तेजेन्द्र शर्मा विशेष : शंभु गुप्त की विवेचना - कहानी में बार-बार इधर से उधर और उधर से इधर होता समय

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(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...

(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)

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कहानी में बार-बार इधर से उधर और उधर से इधर होता समय

शंभु गुप्‍त

 

निजता की पराकाष्‍ठा लेकिन फिर भी कहानी रचनात्‍मकता सुरक्षित

प्रवासी हिन्‍दी-कहानीकार तेजेन्‍द्र शर्मा (यू.के.) के पांच में से तीन संग्रह मुझे पढ़ने को मिले हैं। ‘ढिबरी टाइट' (1994), ‘देह की कीमत' (2001) तथा “बेघर आँखें” (2007)। इन तीनों संग्रहों में 35 कहानियाँ संकलित हैं। ये कहानियाँ पिछले लगभग बीस सालों में लिखी गई हैं।

संक्षेप या सारभूत रूप में तेजेन्‍द्र की कहानियों की प्रविधि और प्रक्रिया की पहचान की जाए तो बिना किसी संशय के निश्‍चित रूप से यह कहा जा सकता है कि वे एक बेइन्‍तहा निजता की कहानियाँ हैं। निजता से तात्‍पर्य यहाँ निजी या व्‍यक्‍तिगत या व्‍यक्‍तिवादी नहीं है बल्‍कि यह है कि ये एक इतना गहरा निजीपन लिए हुए हैं कि कई बार यह लगने

लगता है कि कहीं लेखक यहाँ आत्‍मसंवाद या आत्‍मकथन की मुद्रा में तो नहीं आता चला जाता! निश्‍चय ही आत्‍मसंवाद या आत्‍मकथन किसी कथा के पूरी तरह पक जाने और एक रचना बन लेने के पूर्वरूप की स्‍थिति है अतः इस स्‍थिति से तो निश्‍चित रूप से लेखक यहाँ आगे गया है हालाँकि कई बार वह इसमें चूका भी है; विशेषतः वहाँ, जहाँ अपनी लेखकीय अस्‍वीकार्यता का दंश एक कुंठा की तरह उसका पीछा करने लगता है और वह उसके इशारों पर नाचता-सा दिखाई देता है। जैसे कि ‘अपराधबोध का प्रेत', ‘नरक की आग' आदि कहानियाँ। हो सकता है, इन दोनों कहानियों में तेजेन्‍द्र वस्‍तुनिष्‍ठ हों और क्रमशः कथानायक ‘मैं' और ‘नरेन' के मार्फ़त वे ऐसे कुंठित लेखकों की कथात्‍मक प्रस्‍तुति कर रहे हों। लेकिन यह प्रस्‍तुति वस्‍तुतः कुछ इस प्रकार की है कि बरबस यहाँ खुद लेखक व्‍यक्‍तिगत रूप से उपस्‍थित दिखाई देता है। ऐसा दरअसल निजता की पराकाष्‍ठा के चलते हुआ है। अन्‍यथा तो तेजेन्‍द्र के पास एक ऐसी भी कहानी है जिसमें एक लेखक अपने व्‍यक्‍तिगत जीवन के भटकाव, पलायन, आत्‍मकेन्‍द्रिता का चुनौतीपूर्ण आत्‍मसाक्षात्‍कार होने पर अपनी ही कहानी के पन्‍ने चिन्‍दी-चिन्‍दी कर देता हैं ‘मुझे मुक्‍ति दो' कहानी का रमेशनाथ लेखन-कर्म को एक रोमान के बतौर लेने और उसकी आड़ में ऐय्‍याशी करने वाले ऐसे कमज़र्फ़ लेखकों का प्रदर्शन बन जाता है, जिनकी कथनी और करनी में ज़मीन-आसमान से भी ज़्‍यादा अन्‍तर देखा जाता है। यहाँ रमेशनाथ की आत्‍मा ही उसे एक दिन ऐसा धिक्‍कारती है कि वह खुद अपने छद्‌म से तौबा कर लेता दिखाई देता है- रमेशनाथ उठा, एक गिलास पानी पिया। लता की ओर देखा। अपनी कहानी के पन्‍ने उठाये और उन्‍हें चिन्‍दी-चिन्‍दी कर दिया। (देह की कीमत; पृ.-50) यहाँ फिर यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि तेजेन्‍द्र अपनी आदत से मज़बूर हैं और रमेशनाथ की कथा कुछ इस तरह से कहते हैं मानो ये वे स्‍वयं हों! निजता यहाँ फिर पराकाष्‍ठा पर है, लेकिन कहानी की रचनात्‍मकता बाक़ायदा सुरक्षित रही आती है; यह भी कहे बिना नहीं रहा जाता!

सेक्‍स!.... बस और अधिक सेक्‍स

इस इतनी ज़्‍यादा निजता के कुछ फ़ायदे हुए तो कुछ नुकसान भी हुए ही हैं। सबसे बड़ा नुकसान तो यह हुआ है कि जैसा कि मैंने ऊपर संकेत किया, कहानी एक वस्‍तुनिष्‍ठ रचना से ज़्‍यादा एक आत्‍मनिष्‍ठ इतिवृत्‍त होती चली जाती है। जैसे लेखक अपने सामने घटी किसी हृदयग्राही घटना का सिलसिलेवार ब्‍यौरा दिए जा रहा हो, और बस! इस ब्‍यौरे में खुद लेखक इतना अधिक संलग्‍न होता या हुआ रहता प्रतीत होता है कि बराबर यह लगता रहता है कि वह कोई आपबीती या आँखिनदेखी बयान कर रहा हो और लगभग जस का तस। लेखक से जीवन के प्रति जिस एक आलोचनात्‍मक विवेक या दृष्‍टि की अपेक्षा पाठक को रहती है, वह यहाँ सिरे से या तो ग़ायब रहता है या उसे ग़ायब किया जाता है। कहानी अपने अन्‍तिम प्रभाव में जैसे एक भावोच्‍छ्‌वास बनकर रह जाती है- भावोच्‍छ्‌वासमूलक घटना-विवरण! पाठक घटना की सम्‍मोहकता में फँसा रह जाता है। कहानी एक यथातथ्‍यात्‍मकता से आगे नहीं बढ़ पाती। ऐसी ही कहानियों में एक है ‘कोष्‍ठक'। इस कहानी का लब्‍बो-लुवाब यह है- ‘पंजाब के सामने तीन लकीरें थीं, सिंध के सामने एक, गुजरात और मराठा के सामने दो-दो लकीरें थीं, द्रविड़ के सामने एक ही लकीर थी। किसी-किसी लकीर के साथ कोष्‍ठक में अंग्रेजी का अक्षर ‘वी' लिखा था। हिमाचल के सामने जगह खाली थी। नरेन ने अपना पेन उठाया। हिमाचल के सामने एक लकीर लगाई और कोष्‍ठक में अंग्रेज़ी का अक्षर ‘वी' लिख दिया। (वही; पृ-82)। डायरी के जिस पन्‍ने पर कथानायक ने यहाँ जो कुछ लिखा उसी पर एक-एक लाइन में भारत के राष्‍ट्रगान की पहली पंक्‍ति के ये शब्‍द लिखे हुए हैं- ‘पंजाब, सिंधु, गुजरात, मराठा, द्राविड़, उत्‍कल, बंग, विन्‍ध्‍य, हिमाचल...।' (वही; पृ.-81)। किसी को यह भ्रम हो सकता है कि यह कोई राष्‍ट्रीयता या राष्‍ट्रवाद से जुड़ा गंभीर मसला है लेकिन जब कामिनी और कथानायक नरेन के अन्‍तर्मन में झाँकते हैं तो स्‍थिति बिल्‍कुल ऐसी हो आती है कि खोदा पहाड़, निकली चुहिया! यह मामला एक तरफ़ दरअसल नरेन के ‘बड़ा जीवन्‍त' (पृ.-72) होने और ‘जीवन के एक-एक क्षण को जी लेने' के उसके ‘स्‍वभाव' (वही) की प्रतिपूर्ति से जुड़ा है तो दूसरी तरफ़ कामिनी नामक इस कुँवारी कन्‍या (वर्जिन) का ‘अपने सपनों के राजकुमार को सम्‍पूर्ण रूप से पाने की एक निर्लज्‍ज कामना'/‘अपने जीवन की श्रेष्‍ठतम उपलब्‍धि' पाकर चले जाने (वही; पृ-81) मात्र से जुड़ा है! लेखक नरेन को तो जैसा चित्रित करता है, वह है ही, वह कामिनी के बारे में भी यह बताना ज़रूरी समझता है कि-‘उसकी आँखों में हज़ारों लाखों सितारों की चमक थी। कहीं कोई पाप या ग्‍लानि की भावना उसके आस-पास भी नहीं थी।' (वही)। यानी कि स्‍त्री-पुरुष के बीच की इस ‘उत्‍तेजना' और ‘भावना के इस प्रवाह' की स्‍थापना इस कहानी की सबसे अहम समस्‍या है। निश्‍चय ही हम यहाँ इस नैसर्गिक उत्‍तेजना और भावना के प्रवाह की मुख़ालफ़त नहीं कर रहे हैं। यह उत्‍तेजना और भावना तो परम सत्‍य की तरह है। यह परम स्‍वाभाविक भी है। अतः इसे नकारना तो असंभव है। हमारा ऐतराज़ यहाँ जिस बात पर है वह यह है कि लेखक इसे यहाँ एक जीवन-मूल्‍य या यथार्थ-चेतना के बतौर पेश कर रहा है। हो सकता है, जगह-जगह की स्‍त्रियों और कुँवारी कन्‍याओं का उपभोग करना और निरन्‍तर करते रहना और इसे ‘जीवन्‍तता' और ‘महानता' (पृ.-72) का अभिलक्षण मानना एअरलाइन के परसरों के जॉब/कैरियर का अटूट हिस्‍सा हो और इस रूप में यह उनके जीवन का एक ज़रूरी यथार्थ हो। लेकिन यह उनके जीवन का पर्याय है यह मानना एक अतिशयता ही होगी; जैसा कि यह कहानी दिग्‍दर्शित करती है। अपने अन्‍तिम प्रभाव में यह कहानी स्‍त्री-उपभोग को एक संस्‍कार की तरह स्‍थापित करती है। एक एडवेंचर की तरह! क्‍या प्रवाही मानसिकता का यह एक अपरिहार्य उपलक्षण है? क्‍या यह पश्‍चिमी सभ्‍यता और जीवन-चर्या का भारतीय प्रतिरूप है? क्‍योंकि संभवतः पश्‍चिम में भी इस तरह की ‘कोष्‍ठकबाज़ी' कोई सामान्‍य प्रवृत्‍ति नहीं है। वहाँ मुक्‍त और स्‍वेच्‍छाचारी यौन प्रचलित है किन्‍तु वह जीवन की अन्‍य गतिविधियों की तरह ही एक सामान्‍य गतिविधि है वह जीवन का मूलभूत एजेण्‍डा नहीं है, जैसा कि यहाँ एक प्रवासी भारतीय चरित्र में दिखाई देता है। सामने वाले की सहमति है तो यौन-संभोग सचमुच ही जीवन की श्रेष्‍ठतम उपलब्‍धि है किन्‍तु जीवन का यही तो एकमात्र उपलक्ष्‍य नहीं है। इस कहानी की गढ़न्‍त यही तो है कि यह यौन-संभोग को वन-प्‍वाइंट-प्रोग्राम की तरह अग्रेषित करती है। क्‍या यहाँ तेजेन्‍द्र को ध्‍यान है कि अपनी ‘छूता फिसलता जीवन' शीर्षक कहानी में इसी यौनोपभोगवादी प्रवृत्‍ति के लिए जेम्‍स नामक पात्र की वे बाक़ायदा मलामत कर चुके हैं- ‘जेम्‍स के लिए गर्लफ्रेंड का अर्थ था सेक्‍स!... बस और अधिक सेक्‍स!' (बेघर आँखें; पृ.-121)।

खुलेपन के प्रति बेतरह आत्‍मविश्‍वास

एक तरह से देखा जाए तो सेक्‍स तेजेन्‍द्र शर्मा की कहानियों का प्रस्‍थान-बिन्‍दु और गन्‍तव्‍य दोनों ही है। इस क्रम में सबसे उल्‍लेखनीय तथ्‍य यही है कि तेजेन्‍द्र स्‍त्री-पुरुष सम्‍बन्‍धों के इस आधारभूत फलक को जीवन्‍तता और नवनवोन्‍मेष का केन्‍द्रीय कारक मानते हैं। सेक्‍स तेजेन्‍द्र में एक एडवेंचर के रूप में आता है, यह ठीक है, लेकिन वह यहाँ जीवन की एकरसता और ठसता को तोड़ने के एक संसाधन के बतौर भी सामने आता है। और इससे भी बड़ी बात यह कि सेक्‍स यहाँ सचमुच ही जीवन की श्रेष्‍ठतम उपलब्‍धि या केन्‍द्रीय अनुभूति के रूप में चित्रित हुआ है। कथित सामाजिक मर्यादाएँ, नैतिकताएँ, वर्जनाएँ आदि या तो इसके आड़े आती नहीं और आती भी है तो उनका कोई तात्त्विक महत्‍व नहीं। ऊपर जिस ‘कोष्‍ठक' शीर्षक कहानी को हमने देखा, उसे यदि कामिनी के कोण से देखा जाए तो यह बात समझ में आ जाएगी। हम यहाँ कामिनी को क़तई इस बात के लिए दोषी नहीं ठहरा सकते कि वह नरेन जैसे औरतखोर के कोष्‍ठक में क्‍यों दर्ज हुई! यह ‘छूता फिसलता जीवन' की तरह जेम्‍स जैसे लम्‍पटों के द्वारा मैंडी जैसी लड़कियों के साथ की जाने वाली ज़बर्दस्‍ती और धोखाधड़ी भी नहीं है। यह एक शुद्ध स्‍वयंप्रेरित यौनानन्‍द है, जिसे प्राप्‍त करने का अधिकार हर किसी को है। शुचितावादी लोगों की सारी दलीलें यहाँ व्‍यर्थ हैं। इसे एक विशेष मानवाधिकार भी माना जा सकता है। इससे किसी व्‍यक्‍ति-विशेष के अधिकारों का हनन होता भी नहीं दिखाई देता। हाँ, यदि नरेन की पत्‍नी शुभांगी को कोई ऐतराज़ यहाँ होता तो बात अलग थी। शुभांगी का तो हाल यह है कि “मैं तो इनसे कहती हूँ कि, हर देश में एक-एक बेटा पैदा कर लें। जब हम बूढ़े होंगे तो दस-बारह बेटे आस-पास खड़े हो जायेंगे। हर एक में इनकी थोड़ी-थोड़ी झलक दिखाई देगी। कितना मज़ा आयेगा!” (देह की कीमत; पृ.-74)। अतः कामिनी को लानत भेजना उचित नहीं। वह यहाँ जो ‘अलौकिक अनुभव' प्राप्‍त करती है, वह जीवन की एक बहुत ही स्‍वाभाविक सच्‍चाई है। स्‍त्रीवादी वैचारिकी में इसे एक स्‍त्री की यौनिक सार्थकता कहा जाता है इस यौनिक सार्थकता की उपलब्‍धि के क्रम में यदि थोड़ी-सी सीमा या लज्‍जा का उल्‍लंघन करना पड़े तो वह भी वरेण्‍य है। जैसे कि ‘कोख का किराया' की मैनी; जो इंग्‍लैंड के प्रसिद्ध फुटबाल खिलाड़ी डेविड के साथ यौन-संभोग और उसके बच्‍चे की माँ बनने को बेताब है; इस स्‍थिति में भी कि इसके बाद उसका वर्तमान पति गैरी उसे हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ कर चला जाएगा, उसके बच्‍चे भी उसके नहीं रहेंगे, वह सिर्फ़ किराये की एक कोख होकर रह जाएगी और उसके चारों ओर सन्‍नाटे से भरी चीखती दीवारें होंगी! (द्रष्‍टव्‍यः बेघर आँखें - पृ-55)। डेविड के साथ शारीरिक सम्‍बन्‍ध बनाना उसका सबसे बड़ा सपना है। अपने इस खुलेपन के प्रति आत्‍मविश्‍वास इतना कि वह खुद अपने पति गैरी को बौना बना देती है- “गैरी तुम सपने नहीं देखते। जागते हुए सपने देखने का आनंद ही कुछ और होता है। जया और डेविड जिस बच्‍चे को जीवन-भर प्‍यार देंगे, वो बच्‍चा मेरी कोख से जन्‍म लेगा। सोचकर ही मन पगला-पगला जाता है।” (वही; पृ.-47)।

इंग्‍लैंड से प्रभावित और संचालित कथानुभव

तेजेन्‍द्र शर्मा की अधिकांश कहानियाँ स्‍त्री-पुरुष के इसी स्‍वैच्‍छिक यौनास्‍वाद के इर्द-गिर्द घूमती हैं। संभवतः यह इंग्‍लैंड-प्रवास का असर है। हिन्‍दी की स्‍वदेशी कहानी की परंपरा इसे ठीक इसी रूप में मान्‍यता नहीं देती। हिन्‍दी की स्‍वदेशी कहानी में यह प्रवृत्‍ति इस रूप में दरअसल है भी नहीं यहाँ कभी-कभी और कोई-कोई ही इस पर लिखता है और जो लिखता भी है, उसे भारी भर्त्‍सना का सामना करना पड़ता है। जो हो, हम इंग्‍लैंड से प्रभावित और संचालित कथानुभव की बात करें। तेजेन्‍द्र शर्मा निश्‍चय ही इंग्‍लैंड में रह रहे भारतीयों की बदलती/बदली हुई जीवन-विधि का काफ़ी प्रामाणिक लेखा-जोखा इन कहानियों में देते हैं। उनकी कहानियों के ज़्‍यादातर नायक हिन्‍दुस्‍तानी हैं। स्‍त्री और पुरुष पात्र अधिकांशतः यही हैं। अतः कहा जा सकता है कि ये कहानियाँ प्रवासी भारतीय जीवन की कहानियाँ हैं। इन कहानियों के ये भारतीय पात्र कम से कम दो पीढ़ियों के तो हैं ही। तेजेन्‍द्र की ये कहानियाँ पिछले लगभग बीस सालों में फैली हुई हैं। इन बीस सालों में दरअसल दो नहीं बल्‍कि तीन पीढ़ियाँ सामने हैं। पहली तो वह प्रौढ़ या बुजुर्ग पीढ़ी जो अपनी रोजी रोटी कमाने और एक उज्‍ज्‍वल भविष्‍य बनाने इंग्‍लैंड पहुँची। एक प्रवासी के रूप में यह इनका पहला अनुभव था। इन्‍हें वहाँ जमने और लगातार जमे रहने में भारी जद्‌दोज़हद करनी पड़ी। ‘छूता फिसलता जीवन' के दारजी और बीजी इसके सबसे अच्‍छे उदाहरण हैं। यह तेजेन्‍द्र की श्रेष्‍ठ कहानियों में से एक मानी जा सकती है। अभी हाल ही में ‘नया ज्ञानोदय' (ज्ञानपीठ, नई दिल्‍ली) के दिसम्‍बर 2008 के अंक में, जिसमें कि अन्‍य कई प्रवासी कथाकारों की कहानियाँ हैं, इसे प्रमुखता एवं वरीयता के साथ छापा गया है यह कहानी तेजेन्‍द्र के अरु पब्‍लिकेशन्‍स (सरस्‍वती हाउस समूह), नई दिल्‍ली से सन्‌ 2007 में छपे ‘बेघर आँखें' शीर्षक संग्रह में आ चुकी थी लेकिन यह शायद इस कहानी की वर्तमान प्रासंगिकता और अपरिहार्यता ही है कि रवीन्‍द्र कालिया जैसे विज्ञ और काइयाँ सम्‍पादक को भी इसे यहाँ लेना पड़ा!

अंग्रेज़ों का सांस्‍कारिक नस्‍लवाद अर्थात्‌ ‘छूता फिसलता जीवन'

इस कहानी में एक उल्‍लेखनीय तथ्‍य यह है कि इन लोगों को, जब ये वहाँ गये होंगे तब, अंग्रेजों के परंपरागत नस्‍लवादी रवैये का बराबर सामना करना पड़ा होगा। दारजी जब जेम्‍स द्वारा अपनी पुत्री मैंडी के साथ किए गए बलात्‍कार की रिपोर्ट लिखाने पुलिस स्‍टेशन जाते हैं तो वहाँ मौजूद पुलिस अधिकारी काफ़ी देर तक इनकी रिपोर्ट दर्ज़ नहीं करता। वह टालमटोल करता जाता है, यहाँ तक कि इनके बाद आई एक सफ़ेद ब्रितानवी औरत की रिपोर्ट दर्ज़ कर लेता है इन्‍हें लटकाए रखता है। वह इनकी रिपोर्ट तभी दर्ज़ करता है, जब वे अंग्रेज़ी में उसे इस तरह डाँटते हैं- “ऑफ़ीसर, तुम्‍हें इस तरह हमारी बेइज़्‍ज़ती करने का कोई अधिकार नहीं। हम भी इस देश के टैक्‍स अदा करने वाले बाइज़्‍ज़त शहरी हैं। मैं भी काउंसिल में ऊँचे पद पर काम करता हूँ। मुझे आपकी रिपोर्ट आपके ऊँचे अधिकारी से करनी पड़ेगी। आपका यह रेसिस्‍ट एटीट्‌यूड ही पुलिस की बदनामी का बायस है।'' (बेघर आंखें, पृ. 125) अंग्रेजों के इस सांस्‍कारिक नस्‍लवाद का एक और जगह इस कहानी में प्रभावशाली उल्‍लेख लेखक करता है- मैंडी चिल्‍ला रही थी लेकिन उस क़ब्रिस्‍तान के अधिकतर मुर्दे ब्रिटिश राज के लोग थे जो इस बात के शायद आदी थे कि एक गोरा युवक एक भारतीय मूल की लड़की के साथ ज़बर्दस्‍ती कर रहा है।' (वही, पृ-124)। इस कहानी में दारजी और बीजी की घबराहट और परदेस की असहायता का दबा-छुपा भाव रह-रहकर अपना फन उठाता दिखाई देता है यदि वे हिन्‍दुस्‍तान में होते और दुर्भाग्‍य से ऐसा हुआ होता तो संभवतः ऐसी स्‍थिति उनकी न होती! लेकिन ऐसा यदि यहाँ हुआ होता तो न जाने क्‍या होता! पता नहीं तब दारजी की इस तरह की डॉट के बाद भी एफआईआर दर्ज हो पाती कि नहीं? पता नहीं तब मामला एकदम उल्‍टा तो नहीं पड़ जाता कहीं। अधिकारी दारजी से कहता, ‘अच्‍छा, पहले तू ऊँचे अधिकारी से ही शिकायत कर ले। वहीं एफआईआर भी दर्ज़ करा लीजो!' फिर वह लड़की की तरफ़ अज़ीब ललचाई और हिकारत-भरी नज़रों से देखता और पिच्‍च से बग़ल में थूक देता। और दारजी बेतरह घबराकर या तो रोने-घिघियाने लगते या कुछ अंटी ढीली करते या चुपचाप अपना-सा मुँह लेकर घर चले आते और अपनी लड़की पर ही अपना गुस्‍सा ठंडा कर लेते! ग़नीमत थी कि इंग्‍लैंड में यह स्‍थिति नहीं थी-“देखो, यहाँ इस मुल्‍क में क़ानून नाम की चीज़ मौजूद है।” (वही, पृ.-125)।

इंग्‍लैंड में भारतीय ः हम वहाँ भी ऐसे थे, यहाँ भी ऐसे ही रहेंगे!

तेजेन्‍द्र अपनी ‘क़ब्र का मुनाफा' शीर्षक कहानी में नज़म के मार्फत यह कहने से आख़िरकार चूकते ही तो नहीं हैं कि- “अपना तो साला पूरा मुल्‍क ही करप्‍शन का मारा हुआ है। इतनी रिश्‍वत देनी पड़ती है कि दिल करता है कि सामनेवाले को चार जूते लगा दूँ। ऊपर से नीचे तक सब करप्‍ट।” (वही, पृ.-22) इस करप्‍शन का आलम यह है कि विदेश में भारी अपमान, संघर्ष, बेसहरापन इत्यादि के बावजूद एक बार यहाँ आया हुआ आदमी वापस लौटने की बात भी दिमाग़ में नहीं लाता। किसी भी तरह वहीं अपना कोई ठीया तलाशे रखना चाहता है। ‘अभिशप्‍त' का रजनीकांत एक ऐसा ही चरित्र है। इस कहानी में एक मज़ेदार क़िस्‍सा यह है कि यहाँ एक प्रवासी भारतीय ही एक दूसरे प्रवासी भारतीय को अपना ‘गुलाम बनकर रहने' (पृ.-73) को मज़बूर करता नज़र आता है। यानि कि हम वहाँ भी ऐसे ही थे और यहाँ भी ऐसे ही रहेंगे! एक-दूसरे का खून पीते हुए! तेजेन्‍द्र अपनी कहानियों में प्रवासी भारतीयों की इस निगूढ़ प्रवृत्‍ति को बार-बार सामने लाते हैं। तेजेन्‍द्र अपनी इस पुरानी पीढ़ी की एक और प्रवृत्‍ति को बार-बार रेखांकित करते हैं। विदेश में अरसे से अरसे तक रहने के बाद भी भारतीय लोग अपनी कथित भारतीयता को तिलांजलि नहीं दे पाते। जैसे कि ‘मुझे मार डाल बेटा' की माँ, जो आज भी वैसी ही एक भारतीय स्‍त्री है जो यदि भारत में होती तो भी एकदम ऐसी ही होती- कौन विश्‍वास करेगा कि इस औरत ने एक पूरा जीवन इंग्‍लैंड में बिता डाला है। पश्‍चिमी सभ्‍यता की हवा उसके संस्‍कारों को ज़रा भी तो नहीं भेद पाई। बाऊजी की हर फुसफुसाहट-भरी बात माँ को समझ में आ जाती। उनकी नज़रों के भावों को माँ आसानी से पढ़ लेती है। (वही, पृ.-31)।

दो भिन्‍न और विपरीत संस्‍कृतियों का मेल अर्थात प्रवासी स्‍त्रियों की इंग्‍लैंड में जन्‍मी पहली पीढ़ी

जहाँ तक प्रवासी भारतीय स्‍त्रियों की बात है, तो इस पुरानी पीढ़ी से इनकी अगली पीढ़ी की स्‍त्रियों में यह अन्‍तर तो अवश्‍य आया कि अब वे वैसी ‘पतिव्रता' या पति की छाया जैसी तो नहीं रह पायी हैं; जैसे कि ‘कोख का किराया' की मैनी है या ‘अभिशप्‍त' की निशा या ‘टेलीफ़ोन लाइन' की पिंकी या और भी कई पत्‍नियाँ। किन्‍तु इतना अभी जारी है कि अपने पति के प्रति वे गोरी स्‍त्रियों से ज़्‍यादा वफ़ादार हैं; कम से कम ब्रिटिश पुरुषों की नज़रों में। ‘कोख का किराया' का डेविड जब ‘आर्टीफ़िशियल इनसेमिनेशन' के ज़रिये अपना वारिस पैदा करने के लिए किसी औरत की तलाश में है तो सबसे पहले डेविड-दम्‍पति को मैनी यानी कि मनप्रीत का ही ध्‍यान आता है। उसे “इन गोरी लड़कियों पर थोड़ा भी विश्‍वास नहीं है। कल को क्‍या गुल खिलाएँ। कोर्ट में केस फ़ाइल कर दें। यहाँ तो पैसे के लिए बात-बात पर अदालत के दरवाज़े पर पहुँच जाते हैं लोग।” (वही, पृ-41)। तेजेन्‍द्र अपनी कहानियों में बार-बार इस तथ्‍य की स्‍थापना करते हैं कि इंग्‍लैंड के गोरे लोगों/युवकों को ‘भारतीय मूल की लड़कियाँ विवाहित जीवन को अधिक स्‍थायित्‍व प्रदान करने वाली लगती हैं।' (वही, पृ.-39)। इंग्‍लैंड के लोग शायद इस स्‍थिति से आज़िज़ आ चुके हैं कि यहाँ तो हर कोई किसी भी दूसरे के बिस्‍तर में घुसने को तैयार रहता है।' (वही, पृ-40-41)। यह शायद भारतीय जीवन-पद्धति का उन पर असर है। वे अब एक प्रकार की सांस्‍कारिकता की तलाश में हैं। ‘कोख का किराया' कहानी में गैरी इसका उदाहरण है। गैरी के माता-पिता पूरे के पूरे विक्‍टोरियन ज़माने के उसूल मानने वाले ब्रिटिश परिवारों में से एक थे। लेकिन उसने माता-पिता से विद्रोह करते हुए एक हिन्‍दुस्‍तानी लड़की से विवाह किया। यह विवाह आगे चलकर टूट गया, यह एक अलग बात थी। लेकिन एक बात जो साफ़ उभरकर सामने आती है वह यह है- ‘गैरी अंग्रेज़ और काली लड़कियों में अधिक रुचि नहीं लेता था। उसके दिमाग़ में बस एक ही बात बैठी हुई थी कि इन लड़कियों में संस्‍कारों का क्षय होता जा रहा है।' (वही, पृ-38)। गैरी मैनी से अलग होने के बाद जिस दूसरी स्‍त्री के पास जाता है, वह भी एक हिन्‍दुस्‍तानी ही थी-नीना। तेजेन्‍द्र अपनी कहानियों में इंग्‍लैंड में पिछले कुछ समय में अंग्रेज़ों की जीवन-पद्धति-विशेषतः - दाम्‍पत्‍य-सम्‍बन्‍धी दृष्‍टिकोण में आए एक उल्‍लेखनीय परिवर्तन की ओर इस तरह हमारा ध्‍यान खींचते हैं। प्रवास में, प्रवासी ही, जहाँ वे गए हैं, उस देश से प्रभावित नहीं होते बल्‍कि वे भी उस देश की जीवन-शैली को प्रभावित करते हैं, यह तथ्‍य इन कहानियों से स्‍थापित होता है। असल में इंग्‍लैंड में ही नहीं, प्रायः हर देश में इधर यह स्‍थिति देखी जा सकती है, जहाँ इस तरह दो भिन्‍न और एक-दूसरे से एकदम विपरीत संस्‍कृति का मेल होता चला है। जैसा कि मैंने संकेत किया, यह सांस्‍कृतिक मिलाप प्रवासी परिवारों की दूसरी पीढ़ी में ही हो सकता है। एक तरह से यह मिलाप भी प्रवासियों के वहाँ टिके रहने और आगे बढ़ने की संभावनाएँ तलाशने की प्रक्रिया के तहत स्‍वाभाविक रूप से सम्‍पन्‍न हुआ है। वहाँ पहुँचे माता-पिताओं ने इस हक़ीक़त को शायद ज़ल्‍दी ही पहचान लिया कि यहाँ रहना है तो यह अन्‍तर्नस्‍लीय अंतरंगता अपरिहार्य है। तभी तो उन्‍होंने यह किया कि अपनी सन्‍तानों की परवरिश इस तरह की कि उनके व्‍यक्‍तित्‍व में ‘बहुत नपे-तुले ढंग से इंग्‍लैंड और भारत के संस्‍कारों का मिश्रण पैदा' हो। (द्रष्‍टव्‍य, वही, पृ.-39)। ‘बेघर आँखें' का संवेदनशील और अपने भारत-स्‍थित फ्‍लैट के लिए परेशान कथानायक भी स्‍वयं को इस स्‍थिति में पाता है कि- ‘लंदन में रहने के कारण मेरी सोच में थोड़ा-सा अंतर तो आ ही गया था।' (वही, पृ.-153)। तेजेन्‍द्र की कहानियों की यह इतिहास-दृष्‍टि श्‍लाघ्‍य है यहाँ तेजेन्‍द्र का अपनी लेखन-प्रक्रिया के विषय में कहा गया यह आत्‍मकथन प्रमाणित होता है- “...मेरी कहानियों में... मेरे आसपास का माहौल, घटनाएँ और विषय पूरी शिद्दत से मौजूद रहते हैं। मैं अपने आपको अपने आसपास से कभी भी अलग करने का प्रयास नहीं करता।” (वही, पृ.-9)। अपने आस-पास को इतनी शिद्दत से पहले तो महसूस करना और फिर लिखना, लेखकीय निजता की एक महत्‍वपूर्ण कसौटी है, जिस पर तेजेन्‍द्र खरे उतरते हैं।

प्रवासी साहित्‍य की दोहरी ज़िम्‍मेदारी अर्थात यहाँ की भी और वहाँ की भी

तेजेन्‍द्र प्रवासी लेखक की दोहरी ज़िम्‍मेदारी एक साथ निभाते हैं। प्रवासी लेखक की दोहरी ज़िम्‍मेदारी यह है कि वह न केवल जिस देश में वह प्रवासित हुआ है उसके साथ अन्‍तर्सम्‍बन्‍ध के दौरान अपने तथा उस देश के लोगों की जीवन शैली एवं प्रविधि में आए परिवर्तनों पर नज़र रखता और उनका तर्क तलाशता है, उन्‍हें अपनी रचना का विषय बनाता है बल्‍कि इसके साथ ही वह इस बीच अपने छोड़े हुए देश की गतिविधियों पर भी बराबर और पैनी नज़र रखता है। व्‍यावहारिक तौर पर भी चूँकि अपने देश से वह लगातार जुड़ा रहता है, निरन्‍तर आना-जाना यहाँ उसका लगा रहता है, तकनीकी तौर पर भी स्‍वदेश की राजनीति, सत्‍ता-प्रतिष्‍ठान, प्रशासन इत्‍यादि से उसे काम पड़ता रहता है अतः प्रवासित हो जाने के बाद भी वह कभी भी अपनी ज़मीन से एकदम कट नहीं पाता। और ऐसे में यदि वह रचनात्‍मक लेखन से जुड़ा है तो अपने देश से उसका लगाव और ज़्‍यादा बढ़ता जाता है उसे दरअसल अपनी जड़ें स्‍वदेश में ही फलती-फूलती नज़र आती हैं, जिनसे कि अब वह कट-सा गया है। यह एक बेहिसाब भावुकतावदी स्‍थिति है जिसकी गिरफ़्‍त में एक समय तक आदमी रहता ही है। कोई-कोई तो जीवन-भर इससे नहीं उबर पाता! प्रवासी भारतीय लेखकों की पिछली पीढ़ी इस भावुकतावाद की शिकार काफ़ी-कुछ रही है। वे एक प्रकार के नॉस्‍टेल्‍जिया के तहत सब कुछ करते आए हैं। तेजेन्‍द्र ने अपने इस आत्‍मकथ्‍य में अपने से पहले की लेखक-पीढ़ी की इस प्रवृत्‍ति को बाक़ायदा उल्‍लिखित किया है, तथा ही यह भी लक्ष्‍य किया है कि भारत में प्रवासी लेखन को गंभीरता से न लेने की जो एक लम्‍बी परिपाटी रही है उसका कारण दरअसल यही है- “भारत के आलोचक, समीक्षक कभी प्रवासी लेखन को गंभीरता से नहीं लेते थे। उसके कुछ कारण भी थे। अधिकतर प्रवासी लेखक नॉस्‍टेल्‍जिया के शिकार थे। उनके विषय भारत को लेकर ही होते थे। मज़ेदार बात यह थी कि जिस भारत के बारे में वे लिखते थे, वो भारत उनके दिमाग़ का भारत होता था, भारत जहाँ से वे विदेश प्रवास के लिए आए थे। उसके बाद भारत में जितने बदलाव आए, उनसे वे बिल्‍कुल भी परिचित नहीं थे। इसलिए उनका लेखन किसी को छू नहीं पाता था। उनके आसपास का माहौल ही उन्‍हें नहीं छू पाता था।” (वही, पृ.-8-9)। तेजेन्‍द्र की पीढ़ी अपने इन अंग्रेज़ों को पीछे छोड़ आगे जाती है और अपने लिए प्रवासी साहित्‍य की एक नई ज़मीन खोजती है। प्रवासी साहित्‍य की यह नई खोजी हुई ज़मीन यह है- “दरअसल, मेरे आसपास जो कुछ घटित होता है वह मुझे मानसिक रूप से उद्वेलित करता है। तब तमाम तरह के सवाल मेरे ज़ेहन में कुलबुलाने लगते हैं। उन सवालों से जूझते हुए सवाल-जवाब का एक सिलसिला-सा चल जाता है। तब मेरी लेखनी स्‍वयमेव चलने लगती है। मेरे तमाम पात्र मेरे अपने परिवेश में से ही निकलकर सामने आ जाते हैं और फिर पन्‍नों पर मेरी लड़ाई लड़ते हैं। कहीं किसी प्रकार का भी अन्‍याय होते देखता हूँ तो चुपचाप नहीं बैठ पाता। अन्‍याय के विरुद्ध अपनी आवाज़ को दबा नहीं पाता। हारा हुआ इंसान मुझे अधिक अपना लगता है। उसका दुःख मेरा अपना दुःख होता है। जीतनेवाले के साथ आसानी से जश्‍न नहीं मना पाता जबकि हारे हुए की बेचारगी अपनी-सी लगती है।” (वही, पृ.-7-8)। एक तार्किक यथार्थ को अपनाना और एक तार्किक तरीके से अपनाना और स्‍वयं उसका एक हिस्‍सा होना महसूस करना और जो सही है या जिसे सही होना चाहिए, उसके पक्ष में खड़ा होना; प्रवासी साहित्‍य की एक नई रचनात्‍मक आचार-संहिता है, जिसे यह नई पीढ़ी अपनाती है। इस हिसाब से तेजेन्‍द्र ने ठीक कहा कि “हमारी पीढ़ी में लेखकों की एक नई जमात भी पैदा हुई है- प्रवासी लेखक। ... एक पूरी जमात के तौर पर प्रवासी लेखक हाल ही में दिखाई देने लगे हैं।” (वही, पृ.-8)।

तेजेन्‍द्र एक प्रवासी लेखक की दूसरी ज़िम्‍मेदारी- अपने स्‍वयं के देश में इस बीच हुए और निरन्‍तर हो रहे परिवर्तनों पर नज़र रखना और उन्‍हें अपनी रचना में लाना- निभाने की लगातार कोशिश करते रहे हैं। बम्‍बई तथा स्‍वदेश के और कई शहरों की ज़मीन पर लिखी गई कुछ कहानियाँ इसका उदाहरण हैं। जैसे ‘किराये का नरक', ‘ये क्‍या हो गया!' ‘बेघर आँखें', ‘श्‍वेत-श्‍याम', ‘तुम क्‍यों मुस्‍कुराए', ‘नई दहलीज़', ‘नवयुग', ‘सिलवटें' आदि-आदि। इन कहानियों में भारत के बदलते यथार्थ की कुछ ज़रूरी तस्‍वीरें ज़रूर मिल जाएँगी। ये कहानियाँ प्रवासित व्‍यक्‍ति की अपने देश के अन्‍यायग्रस्‍त और संत्रस्‍त स्‍त्री-पुरुषों के प्रति एक सहज सहानुभूति की उपज हैं, जैसा कि तेजेन्‍द्र अपने आत्‍मकथ्‍य में अपना पक्ष स्‍पष्‍ट करते दिखाई देते हैं। इन कहानियों में ‘नई दहलीज' और ‘नवयुग' ये दो कहानियाँ विशेष ध्‍यान खींचती हैं क्‍योंकि इनमें भारतीय जीवन की विडम्‍बनाएँ और उनसे पार जाने की आकांक्षा साफ़-साफ़ दिखाई देती हैं। नवयुग में एक ऐसे लेखक/सम्‍पादक का चित्रण है जो जब तक नवोदित लेखक था और नया लेखक होने के कारण जिसकी रचनाएँ छपती नहीं थीं, वही जब एक पत्रिका का सम्‍पादक बन जाता है तो उसका रवैया भी उन्‍हीं पुराने घाघ सम्‍पादकों जैसा हो आता है जो ‘पत्रिका बेचने के लिए प्रतिष्‍ठित नामों का छपना बहुत आवश्‍यक' मानते हुए नए लेखकों को किनारे किए रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। कैलाशनाथ नाम के इस व्‍यक्‍ति में आया यह बदलाव पूरे लेखकीय परिदृश्‍य को यथास्‍थिति से बाहर नहीं निकलने देता- “मेज़ की इस ओर तुम्‍हें नए लेखक की पीड़ा का ज्ञान था किन्‍तु उस ओर पहुँचते ही तुम्‍हारा दिमाग़ ख़राब हो गया। इतनी जल्‍दी बदल गए तुम। आज तुम्‍हारी पत्रिका में और किसी भी अन्‍य पत्रिका में अन्‍तर ही क्‍या है? नए लेखकों के मंच का क्‍या हुआ? हो गया ना छिन्‍न-भिन्‍न?” (ढिबरी टाइट, पृ.-61)। इसी तरह ‘नई दहलीज़' कहानी में ऑपरेशन ब्‍लूस्‍टार के बाद के हिन्‍दू-सिखों के बीच पैदा धार्मिक/सामाजिक विभेद के संगीन यथार्थ को युवा-प्रेम के धरातल पर अतिक्रमित करने की कोशिश दिखाई देती है। यहाँ एक सिख युवक एक हिन्‍दू युवती से प्रेमासक्‍त है और उससे विवाह पर आमादा है। युवक का पिता इसके लिए तैयार नहीं है। लिहाज़ा युवक कोर्ट में शादी कर लेता है। बाद में जब बेटे-बहू के घर लड़का पैदा होता है तो सारी दीवारें टूट जाती हैं और ‘नफ़रत, हिंसा और आतंकवाद' पर प्‍यार भारी पड़ता है। आतंकवाद की सब-कुछ को धर्म की तराजू पर तौलने की मुहिम मात खाती है और इस प्रक्रिया में धर्म खुद प्‍यार की तराजू पर तुल जाता है। (वही, पृ.50-52)। तेजेन्‍द्र शर्मा इस कहानी के लिए सचमुच बधाई के पात्र हैं। ‘किराये का नरक' में उच्‍च वर्ग में शामिल होने की एक मध्‍यवर्गीय व्‍यक्‍ति की दुःखान्‍त होड़, ‘ये क्‍या हो गया' में एक आम हिन्‍दुस्‍तानी लड़की की लेडी डायना-जैसा बनने की मूर्खतापूर्ण एवं सर्वनाशी कोशिश, ‘श्‍वेत-श्‍याम' में मध्‍यवर्गीय ‘साफ़ सुथरी गृहणियों' का काल गर्ल जैसा पैसा-कमाऊ और सनसनीखेज़ धन्‍धा, ‘तुम क्‍यों मुस्‍कुराए' में दक्षिणपंथ और आत्‍मकेन्‍द्री मानसिकता की परस्‍परान्‍वितता; आदि-आदि बम्‍बई तथा भारत के अन्‍य कई शहरों के इधर विकसित नए यथार्थ के कुछ टुकड़े हैं जो तेजेन्‍द्र शर्मा लेकर आए हैं।

स्‍वदेश और स्‍वदेश अर्थात कहानी में बार-बार इधर से उधर से उधर से इधर होता समय

तेजेन्‍द्र शर्मा प्रवासी साहित्‍य की एक और शानदार प्रवृत्‍ति का भी प्रतिनिधित्‍व करते हैं। वह प्रवृत्‍ति है, वर्तमान स्‍वदेश यानी प्रवासी देश और अतीत के स्‍वदेश का एक साथ रचना में आना। इन दोनों देशों के एक साथ आने से कहानी में यथार्थ, कल्‍पना और स्‍मृति का जो रचनात्‍मक सहकार उपस्‍थित होता है, वह एक प्रभावशाली कृति का आधार बनता है। तेजेन्‍द्र की अनेकानेक कहानियाँ इसका उदाहरण हैं। इनमें ‘ढिबरी टाइट', ‘भँवर', ‘देह की कीमत', ‘चरमराहट', ‘अभिशप्‍त', ‘एक बार फिर होली' ‘टेलीफोन लाइन', ‘पासपोर्ट का रंग' आदि प्रमुख हैं। इन कहानियों में समय बार-बार इधर से उधर होता रहता है। घटनाएँ और पात्र और इनके बीच के टकराव सरहदों की सीमाएँ उलाँघ मनुष्‍य को एक सामान्‍य सांवेदनिक धरातल पर लाने की कोशिश करते हैं। प्रवासी साहित्‍य की सबसे बड़ी उपलब्‍धि शायद यही है कि वह मनुष्‍य को धर्म, नस्‍ल, जाति, क्षेत्र, भाषा इत्‍यादि की सीमाओं से उबरने और एक व्‍यापक मनुष्‍यता की वस्‍तुगतता की ओर प्रयाण करने का हौसला हमें देता है। कोई ताज़्‍जुब नहीं कि तेजेन्‍द्र जहाँ भी मौक़ा मिलता है, अलग-अलग देशों के हुक्‍मरानों और नागरिकों की अनेक प्रकार की संकीर्णताओं और कमज़र्फ़ी को बेहिचक सामने लाते हैं। जैसे अंग्रेज़ों के बारे में बार-बार वे टिप्‍पणी करते देखे जा सकते हैं। ऐसी टिप्‍पणियाँ कुछ तो ऊपर आ चुकी हैं; कुछ और ये हैं- ‘नेल्‍सन तो दिल से जीता था। ... नेल्‍सन खुलकर ठहाका लगाता था। कम से कम इस मामले में तो बिल्‍कुल भी अंग्रेज़ नहीं था।' (देह की कीमत, पृ-52)। तेजेन्‍द्र लक्ष्‍य करते हैं कि इंग्‍लैंड की बेहिसाब ठंड ने मानो वहाँ के लोगों को भी भावनात्‍मक रूप से बेहद संवेदनहीन और लिज़लिज़ा बना दिया है। अंग्रेज़ ‘ठंडे दिल वाले लोग' होते हैं। (वही, पृ.-31)। ‘मुझे मार डाल बेटा' के हिन्‍दुस्‍तानी कथानायक की अंग्रेज़ प्रेमिका क्‍लेयर को अपने मंगेतर का अपने बीमार पिता को रोज़-रोज़ अस्‍पताल जाकर देखना नाग़वार गुज़रता है। वह कहती है- “जेट्‌स, व्‍हाई डू यू हैव टू सी युअर फ़ादर एवरी डे? अवर लाइफ़ इज़ गेटिंग डिस्‍टर्ब्‍ड!” (वही, पृ.-32)। इस कहानी का जीतू एक बार फिर विदेश में जन्‍मी पहली प्रवासी पीढ़ी का प्रतिनिधित्‍व करता है, जो भारतीय और पाश्‍चात्‍य विचारों और जीवन-शैली के समुचित मिश्रण से पली-बढ़ी है।

प्रवासियों का दोयम दर्ज़ा अर्थात ‘ढिबरी टाइट'

तेजेन्‍द्र अपनी कहानियों में प्रवासी-जीवन के अजनबीपन, असुरक्षा एवं असहायता-बोध इत्‍यादि की शिद्दत से व्‍याख्‍या करते हैं। अकेलापन प्रवासी-जीवन का वह दंश है, जिसे उसे राजी न राजी झेलना ही है अकेलेपन और अजनबीपन से असुरक्षा एवं असहायता का बोध पैदा होता है विदेश में कोई अपना नहीं! कहीं-कहीं तो नागरिकता ग्रहण कर लेने के बाद भी प्रवासियों का दोयम दर्ज़ा बरक़रार रहता है। विदेश में खुदा-न-ख्‍़वास्‍ता यदि पुलिस के हत्‍थे चढ़ गए तो हो गया समझो अपना बंटाधार! ‘ढिबरी टाइट' एक ऐसी ही कहानी है जिसमें एक भारतीय युवक कुवैत पुलिस के हाथ पड़ जाने पर अपने बीवी-बच्‍चे की मौत के बाद ही छूट पाता है। तेज़ स्‍पीड में गाड़ी चलाने जैसे मामूली अपराध की उसे ऐसी सज़ा दी जाती है कि विदेश में होने का गर्व और मस्‍ती पलक झपकते छू-मंतर हो लेती है। कुवैत जैसे देशों की इकतरफ़ा व्‍यवस्‍थाएँ अन्‍ततः संवेदनहीनता का पर्याय हो जाती हैं; कहानीकार संभवतः यह कहना चाहता है। लेखक उल्‍लेख नहीं करता लेकिन शायद उसका कहना यह है कि यदि गुरमीत के स्‍थान पर यहाँ कोई कुवैत का अपना नागरिक होता तो वहाँ की पुलिस का बर्ताव इतना अमानवीय न होता! अंग्रेज़ों के नस्‍लवादी रवैये को हम कई बार ऊपर देख आए हैं। यहाँ इतना कहना और ज़रूरी है कि इंग्‍लैंड में अभी भी यह स्‍थिति है कि भारतीय मूल के लोगों को हाथ के काम वाले क्षेत्र में तो आसानी से काम मिल जाया करता है, परंतु जहाँ कहीं प्रबंधक या इससे ऊपर की बात होती है तो गोरी चमड़ी एक अनिवार्य योग्‍यता बन जाती है। आप से कहीं कम पढ़े-लिखे गोरे लोग व्‍हाया भटिंडा आपसे आगे कूदते-फाँदते निकल जाते हैं। (बेघर आँखें; पृ.-26)।

कठमुल्‍लापन के चौराहे से फूटती भ्रष्‍टाचार और अनैतिकता की गलियाँ

एक देश में घटी किसी विशेष साम्‍प्रदायिक या नस्‍लीय घटना का विश्‍व के विभिन्‍न देशों में क्‍या और कैसा प्रभाव पड़ता है और प्रतिक्रिया में वहाँ के प्रवासियों को क्‍या-कुछ झेलना पड़ता है, इसके कई दृश्‍य तेजेन्‍द्र की कहानियों में हमें देखने को मिलते हैं। इस संदर्भ में ‘चरमराहट' शीर्षक कहानी विशेष रूप से द्रष्‍टव्‍य है इस कहानी में भारत में बाबरी मस्‍जिद के विध्‍वंस के बाद जेद्दाह (सऊदी अरब) में रह रहे/नौकरी कर रहे लोगों पर क्‍या बीतती है, वहाँ की ‘मुत्‍तव्‍वा' (धार्मिक पुलिस) कैसा साम्‍प्रदायिक व्‍यवहार करती है, इसका सिलसिलेवार ब्‍यौरा दिया गया है। तेजेन्‍द्र ने इस कहानी में विश्‍व-स्‍तर पर व्‍याप्‍त धार्मिक व अन्‍य प्रकार के तत्‍ववादी आग्रहों पर तीखी नज़र दौड़ाई है। भारत में ही नहीं बल्‍कि पूरी दुनिया में ही धर्म एवं जाति किस तरह से आज भी आदमी की पहचान का एकमात्र आधार बने हुए हैं, इसे तेजेन्‍द्र इस कहानी में बहुत प्रभावशाली ढंग से सामने लाते हैं। सऊदी अरब जैसी धार्मिक राज्‍य-व्‍यवस्‍थाओं में तो यह स्‍वीकार्य हो सकता है लेकिन भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राज्‍य में भी धर्म एवं जाति अभी भी आदमी की पहचान बने हुए हैं, यह सचमुच में ही बेहद हतोत्‍साहमूलक है। भारत में एक साम्‍प्रदायिक दंगे में कथानायक का पिता जब घायल अवस्‍था में घर लौटता है तो अपने बड़े भाई के प्रतिक्रियावादी रवैये से एकदम उलट वह उन कारणों पर ध्‍यान केन्‍द्रित करता है, जो इस तरह के रवैये को उकसाने के लिए ज़िम्‍मेदार होते हैं। इनमें से एक है, आदमी का जाति या धर्म-सूचक नाम; जैसे कि उसका अपना नाम है- इन्‍द्रमोहन तिवारी। उसे अपने इस नाम से बेहद लगाव है लेकिन जब वह देखता है कि इससे एक धर्म-विशेष से संचालित होने की बू आती है तो उसे इससे बेइन्‍तहा नफ़रत भी हो आती है। उसका इरादा दरअसल यह होता है कि ‘यह नाम, जातों और धर्मों का सिलसिला खत्‍म हो जाए।' (देह की कीमत; पृ.-120)। लिहाज़ा वह अपना नाम इन्‍द्रमोहन तिवारी से बदलकर ‘आई.एम. हिन्‍दुस्‍तानी' रख लेता है। वह यह भी तय करता है कि वह आई.एम. का अर्थ किसी को नहीं बताएगा। ‘वह चाहता था कि सब लोग उसे केवल हिन्‍दुस्‍तानी कहकर पुकारें। हिन्‍दुस्‍तानी या फिर मिस्‍टर हिन्‍दुस्‍तानी। उसने प्रण कर लिया था कि किसी को भी अपना धर्म नहीं बताएगा।' (वही)। लेकिन वह एक आदमी था और उसे इसी जाति, धर्म इत्‍यादि से संचालित समाज और व्‍यवस्‍था में अपना जीवन-यापन भी करना था और जीवन-यापन के लिए एक अदद नौकरी की भी ज़रूरत थी। अतः जब वह इस मैदान में उतरता है तो पाता है कि यहाँ तो हर आदमी, हर संभावना ने धर्म और जाति का मुकुट ओढ़ रखा है। दरअसल, जब उसने नाम बदला था तो एक परिवर्तन स्‍वतः उसमें हो आया था। वह नास्‍तिक भी हो गया था। उसने धर्म जैसी चीज़ से एकदम पल्‍ला झाड़ने की सोच ली थी। लेकिन नौकरी के फ़ार्म में धर्म के कॉलम में उसने एक बार जब ‘नास्‍तिक' लिख दिया था तो वह भारी चक्‍कर में आ गया था। न केवल वह नौकरी उसे नहीं मिलती बल्‍कि साक्षात्‍कार में जिस तरह के सवालात उससे पूछे गए, वह उसे आसमान से ज़मीन पर लाने जैसा अनुभव रहा था। वह लाख कहता रहा कि “...हर धर्म वाले अपने पुरातन से पुरातन ग्रंथ की डींग हाँकने लगते हैं। आदिम लोगों द्वारा लिखी गई पिछड़ी हुई बातों के लिए हम लोग कट मरते हैं। क्‍या यह सही है? क्‍या नास्‍तिक होना इस स्‍थिति से कहीं अधिक बेहतर नहीं है?... और फिर एक धर्मनिपरेक्ष देश में ऐसे सवाल का क्‍या औचित्‍य है?” (वही, पृ.-121)। इस स्‍थिति में यहाँ उसे कोई भी नौकरी नहीं मिल सकती थी। लिहाज़ा उसने बाहर हाथ-पैर मारना शुरू किया। लेकिन बाहर जाने के लिए चाहिए पासपोर्ट और पासपोर्ट में भी धर्म का कॉलम होता ही तो है! वह एकदम मजबूर हो जाता है और अन्‍ततः उसे धर्म का कॉलम जन्‍मानुसार भरना ही पड़ता है। उसे जब जेद्दाह में नौकरी मिलती है तो वहाँ एक नई ही समस्‍या सामने आ खड़ी होती है वह कहने को एक मुस्‍लिम राष्‍ट्र है लेकिन कुल मिलाकर एक कठमुल्‍ला राष्‍ट्र ही उसे कहा जाना चाहिए। धार्मिक होना उतना ख़तरनाक़ नहीं है, जितना कि एक कठमुल्‍ला होना! सऊदी अरब में दूसरे धर्म के लोगों पर जो अन्‍याय होता है और जो भेदभाव उनके प्रति बरता जाता है वह तो है ही, स्‍वयं स्‍वदेशी मुसलमानों के बीच भी वहाँ लगभग भारत जैसी ही विभेद और अन्‍यायमूलक स्‍थितियाँ हैं। जैसे कि ‘पहला फ़र्क तो मुस्‍लिम और गै़र-मुस्‍लिमों में था। मुस्‍लिमों में सऊदी और गैर-मुस्‍लिमों में चमड़ी का अन्‍तर था- यानि गोरा और काला।' (वही)। धार्मिक भेदभाव की इन्‍तिहा वहाँ यह है कि वहाँ काम करने वाले लोगों के इकामा यानि कि ‘वर्क परमिट' का रंग अलग-अलग है। मुसलमानों के वर्क परमिट का रंग हरा है और बाक़ी के लोगों का भूरा हरे रंग वालों के लिए वहाँ सड़कें और इलाक़े तक सुरक्षित हैं। जैसे कि जेद्दाह से ताएफ़ जाने वाली एक सड़क हिन्‍दुस्‍तानी सोचता है कि यह सब कैसे है? ‘इतनी सारी पुलिस, असली पुलिस! इतनी दहशत, फिर भी इतने सारे नकली काम!' (वही, पृ.-123)। लेकिन शायद हमारे इस भोले-भाले हिन्‍दुस्‍तानी को यह इलहाम नहीं है कि कठमुल्‍लेपन के चौराहे से कई ऐसी गलियाँ भी छँटती हैं जो हर तरह के भ्रष्‍टाचार और अनैतिकता में जाकर खुलती हैं। ज़्‍यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं, अपने ही यहाँ इस स्‍थिति को जगह-जगह देखा जा सकता है। दरअसल कठमुल्‍ला व्‍यवस्‍था अपने को इदमित्‍थं मानती है!

जहाँ स्‍वदेशियों के बीच ही इतने सारे विभेद और अनैतिकताएँ मौजूद हों, वहाँ किसी दूसरे देश में घटी किसी साम्‍प्रदायिक घटना की ऐसी प्रतिशोधी प्रतिक्रिया होना स्‍वाभाविक ही है जैसी कि भारत में बाबरी मस्‍जिद के विध्‍वंस के बाद सऊदी अरब में हिन्‍दुओं के प्रति हुई। सऊदी अरब में ही क्‍यों, अन्‍य कई मुस्‍लिम देशों में ऐसा हुआ; जैसे कि पाकिस्‍तान, बांग्‍लादेश आदि। इन देशों के कई शहरों में हिन्‍दू मंदिर जलाए गए। यहाँ तक कि इंग्‍लैंड तक यह आग पहुँची और वहाँ भी मंदिर जलाए गए! जो हो, जेद्दाह में हुआ यह कि वहाँ के मुत्‍तव्‍वे (धार्मिक पुलिस) ने जो भी हिन्‍दू जहाँ भी, जैसे भी पकड़ में आया, उसे बिना किसी गुनाह के पकड़ना और उसके इकामे पर ‘एक्‍ज़िट' की लाल मोहर लगाकर उसे ‘डिपोर्टी' कैम्‍प' में डालना शुरू कर दिया। हिन्‍दुस्‍तानी के साथ भी यही किया गया और कुछ समय बाद उसे सऊदी अरब से निकाल बाहर कर दिया गया! कहानी में एक भारतीय प्रवासी संजय भी है जो वहाँ एक कम्‍पनी में मैनेजर होता है। बाबरी-विध्‍वंस के बाद संजय की बेटी चयनिका का उसके स्‍कूल में बायकाट कर दिया गया। उस पर इल्‍ज़ाम लगाया गया कि अयोध्‍या की मस्‍जिद उसने तोड़ी है, लिहाज़ा क्‍लास के और बच्‍चे उससे बात नहीं करेंगे। यह सब देखकर हिन्‍दुस्‍तानी को यह जो लगने लगता है कि- अयोध्‍या के हादसे का उत्‍तरदायी वह स्‍वयं है, संजय है, अपर्णा है और उनकी पाँच वर्ष की बेटी चयनिका है। (वही, पृ.-125) तो यह ग़लत कहाँ था! सऊदी अरब की व्‍यवस्‍था उसे इसी दशा में तो पहुँचाना चाहती थी !

विश्‍व भर की घटना-परिघटनाओं की विस्‍तृत और गहरी जानकारी

इस कहानी को इतने विस्‍तार में हमने दरअसल इसलिए लिया कि यह देखा जा सके कि हिन्‍दी की प्रवासी कहानी किस तरह हमारी अपनी ही बात को इतने बड़े और व्‍यापक स्‍तर पर कह रही है। तेजेन्‍द्र शर्मा चूँकि पेशे से लम्‍बे समय तक एअरलाइन में रहे हैं अतः विश्‍व-भर की विभिन्‍न घटना-परिघटनाओं की विस्‍तृत और गहरी जानकारी उन्‍हें होना लाज़िमी है। अपनी कहानियों में वे इसका प्रमाण भी देते हैं। तेजेन्‍द्र शर्मा, केवल यह नहीं कि घटना-विवरण या क्रिया-प्रतिक्रिया बता कर रह जाते हैं बल्‍कि यह भी कि यथासंभव स्‍टैंड भी लेते दिखाई देते हैं। वे इस बात से क़तई इत्‍तिफ़ाक नहीं रखते कि हिन्‍दुस्‍तानी होने का मतलब हिन्‍दू होता है, जैसा कि अन्‍दर और बाहर अक्‍सर मान लिया जाता है। जैसे कि इस कहानी का हिन्‍दुस्‍तानी जब जेद्दाह से लौटकर अयोध्‍या की ओर जा रहा होता है तो गाड़ी में मिले एक ‘सज्‍जन' उससे फ़रमाते हैं कि- साहिब हम यही तो कहते हैं। हम पहले हिन्‍दू हैं-हिन्‍दुस्‍तानी बाद में कुछ और। भारतीय तो हमें कई मिले पर हिन्‍दुस्‍तानी आप पहले मिले हैं। हमारी सभ्‍यता, हमारा कल्‍चर, हमारा इतिहास... (वही, पृ.-126)। निश्‍चय ही यह शख्‍़स संघ-परिवार के किसी संगठन से जुड़ा रहा होगा। यह ठीक ही है कि उसे इसकी बात में ‘साम्‍प्रदायिकता की बू आने' (वही, पृ.-127) लगती है।

मुख्‍यभूमि से दूर पहुँचकर ज़्‍यादा हिन्‍दू हो जाना अर्थात एक अन्‍तहीन असुरक्षा-बोध

तेजेन्‍द्र शर्मा प्रवासी भारतीयों की एक कमज़ोर नस पर अपनी कहानियों में ज़रूर ऊंगली रखते हैं, और वह कमज़ोर नस वही है, जिसका अभी उल्‍लेख किया गया। यानि कि भारतीय होने का अर्थ है- हिन्‍दू होना। विदेश में लगभग हर जगह प्रवासी भारतीय निखालस हिन्‍दू होने या हो जाने में गर्व और सुरक्षा का अनुभव करते देखे जाते हैं। वहाँ जाकर और वहाँ रहते हुए न जाने किस अकेलेपन और असुरक्षा-बोध की गिरफ्‍त में वे आ जाते हैं कि धीरे-धीरे घनघोर रूप से धार्मिक, कर्मकाण्‍डी और कठमुल्‍ले हो आते हैं। हिन्‍दुओं में ही नहीं, मुसलमानों में भी यह प्रवृत्‍ति देखने में आती है। असग़र वजाहत ने अपनी कई कहानियों में अपनी विदेश यात्राओं में साबका पड़े ऐसे मुसलमानों की ख़बर ली है। (‘उनका डर' कहानी)। वह चाहे इंग्‍लैंड, अमेरिका, या यूरोप के अन्‍य विकसित देश हों या कोई और कम विकसित या विकासशील देश; भारतीय प्रवासी अधिकांशतः वहाँ जाकर एकदम कट्‌टर हिन्‍दू-जैसे हो लेते हैं। इंग्‍लैंड की ही हम बात करें तो एक बार प्रसिद्ध हिन्‍दी-लेखक विभूतिनारायण राय को अपनी यात्रा के दौरान एकदम यही अनुभव हुआ। यह वाक़या बर्मिंघम की एक संस्‍था ‘गीतांजलि बहुभाषी समाज' के एक कार्यक्रम के अधबीच का ही है जिसमें विभूतिजी को आमंत्रित किया गया था। यह कार्यक्रम ‘तबादला' उपन्‍यास पर ‘इन्‍दु शर्मा कथा सम्‍मान' के सिलसिले की ही एक कड़ी के रूप में था। इस कार्यक्रम में विभूतिजी को जो अनुभव हुआ उसका सार यह है- ‘इन सबके बीच एक दिलचस्‍प बात यह थी कि वे मुख्‍यभूमि से दूर पहुँचकर ज़्‍यादा हिन्‍दू हो गए थे। ...ये लोग वे थे जो विश्‍व हिन्‍दू परिषद के सक्रिय कार्यकर्ता थे या पिछले कुछ वर्षों में विहिप के योजनाबद्ध प्रचार के शिकार बने थे।' (रणभूमि में भाषा; पृ.-52 एवं 56)। तेजेन्‍द्र शर्मा की कहानी ‘पासपोर्ट का रंग' के बुजुर्ग गोपालदासजी आर.एस.एस. के कट्‌टर समर्थक प्रतीत होते हैं जब वे इंग्‍लैंड आकर उस समय के भारतीय प्रधानमंत्री को इस तरह याद करते हैं- ‘ये कोई कांग्रेसी प्रधानमंत्री नहीं है। यह करेक्‍टर वाला बंदा है। आर.एस.एस. का आदमी है। झूठ नहीं बोल सकदा।' (बेघर आँखें; पृ.-141)। अब यह अलग बात है कि कहानी में आगे चलकर समय इस बंदे को कुलमिलाकर झूठा ही साबित करता है और दोहरी नागरिकता का प्रवासियों का सपना धरा का धरा रह जाता है। यह दरअसल सत्‍ता का चरित्र है, जो चीज़ों को लटकाए रखने में ज़्‍यादा यक़ीन रखती है। क्‍योंकि आगे जब सरकार बदलती है और एक दूसरी पार्टी का व्‍यक्‍ति प्रधानमंत्री बनता है तो वह भी लगभग ऐसी ही सिर्फ़ घोषणाबाज़ी करता है और बस। यहाँ देखने की बात यह है कि इन दोनों ही संदर्भों में प्रवासी लोग तर्क और वस्‍तुगतता के स्‍थान पर धार्मिक आस्‍था, पुरातन वैचारिकता, मिथकीयता इत्‍यादि का ही सहारा लेते हैं। जैसे कि नए प्रधानमंत्री के विषय में गोपालदासजी का यह तर्क-“और प्रधानमंत्री भी पंजाबी हैं। खालसे को प्रधानमंत्री के रूप में देखकर गोपालदासजी के मन में उम्‍मीद और गहरी बँधने लगी थी। गुरु साहब ने खालसा बनाया ही इसलिए था कि हमारी रक्षा कर सके।” (वही, पृष्‍ठ-144)।

विदेश गमन की ललक और अवैद्य प्रवास अर्थात देह की कीमत

तेजेन्‍द्र शर्मा अपनी कहानियों में भारतीय लोगों में व्‍याप्‍त विदेश-गमन की ललक को बराबर सामने लाते है। यह ललक कई कारणों से है। कई बार तो इसके पीछे कुछ ठोस कारण होते हैं; जैसे कि बेरोज़गारी और कम आमदनी। जैसे कि ‘अभिशप्‍त' कहानी का रजनीकांत इंग्‍लैंड जाकर सोचता है- अपने वतन में तो ग्रेजुएशन करके भी किसी नौकरी का जुगाड़ नहीं कर पा रहे थे। यहाँ तो कुलीगिरी करके ही, ओवर-टाइम मिलाके दो हज़ार पाउंड महीना कमा लेते हैं। ... एक लाख तीस हज़ार रुपए महीने में! ... अपने देश में तो इतना एक साल में भी नहीं कमा सकते थे। (वही, पृ.-71)। लेकिन बिना किसी तैयारी, विशेष योग्‍यता और उद्‌देश्‍य के केवल ज़्‍यादा पैसे कमाने की भूख, दिखावटी चमक-दमक का सनक-भरा आकर्षण इत्‍यादि आदमी को परदेस में कैसी-कैसी विपत्तियों और विवशताओं में धकेल देता है, इसका उदाहरण यहाँ स्‍वयं यह रजनीकांत, ‘ढिबरी टाइट' का गुरमीत, ‘देह की कीमत' का हरदीप आदि-आदि हैं। इनमें से कई लोग विदेश जाने के ‘इल-लीगल' तरीके अपनाते देखे जा सकते हैं। न केवल इल-लीगल तरीके से कहीं पहुँच जाना बल्‍कि अवैध तरीके से वहाँ निरन्‍तर रहते चले जाना भी! परिणाम यह कि यदि कभी पकड़ लिए गए तो अब तक का सारा किया कराया गुड़ गोबर! वहाँ से बंदे की लाश भी स्‍वदेश नहीं आ पाती! कभी-कभी कुछ आता भी है तो सिर्फ़ पैसा और मुर्दे की अस्‍थियाँ आ पाती हैं।

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रचनाकार: तेजेन्द्र शर्मा विशेष : शंभु गुप्त की विवेचना - कहानी में बार-बार इधर से उधर और उधर से इधर होता समय
तेजेन्द्र शर्मा विशेष : शंभु गुप्त की विवेचना - कहानी में बार-बार इधर से उधर और उधर से इधर होता समय
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