मंजुला सक्सेना की कविताएँ

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मैं सपने देखती हूँ इस जहां में कोई ऐसा छोर होगा जहां न भीड़ होगी और न ही शोर होगा . मधुर एकांत होगा और निर्भय शान्ति होगी न होगी भूख और न प...


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मैं सपने देखती हूँ इस जहां में कोई ऐसा छोर होगा
जहां न भीड़ होगी और न ही शोर होगा .
मधुर एकांत होगा और निर्भय शान्ति होगी
न होगी भूख और न प्यास होगी
न तू होगा न मैं ,न ही कोई संवाद होगा
धरा निशब्द होगी और गगन भी मौन होगा .

२५-२-०९

मैं भीनी रात सी इस आसमान में छ रही हूँ
कुहुक मल्हार सा उर में गगन के गा रही हूँ .

सच

कौन कहता है सच सुना उसने ?
कौन बोला है सच ज़माने से ?
एक चुप्पी है राज़ रहती है
बात बन जाती है ज़माने में .


२५-२-०९


घास

मरती हूँ बार बार जन्म नए लेती हूँ
रुन्दती हूँ आहत हो प्राण वायु देती हूँ 

अभेदानंद

तुम हो अम्बर
मैं दिगंबर
भेद कैसा नाथ !
मोक्ष हो तुम
मुक्ति हूँ मैं
ऐसा अपना साथ .

२५-२-09
तुम बंदी हो  अहंकार के तुम ईश्वर कैसे पाओगे ?
तुमने कितनी कलियाँ नोची कितने फूल मसल कर रौंदे .
तुम भंवरे से भटक रहे हो तुम खुश्बू कैसे पाओगे ?
दाने प्रलोभनों के फेंके मधुर शब्द के जाल बिछाए
तन के आकर्षण में उलझे तुम मन को कैसे पाओगे ?
मन का पंछी ढूंढा करता सत्यनिष्ठ विश्वास भरा मन
तुम शैवाल नदी तट के हो एक लहर में बह जाओगे .
रास रचाने को तो तत्पर पर क्या प्रीति निभा पाओगे ?
भोग- स्वार्थ के वशीभूत हो क्या खा योगी बन पाओगे ?

5-4-09


मोहभंग

मोहभंग का हर अनुभव अच्छा लगता है
मुक्ति का अहसास बहुत अच्छा लगता है
मुझे मृत्यु ने इतना प्यार दिया है
जीवन का अनुभव सपना लगता है
रंग बदलते चेहरे भी अच्छे लगते हैं
सच्चाई का कडुआ पन मीठा लगता है
ज़हर पचाने की क्षमता है मन में
इसीलिये जीवन अमृत लगता है


२८-४-09


राख का ढेर है तेरी हस्ती
खोज ले आत्मा में ही मस्ती

रोशनी का कतरा हूँ,  बाँधोगे कैसे मिटटी में ?
२८-३-08

जननियाँ


वह तपस्वी थे अवतारी जगदगुर भटके थे वर्षों
हिमालय की चोटी से सागर तट तक ,कहलाये आर्ष पुरुष
उनका सन्देश -तुम शरीर नहीं आत्मा हो
जियो पर समझो तुम परे हो देह से ,भय नहीं प्रेम करो .
सुनकर ये सन्देश बन गए लाखों पुरुष उनके शिष्य .
मैं हंसी और मेरी हंसी रुकी ही नहीं .
काश ये गुरु और उनके अनुयायी सोचते और पूछते
आर्ष सत्य जीवन का अपनी जननी से तो क्यों भटकते
उम्र भर अहंकार के जंगलों में ?
क्यों की माँ बता देती यह सत्य चंद लम्हों में .
स्त्री है जो जीती है आजीवन शारीर से पृथक हो कर .
जब वर्जना परिजनों की, समाज की रौंदती है उसका मन
पोषती है केवल उसका तन .
सौंप दी जाती पति को, तिरोहित उस आँगन से जहां उगी थी.
रखती है हर कदम सोच सम्हल कर पति के घर मैं .
घिरी कंटीली नज़रों से.जबकि आत्मा भटकती है उसकी
तितली सी फूलों पर जहां पाया था स्नेह निश्छल कुछ आँखों में .
यंत्रवत वह देखती है अपना चीरहरण पति के घर में .
पति व ससुराल के सम्बन्धियों के अहंकार से जन्मे कितने ही
नृशंस पशु करते हैं आक्रमण उस पर- तानों के, व्यंग्बानों के
षड्यंत्रों के .पर वह भयभीत न हो कर सहती है सबकुछ
क्योंकि सम्हालनी है उसे इज्ज़त अपने वंश की .
केवल सौम्य मुस्कान उसकी कर देती है निरस्त
नृशंस पशुओं को .अष्टांग योग का शिखर है समाधि
अर्थात शरीर से विलग आत्मा की स्वतन्त्र उड़ान
परमात्मा में,शून्य में .
वह जीती है ताउम्र समाधि में
पति से नुचता,रुन्दता अपना शरीर देखती है
निर्विकार क्योंकि उसका तन है पति की धरोहर
और संतान की ज़रुरत .
वह पोसती है अपना तन ताकि बच्चे पलते रहें
हंसते रह्ने,चहकते रहें .
वह जलती है उम्रभर दीपशिखा सी.ताकि महके- खिले- दमके
जीवन की बगिया घर आँगन में.
वह जलाती है ज्योति से ज्योति जीवन  की जब
कहती है बेटी से- तेरा घर यहाँ नहीं शादी के बाद बसेगा
तेरा तन धरोहर है पति की ,संतान की भले ही तेरी आत्मा भटके कहीं भी
तू देना उसे शान्ति मंदिर की मूर्ति में, धर्मग्रंथों में, कविता में, लोकगीतों में .
तू करना सेवा निस्वार्थ रिश्तों की, पति की, बच्चों की, फिर उनके बच्चों की .
मंदिर और आश्रम के परिसर में दीपक जलाते गुरु और उनके शिष्य
जलाते हैं दिए सोने,पीतल या मिटटी के और हो जाते हैं पूज्य
जबकि जीवन भर युगों से जलती स्त्रियाँ ,तपती जननियाँ
जो जलाती रहती हैं चुपचाप ज्योति जीवन की हर घर आँगन में
फिर भी रह जाती हैं अपूज्य अपमानित तिरस्कृत पुरुष के अहम् से .
5-4-09


ह्रदय की घाटी

छू न पायेंगे ह्रदय की घाटियों को
ग्रीष्म के उजाले फुएं से मेह.
ओ हवाओं इन फुओं को ले उडाओ
झलकने दो शांत नभ का नेह .

बादलों का प्रेम निष्ठुर बींध देता देह
कभी रिमझिम, कभी गर्जन-क्रूर भर हुंकार
आँधियों सा उमड़ता तो कभी चक्रवात ,
कभी ओलों सा बरसकर बन गया एक भार .
घाटियों की भूमि नाम है मत करो अघात
गुनगुनाती धूप से दो भूमि को श्रृंगार ,
उलसने दो बीज फूलों के बनो वातास ,
प्रेम में स्पर्श दैहिक खोजो न साभार ,
मुक्त फूलों की महक है मुक्त रश्मि-विलास
मुक्त है उर मुक्त है स्वर मुक्त मधुकण हास
मुक्ति सबकी कामना है मुक्ति में हैं राम

२७-२-09

मिटटी हूँ


कांच नहीं मिटटी हूँ
टूटी हूँ फूटी हूँ
आँधियों में उड़ती हूँ
गह्वरों में जमती हूँ
मिटती ही रहती हूँ
व्यर्थ नहीं जीती हूँ .
पैरों से रौंद लो ,
खेतों में जोत दो ,
भट्टियों में झोंक दो ,
नदियों में फ़ेंक दो .
फूल पर खिलाऊँगी
फसलें फिर उगाउंगी,
घर नए बसाउंगी.
ठोस बन के उभरूंगी
नए शहर बसाउंगी .
कांच नहीं मिटटी हूँ
हार नहीं पाउंगी

१९८४

पानी की बूंद


कभी बन के बूंद पानी की
बादलों से गिरती हूँ .
कांपती हूँ ,डरती हूँ ,
यूं ही सहमी फिरती हूँ .
क्या पता किधर जाऊं -?
सोख ले मिझे माती या
नहर में घुल जाऊं .
काश! ऐसा भी हो कि
सीप कोई खाली हो
एक बूंद बन के भी मोती
में बदल जाऊं !

१९८३

अंतर्यात्रा

शब्द छूटे भाव कि
अनुरागिनी में हो गयी .
देह छूती श्वास कि अनुगामिनी
में हो गयी .
क्या भला बाहर में खोजूँ ?
क्यूँ भला और किस से रीझूं?
आत्मरस का स्वाद पा,
आत्म्सलिल में हो निमग्न
आत्मपद कि चाह में ,
उन्मादिनी में हो गयी .
मैं तो अंतर्लापिका हूँ
कोई बूझेगा मुझे क्या?
जो हुए हैं 'स्व'स्थ स्वतः
उन महिम सुधि आत्मग्यों के
प्रेम के रसपान कि अधिकारिणी
मैं हो गयी,
शब्द छूटे भाव की
अनुरागिनी मैं हो गयी
देह छूती श्वास की अनुगामिनी
मैं हो गयी !


२२-१-1998
समय  से यूँ हूँ परे आनंदमय आभास हूँ
मैं उमड़ते बादलों सा सिन्धु का उल्लास हूँ
कल्पना हूँ कामना हूँ या किसी की प्यास हूँ
चन्द्रमा  की चांदनी या फूल की वातास हूँ 
शाश्वती सौरभ भरी बासंती मधुमास हूँ
इन्द्रधनुषी रंगों सी रागिनीमय श्वास हूँ
भावना से सिक्त उर की एक बस उच्छ्वास हूँ

जीवन जैसे आग चिता की


मैं  चिता की आग मैं जलती रही हूँ
जन्म लेकर भी सतत मरती रही हूँ
क्या मुझे तुम अर्घ्य दोगे ?
मेरे उर में वेदना का सिन्धु पागल
छाये रहते मन -गगन में घोर बादल ,
मुक्ति की पहली किरण की भोर दोगे ?
तोड़ कर चट्टान झरने सी बही हूँ
उमड़ती घुमड़ती प्यासी सी नदी हूँ
क्या मुझे तुम भावना का सिन्धु दोगे ?


5-5-09

 

कृष्ण

जिसके मात्र स्मरण से ही हर संताप बिसर जाता है
वह तो केवल एक कृष्ण हैं !
जिसकी स्वप्न झलक पाते ही
हर आकर्षण बिखर जाता है
जो सबके दुःख का साथी है
सबका पालक, जनक, संहर्ता
वह तो केवल एक कृष्ण हैं .
साक्षी सबके पाप पुण्य का ,
न्यायमूर्ति सृष्टि का भरता ,
वह अवतार प्रेम का मधु का ,
अनघ,शोक मोह का हरता
वह तो केवल एक कृष्ण हैं

5-4-09


आत्मा का मुक्त पंछी फिर हिलोरें भर रहा है
काट कर हर पाश को फिर उड़ रहा है
जाल माया के बिछाये प्रेमियों ने और
नोचे पंख कोमल भावना के .
छटपटा आहत सा पंछी रो रहा था
वेदना की वादियों में खो रहा था .
पर सुरीली तान ने उसको छुआ यों
भूल उर की वेदना फिर जी उठा वह
व्योम से उतारे नए सन्देश लेकर
नाचते गाते सुरों में राग भर कर
पंख फैलाए थिरकते मोरनी व मोर
ले उड़े संग आसमान की ओर
जग है एक सपना भुला दो मीत मेरे
उड़ चलो उड़ाते चलो संग मीत मेरे .


 

२५-२-09

स्त्री शक्ति

मैं सगर्भा, सार्गर्भा , ब्रह्म का विस्तार ,
जीव की हूँ वासना तो विज्ञ का संसार .
शक्ति का अवतार हूँ अस्तित्व का आधार
धारिणी समभाव की कर्षण करूं अहंकार
कामिनी हूँ 'काम' की हूँ जन्मति भी राम
पुण्य रूपा पापिनी हूँ पुरुष का आयाम ,
अग्नि सी हूँ दाहका पर देती हूँ विश्राम
शव बना सकती हूँ 'शिव',माधुर्यमय घनश्याम .
२५-२-०९


  कविता कन्या

कैद है कविता हर एक दिल में,डगर में
भ्रूण कन्या सी उपेक्षित हर नगर में .
'वेदना'सी मां है जब विद्रोह करती
तड़पती,तपती, तब वह है प्रसवती
कागजों पर कोई कविता कन्या सी
छूट जाती पर उपेक्षित अनसुनी सी
जब तलक प्रकाशक वर मिले न
दे उसे पहचान ,जीवन ,और मान .
२४-२-09

शोक निवारक योग


योगेश्वर ने है दिया शोक निवारक योग ,
सृष्टि के है मूल में आधेय- आधार .
प्रकृति के पीछे पुरुष,पुरुष -प्रकृति आधार ,
फल आधारित पुष्प पर,पल्लव पुष्प आधार .
पल्लव आश्रित शाख पर, तना शाख आधार,
मूल आधार स्कंध की , बीज वृक्ष आधार .
बीज आधारित भूमि पर,भूमि परिक्रमा बाध्य ,
करती पथ पर ही गमन ,सूर्य देव आराध्य .
ढूध-धवलता न पृथक, न अग्नि से ताप ,
जल -रस,प्रकृति -गंधमय, वायु सहित है भाप,
राधा -माधव एक हैं एक तत्व दो नाम ,
न शासक न शासिता, प्रेम बहे निष्काम .
आत्मा शाश्वत तत्व है ,रूप व्यक्त आधार
नारी - नर दो बिम्ब हैं दोनों सृजन आधार .

२०.०६.२०१०

धूप -दीप

तुम दीपक से जलो और में बनूँ धूप मिट जाऊं
तुम प्रकाश भर दो जीवन में मैं सुगंध बन जाऊं .
धरती के उर में ज्वाला है और देह में सुरभि
जब प्रकाश अंतर्मन में हो जीवन होता सुरभित
जीवन चन्दन वन सा महका जब उर में तुम आये
उद्भित में तेरे ही उर से,  जीवन राग सुनाये .
तुम मधुबन तो मैं सुगंध,तुम बनो गीत मैं गाऊं,
मैं रचना तेरी ही तुझ में रचूँ बहूँ मिट जाऊं .


२४-२-०९
ज़मीन पर न सही
आसमान में कहीं
होगा कोई
सुने जो दिल की कही


२५-२-०९


बोध

ज्यूँ कीचड में ही पावन
पंकज है खिलता
बीज बोध का दुःख में,
सुख में केवल पलता .

 

२५-२-०९

श्री राधे


मूक हूँ अभिभूत हूँ !
युग युगांतर की तृषा से,
त्राण पा अवधूत हूँ !
कृष्ण ने चाहा  उसे -
जिसने मितायी उस को दी!
कृष्ण ने त्यागा उसे -
जिसने विदाई उसको दी !
कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति-
जिसे राधा कहो !
कृष्ण की उन्मादिनी भक्ति-
जिसे राधा कहो !
कृष्ण,कर्षण कर सकी -
रमणी, जिसे राधा कहो !
उस रमणी की चरण रज हूँ !
धूल हूँ !
मूक हूँ ,अभिभूत हूँ !
युग युगांतर की तृषा से
त्राण पा अवधूत हूँ !

श्री दिनकर जोशीजी ने राधा -कृष्ण के दिव्य प्रेम मय सम्बन्ध पर एक पुस्तक लिखी है _"श्याम फिर एक बार तुम मिल जाते ' उसे पढ़ने के बाद जो अनुभूति हुई,उसी की अभिव्यक्ति है यह रचना .
मुक्तिगीत


मन

दूर कहीं  मेरे इस घर से ,एक क्षितिज है ,वहीं कहीं इस वसुधा पर झुकता अम्बर है .
हटा अँधेरा पूर्व रात्रि का चंचल किरणें आयीं हैं ,नभ धरती के मिलन वक्र पर रक्तिम आभा छाई है .
किरणें बुनती मेरे द्वारे ताने -बाने ,मन मेरा अब तक सोया है चादर ताने .
जैसे कितने मीलों तक चल कर आया हो
कितनी बाधाओं से लड़कर फिर आया हो .
पिछली रातें,उन रातों की कितनी बातें ,
कितनी बातों के कितने उलझे  से तांते.
जहाँ कहीं बस कर्कश गर्जन काले टकराते मेघों का ,
जहाँ सुना था मात्र एक स्वर उसने पागल आवेगों का .
वह अब भी गुमसुम ही रहता,जब तब बिलखा करता है.
रुक जाता है चलते चलते और पीछे देखा करता है -
जाने कितने ही युग बीते ,वह एक अकिंचन राही था
जीता था अनजाने पन में , खुद ही से रूठा फिरता था .
कितनी रातें वह जागा था, बस तारे गिनता रहता था .
फिर खुद ही ताने -बानों से, अपनी एक उलझन बुनता था
उलझन को फिर चुन लेता था अनदेखेपन से जीता था .
अपनी एक प्यास बुझाने को वह विष प्याले भी पीता था .
जब भी पीछे मुड़ जाता था,वह पागल सा हो जाता था .
वह कर्कश काला भूत उसे कितने ही दंश चुभाता था .


क्या हुआ उसे ?क्यों इतना बहका करता है ?
जब दुनिया कलियाँ चुनती है ,वह कांटे चुनता रहता है .
इतन क्यों तदपा करता है ?क्यों इतना तरसा करता है ?
सूने एकांकीपन में ,कुछ सपने बुनता रहता है .
खुद को ही यह बहलाता है ,खुद ही से बातें करता है .
छिप छिप कर के मुस्काता है ,अपने पर हँसने लगता है .
पर फिर ही गम हो जाता है भीगी पलकों को मलता है .
कितना भोलापन है इसका,कितना निश्छल सा लगता है .
यह जीवन है या क्रंदन है या कोई अधूरी अभिलाषा ?
बादल सा उमड़ा रोष है यह ,या मौसम गाढे  कोहरे सा ?
क्यों फूलों की तरुणाई का,सन्देश भी इसे न भाता ?
क्यों कलियों की अंगड़ाई का मद इसको छू भी न पाता?
यह खोजी है ,यह पागल है ,कुछ पा गलने को आतुर है .
यह छोड़ धरा के आकर्षण ,है खोज रहा आनंद सघन .
तप,त्याग ,विराग ,क्षुधा इसकी ,बस ज्ञान पिपासा सुधा इसकी .
जब बोध उसे यह होने लगा ,ताज कार्य कलाप वह  रोने लगा .
जग के आकर्षण सब बंधन ,करते केवल तन -मन शोषण .
मैं खोज रहा मुक्ति का पथ ,बन हंस करूं कैसे विचरण ?
उसने विश्लेषण किया सघन ,कितने उसने  जीते थे रण.
कितनों से कैसे सुख भोगे ?कितनों ने कितने कष्ट दिए ?
सब खेल धूप -छाओं सा था,न सुख सच था न दुःख सच था .
तो फिर सच क्या है आखिर जग में ? हूँ कौन भला  मैं ?
क्या है सच्चा  मेरा  उदगम  ?जाना है मुझको और कहाँ ?
प्रश्नों के शर  से क्षत -विक्षत ,वह सिमट गया अपने भीतर ,
हर ओर निराशा अंधियारा ,शोषण का भय, जैसे कोहरा -
ठिठुराए निर्धन भिक्षुक को,सिमटाये  भय से कछए को .
यूं कटा समय, अस्तित्वहीन सा हो ,वह बस करता क्रंदन .
विश्लेषण -मंथन रत सब कर्म ,भाव ,विचारों का
जैसे डूबे-उतरे कोई खारे भरमाते सागर में .


न दिखे कूल ,न मिले नाव,न आता हो जिसको की तरण.
संघर्ष और लाचारी बस,छटपटा रहा जैसे कोई  -
पाने को सांस ,जीवन -संबल .विषधर लिपटे हों अंगों से ,
दें दंश ,कभी नोचें शरीर ,फुफकारें भर मुस्कान विषम .
फैला कर फन हो झूम रहे, दिखला कर के कोटि विषदंत .
रिसतें हो घाव ,दर्द भरे ,पी रक्त भरें हुंकार सर्प .
यूँ छोड़ आस जग से तब मन उद्दयत था तजने को जीवन .
तब प्रकट हुयी ज्वाला अन्दर करने को उसका ऊर्ध्व गमन .
एक तेज पुंज देखा नभ में,अंधियारे के श्यामल वन में .
यह तो प्रकाश का तेज पुंज ! आया कैसे मेरे सम्मुख ?
मन  चकित हुआ ,फिर भरमाया, यह है आखिर कैसी माया ?
जितना सोचा उतना ही भ्रम !यह खेल नया था नया प्रक्रम,
कुछ दृश्य दिखे आलोक भरे ,यह कौन लोक? यह कौन विधा ?
क्यूँ अकस्मात मिट गयी क्षुधा ?बन गया गरल, कैसे की सुधा ?
वह वशी भूत सा उडाता गया ,नव जीवन का था लोक विलग .
पीछे क्या था न याद रहा ,छुटा क्या था न याद रहा .
बस था आनंद प्रकाश प्रखर ,न शत्रु ,न भय ,न शोषण .

मैं कौन ?कौन यह तेज प्रखर ?जो मुझे दे गया नव जीवन !
मन आनंदित,भरमाया सा ,क्यूँ कोई मुझे दुलार रहा ?
स्पर्श नहीं ,..न ही दर्शन ..,बस एक लहर  आनंदमयी ...
'आगे खोजो 'गूंजा एक स्वर ,मन भर श्रद्धा -विशवास नया.., ..
आनंदमग्न सा उड़ता चला ..स्फूर्ति नयी उल्लास नया ...
एक दिव्य लोक था  दिव्य..जगत..केवल प्रकाश, आनंद सघन .
ज्यूँ खोज हुयी मन की पूरी यात्रा की अवधि हुयी पूरी .
निःसृत ,शांत वह तैर रहा निःसीम विलक्षण अम्बर में ..
मन जाग गया आनंद भरा पाया प्रकाश हर ओर भरा ..
अद्भुत जीवन, अद्भुत था मरण,अद्भुत था  मन का जागरण ..
सीमाएं सारी टूट गयीं ,आकृतियाँ सारी फूट गयीं ..
केवल प्रकाश का रूपान्तर ..हो धरती ,जल ,अग्नि अम्बर ...
वह लोटा बन यात्रा पर विज्ञ,हर कर्म बना उसका अधियग्य..
न रहा वह अब करता -भोक्ता ,वह शेष मात्र अधिकृत  होत्रा..
मन  ने ज्युन्न यूं खोजा खुद को ,खोजा अपने अंतर्जग को .
उसका आधार निधान ,महत उसका उदगम आनंद अगम्य .
वह राग -द्वेष से परे जगत ,निःसीम शांत आनंद अनंत ..
द्वंदों का वहां है लेश नहीं ,अतृप्ति जहां है शेष नहीं ..


वह ध्यान मग्न हो खोता गया ,आनंदलोक में हो निमग्न ..
वाणी थी दिव्य था दिव्य बोध ,उसने माना वह शिशु अबोध ..
-"तुम सपने को सच समझ रहे इस लिए दुखों में उलझ रहे ..
मैं दूर नहीं,पल भर भी तुमसे,तुम अंश मेरे सिन्धु के बिंदु !
भय त्यागो ,जागृत हो अंशी ! लो सुनो मधुर मेरी वंशी !
भयभीत न हो विचलित हो न  ,मैं त्याग तुम्हें कर सकता न
अपना मन बस मुझको देदो जो हो तन का तो होने दो ..
हो उदासीन ,निर्भीक ,निष्ठ ,मत पाप -पुण्य में हो प्रतिष्ट.
तुम मान से मत बांधो मन को ,अपमान से नहीं आहत हो ,
द्वंदों से सदा परे रह कर बस एक मन्त्र को करो ग्रहण ..

"इदं न मम '..इदं न मम ' यह मेरा ना! यह मेरा ना .!.
जो हैं अबोध ,भटके प्राणी वह ही कहते है -'इदं मम '
यह मेरा है! यह मेरा है ! मैं    हूँ यह!  मैं  हूँ यह !.
'मैं ' 'मेरा ' जो माने जग में,वह ही बंधते,दुःख पाते हैं ,
जो त्याग 'अहम् ' मुझको प्रणते ,वह मुक्त तभी हो जाते है .
यह विश्व मेरे संकल्प से है ,अस्तित्व तुम्हारा मुझ से है .
मुझ को ही बस अपना जानो ,खोजो मुझको और पहचानो .


व्यक्तित्व से अस्तित्व की ओर 

व्यक्ति अभिव्यक्ति है त्रिगुणों की ,अस्तितिव की ज़रा खोज करो .
अस्तित्व शून्य से उपजा है ,हो शून्य ज़रा विश्राम करो .
मिट जायेंगे भ्रम -भय -संशय, आनंद सिन्धु जब उमडेगा .
अंतःकरण का मधुर लोक जीवन ज्योतिर्मय कर देगा .
बस इतना सा कर्त्तव्य बोध तुमको विराट दर्शन देगा ..
सारे ग्रंथों का सार -बोध ,अपने ही अन्दर चमकेगा ..
जो सात बिंदु है शक्ति के वे सात आकाशीय स्तर..
मूलाधार है भूलोक ;स्वाधिष्ठान है भुवर्लोक ;मणिपूरक है स्वर्गलोक ;
विशुद्ध चक्र है जनलोक .आज्ञा चक्र है सत्य लोक .
मस्तिष्क में छिपे ब्रह्म लोक ,विष्णु लोक व रूद्र लोक .
पर है कपाल का केंद्र बिंदु राधा -माधव का रासलोक.

जब बाह्य जगत का छोड़ मोह इन्द्रियाँ त्याग विषयों के भोग ,
मन संग खोजती ईश्वर को ,चेतना तभी उठाती ऊपर .
नीचे से ऊंचे केन्द्रों को .धरती से आगे अम्बर को ..
दर्शन होते अद्भुत जग के, सुन पड़ती धुन अद्भुत,विचित्र ..
अस्तित्व बदल जाता है यूं , हिम खंड पिघल जाता है ज्यूँ
केवल जल ,तरल ,अरूप ,तृप्त ,न रहे वहां कोई अतृप्त .
जब प्राण उमड़ते हैं ,ऊपर आनंद लहर करती विभोर ..
सब देव वहां करते स्वागत  मन पाए खोया राज्य महत ..
गोलोक में छिपे रासेश्वर ,आनंद कांड सृष्टा -ईश्वर .
छवि उनकी कर देती प्रमत्त , मन हो आतुर और उन्मत्त
चाहे हो जाऊं विसर्जित अब ,क्या भला शेष पाने को अब ?
चुन लेता है जिसको ईश्वर ,परवश वह हो जाता किंकर ..

महारास


जब भाव समाधि लगती है तब प्रेम की वर्षां होती ज्यूँ -
घन बरस निरंतर उमड़ घुमड़ ले बहा चले धरती को ज्यूँ .
बादल ,बिजली ,पागल मारुत ,मिलकर धरती को पिघलाते .
विचलित ,स्खलित  कर भू स्तर ,सागर में ज्यूँ पहुंचा जाते ..
पर ध्यान समाधि लगती जब ,चेतना शेष रह जाती है .
व्यक्तित्व विसर्जित हो जाता ,अस्तित्व बोध ही रह जाता .
न रूप ,न नाम ,न  कुछ कर्त्तव्य ,एक मात्र शांत अस्तित्व बोध ..
वह महामोक्ष ,वह महाज्ञान , वह महा रास को महा बोध !
सृष्टि के कण कण में मुखरित प्रकृति -पुरुष का युगल रास
इच्छा स्फुरित ,होती पूरी  दे ईश्वर सत्ता का आभास ..
है पूर्ण ब्रह्म ,अदृश्य ,अनंत ,उसका न नाम ,न रूप .न रंग ..
वह एक सत्य जो वर्णनातीत .वह मौन ,शांत परिवर्तन हीन .
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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बोहोत अच्छी लिखाई है मजुला जी की...एकदम दिल को छू जाती है...। सभी रचनांएं तो अभी पढी नही है। लेकिन पेहेली रचना पढते ही १ ऐसीही रचना यांद आई...।

    पंडीत विनोद शर्मा जी की,जगजीत सिंग ने गाई हुई-

    ''बुझ गई तपते हुए दिन की अगन।,सांझ ने चुपचाप ही पी ली जतन''....



    http://www.youtube.com/watch?v=Df9XpasNLv8

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रचनाकार: मंजुला सक्सेना की कविताएँ
मंजुला सक्सेना की कविताएँ
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