सप्ताह की कविताएँ - क्या पच्चीस पैसे की भिंडी से भी कमतर हो गया है आदमी ?

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  राकेश भ्रमर महोत्सव (उत्तराखंड में 16 जून की रात्रि को आए महाप्रलय की स्मृति में) महाप्रलय आ गया और बहुत तीव्रता से आया किसी को अनुमान ...

 

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राकेश भ्रमर

महोत्सव

(उत्तराखंड में 16 जून की रात्रि को आए महाप्रलय की स्मृति में)

महाप्रलय आ गया और बहुत तीव्रता से आया

किसी को अनुमान नहीं था, होता कैसे?

किसी भगवान ने उन्हें नहीं बताया था,

भगवान के पुजारी ने भी नहीं बताया

वे तो प्रतीक्षारत थे कि भक्त आएं

और अधिक से अधिक संख्या में आएं,

ताकि उनके असीमित धन से भगवान के दलाल

अपनी तिजोरियों को भर लें/और

और पूरे एक साल तक मोहन भोग लगाएं.

देवभूमि में हमने असंख्य मंदिर बनाए

उनमें उतने ही देवी-देवता बिठाए

उनके दर्श्नार्थ लाखों श्रद्धालु वहां आते हैं

परन्तु धर्म और आस्था के नाम पर

पुजारी और पंडे उन्हें लूटते हैं

धर्म की दुकानें चलाकर उन्हें बेवकूफ बनाते हैं

मिथ्या प्रवचनों से उनको बहलाते हैं

मोक्ष का काल्पनिक लोभ दिखाकर/

हम उन्हें मृत्यु की राह पर डालते हैं

इस तरह क्या हम स्वयं

पाप की दुकान नहीं चलाते हैं?

अपने स्वार्थ और स्वलाभ के लिए

हम पेड़ों पर कुल्हाडि़यों से वार करते रहे

आरियों से उनका पेट चीरते रहे

उनको खंड-खंड करके अपने उपयोग में लाते रहे

वे चुपके से रोए और हम हंसते रहे

पेड़ कटे तो पृथ्वी निर्वसन हो गयी

नंगी भूमि शर्म से अपना मुंह छिपाती रही

परन्तु अपनी मां (धरती मां) को

नंगा देखकर हमें कभी शर्म नहीं आयी

मां की नंगी छाती पर नाच-नाचकर

हम वैभव और विकास का जश्न मनाते रहे.

हमने पहाड़ों की छाती पर गहरे गड्ढे कर दिए

उन्हें काट-काटकर अलग कर दिया

हम उन्हें बेजान समझकर

उसके अस्तित्व को तितर-बितर करते रहे

पहाड़ों के अंग भंग करने में

हमें कोई डर नहीं लगा

आज जब पहाड़ों के अंग ढीले पड़े हैं

और वह खिसककर हमारे ऊपर गिर रहे हैं

तो हम डरकर इधर-उधर भाग रहे हैं.

प्रकृति के साथ हमने इतना खिलवाड़ किया, कि

अब वह हमारे साथ खिलवाड़ कर रही है

भीषण प्रकोप और आपदा ला रही है.

कौन है इस सबका जिम्मेदार, क्या बताओगे?

उत्तर देने के नाम पर तुम किस-किस से

और किस तरह अपना मुंह छिपाओगे?

प्राकृतिक आपदाओं के लिए हम, केवल हम

जिम्मेदार हैं, क्योंकि हमने, प्रकृति का विनाश किया है

पहाड़ों को काटकर हमने विनाश के रास्ते बनाए हैं

नदियों के रास्तों को रोककर/उनको बांधकर

हमने स्व-पाप को धोने के लिये

बड़े-बड़े कुंड बनाए हैं

नदियों का जल अब प्रचंड होने लगा है,

क्योंकि मानव के पाप धोते-धोते

उनमें अत्यधिक उबाल आने लगा है

अब पहाड़ खिसक रहे हैं/और वर्षाजल के साथ

पत्थर हमारे ऊपर से बह रहे हैं

हमारी बस्तियों को बहाकर ले जा रहे हैं

तो कौन सा पाप कर रहे हैं/

आखिर वे हमारे ही पाप तो धो रहे हैं.

जब हम गड्ढा खोदते हैं, तो

कभी-न-कभी स्वयं उसमें गिरते हैं

यह प्रकृति का नियम है और इसमें

कभी कोई बदलाव नहीं होता है

अगर हमने प्रकृति को उजाड़ा है

तो क्या पहाड़ और नदियां चुप बैठे रहेंगे,

हमारी किए-धरे का हिसाब वे एक दिन/नहीं तो

हमारी मृत्यु के दिन अवश्य चुकता करेंगे.

सच्ची श्रद्धांजलि के साथ हम याद करते हैं

उन आत्माओं को जो आज हमारे बीच नहीं हैं

हमें सहानुभूति है उनके परिजनों से

कि उन्हें इस महासंकट को सहने की शक्ति प्राप्त हो

परन्तु अफसोस इस बात का भी है

कि भक्त मर गए हैं, केवल शिवलिंग बचा है

तो क्या अब वीराने में भगवान शिव

उनकी आत्माओं के साथ महोत्सव मनाएंगे.

(राकेश भ्रमर)

ई-15, प्रगति विहार हास्टल,

लोधी रोड, नई दिल्ली-110003

मोबाइलः 9968020930

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रामदीन

अर्द्ध-सत्‍य

प्रलय हो गयी घाटी में।

तपता जेठ जून का मौसम, प्रलय हो गयी घाटी।

ना कुछ जाना न ही संभाला, फंस गया मानव घाटी में।

लापरवाही और नासमझी में, बिछ गयीं लाशें घाटी में।

भरी तवाही के मंजर में, नेता लड़ रहे घाटी में ।

तपता जेठ जून का मौसम, प्रलय हो गयी घाटी॥

अब, रावल या शंकर होंगें, पुनः पुजारी घाटी में।

ईश्‍वर का है कौन करीबी, लड़ें पुजारी घाटी में ।

मानवता अब बिलख रही है, घास चबायें घाटी में ।

वीर जवानों ने फिर रख दी, जान लगा के घाटी में।

तपता जेठ जून का मौसम, प्रलय हो गयी घाटी॥

खुद थे भूखे प्‍यासे फिर भी, कूद पड़े वे घाटी में ।

बची हजारों जाने जो भी, सेना के बल घाटी में ।

वरना चलती रही बैठकें, लिये बहाना घाटी में ।

जो लौटे वे बहुत धन्‍य हैं, प्रलय हो गयी घाटी में ।

तपता जेठ जून का मौसम, प्रलय हो गयी घाटी॥

यज्ञ हवन दिल्‍ली में क्‍यों हों ? भई तबाही घाटी में ।

लगा दांव क्‍यों भगवानों पर, तनातनी क्‍यों घाटी में।

सारी नदियां बहा ले गयीं, गिरी जो लाशें घाटी में ।

कैसे भरपायी अब होगी, हुई तबाही घाटी में ।

तपता जेठ जून का मौसम, प्रलय हो गयी घाटी॥

खण्‍ड-खण्‍ड उत्‍तराखण्‍ड है, दरकें परवत घाटी में।

यज्ञ, हवन, पत्‍थर, के बदले, पूजो मानव घाटी में।

बिना भेद आडंबर छोड़ के कर लो सेवा घाटी में।

तपता जेठ जून का मौसम, प्रलय हो गयी घाटी में॥

-रामदीन

जे-431, इन्‍द्रलोक कालोनी,

कृष्‍णानगर, लखनऊ-23

मो0ः 9412530473

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मोतीलाल

उनकी अस्मिता

जिस दिन
समझ जाओगी तुम
अपने होने का अहसास
उस दिन
नहीं पकेगी
तवे पर रोटी
नल का पानी बहता रहेगा
नाली में
हवा दुबक जाएगी
किसी कोने में
नहीं बजेगी घंटी
किसी मंदिर में
न अजान सुनायी पड़ेगा
किसी मस्जिद से
थम जाएगा सभी कुछ
बाहर और भीतर भी ।
 
हाँ
जिस दिन तुम
उठने की कोशिश में
करवट भर लोगी
तब वह बेचैन हो जाएगा
और अपने मिटने के अंह में
काट डालेगी वह डाली
जिस पर तुम बैठी हो ।
 
 
* मोतीलाल/राउरकेला 
* 9931346271

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विजय वर्मा


ग़ज़ल

आत्मीयता निभाने की फुर्सत नहीं है

नफ़रत के रिश्ते भला क्यों निभाये।

एक तिश्नगी है जो कम होती नहीं

जब भी अश्कों को पिया खारा ही पाए।

ये रिश्तें है या कोई ताश-पत्तों का महल

डर है कहीं तेज हवा चल न जाए।

गैरों की बातें अब अच्छी लगाने लगी

देखो अपनों से कहीं ना रिश्ता टूट जाए।

अब इतना भी नाजुक नहीं दिल है मेरा

इज़ाज़त है दिल पे छुरी ,कटारी चलाए ।

कोई दुआ अब काम करती नहीं है

बददुआ देके देखो,शायद काम आये।

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अमरीक सिंह बल ‘सानी’ करतारपुरी


 

ग़ज़ल

क्या दुआ माँगें चिराग़ों की उमर के लिये,

सूरज गुमशुदा है सिर्फ रात भर के लिये।

नहीं ठहरूँगा काफिले या रहबर के लिये,

मेरी आवारगी ही बहुत है सफ़र के लिये।

हर दौड़, हर चहलकदमी वापिसी की है,

हर बूँद का ये सफ़र है समन्दर के लिये।

दिल की छत पे किसी चाँद की जरूरत नहीं,

तेरी यादों के चिराग बहुत हैं नज़र के लिये।

वज्द1 में उठे, हाथ झाड़े और चल दिये,

दुनिया गर्दे-दामन2 है कलन्दर3 के लिये।

बुलन्दी का सफ़र तो सफ़रे-अना4 निकला,

पाँव भी तरस गये किसी ठोकर के लिये।

कहीं लिबास तंग था कहीं मैं बौना पड़ गया,

कोई पैराहन5 पूरा न मिला पैकर6 के लिये।

मैं हूँ कि अपनी पगड़ी सहेजता रहता हूँ,

और लोग ताज ढॅूंढा करते हैं सर के लिये।

फ़लक के लिए हैं वो तो चाँद-सितारे 'सानी',

उठ, अब कुछ दीये भी ले चल घर के लिए।

1 मस्ती 2 आँचल की धूल 3 फ़कीर 4 घमंड भरी यात्रा 5 वस्त्र 6 शरीर, आकृति

 

ग़ज़ल

मुस्कुराते हुये चेहरे झूठे होते हैं,

लोग अन्दर ही अन्दर टूटे होते हैं।

नज़दीकियों का अहसास नहीं होता,

कभी-कभी ऐसे भी फ़ासले होते हैं।

आज मिलने वालों को कल कौन जाने,

चेहरों पे रोज़ नये मुखौटे होते हैं।

हया, अदा, गुस्सा, इशारा, शरारत,

तेरी इक नज़र में कितने फ़लसफ़े होते हैं।

तस्कीं1 होनी हो तो सहरा2 को हो जाये,

होने को समन्दर भी प्यासे होते हैं।

यहीं-कहीं रहते हैं हुजूम3 में चलने वाले,

बुलन्दी तक जाने वाले अकेले होते हैं।

हद से ज्यादा कुर्ब4 दूर कर देता हैं,

मुहब्बतों के भी कुछ सलीके होते हैं।

जिनके कद के आगे उम्र बौनी लगे,

कई लम्हें ज़िन्दगी से भी बड़े होते हैं।

खुद जलकर दूसरों को रौशनी देते हैं,

कुछ लोग चिरागों के जैसे होते हैं।

1 सन्तुष्टि 2 रेगिस्तान 3 भीड़ 4 नज़दीकी

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गिरिराज भंडारी


अब तो समझो

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प्रक़ृति में,

सब जानते है

सब मानते है

ध्वनि की प्रतिध्वनि

वैसे ही होती है !

जैसे ध्वनि की गई थी

गालियों के बदले , गालियां

मंत्रों के बदले मंत्रोच्चार

और तालियों के बदले , तालियां!!

लेकिन, सब ये नहीं जानते

या , स्वार्थवश मानना नहीं चाहते

कि सारा ब्रम्हांड

कर्मोंके लिये भी प्रतिध्वनि केन्द्र है

ठीक वैसी ही घटनायें प्रकृति लौटायेगी

जैसा हमने किया !!

फिर चाहे हमने प्रकृति के खिलाफ किया हो

या , किसी भी इंसान के खिलाफ !!!

कब होगा, कैसे होगा , कहां होगा

कितना होगा

सब प्रकृति तय करेगी !!!!

हम या तुम नहीं

गिरफ्तारी नहीं ,अदालत नहीं,कोई सुनवाई नहीं ,

प्रकृति स्वयं अदालत है , जज है ,

सीधे सजा की शुरुआत ,

भुगतना सबकी मजबूरी है

निर्माण के बदले निर्माण , विनाश के बदले विनाश !!!!!

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अभी तो प्रवक्ता ही बोले हैं

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प्रकृति तो खामोश है , चुप है ,

अभी भी,

ये उसका बोलना नहीं है

धोखे में ना रहें !

चुप चाप देख रही है

सहन कर रही है

ज्यादतियाँ

अपने ऊपर होते हुये !

ये जो कुछ भी हुआ

गुस्सा नहीं है , प्रकृति का

इशारा है महज ,

वो भी ,

प्रक़ृति के प्रवक्ताओं का !

नदी, पहाड़ , झील, झरने

जंगल, धुन्ध , आन्धी , तूफान

सागर , ज्वालामुखी

और ना जाने , कौन कौन प्रवक्ता है !

ये तो बस इशारा है ,

सावधान होने का !

प्रक़ृति के प्रवक्ताओं का,

अभी तो प्रकृति , खामोश है , शांत है

अभी पकृति का बोलना बाक़ी है

अब भी मजबूर किये तो

एक दिन , बोलेगी, प्रकृति भी !!

इसलिये ,

” प्रकृति की गोद में खेलें, गोद से ना खेलें ”

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क्या ये सच नहीं ?

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सब्ज़ी काटती मेरी पत्नी,

और , खालीपन मे ध्यान से देखता मैं

देखता हूँ ,

एक एक भिंडी को प्यार से धोते पोंछते हुये

फिर एक एक करके छोटे छोटे तुकड़ों मे काटते हुये

फिर अचानक

एक भिंडी के ऊपरी हिस्से में छेद दिख गया शायद

मेरी पत्त्नी को

मैंने सोचा एक भिंडी खराब हो गई

लेकिन , नहीं

मेरी होशियार पत्नी ने

ऊपर से थोड़ा काटा

कटे हुये हिस्से को फेंक दिया

फिर ध्यान से बची भिंडी को देखा

शायद कुछ और हिस्सा खराब था

उसने थोड़ा और काटा और फेंक दिया

फिर तसल्ली की ,

बाक़ी भिंडी ठीक है कि नहीं ,

तसल्ली होने पर

काट के , सब्ज़ी बनाने के लिये रखी भिंडी में मिला दिया !

मैं मन ही मन बोला ,

वाह क्या बात है !!

पच्चीस पैसे की भिंडी को भी हम

कितने खयाल से ,ध्यान से सुधारते हैं ,

प्यार के काटते है

जितना हिस्सा सड़ा है , उतना ही काट के अलग करते है ,

बाक़ी अच्छे हिस्से को स्वीकार कर लेते हैं ,

क़ाबिले तारीफ है !

लेकिन ,

अफसोस !!

इंसानों के लिये कठोर हो जाते हैं

एक ग़लती दिखी नहीं

कि ,उसके पूरे व्यक्तित्व को काट के फेंक देते हैं

क्या पच्चीस पैसे की भिंडी से भी कमतर हो गया है आदमी ?

पर निजाम गूंगा और बहरा है

***************************

जख़्म लगा जो बहुत गहरा है

पर निजाम गूंगा और बहरा है

और मरहम न लगा दे कोई

सोचिये, इस बात पे भी पहरा है

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किसी के दर्द को सीने से लगा कर देखें

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किसी की चश्मे नम को पास से ज़रा देखें

किसी के दर्द को सीने से लगा कर देखें

कही पे मौत है , मातम है , दुख के आंसू है

सियासी रोटियां लाशों पे रख के ना सेकें

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सी.बी. श्रीवास्तव ‘‘विदग्ध‘‘


दोहे महात्मा कबीर संबंधी

है कबीर संसार के वे अनपढ विद्वान

जिनकी जग में हो सकी ईश्वर से पहचान

छुआ न कागज कलम पर हुये कबीर महान

जिन्हें खोजने को स्वतः निकल पडे भगवान

चिंतन मनन कबीर का कर्म और व्यवहार

सीख समझ पढ सुन हुआ समझदार संसार

गाते गीत कबीर के एक तारे के साथ

जगा रहे नित साधु कई दुनिया को दिन रात

सीधे सच्चे ज्ञान मय है कबीर के बोल

जो माया का आवरण मन से देते खोल

अचरज यह एक अपढ की सीधी सच्ची बात

पढ़ लिख समझ के कई हुये पी.एच.डी. विख्यात

कर ले घर के काम सब बन कर संत सुजान

जीवन भर करते रहे कबिरा जन कल्याण

अनपढ संत कबीर का यह बडा कमाल

समझ लिया जिसने उन्हें हुआ वो मालामाल

अनपढ़ स्वतः कबीर थे निर्गुण उनके राम

था जनमन को जोड़ना पावन उनका काम

जो भी कहा कबीर ने मन में सोच विचार

वह धरती पर बन गया युग का मुक्ताहार

वाणी संत कबीर की देती रही प्रकाश

हुआ न आलोकित मगर कई का अंधाकार

निर्मल संत कबीर के मन में था विश्वास

ईश्वर कहीं न दूर है मन में उसका वास

जो जन्मा है जगत में है उसका अधिकार

अपने कर्मों से स्वतः का करना उद्धार

 

दोहे जगत की रीति पर

बडों से वे छोटे भले जिनको प्रिय कानून

कभी कहीं करते नहीं नैतिकता का खून

बडों को होता बड़प्पन का झूठा अभिमान

छोटे करते है सदा झुक सबका सम्मान

बडे गरीबों को बहुत कम रख पाते ध्यान

छोटे सबको समझते अपने से गुणवान

बडे लोग अभिमान में करते कई अपराध

छोटों को डर सबों का छोटी उनकी साध

बडों की अटपट वृत्तियां नियमों के प्रतिकूल

छोटे चलते राह पर स्वतः बचाकर धूल

छोटों का जीवन सरल अक्सर सच्चे काम

उन्हें याद रहता सदा उन्हें देखता राम

छोटा होकर भी हुआ करता जो गुणवान

वास्तव में वह है बडा योग्य सही इंसान

बडा भी वह किस काम का जिसे झूठ अभिमान

सामाजिक व्यवहार का जिसे न रहता ध्यान

छोटे ही आते सदा कठिनाई में काम

बडों को तो कठिनाई में भी चहिये विश्राम

बडे हरेक समाज में होते हैं दो चार

छोटों से ही चल रहा यह सारा संसार

वास्तव में वे है बडे जो करते उपकार

जिनकी करते याद सब जन तब बारम्बार

धन कम धन से अधिक गुण होते प्रमुख प्रधान

गुण से ही पाता मनुज इस जग में सम्मान

भले बुरे की गुणों से ही होती पहचान

जो हित करता सबों का वही सही इंसान

जो करता है व्यर्थ ही अधिक घमण्ड गरूर

सभी चाहते सदा ही रहना उससे दूर

जो होता है काम का मिलता उसको प्यार

गुणी व्यक्ति का ही सदा गुण ग्राहक संसार

जैसा चलता आ रहा सदियों से संसार

उसका ही सम्मान कर अपने मन को मार

 

दोहे राजनीति पर

राजनीति हत्यारिनी किये सदा अपराध

उन्हें नहीं जीने दिया दिया न जिनने साथ

कत्ल किया कभी भाई का कैद किया कभी बाप

ताज तख्त के लोभ में रंगकर मन को आप

कभी किसी पर लगाये मन माने इल्जाम

राजनीति करती रही कई के काम तमाम

थोडे हैं नेता जिन्हें जन हित की है चाह

अधिकों की दिखती सदा सिर्फ स्वार्थ की राह

राजनीति को चाहिये रखनी प्रखर निगाह

मन से नित करती रहे जनता की परवाह

बुद्धिहीन राजाओं की लंबी रही कतार

जनता पर करते रहे जो कई अत्याचार

लूट मार औं लडाई करने रहे अनेक

समझदार इतिहास में नवृति सिर्फ कुछ एक

भारत के इतिहास में अमर है जिनका नाम

अपने जैसे अनोखे एक ये राजा राम

राम राज्य आदर्श था है अब भी विश्वास

फिर न हुआ सुख उस तरह कहता है इतिहास

जो भी छलबल पा गये सत्ता पर अधिकार

ऐसों के व्यवहार से बसा रहा संसार

शुद्ध आचरण न्यायप्रिय सरल थे राजाराम

इससे उनके कार्य के हितकर थे परिणाम

राजनीति को नित रही सत्ता की परवाह

इससे नित चलती रही निज मनमानी राह

होनी चाहिये धार्मिक पर करती नित पाप

इससे कम होते नहीं जनता के संताप

शासक के मन हो दया नीति न्याय औं प्यार

जनता के हित शांति सुख का हो सदा विचार

पर दिखता है आजकल कुछ उल्टा व्यवहार

जनता दिखती त्रस्त है हरेक ठौर हर बार

नीति नियम के माप से शोभित हो दरबार

तभी राज्य हर दुखी का कर सकता उद्धार

राजनीति की नित रही टेढी मेढी चाल

इससे खुद है दुखित वह जनता है बेहाल

 

दोहे राजनीति पर

राजनीति के रंग दो आपस में अनमेल

एक ओर सत्ता का सुख और दूसरा जेल

राजनीति में व्यक्ति को मिल सकता है राज

पर संभव है जेल की यदि जनता नाराज

सिंहासन औं जेल दो राजनीति के छोर

पहुंचाती है व्यक्ति को हवा बहे जिस ओर

राजनीति में सहज हर सुविधा या अपमान

उतरे वह इस क्षेत्र में जिसे हो इसका ध्यान

किसको किससे लाभ कब यह कह सकता कौन

कभी ढिंढोरा हराता कभी जिताता मौन

भला बुरा कुछ भी नहीं सभी है समयाधीन

वाहीं कभी गुणवान है कभी मलिन गुणहीन

जीवन में है भाग्य का भी उंचा स्थान

जेा आरोग्य को भी बना देता सुधी महान

हर सुयोग देता समय यही भाग्य की बात

पर विवश छोटा भी जो हो जाता विख्यात

श्रम से पा परिणाम भी पाता कोई न नाम

यश पा जाने जगत में है मुश्किल कर काम

कर्म योग में रत सतत कई रटते दिन रात

बिना परिश्रम कई मगर जग में होते ख्यात

किसको कब अपयश या यश लग जाता है हाथ

कोई न कह सकता कभी यही भाग्य की बात

राजनीति में नाम है फिर भी है जंजाल

साथ मिला यदि भाग्य का तो झट मालामाल

यदि चुनाव में जीत हुई तो डग डग सम्मान

हार दिखाती व्यक्ति को केवल कूडादान

राजनीति के युगों से रंगे खून से हाथ

रहम न करना जानती कभी किसी के साथ

राजनीति उनको कठिन जो नित मन के साफ

तभी महात्मा गांधी तक पा न सके इंसाफ

अच्छे सच्चे जो हुये जन सुख दायी महान

राजनीति को खटकते रहे वे सब इंसान

स्वार्थ नीति से है भरी राजनीति की चाल

जब जिसको मौका मिला हथियाया हर माल

 

प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव ‘‘विदग्ध‘‘

ओबी 11 एमपीईबी कालोनी

रामपुर, जबलपुर 482008

मो. 9425806252

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चंद्रेश कुमार छतलानी


 


उनके चेहरे पे रंग ईमानदारी का था

जो बेईमानी की मिट्टी से बने हुए थे |

उनके वादे थे कभी साथ ना छोड़ने के

जिनसे अपने माता-पिता छूटे हुए थे |

हम सुनते रहे सच्ची दोस्ती की बातें

शब्द अधजल घघरी से छलके हुए थे |

सबसे बड़ा सच यही था इस संसार का

जान के सच को सच से छिपते हुए थे |

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उमा जयरामन


आह!

हमने माँगा था प्यार, तुमने रूखा सम्मान थमाया,

हाय री किस्मत कुदरती फूलों की खुशबू ही तो चाही थी,

इन अनजाने अजीबो गरीब बनावटी गुच्छों का मैं क्या करूं?

न इनमें है वो सहजता, स्वाभाविकता न प्यार की महक,

इनसे मैं वाकिफ़ नहीं।

मैं तो उन्हीं रूखी सूखी झडपों की कायल हूँ,

मुझे इन बेमोल हीरों की पहचान नहीं!

ये अदब, ये कायदे, किन्हें चाहिये?

जिनमें है सब कुछ, मगर प्यार का एक कतरा नहीं !

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राधेश्‍याम‘भारतीय'


उत्तराखंड में त्रासदी

एक जलधारा लूट ले गई सब हमारा

इधर माँ-बाप बहे उधर आंख का तारा

पकड़कर लाश अपनों की अपने रोए

कुछ न बचा, बची तो बस अश्रुधारा

एक जलधारा लूट ले गई सब हमारा।

बहुमंजिल ईमारतें पल में ढह गई,

बड़ी बड़ी चट्‌टाने कंकड -सी बह गई।

मिला न कहीं नामोनिशां पूलों का

रोती है हर आंख देख के मंजर सारा

एक जलधारा लूट ले गई सब हमारा

डरा रही थी भयानक चाँदनी रातें

सुझ न रही थी किसी को कोई बातें

तड़फकर रह गए सब भूखे - प्‍यासे

घास खाने के सिवा बचा न कोई चारा

एक जलधारा लूट ले गई सब हमारा

जीवनदायिनी प्रकृति क्‍यूं कू्रर बनी

करनी हमारी इसका कारण जरूर बनी

हमने ही कंक्रीट के महल बनाए

मिटा के प्राकृतिक सौंदर्य सारा

एक जलधारा लूट ले सब हमारा

राधेश्‍याम‘भारतीय'

नसीब विहार कालोनी

घरौंडा करनाल 132114

मो- 09315382236

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डाक्टर चंद जैन "अंकुर "


(डाक्टर्स डे के उपलक्ष्य में डॉ विधान चन्द्र रॉय पूर्व मुख्य मंत्री पश्चिम बंगाल के पुण्य दिवस में समर्पित ।)

डाक्टर की आत्मा

तेरे अंदर अपना लय अपना ईश्वर ढूंढूं

जब तेरे नब्जों को अपने हाथों में थामू

जैसे थाम लिया हो कोई तुझको मेरे अंदर

जब तेरे नयनों के अंदर झाँकू

जब तेरे मुखमंडल में आह सुनूं

या दर्द निहारूं

तेरे क्षय का मैं कारण ढूंढूं

तेरे अंदर अपना लय अपना ईश्वर ढूंढूं

ईश निवेदन है

मेरे हर नाम दवा का

हर पर्चों में उनका का दया निहारूं

जब मेरे मेहनत तुझसे मुद्रा पता

धन्यवाद उस ईश्वर को

मैं शीश नवाता

तेरे अंदर अपना लय अपना ईश्वर ढूंढूं

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अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव


 

आतंकवादी

आतंकवादी ....आतंकवादी .....

खूब किये खून ...गारत जिन्दगी ....

खाना आबादी .....बर्बादी .............

खून के दरिये ..........बहाये ........

आग के मंज़र ..........उठाये ......

लोगों की चीख़ पुकार पर ..........

तुमने ठह ठाहे लगाये .............

तुम्हारे कानों को लगते अच्छे .......

------------------------------.

तुम

सब कहते हैं ......कि
तुम कहीं नहीं हो .....
.तुम्हारी मृत्यु हो चुकी है .....
मुझे भी ऐसा ही लगता है ...क्योंकि
तुम दिखाई तो नहीं पड़ती ......
न घर में    न बाहर .....न कहीं और ...
पर मुझे क्यूँ लगता है कि ....
तुम यहीं कहीं हो….  मेरे पास हो
मुझे महसूस होती हो ...
मेरे तन ..मन ..में समाई हो ..
मेरे रोम ..रोम ...में बसी ..हो
हाँ दिखती नहीं हो ...
कि ..क्योंकि तुम मेरे विचारों में हो
हवा की मानिंद महसूस करने लायक ..
अपनी तमाम खुश्बुओं के साथ ...
मैं तुमसे अपने को जुदा नहीं पाता ..
मैं तुमसे अपने को जुड़ा हुवा पाता
हमेशा तुम्हारे ख्यालों में रहता हूँ ..
तुम्हारी यादों में डूबा रहता हूँ ..
तुम्हारी अच्छी बुरी ....
यादें याद आती हैं ..
तुम्हारी बातें याद आती हैं
हमने जो पल साथ जिये थे ..
ज़िन्दगी के रास्तों पर ...
साथ साथ चले थे ....
वो ...वो सब यादें याद आतीं हैं ...
तुमने जो छोड़ी है ..धरोहर ..
तीन लड़कियां वो प्यारी प्यारी ..
आज भी मैं उन्हें सहेजता  हूँ ...
प्यार करता हूँ उन्हें ....
और उन्हें  प्यार देता हूँ ..
मैं अक्सर ये कहता हूँ ...
कि मैं miopic हूँ ...
अपने को प्यार करता हूँ ....
अपनी लड़कियों को प्यार करता हूँ .
उनके परिवारों को प्यार करता हूँ
और यदि कुछ बचा ....
तो सारे समाज ...दुनिया ..को प्यार करता हूँ ..
मेरे लिए अनमोल हैं ये लडकियाँ ....
क्योंकि तुम्हारी देन ...है ये लडकियाँ ..
इनके सहारे तुम्हारी यादें ..जीता हूँ ..
तुम्हारे विछोह के कडुवे घूँट पीता हूँ ..
सब कहते हैं कि तुम नहीं हो ....
कहीं ....नहीं हो ....पर ..
मैं अपने आसपास तुम्हे पाता हूँ ..और ..
ख्यालों में ही सही ....
अहसासों में सही .....
तुम्हारे साथ जीता हूँ ....
तुम्हारे साथ जीता हूँ
बस तुम्हारे साथ जीता हूँ ..
क्यों कि तुम पास हो मेरे हमेशा ..हमेशा

--------.

कविता का जन्म

दिल  अगर  माँ  है .....
तो ....दिमाग  पिता  है ...
आत्मा  है ....विचार ...
इन तीनों का  संगम होता है ...
तो… तो…. कविता जन्म लेती है ...
 
दिल मह्सूस करता है ......
दिमाग उस पर गहराई से सोंचता है ...
तब विचार आते  हैं    घनीभूत होते हैं .....
और ...कविता ...जन्म  लेती  है ....
 
दिल का  संवेदन शील  होना ....
दिमाग की सही सोंच ..साफ़ सुथरा होना ......
तब उत्तम  विचार   आतें हैं ..
और ...उत्कृष्ट  कविता  जन्म लेती है ..
 
कविता ..बनाई नहीं जाती ......
ज़बर्दस्ती सुर ताल से     सजाई नही जाती ..
तो वोह कविता ..बेहतर  होती ...है
क्योकि वोह कवि के हृदय से जन्म लेती है
 
मैं  हँस ....देता हूँ ...जब कोई ...
मुझे कहता है कि उसने ...
कविता बनाई है ..क्योंकि कविता ......
विचार की प्रतिरूप है और .....
उसी से जन्म लेती है ..
 
अतः कविता को निर्झर बहने दो
उसे अपने ढंग से चलने दो ..
पहिनाओ मत ..उसे मात्राओं की बेड़ियाँ ..
मत बाँधो उसे पैराग्राफो  के घेरे में ...
 
यूँ    ही  ...बहने दो निर्झर .......
स्वतंत्र .......उन्मुक्त ......प्रसन्न ...
क्योंकि ओरिजिनल ....ओरिजिनल होता है
और सिन्थेटिक ..........सिन्थेटिक ...
असली का मुक़ाबला ........
.नकली कभी नहीं कर  सकता .....
फिर वोह फैब्रिक हो     घी हो या कुछ और ..
 
अतः निवेदन  है  कविता को ....
कविता ही     रहने दो ...
दिल ...दिमाग ...विचार को ..
अपना ..अपना काम करने दो ...
ताकि कविता ....जिये ....
बन्धनों में घुट घुट कर ...
मर न जाये ....
मर न जाये ....
---.
 
विचार सरिता – बच्चे ने पूछा
 
बच्चे ने पूछा .......
मरने के बाद हम कहाँ जाते हैं ...?
मैंने कहा ........
बेटा हम कहीं नहीं जाते हैं ....
जैसे होल्डर में लगा बल्ब ...
फ्यूज होकर बेकार हो जाता है ...
वैसे ही  ईश्वर  से कनेक्शन कटने पर ..
हम मर जाते हैं ...और हमारा शरीर ...
बेकार होकर ....रह जाता है ....
 
 
बच्चे ने पूछा ...
क्या पाप करने पर हमें ........
ऊपर से दण्ड मिलेगा ....?
हमें मारा जायेगा .....! !
चक्कियों में ...पीसा जायेगा  ....! !
मैंने कहा .......
ऐसा कुछ नहीं होता ...क्योंकि
शरीर तो यहीं ....रह   जायेगा ..
जिसे रीति  अनुसार जलाया या .....
दफ़नाया   .....जायेगा ...
और आत्मा तो  अजर अमर है ..
न उसे कोई मार सकता है ..
न  जला ...सकता  है ..
न ही कोई चक्कियों में पीस सकता है ...
 
 
बच्चे ने पूछा ..
ये स्वर्ग ...नरक ...क्या होता है ...?
क्या हम वास्तव में ........
मरने के बाद ...स्वर्ग .....
या नरक ....जाते हैं ....?
 
मैंने कहा ....
स्वर्ग   और नरक केवल .....
कल्पनाएँ ....हैं   जो आदमी को…
डराने के लिये बनाई गईँ हैं ...
कि आदमी नरक से डर कर ....
गलत ...काम   न  करे ...
और स्वर्ग के लालच में ...
अच्छे काम करे ...
 
बच्चे ने पूछा ...
ईद ..बकरीद पर क़ुरबानी से क्या .....
अल्लाह खुश ...होते  हैं  ?
मैंने ..कहा ...
क़ुरबानी कौन देता है ...
बकरा ...मुर्गा ..या कोई और ..
इसमें अल्लाह कैसे  ख़ुश होंगे ...?
जब आप उनकी ही रचनाओं को. ....
ही मार और नष्ट कर रहे हैं ..
क़ुरबानी का मतलब है ..आप .
स्वयं कुछ कुर्बान करो ...
गन्दी आदतें ...पान की गुटका की ...
शराब की ..सिगरेट की    छोड़ो ....
लालच छोड़ो ..धोखेबाजी छोड़ो ..
धर्म के रास्ते पर चलो ...
सबसे अच्छा बर्ताव करो ...
तब न अल्लाह खुश होंगे ....! ! !
 
बच्चे ने पूछा .....
ये राजनीति इतनी गन्दी क्यों है ..?
क्यों हम अपने बारे में ही सोचते हैं ...
देश के   बारे  में  नहीं ...?
हर व्यक्ति जो राजनीति में है वो ...
धंधा   कर  रहा  है ......?
मैंने ...कहा .....
राजनीति का अर्थ है ....
राजा की नीति यानी देश पर ....
शासन के लिये बनाई गयी नीति ...
जों स्वभावतया जनता के ...
देश के हित के लिये थी ...
पर आज ये धंधा बन गयी ...
सही लोग राजनीति में आते नहीं ..
अतः गलत लोग आकर ...
सब गुड़ गोबर कर रहे हैं ...
इस देश को नुकसान पहुँचा रहे हैं ..
उसे बदनाम कर रहे हैं
 
बच्चे ने पूछा .....
मिलावट क्या होती है ...?
मैंने कहा ........
किसी भी शुध्ध चीज में अशुध्धियाँ मिला दो ....
इसे मिलावट कहते हैं ...
बच्चे ने पूछा ...
जैसे .......?
मैंने कहा ....
जैसे नकली दूध ,नकली दवा ...
अशुद्ध पानी ...अशुद्ध   हवा ..
अनाज में कंकड़  ......
हल्दी में घोड़े   की लीद ...
धनिया पाउडर में लकड़ी का बुरादा ..
आदि ....आदि… बहुत कुछ ..
 
बच्चे ने पूछा ...?
ऐसा लोग क्यों करते हैं ..
इसमें किसका फ़ायदा होता है ....?
मैंने कहा ....
लोग लालची और नादान हैं ..
वे न ...अपना  हित जानते हैं ...
न समाज का और न ही देश का ...
इस मिलावट से फायदा
किसी का नहीं होता ....हाँ
देश और उसकी जनता का ..
नुक्सान होता है ...
 
बच्चा ने पूछा ...कैसे ..?
मैंने कहा .....
यार बड़ा सिंपल है ..
नकली दूध बनाने वाला ...
बाकी नकली चीजों जैसे ..
नकली दवा अनाज मसाले .
अशुद्ध पानी अशुद्ध हवा से ....
बीमार होता और मरता है ..
वैसे ही नकली दवा वाला दूसरी ..
अशुद्ध चीजों से बीमार होता ..
और मरता   है ...
सब कोई  जो बेईमानी और ..
मिलावट करते हैं ...वोह
अपना ....समाज का ...
और देश का बहुत अहित ..
करते ..हैं ...
 
बच्चे ने पूछा ..?
इन मिलावटखोरों को कोई ...
रोकता ..टोकता  या पकड़ता ..
क्यों  नहीं है ....?
 
मैंने कहा ...
इस देश में इन्हें रोकने की ..
संस्थाएं हैं ..सशक्त कानून हैं ..
पर ये रूक नहीं पातीं ....
बच्चे  ने पूछा ..
क्यों ...क्यों नहीं रूक पाती ..?
मैंने कहा ....
अरे भ्रष्टाचार है भाई ..
बच्चे ने पूछा ..
अब ये भ्रष्टाचार क्या है   ?
मैंने कहा ...
लम्बी कहानी है ...मेरे बाप ...
मुझे सोने दो ........
बहुत ..नींद आ रही है ...
बच्चा पूछता ही जा रहा था ........
मैं  पीठ घुमा कर सोने का ..
अभिनय कर रहा था कि ..
अब इसे भ्रष्टाचार के बारे में ..
क्या बताऊँ ये बहुत ..
व्यापक और प्रभावी विषय है
हमारे देश में खूब फल फूल रहा है ..
देश का समाज का बहुत अहित ..
हो रहा है ...पर परवाह किसे है ..?
सभी आमूल चूल इसमें डूबे है ..
अब इस  देश का भगवान ही ..
मालिक है ..उसी की ..कृपा होगी ..
तो यह देश बचेगा ...
वैसे मिलावट का और ..
भ्रष्टाचार का नंगा नाच ..
बेरोकटोक अविरल जारी है
 

कल तो सोने का बहाना कर के बच गया पर बच्चे की
जिज्ञासा ने आज फिर घेरा .........

बच्चे ने पूछा .......
भ्रष्टाचार क्या होता है ....?
मैंने कहा .....
बेटा यह बहुत विशाल और जटिल .विषय है

 
 
----.
 
 
 

अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव


नदियों ने मारा - इंसान हुआ बेचारा

बरसों से नाराज बहुत हैं, एक दिन उफन गई नदियां। कल-कल स्‍वर में बहने वाली, काल बन गई ये नदियां॥

कुछ सज्‍जन के चरण पड़े तो, सब कुछ बंटाढार हुआ। पूँजीपति, नेता, अधिकारी, दोहन करने लगे नदियां॥

कुछ न सोचा बांध बनाए, होटल और उद्योग लगाए। ये भी न देखा चारों ओर से, घिर जाएंगी ये नदियां॥

ब्‍लास्‍ट किए , जंगल काटे, पर्वत अंदर तक हिला दिए। इसलिए सब कुछ काट छांटकर, साथ ले गई ये नदियां॥

अपने अँचल के लोगों को, बड़े प्‍यार से पाला था। धरती से खिलवाड़ किए तो, रौद्र बनी पावन नदियां॥

कितने घर थे, कितने वाहन, कितने पशु, कितने मानव। जो भी राह में आया सभी को, साथ ले गई ये नदियां॥

शिवजी की जो मूर्ति बड़ी थी, लहरें उस पर टूट पड़ीं। भोले का भी भला न हुआ, उसे भी ले गई ये नदियां॥

बांध बने, सड़कें भी बनी, आबादी बढ़ी, सिमटी नदियां। अविरल गति से बहती नहीं, तालाब सी लगती हैं नदियां॥

वन पर्वत,नदियों के आगे, कान पकड़कर माफी मांगे। छेड़ -छाड़ से दुखी हैं पर्वत, आहत होती हैं नदियां॥

स्‍वार्थी मानव की गलती से, धरती माँ भी घायल हैं। उसी का यह परिणाम देख लो, प्रलयंकारी बनी नदियां॥

अपराध किसी का सजा किसी को, न्‍याय नहीं अन्‍याय है। हजारों फंसे मासूमों को, स्‍वर्गीय बना दी ये नदियां॥

दिल्‍ली- देहरादून में चर्चा, हर चैनल पर बहस भी होगी। सही सुझावों पे अमल न होगा, ये भी जानती हैं नदियां॥

बुद्धिजीवी कहलाने वालों, काम किए बेअक्‍ली का। सुधर जायें वरना फिर एक दिन, बिगड़ जायेंगी ये नदियां॥

विवेकानंदनगर मार्ग-3 धमतरी (छत्तीसगढ़) 9009051554/07722-232233

 

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. राकेश भाई ,रामदीन भाई, मोतीलाल जी ,अमरीक सिंह जी , सी,बी. श्रीवास्तव जी , चन्द्रेश भाई , उमा जी , राधे श्यम जी ,डाक्टर चन्द जी , अखिलेश चन्द्र जी , और अखिलेश कृश्ण श्रीवास्तव भाई जी , आप सब की रचनायें बहुत अच्छी लगी , खास तौर पर बाढ़ के उपर लिखी गई और् ( दोहे राजनीतिक )! सब को बधाई !!

    जवाब देंहटाएं
  2. Akhilesh Chandra Srivastava9:57 pm

    sabhi kavitayen achchi hain aur kaviyon ke man ki sahi bhavna darshati hai unki is desh ke prati manavata ke prati chinta ko bayaan karti hain unhon ne jan kalyan ke liye likha apna hridaya khola par pathkon se badi shikayat hai ki vo tipadeen dene me bahut kanjoosi karte hain yadi ve hame hamare likhne par apni tipadiyan sahi sahi dengen to hame utsah bhi milega aur sahi alochana se apne ko sudharne ka mauka bhi milega atah tipaddiyan avashya den yeh vinti hai

    जवाब देंहटाएं
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आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: सप्ताह की कविताएँ - क्या पच्चीस पैसे की भिंडी से भी कमतर हो गया है आदमी ?
सप्ताह की कविताएँ - क्या पच्चीस पैसे की भिंडी से भी कमतर हो गया है आदमी ?
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