यशवंत का आलेख - जनगीतों का लोकमहत्‍व

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जनगीतों का लोकमहत्‍व आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कहा था - ‘‘लोक शब्‍द का आर्थ जनपद या ग्राम नहीं हैं, बल्‍कि नगरों और गांवो में फैली ...

जनगीतों का लोकमहत्‍व

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कहा था - ‘‘लोक शब्‍द का आर्थ जनपद या ग्राम नहीं हैं, बल्‍कि नगरों और गांवो में फैली हुई समस्‍त जनता है जिनके व्‍यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं है'', पोथियां मात्र सैद्धांतिक है, जिन्‍हे जबरदस्‍ती से लागू किया जाता है, परंपरा में पोथियां विप्रोसंग थी ? समार्थ पोथियां व्‍यवहारिक ज्ञान केंद्र नहीं है, लिखित साहित्‍य से व्‍यवहारिक ज्ञानबोध हो, निश्‍चित वह लोकसाहित्‍य होगा । कदाचित का सवाल ही पैदा नहीं होता । संस्‍कृत ग्रंथन मे व्‍यावहारिकता नहीं, कारण जनता के व्‍यवहार में नहीं, तो संस्‍कृत ग्रंथन पांडित्‍य का है जब तक व्‍याख्‍याकर्ता उपलब्‍ध न हों फलतः लोकलाभ नहीं लोक व्‍यावहारिकता जन-जन तक शीघ्रताशीघ्र पहुचती है परंपरा में संस्‍कृत ग्रंथन क्षिज हाथों रहा । यों कहें उनके लिए ही शिष्‍ट रहा । जाहिर है, अद्विजों के विरोध में न होकर अव्‍यवहार में तो रहा ही ! महत्‍वपूर्ण तथ्‍य यह कि यादवकुल के कृष्‍ण ने ‘‘गीता'' रची । परंपरागत अर्थो में वह शूद्रों में शामिल था और है, शूद्रों को पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं था, तब भी ‘‘गीता'' को क्षिज स्‍वीकार तो करते ही है । क्‍यों ?

परतंत्र भारत से अपढ़-पढ़न्‍तुओं में निम्‍न शेर आज तक प्रसिद्ध है -

सर फरोशी की तमन्‍ना अब हमारे दिल में है

देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।

लोक इसका इस्‍तेमाल इन्‍कलाब में करता ही हैं, जनता के कवि जनकवि होते है । छत्‍तीसगढ़ का प्रसिद्ध लोकगीत ‘‘छत्‍तीसगढ़ भैया मोर धान के कटोरा.......'' जिस जनकवि का है, लोक में अनेकजन को मालूम नहीं, पर छत्‍तीसगढ़ीयों की जबान पर रच बस गया है । छाया हुआ है । जीवनयदु का उक्‍त जनगीत अब लोकगीत स्‍वरूप जनमानस में समा गया । लिखित साहित्‍यिक गीत फनकारों की कला द्वारा आधुनिक इलेक्‍ट्रानिक साधनों से जनता तक पहुंचकर लोकगीत निर्माण कर लेते है, जैसे लक्ष्‍मण मस्‍तूरिहा का गीत ‘‘मोर संग चलत रे, मोर संग चलत गा.....'' इलेक्‍ट्रानिक साधनों में सिमटकर साहित्‍यिक परंपरा में आ चुके है । गांवों-कस्‍बों-नगरों में छत्‍तीसगढ़ी पारंपरिक लोकगीत, पर्वों में आधुनिक साधनों से सुने जाते हैं, तात्‍कालिक गायन नहीं होता । शिक्षित-युवक युवतियां पूर्वजों की धरोहर ग्रहण करने तैयार नहीं ? फिर भी, शोषण-अन्‍याय विरोध में पुनः जनगीत फूट पड़ते है, राग रंग अलग होकर रहता है, परंतु जनता मुख पर विराजमान होता जाता है, यदि लिखित साहित्‍य में जनभावना के गीत आए तो उसे लोकहित-लोकगीत स्‍वीकारने में क्‍या हर्ज हेागा? -

भाग्‍य इंग्‍लिश से बंधा है,

लो नहीं इंग्‍लिश पढ़ा है,

लोग कहते हैं गधा है ........ ।

गांव-गांव अंग्रेजी स्‍कूल इसी कारण खुल गए ! देशभक्‍ति में लोकहित छुपा रहता है, यह सर्वोपरि होता है ।

भेद बढ़ाते मंदिर मस्‍जिद, मेल बढ़ाते विद्यालय

ध्‍यान कराते मंदिर मस्‍जिद, ज्ञान कराते विद्यालय

धर्म जाति से ऊपर उठकर, देश बनाते विद्यालय ।

लिखित साहित्‍य में लोक विद्यमान है तो वह लोकसाहित्‍य नहीं है ? लोकरेखांकन लोकहित करे वहीं लोकसाहित्‍य है चाहे वह वाचिक, मौखिक, श्रुति परंपरा में हो अथवा लिखित पन्‍नों के समुदाय में बंधा हो ! ‘‘श्रेष्‍ठ साहित्‍य वहीं होता है, जो साहित्‍यकार की सच्‍ची अनुभूति से उपजे और रचनाकार के साथ जन मन में गहरे पैढ़ जाए ।''

बहिष्‍कृत जनसमुह को अबहिष्‍कृतों का साहित्‍य ‘‘जन-मन'' जैसा गहरा पैठ नहीं कर पाता, फलतः उसका विरोध करते है, सवाल खड़े करते है, अभावबोध को भावबोध में बदलनेवाले समुह ही वास्‍तविक लोक है, भावबोध में बदलने वाला समूह ही वास्‍तविक लोक है । भावबोध में तर्क, वैज्ञानिक सोच बहस कार्यरत रहते हैं, और संघर्ष पृष्‍ठभूमि की आधारशिला तैयार होती है, उत्‍पादनकर्ता की भावबोध चेतना निरन्‍तर चलती है, इन्‍हें दबाने की भरपूर कोशिशें लगातार जारी रखते है, पूंजीपति फिर ज्‍वाला फूटता है । यह ज्‍वाला लोकबचाव पक्ष में प्रकाशित होती है-

क्षण-क्षण उलट-पलट करने से

जनता के सचेत रहने से

जनता अंध न्‍याय भी करता

प्रबल विरोधी दल बनने से

40 प्रतिशत किसानी छोड़ने मजबूर है । कौन कर रहा है इन्‍हें मजबूर ? मजबूरी का नाम शोषणवादी यार क्रांतिवादी ? इसे करने या दफा होने का ऐलान किनके द्वारा हो रहा है? जबकि 65 प्रतिशत अन्‍न राजस्‍व देश में बरकरार है । लघु किसान किसी भी काल में सुखी नहीं रहे । इसी कारण जनकविता धुआं उठाती है । फिर तो आग एक दिन फैलेगी ही ?

जमींदार कतुआ, अस नोंचे देह की बोटी-बोटी

नौकर, प्‍यादा, औररू कारिंदा ताकै रहै लंगोटी

पटवारी खुश्‍चाल चलातै बेदखली इस्‍तीफा

राजै छुड़की और जुर्माना छिन छिन वहै लतीफा ।

उक्‍त जनगीत (लोकगीत) जैसे उपनिवेश शासन में भी बने । अंग्रेजी शासनकाल में जालफरेब, अत्‍याचार का फासीवाद ‘‘फीजी हिंदी'' में उल्‍लेखित हूआ ‘फीजी' लोकगीत है -

फरंगिया के राजुआ मां छूटा मोर देसुआ हो,

गोरी सरकार चली चाल रे बिदेसिया ।

भोली हमें देख आरकाटी भरमाया हो,

कलकत्‍ता पा जाओ पांच साल रे बिदेसिया ।

डीपुआ मां लाए पकरायों कागदुआ हों,

अंगूठा आ लगाए दीना हार रे बिदेसिया ।

पाल के जहाजुआ मां रोय धोय बैठी हो,

जीअरा डराय घाट क्‍यों नहीं आए हो,

बीते दिन कई भये मास रे बिदेसिया ।

आई घाट देखा जब फीजी आके टापुओ हो,

भया मन हमरा उदास रे बिदेसिया ।

कुदारी कुखाल दीना हाथुआ मा हमरे हो,

घाम मा पसीनुआ बहाए रे बिदेसिया ।

स्‍वेनुआ मा तास जब देवे कुलम्‍बरा हो,

मार-मार हुकुम चलाये रे बिदेसिया ।

काली कोठरिया मां बीते नाहि रतिया हो,

किस के बताई हम पीर रे बिदेसिया ।

दिन रात बीति हमरी दुख में उमरिया हो,

सूखा सब जैनुआ के नीर रे बिदेसिया ।

हिंदी अनुवाद - ‘फिरंगियों के शासन में हमारा देश छूट गया, गोरी सरकार ने चाल चली, हमें विदेशी बनाया, खूब कमाओं, कलकत्‍ता में हमको डिपों में ले जाया गया । हाथ में कागज धराया गया, उसमें हमारा अंगूठा लगाकर हमें गुलाम बना दिया गया । हम विदेशी हों गये, गरीब हो गये, हमारा देश छूट गया, पालनुमा जहाज में हम रो धो कर बैठ गए, जीव भय से कांप रहा था, सोचते थे कि घाट क्‍यों नहीं आ रहा है । कई दिन बीत गए, अनेक माह बीतते चले, इस तरह विदेशी हो गये, जहाज किनारे लगा तो देखा कि वह फिजी का घाट था, मन में भय उत्‍पन्‍न हुआ, जी उदास हो गया, पर क्‍या करते ? हम जो विदेशी हो गए थे । हमारे हाथों में कुदाली-रापा दे दिया गया। पसीना छूटने पर भी धूप में कार्य करते-करते विदेशी हो गए, गोरे हमें त्रास कर देते थे, मार ,खा खाकर कार्य करते हुए हम विदेशी हुए, अंधियारीयुक्‍त धरौंधो में रखा जाता था, रात नहीं गुजरपाती, हम अपना दुख किसे बताएं, परदेश में, कष्‍टों में हमारा दिन-रात व्‍यतीत होता रहा । इसी तरह पूरी उम्र गुजर गई, रो-रो के नैन सुख गए, आंखों में आंसू कैसे रहते, जब शरीर में पानी नहीं रहा, इस तरह हम परदेशी हो गए ।

भारतीय बिदेसिया नाटक में पति कमाने जाता है, पत्‍नी रोकती है, पर अंग्रेज स्‍त्री-पुरूषों को आर्थिक लालच देकर परदेश में (फीजी) दाखिला करवाते है, लोक नहीं लौटता । अपनी मातृभूमि में । वहीं के होकर रह जाते है । मधुमक्‍खी छाते की तरह अपनी कड़वी यादों का कड़वी मिठास देकर उक्‍त लोकगीत की सृष्‍टि कर लेते है, जिसमें पूर्व वर्तमान भविष्‍य की दूर-दृष्‍टि झलक पड़ती है, आजाद प्रशासनिक देशों में हालात आज और भी बदत्‍तर है । सस्‍तादर से मौलिक उर्जा नष्‍ट हो रहीं है, महंगादर जीवन नष्‍ट कर रहा है । सस्‍ता दर अनाज जल-जंगल जमीन बचा पायेगा ?जमीन-जल-जंगल अंधिकारों के प्रयोजन में जनसंघर्ष कायम हो गया । एक स्‍वयं से, दुसरा कंपनियों से तीसरा प्रशासनिक रियासतो से हक हेतु संघर्ष नाजायज है ? झारग्राम (पं. बंगाल) की सभा में सिलादस्‍य चौधरी के प्रश्‍न पूछने पर (बेलपहाड़ी में 8 अगस्‍त 2012) मंत्री ने चौधरी को तथाकथित माओवादी बताते हुए उसे पूलिस को गिरफ्‌तार करने के निर्देश दिए गए । लोककवि का हृदय ऐसे ही माहौल से उमड़-घुमड़ कर शब्‍दों की झड़ी लगाता है -

चारों ओर से घेरने बा पापी दुश्‍मनता, जाग भइया, अब कइसे बांची जनता, जाग भइया।

हमनी का रोटी-बेटी भइल सब निलामता, जाग भइया, अब कइसे बांची जनता, जाग भइया।

सुतले सुतल बीतल पुरूखन के उमरिया, जाग भइया, अब तोहरे कान्‍हीं भखा जाग भइया।

कहिए से घेरने बिआ कारी ई बदरिया, जाग भइया, फार जुलुम के अन्‍हरिया, जाग भइया ।

हिंदी अर्थ - ‘‘कमजोर तबके के लोगों को चारों ओर से जमींदार सामंतरूपी दुश्‍मन घेर लिए है, ऐसे में अपनी जान बचाना भी मुश्‍किल है, इसलिए सभी शोषित भाई लोग जाग जाएं हम लोगो क धन और धर्म दोनों निलाम हो चुका है । रोटी भोजन का और बेटी इज्‍जत का प्रतीक है । दोनों दांव पर लगी है । इसलिए जब जाग जाना है । हम लोगो के पूर्वज सोए रहें, उन लोगो पर बइंतहा अत्‍याचार सामंतों का होता रहा, अब पूर्व में हुए जुल्‍म और अत्‍याचार समाप्‍त करने की जिम्‍मेदारी हम लोगो के कंधों पर है । इसलिए अब जाग जाना है, यह संकट और विपत्‍ति का बादल बहुत दिनों से दलित वर्ग के लोगों को घेरे हुए है । अब इस जुल्‍म के घोर अंधकार को फाड़ देना है, हे समाज के शोषित भाइयों जाग जाओ ।''

‘‘लोक में जनजागरण होना, परलोक जीवियों को रास नहीं आता, शोषणवादियों की छबी धूमिल होने लगती है । लोकपथ प्रति तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते है । मंडलाधिकार विरोध में रामबावरी मस्‍जिद दहा दी जाती है, धर्म उन्‍माद फैलाया जाता है । झूठे केस में लोक संतप्‍त होता है, जन जागरणकर्ता शहादत में तब्‍दील भी होते है, दलालपक्ष अपनी समानांतर सियासतें अपनी व्‍यवस्‍था तहत स्‍थापित करते रहते है, दोनों पक्षों में आम नागरिक पीसता जाता है, इन्‍हीं के बदलाव हेतु शब्‍द, परिवर्तन हेतु अर्थ, जनसम्‍मुख में छा जाते हैं, गरीब गुरबों किसानों-दलितों-मजदूरों के जनकवि नारायण महतों नाचपार्टी के गवैया थे, उनके जनगीत उभरकर भोजपूरी क्ष्‍ोत्र में संघर्ष प्रेरणा बन गए महतो के शब्‍द जन-जन के मुखों में छा गए -

हमनी के ले ले जाला पापी दुसमनता, जेहलखानता

झूठो के बताके शैतनता, जेहलखानता ॥ हमनी ॥

हमनी के नान्‍ह जात ।

कसहूं कमात खात ।

झूठों के बना के बंईमानता, जेहलखानता ॥ हमनी ॥

साधु के बनाई भेस ।

कि अली जाली लड़ी केस ।

सांसत में परल बा परानता जेहल खानता ॥ हमनी ॥

जोती बोई काटी दाना ।

हाथ में धरा के हथियरवा, जेहल खानत ॥ हमनी ॥

कहेलन नारायण गाई ।

सुनी अब गरीब भाई ।

पुलिस से अब कइसे बांची जानता, जेहल खानता ॥ हमनी ॥

हिंदी अर्थ - ‘‘उक्‍तगीत नारायण महतों ने तब लिखा होगा जब पुलिस उन्‍हें झूठे मुकदमों में फसाकर तथा कथित नक्‍सली घोषित कर दी होगी भाव यह है- हम जैसे निर्दोषों को पुलिस फर्जीमुकदमों में फसाकर जेल ले जाती है । हम लोग छोटी जाती से आते है । किसी तरह कमाते खाते है । और अपनी आजीविका चलाते है । परंतु पुलिस झूठ-मुठ का बेइमान बताकर हम लोगों को जेल में ठूंस देती है । हम लोग ऐसी विकट परिस्‍थितियों में क्‍या करे, कुछपता नहीं चलता, कभी मन करता है कि घर द्वार छोड़कर साधु हो जाए, कभी मन करता है, आखिर भरा-पूरा परिवार छोड़कर कहां भाग जाए ? बेहतर तो यह होगा कि झूठे मुकदमों को भी लड़ा जाए हम लोगो के प्राण परोपेश में पड़े है, हम लाग खेत जोतते हैं । उसमें फसल बोते हैं । फसल का कार्य करते है । बावजूद इसके हमें पकड़ कर थाने में ले जाया जाता है । कारण कि पुलिस हामरे हाथों से हंसिया छीनकर बंदूक थमा देती है और तथाकथित नक्‍सली घोषित कर देती है । कवि नारायण सभी गरीब भाइयों को सुना कर गाते है कि, आखिर हम लोगों की जान पुलिस की ऐसी तिकड़मबाजी से कैसे बचेगी ।

इज्‍जत रोटी के लिए संघर्ष अपराध की श्रेणी में आता है ? नारायण महतों की चर्चा महादवेता देवी ने मास्‍टर-साहब उपन्‍यास में की है मिथक है नारायण महतों जनता बीच गा रहे रहे थे, पुलिस ने आक्रमण किया, गोली मार दी, जनकवि संघर्षगीत गाते-गातै शहीद हो गए । जनसंघर्ष हको हेतु ही उभरता है कुचल कैसे दिया जाता है ? लोकतंत्र में लोकाधिकार पर नियंत्रण कैसे? किसका है? शोषक लोक के जिंदा रहते जनकवि आयेंगे-जायेंगे । जन-जन मुखों से दुहराये जायेंगें । लिखित-अलिखित शब्‍दों को जन-जन द्वारा गाया जाना जनगीत-लोकगीत, लोक साहित्‍य तो होगा ही !

यशवंत

शंकरपुर वार्ड नं. 7

गली नं. 4

राजनांदगांव 491441

 

संदर्भ -

1. कन्‍नौजी लोकसंस्‍कृति और लोकगीत-कृष्‍णकांत दुबे आजकल अगस्‍त 2012

2. मेरा बचपन मेरे कंधो पर (आत्‍मकथा) श्‍योराज सिंह बैचेन । वाक्‌ अंक-11, 2012, पृष्‍ठ 24

3. वहीं पृष्‍ठ 21

4. मच्‍छकटिक मे चित्रित सामाजिक राजनीतिक यथार्थ किरण तिवारी आजकल अगस्‍त 2012 पृष्‍ठ 36

5. ये जिंदगी कौन की ....... दिनेश त्रिपाठी ‘शम्‍स' आजकल अगस्‍त 2012 पृष्‍ठ 29

6. वहीं

7. हिंदी में विदेशी शैलियां विमलेश कांति वर्मा हिंदुस्‍तानी जवान, (मुंबई) अप्रेल जून 2012 पृष्‍ठ 12,13

8. नई दुनियांरायपुर संस्‍करण दिनांक 18.4.12

9. भोजपूरी के दो प्रमुख गीतकार - राजेन्‍द्रप्रसाद सिंह 2. भोजपूरी के तथाकथित नक्‍सली कवि नारायण महतों - लोकरंग- 2, 2011 पृ. 112

10. वहीं पृष्‍ठ 111

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रचनाकार: यशवंत का आलेख - जनगीतों का लोकमहत्‍व
यशवंत का आलेख - जनगीतों का लोकमहत्‍व
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