विपश्यना के आचार्य सत्यनारायण गोयंका कहते हैं: भोगत-भोगत भोगते बंधन बंधते जायं, देखत-देखत देखते बंधन खुलते जायं। कैसा होता है देखना...
विपश्यना के आचार्य सत्यनारायण गोयंका कहते हैं:
भोगत-भोगत भोगते बंधन बंधते जायं,
देखत-देखत देखते बंधन खुलते जायं।
कैसा होता है देखना और किसको देखना? देखने मात्र से ऐसे कौन से बंधन हैं जो खुल जाते हैं? जे कृष्णामूर्ति कहते हैं कि द्रष्टा ही दृश्य है तो क्या स्वयं द्वारा स्वयं को देखना ही बंधनमुक्त होना है? जी हाँ, स्वयं द्वारा स्वयं को देखना ही मुक्त होने का मार्ग है और इसी देखने का नाम है ‘विपश्यना'। आत्म-निरीक्षण की प्रक्रिया द्वारा स्वयं को और स्वयं के माध्यम से वस्तुओं और स्थितियों को उनके यथार्थ रूप में देखने की योग्यता ही ‘विपश्यना' है।
हिंदू धर्म में मोक्ष की प्राप्ति अनिवार्य मानी गई है। जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त होना मोक्ष माना गया है और इसके लिए ईश्वर की कृपा पाना अनिवार्य है। ईश्वर की कृपा पाने लिए अनिवार्य है भक्ति मार्ग का अवलंबन लेकिन बौद्ध मत के अनुसार मुक्ति के लिए किसी ईश्वरीय अथवा दैवी अनुकंपा की आवश्यकता नहीं। बौद्ध मत के अनुसार वस्तुओं और स्थितियों को उनके यथार्थ रूप में देखने की योग्यता उत्पन्न होना ही मुक्ति अथवा मोक्ष है और इसे ही निर्वाण कहा गया है। स्वयं को तथा संसार की सारी वस्तुओं को मात्र देखना और उनके प्रति राग-द्वेष का भाव न रखते हुए आगे बढ़ जाना यही साधना निर्वाण की प्राप्ति में सहायक है। गीता में वर्णित ‘समत्वं योग उच्यते' की तरह समता भाव में स्थित होना ही निर्वाण है।
संसार अथवा संसार की वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए आवश्यक है स्वयं के वास्तविक स्वरूप को जानना। स्वयं को जान लेंगे तो संसार को जान लेंगे तथा संसार को जान लेंगे तो स्वयं को और अधिक अच्छी प्रकार से जानना संभव हो सकेगा क्योंकि यथा पिंडे तथा ब्रह्माडे। यही जानने की एक विधि है विपश्यना। विपश्यना में सबसे पहले हम केवल श्वास के आवागमन पर ध्यान केंद्रित करने का अभ्यास करते हैं जिसे ‘आनापान' कहते हैंं। आनापान के अभ्यास के बाद ‘विपश्यना' अर्थात् स्वयं का मानसिक निरीक्षण करने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। स्थूल से सूक्ष्म अंतरावलोकन की प्रक्रिया है ‘विपश्यना'।
विपश्यना की पहली कड़ी है आनापान जो बहुत ही सरल है। किसी भी आरामदायक स्थिति में बैठकर कोमलता से आँखें बंद कर लें। कमर और गर्दन सीधी रखें और अपना सारा ध्यान अपने श्वास के आवागमन के निरीक्षण पर लगा दें। इसमें करना कुछ भी नहीं है मात्र श्वास प्रक्रिया का अवलोकन करना है। श्वास के आने और जाने को देखना है। श्वास की गति को देखना है न कि उसकी गति को प्रभावित करना है। संपूर्ण ध्यान श्वास की गति को देखने में लगाना है। इस दौरान ध्यान श्वास प्रक्रिया के अवलोकन से हटकर अन्यत्र केंद्रित हो सकता है अथवा इधर-उधर भटक सकता है।
ध्यान विचलित हो सकता है लेकिन साधक को विचलित नहीं होना है। ध्यान भटक जाए तो पुनः शांत भाव से ध्यान को श्वास पर केंद्रित करना है। जो कुछ भी करना है अत्यंत शांत भाव से धीरे-धीरे करना है और हर परिवर्तन को ध्यान से देखते हुए करना है लेकिन परिवर्तन से किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं होना है। प्रारंभ में विपश्यना साधना में पहले पूरे तीन दिनों तक आनापान का अभ्यास ही करना होता है क्योंकि इससे ध्यान को केंद्रित करने में सहायता मिलती है। आनापान द्वारा मन पर नियंत्रण कर एकाग्रता का विकास करना सरल है।
( जहाँ तक आनापान तथा विपश्यना के अभ्यास का प्रश्न है विपश्यना साधना केंद्रों में यह साधना पूरे दिन चलती है। प्रत्येक साधक प्रातःकाल से सायंकाल तक आठ-दस घंटे का अभ्यास करता है। इस दौरान आहार भी दिन में एक बार और स्वल्प मात्रा में ही दिया जाता है। एक बार पूर्ण प्रशिक्षण के उपरांत साधक अपनी क्षमता अथवा आवश्यकता के अनुसार अभ्यास कर सकते हैं।)
जे. कृष्णामूर्ति भी यही कहते हैं कि मन पर नियंत्रण रखने का एक ही उपाय है कि उसे बाँधिये मत। उसे विचरने दीजिए। आप कुछ मत कीजिए सिर्फ साक्षी बने रहिए। इस प्रक्रिया में आप पाएँगे कि आपका उच्छृंखल मन शांत होकर आपके पास लौट आया है। उसके बाद आप आसानी से अपने मन को अपने नियंत्रण में कर सकते हैं। साधना का उद्देश्य भी तो यही है कि हमारा मन हमारे वश में हो। एक पालतू परिंदे की तरह मन की उड़ान पर हमारा पूरा नियंत्रण हो। मन ग़लत दिशा में उड़ान न भरे केवल सही दिशा में उड़ान भरे।
आनापान के बाद शुरू होती है विपश्यना। विपश्यना अर्थात् विशेष रूप से देखने की प्रक्रिया। विपश्यना शरीर के विभिन्न अंग-प्रत्यंगों के मानसिक निरीक्षण की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया प्रारंभ होती है सहस्रार से। सबसे पहले सहस्रार को ध्यानपूर्वक देखना है। एक बार उसका स्पंदन पकड़ में आ जाए तो उसका निरीक्षण कर फौरन आगे बढ़ जाना है। सहस्रार के बाद मस्तिष्क और चेहरे का अवलोकन। एक-एक अंग को ध्यानपूर्वक देखते हुए आगे बढ़ना है। कान, नाक, आँखें, होंट, गाल और चिबुक सबको ध्यानपूर्वक देखते हुए आगे बढ़ना है। जो जैसा भी है उसको देखना और आगे बढ़ जाना। बिना अच्छे-बुरे का निर्णय किए, बिना सुख-दुख का अनुभव किए बस देखना और आगे बढ़ जाना यही तो साक्षी भाव है। यही साक्षी भाव ही विपश्यना है।
( जहाँ तक सहस्रार का प्रश्न है यह हमारे मस्तिष्क के ऊपरी भाग में स्थित ऊर्जा का प्रमुख केंद्र है। हमारे षड़चक्रों में इसका विशेष महत्त्व है । रेकी साधना के अनुसार ब्रह्माण्डीय ऊर्जा हमारे सहस्रार द्वारा ही प्रवाहित होकर हमारे अन्य ऊर्जा केंद्रों तथा शरीर के अन्य भागों तक पहुँचती है। )
चेहरे के बाद गर्दन का अवलोकन और गर्दन के बाद कंधों और पीठ का अवलोकन। इसी तरह गर्दन के बाद दोनों बांहों से एक साथ ध्यान गुज़ारते हुए हाथों और हाथों की उंगलियों के पोरों तक की मानसिक यात्रा। वापस गर्दन और गले को देखते हुए नीचे वक्षस्थल और उदर का अवलोकन। हृदय, यकृत और गुर्दों का अवलोकन तथा पाचनतंत्र का अवलोकन। इसके बाद सारा ध्यान कूल्हों पर। कूल्हों से नीचे उतरते हुए दोनों जंघाओं से ध्यान गुज़ारते हुए, घुटनों और पिंडलियों से होते हुए टखनों, एड़ियों और दोनों पैरों के तलवों और पूरे पंजों का अवलोकन तथा हर उँगली और उँगली के पोरों का अवलोकन।
हर स्पंदन को देखते हुए आगे बढ़ना, कहीं नहीं रुकना। पुनः सिर से लेकर पैरों की उँगलियों तक लगातार बार-बार ध्यानपूर्वक अवलोकन। अब इसका विपरीत क्रम प्रारंभ करना है। नीचे से ऊपर की ओर। इसका भी बार-बार अभ्यास करें। इसके बाद संयुक्त अभ्यास। पहले ऊपर से नीचे तथा बाद में नीचे से ऊपर एक साथ अभ्यास। इसके बाद दाएँ से बाएँ तथा बाएँ से दाएँ ध्यान से देखने का अभ्यास। पर्याप्त अभ्यास के बाद पुनः संयुक्त अभ्यास। इसके बाद आगे से पीछे तथा पीछे से आगे का अवलोकन। पहले गले, वक्षस्थल और उदर का अवलोकन, फिर अंदर के समस्त अंगों का अवलोकन तथा उसके बाद गर्दन, कंधों तथा पीठ का अवलोकन।
( दाएँ से बाएँ तथा बाएँ से दाएँ ध्यान से देखने से तात्पर्य है ध्यान की अवस्था में शरीर के विभिन्न अंगों-उपांगों का दाएँ से बाएँ तथा बाएँ से दाएँ एक-एक करके तथा बाद में समग्र शरीर का एकसाथ मानसिक निरीक्षण। इस स्थिति में जहाँ-जहाँ से ध्यान गुज़रता है वहाँ-वहाँ शरीर की जड़ता समाप्त होकर ऊर्जा का प्रवाह संतुलित हो जाता है।)
ऊपर से नीचे, दाएँ से बाएँ तथा आगे से पीछे और इसका विपरीत क्रम दोहराते हुए ध्यान से देखते- देखते मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध होने लगता है। स्व का ज्ञान होना शुरू हो जाता है। देखते-देखते इस भौतिक शरीर की जड़ता, इसकी सघनता, इसका ठोसपन मिटता जाता है और शेष रह जाती है मात्र तरंगों की अनुभूति। पूरा शरीर, शरीर का हर अंग-प्रत्यंग मात्र तरंग रूप दृष्टिगोचर होने लगता है। यही विपश्यना है। ठोस शरीर को निरंतर तरंग रूप में परिवर्तित होते देखना ही विपश्यना है। एक बार अपने इस वास्तविक स्वरूप को जान लेंगे तो बाक़ी संसार को जानने में और उसके बाद जीते जी मोक्ष प्राप्त करने में अर्थात् मुक्त होने में कोई बाधा आ ही नहीं सकती। यही बुद्ध का मुक्ति मार्ग अथवा निर्वाण है।
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सीताराम गुप्ता,
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विपश्यना'के विषय में जानकार सुखद लगा.
जवाब देंहटाएंइस तरह के मेडिटेशन के कोर्स स्कूलों में भी अनिवार्य करने चाहिए.
संभव न हों तो विकल्प रखना चाहिए..
कार्यालयों में भी इस तरह की वर्कशॉप कभी-कभी होती रहनी चाहिए.
जिस से हर जगह एक स्वस्थ माहौल बन सके.
आज की भागती दौड़ती जिंदगी में खुद को जानने का समय ही नहीं मिल पाता,ऐसे में इनकी आवश्यकता और अधिक बढ़ जाती है.
जानकारी के लिए आभार.
अप्प दीपो भव...
जवाब देंहटाएंलेख अच्छा है ... लेकिन मूल बौद्ध दर्शन में सहस्रार या और किसी चक्र, कुण्डलिनी जैसी संकल्पनाओं को मान्यता नहीं ... इस बात को ध्यान में रखा जाए ...
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