साहित्यिक प्राकृतों (शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी, अर्द्ध-मागधी, पैशाची) को भिन्न भाषाएँ मानने की परम्परागत मान्यताः पुनर्विचार प्रोफेसर महा...
साहित्यिक प्राकृतों (शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी, अर्द्ध-मागधी, पैशाची) को भिन्न भाषाएँ मानने की परम्परागत मान्यताः पुनर्विचार
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
प्राकृतें विभिन्न लोक-भाषाएँ थीं, वाचिक भाषाएँ थीं । आज उन्हें जानने का आधार उनका साहित्यिक रूप ही है। प्राकृतों की संख्या को लेकर पर्याप्त मतभेद हैं। परम्परागत दृष्टि से इनके निम्नलिखित भेद माने जाते हैंः
(1) शौरसेनी (सूरसेन- मथुरा के आस-पास)
(2)महाराष्ट्री(विदर्भ महाराष्ट्र)
(3) मागधी (मगध)
(4)अर्द्धमागधी (कोशल)
(5)पैशाची (सिन्ध)
वस्तुतः प्राकृतों की संख्या निर्धारित करना कठिन है क्योंकि वे विभिन्न जनपदों की लोक भाषाएँ थीं । इसलिए जितनी लोक-भाषाएँ रही होंगी, उतनी ही प्राकृतें भी मानना चाहिए । किन्तु इन लोक प्राकृतों को जानने का कोई साधन नहीं है। यों आभारी, आवन्ती, गौड़ी, ढक्की, शाबरी, चाण्डाली आदि अनेक नाम यत्र-तत्र पाये जाते हैं।प्राकृत भाषाओं का ज्ञान मुख्यतः संस्कृत नाटकों और जैन साहित्य पर आधारित है। विभिन्न विद्वानों ने इन प्राकृतों का अध्ययन किया है।
(देखें-1. R. Pischel's Grammatik der Prakritsprachen : Strasburg ( 1900)
2. R. Pischel's Grammar of the Prakrit Languages: New York, Motilal Books ( 1999)
3. H. Jacobi's Ausgewahlte Erzahlungen in Mdhardshtri zur Einfiihrung in das Studium des Prakrit, Grammatik, Text, Worterbuch : Leipzig ( 1886)
4. E. B. Cowell's of Vararuci's Prakrta-prakasa : London ( 1868)
5. E. Hultzsch's of S irhharaja's Prakrtarupavatara : London ( 1909)
6. Rajacekhara's Karpuramanjari, edited by S. Konow, translated by C. R. Lanman : Cambridge, Mass. ( 1901)
7. Banerjee, Satya Ranjan. The Eastern School of of Prakrit Grammarians - a linguistic study : Calcutta, Vidyasagar Pustak Mandir ( 1977)
8. Woolner, Alfred C. Introduction to Prakrit: Delhi, Motilal Banarsidass, India ( 1999)
इनका सार निम्न है:
(1)शौरसेनीः
इसका प्रयोग तीसरी शताब्दी से मिलने लगता है। प्राकृतों का संस्कृत नाटकों में अश्वघोष के नाटकों एवं शूद्रक के मृच्छकटिकम् में अधिक व्यवहार हुआ है। पिशल एवं कीथ आदि विद्वानों के मतानुसार मृच्छकटिकम् की रचना नाट्यशास्त्र में विविध प्राकृतों के प्रयोग के नियमों के उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए हुई। इस नाटक के टीकाकार के अनुसार नाटक में चार प्रकार के प्राकृतों का प्रयोग किया जाता हैः
1.शौरसेनी 2. अवंतिका 3. प्राच्या 4. मागधी।
इस नाटक में 11 पात्रों ने शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग किया है। इन पात्रों में सूत्रधार, नटी, नायिका, ब्राह्मणी स्त्री, श्रेष्ठी तथा इनके परिचारक एवं परिचारिकाएँ हैं। नाटक के 2 अप्रधान पात्रों ने अवंतिका का प्रयोग किया है। प्राच्या का प्रयोग केवल एक पात्र ‘विदुषक’ ने किया है। नाटक के 6 पात्रों ने मागधी का प्रयोग किया है। इन पात्रों में कुंज, चेटक और ब्राह्मण-पुत्र शामिल हैं। शकारि, चांडाली एवं ढक्की जैसे गौण प्राकृत रूपों का प्रयोग एक-दो पात्रों के द्वारा ही हुआ है। नाटक में शौरसेनी तथा इसके बाद मागधी प्राकृत का ही अधिक प्रयोग हुआ है।
जैन साहित्य की दृष्टि से शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग दिगम्बर आम्नाय के आचार्य गुणधर एवं आचार्य धरसेन के ग्रंथों में हुआ है। ये ग्रंथ गद्य में हैं। आचार्य धरसेन का समय सन् 87 ईसवीं के लगभग मान्य है। आचार्य गुणधर का समय आचार्य धरसेन के पूर्व माना जाता है। आचार्य गुणधर की रचना कसाय पाहुड सुत्त तथा आचार्य धरसेन एवं उनके शिष्यों आचार्य पुष्पदंत तथा आचार्य भूतबलि द्वारा रचित षटखंडागम है जिनमें प्रथम शताब्दी के लगभग की शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग हुआ है।
(महावीर सरन जैनः भगवान महावीर एवं जैन दर्शन, पृष्ठ 100-105, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद (2006))
प्राकृत के व्याकरण ग्रंथों में ‘प्राकृत प्रकाश’ में पहले नौ परिच्छेद लिखे गए जिनमें बाद में दो बार वृद्धि की गई। पहले के परिच्छेदों के रचनाकार वररुचि हैं। इनमें आदर्श प्राकृत का निरूपण प्रस्तुत है। अंत में, कथन है कि प्राकृत का शेष स्वरूप समझना चाहिए। वररुचि के निरूपण पर कात्यायन, भामह, वसंतराज, सदानंद एवं रामपाणिवाद ने टीकाएँ लिखी हैं। बाद के 10 वें परिच्छेद से 12 वें परिच्छेदों के 14 सूत्रों में पैशाची का तथा 17 सूत्रों में मागधी का निरूपण किया गया है। इन दोनों की प्रकृति शौरसेनी कही गई है। इसके पूर्व ग्रंथ में ‘शौरसेनी’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है जबकि पहले के नौ परिच्छेदों में प्राकृत का निरूपण हुआ है। इस सम्बंध में विद्वानों का यही अनुमान है कि जिस सामान्य प्राकृत का निरूपण प्रस्तुत है, वह वास्तव में उस काल की प्रचलित शौरसेनी है। उस काल में चूँकि इसका प्रचलन एवं व्यवहार सर्वाधिक होता था, इस कारण इसके पहले किसी विशेषण को जोड़ने की आवश्यकता नहीं समझी गई। प्राकृत प्रकाश का अंतिम 12 वाँ परिच्छेद बहुत बाद का प्रतीत होता है। इस पर भामह एवं अन्य किसी की टीका उपलब्ध नहीं है। इस परिच्छेद के पूर्व ग्रंथ में कहीं भी ‘महाराष्ट्री प्राकृत’ का प्रयोग नहीं है। इस अंतिम परिच्छेद के अंतिम 32 वें सूत्र में उल्लिखित है, ‘शेषं महाराष्ट्री वत्’। विद्वानों का यह अनुमान तर्क संगत है कि जिस काल में महाराष्ट्री को आदर्श काव्य-भाषा की मान्यता एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, उस काल में यह अंतिम परिच्छेद जोड़ा गया।
भाषिक विशेषताएँ-
(1) शौरसेनी में दो स्वरों के मध्य संस्कृत के अघोष - त् एवं - थ् सघोष हो जाते हैं अर्थात् त् > द् और थ् > ध् हो जाते हैं। भवति > होदि ।
(2) क्ष > क्ख । चक्षु > चक्खु/ इक्षु > इक्खु/ कुक्षि > कुक्खि ।
(3) ‘य’ प्रत्यय का ‘ईअ’ हो जाता है। यथा संस्कृत ‘गम्यते’ का रूप ‘गमीअदि’ हो जाता है।
(2)महाराष्ट्रीः
दण्डी ने महाराष्ट्री प्राकृत को महाराष्ट्र आश्रित आदर्श प्राकृत कहा है।
(महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं विदुः। - काव्यादर्श 1/ 34)
विद्वानों में इस पर मतभेद है कि महाराष्ट्री एवं शौरसेनी का अन्तर कालगत है अथवा शैलीगत/विधागत। कुछ विद्वान महाराष्ट्री को शौरसेनी का ही विकसित रूप मानते हैं।
(Dr. Man Mohan Ghosha : “ Maharāşţrī : A late phase of Shaurasenī ”, Journal of the Department of Letters of Calcutta University, Vol.ⅩⅩⅩ, 1933 )
सुनीति कुमार चटर्जी ने भी शौरसेनी पा्रकृत एवं शौरसेनी अपभ्रंश के बीच की अवस्था महाराष्ट्री प्राकृत को माना है।
(भारतीय आर्यभाषा और हिन्दीः पृष्ठ 103, तृतीय परिवर्दि्धत संस्करण, दिल्ली (1963))
शैलीगत/विधागत अन्तर मानने वाले विद्वानों का मत है कि शौरसेनी में गद्य तथा महाराष्ट्री में पद्य की रचना हुई है। इस कारण शौरसेनी गद्य की एवं महाराष्ट्री पद्य की भाषा है।
गहन अध्ययन करने के बाद हमारा मत है कि विद्वानों के ये मत यद्यपि परस्पर भिन्न प्रतीत होते हैं तथापि तत्त्वतः ये अविरोधी हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से पहले शौरसेनी में गद्य लिखा गया; बाद में महाराष्ट्री में पद्य रचना हुई। कवियों ने जब महाराष्ट्री में पद्य रचना की तो उन्होंने मृदुता के लिए स्वर मध्य स्थिति में व्यंजनों का लोप कर भाषा को स्वर बहुल बना दिया। इस कारण शौरसेनी एवं महाराष्ट्री में भाषिक अंतर परिलक्षित होता है।
भाषिक विशेषताएँ--
(1) महाराष्ट्री प्राकृत की उल्लेखनीय विशेषता है - स्वर बहुलता। स्वर बाहुल्य होने के कारण महाराष्ट्री प्राकृत में रचित काव्य-रचनाओं में संगीतात्मकता का गुण आ गया है।
(2) दो स्वरों के मध्यवर्ती अल्पप्राण स्पर्श व्यंजन का लोप हो जाता है। लोको > लोओ/ रिपु > रिऊ
(3) स्वर मध्य महाप्राण व्यंजनों का लोप होकर केवल ‘ ह् ’ रह जाता है। मेघ > मेहो / शाखा > शाहा
(4) स्वर मध्य ऊष्म व्यंजनों (श् ष् स् ) का ‘ ह् ’ हो जाता है। दश > दह / पाषाण > पाहाण ।
(5) अपादान एकवचन में - आहं विभक्ति प्रत्यय का प्रयोग अधिक होता है।
(6) अधिकरण एकवचन के रूपों की सिद्धि - ए / - म्मि से होती है। उदाहरणार्थ : लोकस्मिन् > लोए / लोअम्मि।
(3)मागधीः
जैसा नाम से स्पष्ट है, मागधी मगध की भाषा थी। इसका प्रयोग नाटकों में निम्न श्रेणी के पात्रों के सम्भाषणों के लिए किया गया है। महाराष्ट्री और शौरसेनी की तुलना में मागधी का प्रयोग बहुत कम हुआ है।
भाषिक विशेषताएँ-
(1) मागधी में ‘-र्’ का अभाव है। ‘र्’ का ‘ल्’ हो जाता है। पुरुषः > पुलिशे / समर > शमल
(2) ‘स्’, ‘ष्’ के स्थान पर ‘श्’ का प्रयोग इसकी प्रधान विशेषता है। सप्त > शत्त
(3) ‘ज्’ के स्थान पर ‘य्’ का प्रयोग होता है। जानाति > याणादि / जानपदे > यणपदे।
(4) द्य् , र्ज् , र्य् के स्थान पर ‘य्य्’ का प्रयोग होता है। अद्य > अय्य/ अर्जुन > अय्युण / आर्य > अय्य / कार्य > कय्य
(5) कर्ता कारक एकवचन में प्रायः ‘ अः ’ के बदले ‘ ए ’ पाया जाता है। सः > शे
(4)अर्द्धमागधीः
अर्द्धमागधी की स्थिति मागधी और शौरसेनी प्राकृतों के बीच मानी गई है। इसलिए उसमें दोनों की विशेषताएँ पायी जाती हैं।
( दे० मार्कण्डेय - प्राकृत सर्वस्व,पृ० 12 -38)।
अर्द्धमागधी का महत्व जैन साहित्य के कारण अधिक है।
भाषिक विशेषताएँ-
(1) ‘र्’ एवं ‘ल्’ दोनों का प्रयोग होता है।
(2) दन्त्य का मूर्धन्य हो जाना। स्थित > ठिप
(3) ष्, श्, स् में केवल स् का प्रयोग होता है।
(4) अनेक स्थानों पर स्पर्श व्यंजनों का लोप होने पर ‘य’ श्रुति का आगम हो जाता है। सागर > सायर / कृत > कयं । इस नियम का अपवाद है कि ‘ग्’ व्यंजन का सामान्यतः लोप नहीं होता।
(5) कर्ता कारक एक वचन के रूपों की सिद्धि मागधी के समान एकारान्त तथा शौरसेनी के समान ओकारान्त दोनों प्रकार से होती है।
(5)पैशाचीः
पैशाची भारत के उत्तर पश्चिम में बोली जाती थी । गुणाढ्य ने पैशाची में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वृहत्कथा’( बड्डकहा ) लिखी थी, जिसकी उत्तरवर्ती कवियों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। इसका पैशाची पाठ अब उपलब्ध नहीं है। इस कारण किसी साहित्यिक रचना के आधार पर इसकी भाषिक विशेषताओं का निरुपण सम्भव नहीं है।
भाषिक विशेषताएँ –
प्राकृत के व्याकरण के ग्रंथों के आधार पर पैशाची की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं:
(1) सघोष व्यंजन का अघोषीकरण हो जाता हैः
गगन > गकन / राजा > राचा / मदन > मतन ।
(2) स्वर मध्य क्, ग्, च् आदि स्पर्श व्यंजनों का लोप नहीं होता।
(3) र् एवं ल् व्यंजनो का विपर्यास होना। अर्थात् र् के स्थान पर ल् और ल् के स्थान पर र् होना।
कुमार > कुमाल / रुधिर > लुधिर ।
(4) ष् के स्थान पर कहीं श् तथा कहीं स् का होना।
तिष्ठति > चिश्तदि / विषम > विसम ।
(5) ज्ञ > ञ । प्रज्ञा > पञ्ञा ।
‘प्राकृत काल’ में भाषा भेद आज की अपेक्षा बहुत अधिक रहे होंगे। जो साहित्यिक प्राकृत उपलब्ध हैं तथा जिनका परिचय एवं जिनकी भाषिक विशेषताओं का निरूपण किया गया है, उनको प्राकृत एवं ऐतिहासिक भाषा-विज्ञान के विद्वानों ने भिन्न देश भाषाओं के नाम से अभिहित किया है। इनको अलग अलग भाषाएँ माना गया है। इस सम्बंध में हमारा मत भिन्न है। इन तथाकथित साहित्यिक प्राकृतों की भाषिक विशेषताओं का जब हम अध्ययन करते हैं तो हम यह कह सकते हैं कि ये आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की तरह अलग-अलग भाषाएँ नहीं हैं। दूसरे शब्दों में ये हिन्दी, सिंधी, लहँदा, पंजाबी, गुजराती, उडि़या(ओड़िया /ओड़िशा), बांग्ला, असमी, मराठी आदि की भाँति अलग अलग भाषाएँ नहीं हैं। यदि हिन्दी भाषी हिन्दीतर किसी अन्य आधुनिक भारतीय आर्य भाषा को बोलना नहीं जानता तो वह उस भाषा को नहीं समझ पाता। हिन्दीतर भाषा का ग्रंथ उसके लिए बोधगम्य नहीं होता। मगर इन तथाकथित भिन्न प्राकृतों में से किसी एक साहित्यिक प्राकृत का विद्वान अन्य प्राकृतों को समझ लेता है। हम जानते हैं कि प्राकृत के विद्वान प्रत्येक प्राकृत को समझ लेते हैं। इन तथाकथित विभिन्न प्राकृतों की जो भाषिक भिन्नताओं का विवरण उपलब्ध है, वह इतना भेदक नहीं है कि इन्हें अलग अलग भाषाओं की कोटियों में रखा जाए। इस कारण, हम इन साहित्यिक प्राकृतों को अलग-अलग भाषाएँ नहीं मानते। हमारे इस मत की पुष्टि का आधार केवल भाषिक ही नहीं; व्यावहारिक दृष्टि से ‘पारस्परिक बोधगम्यता’ का सिद्धांत भी है। इसको यदि हम और स्पष्ट करना चाहें तो हम यह कहना चाहेंगे कि ये तथाकथित भिन्न साहित्यिक प्राकृत आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं (यथाः हिन्दी, सिंधी, लहँदा, पंजाबी, गुजराती, उडि़या(ओड़िया /ओड़िशा), बांग्ला, असमी, मराठी) की भाँति अलग अलग भाषाएँ नहीं हैं। ये कोलकतिया हिन्दी, मुम्बइया हिन्दी, नागपुरिया हिन्दी की भाँति हिन्दी भाषा के विभिन्न हिन्दीतर भाषाओं से रंजित रूपों की भाँति हैं। अपने इस मत की पुष्टि के लिए, मैं प्राकृत एवं भाषा-विज्ञान के विद्वानों का ध्यान आचार्य भरत मुनि के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘नाट्य शास्त्र’ की ओर आकर्षित करना चाहूँगा।
आचार्य भरत मुनि ने अपने ‘नाट्य शास्त्र’ में यह विधान किया है कि नाटक में चाहे शौरसेनी का प्रयोग किया जाए अथवा इच्छानुसार किसी देशभाषा का क्योंकि नाटक में नाना देशों में उत्पन्न हुए काव्य का प्रसंग आता है। देशभाषाओं की संख्या सात बतलाई गई हैः
(1) मागधी (2) आवंती (3)प्राच्या (4) शौरसेनी (5) अर्ध-मागधी (6)वाह्लीका (7) दक्षिणात्या।
(भरत मुनिः नाट्य शास्त्र - 18/34-35)
विद्वान स्वयं विचार करें कि क्या ये सात देश-भाषाएँ आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं (यथाः हिन्दी, सिंधी, लहँदा, पंजाबी, गुजराती, उडि़या(ओड़िया /ओड़िशा), बांग्ला, असमी, मराठी) की भाँति अलग अलग भाषाएँ हैं। भरत मुनि का विधान है कि नाटककार अपने नाटक में इच्छानुसार देश प्रसंग के अनुरूप किसी भी देश भाषा का प्रयोग कर सकता है। कोई नाटककार देश प्रसंगानुसार भाषा प्रयोग नीति का समर्थक होते हुए भी अपने नाटक में भिन्न भाषाओं का प्रयोग नहीं करता। इसका कारण यह है कि भिन्न भाषाओं के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता नहीं होती। यदि बोधगम्यता नहीं होगी; संप्रेषणीयता नहीं होगी तो ‘भावन’ कैसे होगा; ‘रस निष्पत्ति’ कैसे होगी। कोई हिन्दी नाटककार अथवा हिन्दी फिल्म की पटकथा का लेखक बांग्ला भाषी पात्र से बांग्ला भाषा में नहीं बुलवाता; उसकी हिन्दी को बांग्ला से रंजित कर देता है। एक आलेख में लेखक ने भारत की सामासिक संस्कृति के माध्यम की निर्मिति में हिन्दी सिनेमा के योगदान को रेखांकित करने के संदर्भ में प्रतिपादित किया है कि हिन्दी सिनेमा ने बांग्ला, पंजाबी, मराठी, गुजराती, तमिल आदि भाषाओं, हिन्दी की विविध उपभाषाओं एवं बोलियों के अंचलों तथा विभिन्न पेशों की बस्तियों के परिवेश को मूर्तमान एवं रूपायित किया है। भाषा तो हिन्दी ही है मगर उसके तेवर में, शब्दों के उच्चारण में तथा एकाधिक शब्द-प्रयोग में परिवेश का तड़का मौजूद है।
महावीर सरन जैन का आलेख - भाखा बहता नीर/ ½@ http://www.rachanakar.org/2012/10/blog-post_1713.html
निचोड़ यह है कि ये सात देश भाषाएँ भिन्न भाषाएँ नहीं हैं; एक साहित्यिक प्राकृत के तत्कालीन सात देशों की भाषाओं से रंजित रूप हैं। आचार्य भरत मुनि ने इसके प्रयोग के सम्बंध में जो निर्देश दिए हैं, उनसे भी हमारे मत की पुष्टि होती है। नाटक में कब किस प्रकार के पात्रों के लिए किस प्राकृत का प्रयोग किया जाए - इस सम्बंध में भरत मुनि का निम्न विधान हैः
(1) अन्तःपुर निवासियों के लिए मागधी
(2) चेट, राजपुत्र एवं सेठों के लिए अर्द्धमागधी
(3) विदूषकादिकों के लिए प्राच्या
(4) नायिका और सखियों के लिए शौरसेनी मिश्रित आवंती
(5) योद्धा, नागरिकों एवं जुआरियों के लिए दक्षिणात्या और उदीच्य
(6) खस, शबर, शक तथा उन्हीं के स्वभाव वालों के लिए वाह्लीका
एक ही दर्शक समाज के श्रोताओं के लिए उपर्युक्त निर्देश से यह स्वयं सिद्ध एवं पुष्ट है कि सात देश-भाषाओं का तात्पर्य भिन्न-भिन्न भाषाएँ नहीं है। इसका तात्पर्य है कि ये सात देश-भाषाएँ एक ही प्राकृत-भाषा के तत्कालीन सात देश भाषाओं से रंजित रूप हैं।
----------------------------------------------------------------
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवा निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्कलेव, बुलन्द शहर – 203 001
ज्ञान वर्धक आलेख....
जवाब देंहटाएंभाषावैज्ञानिकों एवं प्राकृत के विद्वानों ने शौरसेनी प्राकृत, महाराष्ट्री प्राकृत, मागधी प्राकृत, अर्द्ध-मागधी प्राकृत एवं पैशाची प्राकृत को अलग-अलग भाषाएँ माना है। इस आलेख में, मैंने इस पर विचार किया है तथा यह मान्यता स्थापित की हैं कि ये आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं ( यथाः हिन्दी, मराठी, गुजराती, बांग्ला ) की भाँति भिन्न-भिन्न भाषाएँ नहीं हैं। ये सम्पर्क भाषा हिन्दी के कोलकतिया हिन्दी, मुम्बइया हिन्दी, नागपुरिया हिन्दी की भाँति एक प्राकृत के उस काल की विभिन्न देश भाषाओं से रंजित रूप हैं।
जवाब देंहटाएंI have taken deep interest in going through the well described article written on Prakrit languages by the learned Professor Mahavir saran Jain. The distinct languages of prakrits have also their phonetics which seem easy in expression. The author has focused over all prakrits and showed their specialty also.
जवाब देंहटाएंPradyumna Shah Singh
mahavir sharan ke lekh mujhe kafi pasand hai
जवाब देंहटाएंi like all lekh by mahavir sharan
जवाब देंहटाएंआदरणीय गुरूजी नमस्कार
जवाब देंहटाएंमैं प्राकृत भाषा का अध्यन करना चाहता हूँ |
उत्तराखंड के किसी भी विश्वविधयालय में प्राकृत का स्नातक या स्नातकोत्तर स्तर पर अध्यन नहीं किया जाता हे |
मैं उर्दू विषय से स्नातकोत्तर हूँ और प्राकृत भाषा में स्नातकोत्तर करने का इच्छुक हूँ |
कृपिया सहायता / मार्गदर्शन करें |
धन्यवाद
आप की कृपा का अभिलाषी
फरीद अहमद
हल्द्वानी ( नैनीताल )
उत्तराखंड
09837232911
मेरे पास कुछ पुराने कागज है वो कौनसी शैली के है ??क्या आप अनुवाद कर सकते है
जवाब देंहटाएंमेरे पास कुछ पुराने कागज है वो कौनसी शैली के है ??क्या आप अनुवाद कर सकते है
जवाब देंहटाएं