विजेंद्र शर्मा की समीक्षा - ख़ाकी में लिपटी संवेदनाएं हैं... “ वो तीन दिन ”

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  ख़ाकी में लिपटी संवेदनाएं हैं... “ वो तीन दिन ” पिछले दिनों राजधानी की मसरूफ़ सड़कों पर हुआ हैवानियत का नंगा नाच फिर पूंछ में एलओसी पे पाक स...

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ख़ाकी में लिपटी संवेदनाएं हैं... “ वो तीन दिन ”

पिछले दिनों राजधानी की मसरूफ़ सड़कों पर हुआ हैवानियत का नंगा नाच फिर पूंछ में एलओसी पे पाक सेना की ना-पाक हरकत और उसके बाद झारखंड के लातेहार में सी.आर.पी.ऍफ़ के सत्रह जवानो का अपने घर के ही दुश्मन माओवादियों द्वारा की गयी बर्बरता पूर्ण कार्यवाही में शहीद हो जाने जैसे तमाम हादसात ने मन को व्यथित कर दिया।ऐसी अजीबो-गरीब फ़िज़ां में भीतर की बैचैनी बड़ी शिद्दत के साथ सुकून तलाशने के काम को अंजाम दे रही थी कि इतेफ़ाक़न कुरियर वाले ने एक लिफ़ाफ़ा थमाया और जब इसे खोल कर देखा तो ख़ूबसूरत कवर के लिबास में सजी एक किताब मिली जिस पर लिखा था.. “वो तीन दिन”....

“ वो तीन दिन “ दरअस्ल इंसान दोस्त ,बेहतरीन शाइर और पंजाब पुलिस के उप महानिरीक्षक मोहम्मद फ़ैयाज़ फ़ारूक़ी साहब के लिखे अफ़सानों (कहानियों ) का मजमुआ (संग्रह ) है। युवा रचनाधर्मी रीताज़ मैनी ने किताब का आवरण पृष्ठ बनाने से पहले यक़ीनन इस मजमुए की एक – एक कहानी को अहसास के प्यालें में पीया होगा तभी तो वे ऐसे मनमोहक कवर की तामीर ( निर्माण ) कर पाए। सबसे पहले भाई रीताज़ को उनके इस रचनात्मक काम के लिए मुबारकबाद देता हूँ। रीताज़ मैनी मेरे लिए एक वो बुलंद मचान हैं जहां से फ़ैयाज़ फ़ारूक़ी जैसी क़द्दावर और अदबी शख्सीयत को मैं क़रीब से देख पाया।

कहने को तो 95 पन्नों को एकसाथ जोड़कर किताब की शक्ल में ढाल दी गयी “वो तीन दिन ” , एक कहानी संग्रह है मगर जब इसे पढ़ा तो इस नतीजे पे पहुंचा कि “वो तीन दिन ” में वो मादा है जो आम आदमी को ख़ाकी की जानिब नज़रिए के साथ – साथ अपनी ज़हनीयत तक बदलने के लिए मजबूर कर सकता है।

किताब का पहला सफ़्हा (पृष्ठ ) पलटते ही पढ़ने को मिलता है कि ये मजमुआ “ इंसानियत और माँ को समर्पित है जिनसे क़ीमती इस दुनिया में कोई दौलत नहीं है “ यानि पहला पन्ना ही किताब को मन से पढ़ने की कैफ़ीयत पैदा कर देता है।

किताब की इब्तिदा में कथाकार ने अपनी बात को “मैं सोचता हूँ “ के उन्वान (शीर्षक ) से लिखा है। फ़ैयाज़ साहब लिखते हैं कि पुलिस के असंवेदनशील होने की एक वाजिब वज़ह ये है कि ज़िंदगी के बदसूरत पहलू से पुलिस मुसलसल जूझती रहती है और लगातार बुराई का सामना करने के कारण मुजरिमों और आम शहरियों के बीच पुलिस वाले फ़र्क करना भूल जाते हैं। फ़ैयाज़ साहब के इस तर्क से बिना किसी किन्तु-परन्तु के इतेफ़ाक रखा जा सकता है !

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(फ़ैयाज़ फ़ारूक़ी)

कहानी का अपना एक मनोविज्ञान होता है। किसी क़िस्से की मूरत को अपने तजुर्बात और तसव्वुर के छेनी – हथौड़े से गढ़ना उतना आसान नहीं होता जितना हमे पढ़ते वक़्त लगता है ! एक अफ़साने को जब अफ़साना निगार गढ़ने लगता है तो ना जाने उसमे से कितने और अफ़साने निकल आते हैं।

एक हुनरमंद क़िस्सागो (कथाकार) अफ़साना तो बयान करता ही है उसके साथ –साथ कारी (पाठक) के सामने कुछ सवाल भी छोड़ जाता है और चुपके से अपने क़िस्से में लपेट कर एक सन्देश भी दे जाता है। एक मुकमल कहानी की तमाम ख़ूबियाँ “वो तीन दिन “ के अफ़सानों में देखी जा सकती हैं। फ़ैयाज़ फ़ारूक़ी मूलतः शाइर हैं मगर उनके कथा–संग्रह “ वो तीन दिन “ को पढ़ने के बाद लगता है कि उनकी शाइरी की फ़िक्र जितनी गहरी नज़र आती है उसी मेयार के फ़िक्रों-फ़न का दीदार उनकी कहानियों में भी होता है।

“ वो तीन दिन “ में चार कहानियां हैं। भारतीय पुलिस सेवा से जुड़ने या यूँ कहूँ ख़ाकी पहनने से पहले बाहर से खूंखार नज़र आने वाली पुलिस के प्रति जो फ़ैयाज़ साहब की सोच थी वो किस तरह तब्दील हुई , किस तरह उन्हें ज़माने को दिखाई ना देने वाले ख़ाकी के पीछे छिपे दर्द का अहसास हुआ और ना जाने कितनी गुज़ारिशें इंसाफ़ के लिए गुहार करते–करते उनके सामने दम तोड़ गयी “वो तीन दिन “ के अफ़सानों में इस तरह के तमाम ज़ाती तजुर्बात संवेदना की सियाही से फ़ैयाज़ साहब ने काग़ज़ पर उकेरे हैं।

पहली कहानी का शीर्षक है “वो तीन दिन “...जिसमे कहानी का मुख्य किरदार कबीर अहमद है जो आई.पी.एस की तरबीयत (ट्रेनिंग ) के दौरान तीन महीने के लिए पंजाब के फीरोज़पुर शहर में एस.एच.ओ की ड्यूटी कर रहा है। तरबीयत ख़त्म होने के आख़िरी तीन दिनों में कबीर अहमद के साथ जो घटित होता है “वो तीन दिन“ उसी घटना का एक ख़ूबसूरत चित्रण है। अपनी कहानी में फ़ैयाज़ साहब पुलिस की ड्यूटी से लेकर उसकी पूरी कार्य –प्रणाली की तस्वीर इतनी खूबसूरती से बनाते हैं कि पूरा किस्सा एक फिल्म की तरह चलता नज़र आता है। कहानी का किरदार कबीर अहमद अर्दली को चाय का हुक्म जब इस अंदाज़ में देता है तो वो भी हैरान हो जाता है “अगर आपको एतराज़ न हो तो मुझे एक कप चाय पीला दीजिये “” ...अर्दली मंद- मंद मुस्कुराता है और वज़ह पूछने पर बताता है की जनाब अफ़सर कभी इतने सलीके से बात कहाँ करते है। फ़ैयाज़ साहब कहानी में किरदार के अन्दर की ज़ाती तहज़ीब को बड़ी ख़ूबी से दर्शाते है और साथ में पुलिस महकमे में अधिकारियों के अपने मातहतों के प्रति अक्सर किये जाने वाले व्यवहार पर भी प्रहार करते हैं। एक पेट्रोल पम्प पर हुई लूट की वारदात , पम्प पर काम करने वाले कारिंदे के क़त्ल की गुत्थी को सुलझाने से लेकर एक जांबाज़ अफ़सर की अपने फ़र्ज़ के प्रति समर्पण के ताने –बाने से संवरी ये कहानी आख़िर तक पाठक की आँखों को किताब के पन्नों से अलग नहीं होने देती।

इसी कहानी की ये पंक्तियाँ पुलिस के प्रति हमे अपना नज़रिया बदलने के लिए विवश करती हैं “ बाहर से कठोर और खौफ़नाक व्यक्तित्व वाले यही पुलिस वाले अपने बच्चों से मिलने की ख़ातिर एक – दो दिन की छुट्टी के लिए भी कैसे गिड-गिडातें हैं। जब सारे सरकारी कर्मचारी त्योहारों पर अपने बच्चों के साथ खुशियाँ मना रहे होते है तब जगमगाती सड़कों और रौशन बाज़ारों में ड्यूटी पर तैनात सिपाही की आँखों की वीरानी पर शायद ही किसी की नज़र पड़ी हो। पुलिस वालों के बच्चे किसी भी तीज–त्यौहार पर अपने पिता के साथ खुशियाँ मनाने की हसरत लिए ही बड़े हो जाते हैं।”

“वो तीन दिन “ संग्रह की दूसरी कहानी है “एक सिपाही “ ...इस कहानी में एक सिपाही के भीतर की टीस को फ़ैयाज़ साहब ने अफ़साना बनाकर अपने सशक्त अफ़साना–निगार होने के पुख्ता सुबूत दिए हैं। इस कहानी में पुलिस का सिपाही जब कप्तान साहब के सामने पेश होने के लिए लेट हो रहा होता है तो वो ऑटो वाले से जल्दी चलने की गुज़ारिश करता है और बाकी सवारियों के भी पैसे उसकी जेब में डाल देता है यहाँ इस तरह के जुमले के इस्तेमाल से कहानी में सच का बेबाकी से प्रयोग होना प्रमाणित होता है :-- “”आम दिनों में थप्पड़ मार कर पैसे छीन लेने वाले पुलिस मुलाज़िम से यात्रा के पैसे मिल जाने पर ऑटो वाले को यक़ीन ही नहीं हो रहा था।“ इस कहानी का अंत भी फ़ैयाज़ साहब बड़ी ख़ूबसूरती से करते हैं।

“वो तीन दिन “ की तीसरी कहानी को लघु–कथा की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक शाइर होने का पूरा फ़ायदा फ़ैयाज़ साहब अपनी कहानियों में शानदार और मानीखेज़ जुमलों का इस्तेमाल करके उठाते है। इस कहानी का शीर्षक “जाती धूप है “ शाइर दो मिसरों में पूरी सदी की दास्तान बयान करने का हुनर जानता है इसीलिए इस कहानी के अन्दर एक जुमला पूरी कहानी का सार बता देता है : -- “ये वक़्त भी बड़ा ज़ालिम है किसी का भी सुरूर बाकी नहीं रहने देता , कब कौन इसकी ज़द में आ जाए पता ही नहीं लगता !” इस कहानी को फ़ैयाज़ साहब उस वक़्त अंजाम का जामा पहना देते हैं जब लगने लगता है कि आगे कुछ और आयेगा। मुझे लगा कि इस दमदार और मज़बूत बुनियाद पर और ऊंची इमारत बनाई जा सकती थी।

“वो तीन दिन “ कथा-संग्रह की अंतिम कहानी “मोती समझ के शान –ए – करीमी ने चुन लिए “ उन्वान से है जो कि इस पूरे मजमुए की रूह है। इस अफ़साने में फ़ैयाज़ साहब पाठकों को एक साथ दो मनाज़िर ( दृश्यों ) से रु-ब-रु करवाते हैं। एक अच्छे क़िस्सागो की ख़ुसूसियत (विशेषता ) यही होती है कि वो जब किसी मंज़र का खाका खींचता है तो सुनने या पढने वाले को लगता है कि वो सीन उसकी आँखों के सामने घटित हो रहा है। क़िस्सागोई का ये फ़न फ़ैयाज़ फ़ारूक़ी साहब की कहानियों के हर पहलू में नज़र आता है। इस अफ़साने में फ़ैयाज़ साहब एक तरफ़ एसएसपी कबीर अहमद की ज़ाती (निजी) ज़िंदगी से लेकर उसके सरकारी काम काज को करने के तरीके दिखाते हैं ,दूसरी तरफ़ समानान्तर में पूर्वी उतर-प्रदेश के दूर दराज़ के गाँव की सामंती वयवस्था में मुफ़लिसी से जूझ रहे एक दलित किसान सरजू और उसके इर्द-गिर्द के ताने-बाने को अपनी शानदार अफ़साना-निगारी के फ़न से काग़ज़ के धरातल पर जीवित कर देतें हैं। इस कहानी को पढ़ते वक़्त शुरुआत में तो ये लगता है कि आख़िर लेखक चाहते क्या है ? कहानी में एक और कहानी को देख पाठक के मन में एक उलझन सी पैदा हो जाती है मगर अंत में फ़ैयाज़ साहब एक मंझे हुए खिवैये की तरह अपनी दोनों नावों को एक साथ एतबार के उस किनारे पर हिफाज़त से पहुंचा देते हैं जहां पहुँचकर दोनों कश्तियों के सवार एक स्वर में बोल उठते हैं “ हे परवरदिगार तुम भी क्या ख़ूब हो जो मज़लूमों की आँख से निकले दर्द को मोती समझ कर चुन लेते हो “। ये कहानी हमारे समाज, हमारे गिरते हुए मानवीय मूल्यों और हमारे लचर निज़ाम पर संयमित भाषा में ना जाने कितने तंज़ कर जाती है।

इस अफ़साने में मुख्य किरदार कबीर अहमद ,आईपीएस एस.एस.पी से उप महानिरीक्षक हो जाता है मगर ख़ाकी में लिपटा उसका हस्सास ( संवेदना ) फीका नहीं पड़ता। फ़ैयाज़ साहब की ये कहानी सूखी हुई आँखों का परिचय नमी से करवाने का हुनर रखती है इसके अलावा हमे इंसानियत का वो सबक सिखाती है जिसकी आज के दौर में सबसे ज़ियादा ज़रुरत है।

अपने आप में बहुत से मआनी समेटे हुए ख़ूबसूरत जुमलों का इस्तेमाल फ़ैयाज़ साहब ने अपनी कहानियों में किया है जो किस्सों में और दिलचस्पी पैदा करते हैं। मिसाल के तौर पे ये जुमले देखें :-- “”रामू काका को हालांकि वोट के बारे में कुछ भी पता नहीं लेकिन उन्हें इतना समझ आ गया था की वोट ज़रूर कोई ऐसी चीज़ है जो अमीर को भी ग़रीब की चौखट पर झुका सकती है।””, “”जज़्बात की शिद्दत से उसकी आवाज़ भर्रा रही थी और फिर उसकी आँखों में क़ैद दरियाओं ने भी अपने किनारे तोड़ दिए। “”

मूलतः ये कहानियां उर्दू में लिखी गयी है और ये कथा-संग्रह नागरी में मूल कहानियों का तर्जुमा है वैसे भी हिंदी और उर्दू इस तरह आपस में गुंथी हुई हैं कि इन्हें अलग करना नामुमकिन है अगर दोनों ज़ुबानों में कोई बड़ा फ़र्क है तो वो है लिपि का फ़र्क।

फ़ैयाज़ साहब ने आख़िरी किस्से में पूर्वी उतरप्रदेश के कुछ आंचलिक जुमलों का इस्तेमाल किया है जैसे “का रे कमला यहाँ क्यूँ बैठी हो ?”’...”इ बताओ इ का तमासा हो रहा है ?”” इस तरह के आंचलिक जुमले यक़ीनन अफ़सानों में आब पैदा करते है मगर “वो तीन दिन “ के तमाम क़िस्सों में उन्होंने पंजाब पुलिस के अपने मातहतों से गुफ़्तगू में ज़रा भी पंजाबी के वाक्यों का प्रयोग नहीं किया। मुझे लगा कि अगर कबीर अहमद साहब अपने इंस्पेक्टर या अपने किसी सिपाही से हुई बातचीत में थोड़े पंजाबी के जुमले इस्तेमाल किये जाते तो क़िस्से और जीवंत हो जाते।

अपने ज़ाती तजुर्बात ( निजी अनुभवों ) और वक़्त के साथ – साथ धूमिल हो गयी अपनी यादों के कैनवास पर बनी तस्वीर को क़िस्सों के रंग से फिर से एक ताज़ा तस्वीर बना “ वो तीन दिन “ जैसा अनमोल कथा–संग्रह फ़ैयाज़ साहब ने पाठकों को दिया है।

इन चारों कहानियों के बारे में तफ़सील से मैंने इस लिए नहीं बताया कि जब आप ये कहानियां पढ़े तो ये ना कहें कि आगे ऐसा होगा ,आगे वैसा होगा और जिस तन्मयता, तल्लीनता के साथ मैंने इन्हें पढ़ा आप भी इन्हें वैसे ही पढ़ सकें।

साहित्य का वातावरण जहां इन दिनों कुछ शौहरत पसंद अदीबों की वज़ह से प्रदूषित होता जा रहा है ऐसे माहौल में फ़ैयाज़ फ़ारूक़ी की क़लम से इंसानियत और संवेदना की ये इबारत निश्चित तौर पे एक ख़ुशगवार फ़िज़ां बनाएगी। कहानी के नाम पर अश्लीलता और फुहड़ साहित्य परोसने वालों की लेखनी को ये मजमुआ यक़ीनन सही राह दिखा सकता है क्यूंकि “ वो तीन दिन “ की कहानियां हमारे भीतर अहसास की बंजर हो चुकी ज़मीन पर भी संवेदना के बीज फिर से अंकुरित करने की क्षमता रखती है।

फैज़ अहमद फैज़ लिटरेरी फाउन्डेशन लुधियाना ने इस नायाब कथा –संग्रह को प्रकाशित किया है। फ़ैयाज़ फ़ारूक़ी साहब को इस पते पर ईमेल कर किताब के बारे में और मालूमात हासिल किये जा सकते हैं faiyyaz16@yahoo.co.in

मुझे उम्मीद ही नहीं बल्कि पूरा विशवास है कि अफ़सानों का ये गुलदस्ता “वो तीन दिन “ अदबी हल्कों में अपनी अल्हेदा पहचान बनाएगा और फ़ैयाज़ फ़ारूक़ी साहब जो पहले एक इंसाफ़ पसन्द पुलिस अफ़सर और बतौर शाइर जाने जाते थे अब उनकी शनाख्त एक उम्द्दा अफ़सानागो (कथाकार ) की हैसीयत से भी होगी।

क़िस्से के हर लफ़्ज़ में , लिपटी जग की पीर।

अफ़साने फ़ैयाज़ के , दिल को जायें चीर।!

विजेंद्र शर्मा

Vijendra.vijen@gmail.com

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रचनाकार: विजेंद्र शर्मा की समीक्षा - ख़ाकी में लिपटी संवेदनाएं हैं... “ वो तीन दिन ”
विजेंद्र शर्मा की समीक्षा - ख़ाकी में लिपटी संवेदनाएं हैं... “ वो तीन दिन ”
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