फ्लैनरी ऑक्नर की कहानी : इल्हाम

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फ्‍लैनरी ऑक्‍नरः जन्‍म : 1925 में सवान्‍ना , जार्जिया में। लेखिका का पहला उपन्‍यास ‘ वाइज ब्‍लड ' 1952 में प्रकाशित हुआ। ‘ ए गुड मै...

फ्‍लैनरी ऑक्‍नरः

जन्‍म : 1925 में सवान्‍ना, जार्जिया में। लेखिका का पहला उपन्‍यास वाइज ब्‍लड' 1952 में प्रकाशित हुआ। ए गुड मैन इज़ हार्ड टू फाइन्‍ड' 1955 तथा दि वायलेंट बीयर इट अवे' 1960 में प्रकाशित। दि कम्‍प्‍लीट स्‍टोरीज' को 1972 में नेशनल बुक एवार्ड दिया गया। 1964 में मृत्‍यु ।

फ्‍लैनरी ऑक्‍नर

अंग्रेजी से अनुवाद : सुनील कुमार श्रीवास्‍तव

इल्‍हाम

जब टर्पिन-दंपत्ति अन्‍दर घुसे, तो डॉक्‍टर का बेहद छोटा प्रतीक्षा-कक्ष लगभग भर चुका था और श्रीमती टर्पिन के वहाँ आ जाने से, जो कि खासी कद-काठी की औरत थीं, वह और छोटा लगने लगा। वे, कमरे के ऐन बीच जमाई गई पत्र-पत्रिकाओं की मेज के आगे आ कर, जो कि कमरे की तंगी और बेतुकेपन का जीवंत प्रदर्शन कर रही थी, खड़ी हुई। अपनी छोटी चमकती हुई काली आँखों से उन्‍होंने बैठने की जगह का जायजा लेते हुए सारे मरीजों पर एक निगाह दौड़ाई। एक कुर्सी खुली थी और एक जगह सोफे पर थी, जिसे चीकट नीली जॉम्‍पर ;एक में सिली कमीज और जाँघिया पहने एक गोरे बच्‍चे ने घेर रखा था, और किसी को तो उसे कहना चाहिए था कि हट कर इस भद्र महिला को बैठने दे। बच्‍चा कोई पाँच या छे साल का था। श्रीमती टर्पिन को भाँपते देर नहीं लगी कि कोई उसे हटने के लिए कहने वाला नहीं है। वह सोफे में आराम से धँसा हुआ था, दोनों बगलों में पड़ी सुस्‍त बाँहों और सिर में जड़ी निश्‍चेष्‍ट सी आँखों के साथ, और नाक उसकी बिना रुके बह रही थी।

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श्रीमती टर्पिन ने सधा हुआ हाथ क्‍लाड के कंधे पर रखते हुए कहा, कुछ इतनी आवाज में कि अगर कोई सुनना चाहे तो सुन ले, “क्‍लाड, तुम वहां उस कुर्सी पर बैठ जाओ”, और उसे उस खाली कुर्सी में बैठ जाने के लिए ठेला। क्‍लाड चमकीले लाल रंग का, गंजा और गठीली कद-काठी का था, श्रीमती टर्पिन से थोड़ा-बहुत छोटा, किन्‍तु वह इस तरह बैठ गया, उसे जो भी करने को कहतीं, वह सब करने का अभ्‍यस्‍त हो।

श्रीमती टर्पिन खड़ी रहीं। कमरे में क्‍लाड के अलावा एक ही और पुरुष था, जो एक दुबला-पतला बूढ़ा था। उसके बदन पर डोरियों जैसी नसें उभरी थीं और उसके चीमड़ हाथ घुटनों पर फैले हुए थे। उसकी आँखें बंद थीं जैसे कि वह सोया हो या बेजान हो। या फिर वह ऐसा होने का दिखावा कर रहा था, जिससे कि उसे उठ कर उन्‍हें अपनी जगह न देनी पड़े। उनकी नजरें अच्‍छे परिधान पहने भूरे बालों वाली एक भद्र महिला पर आकर ठहर गईं। महिला उन्‍हें भाई। इनकी आँखों से ज्‍यों ही उसकी आँखों मिलीं, उसने अपनी भंगिमा से जैसे कहा- अगर यह बच्‍चा मेरा होता तो उसे इतना शिष्‍टाचार तो जरूर आता कि वह हट कर आपको जगह दे, आखिर वहाँ इतनी सारी जगह तो है कि वह और आप दोनों बैठ जाएँ।

क्‍लाड ने एक लम्‍बी साँस छोड़ कर ऊपर देखा और जैसे उठने को हुआ। “बैठे रहो”- श्रीमती टर्पिन ने कहा, “तुम्‍हें पता है, कि तुम्‍हें उस पाँव के बल खड़े नहीं होना है। इनके उस पाँव में नासूर है,” उन्‍होंने समझाया। क्‍लाड ने अपना पाँव पत्रिकाओं की मेज तक उठाया और अपनी पतलून ऊपर मोड़ी। उसकी सुडौल संगमरमर सी सफेद पिंडली पर एकनील पड़ी सूजन दिखने लगी।

“हे”, उस भली औरत ने पूछा, “यह तुमने कैसे कर लिया?”

“एक गाय ने इन्‍हें दुलत्ती मार दी”, श्रीमती टर्पिन ने कहा।

“भगवान”, महिला बोली।

क्‍लाड ने अपनी पतलून वापस नीची कर ली।

“शायद वह बच्‍चा उठे”, महिला ने उधर इंगित किया, लेकिन बच्‍चा हिला नहीं।

“कोई न कोई अभी मिनट भर में जाने वाला ही होगा”, श्रीमती टर्पिन ने कहा। वे समझ नहीं पा रही थीं कि एक डॉक्‍टर क्‍यों एक समुचित आकार का प्रतीक्षा कक्ष नहीं रख पा रहा है, जबकि इतना सारा तो ये लोग रुपया बनाते हैं हर रोज के पाँच डॉलर के हिसाब से, सिर्फ इतनी सी बात के लिए कि अस्‍पताल में झाँक जाएँ और लोगों पर एक नजर डाल लें। यह वाला तो मुश्‍किल से एक गैरेज से थोड़ा ही बड़ा हो। मेज पर लुँज-पुँज सी पत्रिकाएँ बेतरतीबी से पड़ी थीं, और उसके एक छोर पर एक बड़ा सा हरा ऐश-ट्रे पड़ा हुआ था जिसमें सिगरेट की ठूठें और खून के धब्‍बों वाली रूई की तहें ठुँसी हुई थीं। अगर उनका इस जगह के कामकाज से जरा भी सरोकार होता तो इसे तो वे हर थोड़ी-थोड़ी देर पर जरूर खाली करवातीं। कुर्सियाँ कमरे के आगे की दीवार से लगा कर नहीं धरी थीं। यहाँ एक आयताकार बाड़ा बना था जिससे अन्‍दर कार्यालय पर एक नजर पड़ती थी और नर्स आती-जाती हुई और सेक्रेटरी रेडियो सुनती हुई दिख रही थी। इसके खुले द्वार पर सुनहले गमले में एक प्‍लास्‍टिक की फर्न लगी हुई थी, जिसके खूब बड़े पत्त्ो फैल कर लगभग ज़मीन को छू रहे थे। रेडियो पर मीठी धुन में इंजील का पाठ चल रहा था।

तभी अन्‍दर का दरवाजा थोड़ा खुला और एक नर्स ने, जिसने पीले बालों का खूब ऊँचा जूड़ा बनाया हुआ था, दरवाजे की फाँक में मुँह लगाकर अगले मरीज की पुकार लगाई। श्रीमती टर्पिन ने इतना ऊँचा जूड़ा शायद ही पहले कभी देखा हो। क्‍लाड के बगल में बैठी औरत कुर्सी की दोनों बाजुओं पर पंजों का जोर देकर उठी, पाँवों में उलझे वस्‍त्र को थोड़ा उठाया और द्वार से अन्‍दर, जहाँ नर्स गायब हो चुकी थीं, ढलमलाती हुई चली गई।

श्रीमती टर्पिन ने खाली हुई कुर्सी में धँस कर आराम की साँस ली। कुर्सी ने अंगिया की तरह उन्‍हें कस लिया।

“काश, मैं थोड़ी दुबली हो पाती!” आँखें नचाते हुए उन्‍होंने कहा और मसखरेपन से साँस छोड़ी।

“ओफ-ओह, आप मोटी नहीं है!” सलीकेदार औरत ने कहा।

“ऊंऊंऊंऊंऊं...., बहुत मोटी हूँ मैं।” श्रीमती टर्पिन बोलीं। “क्‍लाड को देखो, जनाब जो भी दिल चाहे खाते रहते हैं और कभी एक सौ पचहत्तर पौंड से ज्‍यादा होते ही नहीं, और मैं? जरा सा खाने की किसी बढ़िया सी चीज को देख भर लूँ तो कुछ न कुछ मेरा वजन बढ़ जाए।” और जोरदार ठहाके से उनके कंधों और पेट में बल पड़ने लगे। “क्‍लाड, तुम जो दिल चाहे खा सकते हो, क्‍यूँ नहीं?” उन्‍होंने उसकी ओर मुड़ कर पूछा। क्‍लाड खीसें निपोर कर रह गया।

“ठीक है, लेकिन जब तक देह एक अच्‍छे अनुपात में है”, सलीकेदार औरत बोली, “मुझे नहीं लगता कि शरीर-आकार क्‍या है, इससे कुछ फर्क पड़ता है। देखना बस यह होता है कि देह का अनुपात न बिगड़ने पाए।”

उनके बाद में अठारह या उन्‍नीस साल की एक मोटी सी लड़की थी, जो भौहों पर बल डाले एक नीली सी पोथी में खोई थी। किताब का नाम, श्रीमती टर्पिन ने देखा, मानव विकास था। लड़की ने सिर उठाया और उसकी चढ़ी हुई भौहें श्रीमती टर्पिन से यूं मुखातिब हुई मानो वे उसे अच्‍छी न लगी हों। लगा कि वह इस बात से खीझ गई है कि जब वह पढ़ने की कोशिश करे तो वहीं पर कोई बातें करता रहे। मुहाँसों के मारे इस बिचारी का चेहरा नीला हो गया था। श्रीमती टर्पिन ने मन ही मन सोचा कि इस उम्र में चेहरा ऐसा हो जाए ये कितनी दयनीय बात है। उन्‍होंने लड़की की ओर दोस्‍ताने लहजे में मुस्‍करा कर देखा, लेकिन लड़की की भौंहें और ज्‍यादा बढ़ गईं। श्रीमती टर्पिन वैसे तो खुद भी मोटी थीं, लेकिन उनकी चमड़ी हमेशा से मुलायम खूबसूरत बनी हुई थी, और सैंतालिस वर्षों की उम्र हो जाने के बावजूद उनके चेहरे पर एक भी झुर्री नहीं पड़ी थी, सिवाय आँखों के गिर्द बने हुए घेरों के, जो कि बहुत अधिक हँसने से पड़ गए थे।

इस बदसूरत लड़की के बाद में वही बच्‍चा था और अभी तक वैसे का वैसा ही बैठा हुआ था उसके बगल में एक दुबली-पतली चीमड़ सी बुढ़ी औरत छापे के सूती पहनावे में थी। श्रीमती टर्पिन और क्‍लाड के अपने पंपहाउस में मुर्गियों के चारों की तीन बोरियाँ ठीक इसी छपाई की थीं। वे पहले ही जान चुकी थीं कि वह बच्‍चा इसी बूढ़ी औरत के साथ है। जिस तरह से वे बैठे थे- खाली-खाली से और श्‍वेत-ट्रेश ;निचले दर्जे के श्‍वेतद्ध लोगों की तरह, उससे जाहिर होता था कि अगर कोई उन्‍हें पुकार कर उठने को न कहे तो वे कयामत केरोज तक वैसे ही बैठे रहेंगे। इसके आगे कोने से सीधे मुड़ने पर, अच्‍छे परिधान वाली उस भली औरत के बाद में, सूखे से चेहरे वाली एक औरत बैठी थी, और निश्‍चित रूप से यही उस बच्‍चे की माँ थी। उसने ढीली-ढाली सी पीली कमीज और शराबी रंग का पायजामा, दोनों ही बिल्‍कुल खुरदरे से, पहन रखे थे, और उसके होंठों के किनारे गुल से रंगे हुए थे। उसके गंदे पीले बाल पीछे की तरफ पतले लाल रिबन से बध्‍ो थे। इससे बदतर तो कभी हब्‍शी भी न हों, श्रीमती टर्पिन ने मन ही मन सोचा। इंजील के पाठ में आगे चल रहा थ, “निहारा जब मैंने ऊपर, और देखा परमपिता ने, मुझको नीचे झुक कर।” श्रीमती टर्पिन यह टुकड़ा जानती थीं। मन ही मन उन्‍होंने अंतिम पंक्‍तियाँ मिलाईं, “ और नहीं इन दिनों पता मुझे था, मैं पहनूँगा ताज।”

श्रीमती टर्पिन हमेशा ही लोगों के जूतों पर, बगैर जाहिर हुए, तवज्‍जों देती रहती थीं। अच्‍छे परिधान वाली महिला ने अपने वस्‍त्रों से मेल खाती लाल और धूसर रोएँदार खाल की जूतियाँ पहन रखी थीं। श्रीमती टर्पिन ने अपने बेहतरीन काले खुले मुँह वाले पंपशू पहने थे। बदसूरत लड़की ने लड़कियों वाले स्‍काउट जूते भारी मोजों के साथ पहने हुए थे। बूढ़ी औरत ने टेनिस की जूतियाँ पहनी थीं, और श्‍वेत-ट्रेश माँ ने जो पहना हुआ था, वह शयनकक्ष के इस्‍तेमाल वाली हल्‍की चप्‍पल थी- चटाई की बनी पट्टियों में गुँथी हुई सुनहली वेणियों वाली, जैसा कि ठीक-ठीक उससे पहनने की उम्‍मीद हो सकती थी।

श्रीमती टर्पिन को जब कभी कभार रात को नींद नहीं आती, तो वे इस बात पर विचार करने में मशगूल हो जातीं कि अगर वे खुद जो हैं, न हो सकी होतीं, तो क्‍या होना पसन्‍द करतीं? अगर प्रभु यीशु ने उन्‍हें बनाने से पहले पूछा होता, “तुम्‍हारे लिए केवल दो जगहें हैं, तुम या तो हब्‍शी हो सकती हो या फिर श्‍वेत-ट्रेश”, तो वे क्‍या कहतीं? “दया करें, प्रभु यीशु”, वे बोली होंती, “जब तक कोई तीसरी जगह न हो जाए, दयापूर्वक मुझे रहने दें। और तब प्रभु कहते, “नहीं, तुम्‍हें अभी के अभी जाना है, और मेरे पास केवल वे दो जगहें ही है॥ तुम तुरन्‍त तय करो।” वे कसमसातीं, बिलबिलातीं, दया की भीख माँगती, चिरौरी करतीं, और जब कोई नतीजा नहीं निकलता, तो आखिरकार कहतीं, “ठीक है, तो फिर मुझे हब्‍शी ही बना दो, लेकिन इसका मतलब टै्रश नहीं।” और प्रभु ने इनको एक साफ-सुथरी इज्‍जतदार हब्‍शी औरत बना दिया होता - यही श्रीमती टर्पिन, लेकिन काली।

बच्‍चे की माँ के बाद में लाल बालों वाली एक कम उम्र औरत पत्रिकाओं के ढेर में से एक पत्रिका लेकर पढ़ रही थी, और मुँह में च्‍यूइंग-गम , क्‍लाड के लहजे में कहें, तो दनादन रफ्‍तार से, चबाती जा रही थी। श्रीमती टर्पिन उसके पाँव नहीं देख पाई थीं। वह ट्रैश नहीं थी, बस एक आम श्‍वेत थी। रात के वक्‍त कभी-कभी श्रीमती टर्पिन लोगों के दर्जों को गिनने में लग जातीं। लोगो के अम्‍बार में सबसे नीचे तले पर आते सबसे ज्‍यादा अश्‍वेत लोग, उस तरह वाले नहीं जैसी कि वे खुद हुई होतीं, अगर उन्‍हें उनमें से एक होना होता, बल्‍कि वे वाले, जैसे कि उनमें से ज्‍यादातर हैं। फिर उनके बाद में - उनके ऊपर नहीं, बस उनसे अलग भर- होते श्‍वेत-टै्रश, फिर इनके ऊपर वे होते जिनके अपने घर हैं जिनमें कि वे और क्‍लाड आते थे। उनके और क्‍लाड के ऊपर वे लोग होते जिनके पास कि बेशुमार दौलत, काफी बड़े मकान और काफी ज्‍यादा ज़मीनें हैं। लेकिन यहाँ पर आकर मामला पेचीदा हो जाता और वे उलझने लग जातीं, क्‍योंकि आम दर्जे के कुछ लोग, जो उनके और क्‍लाड से नीचे रखे जाने लायक थे, काफी दौलत वाले हो गए थे, और कुछ अच्‍छे खानदान के लोग अपनी दौलत गँवा कर किराए के घरों में चले गए थे, और कुछ अश्‍वेत लोग इनके घरों और ज़मीनों के मालिक बन बैठे थे। शहर में एक अश्‍वेत दाँतों का डॉक्‍टर दो शानदार लाल कोठियों, एक स्‍वीमिंगपूल और अच्‍छी नस्‍ल के पंजीकृत सूअरों के फारम का मालिक था। जब तक वे लगभग नींद में गाफिल न हो जातीं, उस वक्‍त तक इन सभी दर्जों के लोग उनके दिमाग में सैलाब की तरह उमड़ते रहते, और नींद में उन्‍हें ऐसा ख्‍वाब आता कि जैसे लोगों के इस समूचे हुजूम को एक सामान ढ़ोनेवाली बंदगाली में ठसाठस भर कर गैस भट्‌ठी में डालने के लिए ले जा रहे हों।

“वह घड़ी, क्‍या ही खूबसूरत है न!” कहती हुई वे अपनी दाहिनी तरफ मुखातिब हुईं। यह एक बड़ी सी दीवालघड़ी थी, जिसका अन्‍दर का गोला पीतल के सूर्य किरणों जैसे अलंकरण के अन्‍दर जड़ा था।

“सच, बहुत ही खूबसूरत है”, उस सलीकेदार औरत ने हाँ में हाँ मिलाया। “और काँटे भी बिल्‍कुल ठीक जगह”, उसने अपनी घड़ी पर नजर डालते हुए बात पूरी की। उनके बगल में बैठी बदसूरत लड़की ने नजर ऊपर उठाकर घड़ी को देखा और मुँह बिचका कर मुस्‍करा दी। फिर वह सीधे श्रीमती टर्पिन की ओर देख कर मुँह बिचका कर मुस्‍कराई और वापस उसने अपनी आँखें किताब की ओर मोड़ लीं। जरूर बह इस भद्र महिला की ही बेटी थी, क्‍योंकि कद-काठी में कोई मेलजोल न मिलने के बावजूद उनके चेहरे एक आकार के थे और वही नीली आँखें दोनों की थी। भद्र महिला में ये आँखें एक भली चमक लिए हुए थीं, लेकिन लड़की के सूखे दागदार चेहरे में वे कभी सुलगती हुई कभी जलती-बूझती मालूम होतीं।

तब क्‍या होता, अगर कहीं प्रभु यीशु यह पूछ बैठते, “ठीक है, तुम श्‍वेत-टै्रश हो सकती हो या फिर हब्‍शी, और नहीं तो बदसूरत!”

श्रीमती टर्पिन को लड़की पर बेहद दया आई, हालांकि उन्‍होंने सोचा कि बदसूरत होना एक बात है और बदसूरती से पेश आना दीगर बात है।

गुलरंगे होंठों वाली औरत ने अपनी कुर्सी में पहलू बदल कर घड़ी को एक नजर देखा, फिर वापस मुड़ कर थोड़ा-थोड़ा श्रीमती टर्पिन की ओर देखने सी लगी। उसकी एक आँख में भेंगापन था।

“आपको जानना माँगता है, आप ऐसा वाला घड़ी किदर में ले सकता?” उसने ऊंची आवाज में पूछा।

“नहीं, मेरे पास पहले से ही एक बढ़िया सी घड़ी है”, श्रीमती टर्पिन ने कहा। अगर कभी उसके जैसी कोई उनकी बात में टाँग अड़ाए तो वे शुरू में ही उसे चलता कर देतीं।

“तुम्‍हारे को माँगता तो हरा छापा वाला घड़ी बी लेने को सकता”, वह औरत बोली। “ये वाला बी वोंई से लाया होएँगा। खूब पैसा बचाने को माँगता, तो तुम जो भी माँगता बहुत सारा लेले को सकता। मँइ अपना वास्‍ते दागीना ले के आया।”

चाहिए तो था कि अपने लिए एक रग्‍गड़ और साबुन ले कर आती, श्रीमती टर्पिन ने मन ही मन कहा।

“मैंने अपने बिस्‍तरों के लिए कोनों पर इलास्‍टिक लगी चद्दरें लीं”, सलीकेदार औरत बोली।

बेटी ने अपनी किताब झपाक से बंद कर दी। वह सीधे उनके सामने देखने लगी। सीधे, श्रीमती टर्पिन से होती हुई पीले पर्दे और मोटे शीशे की खिड़की के पार, जिससे कि उनके पीछे की दीवार बनती थी, उसकी नजरें एकटक सधी रहीं। लड़की की आँखों में अचानक एक अजीब सी रोशनी कौंधती हुई लगी, अवास्‍तविक सी, जैसी कि रात के वक्‍त सेडलाइटों से आती है। श्रीमती टर्पिन ने सिर घुमा कर देखने की कोशिश की कि शायद बाहर कुछ देखने लायक हुआ हो, लेकिन कुछ दिख नहीं। केवल पर्दे के पीछे से आती-आती आकृतियों के जर्द अक्‍स पड़ते रहे। ऐसी कोई जगह नहीं थी कि लड़की अपनी भद्दी नजरों का निशाना उन्‍हें ही बनाती।

“कु. फिनले” दरवाजे को झिर्री भर खोलते हुए नर्स ने आवाज लगाई। जो औरत गम चबा रही थी, उठी और उनके और क्‍लाड के सामने से होती हुई ऑफिस के अन्‍दर चली गई। उसने ऊंची एड़ी की लाल जूतियाँ पहन रखी थीं।

मेज के पार से बदसूरत लड़की की आँखें सीधे श्रीमती टर्पिन पर जमीं रहीं, मानों उन्‍हें नापसंद करने की कोई खास वजह हो।

“यह मौसम बहुत ही बढ़िया है”, लड़की की माँ ने कहा।

“यह मौसम कपास के लिए बहुत ही बढ़िया हो, अगर चुनाई के लिए हब्‍शी जुट पाएँ”, श्रीमती टर्पिन बोलीं, “लेकिन अब हब्‍शी कपास की चुनाई के लिए मिल नहीं रहे। श्‍वेतों में से तो चुनाई के लिए मिलने से रहे, और अब ये हब्‍शी भी नहीं मिल रहे। उन्‍हें श्‍वेतों की तरह बड़े जो होना है।”

“उनको किसी तरह कोशिश करने का”, श्‍वेत-टै्रश औरत आगे झुकती हुई बोली।

“क्‍या आपके पास कपास चुनने की मशीन है?” भली औरत ने पूछा।

“नहीं”, श्रीमती टर्पिन ने कहा, “मशीनों से आधा कपास तो खेती में ही छूट जाता है। हम लोगों के पास कपास भी ज्‍यादा तो हैं नही। ख्‍ेाती का हाल अब यह है कि थोड़ी-थोड़ी हर चीज होनी चाहिए। हमारे पास दो एकड़ के करीब कपास है, कुछ सुअर है, और उतने से अमरीकी नस्‍ल के सूअर, जितने की देखरेख क्‍लाड खुद कर लेते हैं।”

“एक चीज अपुन को नई माँगता”, श्‍वेत-टै्रश औरत हाथ की परली तरफ से मुंह पोंछते हुए बोली, “सुअर, घिनौना बदबूवाला चीज, घुरघुराते रहे और हर जगह थूथन मारते रहे।”

श्रीमती टर्पिन ने उसे जरा सी भी तवज्‍जों नहीं दी। “हमारे सूअर गंदे नहीं हैं, और न तो वे बदबू करते हैं”, वे बोलीं, “मैंने बहुत से ऐसे बच्‍चे देखे हैं, जिनसे तो वे साफ ही होंगे। उनके पाँव कभी मटैली जमीन में नहीं लगते। हम लोगों के पास सूअरों का बाड़ा है, जहाँ कंक्रीट की फर्श पर वे पलते है”, उन्‍होंने कहा। उन्‍होंने भली औरत की तरफ मुंह घुमा कर बात समझाई, “और क्‍लाड हर शाम उनको होजपाइप के घार मार कर धोते हैं और फर्श साफ करते हैं।” ठीक वहाँ जो बच्‍चा बैठा है, उससे तो वे काफी साफ हैं, उन्‍होंने मन ही मन कहा। कितना बुरा, गंदा बच्‍चा है। अभी तक हिला भर नहीं, सिवाय अपने गंदे हाथ का अंगूठा मुंह में डालने के।

उस औरत ने अपना मुंह श्रीमती टर्पिन की तरफ से घुमा लिया, “अपुन को मालूम, अपुन कोई बी सुअर होजपाइप से नई धोने का”, उसने दीवार से कहा।

धोने के लिए कोई सुअर हो भी तुम्‍हारे पास, श्रीमती टर्पिन मन ही मन बोलीं।

“घुरघुराते फिरने का, सारा जगह में थूथन मारने का, गों-गों करते घूमने का”, औरत बड़बड़ाई।

“हम लोगों के पास थोड़ी-थोड़ी हर चीज है”, श्रीमती टर्पिन भली औरत से मुखातिब हुईं।

“जितना खुद से निबह जाए उससे ज्‍यादा रखने का कोई फायदा नहीं, कि ऐसी मदद के भरोसे रहें। इस साल हमें कपास की चुनाई के लिए काफी हब्‍शी मिल गए। लेकिन क्‍लाड को उनके पीछे लगना पड़ता है और शाम को वापस उनके घर भी छोड़ना पड़ता है। आधे मील भर का उनका रास्‍ता है, वे चल नहीं सकते। एकदम नहीं, मैं आपको बताऊं।” वे बोल कर मजे से हँसीं, “मैं ता इन हब्‍शियों की खुशामद कर-कर के बिल्‍कुल आजिज आ चुकी हूं। लेकिन उनसे अपना काम कराना है, तो उनसे बना कर रखना है। जब सुबह-सुबह वे आते हैं, न ! तो मैं बाहर भाग कर उनसे पूछती हूं- क्‍यों भई, खूब मजे में? और क्‍लाड जब उनको गाड़ी पर बैठा कर खेतों की ओर ले जाने लगते हैं, तो उस वक्‍त उनको मुस्‍तैदी से हाथ हिला कर विदा करती हूं, और वे भी पलट कर हाथ हिलाते हैं।” उन्‍होंने तेजी से हाथ लहरा कर दिखाए।

“जैसे कि एक ही किताब में से पाठ दुहरा दे”, भद्रमहिला यूँ देखाते हुए बोलीं, जैसे सब समझ गई हों।

“बच्‍चा, न! हाँ”, श्रीमती टर्पिन ने कहा, “और जब वे खेतों से आते हैं, मैं भाग कर बाल्‍टी भर बर्फ का पानी ले जाती हूँ। अब तो ऐसे ही चलने वाला है”, वे बोलीं, “आपको भी ऐसे ही निपटना है।”

“अपुन को एक बात मालुम”, श्‍वेत-टै्रश औरत बोली, “दो काम अपुन करने वाल नईं। हब्‍शी को मिलाके रखने का और सूअर को होजपाइप से धोने का।” और वह नफरत से बड़बड़ाई।

श्रीमती टर्पिन और भली औरत ने नजरें अदलीं-बदलीं, जैसे दोनों समझ रही हों कि चीजों को जानने के लिए उनका अपने पास होना भी तो जरूरी है। लेकिन जब-जब श्रीमती टर्पिन भद्रमहिला से नजरों में कुछ कहतीं, वे बराबर महसूस करतीं कि उस बदसूरत लड़की की अजीब सी निगाहें उनकी ओर लगी हैं और उन्‍हें आगे बातचीत पर लौटने में दिक्‍कत पेश आती ।

“जब अपने पास कुछ चीजें हों”, वे बोलीं, “तो उनकी देखभाल करनी होती है।” और जब जास में कोई चीज न हो, केवल गाल चलाना हो, तो फिर सुबह-सवेरे से शहर में आकर कचहरी में बैंठे बकबक करते रहने से ही चलता है, उन्‍होंने मन ही मन जोड़ा।

उनके पीछे पर्दे के पार एक चक्‍कर खाती हुई भोंड़ी सी परछाई गुजरी और सामने की दीवार पर उसकी जर्द छाया पड़ी। तभी बाहर इमारत के सामने सायकिल की खड़खड़ाहट सुनाई दी। दरवाजा खुला और एक अश्‍वेत लड़का हाथों में दवाखाने की ट्रे में गत्त्ो के दो बड़े-बड़े लाल-सफेद कटोरे ढँके हुए रखे थे। लड़का लम्‍बा और गहरे काले रंग का था। उसने एक बदरंग सफेद पैंट और नायलॉन की हरी कमीज डाल रखी थी। वह धीरे-धीरे किसी गाने की ध्‍ुान पर गम चबा रहा था। उसने ट्रे ऑफिस के सामने बाड़े की खुली जगह में नीचे फर्न से लगा कर रखी और दरवाजे में सिर घुसा कर सेक्रेटरी की तलाश करने लगा। वह अन्‍दर नहीं थी। लड़का दीवार से निकले हुए काउंटर से बाँहें टिका कर इंतजार करने लगा और दाहिने-बाएँ अपनी कमर लहराता रहा। अपना हाथ सिर से ऊपर उठा कर उसने सिर की जड़ में खुजाया।

“वो, वहाँ बटन है, लड़के!” श्रीमती टर्पिन बोलीं। “उसे दबाओ, तो वह आएगी। शायद वह पिछवाड़े में कहीं होगी।”

“ऐसी क्‍या?” लड़का बात रखते हुए बोला, जैसे कि उसने पहले कभी यह बटन देखा ही न हो। दाहिनी ओर उझक कर उसने बटन पर उँगली रख कर दबाई। “कभी-कभी वो बाहर चली जाती”, वह कमर से घूम कर लोगों की ओर रुख करते हुए बोलो, कुहानियाँ पीछे की तरफ काउंटर पर टिकी रहीं। नर्स आई तो वह फिर उस ओर घूमा। नर्स ने उसे एक डॉलर पकड़ाया जो उसने जेब के हवाले कर छुट्टे निकाल कर उसे गिन दिए। नस्र ने पन्‍द्रह सेंट उसे बख्‍शीश में पकड़ाए और खाली ट्रे उठाए वह वापस चला गया। बाहर का भारी-भरकम दरवाजा धीमी लय में खुला और हवा फुसकारने की आवाज के साथ देर से बंद हुआ। क्षण भर के लिए कोई भी नहीं बोला।

“ये सारा हब्‍शी लोग को वापस अफ्रीका भेज देने को माँगता”, श्‍वेत-टै्रश औरत बोली, “जहाँ से ये लोग पहला-पला आया होता।”

“ओह! मेरा काम इन अच्‍छे अश्‍वेत दोस्‍तों के बगैर नहीं चल सकता”, भली औरत बोली।

“ऐसी ढेरों चीजें हैं जो हब्‍शियों से भी बदतर हैं”, श्रीमती टर्पिन ने बात में बात मिलाई, “जैसे हममें हर किस्‍म के लोग हैं, वैसे ही उनमें भी हैं।”

“बिल्‍कुल, और हर तरह की चीजों से मिल कर ही यह दुनिया चलती है”, भद्र महिला ने मीठी धुन में कहा।

उन्‍होंने यह कहा ही था, कि उस दबे रंगों वाली लड़की ने अपने दाँत जोर से बजाए। उसका निचला होंठ बाहर की ओर नीचे लटक आया और अन्‍दर का जर्द-गुलाबी मुँह दिखने लगा। क्षण भर बाद ही उसका होंठ अन्‍दर की तरफ ऊपर खिंच गया। श्रीमती टर्पिन ने इससे ज्‍यादा बदसूरत मुंह किसी को बनाते नहीं देखा था, ओर क्षण भर को उन्‍हें यकीन हो गया कि लड़की ने यह मुंह उन्‍हीं पर बनाया है। वह उन्‍हें यूँ देख रही थी, मानों जिन्‍दगी भर से उन्‍हें जानती और नफरत करती रही हो। केवल लड़की की ही जिन्‍दगी भर नहीं, बल्‍कि श्रीमती टर्पिन की तमाम जिन्‍दगी भी। श्‍कयों, लड़की! मैं तो तुझे जानती तक नहीं, श्रीमती टर्पिन ने मन ही मन पूछा।

वे बलात्‌ अपना ध्‍यान वापस अपनी बातचीत की ओर ले आईं। “उनको वापस अफ्रीका भेज देना व्‍यावहारिक नहीं होगा। वे जाना भी तो नहीं चाहेंगे। यहाँ उनका काफी अच्‍छा चल रहा है।”

“उनको क्‍या माँगता, वैसाई होने का नईं, अगर जो अपुन को इसका कुछ बी करने का हो”, वह औरत बोली।

“दुनिया का ऐसा चलन नहीं है कि सारे हब्‍शी उधर वापस हो जाएँ”, श्रीमती टर्पिन ने कहा, “वे लुकने-छिपने लगेंगे और निराशा में गिर जाएँगे, और लोगों की तरफ से उनका मन बिगड़ जाएगा। वे रोएँगे, पीटेंगे, गुहार लगाएँगे, छीजने लगेंगे और अलग-थलग छूटे रह जाएँगे। दुनिया का ऐसा कोई दस्‍तूर नहीं है कि उनको वापस हो जाना पड़े।”

“वो लोग इदर को आया”, श्‍वेत-ट्रैश औरत बोली, “जैसे आया, वैसे जाने का।”

“तो फिर उनमें बहुत से तो ऐसे नहीं हैं”, श्रीमती टर्पिन ने समझाया।

औरत ने श्रीमती टर्पिन की तरफ यूँ देखा जैसे दरअसल वहाँ पर कोई बेवकूफ बैठी हो, लेकिन श्रीमती टर्पिन को इस निगाह से कोई फर्क नहीं पड़ा, खासकर यह ख्‍याल कर कि निगाह आई कहाँ से है।

“नईं-ईं-ईं, उनको तो इदर में ही रहना मांगता। इदर में वो लोग न्‍यूयार्क जाने को सकता और गोरा लोग के साथ शादी बनाने को सकता और रंग अच्‍छा करने को सकता। वो सब लोग को येई मांगता, उनमें एक-एक को रंग अच्‍छा करने का है।”

“आपको मालूम है, उससे क्‍या बनता है? नहीं मालूम?” क्‍लाड ने पूछा।

“नहीं तो क्‍लाड, क्‍या?” श्रीमती टर्पिन ने पूछा।

क्‍लाड की आँखें टिमटिमा उठीं। “गोरे चेहरे वाले हब्‍शी”, बिना होठों पर मुस्‍कुराहट लाए उसने कहा। ऑफिस में मौजूद सारे लोग हँस पड़े, सिवाय उस श्‍वेत-ट्रैश औरत और बदसूरत लड़की के। लड़की ने गोद में रखी किताब अपनी सफेद उंगलियों में भींच ली। श्‍वेत-ट्रैश औरत अपने चारों और बारीबारी हर एक का चेहरा देखने लगी, मानों समझ रही हो कि सारे के सारे बेवकूफ हैं। चारे के बोरे वाले पहनावे में जो बूढ़ी औरत थी, भावशून्‍य आँखों से फर्श के पार, सामने बैठे आदमी के ऊँची पट्टी वाले जूतों में देखती रही। यह वही आदमी था जो टर्पिन दंपत्ति के आने के वक्‍त सोया हुआ होने का दिखावा कर रहा था। वह खूब खुल कर ठहाके लगा रहा था, हाथ उसके अभी भी घुटनों पर पड़े थे। बच्‍चा जो था वह एक तरफ को पड़ गया था और अब बूढ़ी औरत की गोद में, सिर लगभग लटकाए, लेटा हुआ था।

उन लोगों की हँसी थमी तो कमरे के सन्‍नाटे में बस रेडियो पर एक नकियाता हुआ समवेत गान चल रहा था।

“तुम चले जाओगे शून्‍य के भी शून्‍य में

और मैं अपने स्‍व में लौट जाऊंगा

लेकिन हम सभी हो जाएँगे शून्‍य

साथ-साथ

और निरन्‍त्‍र शून्‍य से

हम उबारेंगे एक-दूसरे को

मुस्‍कराते हुए, चाहे

कोई हो मौसम!...

श्रीमती टर्पिन एक-एक शब्‍द तो नहीं पकड़ पाईं, लेकिन काफी कुछ जो वे समझीं उससे गीत की भावना उन्‍हें अपनी सी लगी और उनकी सोच में गहराई आ गई। किसी को भी उबारने में मदद करना उनकी जिन्‍दगी का फलसफा था। किसी को भी अगर वे मदद का जरूरतमंद पातीं, चाहे वह श्‍वेत हो या अश्‍वेत, टै्रश हों या भद्र, तो अपना जी छुड़ाकर जा नहीं सकती थीं। और कुल मिलाकर अगर वे किसी बात के लिए प्रभु की शुक्रगुजार थी तो ऐसी होने के लिए ही, प्रभु की बेहद शुक्रगुजार थीं। यदि प्रभु यीशु कहते, “तुम ऊंचे दर्जे की हो सकती हो, जितना चाहो धन भी पा सकती हो, साथ ही छरहरी और कमनीय भी हो सकती हो, बस साथ-साथ एक भली औरत नहीं हो सकती”, तोे वे यही कहतीं, “ठीक है, तो मत बनाइये मुझे ये सब, मुझे तो बस एक भली औरत बनाइए, इसके साथ चाहें और जो भी हो जाऊ- कितनी भी मोटी, कितनी भी कुरूप या कितनी भी क्‍यों न, कोई फर्क नहीं पडेगा। उनके हृदय में ऊंचे भावनाओं के हिलोर उठने लगे। प्रभु ने उन्‍हें हब्‍शी या श्‍वैत-टै्रश या कुरूप नहीं बनाया। जो वे हैं, प्रभुने यह बनाया उन्‍हें, और थोड़ा-थोड़ा हर चीज दिया। “प्रशु यीशु, धन्‍यवाद!” प्रभु ने उन्‍हें जो कुछ बख्‍शा है, वे उन्‍हें जितना ही सोचतीं, उनकी देह जैसे भारहीन हो कर उतराने लगती, गोया वे एक सौ अस्‍सी पौंड की जगह एक सौ पच्‍चीस पौंड की हो गई हैं।

“आपके छोटे बच्‍चे को तकलीफ क्‍या है?” भली औरत ने श्‍वेत-ट्रैशी औरत से पूछा।

“इसको नासूर हुआ”, औरत गुमान से बोली, “जब से ये पैदा हुआ, इसने मेरे को मिनट भर का चैन नहीं दिया। ये और इसका बहन एक सरीखा। वह बूढ़ी औरत की ओर सिर हिलाते हुए बोली, जो कि बच्‍चे के पीले बालों में तेजी से अपनी चीमड़ उंगलियाँ फिरा रही थी। “दोनो ऐसा दिखता, जेसे इनको अपुन को कोला और कैन्‍डी के नीचे कुछ भी दिलाने को नहीं सकता।”

यही भर है जो तुम इनको दे पाती होगी, श्रीमती टर्पिन ने मन ही मन कहा। ये काहिल लोग, बस चले तो चूल्‍हा सुलगाने भी न उठें। इन लोगो के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं था जो वे पहले से जानती न रही हों और उन्‍हें बताने की जरूरत हो। और ऐसा इसलिए नहीं होता कि इनके पास कुछ है ही नहीं। क्‍योंकि अगर इनको हर चीज दे भी दी जाए तो दो ही हफ्‍तों में तोड़ताड़ कर या घिनौनी बना कर रख दें या उन्‍हें काटकूट कर जलावन ही बना लें। वे यह सब अपने अनुभवों से जानती थीं। इनकी कितनी भी मदद करें, नहीं हो सकती।

एकाएक बदसूरत लड़की ने अपने होंठ फिर भींच कर छोड़े। उसकी आँखें दो तेज ड्रिलों की तरह श्रीमती टर्पिन पर जमी हुई थीं। इस बार यह समझने में गलती की जरा भी गुंजाइश नहीं थी कि उनके पीछे जरूर कोई फौरी वजह थी।

अरे लड़की, श्रीमती टर्पिन ने मन ही मन आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया, मैंने तुम्‍हारे साथ कुछ भी तो नहीं किया। हो सकता है लड़की उन्‍हें गलती से कोई और ही समझ रही हो। उन्‍हें लगा, किनारे चुपचाप बैठे-बैठे उससे डरते रहने की क्‍या जरूरत है? “तुम कॉलेज में हो?” उन्‍होंने हिम्‍मत कर सीधे लड़की की ओर देख कर पूछा। “देख रही हूं कि तुम तब से किताब पढ़ने में लगी हो।”

लड़की बस घूरती रही, बोली कुछ नहीं।

उसकी माँ को उसकी बदसलूकी पर झेंप आई। “भद्र महिला ने तुमसे कुछ पूछा, मेरी ग्रेस!” उन्‍होंने फुसफुसा कर कहा।

“मेरे कान है।”

बिचारी माँ फिर झेंपी। “मेरी ग्रेस बेलेजली कॉलेज में है”, उसने उंगलियों से परिधान का एक बटन उमेठते हुए सफाई पेश की। “मेसाचुसेट्‌स में” उसने खीझभरा मुंह बनाते हुए कहा। “और गर्मियों मेें यह बस पढ़ती ही रहती है। सारे समय बस पढ़ना ही पढ़ना, बिल्‍कुल किताबी कीड़ा है। वेलेजली में यह काफी अच्‍छा कर रही है। इसने अंग्रेजी ले रखा है, और गणित, और इतिहास और मनोविज्ञान, और सामाजिक अध्‍ययन”, वह सपाट बोलती चली गई, “और मैं सोचती हूँ, यह बहुत हो जाता है। मैं सोचती हूं इसे घूमना-फिरना और मनबहलाव करना चाहिए।”

लड़की ने यूँ देखा, गोया उन सबको मोटे शीशे की खिड़की से घुमा कर फेंक देना चाहती हो।

“जो सीधे उत्तर जा रहे है”, श्रीमती टर्पिन बुदबुदाई, और सोचने लगीं, ठीक है, लेकिन तो भी उसमें अच्‍छे तौर-तरीके नहीं आए।

“अपुन को तो बल्‍कि ये बराबर बीमार ही रहना माँगता”, श्‍वेत-टै्रश औरत दुख से मरोड़ कर जिक्र वापस खुद पर ले गई। “जब ये बीमार नहीं रहे तो बहुत बदमाश हो जाता। बच्‍चे का माफिक दिखने का, बच्‍चे का माफिक ही बदमाशी करने का। बहुत सा बच्‍चा लोग जब बीमार होता तो बदमाश हो जाता। ये उससे उलट। बीमार होता तो अच्‍छा से रहता। अबी मेरे को कुछ बी तकलीफ नइं देता। डाकडर के वास्‍ते इदर मँइ ही इंतजार करते बैठी।” वह बोली।

अगर मुझे किसी को अफ्रीका वापस भेजना हो, श्रीमती टर्पिन ने सोचा, तो मोहतरमा! ये तुम्‍हारे जैसे ही लोग हों, “हाँ, बिल्‍कुल”, वे जोर से लेकिन छत की ओर देखते हुए बोल पड़ीं। “बहुत सारी चीजें ऐसी हैं, जो हब्‍शियों से भी बदतर हैं।” और सूअर से भी गंदी, उन्‍होंने मन ही मन बात पूरी की।

“मुझे लगता है, बैढंगे कद-काठी के लोग धरती पर किसी भी और आदमी की बनिस्‍पत दया के ज्‍यादा लायक हैं”, भली औरत ने साफ तौर से, लेकिन बहुत ही पतली आवाज में कहा।

“मैं प्रभु की बेहद शुक्रगुजार हूँ कि उसने मुझे बहुत ही बढ़िया कद-काठी बख्‍शी”, श्रीमती टर्पिन बोलीं। “कोई सुबह ऐसी नहीं होती कि मैं कोई न कोई हँसने लायक चीज न देखती होऊं।”

“खैर, ये नहीं कि जबसे इन्‍होंने मुझसे शादी की है, तभी से।” क्‍लाड ने मजाकिया तौर पर सपाट चेहरा बनाए हुए कहा।

हर कोई हँस पड़ा, सिवाय उस लड़की और श्‍वेत-टै्रश औरत के।

श्रीमती टर्पिन की आँतों में बल पड़ गए। “ये इतने अजीब हैं”, वे बोलीं, “कि इन पर हँसे बिना नहीं रह जाता।”

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लड़की ने जोर से दाँत बजाए। उसकी माँ का चेहरा लंबोतरा पड़ गया और कस गया।

“मैं सोचती हूँ, दुनिया में सबसे खराब चीज”, वह बोली, “नाशुकरा आदमी है। हर चीज होते हुए भी उसकी कीमत न समझने वाला। मैं एक लड़की को जानती हूँ”, उसने आगे कहा, “जिसके माँ-बाप हैं, उसे सबकुछ देते हैं। एक बेहद प्‍यार करने वाला छोटा भाई है। अच्‍छी-भली शिक्षा पा रहे हैं। सबसे बढ़िया कपड़े पहनती है। लेकिन कभी किसी को एक भी मीठा बोल नहीं बोलती, कभी मुस्‍कराती नहीं। बस दिन भर सबके छेद गिनाती रहेगी या उलाहने देते रहेगी।”

“क्‍या वह चलने लायक हो गई है?” क्‍लाड ने पूछा। लड़की का चेहरा बैंगनी पड़ गया।

“हाँ”, भद्र महिला बोली, “मुझे लगता है उसका कुछ नहीं कर सकते, सिवा इसके कि उसे उसकी बेवकुफियों के साथ छोड़ दें। एक दिन जब उसकी आँख खुलेगी तो बहुत देर हो चुकी होगी।”

“मुस्‍कराने से कभी किसी का कोई नुकसान नहीं होता”, श्रीमती टर्पिन बोलीं, “इससे हर समय हर जगह अपने साथ अच्‍छा ही होता है।”

“बिल्‍कुल”, भद्र महिला बोलते-बोलते उदास हो गई, “लेकिन ऐसे भी लोग हैं कि उन्‍हें कुछ भी कहो तो मुश्‍किल। उनके बारे में कुछ बोलो तो उन्‍हें बुरा लगता है।”

“अगर मुझे देखें”, श्रीमती टर्पिन ने जजबाती हो कर कहा, “कितना मन आभार से भर जाता है जब मैं सोचती हूँ कि मैं जो हूँ इसके अलावा भी तो क्‍या-क्‍या बन सकती थी, और क्‍या-क्‍या मुण्‍े प्रभु ने बख्‍शा है। थोड़ी-थोड़ी हर चीज और अलग से बढ़िया कद-काठी भी। तो, मेरा मन होता है, जोर-जोर से आवाज लगाऊं- तुम्‍हारा लाख-लाख धन्‍यवाद प्रभु! कि तुमने मेरी हर चीज जैसी है वैसी बनाई। ये कुछ और तरह की भी हो सकती थीं।” जैसे कि क्‍लाड को कोई और ही पा सकता था। यह सोचने भर से वे आभार के एक सैलाब में डूबने लगी और आनंद की एक मीठी टीस उनकी रगों में दौड़ गई। “ओह, धन्‍यवाद, प्रभु यीशु! धन्‍यवद!” वे जोर से बोल पड़ीं।

वह मोटी किताब सीधे उनकी बाईं आँख पर धड़ाप्‌ से पड़ी। उनको लगा भर, कि लड़की उन पर किताब खींच कर मारने वाली है, कि लगभग उसी क्षण किताब उन्‍हें धडाप्‌ से आ लगी। इसके पले कि उनके मुंह से एक शब्‍द भी निकलता, वह रौद्र चेहरे के साथ मेज पर चढ़ कर बड़बड़ाते हुए उनकी ओर दौड़ी। लड़की की उंगलियाँ उनके गले की नर्म पेशियों में सँड़सी की तरह जकड़ गईं। उन्‍हें सुनाई दिया, लड़की की माँ से तेजी से निकला, “अरे-रे!” एक क्षण तो उन्‍हें भरोसा हो गया कि उनके गिर्द कोई भूकंप ही आ रहा है।

एकाएक उनकी नजर सिकुड़ी और हर चीज यूँ दिखने लगी, गोया बहुतद दूर किसी छोटे से कमरे में घट रही हो, या वे इन्‍हें टेलिस्‍कोप के गलत सिरे से देख रही हों। क्‍लाड का चेहरा कुछ परतों में गडमुड हो कर नजरों से ओझल हो गया। नर्स दौड़ कर आई, फिर वापस भागी, फिर दौड़ कर आई। तभी डॉक्‍टर की ढीली-ढीली आकृति दरवाजे के अन्‍दर से तेजी से निकली। मेज उलटी और पत्र-पत्रिकाएं इधर-उधर छितरा गईं। तभी लड़की भहरा कर धड़ से गिर पड़ी और श्रीमती टर्पिन की नजरें अब हर चीज छोटी की जगह बड़ी देखने लगीं। श्‍वेत-ट्रैश औरत की आँखें जैसे फट गईं और फर्श को देखती रहीं। फर्श पर उस लड़की को एक तरफ से नर्स और दूसरी तरफ से उसकी मां ने पकड़ रखा था और वह उनकी जकड़ में तड़प और ऐंठ रही थी। डॉक्‍टर उसके आरपार होकर उस पर झुका हुआ था और उसकी बाँह पकड़ रखने की कोशिश कर रहा था। एक क्षण बाद वह उसकी बाँह मेें एक लम्‍बी सुई चुभाने में कामयाब हो गया।

श्रीमती टर्पिन को लगा, वे अन्‍दर से पूरी तरह खोखली हो गई हैं, बावजूद अपने दिल को महसूस करने के जो एक तरफ से दूसरी तरफ बड़ी तेजी से उछल रहा था, गोया माँस के किसी बड़े खाली पीपे के अन्‍दर उसे जोरों से झिंझोड़ दिया गया हो।

“जो व्‍यस्‍त न हो जरा एंबुलेंस बुला दे”, डॉक्‍टर के मुँह से अकस्‍मात्‌ निकला, जैसे, घोर परिस्‍थितियों में नए-नए डॉक्‍टर बोल पड़ते हैं।

श्रीमती टर्पिन तो एक उँगली भी नहीं हिला सकती थीं। उनके बगल में बैठे बूढ़े व्‍यक्‍ति ने फुरती से ऑफिस के अन्‍दर जा कर एंबुलेंस के लिए फोन कर दिया क्‍योंकि सेक्रेअरी के होशोहवास अभी तक गुम थे।

“क्‍लाड”, श्रीमती टर्पिन ने पुकारा।

वह अपनी कुर्सी में नहीं था। उन्‍होंने चाहा कि कूद कर उठें और उसे ढूंटें, लेकिन उन्‍हें ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे कोई सपने में टे्रन पकड़ना चाह रहा हो और हर चीज स्‍लो-मोशन में चल रही हो, और जितना ही तेज दौड़ना चाहे चाल उतनी ही धीमी हो जाती हो।

“मैं इधर हूँ!” एक घुटी हुई सी, क्‍लाड की आवाज से बिल्‍कुल भिन्‍न आवाज आई। वह पन्‍ने की तरह पीला, कोने में फर्श पर अपनी टाँग पकड़े हुए दुहरा पड़ा था। उन्‍होंने चाहा, उठकर उसके पास जाएँ, लेकिन हिलडुल नहीं सकीं। बल्‍कि उनकी नजर धीरे-धीरे नीचे की ओर खिंच गई, जहाँ डॉक्‍टर के कंधे के ऊपर से उन्‍हें लड़की के मुंह से झाग निकलता हुआ दिखाई दे रहा था।

लड़की की चकराती हुई आँखें रुकीं और उन पर आ कर ठहर गईं। उनमें पहले से कहीं ज्‍यादा तेज नीलापन चमकने लगा था, गोया उन आँखों के पीछे कोई हमेशा से बंद झिर्री हवा और रोशनी लेने के लिए ख्‍ुाल गयी हो।

श्रीमती टर्पिन का सिर हल्‍का हुआ और हिलने-डुलने की चेतना उनमें लौटी। वे आगे झुक कर उन तेज चमकीली आँखों में सीधे देखने लगीं। मन में कोई संदेह नहीं रहा कि लड़की उन्‍हें जानती है। देश, काल और परिस्‍थिति से परे, किसी बहुत अंतरंग और व्‍यक्‍तिगत तौर पर जानती है।

“क्‍या कहना चाहती हो मुझसे?” उन्‍होंने भर्राए हुए गले से पूछा, और साँस रोक कर जेसे कोई इलहाम होने का इंतजार करने लगीं।

लड़की ने सिर उठाया। उसकी नजरें श्रीमती टर्पिन की नजरों से जुड गईं। “चली जा दोजख में वापस, जहाँसे आई हैं। तू , बूढ़ी मस्‍सेदार सुअर!” उसने फुसफुसा कर कहा।उसकी आवाज धीमी लेकिन स्‍पष्‍ट थी। उसकी आँखों में क्षण भर को एक लपट उठी, मानो उसे यह देख कर असीम सुख मिल गया हो कि उसके इस मजमून ने ठीक निशाने पर चोट किया है।

श्रीमती टर्पिन वापस अपनी कुर्सी में निढाल ढह पड़ी।

क्षण भर बाद लड़की की आँखें मुँदीं और उसने अपना सिर क्‍लांतिपूर्वक एक तरफ मोड़ लिया।

डॉक्‍टर ने उठ कर खाली सिरिंज नर्स को पकड़ा दिया। झुक कर उसने लड़की की माँ के काँपते हुए कंधों पर क्षण भर को अपने हाथ रखे। वह फर्श पर मेरी ग्रेस का हाथ अपनी गोद में लिए बैठी थी, होंठ भिंचे हुए थे।

लड़की की उंगलियों की, छोटे बच्‍चे की तरह, मुट्‌ठी बँधी हुई थी।

“अस्‍पताल चली जाइए”, डॉक्‍टर बोला, “मैं फोन कर के इंतजाम करवा देता हूँ।”

“अब जरा गर्दन देख लें”, वह श्रीमती टर्पिन से जिंदादिली से बोला। उसने अपनी पहली दो उंगलियाँ उनकी गर्दन पर रखीं और जाँचने लगा। वहाँ साँस नली के ऊपर दो छोटे चाँद के आकार की मछली की गुलाबी हड्डी की तरह की धारियाँ उभर आई थीं। उनकी आँखों के ऊपर तेजी से एक लाल सूजन बन रही थी। उसने उंगललियों से यहाँ भी हलके से दबाया।

“मुझे रहने दीजिए”, उन्‍होंने सख्‍ती से अपने-आप को छुड़ाते हुए कहा, “क्‍लाड को देखिए, उसने उन्‍हें लात जमा दी थी।”

“मैं उन्‍हें मिनट भर में देखता हूँ”, कह कर वह उनकी नब्‍ज़ देखने लगा। डॉक्‍टर इकहरे बदन का भूरे बालों वाला एक मजाकिया इन्‍सान था। “घर जाइए और बाकी का दिन छुट्टी मनाइए”, उसने उनके कंधे पर थपकते हुए कहा।

मुझे चपकना छोड़ो, श्रीमती टर्पिन मन ही मन गुर्राई।

“और उस आँख पर बर्फ से सिंकाई कीजिए”, कह कर वह गया और क्‍लाड के सामने जा कर उकडूं बैठ गया और उसकी टाँगें देखने लगा। क्षण भर बाद उसने उसे खींच कर उठाया और क्‍लाड लँगड़ाते हुए उसके पीछे ऑफिस के अन्‍दर चला गया।

एंबुलेंस के आने तक कमरे में लड़की की माँ की काँपती हुई सिसकी सुनाई पड़ती रही। वह अभी तक फर्श पर ही बैठी हुई थी। श्‍वेत-ट्रैश औरत ने अपनी आँखें लड़की के ऊपर से नहीं हटाई थीं। श्रीमती टर्पिन सीधे सामने शून्‍य में देख रही थीं। पर्दे के पीछे से एंबुलेंस के आने की लम्‍बी काली छाया बनी। परिचर अन्‍दर आए, लड़की के बगल में नीचे उन्‍होेंने स्‍ट्रेचर लगाया और लड़की को सधे हुए हाथों से ऊपर उठाया और लेकर चले गए। नर्स ने माँ की चीजें सहेजने में मदद की। एंबुलेंस की छाया बेआवाज दूर चली गई और नर्स वापस ऑफिस में लौट गई।

“वो लड़की पागल होने वाला है, नहीं?” श्‍वेत-ट्रैश औरत ने नर्स से पूछा। नर्स अपनी पीठ इस तरफ किए रही, उसने कुछ जवाब नहीं दिया।

“हाँ, वो पागल होने वाला है”, श्‍वेत-ट्रैश औरत बाकी लोगों से बोली।

“बेचारी बच्‍ची”, बूढ़ी औरत बुदबुदाई। बच्‍चे का चेहरा अभी तक उसकी गोद में था। उसकी आँखें बूढ़ी के घुटनों के ऊपर निश्‍चेष्‍ट खुली थीं। इस गड़बड़ी के दौरान भी वह हिला नहीं था, सिवाय इसके कि उसने अपना एक पैर अन्‍दर खींच भर लिया था।

“प्रभु का लाख-लाख शुक्र”, श्‍वेत-ट्रैश औरत भक्‍ति के जज्‍बे से भर कर बोली, “मैं पागल नहीं हूँ।”

क्‍लाड लँगड़ाते हुए बाहर आया अैर टर्पिन दंपति घर चले गए।

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जैसे ही उनकी छोटी ट्रक उनके अपने कच्‍चे रास्‍ते पर मुड़ कर पहाड़ी की चढ़ान पर आई, श्रीमती टर्पिन खिड़की के सिरे को कस कर पकड़े हुए शुबहे की नजर से बाहर देखने लगीं। यहाँ जमीन बड़े शानदार तरीके से नीचे ढलान की ओर खेतों के एक सिलसिले की तरह चली गई थी, जिसमें यहाँ-वहाँ लैवेंडर की घास उगी हुई थी। और चढ़ान जहाँ से शुरू होती थी, वहाँ उनका छोटा पीला लकड़ी का घर, अपने छोटे फूलों के संस्‍तरणों के आकर्षक लदाबों के साथ, दो विशाल हिकरी के ;अखरोट के जैसेद्ध पेड़ों के बीच बेहद तहजीब से अपनी जगह पर बदस्‍तूर बना हुआ था। वहाँदो काली पड़ी चिमनियों के बीच एक जला हुआ निशान देख कर भी उनमें सनसनी नहीं आई।

दोनों में से किसी का भी मन खाने का नहीं हुआ, सो वे घर वाले कपड़े पहन कर शयनकक्ष के शीशे गिरा कर लेट गए। क्‍लाड ने अपना पाँव एक तकिए पर टिका लिया, और उन्‍होंने एक गीला तौलिया आँखों पर रख लिया। वे जैसे ही पीठ वाले एक सूअर का बिम्‍ब, जिसके मुँह पर मस्‍से थे और कानों के पीछे से सींगें निकल रही थीं, उनके सिर में फुफकारने लगा। वे एक धीमी शांत कराह से भर उठीं।

“मैं”, आंसुओं से भर कर वे बोलीं, “दोजख से आई हुई मस्‍सेदार सूअर नहीं हूँ।” लेकिन इस इनकार में कोई ताकत नहीं थी। लड़की की आँखें, उसके शब्‍द, यहाँ तक कि उसकी आवाज के उतार -चढ़ाव भी, जो धीमे लेकिन स्‍पष्‍ट, और उन्‍हें ही लक्ष्‍य कर के थे, किसी इनकार को मान नहीं रहे थे। यह मजमून अलग अकेले उन्‍हीं के लिए ही था, जो कि कमरे में ऐसे टै्रश भी थे जिनके लिए यह ज्‍यादा मौजूँ होता। इस सच्‍चाई ने पूरी ताकत से उन पर अब जा कर चोट किया। वहाँ एक ऐसी औरत थी, जो अपने ही बच्‍चे से लापरवाह थी, लेकिन उस पर उस लड़की की नजर नहीं गई। यह मजमून दिया गया तो किसे? केवल रूबी टर्पिन को, जो एक इज्‍जतदार, मेहनती और चर्च जाने वाली औरत हैं। उनके आँसू सूख गए, आँखें बल्‍कि गुस्‍से में जलने लगीं।

वे अपनी कुहनियों के बल उठीं, और तौलिया उनके हाथों पर गिर पड़ा। क्‍लाड पीठ के बल लेटा खर्राटे भर रहा था। लड़की ने जो कुछ उन्‍हें कहा था, वे उससे सब कहना चाहती थीं, लेकिन साथ ही वे उसके मन में अपनी दोजख से आए हुए सुअर वाली छवि भी डालना नहीं चाहती थीं।

“हे क्‍लाड!” बड़बड़ाते हुए उन्‍होंने उसका कंधा पकड़ कर दबाया।

क्‍लाड ने जर्द पड़ी हुई एक मासूम नीली आँख खोल कर देखा। वे इस आँख में होशियारी से देखने लगीं।

“क्‍क....क्‍या है?” कह कर उसने आँख फिर बंद कर ली।

“कुछ नहीं”, वे बोलीं, “तुम्‍हारा पाँव दुख रहा है?”

“बुरी तरह पिरा रहा है”, क्‍लाड बोला।

“दर्द जल्‍दी ही जाएगा”, कह कर वे वापस पड़ गईं। क्षण भर में क्‍लाड फिर खर्राटे लेने लगा। शाम तक वे लेटे रहे। क्‍लाड सोता रहा। वे छत की ओर भौं चढ़ाए देखती रहीं। बीच-बीच में उनकी मुट्‌ठी तन जाती और वे हल्‍के से अपनी छाती पर उसे यूँ मारतीं, मानों अपनी मासूमियत कुछ अदृश्‍य, ठीक दिखने वाले लेकिन गलत, मेहमानों पर साबित करने की कोशिश कर रही हों, जो कि उन्‍हें ढाढ़स बँधाने आए हों पर इसकी जगह उन्‍हें ही दोष देने लगत हों।

लगभग साढ़े पाँच बजे क्‍लाड के बदन में हरकत आई। “उन हब्‍शियों के पीछे लगना है”, बिना उठे उसने हल्‍की कराह भरी।

वे सीधे ऊपर देखती रहीं, मानों ऊपर छत पर कोई लिखावट है जो पढ़ी नहीं जा रही है। उनकी आँख पर उभर हुए गूमड़ में अब थोड़ा हरापन लिए हुए नील पड़ चुका था।

“सूनों, इधर आओ”, वे बोलीं।

“क्‍या है?”

“मुझे चूमों!”

क्‍लाड उन पर झुक आया और कस कर उनके मुँह का चुंबन लेने लगा। उसने उनकी बगल में चुटकी ली और उनके हाथ आपस में उलझ गए। लेकिन उनके चेहरे पर बने हुए उद्विग्‍नता के तीव्र भावों में कोई फर्क नहीं पड़ा। क्‍लाड कराहते और बड़बड़ाते हुए उठ खड़ा हुआ और लँगड़ाते हुए बाहर चला गया। वे छत में बदस्‍तूर देखती रहीं। जब तक उनकी छोटी ट्रक की हब्‍शियों को ले कर आने की आवाज नहीं सुनाई पड़ी, वे उठीं नहीं। तब उठ कर उन्‍होंने अपने भूरे, टखनों पर बाँधने वाले, जूतों में पाँव उड़स दिए और बगैर तस्‍मों को बाँधने की परवाह किऐ वे खटपट करती हुई पिछवाड़े की सहन में गईं, और अपनी लाल प्‍लास्‍टिक की बाल्‍टी उठा लाईं। उन्‍होंने एक टे्र बर्फ इसमें उंडेली और इसे पानी से आधी भर कर लिए हुए पिछवाड़े आँगन में चली गईं। हर शाम जब क्‍लाड इन मजदूरों को घर लाता, तो उनमें से एक लड़का तो आकर क्‍लाड के साथ भूसा निकलवाने लगता, बाकी सब ट्रक के पिछवाड़े में इंतजार करते रहते, जब तक कि क्‍लाड आकर उन्‍हें घर छोड़ आने को तैयार न हो जाता। ट्रक एक हिकरी के पेड़ के नीचे खड़ी थी।

“आओ, खूब मजे में”, उनमें जो सबसे बूढ़ी औरत थी, बोली, “आप कैसा है?” और उसकी नजर अचानक श्रीमती टर्पिन के माथे पर उभरे नील पड़े गूमड़ पर पड़ी। “आप गिर गया, क्‍यों?” उसने उत्‍सुक हो कर पूछा। बुढ़िया काली थी और सारे दाँत उसके लगभग गिर चुके थे। उसने सिर पर क्‍लाड की पुरानी फेल्‍टहैट पहनी हुई थी। दूसरी दो औरतें इसकी बनिस्‍बत छोटी ओर छरहरी थीं, और दोनों के ही पास उनके अपने धूप के नए चमचमाते हुए हरे रंग के हैट थे। उनमें से एक ने अपना हैट पहन रखा था और दूसरी ने उतार रखा था जिसे लड़का अपने सिर पर लगा कर खुशी से दाँत दिखा रहा था।

श्रीमती टर्पिन ने बाल्‍टी ट्रक के फर्श पर रख दी, “लो, तुम लोग पी लो”, वे बोलीं। उन्‍होंने अपने चारों ओर सिर घुमा कर देखा। क्‍लाड जा चुका था। “नहीं, मैं गिरी नहीं”, हाथ बाँधते हुए वे बोलीं, “जो हुआ वो उससे भी बदतर है।”

“हम लोग शहर में डॉक्‍टर के ऑफिस गए हुए थे, जो श्री टर्पिन को गाय ने दुलत्ती मार दी थी, उसके लिए”, श्रीमती टर्पिन ने यूँ सपाट आवाज में कहा, ज्‍यों उन सबों को बता रही हों कि अपनी बेवकूफी से बाज आएँ। “और वहाँ पर वो लड़की थी, पूरी मुटल्‍ली और चेहरा सारा चटखा हुआ। मैं देख कर समझ गई कि लड़की थोड़ी अजीब है, लेकिन कह नहीं सकती कि कैसे। और मैं और उसकी माँ साथ-साथ थे, और बस बातें ही कर रहे थे, कि अचानक धड़ाप ! उसने ये मोटी किताब, जो वो पढ़ रही थी, मेरे ऊपर खींच मारी, और...”

“न... नहीं!” बुढ़िया चिल्‍ला पड़ी।

“और फिर मेज पर चढ़ दौड़ी मेरा गला घोंटने के लिए।”

“नहीं”, वे सब चिल्‍ला पड़े, “नहीं।”

“वो ऐसा क्‍यों किया?” बुढ़िया बोली, “उसको क्‍या तकलीफ था?”

श्रीमती टर्पिन उनके सामने घूरती रहीं।

“वे लोग उसे एंबुलेंस में ले गए”, श्रीमती टर्पिन ने आगे बताया, “लेकिन जाने के पहले वह फर्श पर पछाडें खा रही थी और वे लोग सुई लगाने के लिए उसे पकड़ रहे थे, तभी वह मुझसे एक बात बोली”, वे रुकीं, “तुम्‍हें मालूम हैं, वो मुझसे क्‍या बोली?”

“क्‍या बोला, वो?” उन्‍होंने पूछा।

“वह बोली”, श्रीमती टर्पिन कहते-कहते रुक गईं। उनका चेहरा फक्‍क पड़ गया और लटक आया। ऊपर सूरज काफी चमकदार सफेद हो रहा था जिसकी कौंध से आसमान का रंग उड़ चुका था और हिकरी की पत्तियाँ सामने से काली पड़ गई थीं। वे आगे वह बात नहीं कह पाईं। “सच में, बहुत ही गंदी बात”, वे बड़बड़ा कर रह गईं।

“पक्‍का, वो आपको कुछ भी गंदा नहीं बोलने का”, बुढ़िया बोली, “आप इतना प्‍यारा, आप सबसे अच्‍छा औरत, मेरे को मालूम।”

“वे इतना सजीला भी”, दूसरी जो हैट पहने हुए थी, बोली।

“और गठीला”, दूसरी वाली बोली, “अपुन जानता, इससे ज्‍यादा प्‍यारा दूसरा गोरा औरत नहीं।”

“ये सच्‍चा बात, जीसस जानता”, बुढ़िया बोली। “आप बहुत प्‍यारा, बहुत सजीला, इससे जादा होने को नईं सकता।”

श्रीमती टर्पिन को पता था कि हब्‍शियों की इस ठकुरसुहाती का वास्‍तव में कितना अर्थ है। और इससे उनका गुस्‍सा औार भड़क उठा। “वो बोली”, उन्‍होंने फिर कहना शुरू किया, और इस बार साँस उखड़ने तक में वे सारा बोल गईं, “बोली कि मैं दोजख से आई मस्‍सेदार सूअर हूँ।”

माहौल में एक सन्‍नाटा छा गया।

l

“वो किधर में अब्‍भी?” सबसे छोटी वाली औरत चुभती हुई आवाज में चिल्‍लाई।

“मेरे को दिखाओ, मैं उसको जान से मान डालेगा।”

“मैं भी तरे साथ उसको जान से मार डालेगा।”

“मैं भी तेरे साथ उसको जान से मार डालेगा।”

“उसको पागलखाना में होने का”, बुढ़िया जोर दे कर बोली, “आप सबसे प्‍यारा गोरा औरत, मैं जानता।”

“ये सजीला भी”, बाकी दोनों बोलीं, “गठीला, इससे जादा होने को नईं सकता, और प्‍यारा! इन पर जीसस का रहम होता।”

“पक्‍का, होने का ही।” बुढ़िया ने ऐलान किया।

बेवकूफो! श्रीमती टर्पिन मन ही मन गुर्राईं। किसी हब्‍शी से तो तुम लोग कभी कुछ भी समझदारी की बात नहीं बोलोगी। उनके बारे में बताओगी, उनसे बोलोगी नहीं। “लो, अभी तक तुमने पानी नहीं पिया, “वे रुखाई से बोलीं, “पी कर, बाल्‍टी ट्रक में छोड़ देना। मुझे अभी बहुत काम बाकी है, इधर ही खड़े रह कर दिन नहीं बिताना है।” वे वहाँ से चल कर घर के अन्‍दर आ गईं।

क्षण भर वे रसोई के बीच जा कर खड़ी हुईं। उनकी आँख के ऊपर का नीला गूमड़ एक छोटे से अंधड़वाले बादल की तरह दिखने लगा था और किसी भी क्षण भौहों के क्षितिज के पार तक फैल सकता था। उनका निचला होंठ खतरनाक ढंग से आगे अटक आया था। उन्‍होंने अपने भारी-भरकम कंधों को ताना। फिर वे तेजी से दरवाजे से निकल कर नीचे सूअरों के बाड़े की ओर तेजी से बढ़ीं। वे यूँ दिख रही थीं, गोया कोई अकेली औरत बिना किसी हरबा-हथियार लड़ाई के मैदान में जा रही हो। सूरज अब शरद के चाँद की तरह गहरा पीला पड़ चुका था और पश्‍चिम में दूर पेड़ों की पाँत के ऊपर तेजी से यूँ बढ़ा जा रहा था, गोया उसका इरादा सूअरों के पास इनसे भी पहले पहुंच जाने का है। सड़क पर लीक पड़ी हुई थी। वे लम्‍बे-लम्‍बे डग भरती हुई चलते-चलते, अपने रास्‍ते से अच्‍छे-खासे आकार के पत्‍थरों को ठोकर मार कर दूर करती जा रही थीं। सूअरों का बाड़ा बखार के एक तरफ से आती हुई पतली गली के आखिर में एक टेकरी पर था। वह कांक्रीट की एक चौरस जगह थी- न काफी बड़ी, न काफी छोटी। इसके चारों ओर लकड़ी की फट्टियों का लगभग चार फीट ऊंचा बाड़ा बना हुआ था। कांक्रीट की फर्श एक तरफ थोड़े ढलान से बनी थी ताकि सूअरों की धोवन बह कर उस तरफ एक खंदक में जमा होती रहे। वहीं से खाद बनाने के लिए उसे खेतों में ढोते थे। क्‍लाड कांक्रीट के बाहरी किनारे से सबसे ऊपर वाली फट्टी पर से उझक कर अन्‍दर फर्श पर होजपाइप से पानी की धार छोड़ने में मशगूल था, जो पास ही पानी की एक नाँद की टोंटी से जुड़ा था।

श्रीमती टर्पिन ऊपर उसके बगल में चढ़कर नीचे बाड़े में खड़े सूअरों को गुरेरने लगीं। अन्‍दर लम्‍बी थूथनों वाले सात कड़ियल छौने थे जिन पर कलेजी के रंग के धब्‍बे थे, और एक बूढ़ी, कुछ हफ्‍तों की ब्‍याही हुई। सुअरी थी जो एक करवट पड़ कर रंभा रही थीं छौने इधर-उधर बेवकूफ बच्‍चों की तरह बदन हिलाते हुए दौड़ लगा रहे थे, और अपनी छोटी कंजी आँखों से फर्श पर कुछ बचे-खुचे की तलाश कर रहे थे। श्रीमती टर्पिन ने पढ़ रखा था कि सुअर जानवरों में सबसे ज्‍यादा बुिद्धमान होता है। उन्‍हें सन्‍देह हुआ। सुअरों को माना जाता है कि कुत्तों से भी चतुर होते हैं। एक तो अंतरिक्ष यात्री सुअर भी हो चुका है। उसने दिए हुए काम तो अच्‍छी तरह पूरे कर दिए थे लेकिन बाद में वह हार्ट फेल हो जाने से मर गया था, क्‍योंकि उन लोगों ने उसे उसके इलेक्‍ट्रिक सूट में सारे परीक्षणों के दौरान टाँगें ऊपर की ओर किए लिटाए रखा था जबकि प्राकृतिक तरीका सूअरों का अपने पाँवों के बल ही रहने का है।

घुरघुराता रहे, थूथन मारता रहे, गों-गों करता फिरे।

“होज मुझे दे दो”, उन्‍होंने इसे क्‍लाड से झपटते हुअ कहा, “जाओ, जा कर उन हब्‍शियो को घर छोड़ आओ और सस्‍ते छूटो अपनी टाँग से।”

“तुम तो, लगता है जैसे बहशी हो गई हो।” उसने निहारते हुए कहा, लेकिन फिर नीचे उतर कर लँगड़ाते हुए चला गया। उनके मजाक पर उसने कोई तवज्‍जों नहीं दी। जब तक वह सुनने की हद से बाहर नहीं चला गया, श्रीमती टर्पिन बाड़े के पार होज पकड़े खड़ी रहींं जब देखतीं कि कोई छौना लेटने के चक्‍कर में है तो उसके पिछवाड़े पानी की धार छोड़ देतीं। जब इतना वक्‍त हो गया कि वह टीले ऊपर पहुँच चुका हो, तो उन्‍होंने सिर थोड़ा घुमा कर जलती हुई आँखों से पूरे रास्‍ते की टोह ली। वह कहीं नहीं था। फिर वापस मुड़ कर लगा जैसे हिम्‍मत जुटा रही हों। कंधे तान कर उन्‍होंने भरपूर साँस अन्‍दर खींची।

“वैसी बात तूने मुझे किसलिए कही?” वे धीमी रोषभरी आवाज में बोलीं जो मुश्‍किल से फुसफुसाहट से थोड़ी ज्‍यादा रही होगी लेकिन उसमें खूब दबा कर भरे हुए प्रचंड रोष के अंदर से आती हुई चीख की तेजी थी। “ये किस तरह, कि मैं सूअर भी हूँ और मैं भी दोनों एक साथ। किस तरह मैं परमपिता की निगहबानी में भी हूँ और दोजख की भी हूँ।” उनका जो हाथ खाली था उसकी मुट्‌ठी भिंची हुई थी और दूसरे वाले हाथ से होजपाइप कस कर पकड़े हुए वे बूढ़ी सूअरी की आँखों में बाहर-भीतर अंधाधुंध पानी की बौछार छोड़े जा रही थीं, और सूअरी की तेज गों-गों पर कान नहीं दे रही थीं।

सूअरों के बाड़े से, पीछे के चारागाह पर एक नजर पड़ती थी, जहाँ मांस के लिए रखी बीस गाएँ चारे की पूलों के गिर्द जमा हो गई थीं। ये पूलें क्‍लाड ने लड़के से वहाँ रखवाई थीं। ताज़ा लाल कटा हुआ चरागाह मुख्‍यमार्ग तक उतराई में फैला हुआ था। इसके पार उनके कपास के खेत थे, और उनके भी पीछे एक घना हरा धूलभरा जंगल था, जो भी उन्‍हीं की मिल्‍कियत था। सूरज जो अब बेहद लाल था, जंगल के पीछे से पीले पड़ते पेड़ों को निरख रहा था, जैसे कोई किसान अपने सूअरों का मुआयना कर रहा हो।

“मैं ही क्‍यों?” वे भरे गले से बड़बड़ाई, “यहाँ आस-पास एक भही ऐसा ट्रैश याह काला या गोरा, नहीं होगा, जिसे मैंने जरूरत पड़ने पर दिया न हो। और हर दिन हाड़तोड़ काम करूँ मैं, और चर्च के काम में लगूँ मैं।” वे अपने ख्‍याल से बिल्‍कुल सही औरत थीं, जो दुनिया के सारे काम ठीक से निपटा रही थीं। “मैं ठीक-ठीक इनके जैसी कैसे हूँ?” उन्‍होंने पानी की धार छौनों के बीच घुसेड़ते हुए कहा, “इतने सारे वहाँ ट्रैश तो बैठे हुए थे। इस सबके लिए एक मैं ही तो वहाँ नहीं थी!”

“अगर तुझे ट्रैश ज्‍यादा भाते हैं, तो जा कर अपने लिए कोई ट्रेश चुन ले,” वे बदज़बानी पर उतर आईं। “तुम मुझे टै्रश बना सकते थे, या हब्‍शी ही। अगर तुम्‍हें टै्रश ही चाहिए था, तो मुझे फिर टै्रश ही क्‍यों नहीं बनाया?” उन्‍होंने होज को मुट्‌ठी में भींच कर हिलाया और क्षण भर को हवा में पानी का एक लहरदार साँप बना और खत्‍म हो गया। “मैं काम-धाम छोड़ कर मजे करती और गंदी बनी घूमती,” वे बड़बड़ाई, “रूट बिश्‍र ;कंद-मूल की बनी शराबद्ध पीते हुए सड़कों की पैदल-पटरियों पर बेकार घूमती। नसवार ले-ले कर हर गड्‌ढे-डबरे में थूकती फिरती और उससे अपना चेहरा रँगे रहती। मैं घिनौनी हो सकती थी।”

“या तुमने मुझे हब्‍शी बना दिया होता। अब तो मैं बन नहीं सकती, हब्‍शी!” गहरे तंज के साथ वे बोली, “लेकिन किसी हब्‍शी जैसा कर तो सकती हूँ। सड़क के बीचोबीच लेट जाऊं और टै्रफिक रोक दूँ। जमीन पर घुलटिया खाऊं।”

प्रकाश गहराने के साथ अब हर चीज एक राजभरे रंगत तें आती जा रही थी। चरागाह एक अजीब से चिकनाहट लिए रंग में दिख रहा था, और एक लकीर की तरह दिखने वाला मुख्‍यमार्ग अब लैवेंडर के पौधों में गुम हो चुका था। उन्‍होंने खुद को एक आखिरी हल्‍ले के लिए कस कर ताना और इस बार उनकी आवाज चरागाह की फिजाँ में तैर गई। “बोल, बोल,” वे बोलीं, “बोल मुझे सुअर! फिर मुझे सुअर बोल! जमीन की पटरी को आसमान में तान दे! फिर भी तो जमीन और आसमान रहेंगे ही!”

आवाज एक टूटी-फूटी प्रतिध्‍वनि में उनके पास लौट आई।

गुस्‍से की एक आखिरी हिलोर से वे हिल उठीं और गरज पड़ीं, “तू समझती क्‍या है, अपने आप को?”

हर-एक चीज, मैदान और किरमिजी आसमान का रंग क्षणभर को एक पारदर्शी लपक में भभक उठा। प्रश्‍न चरागाह के ऊपर से, मुख्‍यमार्ग और कपास के खेतों के पार गूँजता चला गया, और जंगल के पार से साफ-साफ एक जवाब की शक्‍ल में उनके पास लौट आया।

उन्‍होंने मुँह खोला लेकिन कोई आवाज नहीं निकली। क्‍लाड की छोटी ट्रक मुख्‍यमार्ग पर दिखी और तेजी से बढ़ती हुई नजरों से ओझल होने लगी। इसके कल-पुर्जे बारीकी से चित्र से अलग हो गए और यह बच्‍चों के खिलौने की तरह दिखने लगी। किसी भी क्षण कोई बड़ी ट्रक इसे कुचल डालती, और क्‍लाड के और हब्‍शियों के दिमाग सड़क पर चारों तरफ फैल जाते। श्रीमती टर्पिन खड़ी रहीं। उनकी टकटकी मुख्‍यमार्ग पर लगी रही, और सारी पेशियाँ तनी रहीं, जबतक कि पाँच या छः मिनटों में ट्रक लौटती हुई दिखाई नहीं दी। जितने समय में ट्रक उनकी अपनी सड़क पर मुड़ चुकी होती, वे प्रतीक्षा करती रहीं। और तब, जैसे एक स्‍मारक मूर्ति में जान पड़ रहीं हो, वे अपना सिर धीरे से झुका कर नीचे बाड़े के अंदर सूअरों को, मानों बेहद राजदारी के साथ, घूरने लगीं। वे सारे एक कोने में बुढ़ी सूअरी के चारों ओर सिमट चुके थे जो बारीक आवाज में गों-गों कर रही थी। एक लाली उन पर छा गई थी। वे हाँफ रहे थे और किसी पोशीदा जिंदगी के जीव लग रहे थे।

जब तक सूरज आखिरी तौर पर पेड़ों की पाँत के पीछे डूब नहीं गया, श्रीमती टर्पिन वहीं टकटकी लगाए उन पर छुकी रहीं, गोया उनमें कोई अथाह जीवनप्रद ज्ञान उतर रहा हो। अखिरकार उन्‍होंने अपना सिर उठाया।

आसमान में अब केवल एक बैंगनी लकीर थी, जो किरमिज के खेतों के आरपार फैली हुई थी, और मुख्‍यमार्ग के विस्‍तार की तरह, उतरते हुए धुँधलके की ओर बढ़ती हुई दिख रही थी। उन्‍होंने बाड़े पर से अपने हाथ किसी पुरोहिती और तत्‍वदर्शी की-सी भंगिमा के साथ हटाए। उनकी आँखों में मूर्च्‍छना की रोशनी छा गई। उन्‍हें वह लकीर यूँ दिखने लगी, गोया नीचे एक लहकते हुए आग के मैदान में से निकल कर एक बेहद विस्‍त्‌त झूलता हुआ पुल पृथ्‍वी से ऊपर की ओर उठता जा रहा हो। इसके ऊपर आत्‍माओं के विस्‍तृत झुंड चरमर करती गाड़ियों में बहिश्‍त की ओर बढ़ते जा रहे थे। उनमें, जिंदगी में पहली दफा साफ-सुथरी बनी हुई श्‍वेत-ट्रैश की पूरी की पूरी जमात और सफेद बुर्राक पोशाकों में काले हब्‍शियों के दल के दल थे। और सनकियों और सिड़ियों की पूरी पाँत थी, चीखती, तालियाँ बजाती और मेंढकों की तरह उछलती हुई। और जुलूस के आखिर में ऐसे वंश और जाति के लोग थे, जिन्‍हें वे झट से पहचान गईं, क्‍योंकि ये वे ही, उनकी और क्‍लाड की तरह के, लोग थे, जिनके पास थोड़ी-थोड़ी हर चीज थी और उनके सही-सही इस्‍तेमाल के लिए परम पिता की बख्‍शी हुई अक्‍ल थी। वे इन्‍हें और नजदीक से देखने के लिए थोड़ा आगे को झुक आईं। वे अन्‍य सभी के पीछे-पीछे, अच्‍छे तौर-तरीकों और सहजबोध और सम्‍माननीय व्‍यवहार के लिए जवाबदेह रहते हुए, बेहद मर्यादापूर्वक चल रहे थे। खास और महत्‍व की जगह एकमात्र उन्‍हीं की थी। तो भी उनके सदमा खाए हुए और बदले हुए चेहरों से वे साफ देख पा रही थीं कि उनकी इन खूबियों को जला कर खत्‍म किया जा रहा है। उनके हाथों ने नीचे सरक कर बाड़े की फट्टी को पकड़ लिया, छोटी आँखें बगैर पलक झपकाए आगे के दृश्‍य में खोई रहीं। क्षण भर में दृश्‍य आँखों से ओझल हो गया, लेकिन वे जहाँ की तहाँ निश्‍चल खड़ी रहीं।

देर बाद वे नीचे उतरीं, नलका बंद किया, और अंधकार घिरे रास्‍ते पर सुस्‍त कदमों से घर की ओर बढ़ गई। उनके चारों और जंगल में अदृश्‍य टिटहरियों का समवेत गान शुरू हो गया था, लेकिन उनके कानों में जो पड़ रहा था, ऊपर तारों भरे आकाश में रेलमपेल करती आत्‍माओं की आवाजें थीं, और उनसे शब्‍दाकार होती प्रार्थनाएँ।

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रचना समय अप्रैल 09 में पूर्व-प्रकाशित. अनुमति से पुनर्प्रकाशित

रचना समय अप्रैल 09

संपादक - हरि भटनागर

सहयोग - बृजनारायण शर्मा

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: फ्लैनरी ऑक्नर की कहानी : इल्हाम
फ्लैनरी ऑक्नर की कहानी : इल्हाम
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