कहानी लेखन पुरस्कार प्रविष्टि क्र. 46 - अनुलता राज नायर की कहानी : केतकी

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केतकी अनुलता राज नायर उ से ठहराव पसंद नहीं था, ज़रा भी नहीं! गज़ब की चंचलता थी उसके मन में, उसके मस्तिष्क में,तन में,पूरे व्यक्तित्व में ही...

केतकी

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अनुलता राज नायर

से ठहराव पसंद नहीं था, ज़रा भी नहीं! गज़ब की चंचलता थी उसके मन में, उसके मस्तिष्क में,तन में,पूरे व्यक्तित्व में ही...ठहरना उसकी फितरत में न था.अपार ऊर्जा से भरी थी वो, इतनी ऊर्जा कि किसी इंसान के जिस्म से सम्हाली न जाए. वो अतिरिक्त ऊर्जा, वो तेज उसके चारों और संचारित होता रहता जैसे चाँद के आस-पास का सा वलय उसके चारों और भी हो. बेहद आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी केतकी. जो देखता,सिर्फ देखता ही नहीं रह जाता बल्कि उसका ही हो जाता,खिंचा चला आता उसकी ओर. उसके प्रति ये एकतरफा आकर्षण सिर्फ पुरुषों में ही नहीं था बल्कि लड़कियाँ, औरतें, बच्चे बूढ़े, कोई ऐसा न था जो उसके प्रति खिंचाव महसूस न करता. मानों एक चुम्बकीय शक्ति हो उसके भीतर.

केतकी गेहुएं रंग की सुगढ़ कद काठी वाली लड़की थी. नैन नक्श एकदम तीखे, तराशे हुए. चेहरा नापा तुला.आँखें बेहद आकर्षक और चंचल, ढेरों सवाल लिए हुए.सवाल तो सदा उसके होंठों पर भी रहते थे. जिसके साथ रहती उसी के आगे सवालों के ढेर लगा देती. उसका ज्ञान भी असीमित था इसलिए उसके सवाल बहुत बौद्धिक और रोचक होते. वैसे बेवकूफी भरे सवालों की भी कमी न थी उसके पास, मसलन वो अकसर अपने पुरुष साथियों से पूछ बैठती, कि जब वे जानते हैं कि केतकी उनकी हो नहीं सकती तो वो क्यूँ उस पर अपना वक्त और पैसा बर्बाद करते हैं? अब ऐसे सवाल के बाद किसी काफी शॉप में बैठा वो आशिक न जाने कैसे बिल अदा कर पाता होगा उसकी काफी का और हां साथ में चोकलेट आइसक्रीम का भी तो.मनमौजी सी लड़की थी वो.

मैं केतकी को स्कूल के समय से जानता था.वो स्कूल में भी सबकी “हीरो” थी,और मेरे बहुत करीब...वैसे सहपाठी से लेकर टीचर्स, लैब असिस्टेंट, बस ड्राईवर, चौकीदार सभी उसका नाम जपते. वो भी कभी बस ड्राईवर के साथ ड्राइविंग के गुर सीखती कभी लेब में दो केमिकल मिला कर धमाका करती और लेब असिस्टेंट के साथ मिलकर खूब हँसती. एक बार मैंने देखा उसने एक बैग भर अपने नए पुराने कपडे उस लैब असिस्टेंट को दे डाले,उसकी बहन के लिए..मेरे पूछने पर बोली अरे सब पुराने फैशन के थे. साथ ही बडबडाती भी जाती थी-करमजला रोतली सूरत बनाये फिरता है,नफरत है मुझे उससे..मैं हैरान सा उसको ताकता रह जाता. उसका मन पढ़ना असंभव था. कुछ टिकता ही नहीं था बीस सेकेण्ड से ज्यादा ,तो कोई कैसे पढ़े??

केतकी का जीवन एक खुली किताब था.बिन माँ बाप की लड़की थी. मौसा मौसी ने पाला था.संपन्न परिवार से थी. उसके बारे में सबको सब कुछ पता होता था,बोलती इतना जो थी. मगर मुझे वो सदा रहस्यमयी सी लगती थी. ऐसा लगता मानो उसकी इस खुली किताब के पन्नों पर कुछ लिखा हुआ है एक अदृश्य स्याही से, जो कोई देख नहीं सकता...

मैं कहता भी उससे कि तुम्हारी तलछटी में जाकर फिर और गहरा खोद कर देखना है मुझे,वो मुस्कुरा कर कहती-मैं नदी हूँ अंश, सिवा पानी के कुछ नहीं...बहता पानी...साफ़ और पारदर्शी...जो चाहे देख लो...अपना अक्स भी...जितना गहरा खोदोगे उतना ज्यादा पानी पाओगे. और मत भूलना कि मोती सागर में मिलते हैं, नदियों में नहीं....वो बोलती चली जाती...बिना रुके...मैं सुनता रहता बिना कुछ समझे...... देखना एक दिन मैं भी सागर में मिल जाउंगी और पा जाउंगी एक मोती...जड़ लूंगी उसको अपनी अंगूठी में....

कितना शौक था उसे अंगूठियों का..हर उँगली में एक अंगूठी....पतली,मोटी,असली,नकली. चाहे जैसी.....अंगूठा तक खाली नहीं था उसका.....सचमुच नदी थी वो...पागल नदी.

एक रोज वो बड़ी सी एक सिन्दूरी बिंदी लगा कर आई.......उसके मासूम से चेहरे के हिसाब से बहुत बड़ी.....फिर खुद ही हँस के बोली,ओल्ड फैशन लगती है न??? मैंने सोचा क्षितिज से उगता सूरज कभी ओल्ड फैशन हो सकता है भला.....मुस्कुरा दिया मैं.

उस दिन मेरे हाथ की रेखाएं देखने लगी......कहती है उसको सब आता है...उसके हिसाब से मेरा प्यार कोई और होगा और ब्याह मैं किसी और से करूँगा.....वाकई उसको सब पता है.....मैंने कहा लाओ तुम्हारा हाथ देखूं.....तो उसने मुट्ठी कस ली....नहीं अंश,मेरे हाथ में कोई लकीर नहीं....सब बह गयी पानी में.

कभी कभी मुझे लगता केतकी एक माया मृग सी है.....जिसको देखो उसका दीवाना हुआ जाता है...भटकता है उसको पाने को...जबकि वास्तव में वो है ही नहीं....वो सिर्फ एक भ्रम है.....तभी उसकी हँसी मुझे ख्यालों से वापस ले आती......और मैं देखता उसको अपने एकदम करीब.

उसको जब कॉलेज में दाखिला लेना था तब मेरे पीछे चक्कर काटती फिरी कि अंश हम और तुम एक ही साथ पढेंगे. मैं भी छेड़ता उसको-क्यों भाई,क्या सारी उम्र मेरे पीछे लगी रहोगी, तुम साथ रहती हो तो कोई लड़की मेरे पास नहीं आती कि तुम हो मेरी और तुम मेरी होती नहीं....

उस रोज उसने बड़ी संजीदगी से कहा था-अंश मैं तुम्हारी ही हूँ,बस खुद को समझ सकूँ तुम्हारे काबिल, तो तुम्हें सुपुर्द कर दूँ स्वयं को. उसकी अटपटी बातें मुझे समझ नहीं आतीं मगर वक्त के साथ इतना ज़रूर समझ गया था कि उसके साथ मेरा लगाव मुझे तकलीफ ज़रूर देगा मगर मुझे मंज़ूर था.

हम कॉलेज साथ जाते,वहाँ ढेरों लड़के उसके आगे पीछे मंडराते और वो किसी से नोट्स बनवाती किसी को बाइक में पेट्रोल भरवाने भेजती...और सबसे कहती तुम्हारी नेकी मुझ पर उधार.....जाने कितने इसी उधारी के पटने के इंतज़ार में फिर रहे थे. मैं उसको समझाता भी कि ये क्या तरीका है, क्यूँ खिलवाड़ करती है सबके दिल के साथ और शायद अपने भी दिल के साथ? वो मेरा हाथ अपने सीने पर रख कर कहती देख,कहीं धडकन है क्या??पागल मेरे सीने में दिल ही नहीं है....फिर क्या है??कभी मैं भी बिफर जाता......वो बड़ी मासूमियत से कहती किडनी है- एक एक्स्ट्रा.....भगवान न करे कभी तुम्हें ज़रूरत पड़े तो दे दूँगी...एकदम मुफ्त....तुमने जो मुझे कल बर्गर खिलाया था न, वो चुकता समझ लेना....मैं सर पीट कर रह जाता.

कभी मुझे लगता केतकी मानसिक रूप से कुछ बीमार है. वो नोर्मल तो नहीं थी.हालांकि पढ़ने में वो बहुत अच्छी थी और बेहतरीन कलाकार भी थी. पेंटिंग में उसको महारत हासिल थी और गाती भी बड़ा सुराला थी. उसके कमरे में हमेशा संगीत बजता रहता...सारा दिन और सारी रात भी. मुझे उसकी पसंद कभी समझ नहीं आई. कभी वो गज़ल सुनती और कहती मैं गुलाम अली साहब पर मर मिटी हूँ अंश, सच्ची!!! कभी जिमी हेंड्रिक्स या जिम मोरिसन को सुन कर कहती,यार क्या नशा है इनमें, कभी कोई नशा करके मैं भी देखूँगी. मैं डर जाता उसकी बातें सुन कर. कभी वो सूफी संगीत पर झूमती कभी पंडित रविशंकर को सुनते हुए पेंट करती....अनबुझ पहेली थी केतकी....

हां उसकी पेंटिंग्स हमेशा एक सी होतीं, वो सिर्फ नदियाँ पेंट करती थी. अलग अलग किस्म की नदियाँ...अलग अलग वक्त के दृश्य. कहती ये सब मेरे सेल्फ़ पोट्रेट हैं अंश! मैं खुद इतनी सुन्दर हूँ तो कुछ और क्यूँ बनाऊं भला. ठीक है न??? मैं मुँह ताकता रह जाता उसका...वो उकसाती मुझे...कहो न...कुछ तो कहो...मैंने कह दिया- “नार्सिस्ट कहीं की”.... ठठा कर हँस पडी वो ....मुझे लगा सचमुच वो बहुत सुन्दर है ,बहुत सुन्दर नदी. निर्मल, शीतल सी....एक बहुत गहरी और शांत नदी.

एक रोज हम शहर के बाहर दूर एक मंदिर गए,उसे भगवान पर कोई विशेष आस्था नहीं थी,बस मंदिर एक नदी के किनारे था सो उसने प्लान बना डाला. वहाँ सीढ़ियों पर बैठे हम सूर्यास्त देखते रहे. नदी में उसका अक्स बड़ा प्यारा लग रहा था. वो अचानक बोली,अंश तुम अगर सूरज होते तो देखो हर शाम मुझ में ढल जाते...समां जाते मुझ में, है न?? कहो न???

उसके इस तरह के आकस्मात सवालों की मुझे आदत थी मगर फिर भी मैं विचलित हो जाता. उस रोज सोचने लगा था कि कहीं इसे भी तो मोहब्बत नहीं हो गयी मुझसे !!! तभी वो बोली कि मुझे लगता है मुझे किसी सागर नाम के लड़के से इश्क होगा,क्योंकि नदी सागर में ही तो जा मिलती है न ! वहीँ तो उसे पनाह मिलती है,मुक्ति मिलती है. मैं बोल पड़ा ,तुझे कभी इश्क नहीं हो सकता केतकी, किसी से भी नहीं...जब मुझसे नहीं हुआ तो किसी और से क्या होगा? अच्छा !! वो पास खिसक कर बोली...ऐसा क्या खास है तुममें??? मैं भी उसके पास खिसका और कहा –क्यूँ लंबा-चौड़ा हूँ,गोरा रंग है, आँखें नीली नहीं तो पनीली तो हैं,बाल घने, बिखरे ,मुस्कराहट के साथ तेरे पसंदीदा डिम्पल...और क्या चाहिए??? वो मुस्कुराई और बोली- “नार्सिस्ट कहीं के”- और हम दोनों हँसते रहे देर तक......

जब वो इस तरह हँसती तो मुझे उसकी आँखों में अपने लिए कुछ प्यार सा दिखता....मुझे लगता भी कि उसे प्रेम है मुझसे, थोड़ा नहीं बल्कि बेइंतहा.....जितना कि कोई बिंदास नदी कर सकती है समंदर से......नदी जो बावली होकर बहती है उस समंदर की ओर....उसमें समां जाने को....उसमें समां कर अस्तित्वविहीन हो जाने को.....अपनी मिठास खो कर स्वेच्छा से खारी हो जाने को...अपनी स्वतंत्रता भूल कर ठहर जाने को.....

ऐसे ही ख्यालों ने मुझे उस दिन हिम्मत दी,जब हम फिल्म देख कर लौट रहे थे. उसने बाइक में मुझे कस कर पकड़ रखा था, उसका स्पर्श मुझे विचलित कर रहा था. ऐसा नहीं कि उसने कभी छुआ न हो मुझे...हम सालों से साथ थे और बहुत करीब भी, सो जाने अनजाने सहज भाव से किया स्पर्श कोई नयी बात न थी. मगर आज शायद मेरा मन ही मेरे वश में न था....मैंने बाइक उसके घर के सामने रोकी, उसने मेरा हाथ पकड़ा और बोली अंश शुक्रिया, मेरा दिन खूबसूरत गुज़रा तुम्हारी वजह से.वो जाने को मुडी तो मैंने उसकी ठंडी उंगलियां अपनी उँगलियों के बीच कस लीं. अरे अब क्या??? जाओ रात हो गयी है सब फ़िक्र करते होंगे घर में. मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लिया और बिना सोचे कह गया- तुम्हारे दिन, तुम्हारी रातें, तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी मैं खूबसूरत बना देना चाहता हूँ ,जीना चाहता हूँ तुम्हारे साथ...तुम्हारा होकर...केतकी, मैं प्यार करता हूँ तुमसे बेइन्तहा!!!

अब बारी केतकी की थी. उसने दो पल मेरी आँखों में देखा,वही जाने पहचाने अटपटे भाव, जिन्हें मैं कभी न पढ़ सका था......फिर उसने दूसरे हाथ से अपनी उंगलियाँ छुडाईं और बोली- एक दिन खूबसूरत गुजरा है जनाब, ये खूबसूरती और ताजगी सदा रहने वाली नहीं. चलो जाओ अब, आहिस्ता चलाना बाइक और घर पहुँच कर मैसेज कर देना. उसने पलट कर भी नहीं देखा और चली गयी. मैंने बदहवास सी बाइक दौड़ा दी.....वो रात शायद कुछ ज्यादा ही अँधेरी थी,या मेरी आँखें ओस से धुंधला गयीं थी.....जाने कैसे मेरी बाइक फुटपाथ पर चढ़ गयी.होश आया तो अस्पताल में था. सर पर ७ टाँके थे. बस कोई अंदरूनी चोट नहीं थी सो अगली सुबह घर भी आ गया.

दो रोज हुए केतकी का कोई पता नहीं था. न मिलने आई न कोई खबर ली. फोन भी बंद था उसका. तीसरे दिन आई तो मैंने सहज शिकायती लहजे में कहा कि बड़ी जल्दी फुर्सत मिली??? उसने अपनी जानी पहचानी अदा से जवाब दिया अरे तुम्हारा सर जिस फुटपाथ पर टकराया था उसकी मरम्मत में ज़रा व्यस्त हो गयी थी. मैं उसका चेहरा और लाल सूजी हुई आँखें देखता रहा, सोचता रहा और उसे समझने की नाकाम कोशिशें करता रहा....

जब तक मेरे टाँके नहीं खुले वो रोज मिलने आती रही. खूब बोलती, बतियाती. उस रात का ज़िक्र हमने फिर कभी न किया मगर मुझे कुछ दरका सा महसूस होता रहा हमारे बीच. शायद मैंने अपने प्यार का इज़हार करके गलती कर दी थी.

खैर वक्त के साथ सब सामान्य हो जाएगा इस उम्मीद के साथ हम दिन काटने लगे. नौकरी मिलने के साथ ही घर में सभी और केतकी भी मेरी शादी के लिए जोर देने लगे. परिवार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए मैं भी आखिरकार इस रस्म अदायगी के लिए तैयार हो गया....मुझे लगा केतकी का भ्रम अब तोडना ही होगा............उसके मायाजाल से बाहर आना ही होगा.

उस रात अचानक फोन की घंटी बजी और उधर से केतकी का स्वर सुनाई पड़ा.....सुनो आखिरकार मुझे इश्क हो ही गया सागर से...तुम सुन रहे हो न???
हां,सुन रहा हूँ और जानता हूँ..गोवा के समुद्रतट है ही सुन्दर. किसे इश्क न होगा !

धत् तेरे की !!! तुम मुझे ज्यादा ही समझने लगे हो अंश, और मुझे ये बात ज़रा पसंद नहीं...अच्छा किया तुमने शादी कर ली,मेरा पीछा छोड़ दिया...अब उसको समझो और जानो जो पल्ले बंधी है तुम्हारे...और फोन रख दिया उसने.

मेरी शादी के बाद ये पहली रात थी और मैं उस पागल केतकी से बात कर रहा था...मगर शायद आखरी बार. मैंने तय कर लिया था कि अब कभी उससे कोई संवाद न रखूंगा....कभी नहीं.

मगर हर बार की तरह ये फैसला भी उसने ही लिया था.

अगले दिन तड़के गोवा के होटल से फोन आया कि केतकी अपने कमरे में एक नोट छोड़ गयी है कि- जा रही हूँ ...मुझे खोजना मत.....किसी मछुआरे को या गोताखोर को तंग न करना....मुझे पूरी तरह डूब जाने दो सागर के प्रेम में....उसकी तलछटी छूने निकली हूँ मैं.

और एक चिट्ठी मेरे नाम भी थी-

अंश तुम्हारा नाम सागर होता या सूरज...मैं कभी तुमसे प्यार न करती. जानते हो जिस रोज मैं पैदा हुई उसी रोज मेरे माँ बाप दोनों की मौत हुई. माँ डिलिवरी टेबल पर और पापा रोड एक्सीडेंट में. मौसी मौसा ने आसरा दिया तो बेचारे बेऔलाद रह गए. ये संयोग नहीं है अंश...ये इशारा था भगवान का. मैं बहुत अभागी हूँ अंश,हम अगर एक हुए होते तो तुम कभी खुश न होते....याद है तुम्हारे एक्सीडेंट वाली रात.....तुमने सिर्फ अपने प्यार का इज़हार किया था...और देखा था नतीजा ??

अंश मैं “केतकी” हूँ......मैं शापित हूँ शिवजी के द्वारा. जानते हो, केतकी के फूलों को पूजा में चढाना वर्जित है....

सुनो, तुम अगले जन्म में भी अंश ही बनना......और मैं बनूंगी तुम्हारी, सिर्फ तुम्हारी....झरूंगी तुम पर हरसिंगार बन कर...

हर जन्म में केतकी बनूँ , इतनी भी अभागी नहीं हूँ !!!

--.

अनुलता राज नायर

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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार प्रविष्टि क्र. 46 - अनुलता राज नायर की कहानी : केतकी
कहानी लेखन पुरस्कार प्रविष्टि क्र. 46 - अनुलता राज नायर की कहानी : केतकी
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