दिलीप लोकरे की कहानी - जाम का पेड़

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जाम का पेड़  "भोपाल चलना है, बड़ी इच्छा है क्वार्टर देखने की" बड़े भैय्या ने जब ये कहा तो जैसे उन्होंने मेरे मन की बात छीन ली थी । ये...

जाम का पेड़ 

"भोपाल चलना है, बड़ी इच्छा है क्वार्टर देखने की" बड़े भैय्या ने जब ये कहा तो जैसे उन्होंने मेरे मन की बात छीन ली थी । ये बात नहीं की मै भोपाल कभी गया नहीं | लेकिन वहां नहीं जा पाया जहाँ हम रहते थे । बचपन के १२ शानदार वर्ष गुजरे थे उस घर में । दरअसल १९७३ में पिताजी के रिटायर होने पर उस शहर को छोड़ा । शहर क्या छोड़ा जैसे शरीर का एक हिस्सा ही छोड़ आये वहां । पिताजी चूँकि पहले इंदौर ही रहते थे सो उन्होंने रिटायर्मेंट के बाद इंदौर बसने का ही फैसला किया । हमसे पूछने का तो सवाल ही नहीं उठता था । महज बारह साढ़े बारह वर्ष की उम्र थी उस वक्त । बड़े भैय्या होंगे कोई इक्कीस के । 

"इक्कीस को चलते है......रविवार है, अच्छा रहेगा। अगले दिन ईद भी है" भैय्या बोले ।

"हाँ पापा मुझे ओर ताई को भी छुट्टी है" 

मेरा छोटा बेटा भी बड़ा उत्त्साहित था । दरअसल उसके उत्साह के पीछे भी कुछ कारण है । बचपन से वह मेरे मुंह से भोपाल की बड़ी तारीफें सुनता रहा है । ओर अब लगभग उसी उम्र में है जिस उम्र के मेरे बचपन के पराक्रम के किस्से, वह मेरे ही मुंह से सुनता आया है । छोटा सा सरकारी क्वार्टर २९/२३ , जिसके आगे पीछे दोनों ओर खुले आँगन थे । पीछे के आँगन में लगे थे आम और जाम के दो पेड़ । और सच कहूँ तो उस घर से ज्यादा वक्त इन पेड़ों पर ही गुजरता था हम बच्चों का । सामने के आँगन से लगी थोड़ी ऊंचाई पर थी सड़क।

"सड़क तो अच्छी है ना ?" भैय्या ने पूछा ।

"अरे ,एकदम चकाचक । अब वह जमाना नहीं रहा ,एम पी में । फोर- लेन सड़क है बिलकुल आपके जैसी " मैंने कहा ।

भैय्या महाराष्ट्र में रहने वाले जो सड़क ओर बिजली के लिए जाना जाता है ।

"अरे कहाँ रही अब वह हालत .... सड़कें हमारे यहाँ भी ख़राब है ,बिजली कब आती है कब जाती है पता ही नहीं चलता। नजर लग गई एम  पी वालों की "। 

यह सुन कर मन को एक तसल्ली मिली । महाराष्ट्र में हालत खराब है यह सुन कर नहीं, बल्कि मध्य प्रदेश में प्रगति है यह सोच कर । 

" तो ठीक है , सुबह छै के करीब निकल चलेंगे । ग्यारह बजे भी पंहुचे तो दिन भर मिल जाता है" भैय्या ने कहा तो सभी ने सहमति जता दी ।

और  बस... तैय्यारी शुरू हो गई ।

समय इंसान को कैसे पीछे खींचता है यह मैं अब  अच्छी तरह महसूस कर सकता था । फ्लेशबेक कि तरह घटनाएं आँखों के सामने से किसी फिल्म के दृश्यों के माफिक गुजरने लगी ।

रोज शाम को वल्लभ भवन से पैदल लौट कर 'दादा' [पिताजी] का पहला काम होता था आँगन में  पेड़ो को पानी देना । अब सोच कर हंसी आती है पर पिताजी नियम के ऐसे पक्के थे कि कई बार बरसात की रिमझिम  में भी यही काम करते थे और जब हम लोग हंसते थे तो खुद भी मुस्कुरा देते थे पर पानी देते जरूर थे, ख़ास कर गर्मी के दिनों में । फिर आँगन में पानी छिड़क कर खटिया बिछाई जाती थी । दिन भर सूरज की तेज गर्मी से झुलसी हुई  मिटटी पर ठन्डे पानी के छिड़कने  से  जो सोंधी महक  खटिया के आस -पास पसरी होती थी, उसकी बराबरी तो वह रूम प्यूरीफायर भी कभी नहीं कर पाया,जो मुझे अपने काम के सिलसिले में ५ स्टार होटल में रुकने पर वंहा के कमरे में मिलता है । आज की एसी और कूलर वाले कमरों में पली शहरी युवा पीढ़ी के लिए यह खटिया और खुशबू भले ही अनजानी हो लेकिन हमारे लिए वह किसी राजमहल से कम नहीं थी |

"राज महल के भव्य गलियारों के बीच शिवाजी अपनी शेर जैसी मस्त चाल से शहिस्त खान कि और बढे | तानाजी मालुसरे बिलकुल उनके पीछे पीछे चल रहे थे.........." आवाज के उतार-चढाव के साथ पूरी नाटकीयता से 'दादा' जब खटियाओं पर लेटे हम बच्चों को , इतिहास, महाभारत , रामायण और  महापुरुषों कि अन्य कहानियाँ सुनाते तो एक स्वप्नलोक जैसे जीवंत हो उठता था । ७० के दशक में वह ' रीडर डायजेस्ट ' पत्रिका से अंग्रेजी में छपे लेख पढ़कर, उसका अनुवाद हमें सुनाते थे I अंग्रेजी कहानियों का माहौल हमारे लिए किसी कौतुहल से कम नहीं होता था । दरअसल 'दादा'  से कहानियों के रूप में जाने इस इतिहास ने ही, आगे कि पढ़ाई में हमारी बड़ी मदद की । और बड़ा अफ़सोस भी होता है कि अपने बच्चों  को मैं यह फायदा नहीं दे पाया । मेरा जॉब कुछ ऐसा है कि जब बच्चे सो जाते है तब मैं घर पहुंचता हूँ और जब बच्चे  सुबह घर छोड़ देते है तब तक मैं सोया होता हूँ ।

"पापा आप जिस जाम के पेड़ की बात करते है मैं भी उस पर चढ़कर देखूंगा " मेरा छोटा बेटा बोला। मै धीरे से मुसकरा भर दिया । 

दरअसल मेरे भोपाल  जाने का मुख्य कारण ही यह जाम का पेड़ है । घर के पिछले आँगन में लगे इस जाम के पेड़ का मेरे जीवन का बड़ा गहरा नाता रहा है । इस पेड़ पर जो जाम लगते थे वो आकार में गुब्बारे की तरह पीछे से पतले और आगे की तरफ मोटे होते थे । खाने पर बीच से गुलाबी रंग के । बीज एकदम कोमल जो हम बच्चों के दांत भी आसानी से चबा लेते थे । पेड़ पौधे भी आदमी के जीवन में क्या महत्व रखते है ये कोई मुझसे पूछे । स्कूल जाने से पहले और वहां से लौटने पर ज्यादातर समय इसी पेड़ पर गुजरता था मेरा । कई बार गिरा , कई बार कीड़ों ने काटा । टहनियों में फँस कर कई बार फटे हुए कपडे और ज्यादा फटे पर उस पेड़ से मुझे कोई शिकायत  नहीं रही । आज जहाँ रहता हूँ वहां बड़ा आँगन होने के बावजूद कोई पेड़ नहीं है । वजह सिर्फ एक , कचरा होता है और उसे झाडे कौन ? पत्नी और भाभी स्कूल टीचर है सुबह  जल्दी  घर घर से निकल जाती हैं और दोपहर लौटने पर इतनी थकी हुई कि यह सब करना संभव नहीं | किसी विधवा कि सूनी मांग कि तरह खाली यह आँगन मुझे बेहद उदास करता है ,किन्तु कोई चारा नहीं । कई छोटे मुद्दों पर बड़े समझौते करना जीवन की अनिवार्यता है ।

"सेव परमल निकालू ?" पीछे की सीट पर बैठी पत्नी ने पूछा । और मेरी तन्द्रा टूटी । 

'हाँ निकालो ना ,यदि सब को खाना हो तो 'मैंने कहा । 

इंदौरी व्यक्ति बाकी सब कुछ छोड़ सकता है पर सेव-परमल खाने का मौका कभी नहीं ।  कार सिहोर क्रास  कर रही थी और मेरी नज़रे बांस के उन झुरमुटों को ढून्ढ रही थी जो कभी सड़क के किनारे होते थे ।  फिर ख़याल आया अब -वो नजारा कहाँ ? 'विकास के बायपास' ने कई परंपरागत दृश्यों को हमसे छीन लिया है जिसमे ये बांस के झुरमुट भी है । जैसे-जैसे भोपाल नजदीक आता जा रहा था मेरी उत्सुकता भी बढ़ती जा रही थी । क्या अब भी वैसा ही चिकने तने वाला होगा मेरा जाम का वह पेड़ ? या समय के थपेड़ों ने उसके चहरे को भी खुरदुरा कर दिया होगा ? हरेभरे रहने की बजाय,  उसके पत्ते भी कहीं मेरे सफ़ेद बालों की तरह पीले तो नहीं पड़ गए ? आखिर ४० वर्षों का अंतराल भी तो बहुत होता है । क्या अब उस घर में रहने वाला व्यक्ति 'अपने घर' में घुस कर उस पेड़ को मुझे देखने देगा ?

बैरागढ़ पार कर कार, वी आई पी रोड पर पर आगे बढ़ रही थी । सड़क किनारे बड़े तालाब का पानी देख मेरे बच्चों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था । बड़े भैय्या भी सड़क की भव्यता को देख चमत्कृत थे । कमलापार्क तक आते-आते वह भी छोटे बच्चों की तरह चहकने लगे ।

"अरे यहीं तो हम तैरने आते थे गरमी के दिनों में । एक बार में आधा तालाब क्रास कर लेता था मैं" 

चेहरे का उत्साह देखते ही बनता था उनके । और मैं सोचने लगा , शायद सभी के साथ होता है ऐसा ... यादों की बाहें कितने कितने हसीन तरीके से अपनी ओर खींचती है, ख़ास कर बचपन की यादें | रवीन्द्र्भवन पार कर जैसे ही रोशनपुरा चौराहे पर पहुंचे मेरे दिल की धड़कनें बड़े तालाब की लहरों की तरह हिलोरें लेने लगी । मन किया टीन शेड से ही चीख-चीख कर कहूं  ..... 'जा........म ! मैं आ गया ........!!!!' 

गली में मुड़ते ही यह अहसास होते वक्त नहीं लगा कि समय की आंधी ने बहुत कुछ बदल डाला है भोपाल को | जिस सफाई व्यवस्था की तारीफें करते हम थकते नहीं थे इंदौर में, उसकी जगह अनाप शनाप गन्दगी ने ले ली है | चार मकानों के बीच जो खुली गलियां हुआ करती थी उनपर अतिक्रमण कर घेर लिया गया है | क्वार्टर की हालत यह कि अब गिरा तब गिरा |

"गिराने ही वाले है कुछ दिनों में शायद। तीन मंजिला बनायेंगे " 

क्वार्टर में रहने वाले श्री राजवैद्य बता रहे थे |

"आप जब रहते थे तब तो बड़ी अच्छी हालत में रहे होंगे ?"

उन्होंने मुझसे ही पूछ लिया | मैं समझ नहीं पा रहा था की उन्हें क्या जवाब दूं .जिस भावनात्मक लगाव से मैं यहाँ आया हूँ यह सब कैसे समझाऊ इन्हें | छोटा बेटा मुझसे पूछ रहा था ...

"पापा यही वो छत की मुंडेर है जिस पर से आप नीचे कूद जाते थे ?" 

"हाँ बेटा " मैंने धीरे से कहा । पर वो उत्साह जो रास्ते भर था अब कही मुरझाने लगा था | थोड़ी देर और इधर-उधर की बातें करता रहा मैं उनसे | .फिर बेटी ने ही इशारा किया मुझे , जिसमें भाव था की पापा पूछिये न अन्दर जाने के लिए ताकि, हम भी जाम का वह पेड़ देख सके | 

"जी वैद्य साहब ! यदि तकलीफ ना हो और कोई आपत्ति भी नहीं तो कृपया हमें पिछले आँगन में जाने की इजाजत देंगे ?"

" अरे हाँ जरूर ... चलिए ना ....आइये "वह बोले और अन्दर की ओर बढे | 

मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा .धड़कनें अचानक तेज हो गई |

" ये देखिये ये बरामदा , ये भीतर का कमरा ....." और उन्होंने दरवाजे की ओर हाथ बढाया | भड़ाक की आवाज के साथ दरवाजा खुला और आँगन मेरी आँखों के सामने था ..................पर टीन की छत से ढंका हुआ! वैसी ही विधवा की मांग की तरह सूना जैसा मैंने ऊपर जिक्र किया था | जाम का वह पेड़ वहां से नदारद . मै बस सन्न सा खडा था | बेटी ने ही पूछा ..

"अंकल यहाँ जाम का पेड़ था ना ?"

"अरे हाँ था ना ...... पर बहुत कचरा होता था उसके कारण और फिर ये पतरे भी लगवाने थे तो कटवा दिया हमने तो " उन्होंने कहा . मुझे उनकी आवाज जैसे किसी गहरे कुएं से आती प्रतीत हो रही थी , बस ...... |

-दिलीप लोकरे 

COMMENTS

BLOGGER: 8
  1. बहुत मार्मिक कहानी, वैसे ये कई लोगो के साथ होता है कि बहुत दिनों बाद अपने बचपन की जगह पर जाते है तो कुछ भी अपना सा नहीं लगता है.
    पता नहीं क्यों लोग सूखे पत्तो से इतना डरते है कि पेड़ ही कटवा डालते है. किसी भी पेड़ का कटना ऐसा लगता है मानो कोई इन्सान चला गया हो.

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    उत्तर
    1. धन्यवाद । शुरआत हमें अपने घर से ही करनी होगी ।

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    2. धन्यवाद । शुरआत हमें अपने घर से ही करनी होगी ।

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    3. जी दिलीपजी हमने किया है अभी हमारे मकान में एक अतिरिक्त कमरा और दूसरी मंजिल बनायी है इसमें हमने पेड़ो को बचाया है इसके लिए कुछ जगह भी छोडनी पड़ी तो भी.

      हटाएं
    4. अभिनन्दन शोभा जी ! मैंने भी अपने आँगन में आम व नीम के पौधे लगाये हैं

      हटाएं
  2. बहुत सुन्दर कहानी

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  3. बेनामी8:51 pm

    गुलज़ार याद आते हैं इसे पढ़ कर
    मोड़ पे देखा है वो बूढ़ा-सा इक आम का पेड़ कभी?
    मेरा वाकिफ़ है बहुत सालों से, मैं जानता हूँ

    जब मैं छोटा था तो इक आम चुराने के लिए
    परली दीवार से कंधों पे चढ़ा था उसके
    जाने दुखती हुई किस शाख से मेरा पाँव लगा
    धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
    मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर

    मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर
    मेरी वेदी का हवन गरम किया था उसने
    और जब हामला थी बीबा, तो दोपहर में हर दिन
    मेरी बीवी की तरफ़ कैरियाँ फेंकी थी उसी ने

    वक़्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए

    तब भी लजाता था जब मुन्ने से कहती बीबा
    ‘हाँ उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है।’

    अब भी लजाता हूँ, जब मोड़ से गुज़रता हूँ
    खाँस कर कहता है,”क्यूँ, सर के सभी बाल गए?”

    सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले
    मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको!

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  4. प्रशंशा के लिए धन्यवाद. गुलज़ार जी के पैरों के नाखून की धुल भी नहीं हो सकता कोई. आज के महानतम रचनाकार हैं वह ...

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: दिलीप लोकरे की कहानी - जाम का पेड़
दिलीप लोकरे की कहानी - जाम का पेड़
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