अस्तित्व नये मोड़ पर डॉ . मधु संधु पंजाब के हिन्दी साहित्यकारों में कीर्ति केसर की अपनी विशिष्ट पहचान है। कीर्ति केसर विगत चालीस वर्षों से...
अस्तित्व नये मोड़ पर
डॉ. मधु संधु
पंजाब के हिन्दी साहित्यकारों में कीर्ति केसर की अपनी विशिष्ट पहचान है। कीर्ति केसर विगत चालीस वर्षों से अध्ययन, अध्यापन और लेखन से जुड़ी हैं। कीर्ति आलोचक, पत्रकार, सम्पादक और अनुवादक होने के साथ साथ कवयित्री भी हैं। मुक्त कर दो और मुझे आवाज देना के बाद उनका तीसरा काव्य संकलन अस्तित्व नए मोड़ पर हाल ही में प्रकाशित हुआ है। काव्य उनके लिए आधे अधूरे जीवन में पूर्णता लाने का उपक्रम है। यथार्थ के कीचड़ में कमल के फूलों की खेती करने के समान है। उनका मानना है कि कविता काल सापेक्ष होते हुए भी काल से आगे होती है। उनकी मुझे आवाज देना भाषा विभाग पंजाब से पुरस्कृत है।
पुस्तक की २६ कविताओं को चार खण्डों में बांटा गया है-अनुभूति में छह, विचार में नौ, परिवेश मे छह और बोध में पांच कविताएं संकलित हैं।
अनुभूति मे स्त्री भीतर के शोर और बाहर की खामोशी के बावजूद अपने जीवन को विशेष अर्थ देना चाहती है। यादों की सरगर्मियों के साथ- साथ खालीपन, वेदना, मौन, दबी दबी सिसकियां हैं। 'मैं हूँ.... और मेरे.. खाली हाथ....तन खाली...मन खाली...दिन खाली...खाली रात...चुप खाली...खाली संवाद।' विश्वम्भर नाथ उपाध्याय ने कीर्ति केसर के कविता संसार को मूल्यात्मक कहा है। वह मानते हैं कि कीर्ति के यहां तृष्णा की तीव्रता न होकर तृप्ति का स्वाद है। उनकी कविताएं प्रेम गंध से सराबोर होने के बावजूद देह दर्शन से दूर हैं और प्रेम भी जीवन को खास मायने देने के लिए है- मैंने कह दिया मिर्जे को में कहती हैं-'आना मेरे पास...मेरे साथ....जीने के लिए....अपनी जिंदगी को.....कोई खास..... मायने देने के लिए।' तेरे जाने के बाद में जीवन के उस पड़ाव का चित्रण है, जब न फोन या दरवाजे की घण्टी बजती है, न किसी के आने का इंतजार- 'और इस खाली मौसम में......मुझे अपना......चांदनी के फूलों सा...... खिलता......अतीत याद आता है।'
विचार में चिन्तन के स्तर पर धार्मिक पाखण्डों, ऐतिहासिक पाश्विकताओं, बाजारवाद, दोहरी नैतिकता, नारी विमर्श, हाई-टैक बचपन, स्वार्थी नेतागण और पशुओं से बदतर मानसिकता वाले मनुष्य चित्रित हैं, पर कीर्ति के पास आशावाद है। अस्तित्ववादी सार्त्र कहते हैं कि पुराने ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है और उसके सिंहासन पर कोई नया ईश्वर सतारूढ़ नहीं हुआ, न ही इसकी सम्भावना है, जबकि कीर्ति पुराने ईश्वर के रिटायर होने या इस्तीफा देने के साथ साथ नए ईश्वर को सिंहासनारूढ़ करने के लिए भी तत्पर है-'नए रब्ब जी से..... मुझे ऐसी ही किस्मत लिखवानी है।' कहती हैं बाजारवादी मानसिकता से छुटकारा पाना है तोे गालिब की तरह कहो- बाजार से गुजरा हूँ, खरीददार नहीं हूँ, दुनिया में हूँ, तलबदार नहीं हूँ अथवा कबीर की तरह माया महा ठगिनी हम जानी का दर्शन अपनाओ। अज्ञेय ने कभी सांप से पूछा था कि उसने विष कहां से पाया ? डसना कहां से सीखा ? ठीक वैसे ही स्वर में कीर्ति ने आदमी की बेवफादारी को कुत्तों में पोषित होते दिखाया है। आंतकवाद उन्हें विचलित करता है- गुलमर्ग, सोनमर्ग.... की बर्फ में......आग किसने लगाई...डल झील के नीले पानी में..........उतरते सिंदूरी सूरज को..... चिंगारी किसने दिखाई।' स्मृतियां चैन नहीं लेने देती। विभाजन ने पुरखे छीन लिए। उनका अपना शहर फैसलाबाद छीन लिया-'मैं ढ़ूंढ़ती हूँ ......उस खुशबू को...... जो मेरे शहर की.... हवाओं के साथ जाती है......सरहद पार.....फैसलाबाद की तरफ।' आज के हर साढ़े चार साल के बच्चे का लाइफ-स्टाइल धुरन्धर तीरंदाज अर्जुन से बहुत बहुत ऊपर है। वह स्कूल जाता है, बिना मंच भय के कहानी वाचन या काव्य गान प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर प्रथम आता है। कम्प्यूटर, वीडीओ गेम्स, टी. वी. कार्टून, पेंटिंग, साइक्लिंग उसकी दिनचर्या का हिस्सा हैं। कीर्ति ने उस पुरुष को कटघरे में खड़ा किया है, जो स्त्री को हर युग में पीड़ित करता आया है, कभी सती प्रथा या अग्निपरीक्षा के नाम पर,, कभी पांडवी बनाकर, कभी चीरहरण करके और फिर पूछता है-बताओ मैंने तुझे ़त्रस्त तो नहीं किया- 'तुम्हारा स्वभाव है जुल्म......पौरुष का पर्याय...... बना लिया है तुमने......मैं सहती हूँ.....कभी लाचारी में.....कभी संस्कारवश, भयवश......सहनशीलता की संस्कृति तुम्हीं ने दी है मुझे।' नन्हें भीखी के नाम में कारगिल के शहीद को श्रद्धांजलि है। नेताओं के लिए कहती हैं-इस देश की यह रिवायत है......जो उसके लिए.....लहू बहाता है .....भुला दिया जाता है......जो लहू पीना जानता है.....पीढ़ियों तक सत्ता का सुख भोगता है।' ऐसा ही सच उस क्रूर शासक सद्दाम के लिए भी है, जो चाहता है कि उसकी मौज को शहीदी गौरव दिया जाए।
परिवेश में कीर्ति का प्रकृति प्रेम देखा जा सकता है । यहां दरख्तों की ठंडी छाया है, नीला आसमान है, चांदनी है, सावन के गीत और मखमली हरियाली है। यहां कीर्ति की चिंता पर्यावरण प्रदूषण की है। प्रदूषण द्वारा हम मानों अपने भविष्य को अपने ही पैरों तले रौंद रहे हैं।
बोध में उदासी की धनी अंधेरी रातें और अकेलेपन का बोध, हताशा, थकान और तार तार हो रहा जीवन है। लेकिन इसके बावजूद फूटते अुकुर, रंगबिरंगे फूल, चांदनी रातों की जीवनदायिनी ऊर्जा, उनमें एक आशावाद भर रही है- 'मृत्यु का अमरत्व.....मनुष्य को..... मनुष्यता का मंत्र देता है।'
नरेन्द्र मोहन ने अस्तित्व नए मोड़ पर की कविताओं को खुली-धुली, संष्लिष्ट और नए धरातलों को छूने वाली रचनाएं कहा है। यानी चारों खण्डों में भीतरी और बाहरी धरातल पर कवयित्री ने अस्तित्व के नए मोड़ प्रस्तुत किए हैं। उनकी भाषा और स्टाइल आम आदमी के आम जीवन की धरोहर हैं। संग्रह में सर्वत्र काव्य दृष्टि और काव्यशिल्प की प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है।
पुस्तक- अस्तित्व नये मोड़ पर
कवयित्री-कीर्ति केसर
प्रकाशक-यूनीस्टार चण्डीगढ़
समय-२०१२
मूल्य- १५० रु.
१३, प्रीत विहार, पोस्ट आफिॅस -आर. एस. मिल, जी. टी. रोड, अमृतसर-१४३१०४, पंजाब.
Madhu_sd19@yahoo.co.in
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