रामवृक्ष सिंह का आलेख - शिक्षा की दुकान

SHARE:

लेख शिक्षा की दुकान डॉ. रामवृक्ष सिंह टाइम्स ऑफ इंडिया के शनिवार, 28 जुलाई 2012 अंक में एक बड़ा-सा विज्ञापन छपा है, जिसकी शुरुआती लाइन का...

लेख

शिक्षा की दुकान

डॉ. रामवृक्ष सिंह

टाइम्स ऑफ इंडिया के शनिवार, 28 जुलाई 2012 अंक में एक बड़ा-सा विज्ञापन छपा है, जिसकी शुरुआती लाइन का भावार्थ है- शिक्षा एक लाभप्रद व्यवसाय है। दरअसल यह विज्ञापन जमीन-जायदाद का कारोबार करने वाली एक बहुत ही नामी-गिरानी कंपनी की ओर से जारी हुआ है और इसमें दिल्ली के आस-पास विकसित हो रही किसी कॉलोनी में कंपनी की और से प्रस्तावित विभिन्न आकार के प्लॉटों की खरीद के लिए ग्राहकों को आमंत्रित किया गया है। ये प्लॉट नर्सरी स्कूल से लेकर स्नातक स्तर की शैक्षिक संस्थाएं खोलने के लिए उपलब्ध हैं।

ज़ाहिर है कि जमीन-जायदाद का व्यवसाय करने वाली कंपनी ने शिक्षा के कारोबार से जुड़े अपने भावी ग्राहकों को लुभाने के लिए यह विज्ञापन जारी किया है। शिक्षा फायदे का सौदा है, यह कोई ऐसा रहस्य नहीं है, जो शिक्षा के कारोबार से जुड़े लोगों को ज्ञात न हो। रीयल एस्टेट कंपनी ने तो इस तथ्य का पुनर्कथन मात्र किया है। हो सकता है कि उसका उद्देश्य अपनी संपत्तियों के लिए बिलकुल नए लोगों को आकर्षित करना भी रहा हो। अंततः सच्चाई तो यही है कि इस देश में जो भी निजी संस्थाएं शिक्षा का कारोबार चला रही हैं, वे बखूबी जानती हैं कि शिक्षा लाभप्रद व्यवसाय है।

शिक्षा, जो राज्य और केंद्र की समवर्ती सूची में आती है और इस देश के चौदह साल तक के बच्चों के लिए सरकार की ओर से मुफ्त मुहैया होनी थी, और जो इस उम्र तक के हर बच्चे का बुनियादी अधिकार है, और जिसकी डोर पकड़कर घुरहू मजदूर और मुरहू किसान, दोनों के बच्चे सिर्फ एक पीढ़ी के अंतराल में अपने माँ-बाप की गरीबी को धता बताते हुए, उनसे सैकड़ों गुना ऊंचे मुकाम पर पहुँचकर ऐशो-आराम की जिन्दगी बिताने की काबिलियत पा सकते हैं, वह फायदे का सौदा कैसे बन गई? दरअसल हुआ यह कि ज्यादातर सरकारी स्कूल शिक्षा के मामले में कुछ खास कर नहीं पाए और बीटी, बीएड पास मध्य-वर्गीय (और प्रायः शहराती) युवाओं को रोजगार देने का साधन मात्र बनकर रह गए। दो कदम आगे बढ़ें तो ये स्कूल गाँव के गरीब-गुरबा के अभावग्रस्त बच्चों को उल्टे-सीधे मध्याहन भोजन की प्रदायगी का केंद्र बन गए। बच्चे कटोरी-चम्मच लिए स्कूल गए, दलिया-खिचड़ी खाई और लौट आए। पता नहीं, शहर और कस्बे से कृपा-पूर्वक पधारे मास्टरजी, सर और मैम ने कुछ पढ़ाया-लिखाया या नहीं। हाँ, पाँच साल बाद जब प्राइमरी पास करके निकले, तो भी इन बच्चों को अपनी मातृभाषा तक की किताबें पढ़ने और दो लाइन लिखने तथा साधारण जमा-घटा करने की योग्यता नहीं हासिल हो पाई थी। इसलिए मजबूरी में घुरहू और मुरहू, दोनों ने अपने-अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से हटाकर, प्राइवेट स्कूल भेजने में ही अपनी खैर मनाई। क्या शहर क्या गाँव, समाज के हर तबके में, नीचे से ऊपर तक सबका यही अनुभव रहा और अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर उनका सोया नसीबा जगाने का यही रास्ता सबने अख्तियार किया। अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से सबने अपने-अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने में ही अक्लमंदी समझी।

यदि सरकारी स्कूलों में अच्छी शिक्षा मिल रही होती तो देश के बड़े-बड़े लोग, नेता और हुक्मरान अपने बच्चों को इन साधारण सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ाते? चूंकि सरकारी स्कूलों में शिक्षा की हालत खस्ता थी, इसलिए इन लोगों ने अपने बच्चों की उत्तम शिक्षा के लिए बढ़िया प्राइवेट स्कूलों को आगे बढ़ाया। इसकी शुरुआत दो-तीन सदी पहले अंग्रेजों के मिशनरी स्कूलों से हुई। विभिन्न कारणों से इन स्कूलों में अच्छी शिक्षा अपेक्षाकृत कम मूल्य पर उपलब्ध थी, और देश के गरीब, उपेक्षित वर्गों के बच्चों के प्रवेश को तरज़ीह दी जाती थी। आज अपने देश में अनुसूचित जनजातियों के जो लोग बड़े-बड़े मुकामों पर पहुँचे हैं, डॉक्टर और इंजीनियर बन गए हैं या सरकारी सेवा में ऊंचे पदों पर आ गए हैं, उनकी प्रगति का श्रेय इन मिशनरी स्कूलों को दिया जाना चाहिए। चर्च ने इन लोगों की जिन्दगी में शिक्षा का उजियारा फैलाया। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता।

सत्तर और अस्सी के दशक में और उसके बाद नवोदय विद्यालय सरीखे स्कूलों और केंद्रीय विद्यालयों ने इस दिशा में कुछ अच्छे प्रयास किए, लेकिन उनकी सारी पहल ऊँट के मुँह में जीरे की तरह ही रही। स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में माँग हमेशा ही आपूर्ति की अपेक्षा बहुत अधिक रहती चली आई और इसी की पूर्ति प्राइवेट स्कूलों और उच्चतर शिक्षा प्रदान करनेवाली संस्थाओं ने की। इसी बीच आईटी और अभियांत्रिकी के अन्य क्षेत्रों में भारत के महानगरों, खाड़ी के देशों, यूरोप, अमेरिका और दक्षिण-पूर्व के देशों में आई रोजगार की बाढ़ ने लोगों पर जाहिर कर दिया कि यदि बच्चे अच्छे से पढ़-लिख लें तो उनके दुःख-दारिद्र्य हमेशा के लिए दूर हो जाएँगे। अच्छी शिक्षा के लिए अभिभावक कुछ भी कीमत अदा करने को तैयार हो गए। उत्तम शिक्षा प्रदायगी के सरकारी इंतजाम या तो नाकाफी थे या नाकाबिल। लिहाजा निजी क्षेत्र के व्यवसायियों ने इस मौके को भुना लिया। लोगों ने दो-दो कमरों के मकानों में स्कूल खोल लिए। उच्च शिक्षा के लिए ऋण देने में बैंकों को भी व्यवसाय का एक नया आयाम नज़र आया।

यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने छात्रों के लिए भाषा, गणित और संगीत की शिक्षा के साथ-साथ, खेलों की अनिवार्यता पर भी बल दिया था। उनका विचार था कि खेल से शरीर का विकास होता है और संगीत से आत्मा का। दो-दो, तीन-तीन कमरों के मकानों में चलनेवाली शिक्षा की दुकानों में बच्चे खेल के नाम पर छुपन-छुपाई खेल लें और संगीत के नाम पर राष्ट्र-गान गा लें, तो बहुत है। शुरुआत में जो सरकारी स्कूल खुले थे, उनमें खेल के मैदान थे, खेल भी होते थे। बाद में खेलों के लिए सरकार की ओर से अलग स्कूल व कॉलेज खोल लिए गए और एक प्रकार से यह जता दिया गया कि बाकी के स्कूलों, यानी स्पोर्ट्स हॉस्टलों और स्पोर्ट्स कॉलेजों से इतर शैक्षिक संस्थाओं में पढ़नेवाले बच्चों को खेल-कूद में समय गँवाने की ज़रूरत नहीं है। इसका अभिप्राय यह भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि इन स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खूब बढ़िया इंतजाम सुनिश्चित कर दिया गया। यदि ऐसा हुआ होता तो दिल्ली के सरकारी स्कूलों के बच्चे बोर्ड परीक्षाओं में इतनी बुरी तरह फेल नहीं हुआ करते। यदि बोर्ड परीक्षाओं में बच्चे अच्छे अंक ला पाए तो इसका श्रेय प्राइवेट कोचिंग संस्थानों और बच्चों की खुद की मेहनत को दिया जाना चाहिए। और केवल खेल के लिए जो संस्थान खोले गए, उनका परिणाम क्या निकला, यह देखना हो तो अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भारत की पतली हालत पर जरा गौर फर्माइए। लंदन के ओलंपिक खेल आपके सामने चल ही रहे हैं। और दिल्ली-कॉमनवेल्थ खेलों के खेल से सभी पहले से ही अवगत हैं।

अभिप्राय यह कि प्राइवेट स्कूलों और प्राइवेट कॉलेजों के लिए शिक्षा की दुकानें खोलने का बड़ा ही सुनहरा मौका था और उन्होंने उपर्युक्त रीयल एस्टेट कंपनी के बताने से बीसियों साल पहले इस मौके को भुनाना शुरू कर दिया था। शिक्षा के कुछ व्यवसायियों को हमारी इस बात पर आपत्ति हो सकती है। यों तो इस देश में लोगों को काम करने से अधिक आपत्तियाँ करने में सुख मिलता है। लेकिन यदि किसी बड़े भाई को आपत्ति हो तो हम उदाहरण और प्रमाण देकर अपनी बात स्पष्ट कर सकते हैं। आज कोचिंग के नाम पर अभिभावक लाख-लाख, डेढ़-डेढ़ लाख रुपये सालाना व्यय कर रहे हैं, ताकि उनके बच्चे इंजीनियरिंग और डॉक्टरी की प्रवेश परीक्षा में पास हो जाएँ। इन परीक्षाओं का पाठ्यक्रम बारहवीं के स्तर का होता है। यदि स्कूलों में ढंग से पढ़ाई होती है तो बच्चों को कोचिंग में अलग से पढ़ने की ज़रूरत क्यों रह जाती है?

सन 2001 में इन पंक्तियों के लेखक का बेटा केंद्रीय विद्यालय, मैदा मिल, भोपाल में दसवी का छात्र था। महिला प्रिंसिपल ने अभिभावकों की बैठक बुलाई। मैंने कहा कि मैडम जो बच्चे गणित और विज्ञान में कमजोर हैं, उनकी अतिरिक्त कक्षाएं लगवाकर कमजोरी दूर करा दें। प्रिंसिपल भड़क उठीं- क्या हमारे खुद के बच्चे नहीं हैं, जो हम इन बच्चों के लिए अलग से क्लास लगवाएँ? बांगला-भाषी प्रिंसिपल महोदया हिंदी की बहुत बड़ी (और अब बुजुर्ग) नायिका की बहन लगती हैं। इस नाते उनके लिए मेरे मन में एक अलग स्थान था। लेकिन बतौर शिक्षिका उन्होंने जो बात कही, वह अशोभनीय थी। क्या शिक्षकों का यह दायित्व नहीं बनता कि वे कमजोर बच्चों पर ज्यादा ध्यान दें? हमारे शिक्षकों ने भी अगर यही रुख अपनाया होता तो प्रायः अनपढ़ माँ-बाप के घर जन्म लेकर भी आज हम इस मुकाम पर न होते। गुरु को गोविन्द से ऊँचा स्थान देने का जज्बा भी अपने देश में शायद तब न होता।

कुछ प्राइवेट स्कूलों में बच्चों की बाकायदा मेंटरिंग होती है। शिक्षक हर महीने उनके घर जाते हैं और उनकी पढ़ाई-लिखाई के बाबत उनके माता-पिता से बात करते हैं। उनके सर्वांगीण विकास पर विशेष ध्यान देते हैं। अपनी गुरु-शिष्य परंपरा में तो यह बात हमेशा से चलती चली आ रही थी। लेकिन आज जब शिक्षा ने व्यवसाय का रूप ले लिया है तो यह कहते हुए दुःख होता है कि येन-केन-प्रकारेण लाभार्जन के तौर-तरीके भी इस व्यवसाय में प्रवेश कर गए हैं।

ग्राहकों यानी छात्रों व अभिभावकों को अंधेरे में रखना और उनके भोलेपन का लाभ उठाना भी व्यावसायिक दांव-पेंच का एक हिस्सा बन गया है। इसे प्रमाणित करने के लिए एक नजीर देते हैं। लखनऊ के कुर्सी रोड से सटा एक एमबीए, एमसीए कॉलेज है। अपना बच्चा वहाँ से एमबीए कर रहा था। दूसरे वर्ष में प्लेसमेंट के लिए कॉलेज के विद्यार्थियों को गुजरात ले जाया गया। वहाँ कॉलेज के दो शिक्षक पहले ही पहुँच गए थे। सरखेज-गाँधीनगर हाइवे पर किसी बिल्डिंग के दो कमरों में विद्यार्थियों के साक्षात्कार हुए। अपने-आपको राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एग्जीक्युटिव बतानेवाले कुछ लोगों ने इन विद्यार्थियों से कुछ रस्मी सवालात पूछे, जिनका एमबीए की पढ़ाई या कैरियर आदि से कोई लेना-देना नहीं था। दो-तीन घंटे बाद कुछ छात्रों को मौखिक सूचना दी गई कि आपका चयन हो गया है। अपने बेटे ने एसएमएस किया- यूके की कंपनी में चयन हो गया है, पैकेज चार लाख रुपये। हमने सबको यह खुशखबरी दे दी। यही प्रक्रिया कॉलेज के शिक्षकों ने जयपुर में की। यहाँ भी कुछ विद्यार्थियों को चयन की मौखिक सूचना दी गई। विद्यार्थी खुशी-खुशी वापस आकर पढ़ने में जुट गए। प्लेसमेंट का लिखित ऑफर किसी को नहीं मिला। पूछने पर कॉलेज के शिक्षक व डायरेक्टर यही कहते कि चूंकि अभी सेमेस्टर पूरा होने में दो-तीन महीने बाकी हैं, और परीक्षा अभी नहीं हुई है, इसलिए ऑफर लेटर नहीं आ रहा है।

परीक्षाएं पूरी हो गईं। डेढ़-दो महीने में परिणाम भी आ गए। नया सत्र शुरू हो गया। कॉलेज ने तथाकथित चयनित छात्रों की सूची, मय पैकेज के, कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर चस्पा दी, जबकि सच्चाई यह है कि कॉलेज से एक भी प्लेसमेंट नहीं हुआ। इस घटना को डेढ़ साल बीत चुके हैं, अब तक कोई ऑफर नहीं आया है। नए छात्र नोटिस बोर्ड पर चस्पा झूठ पढ़कर संतुष्ट हो जाते हैं कि इस कॉलेज का प्लेसमेंट और पैकेज तो अच्छा है। अभी तक कॉलेज से अपने बेटे की डिग्री नहीं मिली है, इसलिए चुप बैठे हैं। इन झूठे, चालबाज लोगों का क्या भरोसा! कहीं ऐसा न हो कि डिग्री ही दबाकर बैठ जाएँ!

यकीनन, शिक्षा का व्यवसाय हमेशा फायदे का सौदा है। कम से कम हमारे देश के बारे में तो यह प्रपत्ति सोलहों आने सच है। अब भी अपने देश में लगभग तीस प्रतिशत आबादी निरक्षर है। जो साक्षर हैं, उनमें से शिक्षित कितने हैं, कुछ कह नहीं सकते। लोगों की आदतें, चाल-चलन, आचार-व्यवहार, नीति और आदर्श देखकर तो ऐसा लगता है कि सुशिक्षित-सुसंस्कृत लोगों का प्रतिशत बहुत ही कम होगा। लेकिन दुकान पर सुशिक्षा और सुसंस्कार की कोई माँग नहीं है। माँग है डिग्री-प्रदायिनी साक्षरता की। अपनी मध्यवर्गीय बेटियाँ तब तक पढ़ती रहती हैं जब तक ब्याह नहीं हो जाता और बेटे तब तक कॉलेजों के गलियारे में जीन्स-जूते रगड़ते रहते हैं, जब तक कहीं से नौकरी की चिट्ठी नहीं आ जाती।

तरह-तरह की डिग्रियाँ प्रचलन में आ गई हैं। भगवान जाने इन डिग्रियों के पाठ्यक्रमों में छात्र जो कुछ पढ़ते हैं, उसका उनके वास्तविक जीवन में कहीं इस्तेमाल भी होता है या नहीं। हम तो इतना जानते हैं कि अपने बैंक में कार्यरत अधिकारियों में लगभग सत्तर-पचहत्तर प्रतिशत के पास इंजीनियरिंग की डिग्रियाँ हैं। पर काम क्या है उनके पास? वही लेजर राइटिंग, जमा-घटा, फोटो-कॉपी, डिस्पैच, कागजों की पंचिंग और फाइलिंग। समझ ही नहीं आता कि फिर बीई, बीटेक क्यों किया था।

इधर देख रहे हैं कि एमबीए, एमसीए की बहुत-सी दुकानें धीरे-धीरे बंद हो रही हैं। होनी भी चाहिए। कारण? अभिभावक बैंकों से कर्ज ले-लेकर दस-बारह लाख रुपये खर्च करके अपने बेटों-बेटियों को पढ़ाते हैं और सारी कसरत के बाद बच्चे बेरोजगार रह जाते हैं। यदि नौकरी मिलती भी है तो अधिक से अधिक दस-पंद्रह हजार रुपये महीने की, वह भी महँगे शहरों में। इतनी पगार तो खोली के भाड़े में ही खर्च हो जाएगी। अभिभावक माथा पकड़कर सोचते रह जाते हैं कि यदि पढ़ाई पर खर्च हुई सारी रकम को बैंक में फिक्स्ड डिपॉजिट करा देते तो ब्याज के रूप में ही पगार बराबर पैसा मिल जाता। लिहाजा शिक्षा की दुकानों से लोगों का मोह भंग हो रहा है और दुकानें बंद हो रही हैं। मैनेजमेंट व इंजीनियरिंग कॉलेजों के बिकाऊ होने के विज्ञापन अखबारों में गाहे-ब-गाहे दिखने लगे हैं। इस समाज में जब सब कुछ बिकाऊ होकर नीलाम-घर में पहुँच चुका है तो शिक्षा और शैक्षिक संस्थान भी उसके अपवाद क्यों रहें? भवानी भाई के इस जन्म-शती वर्ष में उन्हीं के शब्दों में इस आलेख का समाहार करने का मन होता है- “जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान। जी, आप न हों सुन कर ज्यादा हैरान।“ (गीतफरोश)

डॉ. आर.वी. सिंह

उप महाप्रबन्धक (हिन्दी)/ Dy. G.M. (Hindi)
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक/ Small Inds. Dev. Bank of India
प्रधान कार्यालय/Head Office
लखनऊ/Lucknow- 226 001

---0---

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: रामवृक्ष सिंह का आलेख - शिक्षा की दुकान
रामवृक्ष सिंह का आलेख - शिक्षा की दुकान
http://lh6.ggpht.com/-j-Oh_TF4mng/TlM5_36baJI/AAAAAAAAKho/we8lmwlDK1Y/ramvriksh_singh%25255B2%25255D.jpg?imgmax=800
http://lh6.ggpht.com/-j-Oh_TF4mng/TlM5_36baJI/AAAAAAAAKho/we8lmwlDK1Y/s72-c/ramvriksh_singh%25255B2%25255D.jpg?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2012/08/blog-post_2615.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2012/08/blog-post_2615.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content