रचनाकार पर पोस्ट करने हेतु भेजने के लिए प्राप्त पुराने पत्रों को उलटते-पलटते हुए न केवल असंख्य पुरानी यादें ताज़ा हो गईं अपितु समय के साथ कित...
रचनाकार पर पोस्ट करने हेतु भेजने के लिए प्राप्त पुराने पत्रों को उलटते-पलटते हुए न केवल असंख्य पुरानी यादें ताज़ा हो गईं अपितु समय के साथ कितना कुछ बदल गया है इसका भी शिद्दत के साथ अहसास हुआ। हर पत्र बीती हुई घटनाओं का सबूत तथा इतिहास का दस्तावेज़ बनने के साथ-साथ पुनर्मूल्यांकन तथा नई गवेषणा अथवा अनुसंधान के लिए भी पर्याप्त आधार प्रस्तुत करने में सहायक बनता है। कभी-कभी हम जिस तथ्य को सामान्य समझने की भूल कर बैठते हैं वह विशिष्ट ही नहीं अति विशिष्ट होता है।
विष्णु प्रभाकरजी के इस पत्र को ही लीजिए। दिनाँक 22:04:1986 को लिखे इस पत्र में विष्णु प्रभाकरजी लिखते हैं, ‘‘ भाई में कवि नहीं हूँ, इसलिए अपनी कोई कविता भेजना संभव नहीं होगा।’’ संयोग से कल ही (दिनाँक 28:05:2012 को) ‘‘आजकल’’ हिन्दी मासिक का जून 2012 अंक मिला। यह एक विशेषांक है जो विष्णु प्रभाकरजी पर ही केंद्रित है। विष्णु प्रभाकरजी का जन्म 21 जून सन् 1912 को हुआ था अतः ये उनका शताब्दी वर्ष है। ‘‘आजकल’’ हिन्दी मासिक के प्रस्तुत अंक में विशेष रूप से विष्णु प्रभाकरजी के कृतित्व तथा उनकी रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गया है। उनकी कोई गद्य रचना इसमें सम्मिलित नहीं है लेकिन कुछ कविताएँ अवश्य दी गई हैं।
इससे पहले मैंने भी उनकी कोई काव्य रचना नहीं देखी और विष्णु प्रभाकरजी ने उपरोक्त पत्र में स्वयं स्वीकार किया है कि वे कवि नहीं हैं अतः इस विषय में मेरी जिज्ञासा बढ़ना स्वाभाविक है। वर्ष 2002 में ‘‘आजकल’’ हिन्दी मासिक में ही उनकी एक कहानी ‘‘ईश्वर का चेहरा’’ पढ़कर मैंने अपनी प्रतिक्रिया दी थी और उसके उत्तर में विष्णु प्रभाकरजी ने ऐसी ही कहानियों का संग्रह भेजने की पेशकश भी की थी। फिर पहले पत्र में विष्णु प्रभाकरजी ने ऐसा क्यों कहा कि वो कवि नहीं हैं। उन्होंने हमेशा मेरे हर पत्र का उत्तर दिया, कहानियों का संग्रह भेजने की पेशकश की लेकिन कविता क्यों नहीं भेजी?
विष्णु प्रभाकरजी एक अत्यंत प्रतिष्ठित गद्यकार हैं इसमें संदेह नहीं। कभी-कभार कविता लिखने का मन हो गया तो कविता भी लिख डाली लेकिन संभव है इसके बावजूद विष्णु प्रभाकरजी ने स्वयं को कवि मानने में संकोच अनुभव किया हो। इसे उनकी अतिशय विनम्रता ही कहा जा सकता है और कुछ नहीं।
विनम्र लेखक ही नहीं एक महान योद्धा भी थे विष्णु प्रभाकरजी
मैं विष्णु प्रभाकरजी एक विनम्र गाँधीवादी लेखक ही नहीं एक महान योद्धा भी मानता हूँ। विष्णु प्रभाकरजी का शुमार क्रांतिकारी अथवा प्रगतिशील लेखकों में भी नहीं होता और न ही उन्होंने कभी कोई झंडा विशेष ही उठाया अथवा किसी आंदोलन का ही नेतृत्व किया। कुछ लोग तो उन्हें लेखक मानने को भी तैयार नहीं हुए फिर कैसे महान योद्धा हुए विष्णु प्रभाकरजी?
विष्णु प्रभाकरजी का लेखन सदैव मानवीय मूल्यों के लिए समर्पित रहा इसमें संदेह नहीं। उनके जीवन और लेखन दोनों में अत्यंत सादगी रही और यही सादगी उन्हें विशिष्ट बना देती है। लेकिन इससे कोई व्यक्ति महान योद्धाओं की श्रेणी में कैसे आ सकता है? विष्णु प्रभाकर एक ऐसे लेखक हुए हैं जिन्होंने आम आदमी की पीड़ा को पहचानकर सही रास्ता सुझाया। जीवनपर्यंत लोगों की मदद भी करते ही रहे। जितनी सादगी से जिये उतनी ही सादगी से चुपचाप चले भी गए लेकिन जाने से पहले वो काम कर गए जो बड़े-बड़े योद्धाओं के लिए भी असंभव है।
मृत्यु के बाद भी हमें अपने शरीर से बेहद लगाव होता है। कई लोग तो जीते जी अपना श्राद्ध करने तथा अपनी मूर्तियाँ स्थापित करवाने से भी परहेज़ नहीं करते। पाश्चात्य देशें में अनेक लोग मृत्यु से पहले ही अपने कफ़न-दफ़न का चुनाव कर लेते हैं। अपनी देख-रेख में महँगी से महँगी डिज़ायनर शव-पेटिका बनवाकर रख लेते हैं। मृत्यु के बाद कुछ लोग शव का दाह-संस्कार करते हैं (जलाते हैं) तो कुछ उसे सुपुर्दे-ख़ाक कर देते हैं (ज़मीन में गाड़ते हैं) लेकिन पारसी लोग मृत शरीर को किसी ऐसे ऊँचे स्थान पर रख देते हैं जहाँ दूसरे जीव-जंतु उसे खाकर अपनी भूख मिटा सकें।
मरने के बाद भी हमारा शारीर दूसरों के काम आ सके हमारे यहाँ तो यह भी कम क्रांतिकारी विचार नहीं और इस प्रकार का निर्णय कोई बहादुर व्यक्ति ही ले सकता है। आज हमारे देश में न जाने कितने लोग दृष्टिदोष के कारण देख नहीं पाते। किसी के गुर्दे खराब हैं तो किसी के फेफड़े। अनेक लोग अस्थिदोषों से पीड़ित हैं। यदि हम मरने के बाद अपनी आँखों को दान में दे सकें तो असंख्य लोग जो देख नहीं पाते इस सुंदर संसार को देखने में सक्षम हो सकें, बिना किसी के सहारे के सामान्य जीवन जी सकें।
विष्णु प्रभाकर की शवयात्र नहीं निकली, अंत्येष्टि पर साहित्यकारों की भीड़ जमा नहीं हुई क्योंकि उन्होंने अपना पूरा शरीर ही दान करने की घोषणा कर दी थी ताकि उनके पार्थिव शरीर से दूसरों को जीवनदान मिल सके। विष्णु प्रभाकर का आदर्श काल्पनिक आदर्श नहीं था। मन, वचन और कर्म तीनों से ही वे आदर्शवादी थे इसीलिए जाते-जाते जीवन के आदर्श को यथार्थ में बदल गए। उनका देहदान करने का संकल्प एक बार फिर हमें दधीचि ऋषि की याद दिला देता है। उन्होंने जाते-जाते जीवन के जो अक्षर लिखे वही अक्षर जीवन का वास्तविक संदेश हैं तथा उन्हें महान योद्धा बनाने के लिए पर्याप्त भी।
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सीताराम गुप्ता
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