नूतन प्रसाद शर्मा का व्यंग्य - सहानुभूति का नाटक

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सहानुभूति का नाटक वै से उसका नाम दीनदयाल था पर लोग उसे दीनू कहकर पुकारते थे.जैसे आधुनिक साहित्य में भी नाम का विकृतिकरण होना अनिवार्य है ज...

सहानुभूति का नाटक

वैसे उसका नाम दीनदयाल था पर लोग उसे दीनू कहकर पुकारते थे.जैसे आधुनिक साहित्य में भी नाम का विकृतिकरण होना अनिवार्य है जो लेखक रामचंद्र को राम चरण में ,कृष्ण कुमार को किसुन में नहीं बदल सकता वह प्रगतिवादी कहलाने से रहा.दीनू श्रमिक था और उसे किसी ने बताया था कि तुम्हारे नाम में एक लम्बे चौड़ें उपन्यास के मुख्य पात्र बनने क ी पूरी योग्यता है.इसलिए वह नकली नाम से भी संबोधित होने पर बुरा नहीं मानता था.दीनू यदि उच्च वर्गीय होता तो निजी कार से फर्राटे भरता लेकिन वह मजदूर था अतः काम पर जाने के लिए पदयात्रा ही कर रहा था.वह कुछ ही दूर चला था कि एक ट्रक तेजी से आया.और उसे कुचल कर नौ दो ग्यारह हो गया.इसके लिए ट्रक चालक को दाद देनी पड़ेगी.उसने ट्रक को पेड़ या पुलिया पर न चढ़ा कर सीधा आदमी पर चढ़ाया.वहां और भी लोग आ जा रहे थे पर एक को ही रौंदने का मतलब हुआ कि वह आदमी पर ट्रक चढ़ाने का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा था.उसका भविष्य उज्जवल है.जब भीड़ को रौंदेगा तो साहसिक अभियान क ी सफलता के लिए उसे स्वर्ण पदक मिलेगा.चालक का हृदया फूल से भी कोमल थाकि जिसने ट्रक को चढ़ाया पर दीनू को जीवित छोड़ दिया.दीनू भी कम दिलेर नहीं था,जो ट्रक के मार को सह गया.मजदूर वर्ग होते ही ऐसे हैं.वह कठिनाइयों को हसते- हंसते झेल लेता हैं.उसे कभी कष्ट होता ही नहीं.

वहां जो लोग उपस्थित थे.वे शिकायत भरे शब्दों में कह रहे थे-रोड ब्रेकर लगने के बावजूद ट्रक की रफ्तार तेज थी.उन नादानों को तो यह सोचना ही चाहिए कि चालक को लाइसेंस इसलिए मिला रहता है कि वह पूरी रफ्तार से गाड़ी चलाते हुए दो-चार की चटनी बनाये.भारी वाहन से मनुष्य जैसे तुच्छ जीव पीसा गया तो कौन सा अन्याय हो गया.क्या बलवान निर्बल पर शासन नहीं करता या बड़ी मछली छोटी मछली को अभयदान दे देती है ? कमसे कम उस चालक को ट्रेण्ड कहलाने का मौका मिलना ही चाहिए.

दीनू ट्रक के नीचे आया याने उसकी इच्छा रही होगी.इस प्रकार की आशंका इसलिए व्यक्त की जा रही है,कि अपने प्यारे देश में भले ही सुख सुविधाएं न जुटा पाये पर मृत्यु को कभी भी गले लगा सकते हैं.चांवल दाल खरीदने के लिए रुपए खर्च करने पड़ते हैं पर मौत तो उपहार में मिल सकती हैं.इस दूर्घटना की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि यह शहर के बीचोंबीच घटी.यही कांड निर्जन स्थान में घटता तो कोई जान भी नहीं पाता यहां उसे देखने और सहानुभूति प्रदर्शित करने लोगो की भीड़ तो लग गयी.

दीनू बच गया था इसलिए कराह भी रहा था वह भीड़ की ओर कातर द्य्ष्टि से देखते हुए सहायता की भीख मांग रहा था- मुझे ट्रक ने कुचल डाला बचाओ....।

उसकी करुण आवाज लोगो के हृदय को पिघलने विवश कर रही थी.कईयों के बर्फ की तरह ठोस हृदय पानी पानी हो गए शुक्र है कि गैस बन कर उड़े नहीं वरना वैज्ञानिक उन पर शोध करने की ठान लेते.दीनू मर्मांतक पीड़ा से कराह रहा था तो लोग भी नैतिक नियम पालन करने से क्यों चूकते- वे दीनू को सांत्वना तथा अनुपस्थित ट्रक चालक पर आक्रोश व्यक्त कर अपना फर्ज अदा कर रहे थे.वहां एक से बड़कर एक मानवसेवी थे,जिनमें दीनू को सहायता पहुंचाने की होड़ लगी थी.सबसे पहले एक पत्रकार सामने आया.भीड़ के विरुद्ध अखबार में समाचार छापने की धमकी दी तब कहीं वे दीनू के पास आ सके.वे जिस समाचार पत्र के लिए काम करते हैं पहले दो पृष्ट का निकलता था पर उनके सनसनी खेज समाचारों नेवह कमाल दिखाया कि आज वह बीस पृष्ठीय हो गया.उनने चश्मा चढ़ाया.डायरी पेन निकाली और दीनू से पूछने लगा- तुम्हारा नाम क्या ,कहां जा रहे थे ...?

दीनू दर्द से बिलबिलाया. कहा- पहले मेरी चिकित्सा तो कराइये. मेरे प्राण निकलने वाले है...।

पत्रकार ने शहद चटाया- भैया,तुम मुझे नहीं जानते.मैं पत्रकार हूं.तुम पर जो अत्याचार हुआ उसे अखबार के मुख्य पृष्ट पर स्थान दिलवाउंगा. बिना कुछ बताये तुम्हें कुछ हो गया तो ट्रक चालक के विरुद्ध कोई मामला नहीं बनेगा,इसलिए साफ साफ बता दे...।

- पहले मुझे स्वस्थ हो जाने दीजिए.

- ओफ्फ ,तुम समझते क्यों नहीं! मुझे आज ही सम्पूर्ण विवरण अखबार में भेजना हैं.तभी लोग कल के अखबार मे पढ़ेंगे.

- तो जल्दी लिखये - मेरा नाम दीनू है मैं कारखाना जा रहा था.

- कारखाना ही क्यों ,सिनेमा टाकीज या क्लब जाने से काम नहीं बनता.

- मैं कारखाने अपनी ड्यूटी पर उपस्थित होने जा रहा था.

- तुम्हारे मालिक का नाम क्या है ?

- उनसे क्या मतलब ?

- मतलब कैसे नहीं ,उनकी चमड़ी उधेड़नी पड़ेगी.उनका एक कर्मचारी गंभीर रुप से जख्मी हो गया वे मुंह दिखाने तक नहीं आये.

- वे नहीं तो आप है ,आप मुझे अस्पताल ले चलिए.

- हां- हां, ले चलूंगा.अपना कर्तव्य थोड़े ही भूल जाऊंगा.

पत्रकार की कलम तेजी से चल रही थी कि फोटोग्राफर कूद पड़ा.उसने पत्रकार से कहा -भाई साब, मुझे दीनू की पोज तो लेने दीजिए.समाचार के साथ चित्र भी छपेगा तभी तो सनसनी खेज समाचार फैलेगा.

पत्रकार हट गये.फोटोग्राफर ने दीनू से कहा- चोट कहां अधिक लगी है...।

- चोंट सभी जगह लगी है.देखिए न हिल भी नहीं पा रहा हूं..।दीनू ने कराहते हुए कहा.

- हिलोगे-सरकोगे चोंट वाली जगह को दिखाओगे तभी तो एवन का पोज आयेगा.

फोटोग्राफर विभिन्न कोणों से पोज लेने लगा.उसका काम पूरा भी नहीं हो पाया था कि वकी ल साहब ने उसे फटकार सुनायी-तुम पक्के धूर्त हो.बेचारे दीनू अंतिम सांसे गिन रहा है और तुम्हें चित्र लेने की पड़ी है.जब उसकी जान बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं करनी है तो अपनी राह नापो...। वे भीड़ की ओर उन्मुख होकर बोले- है कोई माई का लाल जो ट्रक का नंबर तथा ट्रक चालक का पता लगाये.जो यह कार्य पूरा कर दिखायेगा उसे मैं अपना सहायक बना लूंगा.

कई बेरोजगार ट्रक का पता लगाने दौड़े वे आज तक नहीं लौटे हैं या तो वे ट्रक की चपेट में ले लिए होंगे या उन्हें खरीद लिया गया होगा.साहब का परिचय देना अनिवार्य है कि उसने न कभी पुस्तकें घोल कर पी न कभी बहस में भाग नहीं लिया.सीधा गवाह को तोड़ कर जीत का सेहरा अपने मुव्वकिल के सिर पर बांध देते हैं.वे श्रद्धांजलि देने के स्वर में बोले- कितने दुख की बात है कि ट्रक ने दीनू को रौंदकर रफूचक्कर हो गया.इससे साफ पता चलता है कि ट्रक चालक को कानून का जरा भी ज्ञान नहीं था.नहीं तो ट्रक को आरक्षी केन्द्र पहुंचाता. दीनू के उपचार का खर्च भी नहीं उठाया मानवता के नाते अस्पताल में भर्ती ही करा देना था.

दीनू में बोलने की शक्ति नहीं थी .पर अस्पताल का नाम सुना तो उसके मुंह से ये शब्द बरबस निकल पड़े- साहब,आप ही मुझे अस्पताल ले चलिये...।

वकील ने सांत्वना दी-हां-हां, ले चलूंगा. मैं क्रूर नहीं हूं कि एक व्यक्ति को तड़फता देखकर भी अपना कर्तव्य छोड़ कर दूसरों की तरह भाग जाऊं. जब तक हमारे जैसे लोग रहेंगे.इंसानियत की मौत नहीं होगी.

- मगर मैं तो मर रहा हूं.

- तुम कभी नहीं मर सकते. बइ दवे ऐसा हो भी गया तो तुम्हारी तरफ से फ्री आफॅ चार्ज अदालत लड़ूंगा और देख लूंगा उस ट्रक वाले को.मैं इस भीड़ के सामने गीता की कसम खाता हूं-अपराधी को कारावास नहीं भिजवाया तो पैरवी करना छोड़ दूंगा....।

तभी थानेदार प्रकट हुए.ये साहब ऐसे थे कि जब तक खूनी मामला उठ खड़ा नहीं होता दर्शन ही नहीं देते.एक बार मुखबिर ने उन्हें बताया कि सर, दो दल लड़ने के लिए ताल ठोंक रहे हैं आप उन्हें समझाइये वर्ना खून की नदी भी बह सकती है.

थानेदार ने उसे डांटा- बेवकूफ,जब लड़ाई शुरु नहीं हुई है तो कैसे चलूं.पहले से उन्हें समझाकर कानून का गला घोंट दूं.पहले उन्हें लड़ने मरने दो फिर उन्हें समझाऊंगा.यदि नहीं मानेगे तो बलवा का आरोप लगा कर थाने में बंद कर दूंगा तब तो उनकी नाड़ी ठंडी होगी.

थानेदार ने स्वभावतः दीनू को एक लात लगायी फिर गुर्राये- साले,तुम्हें मरने का जादा ही शौक था तो अपने घर में मरना था बीच सड़क में प्राण देने की क्या आवश्यकता थी.बेमतलब रास्ता जाम कर दिया. दीनू तो नहीं बोला पर एक भले मानस ने स्थिति स्पष्ट कर दी.कहा- सर, दीनू को घायल होने की कतई इच्छा नहीं थी.वह अपने काम पर जा रहा था कि ट्रक ने टक्कर मार दी.

- मारेगा क्यों नहीं,सही रास्ते पर क्यों था?

- नहीं सर दीनू तो ठीक रास्ते पर था गलती तो ट्रक चालक की है.

- तो साफ साफ बताया क्यों नहीं ?

- दीनू स्वयं अचेतावस्था में है,वह कैसे बतायेगा...?

थानेदार की बुद्धि लौटी.शायद इतने समय तक घास चरने गयी थी.उनने कहा- मेरे रहते इतना बड़ा अनर्थ.जब मुझे भी नहीं समझा तो देख लूंगा...साले को.उसका ट्रक जप्त कर सड़ा दूंगा.यही नहीं उसे थाने में बंद कर ऐसी यातनाएं दूंगा कि उसे ज्ञात हो जायेगा दूसरों को पीड़ा पहुंचाना कैसे होता है.उनने भीड़ से कहा- मैं एक मामले की छानबीन करने जा रहा हूं.इस बीच दीनू स्वर्ग वासी हो गया तो मुझे बुला लेना पंचनामा का काम मेरी उपस्थिति में ही संपन्न होगा न ?

दीनू की नाड़ी प्रतिपल डूब रही थी.उस पर मक्खियों का आक्रमण हो चुका था.लोग सहानुभूति प्रदर्शित करने में कोई कमी नहीं कर रहे थे.उनके मुंह से हाय और आह की आवाजे निकल रही थी.वहीं पर एक डाक्टर भी थे.वे कई बार यमदूतों से मल्लयुद्ध कर उनके द्वारा अपहृत जीवों को मुक्ति दिला चुके थे. दीनू की गंभीर स्थिति देखकर वे पीड़ा से कराह उठे-ओह! इस बेचारे का कितना लहू निकल चुका है.जितने लोग यहां खड़े है वे एकएक बूंद खून दे दीनू पुर्नजीवन पा जाये.

नवयुवको ने सुना तो उनका खून दानी बनने के लिए उछलने लगा.वे बोले - भारत के नवयुवक कायर और बुजदिल नहीं है.वह रक्तदान करने से नहीं घबराते .हम अपना खून देने सहर्ष तैयार है.आप चाहे तो ब्लेड से चीर कर निकाल ले.

- यहां कैसे बनेगा.जख्मी को अस्पताल ले जाना पड़ेगा.उसे आक्सीजन की भी आवश्यकता है.

एक व्यापारी ने उत्साह दिखाया- डाक्टर साहब,किसी भी स्थिति में दीनू को बचा लीजिए.जितने रुपए लगेगे मैं दूंगा.आखिर इन्हीं गरीबों से इनकी सेवा करने के लिए तो ही मैंने धन कमाया है.

डाक्टर की भृकुटि टेढ़ी हो गई- धनी के बच्चे,तू मुझे कंगाल समझता है.क्या मैं कमाये रुपये को एक गरीब मरीज पर फूंक नहीं सकता ! पर काम थ्रो प्रापर चेनल से होना चाहिए. पहले इसकी सूचना थाने में देनी पड़ेगी. वहां से वह केश मेरे पास आयेगा.तब देखना मेरा कमाल मैं दीनू को बचाने के लिए अपनी जान भी दांव पर लगा दूंगा..।

उस भीड़ में एक समाज सेवक भी था.वे असहाय पीड़ितों की सेवा करने बिना जूता पहने दौड़ जाया करते थे.एक बार एक ट्रेन दूर्घटनाग्रस्त हो गई.वे चेले चपाटों के साथचल पड़े आहतों की सेवा करने वहां जाकर यात्रियों की भरपूर सेवा की वाह रे कलयुग,उन पर बदनामी मढ़ दी कि समाजसेवक व उनके शिष्यों ने यात्रियों की सहायता करने के साथ साथ उनके माल असबाब लूट लिए यद्यपि समाज सेवक ने ये बात सुनकर इसलिए अनसुनी कर दी क्योंकि कुत्ते हजार भौंकते हैं पर हाथी बाजार जाने से बाज नही आता.

इस वक्त वे तमतमाये हुए तथा पत्रकार,थानेदार, डाक्टर की लापरवाही पर शर्म-शर्म की नारे लगा रहे थे.उनका मुंह बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा था.जाने इस देश को क्या हो गया है कि हर कोई भाषणबाजी पर उतर आते हैं.एक आदमी मौत से जूझ रहा है और लोग है कि तमाशा देख रहे हैं.जब दीनू को बचाने का कोई उपाय नहीं किया जा रहा है तो हम उसके विरोध में प्रदर्शन करेंगे. शहर बंद करने के लिए नागरिकों को बाध्य करेंगे. और करेंगें चक्काजाम पर दीनू को न्याय दिलाकर रहेंगे.

लोगो के कान में ये जोशीले शब्द घुसे तो वे समाजसेवक को मसीहा कहकर उनका जय जयकार करने लगे.उनकी पद -धूली लेने की होड़ में धक्का मुक्की हो गई.इसी बीच दीनू के प्राण पखेरु कब फूर्र से उड़े किसी को पता नहीं चला.वो तो डाक्टर साहब सहृदय थे जिनने उसके मरने की वैधानिक पुष्टि कर दी.उपस्थित जनसमुदाय अफसोस करने लगा कि मृत्यु निश्चित है पर बेचारा दीनू असमय ही मर गया.हमें सेवा करने का अवसर भी नहीं मिला.जब वे सभी प्रकार से असमर्थ हो गये तो वे दीनू के खून को अपने माथे पर लगाया और यह कहते हुए घर लौट गये कि जब तक ट्रक वाले से प्रतिशोध नहीं लेंगे तब तक दीनू के लाश को उठने नहीं देगें चाहे उसमें कीड़े ही क्यों न लग जाये.....।

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नूतन प्रसाद शर्मा
जन्‍म - 20-10 - 1945 ; बीस अक्‍टूबर उन्‍नीस सौ पैंतालीस द्ध
पिता - स्‍वर्गीय पंडित माखन प्रसाद शर्मा
माता - स्‍वर्गीया श्रीमती नरमद शर्मा
पत्‍नी - श्रीमती हीरा शर्मा
जन्‍म स्‍थान व पता -
भंडारपुर करेला, पोष्ट - ढारा
व्‍हाया - डोंगरगढ, जिला - राजनांदगांव ; छत्‍तीसगढ़
प्रकाशित कृतियां - छत्‍तीसगढ़ी गरीबा महाकाव्‍य
सपने देखिये व्‍यंग्‍य संग्रह
लेखन, प्रकाशन एवं प्रसारण - वर्श 1970 से सतत व्‍यंग्‍य, लघुकथायें, गीत इत्‍यादि विधाओं पर लेखन व देश के प्रतिष्ठित अनेक पत्र प्रत्रिकाओं में अनेक रचनाओं के प्रकाशन के साथ आकाशवाणी रायपुर से अनेक रचनाओं का प्रसारण;
संप्रति - सेवानिवृत प्रधान पाठक
आगामी प्रकाशन - व्‍यंग्‍य संग्रह

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रचनाकार: नूतन प्रसाद शर्मा का व्यंग्य - सहानुभूति का नाटक
नूतन प्रसाद शर्मा का व्यंग्य - सहानुभूति का नाटक
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