विजेंद्र शर्मा का आलेख - मीरा का भजन और बिलाल की अज़ान है ... ग़ज़ल

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मीरा का भजन और बिलाल की अज़ान है ... ग़ज़ल ग़ज़ल के माज़ी से पहले एक मुख़्तसर सा त-आरूफ हो जाए। ग़ज़ल से मुहब्बत करने वाले तक़रीबन सभी वाक़ि...

मीरा का भजन और बिलाल की अज़ान है ... ग़ज़ल

ग़ज़ल के माज़ी से पहले एक मुख़्तसर सा त-आरूफ हो जाए। ग़ज़ल से मुहब्बत करने वाले तक़रीबन सभी वाक़िफ़ है कि ग़ज़ल अरबी और फारसी तहज़ीब से हिन्दुस्तानी ज़ुबान को मिला एक बेहतरीन तोहफ़ा है। हज़ार साल पहले अरब के रेगिस्तान में जन्मी ग़ज़ल को वहाँ कबीलों के लोग एक ऐसी विधा के लिए इस्तेमाल में लाते थे जिससे कि वो अपने सरदार की शान में कसीदे पढ़ सकें। अपने सही मआनी की तलाश में ग़ज़ल अरब से इरान आ गयी और वहाँ फारसी ज़ुबान की सुहबत ने इसे नयी परिभाषा दी " सुख़न अज़ ज़नाना गुफ्तन " यानी औरतों से या औरतों के बारे में बातचीत करना फिर इसे इस तरह भी कहा गया कि महबूब से गुफ्तगू करना ग़ज़ल है। जब आप किसी औरत से बात करते हैं तो लहजा ख़ुद ब ख़ुद नरम हो जाता है वो फिर सख्त नहीं रहता इसी लिए ग़ज़ल का लहजा भी नरम ओ नाज़ुक हो गया और ये कहा जाने लगा कि ग़ज़ल की रूह बस प्यार ,मुहब्बत है।

हिन्दुस्तान में अगर ग़ज़ल की बात करें तो इसके पहले शाइर अमीर खुसरो थे जिनका दौर (1253 -1325 ) यानी 13 वीं सदी का दौर था उस वक़्त अरबी, फारसी और यहाँ की आंचलिक भाषाओं के मिश्रण से बनी ज़ुबान हिन्दवी का वर्चस्व था। वक़्त के साथ - साथ ग़ज़ल को अरबी - फारसी के भारी -भरकम लफ़्ज़ों से बने लिबास अखरने लगे। मुगलिया दौर में वो वक़्त आया जब तुर्की ज़ुबान के लफ़्ज़ उर्दू ने लश्कर की ज़ुबान का तमगा उतार कर ग़ज़ल के एक ख़ूबसूरत पैरहन की शक्ल अख्तियार कर ली। ये ग़ज़ल का सबसे अहम् दौर था जब उसने पूरी तरह से उर्दू का दामन थाम लिया था। वली दकनी इस ज़माने के उर्दू के बड़े शाइर थे।

मुगलिया सल्तनत का आफताब जिस वक़्त डूबने के लिए समन्दर की तलाश में था उस वक़्त ग़ज़ल का महताब रात के अंधियारे से निकल कर दिन में भी चमकने लगा था। ये दौर ग़ज़ल का बेहतरीन दौर था क्यूंकि मीर तकी "मीर: और सौदा जैसे ग़ज़ल के मुहाफ़िज़ों ने ग़ज़ल को इस क़दर सम्हाल के रखा जैसे कोई मोर के पंख मुक़द्दस किताब के पन्नो में रखता है। जैसे - जैसे मुगलिया हुकूमत का चराग बुझने लगा वैसे -वैसे ग़ज़ल की शमा अपने पूरे शबाब के साथ जलने लगी उसे ग़ालिब जैसा मुहब्बत करने वाला मिला जिसने फानूस बनके उसकी हिफ़ाज़त की। अब हिन्दुस्तान में राज तो अंग्रेज़ों का था पर ग़ज़ल को कभी ये नहीं लगा कि वो आज़ाद नहीं है ग़ज़ल अगर ग़ुलाम थी तो बस अपने चाहने वाले अमीर मिनाई ,शेफ्ता , हाली , नूह नारवी और दाग़ जैसे कद्दावर शाइरों की मुहब्बत की।

आज़ादी के वक़्त अंग्रेज़ों ने मुल्क के साथ -साथ हिन्दुस्तानी ज़ुबान के भी टूकड़े कर दिये मगर ग़ज़ल के आशिक़ों ने इसके वक़ार को कभी गिरने नहीं दिया। जिगर ,फिराक़ ,फ़ैज़ ,इकबाल ,कैफ़ी ,नासिर काज़मी, क़तील शिफाई जैसे शाइर ग़ज़ल की आबरू बने रहे।

12 वीं सदी से हिन्दुस्तान में अपना सफ़र शुरू करने के बाद आज ग़ज़ल उसका ठीक उलटे 21 वीं सदी में आ गयी है और इतने तवील ( लम्बे ) सफ़र के बाद भी ग़ज़ल की मक़बूलियत में कोई कमी नहीं आयी है बल्की इसमे इज़ाफा ही हुआ है मगर एक फर्क ज़रूर आया है क़लम और दवात की जगह ग़ज़ल कंप्यूटर से लिखी जाने लगी है। बशीर बद्र ने पिछली सदी के आख़िर में ठीक ही कहा था :---

आहन में ढलती जायेगी इक्कीसवीं सदी

फिर भी ग़ज़ल सुनायेगी इक्कीसवीं सदी

कंप्यूटर से ग़ज़लें लिखेंगे "बशीर बद्र "

ग़ालिब को भूल जायेगी इक्कीसवीं सदी

ग़ज़ल क्या है ... ? ये अगर एक सवाल है तो यहाँ मैं ग़ज़ल के स्वरूप , उसके ड्राफ्ट , उसकी सरंचना , उसके अरूज़ (व्याकरण ) का ज़िक्र नहीं करूंगा क्यूंकि ये सब मुआमले एक समन्दर की तरह फैले हुए है इन्हें किसी मज़मून (आलेख )में समेटा नहीं जा सकता। ग़ज़ल के लिबास और उसकी रूह से पूरी तरह से वाकफ़ियत सिर्फ़ अरूज की किताबें पढ़कर नहीं हो सकती इसके लिए ग़ज़ल को ज़िंदगी की चादर पे ओढ़ना बिछाना पड़ता है।

जब शाइर के ज़हन में किसी ख़याल का झोंका आता है तो वो उसे अपने लफ़्ज़ों को बरतने के हुनर से काग़ज़ के सीने पे उतार देता है मगर इतना कुछ ही ग़ज़ल नहीं है जब तक शे'र कहने वाला अहसास के धागे में लफ़्ज़ों को पिरोना नहीं जानता वो ग़ज़ल के साथ ना-इंसाफी करता है। कहने का मतलब ये है कि सिर्फ़ लफ्जों का खेल ही ग़ज़ल नहीं है।

किसी ख़याल को अहसास के रंग और लफ़्ज़ों के ब्रश से ज़िंदगी के कैनवस पे कोई सलीके की तस्वीर बना देना ही ग़ज़ल है। ग़ज़ल सिर्फ़ रदीफ़ काफ़िये का इस्तेमाल कर लफ़्ज़ों को बहर के फ्रेम में टांग देना नहीं है ,ग़ज़ल तो किसी बात को रिवायत की हद में रह कर सलीके से कहने के हुनर का नाम है और ज़िंदगी को सलीके से जीने का नाम ही शाइरी है। यहाँ रिवायत का मतलब ये नहीं की ग़ज़ल सिर्फ़ महबूब से गुफ्तगू तक ही महदूद (सिमित) हो जाए रिवायत तो अपने आप में एक सलीका है।

एक ज़माना था जब ग़ज़ल के श्रंगार में अरबी -फारसी के गहने फ़रावानी (बहुतायत ) थे मगर जिस तरह हमारे यहाँ औरतों ने अपने सजने सँवरने के सामान वक़्त के साथ - साथ बदल लिए है उसी तरह ग़ज़ल ने भी अपने लिए अरबी - फारसी के पुराने गहने बदल लिए है। आज ग़ज़ल आम-बोल चाल की ज़ुबान में कही जाने लगी है और ऐसा होना भी चाहिए , ग़ज़ल कही जाए और वो सुनने वाले तक पहुंचे ही नहीं फिर कहने का क्या फ़ायदा। हिन्दी के एक जाने -माने आलोचक कह्ते है कि कविता / शाइरी वही है जो सुनने वाले को तुरंत समझ ना आये और वो उसे सोचता ही रहे। मैं महोदय की बात से इतेफाक नहीं रखता शाइरी वही है जो कहने वाले के लब से निकले और सीधी सुनने वाले के दिल में उतर जाए। ग़ज़ल को न जाने क्यूँ लोग जटिल बनाने पे तुले हैं। कुछ शाइर ये साबित करने के लिए कि वे ज़ुबान के बड़े फ़ाज़िल है जानबूझ कर ऐसे - ऐसे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं जिसे पढ़ने /सुनने वाले को लुगत(शब्दकोष ) देखनी पड़े और चाहें इससे शे'र का मफ़हूम भी अपनी राह भटक जाए उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं है।

ग़ज़ल सही मायने में एक नाज़ुक सा अहसास है ये कोई ऐसी शै नहीं है जिसके साथ रूस्तमी की जाए बकौल मुनव्वर राना :---

ग़ज़ल तो फूल से बच्चों की मीठी मुस्कराहट है

ग़ज़ल के साथ इतनी रुस्तमी अच्छी नहीं होती

माज़ी से लेकर आजतक के ग़ज़ल के सफ़र पे नज़र डालें तो आप यहीं पायेंगे कि शे'र वही आमफेम हुआ है जो आम-बोलचाल की ज़ुबान में कहा गया है। मीर के ये शे'र इस बात की मिसाल है :--

पत्ता -पत्ता बूटा- बूटा हाल हमारा जाने है

जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

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नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये

पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

250 साल पहले मीर के कहे ये शे'र आज भी आज के से लगते हैं यही सही मायने में ग़ज़ल है। इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि इन शे'रों में जो ज़ुबान मीर ने इस्तेमाल की वो हमारे गली -मोहल्ले की ज़ुबान है। यूँ तो फ़िराक़ गोरखपुरी अपने मुक़ाबिल (सामने) किसी को कुछ मानते ही नहीं थे मगर उन्होंने भी कहा था कि अगर ग़ज़ल का कोई भगवान् है तो वो मीर है। मीर तकी "मीर" ने तक़रीबन 18000 शे'र कहे उनमें से 80 -90 के करीब उनके शे'र आमफेम हुए यानी आप उन्हें ज़िन्दा शे'र कह सकते हैं। ये ज़िन्दा शे'र फारसी /अरबी के भारी - भरकम लफ़्ज़ों से मुक्त थे। ग़ज़ल के बादशाह ग़ालिब का ज़िक्र करें तो उनके भी वही शे'र आवारा हुए जो हिन्दुस्तानी ज़ुबान में थे और इसी सिलसिले में फैज़ ,इकबाल , नासिर काज़मी , क़तील ,परवीन शाकिर , अहमद फ़राज़ के भी वही अशआर लोगों की ज़ुबान पे है जो सादी ज़ुबान में कहे गये। आज तकनीक का युग है इसमे ग़ज़ल को एक जगह से दूसरी जगह तक पहुँचने में वक़्त कम लगता है मगर आज भी वही शे'र लोगों के दिल में अपना आशियाना बना पाने में कामयाब होते हैं जो आम लोगों की ज़ुबान में कहे गएँ हो। बशीर बद्र , निदा फ़ाज़ली ,वसीम बरेलवी , मुनव्वर राना , राहत इंदोरी , नवाज़ देवबन्दी जैसे सुख़नवरों के अशआर आज बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक की ज़ुबान पे चढ़े हें इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि इन्होने अवाम की ज़ुबान को अपनी शाइरी के ज़ुबान बनाया है और जिस शायरी में भारी - भरकम लफ्जों का शाइर ने प्रयोग किया वो शे'र सिर्फ़ काग़ज़ की कब्र में दफ़्न हो कर रह गये हैं। हमारे अहद के कुछ और शाइरों के आम -बोलचाल के लहजे में कहे गये शे'र मैं बतौर मिसाल पेश करता हूँ ये अशआर मेरी इस बात की तस्दीक है कि ग़ज़ल ये है ....वो शै नहीं जो आपको उलझा के रख दे :---

कट रही है ज़िंदगी रोते हुए

और वो भी आपके होते हुए (ज़ोया )

 

काग़ज़ की एक नाव अगर पार हो गयी

इसमें समन्दरों की कहाँ हार हो गयी ( तारिक़ क़मर )

 

देख रहा है दरिया भी हैरानी से

मैंने कैसे पार किया आसानी से (आलम ख़ुर्शीद )

 

यानि, कुछ नहीं है करने को

उसने भेजा है यूँ ही मरने को (महेंद्र सानी )

 

एक बीमार वसीयत करने वाला है

रिश्ते -नाते जीभ निकाले बैठें हैं ( शकील जमाली )

 

दिल से अपनाया न उसने ,ग़ैर भी समझा नहीं

ये भी इक रिश्ता है जिसमे कोई भी रिश्ता नहीं ( दीप्ति मिश्र )

 

परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है

ज़मीं पे बैठ के क्या आसमाँ देखता है (शकील आज़मी )

 

ख़ुद से ही संवाद है शायद

क्या है। तेरी याद है शायद ( अखिलेश तिवारी )

 

जब ग़ज़ल मीर की पढता है पडौसी मेरा

एक नमी सी मेरी दीवार में आ जाती है ( अतुल अजनबी )

 

घर जो भरना हो तो रिश्वत से भी भर जाता है

हाँ मगर इससे दुआओं का असर जाता है ( फैयाज़ फ़ारूक़ी )

 

कोई शख्स लतीफा क्यूँ बन जाता है

सबको अपना हाल सुना के देख लिया ( पवन कुमार सिंह )

 

कुछ अच्छा होने वाला है

बिल्ली ने रस्ता काटा है ( आदिल रज़ा मंसूरी )

 

तमाम लोग मेरे साथ थे मगर मैं तो

तमाम उम्र तुम्हारी कमी के साथ रहा ( ज़हीन बीकानेरी)

 

ग़ज़ल के लिए एक अच्छा संकेत है कि इनमें से ज़ियादातर शे'र नस्ले-नौ (नई पीढ़ी ) ने कहे हैं। किसी भी शे'र में ग़ज़ल के साथ रुस्तमी नहीं की गयी है मगर सब बातें एक से बढ़ कर एक है। जब सवाल उठता है कि क्या है ग़ज़ल ?...तो उसका माकूल जवाब है कि ये है ग़ज़ल।

ग़ज़ल का पैकर इतना ख़ूबसूरत है की अदब से राब्ता रखने वाला हर शख्स ग़ज़ल पे हाथ आज़माता ज़रूर है। कुछ लोग तो पहले ग़ज़ल को समझते हैं , अपने मुतालये (अध्ययन ) में इज़ाफा करते हैं , ग़ज़ल की रूह तक पहुँचते हैं फिर कोशिश करते हैं कि इसे कहा जाए मगर एक बहुत बड़ा तबका ये समझता है कि बस रदीफ़ -काफ़िये बाँध दिये और ग़ज़ल हो गयी जबकी ऐसा नहीं है। ग़ज़ल के अरूज़ को सिखाने वाले भी आजकल बहुत पैदा हो गये है। कोई नया शाइर ग़ज़ल से मिलना चाहता है तो ये छंद शास्त्री उसे बहर के जाल में ऐसा उलझा देते हैं कि वो इब्तिदा ही से फाईलुन फाईलुन फाइलातुन में उलझ के रह जाता है। अगर शाइरी के रंग का खून किसी के रगों में है तो उसे ग़ज़ल को साधने से कोई नहीं रोक सकता। भाई पवन दीक्षित का ये मतला मुझे यहाँ याद आ रहा है :---

कर रहा हूँ आपसे मैं दिल की बात

मी न जानम फाइलातुन फाइलात

ग़ज़ल कहना वाकई दिल की बात करना ही तो है ... ग़ज़ल को बहर में लोग इस तरह उलझा रहे हैं जैसे पतंग की डोर कई बार अपने आप में उलझ जाती है भाई रिताज़ मैनी के ये मिसरे भी कितने सटीक है :--

उलझता है रदीफ़ों से लगाये काफ़िये ज़िद से

मोहब्बत क्या करेगा जो ज़हन में बहर रखता है

रोज़ नए - नए पैदा होने वाले ग़ज़ल के पंडितों से परवरदिगार ग़ज़ल की हिफ़ाज़त करे इन अरूज़ ( व्याकरण ) के ठेकेदारों को कौन समझाए कि बहर 2122 2122 2122 की गणना नहीं है ये तो वो लय है जिसे ग़ज़ल ख़ुद गुनगुनाती है शायद निदा फ़ाज़ली समझा पायें अपने इस शे'र से :--

दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है

सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला

मेरा ये मानना है कि बहर के चक्कर में कई बार नया शाइर अपनी बात पूरी तरह कह भी नहीं पाता है। इसमे भी कोई शक नहीं की बहर ग़ज़ल का एक फ्रेम है जो शाइर के ज़हन में पूरी तरह बसा हुआ होना चाहिए मगर ये तमाम दांव -पेंच एक दिन में नहीं आते हैं और अपने चाहने वाले से ग़ज़ल एक दिन में नहीं खुलती है। परवीन शाकिर ने कहा था :--

हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानां

दो घड़ी की चाहत में लड़कियां नहीं खुलती

ग़ज़ल का भी कुछ ऐसा ही मुआमला है ग़ज़ल भी अपना पता उसे बताती है जो ग़ज़ल को जीता है ,उसकी साधना करता है। ग़ज़ल क्या है ...इस सवाल की तह में उन दोस्तों को ज़रूर जाना चाहिय जो अपने नाम के आगे बड़े- बड़े अक्षरों में लिखवाते हैं शाइर फलाना ...शाइर ढीमकाना। एक तरह से ग़ज़ल एक मिज़ाज है उसके इस मिज़ाज और पैकर से छेड़ -छाड़ नहीं होनी चाहिए। बहुत से लोग उसकी आंतरिक और बाहरी सरंचना से खिलवाड़ कर के भी बड़ी दाद बटोर रहे हैं ये धंधा इंटरनेट पे सोशियल साइट्स पे ज़ोर - शोर से चल रहा है। कुछ ऐसे ईमानदार लोग भी है और वे तस्लीम करते हैं कि हम कई बार अपनी बात कहने के चक्कर में ग़ज़ल के फ्रेम को बिगाड़ देते हैं मगर लोग उनकी ग़ज़लों पे भी वाह - वाह करते नहीं थकते। पिछले दिनों जयपुर में एक काव्य - गोष्ठी में एक लोकप्रिय ग़ज़लकार / जन - कवि ने इस सच्चाई को कबूल किया कि अपने ख़याल को ठीक से लोगों तक पहुंचाने के चक्कर में उनकी ग़ज़ल कई बार बहर की पटरी से उतर जाती है। मुझे उनकी इस ईमानदाराना स्वीकारोक्ति पे ख़ुशी है मगर जब वे ये चीज़ मानते हैं तो उन्हें अपने नाम के आगे से ग़ज़लकार का लेबल हटा देना चाहिए क्यूंकि अगर कोई ग़ज़लगो है तो वो कभी ऐसा कर ही नहीं सकता और अलमीया (त्रासदी /विडंबना ) ये है कि ऐसी शाइरी पे तनक़ीद करने वाले अदब के मुहाफ़िज़ कह्ते है कि अपने मफ़हूम को ज़िन्दा रखने के लिए शाइर अगर ग़ज़ल के फ्रेम से अपनी तख़लीक को बाहर निकालता है तो निकाले ,इससे ग़ज़ल वालों को कोई तकलीफ़ होती है तो हो मगर इससे ग़ज़ल को तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए। ये कैसी सियासतदानों जैसी बात है कि ग़ज़ल वालों को तकलीफ़ हो मगर ग़ज़ल को तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए। जहाँ तक अच्छे ख़याल और मफ़हूम (कंटेंट ) का सवाल है वो तो फुटपाथ पे ज़िंदगी बसर करने वाले से अच्छा किसी के पास नहीं है। एक भीख मांगने वाले के पास भी ख़याल तो बहुत अच्छा होता है मगर उसमें और शाइर में यही तो फ़र्क है कि शाइर उस ख़याल को लफ़्ज़ों में ढालकर शाइरी बना देता है। इस तरह की दलीलें कि आप मेरा थोट देखिये उसकी बहर , शेरियत और दूसरे एब हुनर मत देखिये समझ से परे हैं। मेरा यहाँ इन बातों का ज़िक्र करने का आशय बस इतना ही था कि ग़ज़ल की नज़ाकत और नफ़ासत के साथ रत्ती भर भी कोई छेड़ -छाड़ करता है तो उसे ख़ुद को ग़ज़लगो कहलवाने का कोई हक़ नहीं है ,उसे अपनी तख़लीक ( रचना ) को फिर आज़ाद नज़्म का नाम दे देना चाहिए। ऐसे तनक़ीद वालों से भी ख़ुदा ग़ज़ल को बचाये जो ग़ज़ल और ग़ज़ल वालों की तकलीफ़ में ही भेद कर दे। तनक़ीद के ऐसे सौदागरों को कौन समझाए कि ग़ज़ल और ग़ज़ल वालों की पीड़ा अलग - अलग नहीं हो सकती।

वापिस उसी सवाल पे आता हूँ कि ग़ज़ल क्या है ..?.. ग़ज़ल ,ग़ज़ल पे सियासी लोगों की तरह तब्सरा ( टिप्पणी ) करने वालों की चहेती तो बिल्कुल नहीं है। ग़ज़ल महबूबा की ज़ुल्फों की सताईश( तारीफ़) है तो बेवा के माथे की शिकन भी है। ग़ज़ल अगर मैखाने में सागर ओ मीना में छलकने वाला जाम है तो ग़ज़ल मुफ़लिस की वो रिदा भी है जिसे ओढ़ने के बाद उसके पाँव बाहर रह जाते हैं। ग़ज़ल अगर बे-ईमान मौसम का राग है तो बंजर ज़मीन का दर्द भी है। ग़ज़ल अमीर ए शहर की मौज का कोई सामान नहीं है मगर फूटपाथ पे सोने वाले मजदूर का बिछौना ज़रूर है। ग़ज़ल उस बाप की पीड़ा है जो बहादुर है और अपने बच्चे के लिए अपनी तलवार बेच के रोटी खरीद लाया है। ग़ज़ल उस माँ की दुआ है जो सरहद पे खड़े अपने बेटे और अपने मुल्क की सलामती के लिए वो दिन - रात करती रहती है। ग़ज़ल उस बच्चे की ज़िद है जिसे कभी खिलौना चाहिए , कभी चाँद चाहिए और अगर चाँद से रूठ जाए तो रात को ही उसे सूरज भी चाहिए। ज़ुल्फों , शराब , महबूब की गलियों से निकल कर न जाने ग़ज़ल कहाँ - कहाँ पहुँच गयी है मगर ग़ज़ल को कुछ लोगों ने चीखने चिल्लाने का भी ज़रिया बना लिया है जो ग़ज़ल को किसी भी कीमत पे मंजूर नहीं है।

ये और बात की ग़ज़ल कहने वालों ने कभी तो इसे इस सलीके से कहा कि ग़ज़ल का सर फख्र से ऊंचा हुआ है मगर कुछ ऐसे लोग इसे कहने लगे है जिन्हें न तो कहन का पता है न ही शेरियत का। जिन्हें लफ़्ज़ों को बरतने का सलीका भी नहीं आता, जो ग़ज़ल के अंदरूनी और बाहरी रख-रखाव से भी वाक़िफ़ नहीं है वे अख़बारों , रिसालों में बड़ी शान के साथ छाप रहे हैं। ऐसे ग़ज़ल के दुश्मनों से मेरी दरख्वास्त है कि वे मीर से लेकर आज के दौर के मोतबर शाइरों को पढ़े। ग़ज़ल कहना जितना आसान लगता है उतना है नहीं। ग़ज़ल कहना रफ़ूगीरी का काम है और रफ़ू करने में कई बार लहू तक थूकना पड़ता है। ऐसे लोगों की तादाद दिन ब दिन बढ़ती जा रही है जो एक दिन में दो - दो ग़ज़लें फेसबुक की नकली दीवार पे चस्पा कर रहे हैं और झूठी वाह -वाह से आत्म- मुग्ध हो रहे है जबकी महीनो लग जाते हैं कभी - कभी एक शे'र कहने में। बकौल बशीर बद्र :---

चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं से ज़मीं

ग़ज़ल के शे'र कहाँ रोज़ -रोज़ होते हैं

ग़ज़ल क्या है ..? हमारे दौर की ग़ज़ल वो है जिसे हमारे सुख़नवरों ने इस तरह से आसान ज़ुबान के रंगों से बनाया है कि उसकी तस्वीर देखने के लिए आपको फिर किसी लुगत ( शब्दकोष ) का चश्मा ना लगाना पड़े। आज की ग़ज़ल के कुछ ऐसे शे'र अपनी तमाम बातों की गवाही में रख रहा हूँ जिससे उन लोगों का भरम दूर हो जाए जो सिर्फ़ ये समझते हैं कि मुश्किल लफ़्ज़ों के बिना ग़ज़ल हो ही नहीं सकती। ग़ज़ल की ज़ुबान जब-जब आसान हुई है तब - तब उसने अपना रंग इस तरह दिखाया है। मैं कुछ हवाले देता हूँ , मुनव्वर राना ने इस सिन्फे नाज़ुक से अमीरी और मुफ़लिसी की तस्वीर यूँ बनाई है :---

भटकती है हवस दिन - रात सोने की दुकानों मे

ग़रीबी कान छिद्वाती है तिनका डाल देती है

बिल्कुल सादा लफ़्ज़ों के रंग से बनी प्रो. वसीम बरेलवी की ग़ज़ल की तस्वीर ऐसी नज़र आती है :---

दूर से ही बस दरिया दरिया लगता है

डूब के देखो कितना प्यासा लगता है

डॉ. राहत इन्दौरी भी अपनी ग़ज़लों को जहाँ तक मुमकिन हो आसान रखते हैं ये बात और की बात फिर भी बहुत गहरी निकल के आती है :--

जब से तूने हल्की - हल्की बातें की

यार तबीयत भारी - भारी रहती है

पाकिस्तान के शाइर मुज़फ्फ़र वारसी ने भी अपनी ग़ज़लों में उन लफ़्ज़ों को बरता जो आम आदमी की दस्तरस में हो :--

जीने की इजाज़त नहीं मरने नहीं देता

ज़ालिम किसी रस्ते से गुज़रने नहीं देता

गहराई समन्दर की तलब करता है मुझसे

लहरों से मगर बात करने नहीं देता

हस्ती मल हस्ती एक ऐसे शाइर है जिन्होंने सादा ज़ुबान से ऐसे शे'र निकाले हैं कि ग़ज़ल ख़ुद हैरत में पड़ गयी है :--

चाहें जितने तोड़ लो तुम मंदिरों के वास्ते

फूल फिर भी कम न होंगे तितलियों के वास्ते

यहाँ एक और शाइर राजेश रेड्डी का ज़िक्र अगर न हो तो मुझसे ग़ज़ल ख़फा हो सकती है आसान लफ़्ज़ों से मुश्किल ग़ज़ल कहने का फ़न राजेश रेड्डी के पास है :--

सोना था फ़क़त लोग जो बाज़ार से ले आये

बेच आये जो बाज़ार में ज़ेवर तो वही था

आम-बोल चाल की ग़ज़लों के सिलसिले में मंगल नसीम साहब को भूलना ग़ज़ल के साथ ना-इंसाफी होगी :--

नहीं ,हममे कोई अनबन नहीं है

बस इतना है कि अब वो मन नहीं है

बीकानेर के मारूफ़ शाइर शमीम बीकानेरी ने सादा लफ़्ज़ों के रंगों से मीर के कैनवस पे ऐसी तस्वीर बनाई कि जिसे फिर देखने वाला सिर्फ़ हैरत से देखता रह जाता है :--

कहा है "मीर " ने ये इश्क़ भारी पत्थर है

ये बात है तो ये पत्थर उठा के देखते हैं

ग़ज़ल के साथ जितने भी प्रयोग किये गये उसमें कुछ को तो ग़ज़ल ने नकार दिये मगर कुछ ग़ज़ल को भी बहुत भाये। बशीर बद्र ने एक अंग्रेज़ी के लफ़्ज़ को ग़ज़ल में क्या बांधा कि वो लफ़्ज़ ग़ज़ल का लफ़्ज़ हो गया :---

वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है

कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे

मलिकज़ादा जावेद ने जब ये तजुर्बा किया तो ग़ज़ल ने इसे भी सर आँखों पे बिठाया :---

किसी फूटपाथ से मुझको ख़रीदो

मिरी शो रूम में क़ीमत बहुत है

हसीब सोज़ ने भी इस प्रयोग को जब किया तो वो भी ग़ज़ल पसंद आ गया :---

हमारे दोस्तों में कोई दुश्मन हो भी सकता है

ये अंग्रेज़ी दवाएं है रिएक्शन हो भी सकता है

वैसे तो ग़ज़ल जिस लिबास में सबसे ख़ूबसूरत लगती है उसका नाम उर्दू है मगर उर्दू भी तो हिन्दुस्तानी ज़ुबान का ही नाम है। हमारे यहाँ सियासत ने ज़ुबानों को तो मज़हबों में तक्सीम कर ही दिया है मगर कुछ लोग ग़ज़ल के भी टूकड़े करने में लगे है। मुझे बड़ी हैरत है कि कुछ बड़े नाम भी ये कह्ते है कि ये हिन्दी ग़ज़ल है वो उर्दू ग़ज़ल है। इनकी बाते सुनकर सच में ग़ज़ल आहत है ग़ज़ल अपने चाहने वालों से इल्तिजा कर रही है कि मुझे सिर्फ़ ग़ज़ल ही रहने दो मुझे हिन्दी - उर्दू मत बनाओ। हिन्दुस्तान में बहुत से ऐसे शाइर है जिन्हें उर्दू रस्मुलख़त (लिपि ) तो नहीं आता मगर उन्हें ग़ज़ल से मुहब्बत है उन्होंने ऐसे - ऐसे शे'र कहे हैं जिनपे ग़ज़ल इतराती बहुत है। बतौरे - ख़ास पवन दीक्षित का ये मतला :---

वो हस्ती छीन ली मेरी ,वो मस्ती छीन ली मेरी

मेरे दौलत के चस्के ने फ़क़ीरी छीन ली मेरी

शाइरी में ग़ज़ल कभी लिखी नहीं जाती ग़ज़ल सिर्फ़ कही जाती है इस लिए जिसे ज़ुबान आती है उसके लिए कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उसे उर्दू लिखनी आये या नहीं। यहाँ मैं एक बात ज़रूर कहना चाहूँगा अगर उर्दू लिखना उस शाइर को आ जाए जो ज़ुबान से पहले से ही वाक़िफ़ है तो गज़ब हो सकता है वो शाइर फिर धुंआ उठा सकता है। ग़ज़ल के तमाम आशिक़ों से निवेदन है कि वे उर्दू रस्मुल ख़त भी सीखें ताकि ज़ुबान की उन पेचीदगियों से भी मुख़ातिब हुआ जा सके जो कि बिना उर्दू रस्मुल ख़त के संभव नहीं है।

ग़ज़ल कहने वाले ग़ज़ल को तहज़ीब और रिवायत के पैरहन (लिबास ) में रहने दें ,सलीके का दुपट्टा इसके सर से ना उतारें ग़ज़ल को पहले साधें , किसी जानकार को अपना उस्ताद बनाएं जिस तरह गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिल सकता उसी तरह ग़ज़ल तक पहुँचने के लिए उस्ताद बहुत ज़रूरी है। ग़ज़ल को सिर्फ़ अपने शौक़ तक महदूद ना रखें इसे अपना जुनून बनाएं तभी ग़ज़ल आपको गले लगाएगी और फिर परवरदिगार ऐसी ग़ज़ल आपके खाते में डाल देगा जिसे सुनकर दुनिया कहेगी कि ये है ग़ज़ल। आख़िर में फिर उसी सवाल ग़ज़ल क्या है ...? के इसी जवाब के साथ कि ग़ज़ल सही मायने में वो है जिसे भीख मांगने वाला भी समझे और कासे (भिक्षा -पात्र )में सिक्का डालने वाला भी। ग़ज़ल वो है जिसे मंदिर में गाया जाय तो वो मीरा का भजन लगे , मस्जिद में कोई पढ़े तो बिलाल की अज़ान सुनाई दे , कोई फ़क़ीर गुनगुनाये तो कायनात सिमट जाए और किसी तवायफ़ के कोठे पे गाई जाए तो घुंघरुओं के भी आंसू निकल आयें। मंसूर उस्मानी के इन्ही मिसरों के साथ इजाज़त लेता हूँ....

ज़िंदगी भर की कमाई है ग़ज़ल की ख़ुश्बू

हमने मुश्किल से बचाई है ग़ज़ल की ख़ुश्बू

तुमने दुनिया को अदावत के तरीके बाँटे

हमने दुनिया में लुटाई है ग़ज़ल की ख़ुश्बू

ख़ुदा हाफ़िज़ ..

--

विजेंद्र शर्मा

vijendra.vijen@gmail.com

बीकानेर

COMMENTS

BLOGGER: 5
  1. प्रिय महोदय , कुछ बातें जोड़ना चाहूँगा -परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है I
    समय के साथ साथ परिभाषाएं भी बदलती हैं विशेषतः सामजिक साहित्यिक विषयों
    की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं होती Iस्वरुप बदलता है , विषय वस्तु बदलती
    है I छांदिक विषयों में भी भाव के मद्देनज़र अत्यधिक शैल्पिक कट्टरता लाभकारी नहीं
    किन्तु आशय खुली छूट नहीं और न ही हर रचना तुकबंदी होती है काफिया वैभिन्य
    महत्वपूर्ण है अपने आप में और एक ही रचना में काफिये की पुनरावृत्ति आलस्य है I
    अलिफ़ के काफियों पर पुनर्विचार कर एक सख्त नियम बनाया जाए .आलोचना के
    स्वर सभ्य और नर्म होने चाहिए . प्रायः तथाकथित आलोचक अनजान रचनाकारों
    की रचनाएं बिना पूरी पढ़े ही उनको सिरे से नकार देते हैं अथवा कूड़ा करकट बोल
    देते हैं जबकि सुप्रसिद्ध शायरों के कूड़े को भी गुलदस्ता करार देते हैं ये दुखद है I ग़ज़ल
    अब ग़ज़ल नहीं (अति) आधुनिक-ग़ज़ल है और आधुनिकता यानि समसामयिक ,प्रासंगिक ,
    तात्कालिक अथवा वर्तमान फैशनानुकूल विषय-वस्तुओं से परिपूर्ण I भाषा सदैव विषयानुकूल
    होती है , प्रेम कि बातें नर्म होंगीं तो युद्धात्मक विषयों के शब्द पैने-कठोर होंगे.समय के साथ
    व्यक्ति,वस्तु,भावों का बदलाव ही आधुनिकता है I गम में रोना ,खुशी में झूमना ,क्रोध में
    तमतमाना सब कुछ स्वाभाविक है हाँ हमें लाक्षणिक ग्रंथों का निर्माण करना हो तो
    बात और है वरना इस शैल्पिक कट्टरता के आग्रह के चलते तमाम लोगों ने लिखना ही
    छोड़ दिया I सभी की मीर-ग़ालिब से तुलना भी दुराग्रह है ,बचपना है I आटे में नमक
    जितनी छूट देना चाहिए I

    जवाब देंहटाएं
  2. vijendra ji aapka lekh yakinan durust hai aur kabil-e-gour hai.
    aaj ke sandarbh me kahna chahenge ki 'ghazal' ko bhi azadi milni chahiye, par aisi bhi nahi ki sare-aam ho jaye. is dour me harkaten itni hoti hain ki dimag har waqt mashgul rahta hai aur aise me wo taiari aur bariki mmkin nahi. lekin iska matlab ye nahi ki chhed-chhad kuchh jiyada ho!
    manoj 'aajiz'

    जवाब देंहटाएं
  3. डॉ . हीरा लाल जी आप फ़ाज़िल है, ज़हीन है ,विद्वान् है मैं तस्लीम करता हूँ ! मगर ग़ज़ल एक सलीके का नाम है ! चीखना - चिल्लाना ग़ज़ल का मिज़ाज न तो सदियों पहले था न आज है ! ग़ज़ल को पहले साधना पड़ता है ! एक लफ्ज़ है मश्क़ , ग़ज़ल का शे'र अपने होने से पहले मश्क़ माँगता है ! सिर्फ रदीफ़ काफ़िये चस्पा कर देने से ग़ज़ल नहीं होती है ! मैंने अपने मज़मून में इन सब बातों का ज़िक्र किया है ! जो विधा बंदिश में रहकर अपनी बात कहने का नाम हो उसमें छूट का सवाल ही पैदा नहीं होता ! अपनी गज़लात में आपने ऐसे - ऐसे अलफ़ाज़ का इस्तेमाल किया है जिस से ग़ज़ल के सर का दुपट्टा तो उतरा ही है बल्कि उस से मुहब्बत करने वालों का ज़ायका भी ख़राब हुआ है !


    ग़ज़ल को अपनी रेल बहर की पटरी पे बड़े एहतियात के साथ चलानी पड़ती है ...चड्डी , हगने जैसे लफ़्ज़ ग़ज़ल को किसी भी कीमत पे मंज़ूर नहीं है ! मैं तक़रीबन बीस साल से ग़ज़ल से रब्त रखे हुए हूँ मगर आज तक एक शे'र भी कहने का हौसला न कर सका ,क्यूंकि जानता हूँ की अभी शे'र कहने कि सलाहियत मुझ में नहीं आयी है ! ग़ज़ल में उन्नीस बहरें होती है अगर उनमें से एक भी मेरे दस्तरस में जिस दिन आ गयी मैं शे'र कह दूंगा ! बिना ग़ज़ल के मिज़ाज को आने सिर्फ़ तुकबंदी से पचास - साठ ग़ज़लें कह देना डॉ साहब ग़ज़ल के साठ ना-इंसाफी है !


    मैंने अपने मज़मून में नई नस्ल के शाइरों के भी शे'र कोट किये है ....कितने सलीक़े से उन्होंने अपनी बात कही है ! ग़ालिब ओ मीर के मेयार पे कोई दूसरा आ ही नहीं सकता और न ऐसी तुलनाएं होनी चाहीये मगर शे'र अपना सफ़र ख़ुद तय करता है ....ग़ज़ल एक ऐसी नाज़ुक सिन्फ़ है जिसमें तो कुत्ता,जूता लफ़्ज़ भी नहीं आने चाहिए ...एक मिसाल देता हूँ...इराक में बुश साहब पे जुटा फैंका गया ...इस वाकिये को बहुत से लोगों ने ग़ज़ल बनाया ...वसीम साहब ने किस सलीक़े से अपनी बात कही कि जूता आया भी नहीं और आ भी गा ....ये शाइरी है...और ऐसा हुनर बिना मेहनत के नहीं आता ...



    ये ज़ुल्म का नहीं मज़लूमियत का गुस्सा था



    के जिसने हौसलामंदी को लाजवाल किया



    हज़ार सर को बचाया मगर लगा मुंह पर



    ज़रा से पाँव के तेवर ने क्या कमाल किया

    डॉ साहब आपसे यही गुज़ारिश है कि ग़ज़ल से मुहब्बत करते हो तो उसके तमाम नाज़ - नखरे भी आपको उठाने पड़ेंगे ! इसी तरह दोहे का भी अपा एक मिज़ाज है ! खुसरो ,कबीर से ले कर निदा तक को पढ़ने के बाद मेरी समझ में दोहे कि चाल आयी ...! भाई झूठी तारीफ़ करने वालों से दूरी बनाओ ,अगर कोई आईना दिखा रहा है तो अपने आप को देखो कि मैं कैसा नज़र आता हूँ...मेरा एक दोहा है ..:_-

    उल्टे सीधे काफी , उस पे ग़लत रदीफ़ !

    कह दी सच्ची बात तो , शायर को तकलीफ़ !!

    कड़वे सच का एहतराम करो ...मशक कीजिये ...एक दिन ग़ज़ल ख़ुद आपको गले लगायेगी ! आख़िर में ताहिर फ़राज़ के इन्ही मिसरों के साथ आपके ख़ूबसूरत मुस्तक़बिल की चाह के लिए दुआ करता हूँ....

    नज़र बचा के गुज़रते हो तो गुज़र जाओ

    मैं आइना हूँ मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है



    रेगार्ड्स

    विजेंद्र

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहद खूबसूरत रचना है ..........भई वाह

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर और सार्थक आलेख है विजेंद्र जी। बहुत बहुत बधाई।

    "उन्हीं को फ़क़त राह देती है दुनिया
    जिन्हें ये पता है कि जाना किधर है
    ---देवमणि पांडेय

    जवाब देंहटाएं
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नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक 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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: विजेंद्र शर्मा का आलेख - मीरा का भजन और बिलाल की अज़ान है ... ग़ज़ल
विजेंद्र शर्मा का आलेख - मीरा का भजन और बिलाल की अज़ान है ... ग़ज़ल
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