पुस्तक समीक्षा : 'एक बूँद शहद' - ये गीत

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' एक बूँद शहद ' - ये गीत पिछली सदी के छठे-सातवें दशक में जब अज्ञेय और अज्ञेयवादियों ने नये युग-सन्दर्भ की दुहाई देकर गीत की संभाव...

'एक बूँद शहद' - ये गीत

पिछली सदी के छठे-सातवें दशक में जब अज्ञेय और अज्ञेयवादियों ने नये युग-सन्दर्भ की दुहाई देकर गीत की संभावनाओं को खारिज करते हुए उसे बर्तमान समय में अप्रासंगिक और अनुपयोगी घोषित किया और बाद में भी हठपूर्वक उसकी उपलब्धियों को नज़रन्दाज़ करने की साजिश करते रहे, तब किसने सोचा था कि एक दिन गीत की औरस सन्तान 'नवगीत' समय-संदर्भ को परिभाषित करने की वे अनूठी क्षमताएँ विकसित कर लेगा, जिनसे वह फ़िलवक्त के तेज़ी से बदलते क्षितिजों और आयामों को व्याख्यायित ही नहीं अपितु उन्हें नई अर्थवत्ता भी देने में सक्षम होगा। आज का नवगीत उन अर्थ-सामर्थ्यों का खोजी है, जिनसे वह भविष्य की कविता होने की संभावनाओं को प्राप्त कर सके।

इस समय नवगीत अपने चौथे आयाम में है और उसकी भावभूमि और कहन में जो इधर परिवर्तन आये हैं, उनकी सशक्त साखी देता है युवा नवगीतकवि मनोज जैन 'मधुर' का प्रवेश संकलन 'एक बूँद हम'। मनोज जैन 'मधुर' का नाम इधर एक दशक में उभर कर आये उन युवा कवियों में है, जिन्होंने नवगीत को अपने कृतित्त्व से समृद्ध-सम्पन्न किया है।

ईसवी सन २०११ यानी पिछले वर्ष आये इस नवगीत संग्रह में ५२ रचनाएँ हैं, जो अपने विशिष्ट कथ्य और अछूती कहन की दृष्टि से अधिकांश गीतकवियों के कृतित्त्व से पूरी तरह अलग है। पिछली सदी के मध्य के अमरीकी कवि राबर्ट लावेल और उसके अनुनानियों की 'स्वीकारोक्ति कविता' (कॉन्फेशन पोएट्री) की कहन-भंगिमा वाली ये कविताएँ फिलवक्त की तमाम चिंताओं से हमें रू-ब-रू करती हैं। इनमें प्रतीक-कथन, जो कभी नवगीत की एक प्रमुख पहचान रही थी, विरल ही है -संभवतः यह इधर की आम विशुद्ध यथार्थवादी दृष्टि के कारण है। अपनी बात को सीधे-सीधे स्पष्ट कहने की प्रवृत्ति आज की पीढ़ी की खासियत है। उसी कहन-शैली को अपने इन गीतों में मनोज जैन ने अपनाया है।

इस संग्रह का एक गीत है 'गीत मेरे', जिसमें कवि ने अपने और मिस से समूचे गीत-धर्म को यों परिभाषित किया है -

गीत मेरे कवि हृदय को / पाँव देते हैं

                 ...           ...             ...

गीत खुशियों के सुनहरे / गाँव देते हैं

                ...            ...            ...

भावना के सिंधु को हम / रोज़ मथते हैं

शब्द लय में बाँधकर हम / छंद रचते हैं

गीत दुख के पार जाकर / ठाँव देते हैं

यह जो गीत होने की मनस्थिति है, इसे पाने के लिए समग्र सृष्टि के संगीत से जुड़ने, उससे एकात्म होने की जो मौन साधना कवि को करनी होती है, उसका हवाला मनोज के इस गीत-अंश में बड़ी ही सक्षमता से बखूबी हुआ है -

गीत के तुमको / मिलेंगे ठाँव

साधना के सिंधु में / गोते लगाओ तो

कलरवों में लय घुली है / गीत, उड़ती तितलियों में

पवन, बदली, चाँद, सूरज / तार सप्तक बिजलियों में

जग उठेंगे गोपियों के गाँव

बाँसुरी कान्हा सरीखी / तुम बजाओ तो

संग्रह के तमाम गीत उनकी इस साधना के साक्षी हैं। कवि की यह साग्रह आस्तिक साधना आज के इस विषम-विकट नास्तिक समय में मौजूँ और नितांत लाज़िमी है। घर और परिवार से, आज तेजी से विखंडित होते उसके स्वरूप से परिचित कराते, उससे उपजे अनर्थों और अनर्गल होती सामाजिक संरचना की खबर देते कई गीत इस संग्रह में हैं। देखें एक गीत-अंश -

कुछ दिन पहले ही बदला है / घर मकान में

         ...         ...             ..

वैमनस्य के ठूंठे सबके / मन में फूट पड़े

बंटवारे के लिए सभी / गिद्धों से टूट पड़े

धीरे-धीरे बदल रही है / छत मचान में

मोती चुगने वाली दादी / तिनके चुनती है

         ...          ...         ...

नफरत चिन्ता चुभन निरन्तर / बढती जाती है

शंका अमरबेल सी ऊपर / चढती जाती है

युग भी कम पड़ता है / घर के समाधान में

संग्रह का 'हम जड़ों से कट गए' शीर्षक गीत हमारी आज की पदार्थिक भोगवादी दृष्टि से उपजे सामाजिक विपर्ययों की आख्या कहता है - 'जड़ों से कट' जाने की आज की स्थिति में 'प्यार वाली छाँव' गाँव में ही छूट गई है और 'थामने वाली जमीं हमसे / कहीं पर है खो गई', इसी वज़ह से 'भीड़ की खाता-बही में / कर्ज़ से हम पट गए'। 'खोखले आदर्श के...मुकुट धारण किए' आज का मनुष्य 'बेचकर सभ्यता के / कीमती गहने' जीने को अभिशप्त है। और गीत की अंतिम पंक्ति  'कद भले अपने बड़े हों / पर वज़न में घट गए' कहकर कवि ने आज के तथाकथित सभ्य मनुष्य के खोखलेपन को ही जैसे व्याख्यायित कर दिया है। मनोज जैन 'मधुर' ने इन गीतों में आज के विज्ञापनी समय में आम आदमी की विवशता और आर्थिक वैषम्य से उपजे उसके अभावग्रस्त होने के, निरर्थक होकर जीने के भाव को बड़ी ही शिद्दत से महसूसा है और उसे बड़ी ही सटीक अभिव्यक्ति भी दी है। आज उसके 'सिर के ऊपर / कुंठा की / तलवार' लगातार लटकती रहती है, 'मँहगाई की मार'(उसकी) कमर को जमकर तोड़ रही' है, उसकी 'नींदों में भी / विज्ञापन का / प्रेत उभरता है', जो 'लोहे को सोना. राई को / पर्वत करता है' और जिससे उपजती है 'इच्छा को बेबसी' बुलाने की बेबसी। ऐसे में 'मेहनत के क्षण / बाजारों की बलि चढ़ जाते हैं' और 'आशा बरबस पीड़ाओं के / घूँट गटकती' रह जाती है। मेरी राय में, यह गीत वर्तमान सभ्यता के आर्थिक-सामाजिक विकास के दंभ का बड़े ही सशक्त ढंग से खुलासा करता है और इस दृष्टि से यह संग्रह की एक उपलब्धि-रचना है।

संग्रह में ग्राम-संदर्भ के कई गीत हैं - उनमें गाँव कभी तो प्रतीक बनता है मनुष्य की खोई हुई परम्परागत अस्मिता का तो कहीं आज के आधुनिकीकरण को अपनाते और अपनी सहज आस्तिकता को खोते बदलते ग्राम्य परिवेश का। देखें निम्न गीत-अंश -

बहुत बुरे हालात हुए हैं / पुरखों वाले गाँव के

                          ...          ...          ...

चौपालों पर डटा हुआ है / विज्ञापन का प्रेत

धीरे-धीरे डूब रहे हैं / यहाँ कर्ज़ में खेत

बाँट रही घर-घर मँहगाई / पर्चे रोज़ तनाव के

आर्थिक विकास के साथ-साथ जो 'सड़कें लाईं जादू टोना', उससे 'शहर मदारी' के इशारों पर, उसके सम्मोहन में बँधे जीने को अभिशप्त हो गया है गाँव। हाँ, जिस गाँव-चौपाल में 'बाँची जाती थी रामायण / पावन साँझ-सकारे में', वहीं अब

नई फसल की आँखों में है / 'बॉलीवुड' की चाल

नहीं सुनाता बोध-कथाएँ / विक्रम का बेताल

टूट रहे हैं रिश्ते-नाते / यहाँ धूप से छाँव के

पंचायत राज के नाम से जो राजनीति ग्रामीण परिवेश में व्यापी है, उसका हवाला देते हुए कवि कहता है -

बदल गई है चौसर चाहे / पाँसे वही पुराने हैं

गंगू के घर पहले दुख था / सुख अब भी बेगाने हैं

मुखिया घर घर पूजा जाता / जैसे वह अवतारी है

हमारे देश में प्रजातंत्र के, विकास के नाम से जो प्रजा को ठगने का तन्त्र रचा गया है उसकी खबर देते हुए कवि कहता है

रथ विकास का / गाँव हमारे / आने वाला है

...            ...              ...

नेता फिर वादों की / फसल उगाने वाला है

...           ...            ...

लगे राम-सा किन्तु चरित / रावण का जीता हे

मृग की छल ओढ़ कर / घर में आता चीता है

मांस नोंचकर जन-जन / का वह खाने वाला है

और

किस कदर मिथ्याचरण / हमने लिए हैं ओढ़

...              ...              ...

मौन साधे एक युग से / सत्य कोने में पड़ा

पुज रहा पाखण्ड जग में / धर्म पर पहरा कड़ा

छल-कपट नेपथ्य में अब / कर रहे गठजोड़

ऐसे विकट मुखौटों वाले समय में कवि करे तो क्या करे? संग्रह के कई गीतों में इस प्रश्न से रूबरू हुआ है मनोज जैन का कवि। देखें तो ज़रा -

बेमानी की लाख दुहाई / देंगे जग वाले

सुनने से पहले जड़ लेना / कानों पर ताला

मुश्किल से दो चार मिलेंगे / तुझको लाखों में

करुणा तुझे दिखाई देगी / उनकी आँखों में

अपने दृग जल से तू उनके / पग को धोया कर

और इसी के साथ है एक सात्विक संकल्प -

समय चुनौती देगा तुझको / आकर लड़ने की

तभी मिलेंगी नई दिशायें / आगे बढने की

  ...        ...          ...

सबको सुख दे, दुनिया आगे / पीछे घूमेगी

मंजिल तेरे खुद चरणों को / आकर चूमेगी

कर्म-मथानी से सपनों को / रोज़ बिलोया कर

यही है सही अर्थों में मनुष्य होना और और इसके लिए चाहिए एक आस्थावान मानुषी संवेदना। वह कैसे हो, यह देखें इस गीत-अंश में -

तेरा जीवन नदिया की / धारा की लय है

किन्तु सफर में रोड़े मिलना भी तो तय है

समय एक छन्नी है / पहले सार और / थोथे को दफना

यही है वह आस्तिक कर्म-दृष्टि जो आज की अमानुषिक-पाशविक होती सभ्यता को बचा सकती है। 'कट जायेगी रात / सबेरा निश्चित आयेगा' - इसी भविष्य की संकल्पना एवं आस्था की स्थापना करता है कवि अंतत अपने इन गीतों के माध्यम से। जैन तीर्थंकर भाव मनोज जैन के कवि का सहज भाव है, मेरी राय में। एक होली गीत के माध्यम से कवि ने इसी आस्तिकता को वाणी दी है -

सारे रंज मलाल भुलाकर / होली आज मनाएँ

मन की थाली में रहीम ने भावों का रंग घोला

रंग लगाकर राम तोड़ता / बरसों का अनबोला

आओ मिलकर हम नफरत को / होली में सुलगाएँ

और ...

जीवन के इस इस युद्धक्षेत्र में / उखड़ी जिनकी साँसें

चलो पोंछने आँसू उनके / नम हैं जिनकी आँखें

सम्बल के रंग भर आँखों में / चलकर धीर बँधाएँ

समग्रतः यह संग्रह हमें रूबरू करता है आज के समय से, उसकी चिंताओं एवं अनास्थाओं से एवं उसके तमाम छल-प्रपंचों से, किन्तु साथ ही यह हमें एक दिशा-निर्देश एवं भविष्य-दृष्टि भी देता है। कहन की आज की शैली एवं भंगिमा का परिचय देता यह संग्रह संकेतक है कवि मनोज के उस मनोजगत का, जिसमें उनकी रचनाधर्मिता गीत को नये-नये आयाम देने को समुत्सुक है। प्रभु उनके सात्विक संकल्पों को और-और क्षितिज दे, इन गीतों की दस्तकें सुदूर समय तक सुनी जाती रहें और उनकी गीतधर्मिता निरंतर यों ही सक्रिय रहे, यही हार्दिक शुभकामना है मेरी इस युवा कवि के लिए।

क्षितिज ३१० अर्बन एस्टेट -२ हिसार -१२५००५

मो. ०९४१६९-९३२६४ - कुमार रवीन्द्र

ई-मेल : kumrravindra310@gmail.com

‘'सप्तराग'’ –

यानी यह सात सुरों का सरगम

'अँजुरी में आस लिये दिन' के सुर

'धरती, पेड़, पहाड़ी, अम्बर' के गायन

'बोधि वृक्ष पर जमे (हुए) बैताल' दिखे

'बूढ़ी इमली की अपराजित चीख' मिली

'नेह गंग का गोमुख रीता'-पीर उसी की

'ग्यारह दोहा पाँच सोरठा दस चौपाई'  

'शब्दों की निष्ठा अकुलानी' 

मधुर-प्रभात-अर्चन-मयंक-दिवाकर-बंधु-विकल की / ने साधी

यह गीतों के सात सुरों वाली है वंशी

-- कुमार रवीन्द्र

गीत और नवगीत के बीच जो एक घनिष्ठ रिश्ता है और उनके बीच जो एक सूक्ष्म विभाजन रेखा है, उनकी साखी देता संग्रह है यह भोपाल नगरी की गीत-अस्मिता का सात सुरों वाला समवेत संकलन -'सप्तराग'। गीत की विविध भंगिमाएँ इस संकलन के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत हुई हैं - कुछ पूरी तरह नवगीत की आग्रही हैं तो कुछ नवगीत की परिधि को छूते हुए भी गीत की पारम्परिक कहन की बानगी देती हैं। वैसे इसमें उपस्थित सभी रचनाकार कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी रूप में नवगीत की नई मुद्राओं से परिचित हैं और उन्हें अपनाने को सचेष्ट भी दिखते हैं। यही इस संकलन की विशिष्टता है। मेरी राय में, 'सप्तराग' आज की हिंदी कविता में गीत-नवगीत की सशक्त भूमिका को पूरी शिद्दत से रेखायित करता है। इसका संयोजन-सम्पादन-मुद्रण जिस मनोयोग एवं त्रुटिविहीन कौशल से किया गया है, वह भी साधुवाद का हक़दार है।

क्षितिज ३१० अर्बन एस्टेट -२ हिसार -१२५००५

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रचनाकार: पुस्तक समीक्षा : 'एक बूँद शहद' - ये गीत
पुस्तक समीक्षा : 'एक बूँद शहद' - ये गीत
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