कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -29- श्याम गुप्त की कहानी : एक ही रास्ता

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एक ही रास्ता                                                    ( डॉ. श्याम गुप्त ) क्या बात हैं आज बड़ी सुस्त-सुस्त सी आवाज़ में बोल रही है।...

एक ही रास्ता

                                         

         ( डॉ. श्याम गुप्त )

क्या बात हैं आज बड़ी सुस्त-सुस्त सी आवाज़ में बोल रही है। फोन पर बात करते हुए शालिनी मुक्ता से पूछने लगी।

कुछ नहीं शालिनी, क्या बताऊँ आज न जाने किस बात पर राज ने उसे थप्पड़ मारने की बात कह दी, मुक्ता बोली, आजकल न जाने क्या हो गया है राज को हर बात पर मूर्ख कहना, तुममें अक्ल नहीं है कहने लगता है। कितनी बार समझाया है राज को हर तरह, हर बार सौरी यार ! कहकर माफी मांग लेता है और फिर वही। पता नहीं क्या हो गया है पहले तो ऐसा नहीं था। इतना पढ़े लिखे होने के बावजूद भी हम क्या कर पाती हैं। सिवाय इसके कि तलाक ..... क्या और कोई मार्ग नहीं है शालिनी, हम लोगों के पास।

‘क्या करें मुक्ता’, शालिनी कहने लगी, ’ आज भी घर-घर यही हाल है। यही कहानी है स्त्री की अब भी। जाने क्यों एक स्त्री के गर्भ से ही जन्मा एक पुरुष क्यों नारी को ही ठीक से नहीं समझ पाता और ऐसा बर्ताव करने पर आमादा हो जाता है। लोग कहते हैं कि स्त्री को ब्रह्मा भी नहीं समझ पाया। परन्तु पुरुष का यह व्यवहार तो सदा से ही समझ से परे है।’

मुक्ता सोचने लगी। उसने प्रेम विवाह किया, घर वालों से लड़-झगड कर। यद्यपि उचित कारण भी था। पुराने विचारों के रूढ़िवादी परिवार में पैदा होना व अपनी दो बड़ी बहनों की रूढ़िवादी परिवार में ससुराल में दशा को देखकर भाग जाना चाहती थी वह इस माहौल से दूर। आधुनिक परिवार, आधुनिक विचार-धारा के साथ जीवनयापन हेतु। मिला भी सब कुछ ठीक-ठाक ...पति, परिवार, सास-ससुर, खानदान।... परन्तु आज इस मोड़ पर उसे सोचना पड़ रहा है। अचानक उसे काम वाली बाई की याद आती है। कुछ महीने पहले की ही तो बात है कि उसे पता चला कि उसकी पति से रोजाना ही मार-पीट होती है। उसने स्वयं ही कहा था तो छोड़ क्यों नहीं देती। कितना आसान होता है दूसरों को सलाह दे देना। उसे याद आया बाई का उत्तर,’ क्या करें मेम-साहिब ! मारता तो है पर प्यार भी करता है। दो ही रास्ते हैं ..या तो ऐसे ही चलने दिया जाय ...या छोड़कर अलग हो जायं दूसरा कर लें। दूसरा भी कैसा होगा क्या पता। यह भी भाग्य की ही बात है। तीसरा रास्ता है कि अकेले रहा जाय। सब जानते हैं बीबीजी, अकेली औरत का क्या हाल होता है। उसका कोई नहीं होता, न रिश्ते-नातेदार, न परिवार वाले, न पड़ोसी, न समाज। सरकार चाहे जितने क़ानून बनाले पर सरकार है कौन ...वही पड़ोसी, समाज के लोग। वे ही पुलिस वाले, वकील व जज हैं। और जब तक आपको स्वयं या सरकार को कुछ पता चलता है आप स्वयं व सरकारी मशीन काम में लगती है ज़िंदगी खराब हो चुकी होती है। यूं अकेले आदमी को भी कौन बख्शता है। जिसके साथ कोई नहीं होता उस आदमी के साथ भी क्या नहीं करता ये समाज-संसार। इससे तो अच्छा है लड़ते-भिडते, पिटते-पीटते, कभी दब कर, कभी दबाकर ...चलते रहने दिया जाय। पुरुष को प्यार से जीतो या त्याग-तपस्या से या ट्रिक-चालाकी से। स्त्री को पुरुष को जीतना ही होता है, यही एक रास्ता है। बाहर तमाम अन्य पुरुषों की, लोगों की गुलामी की ज़लालत भरी ज़िंदगी से तो एक पुरुष की गुलामी बेहतर है। कितना अच्छा होता बीबीजी पुरुष भी ऐसा ही सोचते, समझते।’

‘परिवार वालों के साथ कोई प्रोब्लम है क्या ?’ फोन पर शालिनी पूछ रही थी। मुक्ता अपने आप में लौट आई, बोली, ’ नहीं ..मम्मी-पापा तो बहुत अच्छे हैं। वे स्वयं कभी-कभी परेशान हो जाते हैं राज के इस व्यवहार से।’

तो यह व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक मामला है, शालिनी कहने लगी, ’ जो प्रायः चाहतों का ऊंचा आसमान न मिल पाने से व्यक्त होने लगता है। हो सकता है तुम उसकी चाहत व आकांक्षा के अनुसार नहीं कर पाती हो या किन्हीं बातों से उसका अहं टकराता हो या आफिस की कोई प्रोब्लम हो ...पर इसका यह अर्थ नहीं कि उसे ऐसे असंयमित व्यवहार की छूट है।‘

‘यह भी होता है मुक्ता, कि कुछ पुरुष बच्चे ही रहते हैं मन से। पर वे मानने को तैयार नहीं होते। वे स्वयं को विशेष अटेंशन चाहते हैं हर समय हर हाल में। कई बार संतान के आने पर भी यह होता है।’ शालिनी कहने लगी, ’ प्यार से पुरुष को काबू में करना ही औरत की साधना है, तपस्या है, त्याग है; जो पुरुष की तपस्या को भंग भी कर सकती है मेनका-विश्वामित्र की भांति....शिव का वैराग्य भी भंग कर सकती है पार्वती की भांति और तप-वैराग्य में रत भी कर सकती है..रत्ना-तुलसी की भांति। काश पुरुष नारी की इस भाषा को समझ पाते व इस भावना व क्षमता की कद्र कर पाते।....  दोनों मिलकर समस्या सुलझाओ, खुलकर बात करो इससे पहले कि बात और बढे ...कोई अन्य इसमें शायद ही कुछ कर पाए। अनुभवी बड़े लोगों का परामर्श भी राह दिखा सकता है पर कितनी दूर तक। चलना तो स्वयं को ही होता है।’

हाँ शालिनी, पुरुष यह सब समझता ही कहाँ है अपने अहं में जकडा-अकडा रहता है।...मैंने पापा के एक मित्र अंकल से बात की थी जो यूनीवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं। उन्होंने दार्शनिक व तात्विक लेक्चर दे डाला। हालांकि वह सब मुझे भी तथ्य लगा। उन्होंने कहा कि बेटा बड़ा कठिन प्रश्न है, उससे भी कठिन यह समस्या है। त्रुटि दोनों ओर ही होती है जाने-अनजाने। प्रकृति का भी अपना स्व-नियमन चक्र होता है, सिस्टम होता है, स्वचालित प्राकृतिक चयन प्रक्रिया; जो पौराणिक कथ्यों से भी मेल खाता है। यह गुणवत्ता व आवश्यकता-सांख्यिकी ....क्वालिटी व क्वांटिटी ... के उचित तारतम्य की बात है। जिसमें स्त्री ही प्रकृति का निर्णायक व नियामक तत्व है। यदि समाज में स्त्री का शारीरिक, मानसिक व चारित्रिक स्वास्थ्य आदर्श है तो वह नियामक व्यवस्था सब ठीक-ठाक है के सूचक-अनुसार .. व्यक्तियों में, संतानें में, पुरुषों में भी आदर्श के भाव उत्पन्न करती है। यह भी यहाँ संदर्भित है कि जन संख्या कम व लड़के-लड़कियों का अनुपात भी अधिक अंतर नहीं होता यद्यपि लड़के अधिक उत्पन्न होते हैं जैसा पुरा-कथाओं में पता चलता है। परन्तु यदि सामाजिक अनाचार, अतिसुखाभिलाषा से स्त्रियों पर भ्रूण-ह्त्या जैसे शारीरिक अत्याचार, या अज्ञानतावश नर-नारी में प्रतियोगिता अथवा हम भी कुछ हैं के द्वंद्व-भाव आदि से आपसी युद्ध जैसी स्थित उत्पन्न होती है और स्त्री में मानसिक दौर्बल्यता व चारित्रिक पतन की स्थिति बनने लगती है, प्रतिक्रया स्वरुप पुरुष भी आदर्श स्थिति का त्याग करने लगता है। नियामक व्यवस्था स्त्री अस्तित्व के खतरे को भांप कर संख्या व उत्पादन पर अधिक जोर देने लगती है और जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ स्त्रियों की संख्यामें वृद्धि - पुरुषों की गुणवत्ता में कमी व ....पुनः-पुनः अज्ञान-अनाचार- अत्याचार...का चक्र चलने लगता है। समाज का स्तर गिरने लगता है। जैसा गीता में अर्जुन ने कहा..–युद्ध में अधर्म होते हैं...अधर्म से कुल की स्त्रियाँ दूषित होती हैं और वर्णसंकर संतानें उत्पन्न होती हैं ..पाप की बढ़ोतरी होती है। अतः नारी निश्चय ही संतुलक है व्यवस्था की। आदर्श नारी से ही आदर्श पुरुष पैदा होते हैं। आदर्श स्त्री-पुरुषों से ही समाज में आदर्श व्यवस्था स्थापित होती है जहां स्त्री आदरणीय होती है उस पर अत्याचार नहीं होते। अब बेटा तुम इसका उचित अर्थ समझ कर व्यवहार करो। बात करो, आपस में एक दूसरे को समझो-समझाओ।’

ओह ! सचमुच ..शालिनी के मुंह से निकला। मैं सोचती हूँ वास्तव में उन्होंने सच ही कहा ...यही एक आशावादी रास्ता बचता है कि हम स्त्रियां जब स्वयं अपने तप, त्याग, आदर्श से अपनी संतान को विशेषकर पुत्रों को संस्कार देंगी तभी पुरुष में संस्कार आयेंगे, बदलाव आएगा। इस बदलाव से ही स्त्री का जीवन सफल, सशक्त व सुन्दर होगा और दुनिया भी सुन्दर, सुखद व आनंददायी।

‘यहि आशा अटक्यो रहे अलि गुलाब के मूल।’

   [स्व-कथ्य -- मेरी कहानियां मूलतः जन सामान्य की सांस्कृतिक, वैचारिक व व्यावहारिक समस्याओं व उनके समाधान से सम्बंधित होती हैं।

इन कहानियों में मूलतः सामाजिक सरोकारों को इस प्रकार संतुलित रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि उनके किसी कथ्य या तथ्यांकन का समाज व व्यक्ति के मन-मष्तिष्क पर कोई विपरीत अनिष्टकारी प्रभाव न पड़े .. अपितु कथ्यांकन में भावों व विचारों का एक संतुलन रहे। (जैसे बहुत सी कहानियों या सिने कथाओं में सेक्स वर्णन, वीभत्स रस या आतंकवाद, डकैती, लूटपाट आदि के घिनोने दृश्यांकन आदि से जन मानस में उसे अपनाने की प्रवृत्ति व्याप्त हो सकती है।)   अतः मैं इनको संतुलित-कहानी कहता हूँ]

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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -29- श्याम गुप्त की कहानी : एक ही रास्ता
कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -29- श्याम गुप्त की कहानी : एक ही रास्ता
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