कहानी डेल्यातूर राजीव सागरवाला ले टते समय मेरे हाथ में लिस्बन की घेराबंदी का इतिहास नामक किताब थी। आपने भी, अगर किताबों में ज़रा सी भी दिल...
कहानी
डेल्यातूर
राजीव सागरवाला
लेटते समय मेरे हाथ में लिस्बन की घेराबंदी का इतिहास नामक किताब थी। आपने भी, अगर किताबों में ज़रा सी भी दिलचस्पी आप रखते हों तो शायद देखी भी हो, पुर्तगाल के लेखक जुजे सरामागू की है, जिन्हें नोबेल प्राईज़ से नवाज़ा जा चुका है। इसमें एक प्रूफ रीडर जिसका नाम राईमुन्दु सिल्वा है, इस नाम की किताब के प्रूफ पढ़ते हुए एक शब्द नहीं मज़मून में, जहां लेखक यह कहना चाहता है कि लिस्बन की घेराबन्दी के समय ‘मुजाहिदों ने पुर्तगालियों की मदद की’, ‘मदद’ और ‘की’ शब्दों के बीच डाल देता है जिससे कि लेखक का आशय ही बदल जाता है। ऐसा करना किसी भी प्रूफ रीडर की आचार संहिता और उससे भी बढ़ कर उसकी नैतिकता के एकदम खिलाफ था। बहरहाल उसने ऐसा करना लाज़मी समझा क्योंकि उसे लगा कि लेखक ने एक ऐतिहासिक भूल की है, और उसका वक्तव्य सच्चाई से कोसों दूर है.. .. .. क्योंकि उसके अपने मतानुसार मुजाहिदों ने आक्रमणकारियों के विरोध में पुर्तगालियों का साथ नहीं दिया था।
ऐसा करते समय यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसने अदम्य साहस का परिचय दिया जो कि उसी के एक और हमपेशा नीत्शे की किताबों के प्रूफ-रीडर जो कि स्वयं कट्टर धार्मिक था नीत्शे के इस बयान कि ईश्वर मर गया है से इत्तेफाक न रखते हुए भी उसमें ‘नहीं’ शब्द नहीं जोड़ सका और प्रूफ रीडर की मर्यादा का शब्दशः निर्वाह किया।
एक साधारण सा नकारात्मक शब्द ‘नहीं’ सत्य को असत्य के ऊपर हावी कर सकता है। बहरहाल राईमुन्दु सिल्वा की जानबूझ कर की गई इस गलती के साथ किताब बिना किसी के पता चलते छप गई क्योंकि राईमुन्दु सिल्वा ने अपने सारे जीवन में किसी भी किताब में पांडुलिपि से मिला कर प्रूफ में कोई गलती नहीं छोड़ी थी। इस बारे में वह अपनी तरफ से भी कोई कोताही नहीं बरतता था जिससे कि अनजाने में भी कोई गलती रह जाये। उसके ऊपर सबका, खासकर प्रेस के मालिक का, पूरा भरोसा था।
पर भला दाई से क्या पेट छिपा रह सकता है। जब लेखक ने छपी किताब की प्रति देखी तो राईमुन्दु सिल्वा की यह नाजायज़ हरकत पकड़ ली गई और उसने प्रकाशक को आढ़े लिया। प्रकाशक याने कि राईमुन्दु सिल्वा के मालिक को यह नागवार गुज़रा कि उसका एक मातहत, एक अदना प्रूफ-रीडर, भले ही जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी इसी प्रेस में लगा दी हो, इस तरह की ज़ुर्रत करे... ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकत करे।
उसकी इस एक हरकत, जिसे एक गलती या भूल कह टाल देना या नज़रंदाज़ कर देना, इन दोनों मासूम शब्दों के साथ घोर नाइंसाफी होगी, के कारण उसे प्रकाशक के सामने उपस्थित होना पड़ा और उसको, उसकी लम्बी सेवा के मद्दे-नज़र चेतावनी दे कर छोड़ दिया पर उसे, उस कमेटी में शिरकत करती एक महिला जिसे उसने पहली बार ही देखा था और जिसके बारे में उसे बाद में मालूम चला कि वह स्वयं खासी पढ़ी-लिखी थी, डाक्ट्रेट की उपाधी से नवाज़ी आ चुकी थी, के अधीनस्थ कर दिया गया। उसके पेशतर उसे अपना सारा काम उन महिला को दिखाना पड़ेगा।
खैर जो हुआ उसका राईमुन्दु सिल्वा को क़तई अफ़सोस नहीं हुआ और उसने कोई ऐतराज़ नहीं किया ...
आगे हुआ यह कि वह उस महिला के जो कि अब उसकी बास थी, प्रेम में पड़ गया और अंततः उस महिला ने उसे प्रेरित किया कि वह उस इतिहास को, यानी कि लिस्बन की घेराबंदी के इतिहास को अपने हिसाब से, अपनी ग़लती को तर्कसंगत बनाते हुए लिखे।
एक दिलचस्प कहानी बन पड़ी जिसमें उसके कथानक के दो पात्रों एक किसान महिला और एक सिपाही जिन्होंने घेराबंदी के विरोध में लड़ा और उपन्यास के दो पात्र राईमुन्दु सिल्वा और उसकी बास के बीच प्रेम समानांतर रेखाओं पर चल पड़ता है।
शब्द अपनी पूरी मासूमियत के साथ घोर अनर्थ करने की हैसियत भी रखते हैं इसका इल्म विरले ही रखते हैं और ज्यादातर लोग इनका इस्तेमाल बहुत ही फौरी तौर पर करते हैं और ज़िंदगी में फंसते जाते हैं। कहीं मैं भी न फँस जाऊं।
मुझे अपने तईं एक शिकायत भी है कि पता नहीं यह कौन सा रोग है कि लिखने कुछ बैठता हूं और लिखने कुछ और ही लग जाता हूं। आज सुबह से सोच रहा था कि अपने अतीती गलियारों में झांकूंगा और लिखने बैठ गया इस उपन्यास के बारे में एक रिव्यू।
अब देखिये कहां लिस्बन और कौन नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखक सरामागू और कहां मैं इंदौर में बुढ़ाता हुआ, अपने घर में एक अदना सा लड़खड़ाता सेवानिव्रत्त सरकारी मुलाजिम, जिसकी ज़िंदगी का आधे से ज्यादा वक्त फाईलों में हाशियों पर टिप्पणियां लिखते बीत गया और जिसे अब इस बुढ़ापे में ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने के लिये लिखने का शौक हुआ है।
सरकारी नौकरी उस चक्की की तरह होती है जिसके पाट दिखाई नहीं देते ......चलती रहती है, पिसते रहते हैं और रिटायर होने तक रोने के लिये दो आंसू भी मुशकिल से ही मयस्सर होते हैं। अब इन चंद आंसुओं को कागज़ पर उतारने की जब-जब कोशिश करता हूं मेरे आड़े परिवेश आ टंगड़ी लगा जाता है। एक धुंध आंखों पर छा जाती है जिसे हटाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। खैर कोशिश करता हूं..... आगे बढ़ने की।
यह तो मैं ऊपर शुरू में बता ही चुका हूं कि मैं लेटते समय क्या कर रहा था, पर मैंने यह नहीं बताया कि कब और कहां मैं लेटने जा रहा था। काल और स्थान दोनों की ज्योतिष में महत्ता है क्योंकि उससे नक्षत्रों के और आप के बीच अद्रश्य सम्बन्ध बनते हैं और उसी से आपकी नियति। तो मेरी भी उससे जुड़ी समझिये।
मुझे याद है कि जब मैं दिन के तीसरे पहर, एक बज कर पैंतालीस मिनिट और उन्तालीस सेकेंड पर, इंदौर शहर में, ज़मीन पर चटाई बिछा कर दरवाज़े के ठीक सामने लेट रहा था तो हवा का झोंका, जो कि सितम्बर माह में अक्सर एक हल्की ठंन्डक लिये रहता है, आया और उसने मेरी तंद्राई को और भी उनींदा कर दिया।
यह जगह जहां मैंने चटाई बिछाई थी वास्तव में घर में पहली मंज़िल पर हाल में थी जहां सीढ़ियों का चढ़ाव खत्म होता है और चढ़ाव से सट कर ही बाहर बालकनी में जाने का दरवाज़ा है। वस्तुतः इस जगह पर दो दरवाज़े हैं और दोनों ही आमने-सामने, हाल के दोनों तरफ छतों पर खुलते हैं। इन दरवाज़ों की सीध में ही चटाई बिछाई थी बारीक प्लास्टिक के तंतुओं से बनी ठीक वैसी ही जैसी गल्फ से लौटते हुए बहुत से यात्रियों के सामानों के साथ बम्बई ऐयरपोर्ट पर रंगबिरंगी बुनाईयों में दीख जाया करती थीं एक समय में जब बहुत से मेहनतकश वहां रोजी-रोटी के खातिर जाया करते थे।
सोचा था कि लेट कर थोड़ा पढ़ूंगा.... वही किताब.. .. .. जिसके बारे में विस्तार से ऊपर बता चुका हूं, पर हुआ कुछ और। अब यह कहने की हालत में तो फिलहाल मैं नहीं हूं कि वास्तव में क्या हुआ पर मुझे भी लगता है कि किताब के कुछ पन्ने जहां कि प्रूफ़ रीडर इसी किताब के फाईनल प्रूफ पढ़ते हुए शब्दों या अक्षरों को हटाने के लिये, जो चिन्ह जिसे पुर्तगाली में डेल्यातूर और अंग्रेज़ी और हिन्दी में डिलीट कहते हैं, और जो कि हर प्रूफ रीडर का पसन्दीदा हथियार होता है, के बारे में बता रहा होता था कि मेरी आंखों को नींद ने गिरफ़्त में ले लिया और मैंने जैसे-तैसे किताब सिराहाने रख, चश्मा उतार, कमानियों को एक दूसरे के ऊपर ठीक वैसे ही समेट रख दिया जैसा कि अंडरटेकर ताबूत में रखे शव के हाथ मोड़ कर छाती पर रख दोनों अंगूठों को बांध देता है,....... और मेरा सिर पीछे की तरफ हो तकिये पर लुढ़क गया।
मुझे नहीं मालूम कि मुझे लेटे हुए कितना वक्त गुज़रा.......मैं नींद में गाफ़िल सोयी आंखों से देखता हूं कि पत्नी बांयें हाथ से सीढ़ियों की रेलिंग पकड़ और दांये हाथ से साड़ी की चुन्नटों को संभाले, जैसा कि अमूमन सभी भारतीय महिलायें सीढ़ी चढ़ते आदतन करती हैं, चढ़ती ऊपर आ रही है। ऊपर आते-आते वह कुछ हांफने लगी थी। ऊम्र भी हो चली थी तिस पर डाईबिटीज़ और प्रेशर की मरीज़। ऊपर आ, एक लम्बी सांस ले एक क्षण कमर सीधी कर मुझे नीचे लेटा देख चलते-चलते .....बोलते हुए.... “नीचे क्यों लेटे हो? “ .....और शायद यह सोचते हुए कि मैं यूं ही लेटा हूं, और मेरी तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया न पा.... मैंने देखा कि वह रेलिंग पकड़ कर हाल से होते हुए घर के पीछे वाले बेडरूम में चली गई।
यह उसका कमरा है, जहां घर की एकमात्र ड्रेसिंग टेबुल है, आदमक़द शीशे के साथ, और जिसको बनवाने के लिये उसे, आरज़ुओं और मिन्नतों के साथ, उम्र के खासे भाग इंतज़ार करना पड़ा था। इस दरमियान सिर के बालों में चांदनी पसर गई और यह अच्छा हुआ यह कि अब उनमें खिज़ाब लगाने में उसे, उससे खासी सहूलियत हो गई। हमारी उम्र का एक बड़ा हिस्सा, और मैं यह नहीं कहूंगा कि अकेले हमारा ही, रोटी, कपड़ा और मक़ान इन तीन तिलंगों की भेंट चढ़ गया और ज़िंदगी के शुरुआती दौर में यह कमबख्त ड्रेसिंग टेबुल निचले पायदान से उठ, ऊपर आने की ज़ुर्रत न कर सकी। इसमें मैं ही कसूरवार हूं वरना भला कौन अहमक़ होगा जो अपनी बीबी को, चाहे जैसी भी हो, सजा-संवरना.... देखना नापसंद करता हो।
यह घर जिसमें अब हम रहते हैं अपनी सारी जिम्मेदारियों से निपट रिटायरमेंट के बाद मिले पैसे से हम दोनों ने बनवाया यह सोचते हुए कि बचे दिन सुख-शान्ति से काट सकेंगे .... अलबत्ता यह इन्द्रजाल ही है और उसे काटना सम्भव नहीं।
यहां यह भी बताता चलूं कि हमारे इस घर की पहली मन्ज़िल पर दो बेडरूम हैं जो उस हाल के दोनों तरफ हैं जहां कि मैं लेटा हूं। यह हाल करीब पंद्रह फुट चौड़ा और चवालीस फुट लम्बा है जो ग्राऊंड फ्लोर के इतने ही लम्बे हाल के ऊपर बना है। इस हाल में एक अर्ध-चंद्राकार कट-आऊट फर्श में है जो पहली और दूसरी मंज़िल की सीढ़ियों के चढ़ावों को जोड़ता है। सीढ़ियों की फर्शियां एक सिरे पर तो दीवाल में चिनी हुई हैं और दूसरी तरफ अधर में खुली लटकी हैं, एक खुलेपन का अहसास देती हुईं। इन सीढ़ियों पर नीचे से ऊपर तक, रेलिंग... लकड़ी की बनी हुई है जो है तो वास्तव में बबूल की पर देती शान सागवान की है।
जिंदगी कुछ ऐसी ही कारगुज़ारियों से जी जाती है जिसमें वास्तिविकता से ऊपर किसी दूसरी के होने का भ्रम बना रहे और मैं नहीं कह सकता कि मेरी जिंदगी एक अपवाद है।
ऊपर दूसरी मंज़िल पर छत की टावर में जिसके ऊपर एक पानी की टंकी है एक कमरा है जिसकी अंदर खुलती दीवार में भी रेलिंग है और यहां से सीधे तल मंज़िल पर हाल में बैठे लोग दिखाई दे सकते हैं।
इस टावर में कमरे के साथ की दीवार में एक झरोखा बना है यही कोई एक ज़रब एक बलिश्त का, जिसमें से रोशनी अंदर आ सकती है। सूरज के उत्तरायण से दक्षिणायन जाने के दर्मियान एक दिन ऐसा होता है कि सूरज की किरणें झरोखे से आती हुईं पहले माले के अर्ध-चंद्राकार कटआऊट से होते हुए, एक निश्चित समय.....सीधी नीचे ड्राईंग हाल में आती हैं। सूरज की किरणों के लिये इस झरोखे का ख्याल, मक़ान बनवाते समय मुझे नेशनल जिओग्रफिक चेनल पर इजिप्त के पिरामिडों पर दिखाई जाने वाले एक प्रोग्राम से मिला था जिसमें पिरामिड में बने उन तंग गलियारों का वर्णन था जो इस तरह बनाये गये हैं कि साल में एक दिन सूर्य की किरणें, गर्भ-ग्रह में रखे राजा के ताबूत पर सीधी पहुंचें। न जाने मेरे दिमाग में क्या चीज़ थी कि मैंने ऊपर टावर में एक झरोखा बनवा लिया। दीवार में उस झरोखे की जगह निर्धारित करने के लिये बाक़ायदा मैंने एक दिन बैठ कर घर से गुजरते हुए अक्षांश और घर का उसके दिशा-सम्बंध और ड्राईंग रूम में जिस स्थान पर मैं किरणों को आते देखना चाहता था उससे सूरज का एलीवेशन निकाला और फिर ठेकेदार को दीवार में उस जगह झरोखा बनाने के लिये कहा।
एक लम्हा वह मेरा मुंह देखता रहा फिर बोला कि “साहेब, उतने ऊपर उस झरोखे का क्या मतलब?..... उस तक हाथ नहीं पहुंचेगा और कैसे साफ-सफाई होगी......बारिश की बौछार अलग अंदर आयेगी।”
मैंने पूछा.... “इजिप्त गये हो? “ .... “पिरामिड देखा है? “.... “अगर नहीं तो जैसा मैं कह रहा हूं वैसा करो।”
मैं आश्वस्त था कि उस बेचारे ने इजिप्त का नाम भी शायद न सुना होगा।
बहरहाल उसने वह झरोखा, जैसा कि मैं चाहता था, बेमन से ही सही, बना दिया और मैंने देखा कि साल में एक दिन वाक़ई वही सूरज जो पिरामिड के अंदर सदियों से साल में एक दिन ताबूत पर नक्काशे राजा के चेहरे पर किरणें डालता है, मेरे घर के ड्राईंग रूम में भी, जिसमें मेरे हिसाब से मेरी इस दुनिया की सब सुख-सुविधाएं, और पसंदीदा साजो-सामान मैंने जमा कर रखी हैं, बराबर भेजता है। इन लौकिक-भौतिक चीज़ों में, बावन इंच का आलीशान थ्री डी एल सी डी, डी वी डी प्लेयर, बोस का सराऊंड साऊंड म्यूजिक सिस्टम, मेरे लिखने-पढ़ने और व्यक्तिगत मनोरंजन के लिये लेपटाप बाक़ायदा वेबकैम और स्टीरियो हेडफोन के साथ, लकड़ी पर काम करने के औज़ार, दाढ़ी बनाने का किट जिसमें सुपर मेक्स का ट्रिपिल ब्लेड रेज़र, नीविया की शेविंग क्रीम, और ओल्ड स्पाईस का सफेद चीनी मिट्टी की बोतल में बंद आफ्टर शेव लोशन और एक्स फ़ेक्टर का डिईओ लोभान, जिसके इस्तेमाल के बाद हूरें पागलों सी आदमी पीछे दौड़ती विज्ञापनों में दिखाई जाती हैं, करीने से रखे हैं।
वह समय और था कि जब परलोक में राजा की सुख-सुविधा, और मनोरंजन के साधन और यहां तक कि दास-दासियां भी जिंदा ही राजा के साथ दफना दी जाती थीं। राजा ही सब इन्तज़ाम कर जाता था। अब परलोक से लोगों का भरोसा उठ सा गया है और जो कुछ भोगना है इधर ही इसी लोक में भोगने का चलन हो चला है जिसके चलते मैंने अपने शहर के उम्दा मालों से यह सब सामान जुटाया है।
इसके साथ ही मेरी प्रिय चुनिंदा किताबें जिन्होंने मुझे मुझ जैसा बनाने में अहम किरदार निभाया है भी रखी हैं। यह जीवनोपरांत दूसरी दुनियां में किताबों के योगदान जिसके बारे में किसी पिरामिड से या कि किसी धर्म-ग्रंथ में कोई उल्लेख नहीं मिलता मैं सोचता हूं कि मेरा अपना योगदान हो सकता है।
कुछ देर बाद पत्नी बेडरूम से बाहर आयी। वैसे तो बेडरूम का संदर्भ आते ही एक रूमानियत सिर चढ़ने लगती है पर उम्र के इस ढले हुए दौर में उसकी तलब रखना अपने आप से ज्यादती ही होगी। खैर......मुझे ठीक उसी करवट से लेटा देख शायद थोड़ा चिंतित हुई होगी क्योंकि नीचे बैठ उसने मुझे कंधे से हिलाया। मैंने देखा उसकी पेशानी पर लकीरें खिंची थीं। पता नहीं क्यों मुझे उसके हाथ के स्पर्श का, जिससे मैं अरसे से पहचानता था, मेरे स्न्यायु तंतुओं ने कोई ध्यान न दिया बल्कि उसके हिलाने के फलस्वरूप मेरे बेजान हाथ लुढ़क कर बाजू में गिर गये और मेरा सिर एक तरफ लुढक गया।
ऐसी परिस्थिति में कोई और महिला अगर उसकी जगह होती तो धाड़ें मार कर रोने लगती पर पत्नी के डाक्टर होने के कारण यह परिस्थितिजन्य परन्तु अति अशोभनीय स्थिति, जो कि मेरे लिये बहुत तक़लीफ की बात होती, नहीं आयी बल्कि उसने धीरे से मेरी एक आंख की निचली पलक को , जो अब तक लगभग पथरा गईं थीं जैसा कि मैंने महसूस किया था, नीचे खींच कर यह देखने की कोशिश की कि कहीं पुतलियां जड़ तो नहीं हो गईं हैं। गले की नस पर अंगुलियां रखीं, कलाई पकड़ कर नब्ज़ को पकड़ने की कोशिश की जैसा कि अमूमन सभी डाक्टर ऐसी परिस्थितियों में करते हैं और मुझे लगता है कि यह उनकी और दीगर आदतों में शुमार हो जाता है जैसे कि, हर आदमी से मिलते ही चेहरा देख अंदाज़ लगा लेना कि बंदे को क्या-क्या रोग साल रहे हो सकते हैं और साल दर साल मरीज़ देखते-देखते मेरी बेग़म सहिबा भी इस मामले में अपवाद नहीं रह गईं हैं।
मैं कहने को ही था कि क्यों फालतू में आंख में उंगली घुसेड़ रही हो कि वह तुरन्त उठी और टेलीफोन के पास जा कर फोन करने लगी। मुझे सुनाई दिया कि ऐम्बुलेंस बुला रही है। मुझे भी लगा कि क्यों मैं बोलना चाह कर भी उससे कुछ कह न सका। कोई और दिन होता, शायद अपनी जवानी का, तो मैं उसका हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच लेता। पर अब वो तो खंडहरों पर लिखा इतिहास हो गया है।
इस बीच मैनें देखा कि मेरे ठीक ऊपर एक छिपकली, या यह कहना कि छिपकली का एक बच्चा ठीक होगा, छत पर उल्टा चिपका है और गर्दन उठा कर मेरी तरफ देख रहा है।
भाषा की एक कमी मुझे खलने लगी कि मैं यह नहीं पता लगा सकता कि छिपकली के लिये हिन्दी में पुलिंग बोधक शब्द है भी या नहीं। इस लिये कह नहीं सकता कि छिपकली सिर ऊठा कर देख रहा है या रही है........ कहना मुश्किल है।
मैं उसे देखते रहता हूं .. .. .. कुछ कर बैठने की कसमसाहट महसूस करने लगता हूं। यहां मैं यह खुलासा कर दूं कि छिपकलियों से मुझे सख्त नफ़रत है और जब भी उन्हें देखता हूं तो झाड़ू उठा कर मारने के लिये पीछे पड़ जाता हूं और तब तक दम नहीं लेता जब तक फ़तह न हासिल हो जाय। मुझे नहीं समझ आया कि इतना ऐतिहायत रखने के बाद यह कैसे बच गई।
मैंने ध्यान से देखा तो वह एक नन्हा सा बच्चा था, निहायत ही नाज़ुक और खूबसूरत......बदन पारदर्शी।
ऐसा नहीं है कि मैने कभी इन छिपकली के बच्चों को कोई रियायत दी हो फिर भी मैंने उस समय भी जब मैं झाड़ू लिये उनको मारने के लिए दौड़ रहा होता हूं, महसूस किया था कि एक नाज़ुक कोना अपने मन के भीतर है और बच्चे को मारते समय दिल थोड़ा ज्यादा कड़ा करने की ज़रूरत होती थी पर मैंने सतह पर, कभी कोई दया नहीं दिखलाई थी।
मैंने तुरत-फुरत, उसे मारने के लिये झाडू ढूंढने में सक्रियता दिखाने की कोशिश की पर मेरे हाथ-पैरों ने बड़ी बेमुरुव्वत से मेरे मन का साथ छोड़ दिया।
वह छिपकली का बच्चा छ्त पर ही वृत्ताकार घेरे में धीरे-धीरे चलने लगा और मेरे देखते ही देखते उसने एक डेल्यातूर की शक्ल अख़्तियार कर ली जो कि अंग्रेज़ी के क्यू से काफी मिलता जुलता है। हालांकि डेल्यातूर की पूरी गोलाई में अपने को फिट करने के हिसाब से उसके पास शरीर की लम्बाई कम थी पर बची जगह उसने अपनी पूंछ से पूरी कर ली थी।
डेल्यातूर, सोचते होंगे आप कि क्या बला है। दरअसल डेल्यातूर पुर्तगाली शब्द है प्रूफ में गलतियां सुधारते समय छपे ह?ुए को काटने ने के लिये इस्तेमाल किये जाना वाला चिंन्ह जिसे अंग्रेजी में डिलीट कहते हैं।
अब, जब मैं एक तरह से लाचार था और कुछ होने की, जिसमें ऊपर से छिपकली के बच्चे के मेरे ऊपर गिरने का डर भी शामिल हो गया था, प्रतीक्षा कर रहा था, एक ख्याल मेरे ज़हन में आया कि क्या ही अच्छा होता कि प्रूफ-रीडरों को दी हुई किसी भी अक्षर , शब्द, वाक्य, या कि पूरा का पूरा पैराग्राफ काटने या इधर से उधर कर देने की सुविधा जो उन्हें मिलती है यदि हमारे जीवन में भी ऊपर वाले ने हमें दी होती तो हम कितनी सुविधा से अपने मांझी को बदल कर चैन से ज़िन्दगी बसर करते, अपनी गलतियों को वहीं सुधार लेते और उनसे सीख लेने और पश्चाताप करने की ज़रूरत नहीं रहती।
बाज़ वक्त, आपने भी सुना होगा लोगों को कह्ते हुए कि फलां-फलां शक्स की ज़िन्दगी खुली क़िताब है। आखिर ऐसा क्योंकर कहते हैं। ज़ाहिराना तौर पर अगरचे ज़िंदगी एक किताब है तो शर्तिया कहीं न कहीं तो प्रूफ रीडर बैठा होगा, ग़लतियों को सुधारने और उसके पास भी, मुझे पूरा भरोसा है कि हमारे इधर के प्रूफ्ररीडर, राईमुन्दु सिल्वा, के माफिक डेल्यातूर होगा।
मेरा अपना सीधा अनुभव तो नहीं है पर जिस तरह से आम आदमी को मंदिरों, मसज़िदों, गिरजाघरों, गुरुद्वारों, मठों, दरगाहों के चक्कर लगाते और अपनी गलतियों के लिये माफी मांगते, धर्म-गुरुओं, पीरों के पैर पड़ते देखता हूं तो विश्वास न होते हुए भी कहीं न कहीं यह घर करने लगता है कि आखिर इतने लोग......इतने समय से बेवकूफी तो नहीं ही कर रहे होंगे कि सिर्फ माफी पर ही रुक जायें और अपनी ग़लतियों को सुधरवाने के लिये दरख्वास्त न देते हों। इन्सान के आंख खोलने से ले कर, भगवान को बनाने के बाद से अब तक ज़ियारत करने का क्या यही सिला मिला कि एक बार भी किसी इंसान को अपनी ग़लती सुधार फिर से जीने का मौका नहीं दिया उसने।
चूंकि सांख्यिकी हमें बताती है कि हर चीज के होने की एक निश्चित सम्भावना होती है, भले ही वह कितनी कम हो,.... नगण्य ही क्यों न हो ....तो क्यों न मैं कम से कम एक....., किसी एक ग़लती को सुधारने के लिये अर्ज़ी दूं तो इंशा अल्लाह मेरी दरख्वास्त के मुकम्मल होने की सम्भावना तो है ही। ऐसा खुदा से ग़ुज़रिश करने के पीछे मेरा एक मक़सद यह भी है कि जिसे मैं ताज़िंदगी नकारता आया हूं उसे कम-अज-कम एक मौका और देना चाहिये कि वह अपने वज़ूद को दर्ज़ करा सके, इसके पेशतर कि मैं अपने आखिरी लम्हों में इस नतीज़े पर शर्तिया तौर पर मुहर लगा दूं कि इस दुनियां में न खुदा है, न ईश्वर है, न यीशू है और न कोई और सर्वशक्तिमान ही है।
ख्याल आया कि जब तक कि ऐम्बुलेंस आती है क्यूं न मैं अपने अतीत को खखोलूं और डेल्यातूर के इस्तेमाल के लिये खुदा से गुज़ारिश करूं। हो सकता है कि मेरी इस आखिरी समय की कोशिश को कोई तवज्जो ऊपर वाला रहम खा के दे और कम से कम अब जब मेरा अंत समय आ गया है मैं अपनी एक गलती को सुधार, देख सकूं कि अगर यह न हुआ होता और वह हुआ होता तो...तो क्या होता.......? ज़िंदगी किस करवट बैठती?
पर मेरा ऐसा आशा करना शायद मेरी अपनी हदों को पार कर जाना होगा क्यों कि ऊपर वाले को जिन्दगी भर मैंने कोई दाना नहीं डाला है और अब तो डालने का सवाल ही नहीं उठता। फिर भी कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है........हिम्मते मर्दां, कोशिशे खुदा।
मैं सोचता हूं कि सिर्फ इतनी सहूलियत ऊपर वाला दे कि आदमी चाहे तो जिन्दगी में कुछ क़दम पीछे चले जाए और अपने कुछ निर्णय बदल कर फिर से जिंदगी में आगे बढ़ जाये। चाहे तो ऊपर वाला आदमी की बाकी ज़िंदगी से वह गुज़रा हुआ वक्त कम कर ले।
मुझे मालूम है कि आप में से बहुतों को इस से कोई ऐतराज़ नहीं होगा। मुझे तो खैर कोई है नहीं। अपनी गलतियों पर घुट-घुट कर जीते हुए बाकी ज़िन्दगी निकालने से तो बेहतर है कि अपने किये को सुधारो और आराम से बचा समय बिताओ।
पहली और एक अहम ग़लती जिसे मैं अपने भीतर से रफ़ा-दफ़ा करना चाहूंगा वो है अपने भीतर का दब्बूपन जिसकी वज़ह से अपने कालेज के दिनों में इश्क करते-करते रह गया और एक मुक्कमल अफसाना आपके पेश-ए-नज़र होने से रह गया। यह ज़िक्रेय है कि यही एक अकेला वाक़या नहीं है मेरे माझी में जिससे कि मैं बेज़ार हुआ हूं। और भी अफसाने हैं जिनने मुझे एक ऐसे मुक़ाम पर पहुंचा दिया कि, अपने ज़ानिब अगर अपने थोड़े टेढ़े चौखटे को एक मिनट के लिये नज़रन्दाज़ कर दूं तो, एक अच्छी शक्ल, सूरत, क़द-ओ-काठी का मालिक होने के बावज़ूद इल्म-ए-इश्क मुझे सूखे दरिया सा छोड़ गया। कहां तो इश्क ने बेचारे ग़ालिब को निकम्मा कर के छोड़ा और यहां इश्क-बिन-निकम्मा हो गये हम।
एक तरफ कालेज़ में एक से एक फड़तूस लड़कों को केन्टीन और गर्ल्स हास्टल के बाहर लड़कियों से बतियाते देख ख़ासी कोफ्त होती थी और दूसरी तरफ अपनी क्लास की लड़कियों के नोट्स मांगने पर उन्हें कापियां देते समय घिघ्घी बंध जाती थी और हिम्मत ही नहीं होती थी कि एक-आध चिट बीच में दबा कर पहुंचा दूं।
ऐसा नहीं है कि मैं ज़हनी तौर पर दब्बू हूं, इसकी ताक़ीद आप चाहें तो मेरे मातहतों से कर लें जो यह बताने में परहेज़ न करेंगे कि किस कदर मेरे खौफ के साये में वो रहते थे।
इसी तरह आप मेरे अफसरानों से पूछ सकते हैं कि मीटिंगों में अपनी बेबाक़ राय के चलते कितनी बार मैंने अपना इस्तीफा सदर को सोंप दिया था क्योंकि मैं उनकी राय से इत्तेफाक नहीं रखता था। इन वाकयों की चर्चा हमारे इदारे के केंटीनों में अब भी, जब मैं किसी भी हैसियत से वहां नहीं हूं, आप सुन सकते हैं। ऐसा चलन हो गया था कि इदारे के सदर के कमरे से मुझे निकलता देख कोई दूसरा उनके कमरे में जाता नहीं था कि क्या पता डायरक्टर साहेब का ब्लड-प्रेशर न जाने कितना बढ़ा हुआ होगा।
मैं साफगोई का काहिल रहा हूं और इसके चलते न चाहते हुए भी पंगा ले लेता हूं। साफग़ोई के अपने नफ़ा नुकसान हैं। यह और बात है कि नुकसान नफ़े पर बीसी पड़ता है और अगर आदमी दब्बू है तो आप मानेंगे कि पहले नफा-नुकसान देखेगा फिर बास से पंगा लेगा।
चलिये अब कोई फर्क नहीं पड़ता। कहानी आगे बढ़े बशर्ते हम इन छोटी-मोटी बातों को बे-नज़र कर दें और मौज़ूअ पर तवज्जो दें।
हां..... इस बीच पत्नी दो-एक बार बाहर बालकनी और मेरे बीच चक्कर लगा चुकी है, एम्बुलेंस के इंतज़ार में। पड़ोस के बंगाली बाबू को.... छत्तीस नम्बर के....... जो लम्बे समय से मेरे लंगोटिया यार रह चुके हैं, बालकनी से आवाज़ लगा चुकी है...... ताबड़तोड़ दो-चार फोन भी खड़खड़ा चुकी है अस्पताल में डाक्टरों को मेरे हालात के बारे में बताते हुए।
अब उसके चेहरे पर चिंता नज़र आने लगी है। एक बार और आ कर नब्ज़ देखने की कोशिश कर चुकी है और आला भी लगा चुकी है। थोड़ा सीने पर, जहां दिल होता है हथेली पर हथेली चढ़ा धमाचौकड़ी भी मचा चुकी है और अब फिर बाहर चली गई है, थोड़ा रुआंसी सी होती हुई।
मैं एम्बुलेंस का इंतज़ार करते-करते अपने अतीत को खगोलने लगा कि कहां पर मैं चाहूंगा कि डेल्यातूर का उपयोग हो।
एक वाक़या अपनी ज़िंदगी का जो मुझे सालता रहा है वह मैं सोचता हूं कि मेरी अपनी कहानी को एक अलग मोड़ दे सकता था... जैसी मैंने जी वैसी हो सकता है न जी होती।
वाक़या उस समय का है जब मैं जवान था और जुम्मा-जुम्मा पांच-छः महीने ही हुए थे नौकरी करते कि मुझे डिपार्टमेंट की तरफ से दिल्ली में हुई एक नुमाईश में जाने का हु?क्म मिला। सन अढ़सठ का समय रहा होगा। दिल्ली में किस जगह थी यह नुमाईश मुझे अब कुछ ठीक से याद नहीं। उसमें मुझे विभाग में बनाए गये एक उपकरण के बारे में लोगों को बतलाना था।
जैसा कि होता है स्कूली बच्चों को बुलाया जाता है और आम तौर पर उनके साथ उनके शिक्षक आते हैं। ऐसे ही किसी स्कूल की लड़कियों के साथ वह आयी थी। मैंने बच्चों को उपकरण के चारों ओर व्यस्थित होने का समय दिया। बच्चे जरा उत्साहित थे और उनकी चुलबुली आवाज़ें कम ही न होने का नाम ले रहीं थीं, मेरे बार -बार कहने के बावज़ूद। अचानक एक कड़क आवाज़, “ क्वाईट प्लीज़ किसी महिला की, कहीं से आयी और कमरे में सन्नाटा छा गया, कि गर सुंई गिरे भी तो सुनाई पड़ जाय।
बच्चों ने हटते हुए जगह दी तो उस आवाज़ से जुड़ी शक्सियत आती हुई दिखाई दी, हलके रंग की साड़ी पहने और कंधे पर बैग लटकाऐ। मुझे नमस्ते की और बोली-” बताइये क्या चीज़ है यह। “
मैं उसकी आवाज़ का क़ायल हो गया कि उसके दो शब्दों ने बच्चों को शांत कर दिया। मैं उसको देखता जा रहा था।
मुझसे उम्र में छोटी होगी, क़द- औसत, रंग- गोरा, काठी- कमसिन, भरी-पूरी। और जैसा कि मर्दों के साथ होता है मैंने अपनी नज़रों से उसे पूरी तरह से तौल लिया। इस पूरी प्रक्रिया में मैंने शायद शराफत से जितना समय लेना चाहिये था उससे कुछ ज्यादा ही वक्त लगा दिया और उसने शायद इसे भांप लिया क्योंकि मुझे उसकी खनखनाती स्कूल मास्टरनी की आवाज़ सुनाई दी- “ चलिये बताईये क्या बताना है। “
मैने हड़बड़ा कर अपनी धाराप्रवाह अंग्रेज़ी में बताना शुरू किया और उपकरण चला के दिखाया।
पूरे समय मैंने कनखियों से देखा कि उसकी नज़रें मेरे चेहरे पर टिकी हुई हैं। मुझे उसके इस तरह देखने से अच्छा लग रहा था और सच बताऊं मुझे भी कुछ खिलवाड़ करने की सूझी और मैंने जरा उसे नीचा दिखाने के लिये पूछा कि “आपने कोई प्रश्न नहीं पूछा इसका मतलब आप सब समझ गई हैं।”
वह बेहिचक बोली- “नहीं, वैसे भी मैं कला की छात्र रही हूं और विज्ञान मेरे पल्ले नहीं पड़ता। आप तो खैर विज्ञान के बाक़ायदा तालीमयाफ्ता हैं, अच्छा समझाते हैं पर एक बात कहूंगी कि अंग्रेज़ी भी आप खूब बोल लेते हैं..... बढ़-चढ़ कर। “
कहते समय उसके चेहरे पर एक मुस्कान थी आंखों में एक चुलबुलाहट और लहज़े में चुनौती जैसा कि मुझे लगा कि पांसा फेंका गया है।
बच्चों से मुखातिब होते हुए उसने पूछा कि उन्हें जो पूछना है वह जल्दी पूछ लें क्योंकि अभी और स्टाल्स में जाना है।
फिर मुझसे पूछा- “ वैसे इन बच्चों को कुछ पूछना होगा तो क्या ये बाद में भी आ सकते हैं? मेरे हां कहने पर वह बच्चों को साथ ले चली गई।”
उसके बाद वह एक दिन फिर आयी.... पर अकेले..... एक शाम.... मैं कुछ दर्शकों को समझा रहा था कि वह एक कोने में आ कर खड़ी हो गई, मुस्करा कर और उनके जाने के बाद पास आयी तो मैंने पूछा- “कहिये,..... कैसे आना हुआ?...... कुछ पूछना है? “
“नहीं...... ऐसे की कनाट-प्लेस आयी थी तो इधर निकल आयी। “
कुछ देर हम वहीं खड़े-खड़े इधर उधर की बात करते रहे, मैं उसके स्कूल के बारे में पूछता रहा और वह मेरे काम के बारे में।
इस तरह वह अक्सर स्कूल के बाद आने लगी और हमारी बातों का दायरा बढ़ता गया। उसमें घर बार की बातें भी शामिल होने लगीं। मेरे लिये यह पहला मौका था नौकरी में आने के बाद कि मैं किसी लड़की से बातें कर रहा था और वो भी अंतरंग होती हुईं और जिनके लिये मैं मानसिक रूप से तैयार नहीं था। मुझे लगने लगा कि लड़की तो अच्छी है पर यह सब मुझे कहां ले जायगा मुझे उसके बारे में संशय में था.... पर यह ज़रुर था कि कुछ मौज-मस्ती की चाह मन में थी। डर भी था कि कहीं किसी मुसीबत में न फंस जाऊं। बातों ही बातों में साथ के साथी इस बारे में हल्के-फुल्के मज़ाक भी करने लगे थे। उनमें से एक आध मेरे सहयोगी जो दिल्ली के ही रहने वाले थे उसके हमदर्द भी बन गये थे और इशारों ही इशारों में उसका नाज़ायज़ फायदा न उठाने के लिये लगभग चेतावनी सी देने लगे....देखो ....मत समझो अकेली है.. .. .. वो।
एक दिन उसने यों ही बातों ही बातों मे कहा कि क्यों न हम गेलार्ड चल कर काफी लें, यहीं है रीगल के पास, कनाट प्लेस में। उसने उत्साहित होते हुए मुझे ऐसे बताया कि मुझे दिल्ली का जुगराफिया जैसे मालूम न हो। वैसे मैंने भी बिलकुल अनजान बनते हुए कहा-” अच्छा यहीं पास में है क्या? “
हम ऑटो से गेलोर्ड पहुंचे और काफी के साथ बातें कीं।
मैं करीब पंद्रह-बीस दिन दिल्ली में रहा और किस्से से फालतू चीजें निकाल यही बता दूं कि कई जगहें हमने देखीं। यह मिलने-मिलाने दिल्ली-दर्शन का सिलसिला उसके बाद की मुलाकातों में भी चलता रहा जब-जब मैं दिल्ली काम के सिलसिले में आता रहा। धीरे-धीरे मुझे लगा कि मैं उसकी ओर आकर्षित होता जा रहा हूं और दिल्ली जाने की चाह बढ़ती जा रही है। यह मेरे लिये एक नया अहसास था जिसके पीछे एक हल्का सा रोमांच था, एक डर भी था कि आगे बढ़ने का अंज़ाम क्या होगा। धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि जब-जब उससे दूर रहता हूं उसको मिस करता हूं। जब कभी मैं दिल्ली जाता यह सोच कर जाता,..... एक नतीज़े पर पहुंच कर जाता..... कि इस बार उसे प्रपोज़ कर दूंगा पर रेम्बेल या गेलार्ड में बैठे, काफी पीते जब बातों के बीच वक्फा बढ़ता और उसके साथ ही उसका हाथों की चूड़ियों से खेलना तो मेरे पस्त होते हौसलों के बीच....... देवदूत सा......या तो वेटर आ जाता या वह यूं ही पूछ बैठती कि क्या मैं कुछ बोला हूं... और मैं ....नहीं .... कुछ तो नहीं ...कह कर एक लम्बी सांस लेता। इस समय एयरकंडीशनिंग या सर्द मौसम के बावज़ूद मैं पसीना-पसीना हुआ होता था और वह समय जिसे उस समय ठहर जाना चाहिये था कभी नहीं ठहरा।
यह सिलसिला और दिल्ली दर्शन का आखिरी इपिसोड पुराने किले के, तलाक़ी दरवाज़े के पास झील के किनारे बाग़ में उस समय खत्म हुआ जब हम दोनों गुलाब की झाड़ियों के पास बैठे थे, सूरज अपनी मंज़िल पर पहुंचने वाला था, गरमी शुरू होने की एक शाम थी, पसमंजर खुशनुमा था, उसने छोटी लाल बूटियों वाला सफेद सलवार सूट पहना था, गले में सोने की पतली चेन थी।
एक दूसरे का हाल-चाल पूछने के बाद हम चुप थे गोकि हम एक अरसे के बाद मिल रहे थे। मैंने महसूस किया कि मैं उसे पहले जिस तरह से देखता था वैसे नहीं देख पा रहा हूं। हाव-भाव और आंखों में वो एक जो गरमाई होती है, नदारद थी। सोच नहीं पा रहा था कि कैसे उसे यह खबर दूं।
वह भी बांयां हाथ ज़मीन पर टिकाए, दूसरे हाथ से घास के तिनकों को तोड़ रही थी, आंखें ज़मीन की तरफ थीं, शाम की रुखसत होतीं किरणें उसके ज़र्द चेहरे को लाल कर रहीं थीं। दोनों के बीच एक चुप्पी थी।
हो सकता है कि उसे मेरे हाव-भाव से कुछ आशंका हो गई हो। या यह भी हो सकता है कि वह सोचती हो कि शायद वह क्षण आ गया है कि उसे वे लफ्ज़ सुनने को मिले जिसका मैं सोचता हूं कि उसे लम्बे समय से इंतज़ार होगा...... या शायद उसे किसी अनहोनी की भनक लग गई हो। औरतें जल्दी भांप जाती है, बदलते माहौल को शायद।
मेरे लिये अब बताऊं-तब बताऊं की स्थिति असहनीय होती जा रही थी, हालाकि हमने किसी भी समय शादी के बारे में बात नहीं की थी पर जैसे मेरे मन में कहीं यह बात थी... वैसे ही मुझे भरोसा है कि कहीं न कहीं उसके मन में भी यही बात होगी हालांकि इज़हार करने की हिम्मत दोनों में से किसी ने भी उस समय तक नहीं उठा पाई थी। विश्वास करने लायक तो बात यह नहीं है पर हमारी उंगलियां ही यदा-कदा काफी का कप लेते देते छुई भर होंगी।
अमूमन तो होता यह है कि लड़की ही पहल कर के बताती है कि उसकी कुड़मायी होने वाली है जिससे कि लड़के पर कुछ दबाव पड़े। या लहना ही संशय में...या खेल-खेल में.... पूछ लेता है कि क्या तेरी कुड़माई हो गई? पर मैंने एक नयी लीक की शुरुआत करते हुए, गुलेरी जी की आत्मा की शांति और उनसे मेरी हौसला आफ़ज़ाई की दुआ करते हुए, उसे यह बताया कि मेरी कुड़माई हो गई।
जिस समय मैं उसे यह बता रहा था वह घास पर बैठे दूब तोड़ के वहीं डालती जा रही थी। हम काफी समय से चुप थे कुछ इधर-उधर की बातें कर के। उसका दाहिना हाथ जिस पर उसके कंधों का वज़न एक तरफ टिका हुआ था मेरे बायें हाथ के पास था और मैं चाहता तो यह बात उसके हाथ पर अपना हाथ रख कर भी कर सकता था। हालांकि ऐसा करने में मुझे खासी हिम्मत बटोरनी पड़ती।
वह कुछ बोली नहीं।
मुझे अपनी बात दुहराने की हिम्मत न हुई।
उसने नज़र उठा कर मेरी तरफ देखा.....बोली फिर भी नहीं। उसकी आंखों में एक हिराकत, एक डूबता हुआ दर्द... मैंने देखा डबडबा आयीं थीं। ओंठ थोड़ा थरथरा रहे थे..... उसका चेहरा पहले बेरंग हुआ और फिर तमतमा सा गया लगता था। कुछ लम्हे हमारे बीच गुज़रे होंगे कि यकायक अपना पर्स उठाते हुए उठ खड़ी हुई और औटो स्टेंड की ओर चल दी।
मैं उसके पीछे सफाई देते हुए चलने लगा कि यह सब इतना जल्दी हुआ कि बता नहीं सका पर वह आगे चलती गई।
उसके साथ मैं आटो में बैठ गया। मैं कुछ बोलने को ही था कि, मुझे ग़लत मत समझना कि उसने रोकते हुए कहा कि मैं न ही बोलूं तो ठीक होगा। उसका इस तरह मुझे बीच में ही रोक देना मुझे नाग़वार गुज़रा क्योंकि कभी भी उसने इतनी रुखाई से बात नहीं की थी। मैं चुप हो बैठ गया।
जनपथ के पास रिक्शे को किनारे ले उसने रुकवाया.......कुछ बोली नहीं और .... बायीं तरफ फुटपाथ की ओर देखा। हो सकता है कि वह बोलने की हालत में न हो। मैं समझ गया कि अब उतर जाना ही मेरे लिये बेहतर है।
मेरे उतरते-उतरते..... इसके पेशतर कि .... रिक्शे पर हाथ टिका.... झुक कर.... मैं उससे कुछ बोलता..... उसने आटो वाले को चलने को बोल दिय़ा। रिक्शा आगे बढ़ गया और मैं ठगा सा महसूस करता उसे जाते देख.... सड़क पर खड़ा रह गया।
आप मानेंगे नहीं उस समय मैंने अपने को न जाने कितना धिक्कारा। जिस लड़की को मैं जानने लगा था और जो मुझे अच्छी भी लगने लगी थी, उससे मैं क्यों नहीं आगे बढ़ सका। यह नहीं है कि ऐसा ख्याल मेरे ज़हन में आया न हो पर बहुत बार बातों के बीच ये लफ्ज़ कि मैं तुम्हें चाहता हूं,..... कि क्या तुम मुझसे शादी करोगी... मेरे लबों की सरह्द पार न कर सके। हर बार जब भी मैं उससे मिला मुझे लगा कि वह इन शब्दों का जैसे इंतज़ार कर रही है पर मैं कमज़ोर दिल इंसान हिम्मत ही नहीं जुटा पाया और उस दिन जनपथ पर खड़ा मैं उस रिक्शा को देखते खड़ा रहा जब तक वह आंखों से ओझल न हो गया।
वह चली गई और उसके साथ यह उम्मीद भी कि कभी फिर हम मिल सकेंगे। मैं बुझे मन और भारी कदमों से वापस होटल की ओर चल दिया था।
अब चूंकि एक किस्सा खत्म हो गया मन में एक पछतापा भी हो रहा था कि अपने दब्बूपन के चलते, चाहते हुए भी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि शादी नहीं भी करना था तो उसे एक दिन हॉटल के अपने कमरे में ले जाऊं।
मेरी शादी हुई, बच्चे परिवार हुआ, सब जिम्मेदारियों से फारिग़ हुआ और अमूमन ज़िन्दगी एक बंधे-बंधाए रास्ते से चल अब इस मुकाम पर आयी है कि जमीन पर निष्क्रिय पड़ा हूं,...... एम्बुलेंस के इंतज़ार में,.... जिसकी कि मुझे नहीं लगता कि अब कोई ज़रूरत बची है, और खुदा से दरख्वास्त कर रहा हूं कि, अगर तू कहीं है तो कर अपने डेल्यातूर का इस्तेमाल मुझे उसी सन अढ़सठ के मुकाम पर लौटा दे,.....कि जहां मैं उसके साथ एक शाम आखिरी बार घास पर बैठा था...... कि मैं जो न कर सका वह कर सकूं...... कह सकूं कि मैं उसको कितना चाहता हूं..... कि मैं अपनी उस बुज़दिली के लिये तहे-दिल से माफी मांगता हूं.... कि मैं उससे शादी करना चाहता हूं।
ऐ परवरदिगार अगर कहीं तू है तो उठा अपना क़लम और कर इस्तेमाल अपने डेल्यातूर का और बता कि तू भी एक हस्ती है और दुनिया को सदियों से यूं ही गुमराह नहीं कर रहा है।
जिस समय मैं मन ही मन यह गुहार लगा रहा था, उस समय मेरी जड़ निगाहें डेल्यातूर के आकार में छत पर चिपके चिपकली के बच्चे पर उसी तरह लगी हुईं थी जैसे के ध्यान-साधना करते समय मोमबत्ती की लौ पर लगी हों।
अब कहीं आप यह न सोचने लगें कि जड़ हुए मेरे शरीर में मन का क्या सवाल। पर यह मन ही तो है जिसकी न पूरी हुई मुरादें ही तो भूत-प्रेतों का चोला पहन नमूदार हो जाती हैं और दुनिया-जहां को रात-बिरात परेशान करतीं हैं। अगर मेरा चोला जड़ हो भी गया हो तो इच्छाऐं भी जड़ हो गईं क्या? इच्छाऐं तो शाश्वत हैं हम आयेंगे-जायेंगे पर वो तो रह जायेंगी न?
मैं इसमें ही मशगूल था कि अचानक एक आवाज़ कानों में आयी.. .. ..तथास्तु .. .. ..और इसके साथ ही छत पर चिपका हुआ छिपकली का बच्चा, हाल में ऊपर जाती सीढ़ियां धुंधली होते हुए ग़ायब हो गईं। एक अंधेरा सा हो गया और फिर धीरे से रोशनी लौट आयी ठीक वैसे ही जैसे कि सिनेमा में फेड-इन और फेड-आऊट होता है और मैंने अपने को दिल्ली के पुराने किले के तालाक़ी दरवाज़े, के बाहर, झील के किनारे बाग में उसी जगह पाया जहां मैं और वह आखिरी बार साथ थे।
मैं समझ गया कि मेरी अर्ज़ी उसके दरबारे-खास में मंज़ूर हो गई है।
एक मिनट लगा मुझे अपने घर के माहौल से निकल इस परिवेश में अपनी धुरी जमाने का। चालीस साल का समयांतर काफी लम्बा होता है। ढलते दिन का वक्त वही था जो उस दिन था पर सैलानियों की चहल-पहल कहीं ज्यादा थी,.... बेतहाशा एक से बढ़ कर एक..... कारें और ऑटो आ-जा रहे थे मथुरा रोड पर। उस समय तो फटफटियां, फिएट और एम्बेसडर ही थे। कीमती कारें कम ही थीं। सड़क भी अब कहीं ज्यादा चौड़ी थी उस समय से।
मैंने देखा कि मैं उन कपड़ों में नहीं हूं जिन्हें पहन मैं लेटा था..... पर वही कपड़े, काली पेंट.... चौड़े पांयचे की.... जैसा कि उस समय फैशन में थी और सफेद बेकग्राऊंड पर लाल और नीली पट्टियों के बड़े चेक की पूरी आस्तीन की कमीज़, जो मेरी प्रिय थी पहने हूं... जिसकी आस्तीनें कोहनियों तक मुड़ी हुईं हैं ठीक वैसे ही जैसी कि मैं अपनी जवानी में पहना करता था और कमीज़ के गले के दो बटन खुले हुए थे। चूंकि उस समय मैं घड़ी पहनता था, एक फ़ेवरलुबा औटोमेटिक, जिसमें चाबी हाथ के हिलने -डुलने से आप ही भर जाती थी और जिसे मैंने फ्लोरा फाऊंटेन में फुटपाथ से काफी मोल-भाव के बाद खरीदा था, पहने हुए हूं। यह मेरी पसंदीदा घड़ी, जिसे मैं औरों की तरह बांयी कलाई में न बांध, दाहिने हाथ में बांधता था.... जिसमें कोई फलसफा नहीं था.... बस यही था कि कालेज के दिनों में अपने बांये हाथ को एक हादसे में तोड़ चुका था जिससे घड़ी बांधने जैसे महती काम से उसे रुख़सत कर दिया था। बाद के सालों में यह घड़ी चोरी चली गई थी और उसके बाद से मैंने घड़ी पहनना ही छोड़ दिया था। समय वही था.. .. .. जो उस दिन थाजब आखिरी बार मुझे छोड़ वह गई थी।
मैंने चारों ओर अपनी नज़रें घुमाईं यह देखने के लिये कि अपनी आखिरी मुलाकात जिसे मैं अब पिछली मुलाकात कहने के लिये बेताब था, की जगह को पहचान जाऊं..... पर पुराने किले के आस-पास नज़ारे काफी बदल गये थे, बाग काफी फैल गया था, झील उसी जगह थी पर उसमें अब और नावें चल रही थीं। तालाक़ी दरवाज़ा अपने आगोश में युधिष्ठिर की राजधानी इंद्रप्रस्थ के मुतअलिक राज़ छुपाए वैसे ही मूक खड़ा था हालांकि उसकी दीवारों की साफ-सफाई की जा चुकी थी। दरवाज़ा बंद था अब भी जैसे उस दिन था.... जैसा सदियों से था।
सड़क के किनारे फुटपाथ से लग कर फेरी वाले अपनी दूकानें चला रहे थे जिसमें खाने -पीने के खोमचे ज्यादा थे। आधे से ज्यादा लोग कानों में मोबाईल लगाये बात कर रहे थे जो कि नयी चीज़ थी उस समय के हिसाब से। ये मेरे लिये भी नयी बात थी क्यों कि मुझे मालूम है कि उस समय कितनी मुशकिलों से पोस्टआफिस में बैठ कर ट्रंक काल लगाये जाते थे ....काफी ज़हमत और लाईन पर आती खरखराहट के बीच किसी तरह संवाद हो पाता था...और जो उस समय किसी हादसे के वाहक ही हुआ करते थे, अमूमन।
मेरे सामने यह यक्ष-प्रश्न था ऊपर वाले ने क्या उसे भी मेरी तरह ही यहां भेजा होगा और अगर हां तो इस समय वह कहां होगी। मेरी आरज़ू और उसके वरदान का तो वह हिस्सा है ही भले ही मैंने इतने खुलासे से नहीं कहा था और न मैंने इसकी ज़रूरत ही समझी थी क्योंकि उसके अंतर्यामी होने का ढ़िंढोरा तो दुनियां पीटती रहती है इसलिये उसका यहां न आना तर्कसंगत नहीं होगा और अगर परवरदिग़ार तर्क का इस्तेमाल अपने कामों में करता है ... जिसका इस्तेमाल उसने ज़रूर किया होगा.... अगर उसने ही बनाई है यह दुनियां..... जैसा कि सभी लोग कह्ते हैं .. .. ..तो उसे इस समय यहां होना चाहिये जैसे कि मैं इस समय यहां हूं।
उसका चेहरा मुझे हूबहू याद है। उस दिन उसने हलकी लाल बूटी वाला सलवार सूट पहना हुआ था और गले में दुपट्टा था। कानों में छोटे टाप्स थे और गले में सोने की चेन जिसमें एक सुन्दर सा दिलनुमा पेंडेंट लटका था। बांयी कलाई में एक छोटी सी घड़ी थी और दायें में एक सोने का कड़ा। कंधे पर एक चमड़े का पर्स था काले रंग जो उसने किसी एम्पोरियम से खरीदा था। पैरों में ऊंची एड़ी की सेंडिलें थीं , काले रंग की। बाहर निकलते समय धूप का चशमा लगा लेती थी जो छांह में अक्सर सिर पर चढ़ा रहता था.. .. .. जो उसके गोल चेहरे पर अच्छा लगता था।
उसे इसी लिबास में ढूंढते हुए बग़ीचे का एक चक्कर लगा मैं हर आने वाली गाड़ी और ऑटो से उतरती महिला को देखने लगा। इंतज़ार के बीच रेह़ड़ी वाले से ले कर कई गिलास ठंडा पानी पी गया, बाग़ के और चक्कर लगा लिये और इतना हो गया कि आम आदमी और यहां तक कि बाग के चौकीदार भी मुझे संशय की नज़रों से देखने लगे और पास से गुजरते हुए जमीन पर दो-एक बार ठोंक देते थे।
मुझे अब चिंता होने लगी थी कि अगर यहां नहीं आयी तो मेरा सब किया-कराया चौपट हो जायगा और पता नहीं कि अब मैं घर लौट भी पाऊंगा कि नहीं।
मेरे हौसले पस्त होते जा रहे थे कि अचानक मुझे सुनाई दिया कि किसी ने जोर से “हेलो” कह कर किसी को बुलाया है।
मैंने पलट कर देखा तो एक उम्रदराज़ महिला जिन्हें क़द-काठी के हिसाब से खासा तंद्रुस्त कहा जा सकता है इस तरफ देख कर किसी को बुला रही हैं.. .. ..इशारा कर के।
मैं समझ नहीं पाया और पलट कर अपने पीछे देखा पर उधर कोई दिख।ई नहीं दिया।
महिला ने फिर पास आते हुए कहा-” हलो मैं आपको ही बुला रही हूं।”
आवाज़ मुझे कुछ पहचानी सी लगी। उसमें वह खनक मौज़ूद तो थी जैसी उसकी आवाज़ में थी फिर भी मैं निश्चय से नहीं कह सकता था। मैं कुछ असमंजस में था।
उसने पास आ बोला-” अगर मैं गलत नहीं हूं तो ....तुम?....तुम राज हो न?....... यहां कैसे? “
आवाज़ की खनक अब मेरे दिमाग को झनझना गई।
यह वही थी पर मैं अभी भी उसे जिस रूप में सोच रहा था .. .. ..वैसी ही.. .. .. जैसी उस समय थी, उससे कहीं मेल न बैठ रहा था। मैं उसे ऊपर से नीचे तक देख रहा था.....बोल नहीं निकले।
मुझे असमंजस में देख वही बोली....... “भूल गये क्या? मैं....मैं सुजाता.....सुजाता आहूजा। याद आया हम एक्ज़बीशन में मिले थे। “
मैंने देखा उसकी आंखों में एक चमक थी..... वैसी ही जैसी कि किसी बिछुड़े हुए के बहुत समय बाद मिलते समय होती है।
आवाज़ में मुझे एक उल्ल्हास लगा।
मैं उसे पहचान तो गया पर उसको इस शख्सियत में देखना कष्टदायक था। यह वह सुजाता तो कतई नहीं थी जिससे मैं कभी चाहता था और एक अच्छा समय हमने बिताया था। चेहरा उसका भर गया था और उम्र के निशां शाया हो गये थे। झुर्रियां तो नहीं पड़ीं थीं पर गाल कुछ लटक से गये थे, बाल खिचड़ी हो गये थे और माथा कुछ चौड़ा। शरीर स्थूल हो गया था जिसे साड़ी में बखूबी लपेटा गया था जिससे मोटाई उतनी नहीं लग रही थी जितनी शायद थी। शरीर पर जेवर भी भारी थे डाईमंड के। हाथ में नोकिया एन ९७ था। देखने से ही लगता था कि घर-बार से सम्पन्न है।
एक बार तो मैंने सोचा कि उसे पहचानने से नम्रता से नकार दूं और समय रहते निकल चलूं पर फिर सोचा कि कम से कम यह तो पता लगा लूं कि मेरे, उसकी ज़िंदगी से चले जाने के बाद उसने कैसे अपने को संभाला, क्या किया.... कैसे अपनी ज़िंदगी जी। कहीं मेरे मन में यह था कि मेरे बिना निश्चय ही वह सुखी नहीं रही होगी। और मेरे मन में कहीं न कहीं उसकी तकलीफों से लुत्फ लेने की चाह हो सकती थी। मैंने यह सोच ही लिया था कि मेरे बिना वह सुखी नहीं रह सकती थी।
मैं फिर सोचने लगा कि जिस मक़सद से मैं इतनी गुहार कर के आया हूं उसे पूरा कैसे करूं। मैं तो सोच बैठा था कि वह भी वैसी मिलेगी जैसी कि चालीस साल पहले थी और मेरे लिये नयी शुरुआत करने में आसानी होगी...... पर ओ परवरदिगार यह कैसा मज़ाक मेरे साथ किया। मुझे तो उसी चालीस साल पहले की क़द-काठी में पहुंच दिया पर उसे क्यों छोड़ दिया। मेरा तो सारा इश्क पानी-पानी होने लगा। इस मुटल्ली से क्या इज़हार करूं अपने प्रेम का।
मैंने अपनी हताशा को छुपाने की कोशिश करते हुए हलका सा मुस्कराते हुए.... हालांकि ऐसा करते हुए ज़हनी तौर पर मुझे काफी तकलीफ हो रही थी... कहा-”अरे मैं तो पहचान ही नहीं पाया..... तुम यहां कैसे? “
मैंने प्रत्युत्तर में प्रश्न किया क्योंकि मैं तो बता नहीं सकता था कि मेरे साथ क्या हुआ है। और उसके भी वहां आने के पीछे महज़ संयोग नहीं है.... न यह बता सकता था।
“ मैं पिछले महीने ही रिटायर हुईं हूं तो कल मुझे ख्याल आया कि क्यों न मैं उन सभी जगहों पर जाऊं जहां मैंने अपनी बचपन और जवानी के दिन बिताए हैं। वैसे तो मैं जब से जन्म लिया है यहीं दिल्ली में ही रह रही हूं पर....पर कल न जाने क्यों मुझे लगा और मैं अकेली ही यहां चली आयी। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां तुमसे इस तरह मुलाकात हो जायेगी।”
खुशी में वह वैसी ही चहकी जैसी चालीस साल पहले चहकती थी बस फर्क इतना था कि उसका इसके सथ उछलना हद तक कम हो गया था..
“तुम से मिल कर मैं बता नहीं सकती कि मैं कितना खुश हूं........अरे तुम तो जरा भी नहीं बदले, वैसे ही काले बाल हैं और वज़न भी ज्यादा नहीं बढ़ा है......देखने से नहीं लगता कि साठ ऊपर हो गये हो...मुझसे तो बड़े ही थे न? “
कहते समय उसकी खुशी झलक रही थी चेहरे पर और उसके सथ ही उसने अपनी साड़ी का पल्लू कंधे के ऊपर से ले लपेट लिया और उड़ता हुआ हाथ बालों को पीछे करते हुए चेहरे पर फैलाया और कमर में खुंसा रूमाल निकाल कर नाक और होंठों पर छलक आये पसीने को पोंछा।
अब मैं क्या असलियत बताता....... चुप ही रहा। सूझ नहीं रहा था कि कैसे बात को आगे बढ़ाऊं।
वही बोली-” अगर तुम्हारे पास समय है तो क्यों न हम कुछ देर यहीं बगीचे में बैठें....वैसे भी मुझे मालूम है कि तुम्हें यहां आना अच्छा लगता है बनस्पत रेम्बेल या गेलार्ड के....याद है तुम कहा करते थे कि वो जगहें कितनी पुरसुकून होती हैं जहां सदियों के साये हों और हम वहां बैठे हों। तुम्हीं ने हर बार यहां मिलने के लिये कहा था। “
अब मैं क्या बताता उसे, अगर ऐसा न करता तो कहीं न कहीं अपने रिश्तेदारों और परिचितों के हत्थे चढ़ गया होता। उस समय किसी भी भीड़-भड़ाके वाली जगह में और फिर जो मेरी दुर्गत होती तो पूछना ही क्या। वैसे उसने मेरी कमज़ोरी पकड़ ली थी। मुझे इतिहास से हमेशा से लगाव रहा है। वास्तव में मैं ऐसी जगह की तलाश में रहता था कि जहां एकांत एकांत की तरह हो और उसमें पुराना किला जिसे दिल्ली का ओल्ड फोर्ट कहते हैं, लाल किले की तरह न तो आबाद है और न ही सैलानियों से परेशान...आजकल की बात तो नहीं कह सकता पर उस समय तो यह ज्यादातर वीरान ही रहता था....।
हम घास पर एक एकांत जगह पर बैठ गये और थोड़ी हिचकचाहट के बाद एक दूसरे की ज़िंदगी के बारे में, बाल-बच्चों के बारे में पूछते, बताते रहे।
उसने बताया कि उसकी शादी चांदनी चौक में एक कपड़े के व्यापारी के घर हुई। पति पढ़ा-लिखा है पर अपने कारोबार में लगा है, बच्चे हैं, दो....... पढ़ लिख कर अपनी ज़िंदगी में सेटिल हैं, शादी हो चुकी है दोनों की.....और वह प्रिंसपल हो कर रिटायर हुई है।
सब सुन कर अच्छा तो लगा पर न जाने क्यों मुझे उसकी बातों में बढ़ावे की थोड़ी बू आयी। मुझे लगा कि वह कुछ छुपा रही है।
पूछा-.. .. .. “ तुम सुखी तो हो न?.. .. .. ज़िंदगी से? “
उसने एक लम्बी सांस ली पर चुप रही।
मैं भी चुप हो गया। जिस तरह से वह अपने अतीत के बारे में बता रही थी, जिसमें सब कुछ बढ़ा-चढ़ा था..... सुखकर..... मुझे लगा कि अपने दुखों को बखूबी छुपा रही है और कोई दुखती रग अभी भी उसे साल रही है। ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि वह नहीं चाहेगी कि कोई समझे कि ज़िंदगी ने उसे वो नहीं दिया जो उसने चाहा और वो भी ऐसे शक्स के सामने जो उसे एक ऐसे मोड़ पर छोड़ गया था जहां शायद उसके सामने जो सब्जबाग़ था.. .. .. मृगतृष्णा में बदल गया था।
वह उसी तरह दूब तोड़ती बैठी थी..... लगभग उसी स्थिति में..... जैसी उस आखिरी दिन थी। उस दिन से फर्क इतना था कि मैं उसके पास न बैठ इस समय उसके सामने बैठा था दायां हाथ ज़मीन पर टिकाए बांये हाथ से दूब तोड़ते।
कुछ चुप्पी के बाद जैसे कि हौसला बांध रही हो उसने लगभग उलाहना देते हुए अचानक कहा - “ तुम तो ऐसे ग़ायब हो गये उस दिन के बाद से जैसे गधे के सिर पर से सींग.. .. .. दिल्ली तो आये होगे ज़रूर उसके बाद भी.. .. .. तुमने नहीं सोचा कि मुझ पर क्या बीती.. .. .. यह तो तुम कह नहीं सकते कि तुम्हारे पास मेरा पता नहीं था या कि टेलीफोन नम्बर नहीं था.. .. .. कुछ नहीं था तो भी तुम्हें यह तो मालूम था कि मैं किस स्कूल में पढ़ा रही थी.... तो जानना चाहते तो आ सकते थे..... कितनी बार तो आये थे पहले।”
मैंने सफाई देने की कोशिश की-”तुम उस दिन जिस तरह बिना मुझे कुछ कहने का मौका दिये चली गईं थीं और तुम्हारा गुस्साया हुआ चेहरा देख लगा कि तुम नहीं चाह्ती हो। और फिर शादी और उसकी जिम्मेदारियों के बीच समय ही नहीं मिला। “
मैं बोल तो यह रहा था पर वस्तुस्थिति यह थी कि मैं नहीं चाहता था कि मेरी बीबी को इस बारे मैं पता चले और कोई बवाल खड़ा कर दे।
वह फिर बोली-” हम इतनी बार मिले, इतनी बातें कीं अपने बारे में पर तुमने एक बार भी नहीं पूछा कि इसका मतलब क्या। या तो तुम इतने नादान थे कि तुम्हें किसी लड़की का इस तरह अपने घर-बार के बारे में बताने का क्या मक़सद होता है या फिर तुम इतने शातिर हो कि अपने पत्ते नहीं खोलना चाहते थे। मैं तुम्हारी मंशा समझ गई थी। तुम शायद लड़कियों को खिलवाड़ की चीज़ समझते होगे। तुम्हारा अकेले का कसूर नहीं है। “
मैं देख कर हैरान था कि वह कितना बदल गई है। इस तरह की दुनियादारी की बातें पहले कभी नहीं की थीं। उस समय आम लड़कियों की तरह बातें करती थी। छोटे-छोटे वाक्यों में ... आवाज़ में उतावली और आशा भरी होती थी। अब धीर-गंभीर थी।
एक क्षण वह रुकी जैसे कि सांस फूल गयी हो या फिर सोच रही हो कि बोलूं या न बोलूं.... फिर बोलने लगी-”तुम कह सकते हो कि तुमने कोई पहल नहीं की। हां यह ठीक है कि मैंने ही तुमसे मेल-जोल बढ़ाने की शुरुआत की। उस दिन जब मैं स्कूल के बच्चों के साथ एक्ज़बीशन में आयी थी तो तुम्हारे बोलने का अंदाज़ और आत्मविश्वास मुझे तुम्हारा क़ायल कर गया था और घर जा कर मैं जब सोने के लिये लेटी तो तुम्हारा चेहरा आंखों के सामने से हट नहीं रहा था। मैंने कितना भी नकारने की कोशिश की.. .. .. क़ामयाबी न मिली। देर रात तक जागती रही फिर इस नतीजे पर पहुंची कि मेरा इस बारे में सोचना बेकार है। आखिर क्यों तुम शादी करोगे मुझसे। मैं एक स्कूल में साधारण टीचर और तुम एक ग़ज़टेड आफीसर उस पर इतने पढ़े-लिखे। और उस समय तो मुझे पता भी नहीं था कि क्यों तुम मुझे पसंद आये थे। रात कब सोयी.. .. .. पता नहीं।”
“दूसरे दिन मैंने अपनी दोस्त, उषा.. .. .. जिससे तुम बाद में मिले थे.. .. .. को यह बात बताई तो उसने मिलाने के लिये कहा। स्कूल के बाद हम दोनों ने तुम्हें बिल्डिंग से बाहर निकलते दूर से ही देखा। उसे भी तुम पसंद आये थे और उसने ही सलाह दी कि मैं तुमसे मिलूं। उस समय तक मुझे तुम्हारे बारे में कुछ भी मालूम नहीं था और यह भी नहीं कि माम और डेडी क्या इसे मानेंगे। तुम्हें तो मालूम है कि डेडी की ऑटो पार्ट्स की दूकान थी और मेरी शादी के लिये वो किसी ऐसे लड़के की तलाश में थे कि जिसके घर का बिज़नेस हो। एक दो रिश्ते आये भी थे और उसमे से एक उन्होंने पसंद भी कर लिया था। उन्हें शादी की जल्दी थी पर मैं ही टाल रही थी।”
एक पल वह रुकी जैसे कि बात को तौल रही हो
“ दरसल मैं ही नहीं चाहती थी कि मेरी शादी वहां हो। यह नहीं था कि लड़के में कोई खोट था या कि खानदान ठीक नहीं था। दूकान अच्छी चल रही थी, खुद के दो मक़ान थे एक किराए पर चढ़ा था, पंजाबी फेमिली थी, जनमपत्री भी मिल रही थी सब कुछ ठीक था पर मैंने अपने घर का हाल देख लिया था। हमेशा पैसों की बात होती रहती थी, बिज़नेस की परेशानियों की बात होती रहती थी, बाज़ार के उतार चढ़ाव से घर में माहौल के उतार- चढ़ाव मुझे बिलकुल नापसंद थे। जब मैं छोटी बच्ची ही थी कि मेरे एक चाचा ने, जो मुझे बेहद प्यार करते थे, शेयर मार्केट में नुकसान होने पर ख़ुदकशी कर ली थी। उस समय से मैंने सोच लिया था कि कुछ भी हो मैं बिज़नेस वाले से शादी नहीं करूंगी। जब मैंने तुम्हें देखा तो पसंद भी आये और अहम बात यह कि तुम बिज़नेस फ़ेमिली से नहीं थे। “
उसने एक लम्बी सांस ली-
“ तुम्हारे साथ बिताए वो दिन मेरी ज़िंदगी के बेहतरीन दिन थे और तुम्हारी बातों से और जैसा तुम मिलने के लिये बेताब रहते थे, मुझे लगा कि तुम मुझे चाहने लगे हो और मैं हर बार जब तुमसे मिलती थी लगता था कि तुम इस बार प्रपोज़ कर दोगे पर हर बार घर खाली हाथ लौटने पर एक अवसाद भर जाता था और रात काटना मुश्किल हो जाती थी। कई बार बातों ही बातों में मैंने इशारा भी किया पर तुमने या तो अनजाने ही या फिर जान बूझ कर अनदेखा कर दिया।”
एक पल वह रुकी.......उसने चेहरा उठा कर मेरी तरफ देखा.. .. .. फिर बोली.. .. .. “उस दिन मैं सोच कर आयी थी कि अगर तुमने शादी की बात नहीं की तो मैं ही उसे उठाऊंगी क्योंकि मेरे ऊपर दबाब बढ़ता जा रहा था..... पर तुमने तो मुझे कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया।”
कह कर वह चुप हो गई। उसकी आंख से आंसू की एक बूंद टपक कर दूब की एक तिनके पर टिक गई जिसे उसने छुपाने की कोशिश नहीं की।
मुझे अपनी तटस्थता के बावज़ूद दुख हुआ।
मैं उसे और दुखी नहीं करना चाहता था और अपनी चालीस साल पहले की गलती जिसके लिये अब मैं और भी गुनहगार महसूस कर रहा था जल्दी से जल्दी सुधारना चाहता था। इसमें मेरा स्वार्थ भी था कि अपनी जी हुई जिन्दगी के एवज़ में अब जब एक और मौका मिला है तो उसका भरपूर इस्तेमाल करना चाहता था।
मेरे मन में एक चोर आवाज़ उठ रही थी कि अब वह वो नहीं रह गई है जिसे कि तू कभी चाहता था अब कहां मुसीबत में पड़ रहा है.. .. .. मत बह.. .. .. भावुकता में।
दूसरा कहता कि सुन्दरता मन की होती है शरीर में क्या है ? तूने उसका दिल बहुत दुखाया है। कम से कम अब तो उस बेचारी को एक खुशी का मौका दे। जिन शब्दों का उसे उस समय इंतज़ार था वो अब भी उसे खुशी दे सकते हैं बेवकूफ। देख कितना दयालु है.. .. .. परवरदिगार.. .. .. कि जिंदगी भर जिसे तूने ठुकराया, उसके अस्तित्व को मानने से इनकार किया......एक बार किसी मंदिर में नहीं गया.....उसी ने सब कुछ माफ कर तेरी मुराद पूरी की है.... अब तू हिचक रहा है? मत सुन दूसरे मन की बात। चल कह डाल जो कहना चाहता है,....... चल।
पहला फिर गर्दनिया पकड़ता... बेवकूफ जान बूझ कर तू क्यों खड्डे में गिर रहा है। यह वो नहीं है जिसे तू चाहता था, चाहत रूप की थी, छरहरे शरीर की थी, भरे बदन की थी। याद नहीं कैसे तेरी निगाहें वयसंधि पर लगी रहीं थी जब वह सामने होती थी। अब इस थुलथुल देह को ले कर क्या करेगा?
दूसरा मुझे नैतिकता का उलहना देता कि देख बेटा तेरी क्या यही नैतिकता है कि उसे यूं ही छोड़ दे। बेचारी को कम से कम यह तो लगे कि अब भी तू उसे कितना चाहता है। कौन महिला इसे पसंद नहीं करेगी कि उम्र के इस ढलान पर भी कोई कद्रदां बचा है। और देख तुझे एक मौका इसी बिना पर मिला है कि तू अपनी ज़हनी कमज़ोरी को इस अंत समय में हटा सके। तो सोच विचार त्याग और कर वही जिसके लिये तू ज़िंदगी भर के अपने उसूलों को ताक पर रख ऊपर वाले के सामने गिड़गिड़ाया था।
मैं ऊहापोही से घबरा गया और उससे अचानक ही बोल बैठा-....”सुजाता.. .. ..क्या.. .. .. क्या तुम सब कुछ.. .. .. जो कुछ हुआ उसे भूल कर.. .. ..मुझे....मुझे एक मौका मुझे दे सकती हो ....अपनी गलती को सुधारने का..... क्या तुम मुझसे शादी कर सकती हो? मैं तुम्हें बहुत चाहता था और अब भी चाहता हूं, तुम जैसी भी हो....बोलो....? “
वह हालांकि चुप बैठी वसे ही घास तोड़ती रही ....मेरी बात सुनने के बाद एक पल उसके हाथ रुके ज़रूर थे पर फिर घास तोड़ने लगे ...बोली कुछ नहीं पर चेहरे की रंगत कुछ उसी तरह बदली जैसे उस दिन बदली थी.. .. .. चालीस साल पहले.. .. ..इसी पुराने किले के पास.. .. ..इसी बाग में........तांबिया।
कुछ उत्तेजना में मेरी तरफ सीधे देखते हुए बोली- ...... “क्या सोचते हो तुम अपने को..... तुम कुछ भी कह दोगे और मैं सुन कर चुप रह जाऊंगी और तुम्हारे साथ चल दूंगी? ......दर असल चालीस साल पहले का वह दिन अब तक मुझे याद है जब तुमने बड़ी मासूमियत से कह दिया था कि तुम्हारी सगाई हो गयी है...तुमने एक बार भी नहीं सोचा मेरे ऊपर क्या बीतेगी यह सुनने के बाद.....उस समय मुझे बहुत गुस्सा आया था और तुम्हें ऑटो से उतारने के बाद मैं बहुत रोई थी....घर पहुंचने तक....एक मन कह रहा था कि जाऊं और यमुना में छलांग लगा दूं.....खत्म करूं सब कुछ........ वो तो उषा थी जिसने मुझे बहुत संभाला। “
एक पल रुकी.. .. ..
.. .. .. “खैर कुछ दिन बाद ही मैंने उसी कपड़े के व्यापारी के लड़के से शादी करने की मंज़ूरी दे दी जिसे मैंने पहले रिजेक्ट कर दिया था यह समझते हुए भी कि लड़की के द्वारा एक बार रिजेक्ट किया लड़का, पत्नी से एक बदला लेने की इच्छा ज़रूर रखेगा और कुछ हद तक मैंने इसका सामना किया भी और भुगता। “
“शादी हुई और मां-बाप ने बड़ी शान से की। मैंने अपने जज़्बात पी कर उस घर में कदम रखा.. .. .. उस माहौल में गई .. .. ..जिसमें मैं कतई जाना नहीं चाहती थी। अपने घर की तरह वहां भी मैंने दिन-रात व्यापार की बातें .. .. .. जो कि मुझे जहर की तरह लगती थीं.. .. .. सुनीं क्योंकि मेरे पास इसके सिवाय कोई चारा नहीं था। पति को मैंने उतना ही स्वीकारा जितना परिवार और समाज चलाने के के लिये ज़रूरी है। मैं सच कहूं तो उसे पूरी तरह से अपना नहीं पायी और मुझे लगता है कि अपने को भी पूरी तरह से उसे समर्पित नहीं कर पायी। हम दोनों के बीच कभी सहजता नहीं रही और उसका खामियाज़ा मुझे भुगतना पड़ा पर मैं कहूंगी कि मेरे पति..... जिन्हें तुम्हारे बारे में मैंने अभी तक कुछ नहीं बताया है,..... एक समझौते पर जिंदगी गुज़ार रहे हैं कि मैं यह दरियाफ़्त न करूं कि वो कब और कहां यदा-क़दा रात गुज़ारते हैं। सबको पता है कि व्यापार के सिलसिले में उन्हें बाहर जाना पड़ता है पर सिर्फ मैं ही असलियत जानती हूं।”
“मैंने अपना सारा ध्यान अपनी नौकरी पर लगाया और पूरी मेहनत से स्कूल में पढ़ाया.....ज्यादा से ज्यादा समय स्कूल को दिया। ऐसा मैं इस लिये नहीं करती थी कि स्कूल के लिये मैं बहुत कुछ करना चाहती थी पर इस लिये कि मैं ज्यादा से ज्यादा समय घर के व्यापारी माहौल से दूर रहना चाहती थी। “
“मैंने इसे नियति मान कर स्वीकारा और तिल-तिल जीते हुए भी मैंने कोशिश की कि कम से कम अपने बच्चों को तो इस माहौल से..... जिसमें में घुटने के लिये मज़बूर थी...... बाहर निकालूं और मुझे यह बताते हुए खुशी है कि अब मेरे दोनों बच्चे अच्छे पढ़-लिख गये हैं एक डाक्टर है और दूसरी कम्प्यूटर इंजीनियर और दोनों नौकरी कर रहे हैं और अपने परिवारों के साथ सुखी हैं। “
उसकी आवाज़ कुछ तेज हो चली थी और उसकी अंदरूनी व्यथा उसके चेहरे पर आ रही थी।
मुझे यह सुन कर एक हल्की सी खुशी हुई कि मेरे बाद मेरे बिना वह खुश नहीं थी और मुझे बेहद संतोष भी हुआ। पर मुझे फिर ठोड़ी सी उससे सहानुभूति हुई और मैं सोचने लगा कि अब मैं फिर उसे प्रपोज़ करूं तो वह मान जायेगी पर दुविधा में था कि अपने परिवार को छोड़ कर क्या वह चल देगी।
उसने फिर बोलना शुरू किया.... “ मैंने इतने सालों में ... पिछले चालीस सालों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया कि मैंने तुम्हें याद नहीं किया। यह नहीं है कि भुलाने की कोशिश मैंने नहीं की। मंदिरों के चक्कर लगाये, प्रवचनों में गई, साधू-संतों के चक्कर लगाये, पूजा-प्रार्थना करने लगी रोज सबेरे पर मैं नहीं जानती कि क्या मुझे कचोटता रहा है जो मुझे सीधी-सादी ज़िंदगी जीने नहीं देता....क्या मैं अपनी दशा के लिये तुम्हें जिम्मेदार मानती थी.....क्या तुम्हारा इस तरह किनारा कर लेना क्या मुझे सोचने के लिये मज़बूर नहीं कर रहा था कि मुझमें ऐसा क्या नहीं था कि तुमने मेरे बजाय किसी दूसरी से.... जिसे तुम जानते भी नहीं थे शादी कर ली... क्या एक हीन ग्रंथि भीतर पैठ गई थी जो मुझे सामान्य नहीं रहने दे रही थी.। बहुत बार मैंने इन चालीस सालों में सोचा कि तुम्हें पत्र लिखूं और तुम से वे सवाल पूछूं जो कि उस दिन नहीं पूछ सकी थी.....क्योंकि वह सब अचानक था और मैं इतने गुस्से में थी कि मुझे कुछ सूझा नहीं। अब पूंछ हाथ रह गई है ज़िंदगी गुज़र गई...... और..... तुम अब वह बोल रहे हो जिसको सुनने के लिये उस समय मैं बेताब थी... “
मुझे तहे दिल से उस पर रहम आया और मेरी गुनहगारी का अहसास और बढ़ गया। उसे लगभग बीच में रोकते हुए मैं बोला... “अब भी समय है.... क्या नहीं हो सकता कि हम फिर से उसी मुकाम से शुरू करें...मैं पूरी संज़ीदगी से कह रहा हूं ...क्या तुम मुझसे शादी करोगी....हम कहीं भी देश से बाहर चले जायेंगे .... “
उसने मुझे टोक दिया.... “नहीं यह नामुमकिन है....उसके बारे में हम बात ना करें तो अच्छा है। तुमने मुझसे नहीं पूछा कि क्यों मैं चालीस साल से परेशान थी और उस पर भी तुमसे मिलने की इच्छा रखती थी। कई बार मैं पूजा-पाठ के बाद मांगती थी कि एक बार हे ईश्वर मुझे तुमसे मिला दे... “
मैं मन ही मन खुश हुआ...
“तुम नहीं पूछोगे कि क्यों मिलना चाहती थी....? “ उसने पूछा।
इस समय उसके मुंह पर एक अजीब सा दर्प था, एक निश्चय पर जैसे वह पहुंच गई हो...एक दृढ़ता.... जिससे मैं परिचित नहीं था।
चेहरे पर तनाव के स्थान पर स्मित मुस्कान आयी।
मैं थोड़ा आशावान हुआ....एक उम्मीद बंधी। उत्साहित हुआ .... “हां...हां... बताओ क्यों मिलने की चाह लिये थीं.. .. .. ये चालीस साल...बताओ “
“तुम समझोगे नहीं.... पर मुझे हमेशा से लगता रहा कि उस दिन जो कुछ हमारे बीच घटा...... उस समय मेरी तरफ से तुम्हें कोई जबाब मैंने क्यों नहीं दिया.. .. .. और क्यों मैं अपने आंसुओं को जज़्ब कर चली आयी.... और यही मुझे सालता रहा है ... तुम वास्तव में जानना चहोगे कि उस वक्त मेरी तरफ से क्या कमी रह गई थी और जिसको समझने में मुझे वक्त लगा और जब मैं समझ गई कि क्यों मैं तुम्हें याद करती रहती थी.. .. .. तुमसे मिलने की बेताबी और बढ़ गई ...अब तुम मेरे सामने बैठे हो और अपनी तरफ से जो तुम उस दिन न कर सके.. .. .. अब कर के संतुष्ट हो .....तो मेरा जबाब जानना चाहोगे ...? “
मेरे उतावले पन से ..... “हां हां... बताओ.. मैं बेताब हूं....”
कहते-कहते ही पता नहीं कहां से उसमें फुर्ती आयी और उसका भारी थप्पड़ खनखनाती चूड़ियों के साथ....इसके पहले कि मैं कुछ समझता.....संभलता....मेरे बांये गाल पर चस्पा था और मेरा बांया हाथ गाल पर था...... एक अजीब तिलामिलाहट उसके नीचे थी...
.......अचानक घबड़ा कर मेरी आंख खुल गई.......मैं पसीना-पसीना हो रहा था ...सांस जोरों से चल रही थी....दिल धक-धक कर रहा था ...... वह आस-पास कहीं नहीं थी.....पुराना किला भी नहीं था........ मेरा बांया हाथ मेरे गाल पर था और उसके नीचे से सरकता छिपकली का बच्चा जो कि कुछ समय पहले तक छत पर उल्टा चिपका था ...देल्यातूर की शक्ल में ....गाल पर गिर कर भागता हुआ उसी किताब के नीचे घुस गया जो मेरे सिराहने रखी थी और जिस के ऊपर लेटने से पहले कमानी मोड़ कर अपना चश्मा मैंने रखा था।
ढलती शाम की सुनहरी किरणें खिड़की से अंदर आ रहीं थीं....
.........हाल के दूसरी तरफ बिछी एक दरी पर बैठीं बेगम साहिबा हारमोनियम के साथ सांध्यकालीन राग हेमकल्याण का रियाज़ कर रहीं हैं.......लगन लागे.. .. लगन लागे.....सुंदर श्याम सलोने पियासंग...... सुंदर श्याम सलोने पियासंग ....... लगन ला ...............
मैं...... अपने आप को बह..... जाने देता हूं.....आंसुओं के साथ ...........क्यों?
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