कहानी लेखन पुरस्कार - प्रविष्टि क्र. 47 - प्रियंका गुप्ता की कहानी : अब वे खुश हैं...

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कहानी अब वो खुश हैं...   प्रियंका गुप्ता रसोई में बर्तनों की खटर-पटर से नीला की आँख खुल गई। बगल में रखी अलार्म-घड़ी देखी तो हड़बड़ा कर ...

कहानी

अब वो खुश हैं...

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प्रियंका गुप्ता

रसोई में बर्तनों की खटर-पटर से नीला की आँख खुल गई। बगल में रखी अलार्म-घड़ी देखी तो हड़बड़ा कर उठ गई...ओ माँ! आज साढ़े छः बजे तक सोती रह गई...। ये अलार्म क्यों नहीं बजा...? पर ये सब सोचने का वक़्त नहीं था उसके पास...। बालों का जूड़ा बाँधती वो तेज़ी से रसोई में लपकी,"मम्मी, आप ये सब रहने दीजिए...आज पता नहीं घड़ी क्या गड़बड़ हो गई, अलार्म बजा ही नहीं, वरना मैं तो कब की काम निपटा चुकी होती...। आप जाकर बैठिए, मैं बस पाँच मिनट में फ़्रेश हो कर बाकी काम निपटा देती हूँ...।"

"अब क्या करना बाकी रह ही गया है...? तुम्हारी मुफ़्त की नौकरानी ने सब निपटा तो दिया है...। जाओ, ये चोंचले किसी और को दिखाना...।" मालिनी तेज़ी से सामान इधर-उधर रखती हुई बड़बड़ाए जा रही थी। उनका मूड ऑफ़ देख कर नीला ने फ़्रेश होने का विचार दरकिनार करके पहले काम ही ख़त्म करने का निर्णय लिया। आगे बढ़ कर उसने गैस को हाथ लगाया ही था कि मालिनी ने हाथ झटक दिया। नीला की आँख में आँसू आ गए...मन किया उनके हर ताने पर ईंट का जवाब पत्थर से दे पर फिर घर की शान्ति के बारे में सोच कर चुपचाप दूसरी तरफ़ काम में जुट गई।

मालिनी पाँच-दस मिनट तक यूँ ही बड़बड़ाती रही,फिर अपने कमरे में जाकर बैठ गई। नीला जानती थी कि अभी एक-दो घण्टे तक वे इसी मूड में रहने वाली हैं, अगर वह अवधि उसने धैर्यपूर्वक निकाल दी तो सब ठीक हो जाएगा...कम-से-कम आज के लिए तो हो ही जाएगा...।

नीला जानती है कि जब वे अकेले में कुछ देर बैठेंगी तो सारे मसले पर सोचेंगी और फिर मुकेश के जाने के बाद रोज़ की तरह सामान्य होकर उससे बोलने-बतियाने लगेंगी। पहले तो उसी को घण्टों लगते थे खुद सामान्य होने में, पर अब उसकी भी आदत-सी पड़ गई है।

ऐसा नहीं है कि मालिनी हमेशा से ऐसी रही हों। नीला को अच्छी तरह याद है कि जब वह शादी करके इस घर में आई थी, तब वे कितनी खुश रहा करती थी। नीला मानो उनकी बहू नहीं, बेटी थी। हर वक़्त साथ उठना-बैठना, बात-बात पर दोनो सास-बहू का खिलखिला कर हँसना, घूमना, शॉपिंग करना...सीरियल और फ़िल्मों पर चर्चा करना, दुनिया जहान की गॉसिप में समय पंख लगा कर कहाँ फुर्र हो जाता था, पता ही नहीं चलता था। कई बार पापा कहते भी थे,"बेटा नीलू, किस जन्म का बैर निकाल रही...? वैसे तो औरतों की सौत हुआ करती है, पर यहाँ तो तुम मेरी सौत बन गई...मेरी बीवी तो तुम्हारे प्रेम-जाल में ऐसी फँसी है कि मुझे भूल ही गई...।"

उनकी बात सुन कर मालिनी एक ओर जहाँ झूठा गुस्सा दिखाती, वहीं नीला हँस-हँस कर दोहरी हो जाती। मुकेश भी पापा के साथ मिल जाता,"सच कहते हैं पापा...लाया मैं अपने लिए एक बीवी था, पर यहाँ तो दाँव ही उल्टा पड़ गया। हमीं खेल से आउट हो गए...।"

नीला के होंठो पर ये यादें हमेशा एक मुस्कान ले ही आती हैं...पर छः महीने पहले पापा क्या गए, मम्मी का तो पूरा स्वभाव ही बदल गया। बात-बात पर गुस्सा होना, ताने कसना, कुछ कह दो तो या तो मुँह फुला कर बैठ जाना या फिर अपनी बेबसी की बात पर आँसू बहाना...। न तो नीला और न ही मुकेश, दोनो ही नहीं समझ पाते कि ऐसे में क्या करें...। नीला भरसक कोशिश करती थी कि वह उनकी किसी बात का उत्तर न दे, पर फिर भी, थी तो वह भी इंसान ही न...। कई बार उनकी किसी बेवजह की बात पर उसके मुँह से भी कुछ निकल ही जाता था, फिर उसके बाद तो स्थिति विस्फोटक हो जाती थी...। हाँ, अगर वह शान्त रह गई तो फिर कुछ देर बाद सब ठीक हो जाता था।

आज भी मालिनी अपने कमरे में बैठ धीरे-धीरे शान्त हो रही थी। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आज फिर उनको क्या हो गया था। बेचारी नीला थोड़ा देर तक सोती ही तो रह गई न...। पहले भी तो कई बार ऐसा हो जाता था, जब देर रात तक टी.वी देखते रहने के कारण वह देर तक सोती थी...। वह तो उठ भी जाती, पर उन्होंने ही तो उससे कहा था कि सुबह जब नींद न खुले , तो परेशान न हो, वे सब कुछ सम्हाल लेंगी...। इधर उन्हें भी इस बात का अहसास था कि वे कभी-कभी बेवजह ही चिड़चिड़ा जाती हैं...। एक-आध बार उन्होंने आत्म-चिंतन करना भी चाहा, पर सफल नहीं हो पाई...। लगा, शायद जीवन की कमी उन्हें खल रही है...। पर जीवन नहीं रहे तो क्या हुआ, बच्चे तो अब भी उन की उतनी ही परवाह करते हैं, जितनी जीवन के रहने पर करते थे, बल्कि उन्हें तो लगता है कि वो दोनो अब उनकी कुछ ज्यादा ही केयर करने लगें हैं...उसमें भी खास तौर से नीला...। इसी लिए अब उन्हें पछतावा हो रहा था, नीला के प्रति अपने सुबह के व्यवहार पर...आज जब वो लोग ब्रेकफ़ास्ट करने बैठेंगे, तब वो नीला से माफ़ी माँग लेंगी...उसका भी मन खुश हो जाएगा...।

नाश्ता बन जाने पर नीला खुद उन्हें बुलाने आई थी। अब तक वो नहा-धो कर तैयार भी हो चुकी थी। जोगिया रंग के सलवार-कुर्ते में वो बहुत अच्छी लग रही थी। वो उससे माफ़ी माँगने के लिए कुछ कहने ही चली कि तभी उनकी निगाह उसके माथे पर जाकर ठहर गई...जहाँ सूट के ही मैचिंग की बड़ी सी जोगिया बिन्दी लगी थी। उनके मुँह की बात मुँह में ही रह गई...। नीला और उनकी पसन्द यहाँ भी मेल खाती थी...। चटख रंग के कपड़े और माथे पर सजी बड़ी सी मैचिंग बिन्दी, दोनो का एक जैसा ही स्टाइल स्टेटमेण्ट था...। नीला थी भी उन्हीं की तरह गोरी-चिट्टी और पतली-दुबली सी...। इसी के चलते कई बार अनजान लोग धोखा खा जाते थे और उन्हें सास-बहू समझने की बजाए माँ-बेटी समझ लेते थे। वे दोनो भी जल्दी यह राज़ खोले बग़ैर उसकी बातों का मज़ा लेती और फिर जब सच्चाई प्रकट होती तो सामने वाले की भाव-भंगिमा याद कर-कर के वे दोनो घण्टों हँस-हँस कर दोहरी होती। आज भी नीला इस रूप में बड़ी सुन्दर लग रही थी, पर जाने क्यों वे चाह कर भी उसकी तारीफ़ नहीं कर पाई। नीला बहाने से उनके कमरे में एक-आध सामान इधर-उधर करती रही फिर उनके मुँह से ‘तुम चलो, मैं आती हूँ’ सुन कर चुपचाप वहाँ से चली गई। उसका उतरा चेहरा देख कर उनका दिल कैसा तो होने लगा...। मुकेश तारीफ़ करे न करे, चलेगा...पर उनकी तारीफ़ मिल जाए तो कैसे खिल उठती है...। कई बार उन्हें आश्चर्य होता था, कैसी लड़की है...जिसे पति की तारीफ़ से नहीं, सास की तारीफ़ से खुशी मिलती है...। ऊपर से तो कई बार वो ये बात कह भी चुकी थी, पर अन्दर से वे आह्लादित ही होती थी। सबसे अलग, सबसे न्यारी बहू मिली थी उन्हें...। उस पर तो वे वारी-वारी जाती...। पर आज...?

नाश्ते की टेबल पर वे भरसक सहज बने रहने की कोशिश कर रही थी। उनका मूड नॉर्मल देख महीनों बाद मुकेश ने उन्हें फिर चिढ़ाया था,"जब अपनी इस प्यारी और सुन्दर सगी बहू की तारीफ़ करना तो थोड़ा इस सौतेले बेटे का नाम भी ले लेना मम्मी...आखिर ये सूट मैने ही तो पसन्द किया था...।"

और दिन होता तो वे हँस कर उसे थपकिया देती और फिर वापस उसे चिढ़ाने के लिए जी भर कर नीला की तारीफ़ करती, पर आज बड़े बुझे मन से उन्होंने बस इतना ही कहा,"तारीफ़ क्या करनी...जँचता है, तो है...। फिर भगवान की दया भी तो है कि हर मनपसन्द रंग पहन सकती है...।"

उनकी प्लेट में नाश्ता डालती नीला का चेहरा फक्क पड़ गया। मुकेश भी बिना जवाब दिए चुपचाप नाश्ता करने लगा। कहाँ तो मालिनी माहौल हल्का करने चली थी, कहाँ सब का मन और भारी हो गया...। मालिनी को भी मन-ही-मन अपनी बात का बुरा लग रहा था, पर बिना सोचे समझे वो ये सब कैसे बोल गई, समझ ही नहीं आया। अगर ज़रा सा तारीफ़ कर ही देती तो क्या बिगड़ जाता...? पर तीर तो कमान से निकल ही चुका था।

उस दिन घर में मनहूसियत सी छाई रही। नीला ने चुपचाप खाना बना कर उन्हें परोस दिया और अपने कमरे में चली गई। उन्होंने ही जाकर एक बार उससे पूछ लिया था...खाना खा लिया...? बदले में पेट दर्द का बहाना बना नीला यूँ ही पड़ी रही। उनसे दवाई भी नहीं ली। बस कह दिया, दवाई खा चुकी...अभी आराम मिल जाएगा तो खाना खा लेगी...वे परेशान न हों...।

पर वे परेशान कैसे न होती...? बेटी की तबियत ठीक न हो तो माँ को चैन मिल सकता है भला...? जाकर गर्म पानी की थैली और थोड़ी सी हींग-अजवाइन ले उसके सिरहाने बैठ गई। हार कर नीला ही उठ बैठी थी और जब तक उसने खाना नहीं खा लिया, वे वहाँ से गई नहीं...।

उन्हें अपने लिए इतना परेशान देख नीला का सारा गुस्सा काफ़ूर हो गया...। उसे उन पर फिर से प्यार आने लगा था। बेकार ही इतना मुँह फुला लेती है वह उनकी बात पर...। क्या शादी से पहले माँ से डाँट नहीं खाती थी...तो फिर...? पर वह भी क्या करे, उनके प्यार की इतनी आदत पड़ चुकी थी कि अब उनका गुस्सा उसे परेशान कर देता है।

सहसा नीला को सुबह नाश्ते की टेबिल पर कही गई उनकी बात याद आ गई...। सारा दिन काफ़ी सोचने-विचारने के बाद आखिर उसने शाम को मुकेश को अपना फ़ैसला सुना ही दिया,"सुनिए, कल मुझे कुछ रुपए चाहिए...। अपने लिए कुछ हल्के रंग के कपड़े लाने हैं...। मुझसे मम्मी का दुःख नहीं देखा जाता। अभी जब तक वे पहले की तरह सहज नहीं हो जाती, मैं भी गहरे रंग के कपड़े नहीं पहनूँगी...।"

सुनते ही मुकेश उखड़ गया था,"कोई ज़रूरत नहीं हल्के कपड़े पहनने की...माँ अगर इतनी सी बात पर अपना मूड खराब कर लेती हैं तो करने दो...। उन्हें अब खुद सम्हलना होगा...सच्चाई समझनी होगी। आखिर कोई बच्चा तो हैं नहीं...और फिर हम तो नहीं कहते न उन्हें हल्के रंग पहनने को...? खुद ही पहनती हैं...फिर कैसी नाराज़गी...?"

नीला जानती थी कि मुकेश सही कह रहे हैं। पापा के जाने के बाद जब मम्मी ने अपनी सारी गहरे रंग की साड़ियाँ उसे दी थी, तब उसने और मुकेश दोनो ने समझाया था, जब उन्हें हल्के रंग नहीं भाते तो मन क्यों मार रही...? क्या किसी के जाने से उसके अपने भी जीना छोड़ देते हैं...? तो फिर सिर्फ़ समाज के भय से खुद जीना क्यों छोड़ा जाए...? जवाब में मम्मी ने यक़ीन दिलाया था कि समाज का भय नहीं, उनका खुद का मन पापा के न रहने पर गहरे रंग पहनने का नहीं...। उनकी खुशी इसी में मान फिर उन दोनो ने भी आगे ज़ोर नहीं दिया था।

मुकेश थके हुए थे, सो नीला ने भी आगे बात नहीं बढ़ाई...। किसी दिन अच्छे मूड में होंगे तो अपनी बात ठीक से समझाएगी...आज बहस कर के माहौल और खराब करने से क्या फ़ायदा...? वैसे भी सुबह से ही सबका मूड बिगड़ा ही है...।

अभी वो नाश्ता बनाने जा ही रही थी कि देखा, मम्मी तो नाश्ता मेज पर लगा दोनो को आवाज़ दे रही थी। नीला ने राहत की साँस ली, चलो...मम्मी का मूड सही हुआ। अब सब ठीक हो जाएगा। इस समय मालिनी बहुत प्रयत्न करके खुश हो रही थी। बेचारे बच्चों के प्यार का इतना भी नाजायज़ फ़ायदा न उठाए कि वे उनसे बेज़ार हो जाएँ। आज मालिनी को पड़ोस वाली मिसेज शर्मा की बात याद आ गई थी, जब जीवन के जाने के कई दिन बाद नीला के ज़िद करने पर वे थोड़ी देर को मिसेज शर्मा के यहाँ चली गई थी। उन्होंने बड़े अपनेपन से मालिनी को समझाया था,"होशियार रहिएगा भाभी जी...। अब भाई साहब तो हैं नहीं, आप घर पर अपना होल्ड मत छोड़िएगा...।आजकल की बहुएँ बड़ी चंट आ रही...। घर के मुखिया के जाते ही सास को सीधे वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाती हैं...। पति को तो पहले ही मुठ्ठी में रखती हैं...।"

मिसेज शर्मा की बात सुनते ही मालिनी उग्र हो गई थी,"आपकी बहू होगी ऐसी...मेरी नीला के बारे में तो भगवान भी ये बात कहें तो मैं न मानूँ...। अरे, इंसान पहचानने में इतनी भी कच्ची नहीं हूँ मैं..." और फिर वे वहाँ से उठ आई थी। मिसेज शर्मा लाख इसरार करती रह गई, पर वे चाय के लिए रुकी ही नहीं थी। उनकी हिम्मत कैसे हुई नीला के बारे में ऐसा कहने की...? नीला उनकी बहू है, बेटी मानती हैं उसे...। वे उसे चाहे डाँटें, चाहे नाराज़ हों, दूसरा कौन होता है उसे कुछ कहने वाला...? होती होंगी बहुएँ चंट...पर नीला में चालाकी तो ज़रा भी नहीं...। उस दिन के बाद से वे आस-पड़ोस में भी जाने से बचने लगी थी। पर अपना क्या करें वे...? दुनिया से जिस लड़की के ख़िलाफ़ एक शब्द बर्दाश्त नहीं कर पाती, उसे खुद ही दुःखी करने लगी हैं...। अब वो कोशिश करेंगी कि अपने मन पर काबू पाएँ और उसे दुःख न पहुँचाएँ...।

मालिनी ने तो पूरी कोशिश कर ली थी अपने मन को काबू कर नीला को खुशी देने की, पर ऊपरवाले को कौन कहे...? अपने मन कछु और है, दाता के कछु और...। जीवन की तो बरसी भी मने छः महीने हो गए थे, ज़िन्दगी ढर्रे पर आने लगी थी कि सहसा मुकेश के ऑफ़िस से आए एक फोन कॉल ने फिर तूफ़ान ला दिया था। अच्छा-भला तो गया था ऑफ़िस...फिर अचानक...? डॉक्टर ने कार्डियक अरेस्ट बताया था...। मुकेश कब से दिल का रोग पाले बैठा था, किसी को पता ही नहीं चला। मालिनी और नीला तो ये भी नहीं समझ पा रहे थे कि मुकेश को ये बात पता थी या वो भी बिना किसी चेतावनी के ही चल दिया...? नीला तो जैसे बौरा ही गई थी। उन्हें ही सब सम्हालना पड़ रहा था। वे समझ नहीं पा रही थी, नीला को संभालें या बैठ कर रोएँ...? अभी तो सब के कारण घर भरा था, पर जब वे दोनो अकेली होंगी तब...? कौन किसे संभालेगा...?

तेरहवीं भी हो गई थी। नाते-रिश्तेदार सब जा चुके थे। नीला के माँ-बाप उसे अपने साथ ले जाना चाहते थे, पर वो ही उन्हें अकेला छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हुई। दोनो का साझा दुःख था, साथ मिल कर बाँटेंगी तो आधा हो जाएगा...। हार कर नीला के माँ-बाप वापस चले गए थे। रुकने से कोई फ़ायदा भी तो नहीं था...मालिनी और नीला, दोनो एक-दूसरे का ही तो मुँह देख रहे थे...।

मुकेश को भी गए पन्द्रह दिन हो गए थे। नीला बहुत देर से अपने कमरे से बाहर नहीं निकली थी। मालिनी को चिन्ता होने लगी, तो वे उसे आवाज़ देती सीधे उसके कमरे में चली गई। नीला को एक बैग में अपने कपड़े पैक करते देख उनका दिल बैठ गया...। क्या नीला ने उन्हें छोड़ कर जाने का फ़ैसला कर लिया...। इससे पहले कि वे कुछ पूछ पाती, नीला ने ही उन्हें जवाब दे दिया,"सोच रही हूँ ये कपड़े किसी महिला आश्रम में दे आऊँ...। कुछ हल्के रंग के सूट मम्मी घर जाने से पहले ले आई थी, अब तो वही पहनूँगी...। अब मुझे इनकी क्या ज़रूरत...।"

मालिनी को एक झटका सा लगा। नीला को कभी यह कहते सुनेंगी, उन्हें कभी बुरे-से-बुरे सपने में भी नहीं आया था...। उनकी आँखों से भरभरा कर आँसू बह निकले। नीला भी सब छोड़ कर दौड़ कर उनसे लिपट रोने लगी। नीला के बालों में हाथ फेर उसे चुप कराती मालिनी को सहसा लगा जैसे उनके अंदर एक नागफनी उग रही है। उसकी चुभन से उन्हें असहनीय पीड़ा हो रही थी, फिर भी वे समझ नहीं पा रही थी कि उस भयंकर चुभन में भी वे खुश कैसे हैं...?

(प्रियंका गुप्ता)

ईमेल: priyanka.gupta.knpr@gmail.com

ब्लॉग: www.priyankakedastavez.blogspot.com

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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार - प्रविष्टि क्र. 47 - प्रियंका गुप्ता की कहानी : अब वे खुश हैं...
कहानी लेखन पुरस्कार - प्रविष्टि क्र. 47 - प्रियंका गुप्ता की कहानी : अब वे खुश हैं...
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