नन्दलाल भारती की कहानी - अन्तिम लक्ष्य

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डाँ.नन्दलाल भारती                                       एम.ए. ।समाजशास्त्र।  एल.एल.बी. । आनर्स । पी.जी.डिप्लोमा-एच.आर.डी. । अन्तिम लक्ष्य...

डाँ.नन्दलाल भारती                                      

एम.ए. ।समाजशास्त्र।  एल.एल.बी. । आनर्स ।

पी.जी.डिप्लोमा-एच.आर.डी.

। अन्तिम लक्ष्य।

कर्मनन्द और सुखवन्ती का ब्याह नन्ही सी उम्र में गुलाम देश में हुआ था पर गौना आजाद देश में आया था। कर्मनन्द काफी खुश था कि भले ही वह गरीब और भूमिहीन है पर उसकी औलादें आजाद देश की आजाद हवा पीकर अपने कल को उसके श्रम से तैयार क्षितिज पर तरक्की की चमचमाती सोने की ईंटों की ईमारते जोड़ सकेगी। डांक्टर अम्बेडकर का दिया नारा शिक्षित बनो संर्घा करो का नारा उसके दिल को बहुत सकून देने लगा था। दारे को वास्तविकता में बदलने के लिये गांव में खुले वह प्रौढ़शिक्षा केन्द्र में भी काम से फुर्सत पाकर भी कभी कभार जाने लगा था परन्तु उसे प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र पर उसे निराशा हाथ लगी था। मास्टरजी उच्च वर्णिक थे सप्ताह में एक दिन आते थे वह चार आने की सुर्ती और चूना लेकर।बस्ती के श्रमिक सुर्ती मलते और मास्टरजी खटिया तोड़ते। कुछ ही दिनों में यह भी बन्द हो गया मसटरजी कागजी कार्रवाई पूरी कर सरकार से मेहनताना की राशि वसूलते रहे। इस प्रौढ शिक्षा से तो बस्ती के मजदूरों का कोई फायदा तो नहीं हुआ मास्टरजी को जरूर लाभ हुआ। कर्मनन्द अपने माथे से अनपढ़ होने का दाग छुड़ाने की कसम खा लिया था खैर पूरी तरह सफल तो नहीं हूं पाया परन्तु दसख्त करना सीख गया था। कर्मनन्द अनपढ़ होकर  शिक्षा के महत्व को समझ गया था। वह अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य अपने बच्चों को पढ़ाने का बना लिया था। सुखवन्ती ने कर्मनन्द की खुली आंखों के सपनों को अपने दिल में बसा ली थी।गृहस्ती के महायज्ञ में वह भी अपने श्रम और अक्ल में आहुति डालने लगी। आर्थिक समस्याओं से निपटने के लिये वह अधिया की भैंस पाल ली थी जिसकी कमाई से वह एक दिन खुद की भैंस खरीद लायी थी। इसके साथ बकरी और मुर्गियां भी पालने लगी थी जिससे मदद मिलने लगी थी। समय करवटें बदलता रहा है। जीवन में कई उतरा चढ़ाव आये। कर्मनन्द और सुखवन्ती दो बेटियों अन्तरा,सन्तरा और एक बेटा हंसदेव के माँ-बाप हो गये।इन बच्चों में मुश्किल से साल भर का अन्तर रहा होगा। तीसरी बेटी दो साल की हुई नहीं थी कि सुखवन्ती का पांव फिर भारी हो गया।खैर उस समय बच्चे भगवान की देन माने जाते थे इसलिये बच्चों को लेकर घबराने की बात नहीं थी। लोगों के तो आधा दर्जन के उपर बच्चे हुआ करते थे। उनके पास तो भगवान के दिये तीन बच्चे थे और चौथे के आने की खुशी बाकी थी।

समय पर लगाकर उड़ रहा था,चौथे सन्तान के अवतरण की घड़ी नजदीक आने लगी थी। इसी बीच सुखवन्ती को जान लेवा दर्द शुरू हो गया। गांव के बताये बड़े बूढ़ों के नुस्खे अपनाये पर कोई फायदा नहीं हुआ। आखिरकार थक-हारकर नीम हकीमों की शरण में जाना पड़ा। नीम हकीमों के अलावा कोई चारा भी न था।छोटा सा सरकारी अस्पताल दस कोस दूर था जहां जाने पर डाक्टर साहब मिलेगे या नही इसकी कोई गारण्टी भी नही थी।अस्पताल तक पहुंचना भी एवरेस्ट की चढ़ाई के बराबर था क्योंकि पगडण्डी के अलावा रास्ता भी तो न था। टांगा बड़ी मुश्किल से मिल पाता था। साइकिल होना भी बड़ी बात था। दस कोस दूर तहसील स्तर पर छोटा सा सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र तो था।

सुखवन्ती की तबियत बहुत बिगड़ चुकी थी।सरकारी अस्पताल के अलावा अब और कोई चारा न था। कर्मनन्द बस्ती वालों के सहयोग से सुखवन्ती को खटिया पर लेकर अस्पताल पहुंचा। डांक्टर साहब तो नहीं मिले कम्पाउण्डर मिले जो डाक्टर से कम भी न थे। कम्पाउण्डर देखते ही बोला मरीज की जान पर बन आयी है। जान बचाना है तो तुरन्त सदर अस्पताल जाओ। खैर यहां से सदर अस्पताल के लिये बस-मिनी बस मिलती थी घण्टा दो घण्टा बाद वह भी ठसाठस भरी होती थी।

सुखवन्ती थी तो बहुत साहसी पर दर्द ने उसके पुर्जे-पुर्जे हिला दिये थे। धीरे-धीरे वह बेहोशी के आगोश में समाये जा रही थी पर वह कर्मनन्द के आसूं अपने आंचल से पोछते हुए बोली अन्तरा के बाबू आंसू क्यों बहा रहे हो मैं अभी मरूंगी नहीं अन्तिम लक्ष्य पूरा करना है। इतना सुनते ही कर्मनन्द चिघर कर रो पड़ा। इतने में धामी उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले बेटवा रोने से विपत्ति कट जाती तो हम सब इकट्ठा बैठकर रो लेते पर रोने से कुछ नहीं होने वाला है। पतोहू को जल्दी से अस्पताल पहुंचना है।

कर्मनन्द वकीलदादा,धामी दादा और झिंगुरी काकी सुखवन्ती को बड़ी मुश्किल से जीप में लेकर  सदर अस्पताल चल पड़े,घुरहू कतवारू,लखपति,रमपति साइकिल से अस्पताल की और दौड़ पड़े सन्तू और बन्तू खटिया लेकर गांव की ओर चल पड़े। भागीरथी प्रयास के बाद कर्मनन्द घरवाली सुखवन्ती को लेकर सदर अस्पताल पहुंचा।सुखवन्ती बेसुध हो चुकी थी। क्या भसुर क्या ससुर कोई सुखवन्ती का हथेली रगड़ने लगा कोई पांव का तलवा।कर्मनन्द सिरहाने बैठा आंसू बहा रहा था ।कुछ देर के बाद डाक्टर साहब आये तुरन्त इमरजेन्सी वार्ड में ले जाने को कहां। स्ट्रेचर पर  वकीलदादा और धामी वार्ड में ले गये। झिंगुरी काकी तो खुद नही संभल पर रही थी सुखवन्ती को क्या संभालती पर बेचारी सहारा तो थी।डाक्टर मुआयना किये ,कुछ देर विचार मग्न रहे । इसके बाद दो तीन गिलास पानी घटाघट पेट में उतार कर बोले मरीज का आदमी कौन है?

कर्मनन्द हाथ जोड़कर बोला जी साहब।

डाक्टर-देखो तुमने अस्पताल ले आने में बहुत देर कर दी है। बच्चा कई दिन पहले से उल्टा हो गया है। दोनों की जान को खतरा है। मामला बहुत रिस्की है पर भगवान पर भरोसा रखो ।

वकीलदादा-साहब भगवान तो आप है बस बहू को बचा लीजिये।

धामी ने तो पांव पकड़ लिया।

कर्मनन्द को तो डाक्टर साहब की बात सुनकर जैसे ठकमुरी मार गयी।गला रूंध गया सांस टंग गयी।डाक्टर साहब पानी का जग बढ़ाते हुए बोले लो पानी पीओ। सब लोग बैठकर बुद्वम् ारणम् गच्छामि का जाप करो। जच्चा-बच्चा को बचाना में रा अन्तिम लक्ष्य होगा आपरेशन करना होगा।कहते हुए नर्सरों को हिदायत दिये और आनन-फानन में आपरेशन शुरू हो गया। धर गांव में कर्मनन्द की दो बेटियों अन्तरा,सन्तरा और बेटा हंसदेव का रो रोकर बुरा हाल था। भूख से हाल बेहाल थी।कर्मनन्द की बूढ़ी मां की एक आंख चली गयी थी दूसरी में तनिक रोशनी थी पर सूरज डूबते ही वह भी काम करना बन्द कर देती थी। अन्तरा थोड़ी सयानी थी पर इतनी भी नहीं कि गृहस्ती का बोझ उठा सके पर उसे ही सब करना था अंधी दादी छोटे-भाई-बहन को भी संभालना था। भैस को चारा पानी, बकरी,मुर्गे-मुर्गियों की देख रेख सब उसके माथे।कर्मनन्द को छोटा भाई धरमनन्द दिल्ली रहता था। सुखवन्ती के अस्पताल जाते है धरमनन्द की घरवाली फूटीदेवी बच्चों और अंधी सांस को मरने के लिये छोड़कर उसी दिन जिस दिन सुखवन्ती को मरणासन्न अवस्था में अस्पताल भर्ती करवाया गया उसी दिन अपने भाई के साथ दिल्ली प्रस्थान कर गयी।

कहते है ना खुदा मेहरबान तो गदहा पहलवान,भगवान की कृपा बच्चो पर हुई बेटी अन्तरा,सन्तरा और बेटा हंसदेव मां -बाप पर विपत्ति आते ही एकदम से सयाने हो गये। अन्तरा उम्र में हंसदेव और सन्तरा से बड़ी थी।उसे भाई हंसदेव के पेट की भूख चैन नही लेने दी। उसने पहली बार अकेले चूल्हा जलाया खैर पहले भी कभी-कभी जला लेती थी पर मां की निगरानी में। सन्तरा ने भी बहन का हाथ बटाया ।हंसदेव अन्तरा से छोटा था पर उसे भैंस बैल खिलाने और चरनी से हटाने का इल्म नही था पर बाप को करते हुए देखता वह भैंस बैल की जिम्मदारी उठा लिया। सन्तरा ने मुर्गियों की। सुखिया दादी नाम तो था सुखिया पर दुखिया थी बेचारी करती क्या उससे तो सूझता ही नहीं था।आंख की रोशनी जा चुकी थी। घुटने हमेश सवाल करते रहते थे। वह एक जगह बैठे बैठे बच्चों का हौशलाअफजाई करती रहती।इधर पहले दिन से ही बच्चे घर की जिम्मेदारी उठाने लगे। उधर अस्पताल में सुखवन्तीदेवी को आपरेशन से बेटा पैदा हुआ। उपर वाले की असमी कृपा से  जच्चा-बच्चा सकुशल थे पर बड़ा आपरेशन हुआ था। डेढ़ महीने बाद अस्पताल से छुट्टी हुई ।

कर्मनन्द के उपर चार बच्चों के पालन पोषण के साथ बूढ़ी अंधी की चिन्ता थी। धरमचन्द ने फूटीदेवी के दिल्ली पहुंचते ही रिश्ते की डोर एकदम से तोड़ फेंका। सुखवन्ती देवी कई महीने  बिस्तर पर बड़ी रही। इधर कर्मनन्द का लक्ष्य डगमगाने लगा था,हंसदेव घर के कामों में उलझ गया था,जब तक मां अस्पताल में थी तब तक तो स्कूल ही नही जा पाया । मां के अस्पताल से आने के सप्ताह भर बाद जान ाुरू किया।कर्मनन्द सुबह मजूदरी पर निकल जाता तो देर रात में लौटता ।हंसदेव का मन अब पढ़ाई में नही लग रहा था,उसे घर के काम की चिन्ता सताने लगी थी। मां का दुख बाप का दर्द सताने लगा था। इसके  पहले कर्मनन्द मजदूरी करके देर रात में भी आता तो हंसदेव उसे डेबरी की रोशनी में पढ़ता हुआ मिलता था पर अब उसे हंसदेव पशुओं की देखरेख और घर के काम में लगा हुआ पाता था।

एक दिन कर्मनन्द तनिक जल्दी आ गया,हंसदेव भैंस बैल का चारा-पानी कर दादी के पास बैठा हुआ था। दादी बिते जमाने की कहानी सुना रही थी। अन्तरा सन्तरा चूल्ह चौका में लगी हुई थी। दरवाजे पर आते ही आवाज लगाया बेटा अन्तरा,सन्तरा। धीरे से लगायी गयी पिता की आवाज बेटियों के कान तक पहुंच जाती थी। अन्तरा आयी और बोली अरे भईया बापू आ गये। सन्तरा आज बापू जल्दी आ गये।सुखवन्ती बोली बेटी गुड़ पानी दे दो।हंसदेव खटिया खींच लाया।कर्मनन्द खटिया पर बैठा,इतने में सुखवन्ती भी धीरे-धीरे आ गयी।सुखिया कर्मनन्द की मां बोली अरे सन्तरा आपे बापू के लिये चिलम चढ़ा लाती।

कर्मनन्द बोला-मां आज से चिलम छोड़ दिया हूं।

सुखिया-बच्चों से कोई गलती हो गयी। बच्चे अपनी औकात से अधिक काम कर रहे है,तू गुस्सा दिखा रहा है।नन्हे-नन्हे बच्चे कितनी तकलीफ उठाये है तू नहीं जानता क्या।

कर्मनन्द-मां जानता हूं बच्चे के उपर मुसीबत का पहाड़ था,भैंस बैल की देखरेख आये-गये का दाना-पानी सब इन्ही नन्हों हाथों से तो हुआ है पर अब नहीं।

सुखिया-क्यों बेटवा।

कर्मनन्द-मां मेरा अन्तिम लक्ष्य नहीं पूरा होगा इस तरह ।

सुखिया-कौन से तुमने प्रतिज्ञा कर लिया।

कर्मनन्द-बच्चों को पढ़ाने की।

सुखिया-दस बजे स्कूल खुलता है चार बजे बन्द हो जाता है। बच्चे स्कूल तो जा रहे थे ना सुखवन्ती की तबियत खराब होने के बाद से सिलसिला थमा है।

कर्मनन्द-हाँ इसीलिये तो डर लगने लगा है अपने अन्तिम लक्ष्य को लेकर।

सुखिया-हौशला रख तुम्हारा लक्ष्य जरूर पूरा होगा।

सुखवन्ती-चिन्ता ना करो अन्तरा के बापू बच्चों को कल मैं स्कूल लेकर जाउंगीं।बच्चे जरूर पढ़ेंगे अब मैं भी ठीक हो गयी हूं।

सुखिया-बहू इतनी उतावली ना हो अभी घाव पूरी तरह पूजी नही है,भरी बाल्टी तक नहीं उठाना।चूल्ह चौका काम हो सके तो करना नहीं तो जैसे चल रहा कुछ दिन और चलने दो।भगवान ने मुसीबत दिया है तो वही उबारेगा। कर्मनन्द प्रतिज्ञा किया है तो भगवान ही पूरा उसकी प्रतिज्ञा पूरा करेगा।बच्चे पढ़ लिख जाते तो  आने वाली पीढ़ी का कायाकल्प हो जाता। हंसदेव दादी तुम्हारा सपना पूरा करूंगा।

अन्तरा-बिना नागा किये कल से स्कूल जायेगा बापू की प्रतिज्ञा पूरा करना है।

हंसदेव-हम तीनों भाई बहन चलेंगे घर का काम निपटा कर।

तीनों भाई बहन स्कूल जाने लगे । गरीबी जातिवाद के भेद का जहर पीते हुये कर्मनन्द और सुखवन्ती अपने लक्ष्य के प्रति सजग थे।सुखवन्ती के आपरेशन का घाव अभी तक पूरी तरह सूखा भी नहीं था की आपरेशन से पैदा बच्चा जौहरदेव इतना बीमार हुआ की भी कभी न ठीक हुआ और खुदा को प्यारा हो गया। कुछ माह बाद सुखिया भी काल के गाल में समा गयी।

कहते है ना धूप के बाद छांव हंसदेव पढ़ाई में ऐसे आगे निकला की बस्ती के सारे बच्चे पीछे छूट गये। कर्मनन्द भले गरीब था पर हंसदेव के पास होने का जश्न जरूर मनाता।अन्तरा सन्तरा का ब्याह पढें लिखे सुयोग्य लड़कों से हो गया।हंसदेव पढ़ाई में अव्वल था दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद तो कर्मनन्द को लगने लगा कि हंसदेव उसके अन्तिम लक्ष्य को पूरा कर देगा।हंसदेव ने पिता का सपना पूरा करने के लिये भी प्रतिज्ञा कर चुका था। वह अपनी भीमप्रतिज्ञा पूरी करने के लिये घर के काम के साथ बारहवीं की परीक्षा भी अच्छे अंकों से पास कर लिया अन्तोगत्वा भूमिहीन खेतिहर मजदूर का बेटा हंसदेव बी.ए.की परीक्षा पास कर गया।

कर्मनन्द बेटा के बी.ए.पास करने की खुशी का जश्न उसने सगे-सम्बन्धी,नात-हित और बस्ती वालों को भोज देकर मनाया।भोज के बाद कर्मनन्द हंसदेव से बोला बेटा तुमने बी.ए.पास कर खानदान का नाम रोशन कर दिया है। आज तक अपनी बस्ती में कोई लड़का बी.ए.पास नही है। मेरे खानदान में तो कोई प्राइमरी तक नहीं पढ़ पाया था । बेटा तुम बी.ए.पास कर लिये मेरा जीवन सफल हो गया।

हंसदेव-पिताजी आप और मां ने मुझे पढ़ाने के लिये कितने दुख उठाये है मैं कैसे भूल सकता हूं। मैं अब शहर जाना चाहता हूं पिताजी ताकि मेरे परिवार की सामाजिक और आर्थिक तरक्की हो सके।

सुखवन्ती-आगे और पढ़ाई कर लेता।

हंसदेव-मां पढ़ाई तो मैं नौकरी के साथ भी कर सकता हूं। अब पढ़ाई जरूरी नही है। नौकरी की जरूरत है। आप मां-बाप का अन्तिम लक्ष्य पूरा हो गया है। मुझे भी तो अपना लक्ष्य याद है।

कर्मनन्द-हां बेटा भले ही मैं मूरख अनपढ़ हूं पर इतना तो समझता हूं कि तुम नौकर कर हमें खुशियों की सौगात देना चाहता है।बेटा तू सही है,इस गांव में रखा भी क्या है।पग-पग पर तो दर्द है,भूख है,भय है,गरीबी है भेदभाव है। शहर में नौकरी के साथ मान-सम्मान मिलेगा बेटा तुमको खुश देखकर मेरा मन विहसता रहेगा।बेटवा वो पुरानी कहावत तुमने चरितार्थ कर दिया।

सुखवन्ती- अब तुमको कहानी किस्से याद आने लगे।

वकीलदादा,धामी दादा झिंगुरी काकी,घुरहू कतवारू,लखपति और रमपति एक स्वर में बोले अरे कहावत तो सुननी थी तुमने बीच में अड़गे क्यों लगा दिये।

सुखवन्ती लो जी सुनाओ कहानी किस्से मुंह में दांत नहीं पेट में आंत नहीं चले है किस्से हजम करने।

वकीलदादा-क्या सुखवन्ती तुमने तो अरमानों पर कटार चला दिये। इतनी बड़ी बात कह दी। गरीब है तो क्या हमारे भी सपने है। हंसदेव जैसे बस्ती के बेटे जब बस्ती से दूर शहर जाकर तरक्की के झण्डे गाड़ेगे तो अपने गां की सोंधी मांटी दुनिया की नाकों को भाने लगेगी।

लखपति-बात को बतंगड़ मत बनाओ,कर्मनन्द भईया का कहावत सुन लो।

झिंगंरी काकी-हां बेटवा की बात गले में अटकी रह गयी कह दे बेटवा।

सुखवन्तीदेवी-अब किस्सा सुना भी दो जी। गलती हो गयी कान पकड़ते हुए बोली।

कर्मनन्द-कहते है, कोई आदमी इतना धनी नही होता कि बिता हुआ कल खरीद ले और कोई आदमी इतना गरीब भी नहीं होता कि अपना कल सुधार न सके। यही बात मन में उपज रही थी।

वकीलदादा-बात तो करोड़ टके की है जो हंसदेव पर एकदम फिट बैठ रही है। यह कहावत तभी सही साबित हो सकती है जब कर्मनन्द जैसे बाप शिक्षा के महत्व को समझने वाले हो और हंसदेव जैसे बेटवा बाप के अन्तिम लक्ष्यों पर खरे उतरने वाले।

हंसी-ठहाके के बाद सब अपने-अपने घरों को चले गये। इधर हंसदेव शहर जाने की तैयारी में जुट गया।वह मां बाप से विदा लेकर शहर को प्रस्थान कर गया।हंसदेव जब शहर जाने के लिये घर से निकला था तब पूरे गांव के लोग उसे गांव की सड़क तक छोड़ने आये थे जैसे लग रहा था कोई लड़के गौना जा रही हो।गांव वाले तब तक हंसदेव को दखते रहे जब तक ईक्का आंखों की पहुंच से बाहर नही गया था। सालों तक शहर में नौकरी के लिये भटकता रहा पर वह कभी भी काम को छोटा नहीं समझा जो काम मिला वही कर लेता। अपना खान-खर्च चलाता जो बच जाता पिताजी के नाम मनिआर्डर कर देता। कई सालों की लम्बी बेरोजगारी के बाद हंसदेव को नौकरी गयी। नौकरी पाने की खुशी में कर्मनन्द,सुखवन्ती ही नहीं पूरी बस्ती के लोग झूम उठे थे।गांव वाले कहते कर्मनन्द तो बड़े बड़े धनिखाओं के कान काट लिये,बेटवा के स्कूल भेजने के पीछे का अन्तिम लक्ष्य उसका बेटवा को अफसर बनाना था।कर्मनन्द के अन्तिम लक्ष्य के असली रहस्य को जानकर क्या छोटा क्या बड़ा गांव वाले कर्मनन्द को बधाई देने उमड़ पड़े थे। हंसदेव बस्ती वालों से बोला दुनिया की सारी तरक्की की चाभी शिक्षा है,आज मैं धन्य हुआ कल सभी बस्ती वाले धन्य हो जाये यही मेरा सपना है। कम खाओ पर बच्चों को स्कूल भेजने का लक्ष्य बना लो। इसी बीच सुखवन्ती कटोरा में दही और गुड़ लेकर आयी और कर्मनन्द के मुंह में डालते हुए बोली तुम्हारे जीवन के अन्तिम लक्ष्य को सलाम हंसदेव के बापू।

समाप्त

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जनप्रवाह।साप्ताहिक।ग्वालियर द्वारा उपन्यास-चांदी की हंसुली का धारावाहिक प्रकाशन

उपन्यास-चांदी की हंसुली,सुलभ साहित्य इंटरनेशल द्वारा अनुदान प्राप्त

नेचुरल लंग्वेज रिसर्च सेन्टर,आई.आई.आई.टी.हैदराबाद द्वारा भाषा एवं शिक्षा हेतु रचनाओं पर शोध कार्य ।

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: नन्दलाल भारती की कहानी - अन्तिम लक्ष्य
नन्दलाल भारती की कहानी - अन्तिम लक्ष्य
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