रघुविन्द्र यादव के दोहे - कालों ने बस ले लिया, है गोरों का स्थान। हुआ कहाँ आजाद है, अपना हिन्दुस्तान।।

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गड़बड़ मौसम से हुई, या माली से भूल। आँगन में उगने लगे, नागफनी के फूल।। लिखता कैसे मीत मैं, सावन वाले गीत। मानवता पर हो रही, दानवता की जीत।...

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गड़बड़ मौसम से हुई, या माली से भूल।
आँगन में उगने लगे, नागफनी के फूल।।

लिखता कैसे मीत मैं, सावन वाले गीत।
मानवता पर हो रही, दानवता की जीत।।

चीख रही है द्रौपदी, देख रहे सब मौन।
केशव गुण्डों से मिल, लाज बचाए कौन।।

भड़की नफरत की कभी, कभी पेट की आग।
दुखिया के दोनों मरे, बेटा और सुहाग।।

मर्द-मर्द सब एक से, नहीं फ़र्क कुछ खास।
रावण करते अपहरण, राम देत वनवास।।

पल-पल मरने का यहाँ, फैल गया है रोग।
बदलेंगे कैसे भला, दुनिया कायर लोग।।

नए दौर ने कर दिए, धर्मवीर लाचार।
जती-सती भूखे मरें, मौज़ करें बदकार।।

कैसे होगी धर्म की, रामलला अब जीत।
रावण के दरबार में, बजरंगी भयभीत।।

साजिश है ये वक़्त की, या केवल संयोग।
नागों से भी हो गए, अधिक विषैले लोग।।

हर कोई आजाद है, कैसा शिष्टाचार।
पत्थर को ललकारते, शीशे के औज़ार।।

मारधाड़ औ नग्नता, टी.वी.रहा परोस।
नंगे सभी हमाम में, दूँ मैं किसको दोष।।

वक्त खेलता है सदा, अजब-अनोखे खेल।
कल पटरी थी रेल पर, अब पटरी पर रेल।।

दो रोटी के वास्ते, मरता था जो रोज।
मरने पर उसके हुआ, देशी घी का भोज।।

नया दौर रचने लगा, नये-नये प्रतिमान।
भाव कौड़ियों के बिके, मानव का ईमान।।

हमें शहर की जिन्दगी, आई कभी न रास।
घर में भी हैं भोगते, लोग जहाँ वनवास।।

जब से लगा समाज को, भौतिक सुख का रोग।
अरबों में बिकने लगे, दो कौड़ी के लोग।।

पाप और अन्याय पर, मौन रहे जो साध।
वक़्त लिखेगा एक दिन, उनका भी अपराध।।

चोली धनिया की फटे, लोग करें उपहास।
बेटी धन्ना सेठ की, फिरती बिना लिबास।।

चरित्र पर जिनके उठे, रह-रह कई सवाल।
नैतिकता के नाम पर, करते वही बवाल।।

गला प्यार का घोंटते, खापों के फ़रमान।
जाति, धर्म के नाम पर, कुचल रहे अरमान।।

रिश्ते भी रिसने लगे, आया कैसा दौर।
जड़ से कटकर आदमी, रहा सदा कमजोर।।

नेता लूटें देश को, पायें छप्पन भोग।
जनता की किस्मत बने, भूख, गरीबी, रोग।।

असली मालिक राज के, अब तक हैं बदहाल।
देश लूट कर खा गए, नेता और दलाल।।

खादी धारण कर रही, विषधर की संतान।
रक्षा मेरे देश की, करना हे भगवान।।

वोट डाल जिसको चुना, लोगों ने सरदार।
याचक बनकर हैं खड़े, आज उसी के द्वार।।

धरने, जलसे, रैलियाँ, हड़तालें औ जाम।
कुरसी ख़ातिर कर रहे, नेता सारे काम।।

बस्ती कैसे जल गई, नहीं किसी को ज्ञात।
नेताजी हमदर्द बन, बाँट रहे ख़ैरात।।

कालों ने बस ले लिया, है गोरों का स्थान।
हुआ कहाँ आजाद है, अपना हिन्दुस्तान।।

सत्ता पर काबिज़ हुए, भ्रष्ट, निकम्मे लोग।
कैसे लूटें देश को, बिठा रहे हैं योग।।

भुगत रहा है देश यह, कुछ भूलों का दंश।
सत्ता पर कब्ज़ा जमा, बैठ गए हैं कंस।।

हत्या, डाका, रहजनी, घूस और व्यभिचार।
नेता करने लग गए, लाशों का व्यापार।।

सपने दिखलाना हुआ, नेताओं का काम।
भीड़ भरे सब शहर हैं, भूखे, प्यासे गाम।।

जिस पर किरपा वक्त की, दुनिया करे सलाम।
नेता बन इठला रहे, कल तक थे बदनाम।।


जब से उनको मिल गई, झंडी वाली कार।
गुण्डे सारे हो गए, नेताजी के यार।।

कर्णधार इस देश के, भोग रहे हैं भोग।
बात धर्म, ईमान की, करते पागल लोग।।

अपराधी नेता बने, पापी कामी संत।
बदले अर्थ चरित्र के, मर्यादा का अंत।।

घोटाले निश-दिन करें, नहीं लोक की लाज।
लूटें केवल देश को, मिले जिसे भी ताज।।


कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम।
जीते सभी चुनाव वो, बाँट-बाँट कर दाम।।

भरे नहीं हैं आज तक, बँटवारे के घाव।
मज़हब के फिर नाम पर, होने लगे चुनाव।।

राजनीति में कर गया, जब से धर्म प्रवेश।
नफरत की खेती करें, साधु और दरवेश।।


राजनीति, अपराध का, जब से हुआ कुमेल।
सच के पौधे सूखते, हरी झूठ की बेल।।

राजनीति से मिट गया, नैतिकता का नाम।
पंच बने हैं आज वो, जिन पर सौ इल्ज़ाम।।

राजनीति में हो रहा, केवल कुरसी जाप।
कुरसी ख़ातिर लें बदल, नेता अपना बाप।।

बिगड़ रहे हैं देश के, दिन प्रतिदिन हालात।
राजनीति करने लगी, नये-नये उत्पात।।

भीड़तंत्र को दे दिया, लोकतंत्र का नाम।
राज खड़ाऊँ कर रही, बदला कहाँ निज़ाम।।

लोकतंत्र के नाम पर, केवल हुए चुनाव।
वोटर की तकदीर में, आया कब बदलाव।।

लोकतंत्र को लग रहे, रोज घाव पर घाव।
सौदागर अब मौत के, लड़ने लगे चुनाव।।

भूखे-प्यासे आमजन, अब तक सके न चेत।
धन-पशुओं ने चर लिया, लोकतंत्र का खेत।।

मोल नहीं ईमान का, वफा हुई बेकार।
दागी-बागी ले गए, झंडी वाली कार।।

नेता की निष्ठा रही, बस कुरसी के संग।
गिरगिट भी शरमा रहे, बदलें ऐसे रंग।।

कैसे अपने देश का, होगा अब उद्दार।
वर्दी में हैं भेड़िए, खादी में गद्दार।।

जाने हम किस भूल का, झेल रहे हैं दंश।
कौओं के सिर ताज है, दर-दर भटकें हंस।।

डाकू बनकर मन्तरी, चला रहे सरकार।
थानों में बैठा दिए, चोरों के सरदार।।

रहबर करते रहज़नी, अफसर खाते घूस।
जनसेवा की आड़ ले, खून रहे हैं चूस।।


जाने अब इस देश का, क्या होगा अंजाम।
बौनों को करने लगे, झुककर लोग सलाम।।

फैल रही है भुखमरी, नफरत कहीं कलेश।
जाति, धर्म की आग में, घिरा हुआ है देश।।

बड़े-बड़े ज़लसे हुए, वादे हुए तमाम।
सरकारें आई गई, भूखा रहा अवाम।।

बूढ़ी अम्मा मर गई, कर-कर नित फरियाद।
हुआ केस का फैसला, बीस बरस के बाद।।

मनसब मिले सलाम से, धन से हो गुणगान।
सरेआम बिकते यहाँ, शासकीय सम्मान।।

साध अकेला ही खड़ा, गुंडे के संग बीस।
कौन न्याय की बात कह, कटवाये निज शीश।।

करते कैसे लोग वो, संस्कारों की बात।
क्लब में नाचें बेटियाँ, जिनकी सारी रात।।

नेता, नागिन, नर्तकी, नौकर नमक हराम।
नहीं किसी के हों सगे, डसना इनका काम।।

अपने मन को मार कर, हम भी बने फ़कीर।
विचलित अब करती नहीं, जग की कोई पीर।।

चोरी कर-कर घर भरा, जोड़े लाख करोड़।
जेब कफ़न में थी नहीं, गया यहीं सब छोड़।।

हुए मंच पर चुटकुले, कविता रही न छंद।
कवियों का पेशा हुआ, कुछ पल का आनंद।।

कुटिल कंस के राज की, जल्दी होगी साँझ।
जननी केशव वंश की, हुई नहीं हैं बाँझ।।

हुए वफ़ा के नाम पर, बड़े-बड़ अपराध।
लुटे हजारों कारवाँ, तख़्त हुए बरबाद।।

भ्रष्ट व्यवस्था ने किए, पैदा वो हालात।
जुगनू भी अब पूछते, सूरज से औकात।।

रब जाने इस देश में, फैला कैसा रोग।
कफ़न और ताबूत में, रिश्वत खाएं लोग।।

भ्रष्ट व्यवस्था हो गई, बेबस हुआ विधान।
देरी होती न्याय में, जो अन्याय समान।।

भ्रष्ट व्यवस्था कर रही, सारे उल्टे काम।
अन्न सड़े गोदाम में, भूखा मरे अवाम।।

गली-गली अपराध हैं, चौराहों पर जाम।
मुन्सिफ़, मुज़रिम से मिले, जाये कहाँ अवाम?

भ्रष्ट व्यवस्था हो गई, टूटा जन विश्वास।
न्यायपालिका पर टिकी, अब जनता की आस।।

लूट रहे हैं देश को, कलमाड़ी सुखराम।
मिलकर राजा, राडिया, चूस गये सब आम।।

सपने टूटे देश के, वीरों के अरमान।
भ्रष्ट व्यवस्था हो गई, नेता बेईमान।।

मर्यादा कैसे बचे, चिन्तित हैं श्रीराम।
बजरंगी झुक-झुक करें, रावण को प्रणाम।।

मर्यादा अब राम को, आती है कब रास।
दशरथ खुद ही भोगते, मजबूरन वनवास।।


मंदिर में माथा रगड़, माँगें जो खुद भीख।
भूखों को देते वही, नैतिकता की सीख।।

गई मर्यादा गाँव से, शहरों से संस्कार।
रिश्तों में अब रिक्तता, मानवता बीमार।।

एक हाथ करने लगा, दूजे के संग घात।
कौन कहे इस दौर में, सीधी-सच्ची बात।।

मृतक हुई संवेदना, हुआ ख़त्म सद्भाव।
पूरब पर भी हो गया, पश्चिम का परभाव।।

नैतिकता, ईमान का, पिटा दिवाला आज।
चोर, उचक्के कर रहे, भू-मंडल पर राज।।

तुलसी काटी, बो दिए, कीकर और बबूल।
नये दौर की सभ्यता, कैसे करूँ कबूल।।

--

दोहा संग्रह 'नागफनी के फूल' से संकलित

-रघुविन्द्र यादव
संपादक, बाबूजी का भारतमित्र (साहित्यिक पत्रिका)
प्रकृति-भवन, नीरपुर, नारनौल (हरियाणा)
123001
9416320999

COMMENTS

BLOGGER: 10
  1. बेनामी6:46 pm

    अति सुंदर, भैय्या.बाल चुभनेवाली है, किंतु सत्य है.
    राज्यश्री त्रिपाठी

    जवाब देंहटाएं
  2. Shankar Lal9:33 am

    Bhut hi sundar and saty rachana.
    badhaiya.
    Shankar

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत दिनों बाद दोहों में दोहों की रूह नज़र आई ......


    बधाई ...


    विजेंद्र

    जवाब देंहटाएं
  4. हर एक दोहा अपने आप में आज के इस युग के हर एक यथार्थ को दर्शा रहा है सार्थक प्रस्तुति आभार ...

    जवाब देंहटाएं
  5. महोदय आपके दोहे अत्यंत पैनी धार वाले हैं, दोहों में प्रासंगिकता और व्यंग्य का बख़ूबी प्रयोग किया है । आज की यथार्थ वस्तुस्थिति को भावपूर्ण रूप में दर्शाते हैं । बहुत दिनों बाद अच्छे दोहे पढ़े।
    डॉ. मोहसिन ख़ान
    अलीबाग (महाराष्ट्र)
    +919860657970

    जवाब देंहटाएं
  6. बेनामी11:08 pm

    Aadarniy Dr.sahib thanks

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: रघुविन्द्र यादव के दोहे - कालों ने बस ले लिया, है गोरों का स्थान। हुआ कहाँ आजाद है, अपना हिन्दुस्तान।।
रघुविन्द्र यादव के दोहे - कालों ने बस ले लिया, है गोरों का स्थान। हुआ कहाँ आजाद है, अपना हिन्दुस्तान।।
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