(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बध...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
तेजेन्द्र शर्मा का असाधारण व्यक्तित्व
डॉ. कृष्ण कुमार
21 अक्टूबर 1952 को जगरांव (पंजाब) में जन्मे हिंदीतर मां सरस्वती के वरदपुत्र हिंदी-प्रेमी जटिल-आप्रवासी तुला राशी तेजेन्द्र शर्मा के व्यक्तित्व से मैं लगभग दो दशकों से परिचित हूँ। 1999 के बाद यह परिचय अधिक प्रगाढ़ एवं आत्मीय होता गया जब उन्होंने छठे विश्व हिंदी सम्मेलन, यू.के. में अपनी भागीदारी दर्ज कराई थी और मैं इसकी कार्यकारिणी समिति का अध्यक्ष था। कालांतर में वे क्या बनेंगे और क्या-क्या करेंगे यह जन्म के समय ही तुला ने निर्धारित कर दिया था, ऐसा अब प्रतीत होने लगा है - कम से कम मुझको। ऐसे समय में जन्मे लोग, पुरुष अथवा नारी, अन्य राशि के लोगों से भिन्न होते हैं क्योंकि इनका राशि चिन्ह सबसे अलग-थलग निर्धारित किया गया है तुला के रूप में। तेजेन्द्र की कद-काठी एवं शरीर की बनावट उन्हें निश्चय ही सुंदर पुरुषों की कतार में ला कर खड़ा कर देता है। तुला राशि के अधिकतर लोगों की यह ख़ास पहचान होती है। वे सौम्य, सहज, शांतिप्रिय, मोहक, प्रेमी एवं भद्र पुरुष होते हैं और ये सारे गुण तुला राशि के लोगों में पाए जाते हैं जो कलाप्रेमी एवं कुशल रचनाकार भी होते हैं। किंतु इनमें से कुछ लोग स्व-इच्छानुवर्ती होते हुए चोंचलेबाज भी होते हैं जिसके कारण यदा-कदा इनका व्यक्तिगत जीवन विवादों के कटघरों में भी आ जाता है। इनसे सम्बंधित कुछ बिन्दुओं पर हम खुल कर चर्चा करेंगे।
मेरे लिए यह एक बड़ा ही आनन्द का विषय है कि मेरे अनुजवत प्रिय, कर्मठ, कर्मयोगी, साहसी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर रचना समय के संपादक श्री हरि भटनागर ने एक ग्रन्थ के प्रकाशन का सारस्वत आयोजन अपने हाथों में लिया है। तेजेन्द्र शर्मा के साथ मैं उन सबको साधुवाद देना चाहता हूँ जिन्होंने ऐसी सुन्दर परियोजना की सुगढ़ परिकल्पना की। संयोग की बात है कि रचना संसार के पूर्व उद्यमों से और श्री हरि भटनागर की कार्यकुशलता से मैं परिचित रहा हूं। इस ग्रंथ से जुड़ने वाले सभी साहित्य मर्मज्ञों को मैं साधुवाद देता हूँ।
तेजेन्द्र शर्मा का कृतित्व तो विशाल है ही किन्तु उससे भी ज्यादा गुरुत्वाकर्षक एवं चुम्बकीय उनका व्यक्तित्व है जिसमें आराम और आलस्य के लिए कोई स्थान न था, न है और सम्भवतः भविष्य में भी नहीं रहेगा। किसी एक विशेष संदर्भ में स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था - ‘‘आराम हराम है''। लगता तो यह है कि तेजेन्द्र जी ने इसको अपने जीवन में पूरी तरह से उतार लिया है क्योंकि वे यंग की कही बात को भी भलीभांति जानते हुए उसके परिणामों को समझते हैं। यंग के अनुसार - ‘‘हमारे बहुत से आराम की उत्पत्ति विपत्ति के समय होती है।'' चूंकि तेजेन्द्र शर्मा आराम हराम है के सिद्धान्त के अनुयायी हैं' आलस्य उनके पास-पड़ोस से भी गुज़रने का साहस नहीं कर पाया। लगता तो यह है कि तेजेन्द्र ने भारतीय नीतिज्ञों की सूक्तियों से अपने जीवन के रास्ते को आलोकित किया है। सातवीं शताब्दी के नीतिज्ञ भर्तृहरि ने इस सम्बंध में ठीक ही कहा है -
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ?
तेजेन्द्र के व्यक्तित्व में आलस्य का निवास न होने के कारण वे साहित्य-समाज की निरंतर सेवा कर पा रहे हैं। आकाश-धरती दोनों की अनंतता को समानरूप से नापने वाले सूर्य के समान ‘चरैवेति-चरैवेति' के मूल सिद्धांत के प्रतिपादक तेजेन्द्र को साहित्य-कला और सृजनधर्मिता विरासत में मिली थी क्योंकि इनके पिता श्री नंदगोपाल मोहला ‘नागमणि' अपने समय के एक स्थापित उर्दू भाषा के रचनाकार थे जिन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। यह कैसी विडम्बना है कि हिंदी भाषा के स्थापित एवं सुचर्चित कथाकार, कवि, सम्पादक एवं अंशकालिक अभिनेता तेजेन्द्र शर्मा का हिंदी प्रथम-प्रेम नहीं था। जो हुआ वह सब कैसे हुआ, इस रहस्य के अनावरण से पहले अनिवार्य हो जाता है यह जानना-समझना कि यह सब कैसे हुआ।
कालचक्र इनके पिता जी को पंजाब से महानगरी दिल्ली ले आया जहाँ तेजेन्द्र की प्राथमिक एवं स्नातकोत्तर शिक्षाएं हुईं। अंग्रेज़ी में बी.ए. (ऑनर्स) एवं एम.ए. करने के साथ-साथ इनके सोच की भाषा भी अंग्रेज़ी बन गई। 1977-78 में इनकी अंग्रेज़ी में दो पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं किंतु हिंदी इनकी शिराओं में दौड़ती रही। संयोगवश हिंदी की प्रतिभासम्पन्न लेखिका इन्दु से इनका विवाह 1978 में हो गया और इसके साथ ही प्रारम्भ हो गया तेजेन्द्र का साहित्यिक भाग्य-परिवर्तन। तेजेन्द्र की मातृभाषा एवं संस्कार की भाषा पंजाबी थी। इस ज्ञान का लाभ उठाते हुए इन्दु जी ने एक मूलमंत्र दिया - ‘अंग्रेजी के स्थान पर पंजाबी में सोचा करिये और हिंदी में लिखा करिये, आहिस्ता-आहिस्ता हिंदी में सोचने लगेंगे। ‘अन्ततोगत्वा यही हुआ और कालांतर में आज तेजेन्द्र हिंदी के स्थापित कथाकार हो गए।
‘प्रतिबिम्ब' तेजेन्द्र की पहली कहानी थी जिस पर इन्दु जी की छाप थी जो 1980 में प्रकाशित हुई थी। इन्दु ने तेजेन्द्र को न केवल श्रेष्ठ रचनाकार बनाया बल्कि दो बड़े ही प्रतिभासम्पन्न बच्चों के पिता बनने का गौरव भी प्रदान किया। दुर्भाग्यवश अप्रैल 1995 में मयंक एवं दीप्ति को छोड़ कर इन्दु चली गई। हंसता-खेलता तेजेन्द्र का परिवार अंधकार में डूब रहा था। किंतु इस समय एक पारिवारिक एवं इन्दु की मित्र नैना ने सहारा दिया और धीरे-धीरे इसने एक रिश्ते का रूप लिया। तेजेन्द्र-नैना का विधिवत विवाह हो गया। 24 जुलाई 1995 को इन्दु की याद में इन्दु शर्मा कथा सम्मान की घोषणा कर दी गई। इस महान् कार्य के लिये नैना की पूर्ण सहमति और सहयोग मिला। आज यह सम्मान एक अन्तरराष्ट्रीय रूप ले चुका है। तेजेन्द्र दिसम्बर 1998 से यू.के. निवासी हैं तथा ‘अन्तरराष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान' तथा ‘पद्मानंद साहित्य सम्मान' के न्यासी भी। 1998 के बाद मैं व्यक्तिगतरूप से साक्षी रहा हूं और देखता रहा हूं कि किस प्रकार नैना जी ने सम्मान समारोह में एक सच्चे सारथी की भूमिका निभाई है। बाकी सारा चमक-दमक और भागदौड़ का काम तुलाराशि वाले तेजेन्द्र सम्भालते रहे।
तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार एवं प्रकाशन
साहित्यिक अवधारणाओं में आ रहे परिवर्तनों में समय का सबसे बड़ा योगदान रहा है। जो बातें प्रेमचंद जी के समय में लोकप्रिय थीं वे अब बदल चुकी हैं। सिकुड़ता पाठकवर्ग द्रुतगति से बदला है और बदल रहा है। भारतीय भाषाओं की रचनाओं को पढ़ने वाले कम होते जा रहे हैं जो आने वाले समय के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है। अंग्रेजी भाषा इन पर भारी पड़ती रही है किंतु पिछले कुछ वर्षों में सकारात्मक बदलाव आता नज़र आया है। भारत के अल्पसंख्यक अंग्रेज़ी-दां (1.3 प्रतिशत अंग्रेज़ी जानने वाले) और बाकी जनता पर राज करते नज़र आते रहे हैं। आज का रचनाकार अपने लेखन को ले कर बड़ा ही सजग एवं जागरूक है तथा रचना के समाप्त होने से पहले ही उसके प्रकाशन का जुगाड़ बनाने लगता है। ऐसी मानसिकता एक ओर तो उनके उत्साह का परिचय देती है और इसके साथ ही उनके उतावलेपन को भी नंगा करती है। रचनाकारों कुछ समय के लिए, कटहल और नीबू के अचार की तरह, उनको छोड़ देना चाहिए और अचार की ही तरह समय-समय पर हिलाते हुए धूप-हवा भी दिखाते रहना चाहिए। किंतु निश्चय ही कुछ नीबू के अचारों की तरह, उनके पारदर्शक हो जाने तक कई दशकों लिए भी नहीं छोड़ देना चाहिए। सामयिक संतुलन तो बनाना ही चाहिए अन्यथा कुछ रचनाओं के प्रकाशन में अधिक देर हो जाने के कारण उनका महत्व समाप्त भी हो सकता है। 1980 के तेजेन्द्र और 2008 के तेजेन्द्र में भी सामयिक बदलाव आया है। 1980 में उनकी पहली कहानी ‘प्रतिबिम्ब' छपती है और इसके 10 साल बाद 1990 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘काला सागर' छपता है जिसमें इसी शीर्षक की उनकी श्रेष्ठ कहानी समाहित है।
इस कहानी में एअर इंडिया के एक विमान के आयरलैंड के सागर में डूब जाने के बाद के दृष्टांतों एवं लोगों की मानसिकता का बहुत जीवंत एवं सजीव चित्रण किया है। आज के तथाकथित कथाकार, पता नहीं क्यों, रचना के समाप्त होते ही पुस्तक छपवाने के लिए प्रकाशकों के पास पहुंच जाते हैं। इसमें कुछ बदलाव तो आना ही चाहिए अन्यथा अच्छी रचनाएं, हो सकता है, पाठकों को न मिलें और हो सकता है पाठकवर्ग तटस्थ होता जाए। काला सागर के बाद तेजेन्द्र के कहानी संग्रह लगभग हर चार वर्ष के अंतराल में छपते रहे हैं। अब तक उनके पांच ऐसे संग्रह छप चुके हैं। तेजेन्द्र शायद ब्रिटेन के अकेले ऐसे कथाकार हैं जिनके कहानी संग्रह पंजाबी, उर्दू एवं नेपाली भाषाओं में अनुवाद हो कर प्रकाशित हो चुके हैं। लंदन की एक संस्था 'एशियन कम्यूनिटी आर्टस' ने इनकी 16 चुनिंदा कहानियों की एक ऑडियो सी.डी. भी बनवाई है जिसके माध्यम से नेत्रहीन लोग भी जुट सकेंगे। यह एक बड़ी ही सुंदर पहल है जिसकी भरपूर सराहना होनी चाहिए। ऐसे सशक्त कथाकार से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह अपने पाठकों के सामने अपना उपन्यास भी लाएगा किंतु मैं यह भी जानता हूं कि हर सफल कथाकार एक उपन्यासकार नहीं हो सकता है।
तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों की विशेषताएं
प्रेमचंद जी के समय की कहानियों में जो देखा या अनुभव किया उसका सजीव चित्रण होता रहा है। अधिकतर कहानियाँ देखी, सुनी या भोगी गई घटनाओं पर ही आधारित रहती थीं। आमतौर पर जो खुद पर बीतती थी उसको ही सीधे-सादे सरल ढंग से पाठकों तक पहुंचा दिया जाता था। उस समय यह बहुत आवश्यक था कि लोगों तक कथाओं के माध्यम से समाज की बातें भी पहुंचें। आत्मकथात्मक लेखन तनिक आसान होता है- जो देखा वह कहा या लिखा। अच्छे साहित्यकार की कसौटी उसकी संवेदनशीलता होती है - वह दूसरों पर बीती बातों को आत्मसात करना जानता है। वह वस्तुपरक होता है। वस्तुपरक लेखन के लिए दूसरों के दुखों के साथ रचनाकार को महसूस करना पड़ता है और तब कहीं कालांतर में एक अच्छी रचना का जन्म होता है। आत्मकथात्मक लेखन से वस्तुपरक लेखन कठिन होता है। तेजेन्द्र की अधिकतर कहानियां वस्तुपरक होती हैं- जैसे काला सागर, देह की क़ीमत, क़ब्र का मुनाफा, चरमराहट एवं कोख का किराया आदि-आदि। यही कारण है कि उनकी अधिकतर कहानियां शैलेश मटियानी की तरह होती हैं न कि प्रेमचंद की तरह और हो सकता है इसी कारण तेजेन्द्र की कहानियों में पाठकवर्ग अपने आप इसके पात्रों में झांक पाता है और कहानी के साथ-साथ अनायास ही चल पड़ता है। प्रेमचंद जी अपने समय के ही नहीं वरन् कहानी जगत के श्रेष्ठतम रचनाकार रहे हैं, यह सब जानते और मानते हैं, किंतु अब समय आ गया है कि हम उस व्यूह से बाहर आ कर देखना प्रारम्भ करें। उदाहरणों के माध्यम से तेजेन्द्र की कहानियों को परखा जा सकता है आत्मकथात्मक कहानियां भी तेजेन्द्र की कलम से बड़ी ही सजीव हो कर निकली हैं। कैंसर और दुष्प्रभाव को तेजेन्द्र ने बहुत ही नज़दीकी से देखा है और देख रहे हैं। इनकी कई कहानियों में भोगी पीड़ा की बड़ी ही जीवंत एवं मार्मिक गाथा व्यक्त की गई है।
तेजेन्द्र की कहानियों की एक और विशेषता यह है कि वे अपने पात्र एवं उनसे जुड़े कथानक भारत से न उठा कर उस परिवेश से लेते हैं जिसमें वे रहते हैं-जीते हैं। तेजेन्द्र की कहानियाँ परिवेशपरक होती हैं। नॉस्टेलजिया में ही न रहना इनकी प्रवृत्ति का अंग बन गया है और होना भी चाहिए। केवल संचित स्मृतियों के आधार पर तो नहीं जिया जा सकता है। अभिमन्यु अनत के ‘ लाल पसीना ' की तरह वे स्थानीय सरोकारों और बातों को अपनी कहानियों का माध्यम बनाते हैं। जटिल-आप्रवासी तेजेन्द्र का मानना है कि प्रवासी साहित्य वह है जिसमें उस जगह के सरोकार हों जहाँ कि रचनाकार रह रहा हो। इस बात को लेकर तेजेन्द्र ने एक मुहिम सी छेड़ रखी है जो अच्छे परिवर्तन लाती नज़र आ रही है और प्रवासी साहित्य को भारत के प्रकाशक अब गम्भीरता से लेने लगे हैं। यह गम्भीर विषय है जिस पर चर्चा होती रहेगी। मेरा अपना मानना है कि प्रवासी साहित्य में स्थानीय सरोकार ‘ही' नहीं बल्कि ‘भी' होने चाहिएं। रचनाकार को रचना-धर्मिता के साथ समझौता नहीं करना चाहिए।
तेजेन्द्र शर्मा का काव्य जगत
विश्लेषण बताता है कि कहानियों की अपेक्षा तेजेन्द्र ने कविताएं कम ही लिखी हैं। किंतु यह भी सत्य है कि वे जो कुछ भी करते हैं बड़ी ही तन्मयता एवं एकाग्रता के साथ करते हैं। चुनी गई विधा से स्व-इच्छानुवर्ती तेजेन्द्र ने कभी समझौता नहीं किया। अपनी कथा रचना के साथ-साथ वे चलते-चलते जब थक जाते हैं और पात्र उनके व्यक्तित्व पर हावी होने लगते हैं तब कहानी की बुनावट शुरू होती है। तेजेन्द्र की कहानियों का प्रसवकाल, आमतौर पर, काफी लम्बा होता है किंतु उनकी कविताओं के साथ ऐसा नहीं है। वे स्वयं लिखते हैं- ‘कविता या ग़ज़ल के लिए तरीका अलग ही है। उसके लिए मैं कुछ नहीं करता। सब अपने आप ही होने लगता है। कविता या ग़ज़ल एक सहज प्रक्रिया है जिसमें प्रसवकाल छोटा होता है लेकिन प्रसवपीड़ा सघन'। तेजेन्द्र आज की अतुकांत विचारपूर्ण कविता के पक्षधर नहीं हैं। और वे यह बात बिना किसी गुरेज़ या झिझक के साथ मंचों से कहते एवं अपने आलेखों में लिखते भी हैं। यह उनके व्यक्तित्व का बड़ा ही पारदर्शक स्वरूप है, जो मुझको बड़ा भाता है। मैं इससे सहमत नहीं हूं क्योंकि कविता क्या कहना या लिखवाना चाहती है वह स्वयं ही निर्धारित कर लेती है अपनी काव्यशैली एवं विधा। सबकी अपनी-अपनी विशेषता है तथा स्थान भी। हाँ यह बात अवश्य है कि छंदबद्ध कविताओं या ग़ज़ल को जन्म देने से पहले इनके व्याकरण का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। हर कवि पाठशाला में जा कर पुनः अध्ययन करना पसंद नहीं करता। बिना व्याकरण के सम्यक् ज्ञान के शुद्ध छंदबद्ध कविता या ग़ज़ल की रचना मुश्किल होती है क्योंकि सबके सब तुलसी, सूर या कबीर तो नहीं हो सकते।
इस सबके बावजूद तेजेन्द्र ने दोनों तेवरों की कविताओं को हिंदी जगत को दिया है। सन् 2007 में प्रकाशित उनका पहला कविता संग्रह ‘ये घर तुम्हारा है' इसका जीता-जागता सुबूत है। आइये कुछ कविताओं के माध्यम से तेजेन्द्र के कवि मन को टटोलें। नमूने के लिए ‘यहाँ से वहाँ तक - टेम्स के तट से गंगा की कविताएं' संग्रह से उनकी कविता ‘ऐ इस देश के बनने वाले भविष्य' को लेते हैं। सृजन-सम्मान रायपुर भारत से 2006 में प्रकाशित इस संग्रह की कविताओं के संयोजक भी तेजेन्द्र शर्मा ही थे।
ऐ इस देश के बनने वाले भविष्य
काश !
मैं तुम्हे
मेरे देश
के बनने वाला भविष्य
कह पाता! और मिलता मुझे
सुकून! शान्ति और सुख!
इस देश के बनने वाले भविष्य
का वर्तमान
घमासान, परेशान
बोझा उठाओ, जुट जाओ!
देखना
कहीं कमर न टूट जाए
भविष्य कहीं
कुबड़ा न हो जाए।
तेजेन्द्र की इस कविता में छंदबद्धता तो नहीं है किंतु शब्दों का चयन एवं उनका बुनाव ऐसा है कि लय और स्वर दोनों साथ-साथ चलते हैं जो आमतौर पर आज की नई कविताओं में नहीं पाए जाते हैं। ऐसी प्रगतिशील कविताएं गद्य से होड़ लगाती नज़र आने लगती हैं। कविता में निर्झरिणी सा प्रवाह होना चाहिए जो इस कविता में मिलता है। कविता में तेजेन्द्र का तीखा व्यंग्य भी दिखाई पड़ता है और यह इनकी काव्यशैली की विशेषता है।
तेजेन्द्र ने ग़ज़लें भी खूब लिखी हैं और उनको मंचों पर सुनाना नहीं भूलते हैं। ग़ज़ल पढ़ने का उनका अंदाज़ भी निराला है जो कभी-कभी मन को छू भी जाता है। एक ग़ज़ल के कुछ अंश देखिए -
थक गया हूं अब तो मैं, दिन-रात की तक़रार से
किस तरह जीतूं भला मैं ज़िदगी मक्कार से।
शहर भी बेगाना है, लोग भी पराए हैं
आत्मा तक त्रस्त है, ज़ालिम के अत्याचार से।
मेरे विचार से तेजेन्द्र की ग़ज़लें उनकी अन्य कविताओं की अपेक्षा कुछ कमज़ोर पड़ जाती हैं। यद्यपि वे इस बात से, सम्भवतः, सहमत नहीं होंगे।
गद्य की तरह प्रवासी काव्य रचना के बारे में भी तेजेन्द्र का सोचना हे कि ऐसी रचनाओं में स्थानीयता का चित्रण तो होना ही चाहिए। ‘यहाँ से वहाँ तक- टेम्स के तट से गंगा की कविताएं' संग्रह में ‘ब्रिटेन की हिंदी कविता' पर लिखते हुए तेजेन्द्र कहते हैं - ‘यह ठीक है कि ब्रिटेन में हिंदी कविता एक लंबे अर्से से लिखी जा रही है, किंतु क्या हम इसे ब्रिटेन की कविता कह सकते है। ब्रिटेन की कविता कहलाने के लिए यह आवश्यक होगा कि इन कविताओं में ब्रिटेन के सरोकार दिखाई दें। और इसके लिए आवश्यक है कि कवि अपने आपको ब्रिटेन का हिस्सा समझे और यहाँ के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिवेश के साथ संबंध स्थापित करे। मेरा अपना प्रयास यही रहता है कि मेरी रचनाओं में ब्रिटेन का जीवन किसी न किसी रूप में अवश्य दिखाई दे'।
गद्य में कुछ हद तक मान भी सकते हैं कि रचनाकार अपने ऊपर अंकुश रख सकता है किंतु कविता के साथ ऐसा बंधन मूलतः अप्राकृतिक सा लगता है जो कविता की आत्मा का गला भी घोंट सकता है। यदि यह सहजता से प्रवाह में आता हे तो कवितारूपी सरिता में स्वतः बहने लगेगा। प्रवासी साहित्य को इस प्रकार सीमाओं में बांधना और लक्ष्मणरेखा के अंदर ही रखना कुछ अटपटा सा लगता है। तेजेन्द्र स्वतंत्र विचार रखने के अधिकारी हैं और यह वह बड़ी ही सुंदर ढंग से कर भी रहे हैं। हो सकता है कालांतर में प्रवासी साहित्य की यही परिभाषा सर्वमान्य हो जाय।
तेजेन्द्र शर्मा के व्यक्तित्व की अन्य विशेषताएं
तुला राशि वाले कथाकार, कलासाधक, कवि तेजेन्द्र शर्मा एक सफल साहित्यकार ही नहीं वरन् कई अन्य अलौकिक विशेषताओं से अलंकृत कर इस धरती पर उतारा गया है। मैं अपने छह दशकों के व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर यह कह सकता हूं कि जितनी प्रतिभाएं मैंने तेजेन्द्र में देखी हैं उतनी मैने किसी अन्य व्यक्ति में नहीं देखी है। देश-विदेश में तरह-तरह के लोगों से मिलने का सौभाग्य मुझे मिलता रहा है। यह सब कैसे हुआ यह तो वह नियंता ही जाने किंतु हम सब जो देख रहे हैं वह सत्य है सपना नहीं। आइये हम उनमें से कुछ के बारे में बहुत ही संक्षेप में चर्चा करें। लुभावनी कद-काठी एवं वाक्पटुता में निपुण तेजेन्द्र को चलचित्र-नाटकों ने अपनी ओर खींचा। सफल अभिनेता-निर्देशक अन्नू कपूर द्वारा निर्देशित फिल्मी ‘अभय' में नाना पाटेकर के साथ फिल्मी दुनियाँ में अपनी प्रतिभागिता दर्ज करते हुए एक हलचल सी मचाई। तेजेन्द्र ने दूरदर्शन के लिए ‘शांति' धारावाहिक का लेखन भी किया। मुम्बई में नाटकों में निरंतर काम करने के बाद बी.बी.सी. लंदन से इनके कई नाटकों का प्रसारण हुआ। साथ-साथ अपनी कहानियों पर आधारित नाटकीय मंचनों का निर्देशन करते हुए अन्य स्थानीय लंदन वासियों को भी अपने साथ जोड़ा। किसी भी प्रकार के मंचों के वे सफल बेबाक संचालक के रूप में पूरे यू.के. में प्रसिद्ध हैं। गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक समुदाय के कई कार्यक्रमों का संचालन मैने तेजेन्द्र से कराया है। समय एवं परिवेश का संतुलन तेजेन्द्र को आता है जो एक सफल संचालन की कुंजी मानी जाती है। इस प्रक्रिया में यदि कोई असंतुष्ट हो जाता है तो वे कर्म के निर्वाह के आगे कुछ नहीं सोचते हैं। इस प्रक्रिया में उनकी स्वइच्छानुवर्ती प्रवृति भी उनका साथ देती है और वे आलोचना पचा नहीं पाते हैं। किंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि तेजेन्द्र मंच के अच्छे-सफल संचालक हैं।
अन्तरराष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान एवं पद्मानंद साहित्य सम्मान के आयोजनों से तेजेन्द्र ने यह स्थापित कर दिया है कि वे एक सफल आयोजक भी हैं तथा धन एवं श्रोताओं को एकत्रित करने की कला में भी सक्षम हैं। अन्य संस्थाओं से सहयोग लेना और उनके साथ काम करना भी उनको ठीक से आता है। यू.के. से निकलने वाली भारतीय भाषाओं की एकमात्र पत्रिका का उन्होंने दो वर्षों तक सम्पादन कर यह भी दिखा कि किस प्रकार एक पत्रिका में जान डाले जा सकते हैं। तेजेन्द्र ने कई कहानी कार्यशालाओं का संचालन कर यू.के. में उभरते हुए कथाकारों का मार्ग दर्शन भी किया है। विशेषरूप से जून 2007 में गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक समुदाय द्वारा आयोजित एक बहुभाषीय कहानी कार्यशाला में श्री रवीन्द्र एवं ममता कालिया जी के साथ एक अहम् भूमिका निभाई थी। इनके योगदान को प्रतिभागी अब भी याद करते हैं।
हिंदी जगत को तेजेन्द्र शर्मा की देन
यूं तो हिंदी जगत तेजेन्द्र को इनकी कहानियों के लिए याद ही रखेगा खासतौर से परिवेशपरक-वस्तुपरक कहानियों के लिए किंतु इनके द्वारा प्रारम्भ किए गए कुछ ऐसे काम भी हैं जिनके कारण विश्व हिंदी जगत सदा के लिए ऋणी रहेगा। संक्षेप में रू
- नियमित रूप से कथा गोष्ठियों की पहल एवं पढ़ी गई कहानियों पर चर्चा रू 1999 से पहले यू.के. में काव्य गोष्ठियों की बड़ी पुरानी परम्परा रही है किंतु पता नहीं क्यों कथा विधा की ओर लोगों का ध्यान गया ही नहीं था। इस कमी को तेजेन्द्र ने पूरा किया और अनेकानेक उभरते हुए कथाकारों को अपने आप को परखने और जानने का अवसर मिला।
2. अन्तरराष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान की स्थापनाः अपनी पूर्वपत्नी कथाकार इन्दु शर्मा के नाम से वर्ष 1995 में मुम्बई में इसकी स्थापना जो वर्ष 2000 से लंदन में आयोजित होने लगा। इस सम्मान की सबसे बड़ी विशेषता रही है इसकी निष्पक्ष पारदर्शिता और स्थापित तथाकथित गुटों से अलगाव। रचनाकार की अपेक्षा कृति को सम्मानित करना ही इसका ध्येय रहा है।
3. पद्मानंद साहित्य सम्मान की स्थापनाः यू.के. के रचनाकारों को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से अपने माता- पिता के नाम से तेजेन्द्र ने इसको सन्? 2000 में स्थापित किया। इस प्रकार अब कथा यू.के. प्रतिवर्ष दो साहित्यकारों को सम्मानित करती है। पिछले कई वर्षों से यह कार्यक्रम अब लंदन के हाउस ऑफ लार्ड्स में एवं बर्मिंघम में गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक समुदाय के सौजन्य से होते रहे हैं। और कथा यू.के. द्वारा चयनित साहित्यकारों को दो बार सम्मानित किया जाता है।
4. प्रवासी साहित्य को परिभाषित करने की मुहिमः इस जोखिम काम की इतिश्री भी तेजेन्द्र ने अपने नाम कर ली है। इससे पहले, जहाँ तक मैं जानता हूं, किसी और ने इस ओर ध्यान नहीं दिया था। चर्चा प्रारम्भ हो गई है, सही और व्यापक परिभाषा भी हम खोज ही लेंगे। सम्भवतः प्रवासी की श्रेणियों का निर्धारण ?रूरी होगा।
एक बात जो मेरे गले के नीचे ठीक से नहीं उतरती है कि क्या कारण है कि ऐसे हिंदीतर रचनाकार को अब तक भारत का कोई ठोस, बड़ा एवं प्रतिष्ठित सम्मान क्यों नहीं मिला। कारण कई हो सकते हैं और हो सकता है हिंदी जगत इस भूल को अब सुधार ले। वैसे अब तक इनको सन् 2007 के लिए ब्रिटेन के दूतावास द्वारा हिंदी लेखन के लिए हरिवंशराय बच्चन सम्मान और 2007 में ही संकल्प साहित्य सम्मान, 1998 में सहयोग फाउंडेशन का युवा साहित्यकार सम्मान, 1987 में सुपथगा सम्मान के साथ 1995 में कथा संग्रह ढिबरी टाइट को महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिल चुका है।
तेजेन्द्र शर्मा की अनेक रचनाएं देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं, संकलनों एवं मकड़ जाल पत्रिकाओं में भी समय-समय पर छपती रही हैं। ऐसे बहुमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा निरंतर इसी प्रकार मां सरस्वती की सेवा करते हुए भारत का नाम बढ़ाते रहेंगे ऐसी मेरी कामना है। ईश्वर उनको स्वथ्य सुखमय जीवन सहित लम्बी आयु प्रदान करे।
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डॉ. कृष्ण कुमार
संस्थापक एवं अध्यक्ष गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक समुदाय
21 बिडफाँर्ड ड्राइव, सेली ओक, बर्मिंघम,
बी 29 6 क्यू. जी., (यू.के.)
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साभार-
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