उस्ताद नसीब वालों को ही मिलता है। अगर इनके शागिर्द रात के 2 बजे भी कभी इन्हें फोन करके अपना मिसरा सुनाते हैं तो नसीम साहब बड़ी ख़ुशी से उस वक़्त भी इस्लाह करते हैं। किसी उस्ताद का ऐसा किरदार देख कर मुझे कहीं सुनी हुई एक बात याद आ गई कि "दुनिया में ख़ुदा ने बाप और गुरु को ही ये सिफ्त अता की है कि उन्हें अपने बेटे और शिष्य से कभी इर्ष्या नहीं होती ये दोनों चाहते हैं कि मेरा बेटा / शिष्य मुझसे भी आगे जाए और अपना नाम रौशन करे। "
मंगल नसीम साहब की कही ग़ज़ल में एक भी मिसरा ऐसा नज़र नहीं आता जिसमें शाइरी के साथ-साथ उस्तादी ना झलकती हो ,इस बात की तस्दीक के लिए इनकी एक ग़ज़ल का मतला और दो शे'र मुलाहिज़ा फ़रमाएँ :---
यूँ ज़ख़्म उसने हाल में जलते हुए दिये
रखने पड़े मिसाल में जलते हुए दिये
पूजा के थाल जैसा वो चेहरा लगा मुझे
दो नैन जैसे थाल में जलते हुए दिये
मेहंदी रची हथेलियाँ लहरों ने चूम लीं
छोड़े जब उसने ताल में जलते हुए दिये
इस ग़ज़ल में "जलते हुए दिये" रदीफ़ को निभाना अपने आप में अदभुत है। जैसा मैंने पहले भी ज़िक्र किया कि मंगल नसीम साहब शे'र कहने में जल्दबाजी नहीं करते और जब तक वे ख़ुद मिसरों की शे'र में तब्दीली पे मुतमईन नहीं हो जाते तब तक उस शे'र को काग़ज़ पे हाज़िरी भी नहीं लगाने देते। पिछले दिनों कही उनकी एक ताज़ा ग़ज़ल का एक मतला और एक शे'र समाअत करने के बाद आप इस नतीजे पे बड़ी आसानी से पहुँच जायेंगे की मेहनत और सब्र का शाइरी में क्या रोल होता है :-
इतने सदमे ,इतने आँसू , इतने दिन रोने के बाद
होने को बाक़ी ही क्या है इतना कुछ होने के बाद
दुनिया के बाज़ार में हर इक शै की क़ीमत होती है
चीज़ों की पाने से पहले, रिश्तों की खोने के बाद
इस शे'र में पाना और खोना को इतनी ख़ूबसूरती से बाँधना ,मंगल नसीम साहब की शाइरी के फ़नी कारनामे की एक झलक है।
मंगल नसीम साहब का किरदार "तीतरपंखी" बादल की माफ़िक है जिससे सबको आस रहती है कि यह बादल ज़रूर धरती की प्यास बुझाएगा। मंगल नसीम साहब ग़ज़ल से मुहब्बत करने वालों को कभी निराश नहीं करते ग़ज़ल के बारे में उनसे गुफ़्तगू रात के तीसरे पहर भी की जा सकती है।
आज के मुशायरों का जो मेयार गिरता जा रहा है उससे मंगल नसीम साहब फिक्रमंद तो है पर वे ये भी मानते हैं कि हिन्दुस्तान में आज भी मुशायरों में अदब अभी तक बे-अदब नहीं हुआ है। आज भी हमारी नई नस्ल के लोग बुज़ुर्ग शाइरों की इज़्ज़त करते हैं , उन्हें छोटे -बड़ों का लिहाज़ है परन्तु कवि -सम्मेलनों की आज जो दशा हुई है उससे नसीम साहब थोड़े आहत हैं। वे कह्ते है कि एक ज़माना था जब कवि सरस्वती का प्रसाद समझ कर कवि सम्मलेन में मिलने वाली राशि को बड़ी ख़ुशी -ख़ुशी रख लेते थे पर आज जिन्हें कविता से कोई सरोकार भी नहीं है ,जो सिर्फ़ लतीफ़ों के सहारे अपनी दुकानें चला रहें हैं वे भी आयोजकों से पहले पैसों की बात करते हैं। मंगल साहब मानते हैं कि ये विडम्बना ही है कि कवि सम्मलेन के लोग गुरु -शिष्य परम्परा के भी पक्षधर नहीं है और जब उनसे उनके गुरु के बारे में पूछा जाय तो वे कह्ते है कि "जीवन के विश्वविद्यालय में ख़ुद ही पढ़े हैं और ख़ुद ही पढ़ाया है " दूसरी तरफ़ उर्दू शाइरी में उस्ताद का होना फ़ख्र की बात समझी जाती है और बे-उस्तादा शाइर को ग़रीब नज़रों से देखा जाता है।
नई नस्ल को मंगल नसीम साहब यही मशविरा देते हैं कि छोटे रास्ते अपनाने की बजाय मेहनत और मशक्कत का रास्ता चुने ,शाइरी जिगर सोज़ी का काम है अगर आप को कोई मुक़ाम हासिल करना है तो दिये की तरह जलना होगा , बड़े- छोटे का लिहाज़ रखना होगा , अगर नज़रें नीची रहेंगी तो क़द ख़ुद ब ख़ुद ऊँचा हो जाएगा। मंगल साहब बड़ों के आशीर्वाद को सबसे अहम् चीज़ मानते हैं वे कहते हैं कि अगर किसी बच्चे ने ये दौलत हासिल कर ली तो फिर उसे सब कुछ हासिल होना तय है।
मंगल नसीम साहब जैसी सलाह देते हैं उसपे ख़ुद अमल भी करते हैं वे अपने आप को एक ऐसा ख़ुशनसीब शाइर मानते हैं जिसे बुज़ुर्गों से आशीर्वाद , साथियों से मुहब्बत और छोटों से एहतराम मिला। मंगल साहब इस बात से भी बड़े मुतमईन नज़र आते हैं कि उनके वजूद को हिन्दी और उर्दू के ख़ेमों में बाँटा नहीं गया। वाकई मंगल नसीम अदब की वो शख्सीयत हैं जिसका ज़िक्र उर्दू और हिन्दी दोनों सतहों पर बेहद इज़्ज़त -ओ -एहतराम से होता है।
आख़िर में इसी दुआ के साथ कि नई पीढ़ी मंगल नसीम साहब के मशविरों पे अमल करे और ग़ज़ल का ये घना दरख़्त अपने तजुर्बे के साए से नई नस्ल की शाइरी को चकाचौंध की शदीद धूप से बचाता रहे।
माना हमारे हक़ में बहुत कुछ हुआ ,मगर
जैसा कहा था आपने ,वैसा कहाँ हुआ
सींचा लहू से हमने ग़ज़ल को तमाम उम्र
लेकिन ग़ज़ल में ज़िक्र हमारा कहाँ हुआ
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विजेंद्र शर्मा
Vijendra.vijen@gmail.com
मंगल नसीम साहब के बारे में इतना सटीक और उम्दा लिख पाना ढेरों साधुवाद
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